हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा
सूली देने का अमेरिकी ढंग—(अध्याय—09)
सूली देने का अमेरिकी ढंग—(अध्याय—09)
जब हम
मध्य नवम्बर
की एक शाम को
बारिश से भीगी
पोटलैंड़ की
सड़कों पर ड्राइव
कर रहे थे। प्रिसीडेंट
के मोटर
काफ़िले
जितने एक दस्ते
ने रोल्स
रायस को घेर लिया।
कम से कम पचास
पुलिसवाले
होंगे जो
चमकते काले
कपड़ों में
दैत्यों
जैसे लग रहे
थे। उनके
चेहरे ऐनक तथा
हैल्मेट से ढँके
हुए थे तथा वे
शक्तिशाली
हारले
डेविडसन मोटर साइकिलों
पर सवार थे।
सभी सड़कों के
प्रत्येक जंकशन
पर घेरा डाल
लिया गया था।
मोटरसाइकल
सवारों ने
बड़ी नाटकीय
ढंग अपनाया
ऐसे कि अगले
दो कार के
दानों और खड़े
दो लोगों का
स्थान आसानी
से ले सकते
थे। वे
ट्रैफिक के
बीच में तथा
उसके आस-पास
कला बाजों के
समान ड्राइव कर
रहे थे।
इन भोंपुओं
के तुरही नाद
तथा दैत्या
कार
अंगरक्षकों
के बीच ओशो
कार से बाहर
आए, सदा
की भांति ‘बाहर’ जो भी घटित
हो रहा है
उससे अनछुए
सादे वस्त्र
पहने छह या आठ पुलिसकर्मियों
के साथ न्यायालय
के भीतर
चुपचाप शांति
से सरक गए
प्रवेश कर गए।
मैं कार की
दूसरी और से
उस भीड़ में
उतर गई। धक्का-मुक्का
करते लोगों का
झुंड पत्रकार, टेलीविजन
दल के लोग।
मुझे उसी दरवाजे से जाने की अनुमति न मिली जिससे ओशो गए थे तथा कूद पल मैंने उन्हें काले व सुरमई स्लेटी रंग के सूट वस्त्रों के उस समुद्र में विलीन होते देखा था। जिससे न्यायालय का पूरा बरामदा भरा हुआ था। मैं भीड़ को धकेलती हुए ऊपर प्रवेश करने में सफल हो गई तथा बहुत कठिनाई का सामना करने के पश्चात अंत में मैं न्यायलय के कमरे में ओशो के साथ बैठी थी।
मुझे उसी दरवाजे से जाने की अनुमति न मिली जिससे ओशो गए थे तथा कूद पल मैंने उन्हें काले व सुरमई स्लेटी रंग के सूट वस्त्रों के उस समुद्र में विलीन होते देखा था। जिससे न्यायालय का पूरा बरामदा भरा हुआ था। मैं भीड़ को धकेलती हुए ऊपर प्रवेश करने में सफल हो गई तथा बहुत कठिनाई का सामना करने के पश्चात अंत में मैं न्यायलय के कमरे में ओशो के साथ बैठी थी।
ओशो शांत व
स्थिर बैठे
थे—पूरे नाटक
को पार्श्व—भाग
से देख रहे
थे। बहुत
बादमें ओशो का
कहना था: ‘’शासन ने
मेरे अटर्नियों
को ब्लैकमेल-हलेकमेल
किया।
साधारणतया
कभी ऐसा नहीं
होता कि शासक
समझौता करने
में पहल करे
परंतु मुकदमा
शुरू होने से
पहले ही उन्होंने
मेरे अटर्नियों
को समझौता
करने के लिए
बुलाया। तथा
कई ढंगों से
पांसे
फेंके....उन्होंने
यह स्पष्ट
कर दिया कि ‘हमारे पास
कोई प्रमाण
कोई गवाह नहीं
है: हम जानते
है और तुम
जानते हो—कि
यदि तुम केस
को आगे
