रहीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा
जनीशपुरम—02 (अध्याय—07)
जनीशपुरम—02 (अध्याय—07)
जब तक न्यायालय
हमारे पक्ष
में कोई
निर्णय न दे
व्यावसायिक
क्षेत्र (कमार्शियल-जोन)
में न होने के
कारण हम कोई
व्यवसाय स्थापित
नहीं कर सकते
थे; पर्याप्त
टेलीफ़ोन भी
लगवा सकते थे।
निकटतम क़सबा
एंटिलोप था
जिसके लगभग
चालीस निवासी
थे। यह क़सबा ऊंचे-ऊंचे
पॉपलर (पहाड़ी
पीपल) वृक्षों
के बनों में
बसा हुआ था।
तथा
रजनीशपुरम से
अठारह मील की
दूरी पर था।
व्यापार के
लिए हम वहां
एक ट्रेलर ले
गए थे। मात्र
एक ट्रेलर और
थोड़े से संन्यासी, और
हम पर कस्बे
पर अधिकार
जमाने का आरोप
लगा। भय के
कारण स्थानीय
निवासियों ने
अपने नगर का ‘अनिवासी
करण’ कर दिया।
हमने उनके
विरूद्ध न्यायालय
में मुकदमा
दायर कर दिया।
जीत हमारी
हुई। इस घटना
ने ऐसे कुरूप नाटक
का रूप ले
लिया कि अमरीका
वासियों में
इसकी चर्चा
उनके नवीनतम
धारावाहिकों
से भी अधिक
होने लगी।
समाचार
पत्र तथा
टेलीविजन स्टेशन
इसमे बहुत
रूचि दिखाने
लगे थे।
समाचार-पत्रों
और टेलीविज़न
पर शीला एक
बहुत बड़ी जादूगरनी
सी प्रतीत
होती थी।
एंटिलोप के
निवासियों ने
अपना भय प्रकट
करा शुरू किया
और अपना घर
बचाते गृह स्वामी
का नाटक छेड़
दिया।
यह नाटक
विकसित होता
गया। अंत में
और अधिक संन्यासी
शहर में
प्रविष्ट हो
गए। उन्होंने
अपना मेयर स्वयं
निर्वाचित
किया। घरों का
पुनर्निर्माण
किया और शहर
को नया नाम
दिया—‘रजनीश
नगर’ यह सब करेन
के पश्चात वे
रजनीशपुरम
घाटी की और
लौट आए और सब
छोड़ दिया। इस
दौरान एंटिलोप
के निवासी अभी
वहां थे परंतु
अब उनके जीवन
का एक अर्थ था
उनका महत्व
बढ़ गया था।
टेलीविज़न
में उनका
इंटरव्यू
होता। लड़ाई
अब भी जारी
थी।
शीला स्वयं
को ‘स्टार’
समझने लगी थी।
उसे बहुत से
टी. वी.
कार्यक्रमों
के लिए आमन्त्रित
किया जाने
लगा। किसी भी
प्रश्न का
उत्तर जिस
अदा से वह दे
रही थी वह
उसके मूल्य
को ऊपर चढ़ाने
में सहायक हो
रहा था।
यूरोप से
अब अनेक नए
संन्यासी आ
रहे थे जिन्होंने
ओशो को पहले
कभी नहीं देखा
था। उनके लिए
शीला
धर्मगुरू पोप
थी।
रजनीशपुरम
में पूरे कम्यून
के लिए आयोजित
उनकी सभाओं
में वह ऐसे
युवा लोगो से
घिरी रहती
जिनके चेहरों
पर भक्ति भाव
झलकता जो
यूरोप के कम्यूनों
से नए-नए आए
थे। और जो
उसकी प्रत्येक
बात पर
तालियां
बजाने को आतुर
रहते। वे सभाएँ
मुझे भयभीत कर
जाती थी। मुझे
वे सभाएँ
हिटलर की युवा
लहर सी प्रतीत
होती थी।
मैं और
अधिक पहाड़ियों
में शरण लेने
लगी जैसे ही शीला
ने बाहरी जगत
के साथ अपनी
लड़ाई तेज़ कर
दि, उधर भीतर
(कम्यून में) भी
एक लड़ाई शुरू
हो गई है। कम्यून
के सदस्यों
को इस बात का
आश्वासन
दिया ने के
लिए उनमें
कहीं कोई दरार
नहीं है। एक
रात शीला और
विवेक ने मग्दालिन
कैफेटेरिया
में सभा
बुलाई।
यद्यपि सभी
बहुत ही
मार्मिक
प्रतीत हो रही
थी। परंतु
इसने सबके
संदेह को पुष्ट
कर दिया था
दोनों मे
सचमुच कोई
संघर्ष चल रहा
था। अन्यथा
सभी आयोजन से
क्या
अभिप्राय है।
विवेक शिला
का रति भर
विश्वास
नहीं करती थी।
उसे ओशो के घर
की चाबी रखने की
भी अनुमति
नहीं थी। जब
भी वह ओशो से
मिलने आती,
उसे विवेक को
पहले
टेलीफ़ोन पर
सुचना देनी पड़ती
थी। फिर ठीक
समय पर उसके
लिए दरवाजा
