हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा
रिश्ते—(अध्याय—16)
रिश्ते—(अध्याय—16)
ओशो के
भारत चले जाने
के बाद मैंने
लंदन में एक
माह
प्रतीक्षा
की। फिर मुझे
लगा कि भारत
में प्रवेश
करने का
प्रयत्न
सुरक्षित
होगा। विवेक
दो महीने पहले
ही चली गई थी।
उसने मुझे बताया
कि जब मेरे
भार आने की
तिथि आई तो
उसने ओशो से
कहा कि मेरे
बारे में कोई
समाचार नहीं मिला
और वह चिंतित
थी कि मैं
पहुंची हूं या
नहीं। ओशो बस
मुस्कुरा
दिए। मैं पहले
ही पहुंच चुकी
थी।
ओशो सूरज
प्रकाश के घर
में ठहरे हुए
थे। कई वर्ष
पुराने संन्यासी
है। वे
रजनीशपुरम भी
आए थे। ओशो के
भारतीय संन्यासी, जो
रजनीशपुरम
में उनके साथ
रह चुके है।
कुछ इस तरह
परिपक्व हो
गए है कि वे
भारतीयों से
सर्वथा भिन्न
लगते है। वे
पूर्व और पश्चिम
का एक आदर्श
मेल है—नया
मनुष्य
जिसकी ओशो ने
चर्चा कि है।
ओशो सायं
लगभग सौ संन्यासियों
के समूह को
प्रवचन देते
थे। लेकिन यह
समूह बढ़ने
लगा जैसे-जैसे
पश्चिम से
सन्यासी आने
लगे। उनमें से
बहुत से ऐसे
थे जिन्होंने
ओशो के अमरीका
से चले जाने
के बाद उन्हें
नहीं देखा था।
प्रवचनों को
शीर्षक गया ‘बियॉंड इनलाइटमेंट’ (बुद्धत्व
के पार) क्योंकि
मुझे अभी तक
भी समझ नहीं
आया था कि
बुद्धत्व क्या
है। उसके पास
की मुझे कल्पना
भी नहीं थी।
ये मेरे लिए
एक ऐसा आयाम
था जो मेरे मन
को झकझोर रहा
था उसको
विक्षिप्त
कर रहा था।
मैं अपनी यात्रा
के प्रारम्भ
में ही थी।
फिर ऐसा मुझे
लगता था। इस
समय मिलोरेपा
के साथ मेरा
प्रेम-सम्बंध
मेरे मन परा
हावी था। अत:
बुद्धत्व के
मार्ग से हटकर
मैं ‘सम्बन्धों
की घाटी में
देर रही थी’ इस सब
में मैं समझने
की कोशिश कर
रही थी कि ओशो
ने मेरी कैसे
सहायता की। इसमें
ऐसा क्या है
जो एक स्त्री
और पुरूष को
पागल कर रहा
है इतना चलने
के बाद भी ये आकर्षण
मुझ पर हावी
हो रहा था।
मुझे क्यों
अपने पागल पन
में झकझोर जा
रहा था।
सैंकड़ों
प्रवचनों ओर
दर्शनों में
ओशो ने सम्बन्धों
को लेकिर
हमारी समस्याओं
के विषय में
चर्चा कि है। पाश्चात्य
शिष्यों के
लिए शायद यह
सबसे बड़ी
अड़चन है। और
यह वह क्षेत्र
है जहां हमारी
ऊर्जा भटक जाती
है। और हम
बार-बार एक ही वर्तुल
में घूम कर आ
जाते है। पूना
के आरंम्भिक
वर्षों में
प्रत्येक
रात्रि दर्शन
के समय प्रेमी
जोड़े ओशो के सामने
बैठ कर अपनी
समस्या
बताते। तब
मुझे उन पर
इतना आश्चर्य
नहीं होता था।
और मैं देखती
थी कितने कम संन्यासियों
को इस समस्या
ने घेरा है।
ये हमारी जीवन
शैली पर
निर्भर करता
है। हम किसी
समाज में आये
है,
हमें किन माता
पिता ने किस
स्थिति में
पैदा किया है।
जिस बीज से हम उत्पन
हुए है। वह
किसी धरती में
और किस स्थान
और स्थिति
में रोपा गया
है। ये सब
सोच-सोच कर
मेरा दिमाग फट
जाता था। ओशो
हमारी समस्याओं
किस धैर्य पूर्ण
सुनते थे। और
कितने प्रेम
से हमे समझाते
कि हम इस में हीनता
महसूस ने करे।
और कैसे हम इस
के पार की एक
झलक देख ले।
मैं खुद ओशो
के इतना नजदीक
रहने के बाद
देखती और
महसूस करती
थी। कि उनके पास
कोई सैक्स की
तरंग नहीं है।
उनका प्रेम
इतना शीतल और
रस पूर्ण है।
उसे में किसी
दूसरे पुरूष
में चाह कर भी
नहीं ढूंढ
पाई। हमारा
प्रेम एक वासन
और तनाव से
भरा होता है।
एक उफान की
तरह। और ओशो
का प्रेम ऐ
शीतल अग्नि की
तरह। जो हमे
महसूस तो हाँ
रहा है परंतु
उस में ताप नहीं
है। जिस हम
कल्पना नहीं
कर सकते। कि
अग्नि और शीतल।
ओशो चाहते थे
कि हम अपने
प्रेम सम्बन्धों
को विकसित
करे। उनका
अथाह ऊंचाईयों
पर जाने दे उन
तरंगों पर बैठ
कर हम अनन्त
कि यात्रा पर
चले। वह हमारे
प्रेम का
विकास चाहते
थे। कई बार वह
प्रेमी जोड़ों
को एक साथ ध्यान
करने कि किसी
खास विधि की
चर्चा करते और
उन्हें करने
को कहते।
इन प्रारम्भिक
वर्षों में ध्यान
के साथ मेरी
नई मुलाकात
थी। और मैं
समझ नहीं पा रही
थी। कि यह कैसे
सम्भव है कि
इतनी आसानी से
लोगों की दिशा
बदली जा सकती
है। ध्यान
में मैं इतना
परिपूर्ण और
संतुष्ट
अनुभव करती कि
मुझे दूसरे की
आवश्यकता ही
न महसूस होती
थी। यद्यपि एक
संतुलन की
आवश्यकता
है। क्योंकि
मैंने ओशो को
यह कहते भी
सुना है कि वे
नहीं चाहते कि
हम साध्वीयों
और
ब्रह्मचारी
साधुओं की तरह
जीवन जिएँ। और
फिर स्वभावत:
शरीर का बायोलाजी
का अपना
प्राकृतिक आकर्षण
है जिसका
बुद्धि के इस
विचार से खंडन
नहीं किया जा
सकता। कि ‘मैं ध्यानी
हूं’—मुझे किसी
दूसरे कि साथ
कि कोई आवश्यकता
नहीं है। अगर ब्रह्मचर्य
ओर एकाकीपन की
स्थिति स्वाभाविक
रूप से आ जाए
तो और बात है।
वह स्थिती कौन
ध्यानी नहीं
चाहता। कि वह
किसी के परबस
रहे...वह एक मुक्ति
चाहता है।
परंतु इस
एकाकीपन पर का
प्रत्येक
साधक स्वागत
ही करता है।
और उसे इंतजार
होता है उस घड़ी
का....परंतु
इसमें एक स्वभाविकता
होनी
अनिवार्य है।
एकाकीपन का
समय जो एक से
दो वर्ष तक
रहा स्वाभाविक
था और मैं पून: ‘सम्बन्धों’ के दायरे
में कूद पड़ी।
संम्बधों
की मरी
परिभाषा यह है
कि जब प्रेम
का फूल मुरझा
चुका हो और
प्रेमी अब
जरूरत और मोह
के कारण इस
आशा में
इकट्ठे रह रहे
हो कि वह
प्रेम फिर
प्रज्वलित
होगा। तो इस
दौरान वे
संघर्ष करते
रहते है। तब
यह एक शक्ति
प्रदर्शन का
खेल बन जाता
है। निरंतर
रस्साकशी का
खेल चलता रहता
है। कि दोनों
में से कौन
प्रभावशाली
है। जीत किसकी
होगी।
यह देखने
के लिए अद्भुत
सजगता और साहस
चाहिए। कि
प्रेम कब
मात्र सम्बंध
बन रहा है। और
मित्र की तरह
बिछुड़ने का समय
आ गया है।
मेरे लिए
सबसे अधिक
महत्वपूर्ण
बात है
समग्रता से
जीना,
अपनी आंतरिक
गहराइयों में डुबकी
लगाना। तथा स्वयं
को रचनात्मक
रूप से अभिव्यक्त
करना। यदि
किसी के साथ
प्रेम सम्बंध
बनाने से इन सब
में सहायता
मिलती हो तो
मैं इसमें
परहेज नही
करती। मेरा
प्रयत्न यह
कदाचित भी
नहीं है कि
मैं इसका
समाधान हूं कि
दो व्यक्ति
कैसे इकट्ठे
रह सकते है।
मैं उस विवाह
को भी कोई
मूल्य नहीं
देती जो ‘स्वर्ग
से पूर्व
निर्धारित’ किया गया
है। और
सदा-सदा चलता
है। क्योंकि
मैं समझती हूं
कि यह असम्भव
हे। सम्भव है
कि जगत में
इसका अपवाद हो, लेकिन मेरी
ऐसे लोगों से
मुलाकात नहीं
हुई।
अतीत में
और आज भी मठों
में रह रहे
साधक प्रेम और
यौन-संम्बधों
का त्याग
करते है। उन्होंने
स्वयं को स्त्री-पुरूषों
के संम्बधों
से काट दिया
है। और मैं
समझती हूं कि
उन्होंने
ऐसा क्यों
किया है। जब
भी मैं किसी
के प्रेम मैं
पड़ती हूं तो
एक बेचैनी सी
होने लगती है
सभी भाव-दशाओं
में—क्रोध, ईर्ष्या
ओर वासनाएं जो
मैं समझती
हूं। आकर मुझे
घेर लेती
हूं....ओर वो सब
मेरे चाहने न
चाहने की परवाह
नहीं करता।
मुझे घेर लेता
है। मैं समझती
हूं कि मेरा
मार्ग भी उतना
सही नहीं
है....कहीं तो
कोई दीवार,कोई
रोक....होना
चाहिए....जैसे
भोजन का...कि
कितनी शरीर को
और कब जरूरत
है.....शायद ये
समझ ध्यान और
होश से ही आती
है।....