बढ़ाओगे तो
तुम जीतोगें।
परंतु हम यह
बात स्पष्ट
कर देना चाहते
है कि केस बीस
वर्ष तक
लटकाया जा
सकता है। और
भगवान जेल में
रहेंगे।
भगवान के जीवन
को भी खतरा है—यह
बस तुम्हें
ठीक से समझ
लेना होगा।’
जब अटर्नी
सभा से बाहर
आए तो नीरेन
रो रहा था।
उसने कहा, ‘हम
कुछ नहीं कर
सकते, हम
असहाय है;
हमे यह कहने
में भी संकोच
होता है कह आप
वहां यह कहे
कि मैं अपराधी
हूं। आप
अपराधी नहीं
है। तथा हम
आपसे यह मानने
के लिए कह रहे
है कि आप अपराधी
है क्योंकि
शासन ने जो
कहा है उससे
यह स्पष्ट
है कि आपका
जीवन खतरे में
है।’
ओशो ने
अपनी बात जारी
रखी, ‘यदि
मैं दो छोटे
अपराध स्वीकार
कर लूं तो
मुझे छोड़
दिया जाएगा और
अभी निर्वासित
कर दिया जाएगा
मैं जेल में
रहने व मरने
के लिए तैयार
था। अपने लोगो
के बारे में सोचो, तो मैंने
सोचा कि इस
बात को( यह
कहना कि वे
अपराधी थे और
वे थे नहीं) गम्भीरता
से नहीं लेना
चाहिए।’
ओशो पर
चौंतीस
आप्रवासी
नियमों का उल्लंघन
करने का आरोप
था। दो स्वीकार
कर लिए गए थे।
शेष बतीस का
क्या हुआ। न्यायमूर्ति
अवश्य ही
अपराधी होगा
क्योंकि
समझौते किए गए
परंतु क्या
अपराधों के
लिए समझौते
सम्भव है। क्या
अपराध एक व्यवसाय
है।
यहां तक की
जो दो अपराध
स्वीकार कर
लिए गए थे वे
भी झूठे थे।
कि वे अमरीका
में स्थायी
रूप से रहने
के प्रयोजन से
आए तथा दूसरा कि
उन्होंने एक
प्रबंध
विदेशी का
सहारा अमरीकन
नागरिक से
विवाह के लिए
लिया गया था।
1 ओशो आप्रवासी
हैसियत हासिल
करने के लिए
आई एन एस को
वर्षो से पत्र
लिख रहे थे
परंतु उन्हें
कोई उत्तर न
दिया गया था।
2 उन पर आरोप
था कि उन्होंने
हजारों
शादियों का
आयोजन किया था
तथा उसमें एक
तो निश्चित
तौर पर वास्तविक
थी—यह क्या
मजाक था। कि
एक निश्चित
रूप से वास्तविक
थी। शेष
हजारों का क्या
हुआ। और वैसे
एक का भी पुष्टिकरण
नहीं हुआ।
यह सुनकर
मेरा मुंह
खुला का खुला
रह गया कि जब
न्यायमूर्ति
ने यह निर्णय
पढ़ा कि ओशो
अमरीका में एक
ऐसे स्थान का
सृजन करने आए
थे जहां उनके
लोग ध्यान कर
सके क्योंकि
भारत का उनका
आश्रम इसके लिए
बहुत छोटा था।
यह भी एक
अपराध था।
ओशो ज़रा
भी अस्थिर न
हुए, वे
विनम्र थे और
फिर भी एक
सम्राट। उनकी शिशु
सुलभ
निर्दोषता तथा
ति
संवेदनशीलता
उन्हें स्पशीती
बनाती थी।
उनमें पूर्ण
स्वीकार भाव
था परंतु दूसरा
गाल आगे कर
देने वाली
नम्रता नहीं।
विपरीत वहीं आकर
विलीन होते
थे। जहां
विशाल खालीपन
हो तथा मैंने
उन्हें कहते
सुना है:
‘सदगुरू
आकाश की भांति
होता है। वह
प्रतीत होता
है परंतु होता
नहीं है।’
वे वैसे के
वैसे थे चाहे
वे अपने कमरे
में हो या
बुद्ध हाल में