खोला जाता था।
और अंदर जाने के
बाद बंद कर
दिया जाता।
ओशो के ट्रेलर
की और जाने के
लिए हमारे घर
से होकर जाने
की भी शीला को
मनाही थी। उसे
साथ वाला
दरवाज़ा इस्तेमाल
करना होता था।
यह बस इसलिए
था कि हमारे ट्रेलर
से गुज़रते
हुए वह कोई न
कोई मुसीबत
अवश्य खड़ी
कर देती; लेकिन इस
बात से वह
परेशान अवश्य
थी। यह बात
उसके लिए बहुत
अपमानजनक थी।
वास्तव में
बात तो यह थी
कि सत्ता
किसके हाथ में
थी।
शीला इन
छोटे-छोटे
तू-तू, मैं-मैं के
झगड़ों की खबर
ओशो को कभी न
देती थी क्योंकि
उसके पास इस
बात की पूरी
समझ थी कि ओशो
का कोई भी
समाधान उसकी
सत्ता को
समाप्त कर
देगा। मैंने
उन्हें कभी
नहीं बताया क्योंकि
जिस गति से
रजनीशपुरम
विकसित हो रहा
था, उसकी तुलना
में यह सब
बहुत महत्वहीन
था। मैं इस
भ्रम में थी
कि यदि शीला
हमसे जो लोग
ओशो के साथ
उनके घर में
रहते थे—अप्रिय
व्यवहार
करती है, उनसे
नाराज़ हाथी
है तो वह इस पर
ही अपना क्रोध
निकाल लेगी।
और कम से कम
शेष कम्यून-वासियों
के प्रति तो
उसका व्यवहार
अच्छा
रहेगा। में इस
बारे में
अंजान ही बने
रहना चाहती
थी।
रजनीशपुरम
में मुझे किसी
प्रकार का कोई
कष्ट नहीं
था। यद्यपि
में बारह घंटे
प्रति दिन
कार्य करती
थी। हम क्या-क्या
कर सकते और क्या-क्या
नहीं इसके लिए
नियम बढ़ते जा
रहे थे। मुझे याद
है जब एक बार
ओशो ने मुझसे
पूछा था कि
मैं थक तो
नहीं गई हूं।
तो मैंने उत्तर
दिया था कि
थकान क्या
होती है, मैं भूल ही
गई हूं। मैं
सोचती थी की
प्रत्येक व्यक्ति
आनंदित है।
क्षमा करें,
लेकिन मुझे
कभी ऐसा
प्रतीत नहीं
हुआ कि वह एक कठिन
समय था। अपनी
बेहोशी में हम
स्वयं को ऐसे
लोगों के समूह
से शासित होने
दे रहे थे
जिन्हें
हमारी
बुद्धिमता पर
ही संदेह था।
जो हमें दबाने
के लिए हमें
नियंत्रण में
रखने के लिए
यदा-कदा हमारे
भीतर भय पैदा
कर रहे थे।
परंतु इस बात
को ऊपर सतह पर
आने में समय
लगा और इस
दौरान हम स्वयं
में आनंदित
थे। यदि आप
संन्यासियों
के एक समूह को
इकट्ठा करें
तो उसे जिस
नाम की संज्ञा
दी जा सकती है
वह है हास्य।
विवेक ने
कम कष्ट नहीं
पाया। अंत स्त्राव
(हार्मोनल)
रासायनिक
असंतुलन की
शुरूआत थी जो
उदासी के
दौरों के रूप
में प्रकट
होता। मैं यह
भी सोचती हूं
कि वह अति
संवेद शील थी
और शीला व
उसके गुट के
बारे में उसकी
अंतर्बोध उसे
पागल किए जा
रहा था। एकाएक
उसे उदासी पकड़
जाती। कई बार
दो-तीन सप्ताह
तक वह अंधेरी
कोठरी में पड़ी
रहती। हम हर
प्रकार से
उसकी सहायता
करने की चेष्टा
करते परंतु
कोई लाभ न
होता। अंत में
उसकी इच्छानुसार
उसे अकेला
छोड़ दिया
जाता। उसने
कम्यून
छोड़ने का
निश्चय कर
लिया। एक
मित्र जिसका
नाम जॉन था,
उसे विवेक को 250
मील दूर सैलेम
तक छोड़ आने
के लिए कहा
गया ताकि वह
वहां से सीधी
लंदन के लिए
हवाई जहाज़
पकड़ सके। जॉन
‘हॉलीवुड
सैट’—संन्यासियों
के उस छोटे से
ग्रुप का सदस्य
था जो पूना
में ओशो के
साथ था और अब
इस महा प्रयोग
में सम्मिलित
होने के लिए
जिसने बेवरली
हिल्ज़
ठाठ-बाट भरे जीवन
को त्याग
दिया था। उस
दिन बर्फानी तूफ़ान
चल रहा था;
सड़क पर फिसलन
थी; सामने कुछ
दिखाई न दे
रहा था। अठारह
घंटे कार में
सफ़र करने के
पश्चात वे
ठीक समय पर
हवाई अड्डे पर
पहुंच गए और विवेक
विमान पकड़
पाई।