1978 में एक बार
एक दर्शन में
मैंने ओशो से
पूछा कि मेरी
मुख्य
विशिष्टता
क्या है।
मैंने ओशो को
कहते सूना था
कि गुरूजिएफ
के अनुसार व्यक्ति
की
अंतर्यात्रा
तभी प्रारंभ
हो सकती है जब उसे
अपनी मुख्य
विशिष्टता
का पता हो। और
मैं सवय इसे
जानने में
असमर्थ
हूं.....अत: मैंने
उनसे सहायता
मांगी। ओशो ने
उत्तर दिया:
‘तुम्हारी
जो एक अच्छी चरित्र
गत विशेषता है, वह प्रेम
है। अंत: स्मरण
रखना क्योंकि
प्रेम महा
पीड़ा भी दे सकता है
और महा सूख भी
दे सकता है।
व्यक्ति को अत्यंत
सजग होना
पड़ता है। क्योंकि
प्रेम हमारा
मूलभूत रसायन
है। केमिस्ट्री
है। यदि व्यक्ति
अपनी प्रेम
ऊर्जा के
प्रति सजग है, तो सब कुछ
भली-भांति
चलता है। तुम्हारी
विशिष्टता
अच्छी है।
लेकिन प्रेम
के प्रति अत्यंत
सचेत होने की
आवश्यकता
है। सदैव अपने
से ऊंचे को, अपने से
महान को प्रेम
करो। तब तुम्हें
कभी झंझट नहीं
होगा। तुम
नहीं
फंसोगे...इस चक्रव्यूह
में जो तुम्हें
अतृप्ति
देता है।
हमेशा अपने सक
बड़े से प्रेम
करना चाहिए।
लोग अपने से
छोटे से प्रेम
करते है। तुम
अपने से छोटे
पर नियन्त्रण
रख सकते हो।
और अपने से
निकृष्ट के
साथ तुम बहुत
अच्छा महसूस
करते हो। क्योंकि
तुम अपने को
उस हालत में उत्कृष्ट
समझते हो।
तुम्हारे
अंहकार की
तृप्ति होती
है। और एक बार
अपने प्रेम से
तुमने अंहकार
निर्मित करना
शुरू कर दिया
तो तुमने सुनिश्चत
रूप से अपना
नर्क तैयार कर
लिया।’
‘श्रेष्ठ
से प्रेम करो, बड़े से,
कुछ ऐसे से
प्रेम करो
जिसमे तुम समा
सको। और जिसे
तुम अपने
नियंत्रण में
न रख सको।
केवल तुम उसके
वशीभूत हो
सको। लेकिन
तुम उसे वश
में न कर सको।
तब अहंकार
विसर्जित हो
जाता है। और
जब प्रेम
निरहंकार
होता है तो
प्रार्थना बन
जाता है।’
यह उत्तर
मुझे अत्यंत
रहस्यपूर्ण
लगा और मैंने
इसका अर्थ यूं
समझा कि मुझ
अपनी चेतना
प्रेम के
प्रति जगानी
पड़ेगी। उस
ऊर्जा के
प्रति जिसका शारीरिक
आकर्षण से
संबंध नहीं
है। प्रेम को
ही प्रेम करना
है। क्योंकि
यह ऊर्जा
मुझसे कहीं
विराट है। और
मैं प्रेम को
छू भी नी सकी
थी। उसे
प्रभावित या
नियंत्रित भी
न कर पाई थी।
इसे मुझे अपने
में समा लेना
है। यह उत्तर
इस समय मेरी
समझ से परे
था। मुझे अभी
इसमें प्रौढ़
होना है।
मैंने
कितने ही वर्ष
ओशो के साथ
अत्यंत
प्रसन्नतापूर्वक
बिताए है।
बिना किसी
प्रेमी के और मुझे
लगने लगा कि
यह सब कुछ
समाप्त हो
गया। ये सुख
और शांति से
भरे वर्ष थे।
लेकिन परतों पर
परतें उतरती
रही उन
गहराइयों को
प्रकट करते हुए
जहां तक वासना
की जड़ें जाती
है।
पहले ही
सप्ताह जब
रजनीशपुरम
पहुंची तो मैं
एक भुसौरा
(बार्न) के पास
खड़ी थी जहां
एक पिक आप
ट्रक आकर रुका
और उसमे से
लगभग एक दर्जन
पुरूष उतरे।
और वह उस और
चले गये जहां
हमारे खान पान
की व्यवस्था
थी। उन सबने
काऊबॉय हैट
पहने थे। नीचे
जींस और बूट
पहन रखे थे।
लेकिन उनमें
से एक बिल्कुल
अलग सा था।
मैं उसकी पीठ
ही देख पाई।
लेकिन जिस तरह
से वह चल रहा
था.....मैं उसके
प्रेम में पड़
गई। उसका नाम
मिलारेपा था।
और उस दिन लंच
के बाद हम
पहाड़ों के
बीच सैर के
लिए निकल गए
और चाय के समय
के बाद ही
लांड्री रूप
में पहुंची।
यह सात साल के
असम्भव
सपनों की
शुरूआत थी।
मिलारेपा
को स्वतंत्रता
का बोध
था जिसके लिए
मैं तरसती रही
थी। लेकिन
अपनी ही
जैविकी से
ग्रसित होने
के कारण मैंने
अपने भीतर
नहीं झाँका।
मैं सदैव उसे
पकड़ने ओर
संभालने का
प्रयत्न
करती रहीं जो
स्वयं के
बाहर है। और
उसने मुझे खूब
नचाया। उसे स्त्रियों
से बेहद प्यार
था—कई स्त्रियों
से और मैंने
स्वयं को
पूर्णरूपेण
उसमे
केंद्रित व
खोये पाया।
मुझे मालुम था
कि मैं उसके
मोह में फंस
चुकी हूं। परंतु
में इस सम्बंध
में कुछ भी कर
पाने में
असमर्थ थी।
कभी-कभी
पुरानी
पहाड़ी पर
उसके घर की और
जाते हुए,कीचड़ और
बर्फ से सनी
ढलान, जहां
पर वह रहता था, पर चढ़ते
हुए मैं स्वयं
से कहती ‘ऐसा
मत करो,
उसके घर मत
जाओ।’
लेकिन आत्म
विस्मृति सी
मैं
संकटपूर्ण स्थिति
से दूसरे की
और बढ़ती
जाती।
ओशो को
विवेक से मेरे
प्रेम-संबंध
का पता चला और
एक दिन प्रवचन
में उन्होंने
कहां...चेतना
का एक ब्वाय फ्रैंड
है
मिलोरेपा...मिलारेपा
महान।
मिलारेपा स्त्रियों
का मन मोह
लेने
वाला....रसिक।
निरंतर स्त्रियों
को माह लेने
वाला। और मैं
उसे पहचानता
तक नहीं।
मज़ाक करते
हुए उन्होंने
कहा कि
कार-भ्रमण के
दौरान में
हमेशा उसे
खोजता रहता
हूं—ऐसा स्त्रियों
को घायल
करनेवाला—ओशो
उसे देखना
चाहते थे।
लेकिन हमेशा
उससे चूकते
जाते थे।
यह
मिलारेपा कौन
है? उन्होंने
पूछा, ‘निश्चित
ही यह लॉर्ड बायरन
जैसा व्यक्ति
है। क्योंकि
इतनी स्त्रियों
के साथ सम्बंध
होने पर भी
कोई स्त्री
उससे नाराज
नहीं होती। वे
सब इस बात को स्वीकार
करती है कि उस
अधिकार नहीं
जमाया जा सकता।’
ओशो के इस
परिहास के
परिणामस्वरूप
मेरा सबसे
बड़ा भय कि
कोई और स्त्री
मिलारेपा को
मुझसे छीन न
ले। और भी बढ़
गया। कम्यून
की सभी स्त्रियां
यह जानने के
लिए उत्सुक
हो गई कि यह व्यक्ति
कौन है।
वर्षों बाद भी
स्त्रियां
मिलारेपा के
पास आती रहती।
अच्छा तो तुम
हो मिलारेपा, मैं कब से
तुम्हें
मिलना चाहती
थी।
जब भी मैं
अकेले में ओशो
से मिली, उनके लिए
चाय लेकिन गई
या कार....भ्रमण
पर उनके साथ
गई, वे
मुझसे पूछते
कि मिलारेपा
कैसा है। वे
मुस्कुरा
देते। जब मैं उन्हें
उसके नए संम्बधों
और अपनी व्यथा
के बारे में
बताती। कई बार
में ओशो से
पूछती, ‘क्या मैं
उसके साथ नाता
तोड़ दूं....वे
हमेशा न कहते।
एक बार जब
मैंने पूछा तो
उनहोंने कहा कि
नहीं, क्योंकि
मुझे उसकी याद
सताएगी।
मैंने उत्तर
दिया कि मैं
अधिक समय तक
उसके अभाव को
महसूस नही
करूंगी। इस पर
वे बोले, ‘लेकिन वह
तुम्हारी
आवश्यकता को
अनुभव करेगा....।’ मैं क्या
करती। मैं
अपनी ज़िद से
एक ही पुरूष
के साथ कुछ से
गुजर जाना
चाहती थी। साथी
बदलने में
मुझे कोई अर्थ
दिखाई नहीं
देता था।
हनीमून मनाना
और फिर उस सब
समस्याओं का
सामना करना।