हमारे बीच ध्यान
में हो। मुझे लगता
है जब व्यक्तित्व
तिरोहित हो
जाता है तथा
व्यक्ति
अपने पुराने
विचारों के
ढर्रे से परिचालित
नहीं रहता तो
कहीं कोई
अहंकार नहीं
रहता जिसे चोट
पहुंचे तथा
कोई ‘मैं’ नहीं रहता
जो अपमानित
हो।
न्यायाधीश
लीवी ने ओशो
से पूछा, ‘क्या
आप अपना अपराध
स्वीकार
करते है या
नहीं।’
ओशो ने उत्तर
दिया—‘हां
मैं हूं।’
ओशो के पास
बैठा हमारा
वकील जैक रैन
सम खड़ा होकर
बोला: ‘अपराधी
ऐसा दो बार
हुआ तथा जब
मैंने बाद में
इस दलील के
बारे में उनसे
उनके उत्तर
के बारे में
प्रतिक्रिया
पूछी तो वे
हंसते हुए
बोले’
क्योंकि
मैं अपराधी
नहीं हूं।
इसलिए मेरा
उत्तर सीधा
यह स्पष्ट
करता है कि
हां मैं हूं।
हमारे वकील
ने एकदम तुरंत
उत्तर दिया, अपराधी, यह उनका अब
उनका मामला है
कि वह अपराधी
है या नहीं।
न्यायालय
ने प्राणदंड
के निलम्बन
के साथ दस
वर्ष के
कारावास की
सज़ा मढ़ दी
इस शर्त के
साथ वे पाँच
वर्ष की परख
अवधि पर होंगे
यदि वे अमरीका
नहीं छोड़ते
तथा पाँच की
परख अवधि के
दौरान अमरीकन
के अटर्नी
जनरल की आज्ञा
के बिना पुन:
अमरीका में
नहीं आ सकत
है।
जब न्यायाधीश
ने ओशो से यह
पूछा कि क्या
वे समझ गए है
कि पाँच वर्ष
तक वे अमरीका
में नहीं आ
सकते तो ओशो
ने कहा: ‘अवश्य,
परंतु तुम्हें
इसकी सीमा
पाँच वर्ष तक
निर्धारित
करने की कोई
आवश्यकता
नहीं है। क्योंकि
मैं इस धरती
पर दोबारा कभी
पैर रखनेवाला
नहीं हूं।’
न्यायधीश ने
कहां, ‘हो
सकता है मन बदल
जाये।’
परंतु ओशो चुप
रहे तथा मुस्कुराए।
बाद में मैंने
जब ओशो से
पूछा कि वे क्यों
चुप रहकर मुस्कुरा
रहे थे तो ओशो
ने उत्तर
दिया।
‘ठीक
उसी कारण से
जिस कारण से
जीसस तब चुप
रहे थे जब पांटियस
पाइलेट ने
उनसे पूछा था।’
‘सत्य
क्या है।’
मैं भी चुप रहा
तथा मुस्कराता
रहा क्योंकि
बेचारे को यह
मालूम नहीं कि
बदलने के लिए
मेरे पास मन
ही नहीं बचा
है।
ओशो को
पचास हजार
डालर का
अर्थदंड दिया
गया जो दो
छोटे अपराधों
के लिए जिनकी
सज़ा पचीस
डॉलर का
जुर्माना तथा
निर्वासन
रहती हे।
कुछ
मित्रों की
सहायता से दस
मिनट के भीतर
हास्य ने
जुर्माने का
प्रबंध कर
दिया ओर ओशो
न्यायालय के
कमरे से बाहर थे
तथा
पोर्टलैंड की
भीगी सड़कों
पर ड्राइव कर
रहे थे। सड़को
के आसपास भीड़
की कतारे थी
कुछ लोग हाथ
हिला रहे थे
तथा कुछ उंगल।
मकानो की
रोशनियां
डबरों में
अपना प्रतिबिम्ब
बना रही थी। मैंने
कार की खिड़की
से बाहर देखा
कि दुकानों की
खिड़कियाँ
क्रिसमस की
सजावट से भरी
पड़ी थी। यह
ढोंग जिसे
क्रिसमस कहते
है असहनीय था।
हम सीधे
एयर पोर्ट
पहुंचे जहां
संन्यासियों
तथा
रिपोर्टरों