जॉन जोखिम
भरी यात्रा तय
कर कम्यून
लौट आया। उसके
पहुंचने से
पहले ही विवेक
का लंदन से
फ़ोन आया कि
वह कुछ घंटे
अपनी मां से
मिल ली है और
अब कम्यून
लौटना चाहती
है। ओशो ने
कहा, हां ठीक है।
जॉन को फिर से
एअरपोर्ट
जाना था क्योंकि
वही उसे
छोड़ने गया
था। वह फिर
वापस जाने के
लिए ठीक समय
पर रजनीशपुरम
पहुंच गया था।
अब सड़क पर बर्फ़
की तह इतनी
मोटी हो चुकी
थी कि बहुत से
रास्ते बंद
हो चुके थे।
और बर्फ़ अब
भी गिर रही
थी। जैसे-तैसे
यात्रा संभव
हुई। विवेक का
खुली बांहों
से स्वागत
हुआ। हमेशा की
तरह उसके अंदर
कोई अपराध भाव
नहीं था। कोई
शर्मिंदगी
नहीं थी। वह
पुन: सिर ऊँचा
किए अपना काम
काज इस तरह
करने लग गई
जैसे कुछ हुआ
ही नहीं हो।
इसमे मुझे
गुरजिएफ विधि
का स्मरण हो
आता है।
यद्यपि इसमे
विधि जैसा कुछ
भी न था। एक
दिन ओशो के
साथ
रजनीशपुरम की
घुमावदार
सड़क पर कार
चलाते हुए ज्यों
ही हम एक मोड़
पर पहुंचे तो
सड़क के
साथ-साथ घूमने
की अपेक्षा वे
सीधा किनारे
की और बढ़ने
लगे। कार अपने
अगले भाग पर
खड़ी हो गई।
जो कि लगभग एक
तिहाई हिस्सा
हवा में था।
हमारे नीचे
तीस
फ़ुट गहरी
खाई थी। उसके
बाद तो नीचे
घाटी की और
ढलान-ही ढलान
थी।
ओशो
ने कहा, ‘तुम
देखो क्या
होता है.....?’
मैं
स्थिर बैठी
थी। सांस लेने
की भी हिम्म्त
न कर पा रही थी
कहीं हल्की
सी हिल-डुल
संतुलन को
बिगाड़ कर
हमें नीचे की
और ढकेल दे।
वे इंजन को
फिर से चलाने
के पहले कुछ
क्षण रुके,
मैं अस्तित्वहीन
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रही थी। ‘कृपया
इसे रिवर्स
गियर में डाल
दो।’ और
कार धीरे-धीरे
सड़क पर पहुंच
गई। और हम घर
की और जा रहे
थे। मैं समझ न
पाई इसलिए बात
जारी रखी, ‘क्या होता
है... ?’
उनहोंने
कहा: ‘मैं कार को कीचड़
भरे गड्ढे से
बचा रहा था क्योंकि
चिन् जो कार
साफ करता है
उसके लिए मुश्किल
हो जाती।‘
शीला
ने ओशो के घर
तथा उद्यान के
इर्द-गिर्द दस
फुट ऊंची
बिजली के करंट
वाली तार लगवा
दी। हिरनों को
उद्यान से दूर
रखने के लिए।
चाहे
वे कुछ भी
कहें पर हम
घेर लिए गये
थे। मेरा
धुलाई
क्षेत्र इस
बाड़ से बाहर
था मुझे भरोसा
दिलाया गया था
कि बाहर जाने
के लिए जो
दरवाजा है उस
पर बिजली के
करंट का कोई
प्रभाव नहीं
है। लेकिन जब
भी मैं दरवाजे
के बाहर
निकलती मुझे
ऐसा झटका लगता
जैसे किसी
घोड़े ने पेट
पर लात मार दि
हो। जब पहली
बार ऐसा हुआ
तो घुटनों के
बल गिर पड़ी।
और इसके बाद
मैंने वमन
किया। पहाड़ियों
में बीतने
वाले मेरे समय
का अंत आ गया
था। पहाड़ियों
के बीच से कैनटीन
तक भागने की
अपेक्षा अब
मैं अन्य सभी
की भांति बस
स्टॉप के
रास्ते पर
चलती और वॉच
टावर पर बैठा
पहरेदार मुझ पर
नज़र रखता।
हां सच, एक
ऐसा वॉच टावर
भी था। जिसमे
दो व्यक्ति मशीनगन
लिए चौबीस
घंटे पहरा
देते रहते।
आतंक बाड़ के
दोनों ओर बढ़ता
जा रहा था।
अप्रैल, 1983
में ओशो ने
कम्यून को एक
संदेश भेजा।
देवराज ने उन्हें
उस निदानहीन
रोग एड्स की
सूचना दी जो
पूरे विश्व
में फैलता जा
रहा था। ओशो
ने कहा की यह
रोग दो-तिहाई
मानव जाती को नष्ट
कर देगा। कम्यून
को इससे बचना
होगा। उन्होंने
सुझाव दिया कि
संभोग करते
समय कंडोम तथा
रबड़ के दस्तानों
का उपयोग किया
जाना चाहिए।
प्रेम ने इस समाचार
को उछाला और
उस रोग से