मैंने ओशो को
कहते सुना था
कि समस्याओं
का समाधान
भीतर खोजना
चाहिए।
प्रेमी बदलने
से समस्याएं
नहीं बदलेगी।
यह
बिल्कुल ऐसा
ही है जैसे
पर्दे को बदल
दिया जाए। जबकि
प्रोजेक्टर
और फिल्म
वहीं है। अत:
तुम पर्दे को
बदल सकते हो।
हो कसता है
पर्दा बेहतर
हो। बड़ा हो, लेकिन इससे
कोई विशेष
अंतर नहीं पड़ेगा।
क्योंकि
प्रोजेक्टर
भी वही है और
फिल्म भी
वहीं है।
तुम ही
प्रोजेक्टर
हो और तुम ही
फिल्म हो। तो
तुम भिन्न
पर्दे पर वही
कुछ
प्रक्षेपित
करोगे। पर्दे का
इससे कोई सम्बंध
नही है। एक
बार तुम यह
समझ लो कि तुम
समस्त जीवन
को एक माया की
भांति, एक जादू के
खेल की भांति
देख पाओगे। तब
सब कुछ भीतर
है। समस्या
बाहर नहीं है।
वहां कुछ भी
नहीं करना। तो
सर्वप्रथम व्यक्ति
को यह समझना
है कि कारण वह
स्वयं है। तब
सारी समस्या
हटकर सही स्थान
पर आ जाती है।
जहां से उसे
सुलझाया जा
सकता है;
उसका समाधान ढूंढा
जा सकता है।
नहीं तो तुम
ग़लत दिशाओं
में देखते रह
जाओगे,
किसी
परिवर्तन की
सम्भावना
नहीं।
मेरी समझ
में इसका अर्थ
यह भी नहीं है
कि कोई अप्रिय
सम्बंध को
घसीटता फिरे।
मेरी ज़िद ने
मुझे दुःखी कर
दिया और अब
देखती हूं कि दु:खी
होने का समय
ही नहीं है। मेरा
जीवन इतना
तीव्रता से
अज्ञात की और
जा रहा था कि
कुछ भी घट
सकता है। यह
इतना स्पष्ट
है और फिर भी
हर घड़ी को स्मरण
रखना बहुत
कठिन है। यदि
इसे मैं पल-पल
स्मरण न रखूं
तो जीवन मेरे
हाथ से फिसल
जाता है। में
पीछे लौटकर
देखती हूं और
कहती हूं यदि
केवल मैने याद
रखा होता कि ‘यह भी बीत
जाएगा......’
एक बार
प्रेम सम्बंध
टूट जाने पर
विवेक अत्यंत
अशांत थी तो
मैंने ओशो से
कहा, समय
के साथ वह इसे
भूल सकती है।
उन्होंने
कहा, समय
की आवश्यकता
नहीं है—समय
की आवश्यकता
केवल तब पड़ती
है जब तुम
अतीत में जीते
हो। अगर तुम
वर्तमान में
जी रहे हो तो
तुम अपने दुःख
अभी त्याग
सकते हो।
एक सांझ
में और
मिलारेपा
पहाड़ी पर इकट्ठे
घूम रहे थे।
पूर्णिमा की
रात थी। बादलों
में बर्फ जमा
हो रही थी।
धरती तुषाराच्छादित
थी। वह बहुत
सुहावना समय
था और मैंने
स्वयं को कभी
इतना शांत और
उसके इतना
निकट महसूस
नहीं किया था।
और उसने कहा
कि उस रात वह
अकेला रहना
चाहता है। मैं
हमेशा बंटी
रहती थी। एक
और तो मैं
उसकी प्रशंसा
करती कि जो भी
वह चाहता है
उसे करने का
उसमें साहस है
और दूसरी और उसके
साथ नाराज़
होती थी क्योंकि
मैं ऐसा नहीं
चाहती थी।
हम छ:
महीनों से
इकट्ठे थे और
हमने छुट्टी
पर जाने का
निश्चय
किया। हमने कैलिफ़ोर्निया
में एक महीना
बड़े सुंदर
ढंग से प्यार
से बिताया
जहां इंग्लैंड
से मेरे
माता-पिता भी
आ गए और कुछ
दिन हमारे साथ
रहे। इस भ्रमण
के दौरान
मैंने महसूस
किया कि समाज
के आदर्शों से
मैं कितनी दूर
जा चुकी थी।
अब निस्संदेह
प्रेम के
अतिरिक्त और
कोई सेतु नहीं
था। जो जोड़
सके लेकिन वह
केवल मौन में
ही व्यक्त
किया जा सकता
है। मेरे
माता-पिता ने
मुझे बच्चों
के बारें में
पूछा और मैंने
बताया कि बच्चें
पैदा करने का
कोई प्रश्न
ही नहीं है। वे
बोले,
परंतु हमारा
सारा जीवन बच्चे
पैदा करने के
ही लिए है।
बच्चे जीवन
का सूख है।
मैंने कहा: ‘नहीं,
पहले मुझे स्वयं
को जन्म देना
है। मेरे पास
समय ही नहीं
है। कि मैं बच्चों
के पालनपोषण
में इसे गंवा
दूं।’
मैंने उनसे
कहां की विश्व
भर में वैसे
ही बहुत
जनसंख्या
है। और कुछ
हजारा ओशो के
संन्यासियों
मे यह तो
पाएंगे कि वे
बढ़ती आबादी
में अपना
योगदान नहीं
दे रहे है।
इसके विपरीत
वे जीवन शैली
में गुणात्मक
भेद लाने का
प्रयत्न कर
रहे है। न कि
संख्या
बढ़ाने में।
आपको बहुत कम
संन्यासी
मिलेंगे
जिनके बच्चे
है। आप
देखेंगे कि
संसार में
सारे धर्म परिवार
नियोजन को पाप
करार दे अपनी
संख्या
बढ़ाने में
प्रयत्नशील
है। वे जीवन
को बेहतर
बनाने में उत्सुक
नहीं है। वे
अपने समुदाय
की संख्या
बढ़ाने में
उत्सुक है।
जब मैंने
ध्यान करना
शुरू किया तो
अपनी
मातृ-वृति में
परिवर्तन
देखकर जितना
हैरान मैं हुई, इतना कोई
और नहीं हो
सकता था। बीस
वर्ष की आयु में
मैंने एक बच्चे
को जन्म दिया
था परंतु
अविवाहित
होने के कारण
तथा अर्थिक स्थिति
को ध्यान में
रखते हुए मैं
उस बच्चे को
अपने ढंग से
पालने में
असमर्थ थी। क्योंकि
मुझे उसकी
हैसियत किसी
सम्राट से कम
नहीं लगी थी।
उसे किसी को
गोद देकर मैं
बहुत विह्वल
हो उठी थी। और
अविवाहित
महिलाओं की ईसाई
कौंसलर से
मुझे यही
सुनने को मिला
था कि ‘आशा
है, तुम
इससे कुछ सीख
पाओगी।’
मेरी
मातृ-वृति
बहुत प्रबल थी—जैसे
की ज्योतिषशस्त्री
मानते है कि
कर्क राशि में
सूर्य का होना
इस वृति को
प्रबल बनाता
है। मैंने
निश्चय किया
कि ज्यों ही
मैं आर्थिक
रूप से सक्षम
हो जाऊंगी तो पाँच
बच्चों से कम
बच्चे पैदा
नहीं करूंगी।
अविवाहित या
विवाहित होना
कोई शर्त नहीं
है। गर्भवती
होना व बच्चे
को जन्म देना
मेरा अत्यंत
सुखद अनुभव
है। मैंने स्वयं
को धरती से
जुड़ा तथा अत्यंत
विश्रांत
पाया। मैं
सोचती थी कि
गर्भपात हत्या
है। और बच्चे
को जीने का
अधिकार मां से
पहले है। कुछ दिन
सक्रिय ध्यान
करने के बाद
मेरी
मातृ-वृति इस
तरह तिरोहित
हो गई कि पीछे
कोई
नामोनिशान भी
न छूटा। कोई विचार
नहीं उठा कुछ
भी नहीं। उस
दिन से मेरा ध्यान
इस बात पर
केन्द्रित
हो गया कि मै
स्वयं को जन्म
दे पांऊ। और
मैंने पाया कि
ध्यान में
एकात्मकता
की वही
अनुभूति होती
है जो गर्भावस्था
में होती है।
कम्यून
में रहते हुए
प्रेम सम्बंध
बनाना समाज व
परिवार की
सीमाओं में
रहते हुए
प्रेम सम्बंध
बनाने से कही
अधिक
चुनौतीपूर्ण
और जीवंत होता
है। एक कारण
तो यह है कि मित्रों
का दायरा बड़ा
है और भिन्न-भिन्न
लोग है। इसलिए
दो व्यक्तियों
को जरूरत के
कारण एक साथ
रहने के लिए
विवश नहीं
होना पड़ता।
इतने मित्रों
के बीच जो सभी
अधिक प्रेम
पूर्ण है। और
प्रत्येक व्यक्ति
समझदार है।
अपने दुखों का
त्याग कर
देना आसान हो
जाता है। और
यह जानकर हंसी
आती है कि हम
सब एक ही तरह
की ईष्या और
दूसरों पर