का एक समूह
ओशो को विमान
की सीढ़ियों
के पास हमारी
प्रतीक्षा कर
रहा था। उन्हें
मिलने के लिए
विवेक
दरवाज़े पर
खड़ी थी। ज्यों
ही वे अंतिम
सीढी पर
पहुंचे तो वे
हाथ हिलाने के
लिए पीछे मुड़े।
वर्षा हो रही
थी। तथा मैंने
देखा कि रात
में तेज़ हवा
से उनकी दाढ़ी
हिल रही थी।
मैं उनके सौम्य
सौंदर्य को
देख कर
मंत्रमुग्ध
रह गई तथा उस क्षण
के अद्भुत
महत्व को
देखते हुए
जैसे जड़ हो
गई थी। अलविदा
अमरीका
अलविदा ऐ विश्व।
दरवाजा बंद
होने जा रहा
था तब मैं होश
में आई की मैं
भी जा रही
हूं। मैंने
भीड़ के बीचों
बीच सीढ़ियों
से होते हुए
भर हुए केबिन
में स्वयं को
धकेला। विवेक
तीन सीटों को बिछाने में
बदलकर ओशो के
लिए विश्राम
का प्रबंध कर
री थी। उनके
तकिए व कम्बल
व कंबल उनके
पास सी टिका
कर रख दिए गये
थे। वे लेट गए
और उन्होंने
अपनी आंखें
मंद ली। यह
अपरिचित सा
लगने वाल दृश्य
आने वाले वर्ष
का परिचित
दृश्य होने
वाला था। जब
कई बार विमान
पृथ्वी ग्रह
के ऊपर से
उड़ते हुए
विमान का
केबिन ही
हमारा ‘धर’ होने
वाला था।
एक लम्बे
समय के बाद
अमरीका से
बाहर उड़ जाना
मुझे सबसे
सुखद घटना
जैसा लग रहा
था। जब ओशो
शांति से सो
गए तब हमने
शैम्पेन की
बोतल खोल कर
उत्सव
मनाया। विमान
की उड़ान भरने
से लेकिर नीचे
उतरने तक ओशो
सदा तथा हर
कहीं शांत
मुद्रा में
सोते रहते थे।
वे एक नजात शिशु
सी मुद्रा
लिये उठते, ऐसे जैसे
हर वस्तु को
जैसे पहली बार
देख रहे हो
तथा विस्मित
होते कि वे
अभी भी हमारे
बीच इस पृथ्वी
पर ही है।
विमान में
विवेक, देवराज,
निरूपा,
मुक्ति,
हास्या,
आशीष और
राफिया थे। यह
एक छोटा सा
जेट था। जिस बड़े
विमान की हम
प्रतीक्षा कर
रहे थे वह
कैंसल कर दिया
गया था जब उन्हें
यह ज्ञात हुआ
कि उस विमान
के यात्री कौन
थे अंत:
अधिकतर लोग
जिनमें ओशो का
परिवार भी सम्मिलित
था व्यवसायिक
उड़ानों की
प्रतीक्षा में
पीछे छूट गए
थे।
हम साइप्रस
में उतरे क्योंकि
अरब देशों के
ऊपर से उड़ान
करने की हमें
अनुमित न थी।
और वहां कोई
मुस्लिम
छुट्टी अवकाश
के कारण हमे
अनुमति मिल भी
न सकती थी।
साइप्रस
एयरपोर्ट पर
हमारी स्थिति
हास्यास्पद
थी। ओरेगॉन की
सर्दी से हम
भूमध्य की
झुलसा देने
वाली गर्मी
में पहुंच गए
थे। बूट, खाल के कोट,स्कार्फ
तथा टोपियां
पहने हुए।
पूर्णतया लाल
वस्त्रों
में हम आठ के
आठ लोग ओशो के
साथ थे जो अपने
लम्बे रोब, बुनी हुई
टोपी(जो
पत्रकारों की
भाषा में
हीरों से जड़ी
थी) में थे तथा
उनकी लम्बी
रूपहली स्जंत
खेत दाढ़ी उड़
रही थी।
एयरपोर्ट के
अधिकारी
घबड़ा गए थे
तथा वह जानने
का प्रयत्न
कर रहे थे कि
क्या हो रहा
है। उन्हें