बचाव के लिए
क़दम उठाने को
मज़ाक
उड़ाया।
जिसका अभी पता
ही नहीं है।
पाँच वर्ष
बीते, तथा
हज़ारों
मौत.....बाद में
अमरीका के स्वास्थ्य
अधिकारी भी इस
रोग के ख़तरे
के प्रति
सतर्क हुए और
उसने बचने के
वही सुझाव
देने लगे। अब 1991
है और हमारे कम्यून
में प्रत्येक
व्यक्ति को
हर तीन महीने
बाद एड्स
परीक्षण किया
जाता है।
मनुष्य
की प्रकृति का
शायद एक दुखद
तथ्य यह है
कि यदि एक व्यक्ति
या व्यक्तियों
का समूह आपसे
भिन्न है,
तो आप भयभीत
हो जाते है।
में इंग्लैंड
के एक छोटे से
नगर कॉर्नवाल
में पली थी
जहां पड़ोस के
गांव के लोग
भी अजनबी
कहलाते थे। उस
नगर में जनम
लेने से ही आप
उसके वासी
नहीं समझें
जाते थे। आपके
माता पिता दोनों
में से एक का
वहां जन्म
होना भी
अनिवार्य था।
तभी वे आपको
स्वीकार कर
सकत थे। इसी
कारण ऑरेगान
के स्थानीय
लोगों की
हमारे प्रति
जो
प्रतिक्रिया थी
उससे मुझे कोई
हैरानी नहीं
हुई। यद्यपि
यह प्रतिक्रिया
कुछ ज्यादा
ही थी।
हिंसात्मक
थी। उनके स्थानीय
चर्च के धार्मिक
नेता के नारे....’शैतान के
पुजारियों, अपने घर
वापस चल जाओ।’ उनकी
टी-शर्टों पर
वह छपाई—‘लाल
होने से बेहतर
मौत।’ ओशो
की और तनी बंदूकों
के दृश्य,
पोर्टलैंड में
बम-विस्फोट
यह सब अतिशय
था।
हां,
तब मुझे ऐसा
आभास भी न था कि
पूरी सरकार की
प्रतिक्रिया
ऐसी पक्षपातपूर्ण
वे उत्तरदायित्वहीन
होगी। हमारा
कम्यून
पर्यावरण
सुरक्षा
(इकोलॉजी) का
एक सफल प्रयोग
था। जब हम
रजनीशपुरम
पहुंचे थे वह
एक बंजर मरुस्थल
था तथा इसे
रूपान्तरित
करने का भरसक
प्रयास किया
जा रहा था।
बाँध बनाकर
पानी इकट्ठा
किया जा रहा
था। फिर इससे
सिचाई की जाती
थी। कम्यून
को स्वावलम्बी
बनाने के लिए
पर्याप्त
अन्न उगाया
जा रहा था।
कम्यून का
सत्तर
प्रतिशत कचरा
रिसायकल किया
जाता –एक
सामान्य
अमरीकन नगर
अधिकतर पाँच
से दस प्रतिशत
कचरे को ही
रिसायकल करता
है। और अधिकतर
शहरों को इस
बात की चिंता
ही नहीं थी।
हम भूमि का ख्याल
रखते और मिट्टी
को किसी
प्रकार से
प्रदूषित न
होने देते।
मल-जल निष्कासन
प्रणाली कुछ
इस ढंग से काम
करती कि पाइप
द्वारा मल जल
एक ताल में
छोड़ दिया
जाता। जिसे
वहां पर जैविक
विभाग (बायोलॉजिकली
ब्रेक डाउन)
से गुजरकर एक
फिल्टर सिस्टम
से छन कर पाईप
में से हाता
हुआ सीधा नीचे
घाटी में जाता
और अंत में
खेतों की सिचाई
के काम आता।
भूमि अपरदन को
बचाने के
प्रयत्न चल
रहे थे। घाटी
में दस हज़ार
पेड़ रोपित कर
दिए गये थे।
आज फिर से
उजड़ गई उस
धरती पर दस वर्ष
बाद भी बहुत
पेड़ खड़े है।
मैंने सूना है
कि पेड़ फलों
से इस प्रकार
लदे हुए है कि
उनकी शाखाएं
टूट जाती है।
1984
में ओशो ने
कहां था:
‘वे
इस नगर को
अपने भूमि उपयोग क़ानूनों
की आड़ में
नष्ट कर देना
चाहते है—मूर्खों
में से एक भी
यह देखने नहीं
आया कि हम कैसे
इस भूमि का
उपयोग कर रहे
है। क्या वे
हमसे अधिक
सृजनात्मक
ढंग से इसका
इस्तेमाल कर
सकत है। और
पिछले पचास
वर्षों से कोई
भी व्यक्ति
इस भूमि का कुछ
उपयोग नहीं कर
रहा था। और वे
प्रसन्न थे
कि यह उसका
दुरूपयोग था।
अब हम इसमें
उत्पादन कर
रहे है। हमारा
कम्यून एक स्वावलम्बी
कम्यून है।
हम खाद्य
पदार्थों,
सब्जियों
आदि का उत्पादन
कर रहे है। हम
इसे स्वावलम्बी
बनाने का हर
संभव उपाय कर
रहे है।’