अधिकार जमाने
की प्रवृति से
पीड़ित है।
अगर एक
प्रेम-सम्बंध
टूटता है तो कुछ
ही सप्ताहों
में घाव भर
जाता है। जबकि
बाहरी जीवन में
जहां तुम
अकेले पड़
जाते हो। वहां
वर्षों तक पीड़ा
सालती रहती है।
कम्यून का एक
प्रयोजन यह भी
है कि व्यक्ति
जान जाए कि वह
नितांत अकेला
है। मैं जानती
हूं कि यह
विरोधाभास सा
लगता है।
परंतु ऐसा है
नहीं। कम्यून
मुझे मरा अस्तित्व
मेरा आकाश
लौटाता है और
मुझे समाज के
अनुरूप नहीं
चलना पड़ता।
यदि सबकी
उपेक्षा कर
मेरा भाव मौन
रहने का है तो
वह भी
पूर्णतया स्वीकृत
है।
जब
रजनीशपुरम उजड़
गया, तो
मैं और
मिलारेपा
बिछुड़ गए। हम
एक दूसरे को
बहुत याद करते
रहे। वह उरूग्वे
में हमसे आ
मिला और हमने
पुर्तगाल,
इंग्लैंड और
फिर भारत की
यात्रा एक साथ
की। हमारे संम्बधों
को लेकर ओशो
बहुत कुछ कहने
को मिला। जब
मिलारेपा
उरूग्वे आया
तो ओशो ने
कहा।
जब
मिलारेपा आया
तो मैंने
विवेक से पूछा, क्या वह
अपनी गिटार
लाया है। और
इसके अतिरिक्त
वह क्या करता
है।
उसने उत्तर
दिया,
वह और कुछ
नहीं करता। बस
गिटार बजाता
है। और स्त्रियों
का पीछा करता
है।
मैंने कहा, पूछो कि
वह गिटार लाया
है। तो फिर
उसे गिटार बजाना
प्रारम्भ कर
देना चाहिए।
अन्यथा पूरा
समय स्त्रियों
के पीछे जाना
उसके स्वास्थ्य
के लिए
लाभप्रद नहीं
होगा। तो
कभी-कभी कुछ विश्राम
करने के लिए
वह गिटार बजा
सकता है।
लेकिन वह
अपनी गिटार
साथ नहीं लाया
है। मेरा विचार
है कि तुम्हें
उसके लिए
गिटार का
प्रबंध कर
देना चाहिए....क्योंकि
उसने सब कुछ
खो दिया है।
अब उसके पास
कुछ भी नहीं
है जिसके खोने
की वह चिंता न
कर सकें; अब वह पीछा
ही करता रह
सकता है।
(बियॉंड साइकॉलॉजी)
और उसने
पीछा किया—मिलोरेपा
विवेक की और
आकर्षित हुआ
ओर वे एक रात
एक साथ एकसाथ
रहना चाह रहे
थे। जब ओशो ने
मुझसे पूछा कि
में परेशान क्यों
हूं, और
मैंने उन्हें
बताया तो उन्होंने
मुझसे कहा कि
यदि उनके पास
रहते हुए भी हम
अपने प्रेमियों
को दूसरों के
साथ प्रसन्न रहने
की स्वतंत्रता
नहीं दे
सकते तो हम
संसार के अन्य
लोगों की
भांति ही व्यवहार
कर रहे है।
अगर यहां यह
सम्भव नहीं
हो सकता,
तो फिर कहां
हो सकता है।
उन्होंने
पूछा। इस
साधारण कथन
में छिपे सत्य
ने मुझे झकझोर
दिया और
पलटते हुए
मुझे समझ में या
यूं कहिए कि
सब-कुछ मुझे
सही परिप्रेक्ष्य
में दिखाई
देने लगा। जब
ओशो हमारे साथ
इतने प्रेमपूर्ण
और धैर्यवान
हो सकते है तो
निश्चित ही
मैं कम से कम
इतना तो कर ही
सकती हूं कि शांत
बैठूं और कोई
उपद्रव न करूं
यदि मेरे दो मित्र
समय इकट्ठे व्यतीत
करना चाहते
है।
मैंने स्वयं
को बहुत बार
स्मरण दिलाया
कि मैं ओशो के
पास इसलिए
नहीं हूं कि
विवाह रचा
सकूं या किसी
के साथ आदर्श
सम्बंध बना
सकूं। यदि
मुझे यही करना
था तो उचित था
कि मैं
कॉर्नवाल में
ही रहती। और
किसी भद्र किसान
या मछुआरे के
साथ घर बसा
लेती।
मुम्बई
में छह महीनों
के दौरान
मैंने देखा कि
मिलारेपा और
विवेक दोनों
एक दूसरे से ‘उखड़ा’ हुआ महसूस
कर रहे है।
उरूग्वे के
बाद उन्होंने
एक दूसरे में
कोई रूचि नहीं
दिखाई थी और
विवेक राफिया
के साथ प्रसन्न
थी। लेकिन
राफिया वहां
नहीं था। और
मैंने देखा कि
दोनों
भीतर-ही-भीतर
कुछ दबा रहे
थे। जिसके
कारण वातावरण में
एक तनाव सा आ
गया था। वे
अप्रसन्न थे
इसलिए मैंने
एक रात छुट्टी
मनाई। मैं अपने
एक मित्र के
फ्लैट में
रहने चली गई।
तथा घर नहीं
आई। अगले दिन
दोनों खुश थे।
और हम सब बीच सारा
वातावरण बदल
गया था। मैंने
उन्हें कभी
नहीं बताया कि
मैं जान बुझ
कर चली गई थी।
ताकि उनका
रास्ता साफ
हो सके। और
उन्होंने भी
मुझे कुछ नहीं
बताया लेकिन
यह देखकर कि
छोटी सी बात
से दो मित्र
इतना प्रसन्न
है तो मेरे
जीवन में एक
नई शुरू आत
हुई।
मैंने ओशो
को यह कहते
सूना कि उनके
लोग एक दूसरे
से उनके माध्यम
से जुड़े हुए
है। यह मेरे
प्रेमी का ओशो
के प्रति
प्रेम है जो
मुझे प्रेरणा
देता है। और
प्रेम को गहरा
करता है। आखिर
हम एक ही पथ पर
चल रहे दो
साधक है। हम
राह में मिले, यह तो
बोनस है,
इससे तो अस्तित्व
की अनुकम्पा
प्रदर्शित
होती है।
जब दो लोग
ओशो जैसे
प्रेम से
लबालब भरे व्यक्ति
के प्रेम के भागीदार
हों तो उनके
सम्बंध पहले
ही एक नया
आयाम ले लेते
है। जब कभी ओशो
मिलारेपा के
प्रश्न या
कविता का उत्तर
देते तो वह
मेरे अंतरतम
को छू जाता।
सम्भव है यदि
वह मैंने लिख
होता तो ऐसा
नह हो पाता।
हालांकि
मिलारेपा और
मैं सात
वर्षों तक
इकट्ठे थे।
लेकिन फिर भी
लगातार एक साथ
नहीं रहे।
हमेशा हमारे
रहने के
अपने-अपने स्थान
थे और शायद
यही कारण था
कि हमारा
प्रेम टिका
हुआ था। लेकिन
भारत आने के
बाद हम एक साथ
रहने लगे। और
यह कठिन हो
गया। हम दोनों
एक दूसरे के
साथ वास्तव
में प्रसन्न
भी नहीं थे और
इस स्थिति
में भी नहीं
थे कि अलग
होने की हमारी
कोई इच्छा
हो।
यही श्रेयस्कर
है कि दोनों
का अपना-अपना
स्थान हो और
यह भी निश्चित
न हो कि दोनों
प्रतिदिन एक
दूसरे से
मिलेंगे। एक
प्राचीन कथा
है जो मुझे
अत्यंत
प्रिय है:
‘दो
प्रेमी एक
दूसरे से बहुत
प्रेम करते थे
और प्रेमिका
विवाह करना
चाहती है।
प्रेमी ने कहा
कि वह एक शर्त
पर उससे विवाह
कर सकता है—कि
वह विशाल झील
के दो किनारों
पर अलग-अलग
घरों में
रहेंगे। अगर
संयोगवश हम
मिलते है सम्भव
है नौका विहार
करते हमारा
मिलन हो जाए
या हो सकता है
कि किसी दिन
टहलते हुए
हमारा मिलन हो
जाए तब यह अत्यंत
सुखद होगा।’
ओशो ने यह
कहानी अनेक
बार सुनाई थी।
जब भी मैं इसे
सुनती तो डर
जाती। अब मैं
इसे समझ सकती
हूं—यद्यपि
इसमे समय लगता
है।
मैंने सुना
कि रजनीशपुरम
में एक दिन
ओशो से क्षुब्ध
होकर कहा था: ‘तुममें से
कोई नहीं समझ
पाया है जो
प्रेम के सम्बंध
में मैं तुमसे
कहने का
प्रयत्न कर
रहा हूं।’
पूना लौटने
के प्रथम वर्ष
में ओशो पुन:
अपने प्रवचनों
में संम्बधों
को लेकर हमारे
प्रश्नों के
उत्तर दे रहे
थे। ‘जहां
तक मेरा सम्बंध
है मुझे तुम्हारे
व्यक्तिगत
सम्बंधों
में कोई रुचि
नहीं है। वह