क्या करना
होगा। एक
भूला-भटका
रिपोर्टर कही
से एयरपोर्ट
पर मौजूद था
जिसने परिस्थिति
बिगाड़ दी।
तथा इतनी जोर
से चिल्लाया
कि अधिकारी
इसे सुन लें
चिल्ला रहा
था, भगवान
श्री रजनीश।
उन्हें
अभी-अभी
अमरीका से
निर्वासित
किया गया है।
यद्यपि एक
घंटा कार्य
आदि करने के
बाद, ओशो
धूल धुएँ से
भरे प्रतीक्षालय
में बैठे रहे।
हमें साइप्रस
में रूकने की
अनुमति मिल
गई। और हम सब टैक्सी
लेकिन
सर्वश्रेष्ठ
होटल ढूंढने
चल पड़े।
रात्रि के
दो बजे का समय
था तथा हम ऐसी
अति की अवस्थ
में थे कि
नींद नहीं आ
रही थी। अत:
मैं अपने होटल
के कमरे में
बालकनी में
बैठ गई। मैंने
रात के अंधेरे
में देखा तथा
रोने लगी
मैंने आधुनिक
युग की सूली
को अपनी आंखों
से देखा था
तथा ओशो को ज़ंजीरों
में देखना, विष, व
न्यायालय के मिथ्या
दृश्य और फिर
रजनीशपुरम व
वहां के सभी
सुंदर लोगों
का अंत वह उस
सत्य को
जानती थी। हम
अमरीका में
(सृजन) करने का
प्रयास कर रहे
थे, मैं उन
लोगों के उल्लास
तथा
निर्दोषता को
जानती थी। और
मुझे लगा जैसे
अस्तित्व
भी हमारे प्रतिकूल
हो गया है।
हमारे जैसे
लोगों का पूरे
जगत में कहीं
कुछ न हो सकता
था। ‘तुमने
हमें क्यों
बिसार दिया....’ मैंने
पूछा।
अगली सांझ
अरब देशों के
ऊपर से उड़ान
भरने की अनुमति
पाकर हम भारत
की और उड़
चले। भारत
मेरी,
अन्तिम आशा
अमरीका असभ्य
बर्बर सिद्ध
हुआ तथा ओशो
को नहीं समझ
पाया परंतु
भारत उससे
भिन्न होगा।
भारतीय लोग
समझते है सम्बोधि
क्या होती
है। वे सत्य
की खोज के
बारे में
जानते है। तथा
महात्माओं
पुण्यात्माओं
का समादर करते
है। वह चाहे अन्ध
विश्वास के
कारण ही हो
परंतु भारतीय
लोग महान गुरु
एक अच्छे
शिक्षक का आदर
करते है। तो निशचित
रूप से ओशो को
तो जानते ही
है। भारत में
वे तीस वर्ष
घूमते रहे,
यात्रा में ही
रहे। कभी-कभी
तो पचास हजार
लोगों के समूह
को सम्बोधित
करते हुए।
मुझे विश्वास
था कि भारत
अपने ‘गॉड
मेन’ का स्वागत
खुली बांहों से करेगा।
ओशो के साथ
अमरीका से जो
व्यवहार
बर्ताव मिला
उससे उनके
संदेह की पुष्टि
हो जाएगी। कि
पश्चिम के
पास अंतस की
कोई समझ नहीं
है। वे उन्हें
रहने के लिए
धरती वे रहने
के लिए स्थान
देंगे। मैंने
सोचा।
हम मध्य
रात्रि 2-30 बजे
दिल्ली
पहुंचे। र्निधारित
समय से चौबीस
घंटे देरी से
और इसका कारण
हमारा
साइप्रस में
रूकना था। इससे
एयरपोर्ट पर
पहुंचने के
लिए हजारों
लोगों को समय
मिल गया। इससे
कितना तनाव बढ़
गया होगा जब
लोग
प्रतीक्षा
किए जा रहे
होंगे। जब हम
आप्रवसीय काउंटर
पर पहुंचे तो
मैंने पीछे
मुड़कर भीड़
को देख मैं
भयभीत हो गई।
वहां सैकड़ों
रिपोर्टर तथा टी.