‘यह
मरुस्थल....लगता
है कि यह मेरे
जैसे सभी व्यक्तियों
के भाग्य में
लिखा है। मूसा
भी अंत में मरुस्थल
में ही पहुंच
गये। और मैं
भी वही पहूंच
गया। हम इसे
उर्वर बनाने
का प्रयास कर
रहे है। हमने
इसे हरा-भरा
बना दिया है।
यदि आप मेरे
घर के आस-पास
जाएं और देखें
तो विश्वास
नहीं होगा कि
यह ऑरेगान है, लगेगा कि यह
काश्मीर है।
और वे यह भी
देखने नहीं
आते कि यहां
क्या-क्या
हो चुका है।
केवल राजधानी
में बैठे-बैठे
वे यह निर्णय
लेते है कि यह
भूमि उपयोग है।
तो वह भूमि
उपयोग नियमों
के सर्वथा
विरूद्ध है।
तो तुम्हारे
सभी नियम झूठ
है, उन्हें
जला देना
चाहिए। परंतु
पहले आओ,
देखो तथा यह
सिद्ध करो कि
यह भूमि उपयोग
कानून के
सर्वथा
विरूद्ध है, परंतु उन्हें
यहां आने में
भय लगता है.....’(द रजनीश
बाइबल)
भूमि
उपयोग नियमों
का मामला उच्च
न्यायालय
तथा अन्य
छोटे न्यायलयों
के चक्कर
लगाता रहा।
अंत में हमने
यह मुकदमा जीत
लिया, परंतु
तब तक बहुत
देर हो चुकी
थी। एक वर्ष
पूर्व ही कम्यून
उजाड़ दिया
गया था। सभी
सन्यासी जा
चुके थे और अब
यह कहने में
कोई खतरा नहीं
था कि हमारा
नगर
गैर-कानूनी
नहीं था।
ओशो
ने जब पेड़ों
की अनुपस्थिति
की चर्चा की
तो शीला ने
उन्हें एक
चीड़ के
वृक्षों के
जंगल के बारे
में बताया जो
कि इस स्थान से
बहुत दूर था।
उन्हें
पेड़ों से
बहुत प्यार
था। वे अक्सर
मुझसे पूछते, ‘क्या तुमने
वह चीड़ का
जंगल देखा है? कितने पेड़
है? कितने
बड़ है? क्या
खूब घना है? यहां से
कितनी दूर है? क्या मैं
वहां तक कार
से जा सकता
हूं?’
मैं
एक दिन
मोटरसाइकिल
पर वहां गई।
वहां कोई सड़क
नहीं थी। वह
पन्द्रह मील
दूर हमारी सम्पति
के एक छोर पर छोटी-सी
घाटी में स्थित
था। रजनीशपुरम
से बाहर
ड्राइव करना
ओशो के लिए
दिन-वे-दिन
खतरनाक होता
जा रहा था।
इसलिए चीड़ के
जंगल की और
सड़क बनानी
आरम्भ कर दी
गई। काम बहुत
धीमी गति से
हो रहा था। अभी
थोड़ी सी सड़क
की कटाई शुरू
होती कि लोगों
को काम के लिए
कहीं और बुला
लिया जाता।
फिर बारिश हो
जाती और सड़क
वह जाती। सन् 1984
तक दस मील तक
सड़क बन कर तैयार
हो गई थी। ओशो
प्रतिदिन कार
चलाते हुए उस
अदृश्य चीड़
के जंगल के
समीप और समीप
पहुंच जाते। वह
एक शानदार
ड्राइव थी,
लेकिन जंगल का
अभी कोई
नामोनिशान न
था।
जिस
जंगल को देखने
की उनकी प्रबल
इच्छा थी,
उस तक सड़क के
पहुंचने से
पहले ही ओशो
वहां से जा चुके
थे। जब से यह
परियोजना
आरम्भ हुई थी
मिलारेपा और
विमल इस सड़क
पर काम कर रहे
थे। वे घनिष्ठ
मित्र थे।
विमल की विनोद
वृति और सरलता
को पूरी तरह
प्रकट करने का
समय अभी आना
था—वर्षों बाद
सभागार में सन्ध्या
कालीन सभा में
मनीषा की नकल
उतारने के लिए
साड़ी पहनकर
और एक अन्या
रात्रि को
गुरिल्ला की
खाल पहनकर
उसने ओशो को
और हमको खुब
हंसाया। यह सब
कुछ होने से
पहले वे दोनो
मिलकर अपने सदगुरू
को जंगल
दिखाने के लिए
एक छोटा सा
मार्ग बना रहे
थे।
उनहोंने
इतने लम्बे
समय तक संकल्पपूर्वक
उस काम को
किया था कि जब
उसे छोड़ देने
का समय आ गया
तब भी वे
दोनों अकेले
ही जुटे रहे।
जब अन्य हर
व्यक्ति
मशीनों को
बेचने के लिए
उन्हें वापस
ला रहा था,
तब भी वे
दोनों चीड़ के
जंगल ते
पहुचने का प्रयास
कर रहे थे। इस
आशा में कि ‘शायद ओशो
वापस आ जाए।’