सर्वथा तुम्हारा
अपना दुस्वप्न
है। तुमने
दुःखी होने का
चुनाव किया है—दुःखी
होओ। लेकिन जब
तुम मेरे पास
प्रश्न लेकर
आते हो तो स्मरण
रहे कि मैं
केवल वही
कहूंगा जो एक
निष्पक्ष
दर्शक का सत्य
होगा। संसार
में साधारणतया
ऐसा नहीं
होता। जब भी
तुम किसी के
पास अपने व्यक्तिगत
सम्बंध और
उससे उत्पन
पीड़ा के
प्रश्न को
लेकर जाते हो
तो वह
सांसारिक
रीति से तुम्हें
सान्त्वना
देना है।’
मैं तुम्हारी
सहायता करना
चाहता हूं कि
तुम स्पष्ट
रूप से यक देख
सको कि कैसे
तुम अपना
संसार रच रहे
हो। मेरे लिए
तुम अपना
संसार आप हो
और तुम अपने
संसार के
रचयिता
हो....सबल बनो। साहस
रखो और बदलाहट
लाने का
प्रयत्न
करो।
मैं
चाहूंगा कि
तुम और वैयक्तिक
बनो। और स्वतंत्र
बनो ओर
होशपूर्ण बनो
और ध्यान में
डुबो। और ये
परिस्थितियां
ध्यान के लिए
महान अवसर बन
सकती है लेकिन
अगर तुम कुछ
होते हो, भड़क उठते
हो, स्वयं
को बचाना शुरू
कर देते हो, तो फिर कृपा
करके ऐसे
प्रश्न मत
पूछो। मुझ कोई
रस नहीं है।
तुम्हारे
सम्बंध तुम्हारी
समस्या है
तुम जानो।
‘मेरे
लिए यहां केवल
ध्यान महत्वपूर्ण
है। और यह अत्यंत
विचित्र बात
है: ध्यान के
बारे में तुम
कभी-कभार ही
प्रश्न पुछते
हो। लगता नहीं
की यह तुम्हारा
मुख्य ध्येय
है। लगता है
यह तुम्हारी
प्राथमिकता
नहीं है। तुम्हारे
मन की सूची
में यह प्रथम
नही है। हो
सकता है तुम्हारी
धुलाई की सूची
में यह अंतिम
वस्तु हो
लेकिन निश्चित
ही यह प्रथम
नहीं है। प्रथम
तो
मूर्खतापूर्ण
बातें है। ओछी
बातें, तुम
अपना समय
बर्बाद करते
हो, तुम
मेरा समय
बर्बाद करते
हो।’
एक रात
प्रवचन में
ओशो को यह
कहते सुनने के
बाद कि प्रेमी
जोड़े इसलिए
लड़ते है क्योंकि
उन्होंने
काम-वासना का
दमन किया है।
मुझे लगा कि मुझ
पर इस रहस्य
का उदघाटन हुआ
कि मैं काम
दमित हूं, अंत: अपने
ह्रदय को अपनी
लेखनी में रख
ओशो से एक
प्रश्न में
इस बात को पूछ
ही लिया। उन्होंने
मेरे इस अति गम्भीर
प्रश्न का
उत्तर अधेड़
अवस्था में
पहुंच रही
अंग्रेज
महिलाओं और स्त्रियों
पर चुटकुले
पर
चुटकुला
सुनाकर दिया
और अंत में
प्रश्न को
मजाक में
उड़ाते हुए
कहा कि मेरी
ग़लतफ़हमी का
कारण इतना था
कि मिलारेपा फिर
अपना खेल
खेलने लगा था।
....तुम मेरे
साथ वर्षों से
हो,
कैसे कह सकती
हो कि तुम काम
दमित हो। तुम
मेरा नाम
बदनाम करोगी।
उन्होंने
मेरी परिस्थिति
को हल्का–फुल्का
बनाते हुए
कहा।
मैं बहुत
गुस्से में
थी। अगली सुबह
किसी और के
प्रश्न का
उत्तर देते
हुए ओशो ने
कहा, ‘जीवन
की सब उलझनें
प्रेम की,
सम्बंधों की
हमारे अचेतन
द्वारा
निर्मित की
जाती है। हम
नहीं जानते हम
क्या कर रहे
है। और जब हम
सचेत होते है
बहुत देर हो
चुकी होती है।
जो हम कर चुके
है उसे अनकिया
नहीं किया जा
सकता.......’
अभी कल रात
ही मैंने
चेतना के एक
प्रश्न का
उत्तर बड़े
हल्के-फुल्के
ढंग से, बड़े प्रेम
से,
हंसते-खेलते
दिया। मैंने
उसे हंसी में
उड़ा दिया,
लेकिन वह
नाराज हो गई—मुझे
उसका चेहरा
दिखाई पड़ गया
था। मिलारेपा
भी नाराज था।
तुम नहीं
जानते तुम क्या
कर रहे हो। जो तुम
कर रहे हो वह
प्रात: तुम्हारे
हाथ से बाहर
है। तुम
प्रतिक्रिया
कर रहे हो।
यदि चेतना ने
सुन लिया होता
कि मैं क्या
कह रहा हूं, मैं केवल
इतना ही कह
रहा था। इसे
गम्भीरता से
मत लो। मैं
उसे हंसी में
उड़ा रहा था। लेकिन
वह हंस नहीं
पाई। तम सब
हंस सके क्योंकि
वह तुम्हारी
समस्या नहीं
थी। जितना तुम
हंसते गये उतना
उसे गम्भीर
बना दिया।
प्रत्येक
व्यक्ति के
जीवन
परिवर्तन का
समय आता है।
और सबसे महत्व
पूर्ण बात स्मरण
रखने की यह है
कि जब तुम
जीवन के किसी
ढांचे को कोई
परिवर्तन
लाते हो तो
तुम्हें उसे
सहजता से
बदलना है। यह
तुम्हारे
हाथ में नहीं
है। तुम्हारा
शारीरिक
विकास तेरह या
चौदह वर्ष की
आयु में तुम्हें
सेक्स के
योग्य बनाता
है: यह तुम्हारे
लिए नहीं
होता।
‘एक
विशेष आयु में
जैसे-जैसे तुम
चालीस या
बयालीस के
करीब पहुंचते
हो, जैविक
प्रयोजन
समाप्त हो
जाता है। वे
सब हार्मोन जो
तुम्हें
प्रेरित कर
रहे थे अब वे
मिटने शुरू हो
जाते है। इस
परिवर्तन को
स्वीकार
करना अति कठिन
होता है। तुम्हें
अचानक लगने
लगता है कि अब
तुम सुंदर
नहीं रहे कि
तुम्हें
चेहरे को
संवारे की
आवश्यकता
है।’
‘पश्चिम
निरंतर
प्रकृति पर
आरोपित हो रहा
है इस मांग के
साथ कि चीजें
ऐसी नहीं होनी
चाहिए। कोई बूढ़ा
नहीं होना
चाहता और जब
जीवन के एक
अवस्था से
दूसरी अवस्था
में परिवर्तन
का समय आता है
तो एक विचित्र
घटना घटती है।
चेतना के साथ
वही हो रहा
है। यह होने
की वाला है, मैं इसके
बारे में कहूं
या न कहूं
जैसे मोमबत्ती
अपने अंत तक पहुँचती
है, बस कुछ
ही समय उसके
पास और इससे
पहले कि वह
समय समाप्त
हो जाए,
अंतिम क्षणों
में अचानक ज्योति
प्रखरता से
प्रज्वलित
हो उठती है।
कोई फिर नहीं
चाहता।’
फिर
उन्होने स्पष्ट
किया कि कैसे
वह मरणासन्न
व्यक्ति
अचानक
पूर्णतया स्वस्थ
हो जाता है।
मानों रोग तिरोहित
हो गया हो व
परिजन प्रसन्न
है,
जबकि वास्तव
में वह मृत्यु
सूचक है। वे
जीवन का अंतिम
सत्य है। ऐसा
ही सेक्स के
साथ भी है—अंतिम
प्रयास
इसीलिए मेरा
मन सेक्स से
अभिभूत हो रहा
था।
जब तुम
युवा नहीं रहे
और हार्मोंस
मिटने वाले है।
और सेक्स में
तुम्हारा रस
समाप्त होने
वाला है समाप्त
होने से पहले
यह पूरी शक्ति
से विस्फोटित
होगा।
अगर तुम
मनोचिकित्सक
के पास जाओगे
तो वह कहेगा
कि तुमने
काम-दमन किया
है। मैं ऐसा
नहीं कह सकता।
क्योंकि मैं
जानता हूं कि
सेक्स का यह
अकस्मात ज्वर
स्वयं ही चला
जानेवाला है।
तुम्हें कुछ
भी नहीं करना
है। यह बस एक
संकेत है कि जीवन
परिवर्तन से
गुजर रहा है।
अब जीवन अधिक
शांत और स्थिर
हो जाएगा। तुम
सचमुच एक
बेहतर अवस्था
में प्रवेश कर
रहे हो।
‘..सेक्स
कुछ बचकानी सी
बात है।
जैसे-जैसे तुम
प्रौढ़ होते
हो, सेक्स
का तुम पर
नियन्त्रण
कम होता जाता
है। और यह एक
शुभ संकेत है।
इसके लिए
प्रसन्न
होना चाहिए।
यह कोई समस्या
नहीं है।
जिसका की