वी. समूह अपने
कैमरे लिए कुर्सियों
और मेज़ों पर
खड़े थे।
उतेजित व व्यग्र
दिखाई देने
वाले लोगों का
समूह एक दूसरे
को धकेलता वे
ठेलता हुआ
कुरू को स्पर्श
करने के लिए
उमड़ता आ रहा
था।
लक्ष्मी
वहां थी
पूरी-की पूरी
अपने चार फुट
दस इंच कद के साथ, साथ में
आनंदों थी जो
कुछ दिन पहले
ही लक्ष्मी
के साथ अमरीका
से आई थी।
हम लोगों
को कस्टम
कार्यालय में
रोक लिया गया।
इस बीच ओशो
तथा विवेक
प्रस्थान तक
पहुंचकर उन्मत
भीड़ को चीरते
हुए
प्रतीक्षा कर
रही कार में
बैठने चले गए
मैं उनके
पीछे-पीछे चली
गई विवेक के ‘वापस जाओ, वापस जाओ।’ चिल्लाते रहने
के बावजूद मैं
अब भी समझ
नहीं पाई कि
उसने ऐसा क्या
कहा, यह
बहुत असम्भव
परिस्थिति
थी लोग ओशो के
वस्त्र खींच
रहे थे। एक स्त्री
कुदी तथा पीछे
से उसने अपनी
बांहों में ओशो
के गले के
इर्द-गिर्द
डाल दी। कुछ
लोग उनके पैरो
में पड़ रहे
थे। कुछ उनकी
टांगों पर झपट
रहे थे। उनके
पैरों को चोट पहुंचा
रहे थे। तथा
लगभग उन्हें
धरती पर गिरा
दे रहे थे।
उनके भी और
पीछे के लोग
ऐसा ही करने
के लिए धक्के
दे रहे थे तथा
रिपोर्टर ओशो
को प्रश्न
पूछने के लिए उनके
सामने लपककर
पहुंच रहे थे।
इस सबके बीच
एक ही मार्ग
था तथा अब
मुझे आप्रवसीय
काउंटर पर
वापस नहीं
जाना था।
मैंने
लोगों को उनकी
बाँहों से
खींचा या
बालों से—या
कहीं से भी
मेरे लिए सम्भव
था—तथा रास्ता
बनाने की
कोशिश करने
लगी। आनंदों
भी यही कर रही
थी। और लक्ष्मी
भी अपनी छोटी
सी देह के
बावजूद अच्छा-खासा
संघर्ष कर रही
थी। ओशो प्रत्येक
व्यक्ति की
और देखकर मुस्कुरा
रहे थे तथा
हाथ जोड़कर
नमस्ते करते
हुए बड़ी
शांति से उस
दुर्गम मार्ग
में से सरकते
जा रहे थे।
अंतत: जब हम
कार तक पहुँचे
तो वहां भी
लोगों की भीड़
के बीच ओशो को
दरवाजा खोलकर
कर के भीतर
बैठने में
पाँच मिनट का
समय तथा असीमशक्ति
लगी।
जैसे ही
कार चलने लगी
मैं कांपती
हुई वहां खड़ी
रही। अब मैं
आश्वस्त
होने लगी थी।
हम भारत में
थे तथा ओशो
सुरक्षित थे।
मां
प्रेम शुन्यों
(माई
डायमंड डे विद
ओशो) हीरा
पायो गांठ
गठियायों)
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