जैसे-तैसे
सप्ताह और
महीने बीतते
गए—संन्यासियों
की ऊर्जा
छलक-छलक जाती
थी। संभाले न
संभल रही थी।
जब ओशो कार
चलाते हुए
गुजरते उस समय
सड़क के दोनो
और खड़े होकर
उन्हें नमस्कार
करना ही
पर्याप्त न
था। एक दोपहर
जब ओशो
कार-ड्राइव कर
रहे थे। इटालियन
संन्यासियों
का एक छोटा सा
ग्रुप सड़क के
किनारे खड़ा
होकर ओशो के
लिए संगीत
बजाने लगा। वे
कुछ देर रुके
और संगीत का
आनंद लिया। और
फिर तो क्या
एक सप्ताह के
भीतर ही घाटी
की सड़क पर
गाते-नाचते लाल
रंग के वस्त्र
पहने संन्यासियों
की कतार लग
गई। लाओत्सु
गेट से लेकर
बाँध तक तथा
बाशो सरोवर के
पार, रजनीश
मंदिर के बाद
धूल भरी सड़क
के साथ-साथ नीचे
रजनीशपुरम की
ऊपर
पहाड़ियों
तक। यह तो
शुरू आत थी उस
उद्दाम उत्सव
की । आनेवाले
वर्षों में
भीषण गर्मी और
कड़कती सर्दी
के बीच भी
प्रतिदिन
चलता रहा। यह
उन लोगो के
आनंद का सहज
विस्फोट था
जिनके पास ओशो
के प्रति अपना
प्रेम अभिव्यक्त
करने का यही
एक उपाय था।
विश्व-भर
से संगीत
वाद्य आने
शुरू हो गए
जिनमें सबसे
लोकप्रिय थ
ब्राजीलियन
ड्रम: परंतु
बांसुरियां,
वायलिन,
गिटार,
डफलियां—सभी
आया में को
झकझोर दिया।
वाद्य यंत्र, सैक्सो
फ़ोन, क्लारिनेट, ट्रमपेट—हमारे
पास सब थे।
जिनके पास
वाद्य नहीं थे
अपने स्थान
पर खड़े-खड़े
गाते उछलते
नाचते रहे।
ओशो
को अपने लोगों
को प्रसन्न
देखना बहुत
अच्छा लगता
था। वे इतनी
धीरे कार
चलाते कि रोल्स
रॉयस के इंजन
की विशेष ढंग
से ट्युन करना
पडा। वे संगीत
की ताल और धुन
पर अपने हाथ
हिलाते और कुछ
संगीत कारों
के पास तो कुछ
देर रूक भी
जाते। मनीषा
जो ओशो की
माध्यमों
में से एक थी
और जिसे बाद
में ओशो का ‘रिकार्डर’ बनना था।
(जैसे प्लेटों
सुकरात का था) उत्सव
कारी मनाने
वाले अपने एक
छोटे समूह के
साथ वहां होती।
ओशो उसके
सामने रुकते
और मैं उसे
डफ़ली और
लहराते रिब्बनों
के साथ हर्षोंन्मादक
के उद्दाम
चक्रवात में
विलीन होते
देखती रहती।
उसके लम्बे
काले बाल उसके
चेहरे के
आस-पास उड़ते
उसका शरीर हवा
में उछलता फिर
भी उसकी काली
आंखें शांत और
स्थिर हो ओशो
को निहारती
रहती। ओशो अपने
बोंगोवादक
रूपेश के साथ
अधिक समय बिताते, रूपेश के
माध्यम से
ओशो का ड्रम
बजाना कुछ आलोकिक
था। भारतीय
कीर्तन तथा
ब्राजीलियन
संगीत के सम्मिश्रण
के बावजूद
संगीत में एक
अद्भुत समस्वरता
थी। लयबद्धता
थी। उत्सवकारियों
की कतार के
साथ-साथ
ड्राइव करते
हुए लगभग दो
घंटे लग जाते
क्योंकि ओशो
किसी भी ऐसे
व्यक्ति के
लिए बाधा नहीं
बनना चाहते थे
जो वास्तव
में उसमे डूब
रहा हो। जब वे
अपनी बांहें
हिलाते कार
ऊपर नीचे
उछलती तथा मैं
सदा अचम्भित
रहती कि उनकी
बांहों में
इतनी देर तक
कहां से इतनी
शक्ति आ जाती
है।
वह
ड्राइव—बाई,
किसी भी ऊर्जा
दर्शन की
भांति अंतरंग
सघन थी।
कभी-कभी मैं
ओशो के साथ
कार में होती
और इसलिए उन
लोगों के
चेहरे देख
पाती थी। यदि
इस पृथ्वी
ग्रह को बचाने
का कोई उपाय
हो सकता था तो
वह बस यही था।
कतार में खड़े
लोग कभी कल्पना
भी नहीं कर
सकते थे कि वे
कितने सुंदर
दिखाई देते
है। मैं
प्रात: आनंद
विभोर हो जाती, अश्रु बहने
लगते और एक
बार मेरी
सूं-सूं की आवाज
सुनकर ओशो ने
पूछा—
‘तुम्हें
जुकाम है।’
‘नहीं
ओशो मैं रो
रही हूं।’
हुं
रो रही हो,
क्या हुआ है?