समाधान
चाहिए। यह एक
उत्सव मनाने
की बात है।’
पूर्व में
किसी भी स्त्री
को यौवन से
वृद्धावस्था
में प्रवेश
करते हुए कोई
समस्या नहीं
होती। सच तो
यह है वह अत्यंत
आनन्दित
होती है। कि
अब बूढ़ा
पिशाच गया और
अब जीवन अधिक
शांति पूर्व
हो सकता है।
लेकिन जीवन कई
भ्रांतियों
में जी रहा
है। एक
भ्रांति यह है
कि जीवन केवल
एक ही होता
है। उससे यह
बहुत बड़ी
समस्या पैदा
होती है। अगर
जीवन केवल एक
ही है तो सेक्स
समाप्त हो
रहा है, तो तुम भी
समाप्त हो
गए। अब और
अवसर न
मिलेगा। अब
जीवन में कोई रस
न रह जाएगा।
कोई भी नहीं
कहेगा, तुम
सुंदर हो,
और मैं तुम्हें
प्रेम करता
हूं, और
सदा करता
रहूंगा।
वो पहली
बात यह भ्रान्ति
कि जीवन एक
है। दूसरी बात
चिकित्सकों
और अन्य
चिकित्सकों
कने एक स्थिति
पैदा कर दी है
कि सेक्स
लगभग जीवन का
पर्यायवाची
है। तुम जितने
अधिक कामुक हो
उतने अधिक
जीवंत हो।
इसलिए जब सेक्स
खत्म होने
लगाते है व्यक्ति
स्वयं को चले
हुए की भांति
समझने लगता
है। अब जीने
में कुछ नहीं, सेक्स
की समाप्ति
के साथ जीवन
समाप्त हो
जाता है। तब
लोग सब तरह की
बेतुकी चीजों
का सहारा लेने
का प्रयत्न
करते है।
मेकअप, प्लास्टिक
सर्जरी,
कृत्रिम स्तन
इत्यादि। यह
मूर्खता है।
निपट
मूर्खता।
‘यह
मनुष्य की
परम आवश्यकता
है और विशेषकर
स्त्रियों
की कि वे
आकर्षण का
केंद्र हों—ध्यान
उनका पोषण है।
स्त्रियां
बुरी तरह आहत
हो जाती है
यदि उन पर कोई
ध्यान न दे।
उसके पास
आकर्षित करने
के लिए और कुछ
है ही नही,
बस देह है।
पुरूष ने उसे
दूसरे आयाम
दिए ही नहीं
कि वह
प्रसिद्ध चित्रकार
बन सके। नृत्यांगना
बन सके या एक
गायिका बन सके
विदुषी प्राध्यापिका
बन सके। पुरूष
ने स्त्री के
जीवन से वे
सभी आयाम काट
दिये है। जिनमे
माध्यम से वह
आकर्षण बन
सके। और लोग
उसके बूढ़े हो
जाने पर भी
उसका आदर कर
सकें। पुरूष
ने उसे बस देह
ही बनाकर
छोड़ा है। अत:
वह इस कदर
अपनी देह में
केंद्रित है
कि इससे एक
आसक्ति पैदा
होती है। एक
तरह का मोह एक
भय पैदा होता
है कि जो व्यक्ति
उस से प्रेम
करता है,
उसे छोड़ दे
और दूसरे के
प्रेम में न
पड़ जाये। और
यदि उसकी और
कोई ध्यान न
दे तो वह
स्वयं को
मृतप्राय
समझती है। जीवन
का क्या
प्रयोजन है
यदि तुम पर
कोई ध्यान
नहीं देता।
उसका अपना काई
निजी जीवन
नहीं है।’
‘परंतु यहाँ
मेरे साथ तुम्हें
कुछ सीखना है।
पहली बात उन
सभी
परिवर्तनों की
गहन स्वीकृति
जो प्रकृति तुममें
लाती है। यौवन
का अपना
सौंदर्य है, बुढ़ापे का
भ अपना
सौंदर्य है।
इसमें कामुकता
भले ही न हो
लेकिन अगर कोई
व्यक्ति
मौन शांत और
ध्यानपूर्वक
जीया हो तो
बुढ़ापे की एक
अपनी गरिमा
है।’
‘प्रेम तभी
घटता है जब
तुम अपनी
जैविकी, बॉयोलॉजी
की गुलामी के
पार हो जाते
हो। तब प्रेम
का अपना
सौंदर्य है।
जब जीवन बायोलॉजिकली
बदलाहट से
गुजर रहा हो
तो इसे स्वीकार
ही नहीं करना, बल्कि
इसका उत्सव
मनाना है कि
तुम उस सारी
मूर्खता के
पार चले जा
रहे हो। तुम
देह की अधीनता
से मुक्त
हुए। यह केवल
संस्कारों
का प्रश्न है।
जीवन को स्वीकार
करना होगा।
लेकिन तुम्हारी
अचेतनता जीवन
को जैसा है
वैसाही स्वीकार
नहीं करने
देती। तुम कुछ
और चाहते हो।’
जब सेक्स
मिट जाए तो यह
अत्यंत शुभ
है। तुम एकाकी
होने में और
भी सक्षम होओगे।
तुम आनंदित
होने में और
भी सक्षम
होओगे। बिना
किसी दुःख के; क्योंकि
सेक्स का पूरा
खेल संघर्ष, घृणा,
ईष्या,
द्वेष के लम्बे
दुःख के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। यह
शांतिपूर्ण
जीवन नहीं है।
यह
शांति मौन
आनंद,
एकाकीपन,स्वतंत्रता
है जो तुम्हें
वह स्वाद
देते है जो
वास्तव में
जीवन है।’
जीवन
पहली बार स्व–निर्भर
होता है। तुम्हें
किसी भी चीज़
के लिए दूसरों
से भीख नहीं
मांगनी
पड़ती। कोई भी
तुम्हें
आनंद नहीं द
सकता। समाधि
नहीं दे सकता।
कोई भी तुम्हें
अमरत्व की
समझ नहीं दे
सकता और वह
नृत्य नहीं
दे सकता जो
उसके साथ आता
है। कोई तुम्हें
वह मौन नहीं
दे सकता जो
तुम्हारे
ह्रदय का गीत
बन जाता है।
(द
इंविटेशन)
इस प्रवचन
का आश्रम की
सब स्त्रियों
पर गहरा
प्रभाव पड़ा।
भले ही वे
युवा था या बूढ़ी।
कोई भी स्त्री
ऐसी नहीं थी
जो उस समस्या
के साथ तादात्म्य
न बना पाई हो
जिसकी ओशो
चर्चा कर रहे
थे। ऐसा लग रहा
था कि उन्होंने
सब स्त्रियों
को उत्तर दे
दिया है। न ही
केवल मुझे।
जैसा की हमेशा
होता है जब वो
बोलते है।
पिछले
पाँच छ:
महीनों से जब
से मैं
मिलारेपा के
साथ रह रही थी
मैंने ध्यान
नहीं दिया था
कि मुझे पर क्या
घट रहा है। यह
युवा स्त्रियों
के प्रति
आकर्षित हो
रहा था और मैं
अपना आत्म-सम्मान
खो रही थी।
आत्म विश्वास
खो रही थी। यह
तुलना कर कि
निश्चित ही
मुझमें कुछ
कमी है।
मुझमें
किशोरी का
जैसा
चुलबुलापन तो
कदाचित नहीं
था। इसलिए
मुझमें हीनता
का भाव आ रहा
था। मैं उलझन
में पड़ गई थी
कि मेरा कोई
व्यक्तित्व
है भी या
नहीं। मैं स्वयं
से विमुख हो
गई और आसपास
के लोगों पर
ध्यान
केंद्रित हो
गया। मेरे मन
में सम्बंधों
को लेकिर जो
संस्कार था
उनकी जड़ों तक
पहुंचने के
लिए मैंने स्वयं
का आत्म सम्मोहन
के प्रयोग
करना प्रारम्भ
कर दिया। कुछ
अपवादों को
छोड़कर मैं
हमेशा उन
पुरूषों के
प्रेम में
पड़ी थी जो मूलरुप
से स्त्रियों
से प्रेम सम्बन्ध
बनाने में
रूचि नहीं
रखते थे। उन
सब पुरूषों के
लिए अपनी स्वतंत्रता
सर्वोपरि थी
और जिस तरह
मैं उनसे सम्बंध
जोड़ती थी
उनकी स्वतंत्रता
खतरे में पड़
जाती थी। एक
सप्ताह से भी
अधिक मैं
प्रतिदिन एक
घंटे के लिए बिस्तर
पर लेट जाती
और स्वयं को
सम्मोहित
करती। मैं
अपने अचेतन तक
यह प्रश्न पहुँचाती
कहां से आते
है ये संस्कार।
धीरे-धीरे उत्तर
मेरे चेतन मन
में प्रविष्ट
हुआ और मुझे
समझ आया कि यह
संस्कार
वास्तव में
मेरी मां का
है। उसकी
प्रेमी उसे
छोड़ कर चला
गया था। तब मैं
गर्भ में थी।
और जब बच्चा
गर्भ में होता
है तो वह मां
का रंग-रूप ही
नहीं लेता बल्कि
मानसिक
प्रवृतियां
भी ग्रहण कर
लेता है। मां
की भाव दशाएं