कुछ
नहीं, ओशो,
बस यूं ही यह
सब कितना
सुंदर है?
घर
वापस पहुंचे,
ओशो के दांतों
में बहुत
तकलीफ़ थी।
उनके नौ दांतों
की रूप
कनॉलिंग हो
चुकी थी। जब
चिकित्सा चल
रही थी तब उन्होंने
इस अवसर का
पूरा लाभ
उठाया और दंत
चिकित्सक की
गैस के प्रभाव
में वे बोलते
रहे। ओशो के
दंत चिकित्सक
देवगीत के लिए
ऐसे मुख पर
अपना कार्य
करना सरल बात
न थी जो
अधिकतर समय
हिलता रहे।
ओशो ने तीन
पुस्तकें
बोली।
हमें
लगा कि यह सब
रिकार्ड करने
योग्य है और
हमने वह सब
रिकॉर्ड कर
लिया जो
उनहोंने
बोला। तीन
पुस्तकें, ‘ग्लिम्प्सिस
ऑफ़ गोल्डन
चाइल्ड हुड’, ‘बुक्स
आई हैव लव्ड’, ‘नोटस ऑफ
ऐ मैडमैन’
विलक्षण है।
एक दिन कार-भ्रमण के
दौरान कुछ
घुड़सवार ग्वालों
ने ओशो की कार
पर पत्थर
फेंके। वे
निशाना चूक
गये परंतु मैंने
उन लोगों को
अच्छी तरह
देख लिया था।
उस समय ओशो की
कार के पीछे
हमारे
सुरक्षा दल के
पाँच व्यक्ति
थे जिनमे से
एक ने भी कुछ
देखा नहीं कि
वहां क्या
हुआ था, यद्यपि
मैंने
मोटरोला पर
उनके साथ सम्पर्क
भी स्थापति
किया था।
ड्राइव
के पश्चात
मुझे जीसस
ग्रोव (शीला
का घर) जाकर
सुरक्षा दल के
सामने कुछ
बोलने को कहा
गया। मैं उस
दिन की नायिका
थी। मेरा
अहंकार फूल
उठा तथा अपने
भीतर एक तीव्र
ऊर्जा प्रवाह
अनुभव किया,कमरे
में बैठा हर
व्यक्ति
मुझे सुन रहा
था और मैं समझ
रही थी कि किस
प्रकार उन्हें
अपना काम
बेहतर ढंग से
करना चाहिए।
मीटिंग लंच के
समय समाप्त
हुई। मैं बस
पकड़ने के लिए
कैनटीन की और
चल दी, बस
स्टॉप पर
खड़े मैं स्वयं
को, ऊँचा
महसूस कर रही
थी। भीतर मैं
बोलती जा रही
थी, बात
करना बंद नहीं
हो रहा था,
बातों का
सैलाब मेरे
साथ बहे चला
जा रहा था। अचानक
भीतर एक
घिनौना-सा
धमाका हुआ—मैंने
देखा यह है
सत्ता,
सत्ता की
अनुभूति ऐसी
होती है। यह
वह नशीला
पदार्थ है
जिसके कारण
लोग ख़रीदे जा
सकते है। तथा
जिसके लिए लोग
अपनी आत्मा
तक बेच डालते
है।
शीला
अपने ग्रुप के
लोगों को सत्ता
प्रदान कर या
छीनकर उन्हें
अपने नियन्त्रण
में रखती थी।
मेरे विचार
में सत्ता एक
नशा है तथा
नशीले पदार्थों
की भांति यह
व्यक्ति की
चेतना को नष्ट
कर देता है।
सत्ता लोभ उस
व्यक्ति को
कभी नहीं पकड़
सकता जो ध्यानी
है। फिर भी यह
बड़ी विचित्र
बात है। हमनें
शीला को कम्यून
पर पूरी तरह
सत्ता का
प्रयोग करने
दिया। लोग
रजनीशपुरम
में ओशो के
कारण रहना
चाहते थे,उनकी
सन्निधि में
रहना चाहते थे
और वहां से
निकाल दिए जाने
की धमकी ऐसी
बात थी जिससे
शीला के हाथ
ताकत आ गई।
मेरा विचार है
कि हम भी उस
समय स्वयं की
जिम्मेदारी
लेने को तैयार
नहीं थे। जो
कुछ हो रहा है
उसकी ज़िम्मेदारी
स्वयं पर
लेने की बजाएं
निर्णय लेने
का और व्यवस्था
करने का काम
किसी दूसरे पर
छोड़ना बहुत
सरल है। जिम्मेदारी
का अर्थ है स्वतंत्रता,और जिम्मेदारी
के लिए एक
विशेष प्रकार