गर्भ में पल
रहे बच्चे को
प्रभावित
करती है। मेरा
जन्म और
लालन-पालन
पहले कुछ वर्ष
इस विचार के
साथ हुआ कि
जिस पुरूष को
तुम प्रेम
करते हो वह एक
दिन तुम्हें
छोड़ जाता है।
जब मैं छोटी
बच्ची थी और
फिर बाद में
किशोरावस्था
में मैं
निरंतर उन
लड़कों से
प्रेम करती थी
जो मेरे साथ
रह ने सकता
हो। यह मेरे
लिए स्वाभाविक
था कि उस व्यक्ति
की इच्छा
करूं जो मेरे
साथ न रह सकता
है। यह खोज
लेन पर की
मेरे मन संस्कार
का स्त्रोत
मुझमें नहीं
बल्कि मेरी
मां में है।
मैं भारमुक्त
हो गई। मुझे
उन विचारों की
गुलामी करने
की जरूरत नहीं
है जो आखिर
मेरे अपने है
ही नहीं। निशचित
रूप से इसका
अर्थ यह नहीं
कि तत्काल
विचार आने बंद
हो गए। परंतु
अब उनमें और
मुझमें अंतर
था। मैं अब भी
मिलारेपा से
प्यार करती
थी। लेकिन अब
मैं अपनी स्वतंत्रता
को महत्व
देने लगी।
मैंने पाया कि
बिना अपनी स्वतंत्रता
के मैं
भिखारिन थी और
सदा सहायता के
लिए उसकी और
देखा करती थी।
जिस बात
की मुझे सबसे
अधिक आशंका थी
वह हुई—मिलारेपा
और मैं अच्छे
मित्र बन गये।
हमारे
संबंधों के
बीच जो पागलपन
की मांग थी वह
गिर गई और जिस
बात से मैं
भयभीत थी, वास्तव
में वही सुंदर
सिद्ध हुई। अब
मैं उसकी और देखती
तो मेरे भीतर
बहुत प्रेम
उमगता और वह
फिर हमेशा
जैसा रहस्यपूर्ण
है लेकिन मुझे
अब कुछ नहीं
चाहिए। और
उसकी आंखों
में उतरा
प्रेम मैं बिना
किसी भय के
देखती हूं। वह
मुझे पिघला
देता है।
सब कुछ
बदल जाता है
और प्रेम कोई
अपवाद नहीं है।
अब शायद मैं
पहला व्यक्ति
हूं जो चाहता
है कि हर कोई
यह समझ पाए कि
प्रेम बदलता
है। यह शुरू
होता है, प्रौढ़
होता है, बूढ़ा
होता है,
फिर समाप्त
होता है। और
मरा माननास है, यह ठीक ही
है। यह तुम्हें
और अधिक अवसर
देता है।
दूसरे लोगों
को प्रेम करने
के , यौवन
को समृद्ध
बनाने के लिए
प्रत्येक व्यक्ति
के पास कुछ
विशेष है तुम्हें
देने को।
जितना तुम
प्रेम करते हो
उतना अधिक तुम
समृद्ध होते
हो और अधिक
प्रेम पूर्ण
बनते हो।
और यदि
स्थायित्व
की झूठी धारणा
तोड़ दी जाए
तो ईर्ष्या
स्वयं
तिरोहित हो
जाएगी। तब
ईर्ष्या का कोई
अर्थ नहीं रह
जाता। जैसे
तुम प्रेम में
पड़ जाते हो
और तुम्हारा
वश नहीं चलता, ऐसे ही एक
दिन तुम प्रेम
से बाहर हो
जाते हो और
तुम कुछ भी
नहीं कर सकते।
हवा का एक
झोंका तुम्हारे
जीवन में आया
और चला गया।
यह प्यार था, सुंदर था, सुगंध से
भरा था। और
शीतल था और तुमने
चाहा होगा कि
यह सदा बना
रहे। तुमने
कठिन प्रयास
किया सब
खिड़कियों व
दरवाज़े बंद
रखने का ताकि
हवा सुगंधित
और ताजा रह
सके। लेकिन खिड़कियाँ
और दरवाजे बंद
करके तुमने
समीर की ताज़ी, उसकी सुगंध
को मार डाला:
वह बासी हो
गई।
अब
मिलारेपा के
साथ मेरा सम्बंध
समाप्त हो
गया। इससे
पहले कि वह
पुन: मित्रता
के रूप में
शुरू होता, अपने को
देखने का
दुखदायी
लेकिन उपयुक्त
समय था। स्वयं
को अन्य किसी
के साथ पाकर
मेरा एकाकीपन
काले पटल पर
शुद्ध श्वेत
रूप से उभर
आया आध्यात्मिक
मार्ग पर यह
अति विशिष्ट
बात थी—सब कुछ
आंतरिक खोज के
रूप में
प्रयुक्त
होता है।
जितना अधिक
अनुभव
दुखदायी होता
है उतना ही
अधिक प्ररेणा
मिलती है।
भीतर देखने की
क्रिया
खतरनाक सिद्ध
होती है। और
मैंने स्वयं
को सजगता की
तलवार की धार
पर खड़ा पाया।
एकाकीपन का एक
वर्ष बित गया।
और जब जीवन
में सब कुछ
ठीक-ठाक चल
रहा था तो वह
रहस्य जिसे
मैं प्रेम
कहती हूं,
एक बार फिर
मैंने पाया कि
मेरा प्रेम
सम्बंध महान
है और मेरी सजगता
को निखार रहा
था। हमारे
मिलन का प्रत्येक
पल यूं लगता
मानो वही पल
हमारे पास है।
मैं अब इस
भ्रांति में
नहीं थी कि इस
व्यक्ति के
साथ अनंत काल
तक रहना है।
क्योंकि
मेरे जीवन ने
मुझे वह सिखा
दिया है कि चीजें
सदा बदलती
रहती है। इससे
एक हल्कापन
और गहराई पैदा
होती है।
मैं अब
भी कभी-कभी
ईर्ष्या
अनुभव करती
हूं,
परंतु अब व
मुझे पीड़ित
नहीं करती—मैं
अपने मन में
इसकी जुगाली
करती रहती।
ईर्ष्या का
भाव पैदा होता
है। और मैं कह
पाती हूं, हेलो
यह ईर्ष्या
है। मैं स्वयं
से पूछती हूं
कि क्या मैं
दुखी होना
चाहती हूं।
इसे छोड़ देना
चाहती हूं। जब
मेरे पास यही
क्षण है जो
मैं अपने
प्रेमी के साथ
बिता सकती हूं
तो कैसे दुःखी
रह सकती हूं।
वह कल चला
जाएगा। अंत:
मैं आज को भोग
लेने का
निर्णय करती
हूं। यह चुनाव
का मामला है—आदत
को छोड़ने का
चुनाव। और
रास्ता तो एक
ही है—उसी
क्षण में
जीना।
मेरा
अपना विचार हे
कि आध्यात्मिक
रहा घुमावदार
ढंग से ऊपर की
और जाती है। न की
ऊंचे पहाड़ी
रास्ते की
तरह। यही कारण
है कि मैं
वहीं, ‘भूलें’
करती हूं। उन्हीं
भाव दशाओं का
अनुभव करती
हूं। उन्हीं
को दोहराती हूं।
और फिर भी हर
बार कुछ अलग।
कुछ ऊँचाई लिए
हुए अधिक होश
पूर्ण। संन्यासिन
होने से पहले
मैं किसी पुरूष
से गहरा संबंध
नहीं बनाती
थी। ताकि किसी
भी ऐसी स्थिति
से बच सकूं
जिसमें ईर्ष्या
पैदा होती हो।
लॉरेंस ही एक
अपवाद था और
उसने मुझे इस
तरह प्रेम किया
कि मैं उसके
प्रेम में
अपने को सुरक्षित
महसूस करती
थी। हम एक साथ
रहते थे। फिर
भी उनके अनेक
स्त्रियों
के साथ सम्बंध
थे। किसी
विशेष स्त्री
को जिसे वह अधिक
चाहते थे उसे
मुझसे मिलाने
के लिए भी ले
आते थे। मेरे
मित्र मुझसे
कहते कि सम्भवत:
में उसे प्रेम
न कर पाउंगी
क्योंकि
मुझमें ईर्ष्या
नहीं हे। मैं
उलझन में थी।
ओशो की बात को मैं
भी अभी समझ
पाई हूं कि
अगर ईर्ष्या
है तो प्रेम
नहीं हो सकता—कि
ईर्ष्या
सेक्स से सम्बंधित
है। प्रेम से
नहीं।
मैंने
सम्बंधों के
सब सम्भावित
आयाम खोजने की
चेष्टा की है
और अचेतन की
सब इच्छाओं
और वासनाओं को
पूरा करने की पूरी
कोशिश की है।
यह शायद सब
साधकों के लिए
जो इस राह पर
चल रहे है।
सत्य न हो।
मैं नहीं
जानती।
वर्षों
से मैने साँपों
और पिशाचों को
अपने घिनौने
फन उठाते देखा
है। एक बार
मैं उनके
प्रति सजग हो
गई तो फिर होश
पूर्ण प्रयास
से उन्हें
आदतों के रूप
में देख पाती हूं।
जो मेरी स्वतंत्रता
में हस्तक्षेप
कर रहे है।
अब मैं
अपनी स्त्री
की दुर्बलताओं
को देख पाने
में अधिक
समर्थ हूं, और यह आश्चर्य
जनक बात है
लेकिन जब मैं
सजग हो जाती
हूं तो एक
दूरी बन जाती
है। तो दूरी
बन जाती है।
और यह मुझे
अपने रंग में
रंग नहीं पाती
हूं—यह बस
गुजर जाती है।
उदाहरण
के लिए : अपने
मित्र को
अलविदा कहते
हुए जब वह कह
रहा हो; ‘फिर
मिलेंगे’
और मेरे बिना
कुछ बोले मेरे
चेहरे पर अब
भी एक मुस्कान
होती है। और
सब कुछ बढ़िया
होता है। और
मेरी आँख खाली
भिक्षा पात्र
की भांति होती
है। भीतर एक
आवाज कहती है।
‘फिर,
मुझे फिर
मिलोंगे।
लेकिन कहां? कब? किस
समय? लेकिन
में इसे पकड़
लेती हूं। यह
एक झलक है लेकिन
मैंने इसे
पकड़ लिया।’ मैं इसे एक
क्षण के लिए
देखती हूं—‘कहां’
किस समय क्या
हम कभी मिल
पाएंगे? का
भाव वहां होता
है और तब मुझे
लगता है कि यह
वही है और वह
प्रागैतिहासिक
काल में लौट
जाती हूं। जब
स्त्रियां
पूर्णतया
पुरूषों पर
आश्रित होती थी।
और वे उनके और
उनके बच्चें
के लिए गुफा
में मांस लेकर
आते थे। लेकिन
अब ऐसा नहीं
होता। मेरा
अभिप्राय है
कि भाड़ में
जाए, मैं
तो अब मांस
खाती नहीं।
अब शायद
मैं पहला व्यक्ति
हूं जो चाहता
है कि
हर कोई यह समझ
पाए कि प्रेम
बदलता है, यह शुरू
होता है
प्रौढ़ होता
है। और बूढ़ा
होता है। फिर
समाप्त हो
जाता है। और
मेरा मानना है
यह ठीक है। यह
तुम्हें और
अधिक अवसर
देता है दूसरे
लोगों को प्रेम
करने के जीवन
को समृद्ध
बनाने के क्योंकि
प्रत्येक व्यक्ति
के पास कुछ
विशेष है तुम्हें
देने को जितना
तुम प्रेम
करते हो उतना
अधिक तुम
समृद्ध होते
हो ओर अधिक
प्रेमपूर्ण
बनते हो।
मेरे
विचार में ओशो
हमें उस और
लेकर जा रहे
है। जहां हम
किसी व्यक्ति
के साथ
हंसते-खेलते
प्रसन्नतापूर्वक
रह सकें और
मित्रता एक
दूसरे के साथ
केवल दिन
प्रतिदिन का
मिलन हो।
लेकिन
प्रेम सम्बंधों
के बारे में
जो अंतिम बात
ओशो ने मुझसे कहीं, वह थी: ‘प्रत्येक सम्बंध
एक महाविपदा
है।’
मैं एक
बात पर बल
देना आवश्यक
समझती हूं कि
ओशो के
प्रवचनों से
लिए गए उनके
शब्द उद्धरण
जिनका उपयोग
मैं उन्हें
अपने संदर्भ
और अपनी समझ
के अनुसार
करती हूं। ओशो
के शब्दों का
उपयोग किसी भी
परिस्थिति
के अनुकूल
किया जा सकता
है। ओशो को
शब्दों मे
नहीं कहा जा सकता, लेकिन
मैं अपनी समझ
के अनुसार
उनके शब्दों
का उपयोग करती
हूं, क्योंकि
मेरी समझ ही
है जो मैं दे
सकती हूं।
ओशो के
प्रति जो
प्रेम मैं
अनुभव करती
हूं वह हमेशा
आध्यात्मिक
रहा हे। मेरा
उनके साथ ध्यान
का सम्बंध
है। यह स्त्री
और पुरूष
दोनों साधकों
के लिए समान
है। दैहिक
आकर्षण का कोई
प्रश्न ही
नहीं है। यदि
ऐसा प्रेम में
ओशो के साथ अनुभव
कर पाई तो
मुझे आशा है
कि एक दिन सबक
साथ, इस
ग्रह के सभी
प्राणियों के
साथ अनुभव कर
सकूंगी।
ओशो:
सदगुरू एक
अनुपस्थिति
है। जब भी तुम
अनुपस्थित
होते हो, दो शून्य
एक दूसरे में
विलीन हो जाते
हे। दो शून्य
पृथक नहीं रह
सकते। दो शून्य, दो शून्य
नहीं होते। दो
शून्य एक
शून्य हो
जाते है।
कुछ ही दिन
पहले मैंने
कहा कि मेरी
और से कोई सम्बंध
सम्भव नहीं है।
गुरु और शिष्य
के बीच एकतरफा
सम्बंध होता
है। शुन्यों
ने मुझे एक बहुत
प्यारा पत्र
लिखा,
जिसमे उसने
लिखा,’अपने
बड़े अच्छे
ढंग से यह कहा ,यह एक शक्कर
में लिपटी
गोली थी,
परंतु मेरे
गले में ही
अटक गई।’
शुन्यों
मुझे थोड़ा ओर
पियो ताकि वह
गले से नीचे
उतर जाए। उसे
थोड़ा और पीओ
जो है ही
नहीं। मैं समझ
सकता हूं इसमे
कष्ट होता
है। यह कड़वी
गाली हे।
यद्यपि शक्कर
में लिपटी है।
यह जानकर
पीड़ा होती है
कि सम्बंध
केवल तुम्हारी
और से है।
गुरु की और सह
नहीं है। तुम
चाहोगे कि
गुरु को भी
तुम्हारी
आवश्यकता
हो। तुम
चाहोगे कि मैं
कहूं—मुझे
तुम्हारी
आवश्यकता
हे। मैं तुमसे
बहुत प्रेम
करता हूं। मैं
तुम्हारी
जरूरत को समझ
सकता हूं
परंतु वह सच न
होगा। मैं
सिर्फ इतना कह
सकता हूं—मुझे
तुम्हारी
जरूरत नहीं
है। मैं तुमसे
प्रेम करता हूं।
जरूरत
का अस्तित्व
अहंकार के
कारण है। मैं
तुमसे सम्बंध
नहीं जोड़
सकता, क्योंकि
मैं हूं ही
नहीं। तुम
मुझसे सम्बंध
जोड़ सकते हो
क्योंकि तुम
अब भी हो,
क्योंकि तुम
अभी हो,
इसलिए तुम
मेरे साथ सम्बंध
बनाए रख सकते
हो। लेकिन वह
सम्बंध कहने
मात्र को होगा
कुनकुना।
यदि तुम
भी मिट जाओ
जैसे मैं मिट
गया हूं तब मिलन
होगा—कोई सम्बंध
नहीं
बल्कि
विलय। और सम्बंध
तुम्हें
संतुष्ट
नहीं कर सकते।
तुमने कितने
ही सम्बंध
जाने हो उनसे
क्या हुआ है।
तुमने प्रेम
किया है या
मित्रता की है, तुमने
अपने
माता-पिता,
बहिन से प्रेम
किया है।
तुमने अपनी स्त्री
से प्रेम किया, अपने पति से
प्रेम किया
है। कितनी बार
प्रेम किया है, कितनी बार
सम्बंध
बनाये है। और
तुम जानते हो
कि हर सम्बंध
मुहं में एक
कड़वा स्वाद
छोड़ जाता है।
यह तुम्हें संतुष्ट
नहीं करता
केवल कुछ
क्षणों के लिए
भले ही तुम्हें
संतुष्ट करे
लेकिन फिर
वहीं असन्तोष।
यह तुम्हें
सुख तो दे
सकता है लेकिन
फिर तुम
एकाकीपन की ठंडक
में छूट जाते
हो।
सम्बंध
वास्तविक बात
नहीं है। बात है
मिलन असली बात
है विलय। जब तुम
सम्बंध बनाते
हो तो तुम अलग होत
हो, और अलगाव
में वह कुरूप अनिष्टकारी
पीड़ादायी अहंकार
का बने रहने अवश्यम्भावी
है। यह विलियम
पर ही तिरोहित
होता है।
इसलिए शुन्यों
मेरी अनुपस्थिति
को थोड़ा और पियो
मेरे उस प्रेम
का थोड़ा और पियो, जिसे तुम्हारी
जरुरत नहीं है।
और तब गोली गले
नीचे उतर जाएगी
और तुम उसी पचा
पाओगे। और फिर
वह दिन आएगा वह
महान दिन आएगा, जब तुम भी मुझे
प्रेम करोगी परंतु
तुम्हें मेरी
जरूरत न होगी।
जब दो व्यक्ति
प्रेम करते है
और दोनों को एक
दूसरे की जरूरत
नहीं होती तब प्रेम
में पंख लग जाते
है। साधारण नहीं
रह जाता वह इस जगत
का नहीं रह जाता।
वह पारलौकिक हो
जाता है। वह भावतित
होता है।
(युनियो
मिस्टिका वोल्यूम—1)
मां
प्रेम शुन्यों
(माई
डायमंड डे विद
ओशो) हीरा
पायो गांठ
गठियायो)
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