की पौढ़ता चाहिए।
पीछे मुड़कर
देखें तो लगता
है हमे बहुत
कुछ सीखना था।
‘जब
मैं विदा हो जाऊँगा, तो मुझे उस
व्यक्ति के
रूप में स्मरण
करना जिसने
तुम्हें स्वतंत्रता
और निजता दी
है।’ –ओशो
.....ओर
उन्होंने दी
है, निससन्देह
दी है।
मैं
जो हूं वैसा
होने की स्वतंत्रता
अपने व्यक्तित्व
की झूठी परतों
से गुजरकर स्वयं
की खोज के साथ
शुरू हो चुकी
है। वैयक्तिक
विशिष्टता
स्वयं को
अभिव्यक्ति
करने के साहस
से ही मिलती
है। भले ही
इसका अर्थ यह
हो कि मैं किसी
भी दूसरे व्यक्ति
से भिन्न
हूं। मेरी
निजता, मेरी
वैयक्तिकता
तथा विकसित हो
सकती है। जब
मैं स्वयं को
स्वीकार कर
सकूं और बिना
किसी निर्णय
के कह सकूं यह
मैं हूं,
मैं ऐसी ही
हूं।
यद्यपि
हमारे घर पर
पाँच टावर में
शीला के सुरक्षा
दल का पहरा
चौबीस घंटे रहता,
फिर भी प्रत्येक
रात्रि हमारे
ट्रेलर में से
किसी एक को बारी-बारी
उठकर तैयार
होना पड़ता—जिसका
अर्थ था पूरी
तैयारी क्योंकि
बाहर शून्य
डिग्री से
नीचे तापमान
होता,
प्रात: वर्षा
या हिमपात हो
रहा होता—और
हमें मोटरोला
के साथ घर के
आस पास चक्कर
लगाने होते और
उस समय घना
अंधकार,
फिसलता और
भयावह
वातावरण
होता। स्विमिंग
पूल के अंतिम
छोर पर ढलान
पर चढ़ते हुए
बांस के पेड़ो
में रेंगते
हुए मैं उस
नाले के ऊपर
से कूद जाती
जिसमे से
विचित्र मरमर
की ध्वनियां
सुनाई देती थी
और प्रात: इस
स्थान पर
मोटरोला में
से एक चीख़ निकलती।
मैं शव की
भांति अकड़े
खड़ी धड़कते ह्रदय
से बर्फ़ से
जमे अपने मुख
पर एक बे-आवाज
चीख़ लिए
अंधेरे को
एकटक घूरती
रहती। यह हम
से बदला लने
की शीला कीओर
से शुरू आत
थी। अभी उसकी
ईर्ष्या को
पागलपन की
सीमाओं को पार
करना था क्योंकि
हम ओशो के
निकट थे।
बदले
में हम इस बात
का पूरा ध्यान
रखते कि शीला
किसी भी तरह
हमारे जाने
बिना घर में
प्रवेश न कर
सके। वह घर के
दरवाजे का ताला
बदलने के लिए
आने आदमियों
को भेजती और
विवेक आशीष को
औज़ारों की
दूकान से एक कूँड़ी
चुराकर(इसके
सिवाय और कोई
रास्ता नहीं
था। लाने के
लिए भेजती और
दरवाजे के
दूसरी और उसे लगवा
कर नया ताला
लगवा देती। सह
विवेक के जीवन
को बचाने के
लिए था। शीला
ने अपने चार
व्यक्तियों
को क्लोरोफार्म
और विष से भरी
सिरिजदेकर
विवेक के कमरे
में भेजा।
विवेक के
मित्र राफिया
को किसी काम
से उस रात
रैंच से बाहर
भेज दिया। परंतु
हत्या करने
का प्रयत्न
किसी कारण
विफल कर दिया
गय। क्योंकि
वे घर व घर के
भीतर प्रवेश न
कर सके। जब तक
शीला ने रैंच
छोड़ नहीं
दिया और उसके
गिरोह के कुछ
व्यक्तियों
की एफ. बी. आई.
द्वारा
पूछताछ नहीं
हो गई हमने इस
षड्यन्त्र
के बारे में
कुछ खोज नहीं
की।
जून
1984 की बात है
मुझे शीला ने
फोन किया।
उसकी आवाज में
ऐसा लगा कि वह
बहुत ही
प्रसन्न है
मानों उसके
हाथ लौटरी लग
गई हो और वह
इतनी जोर से
चिल्ला रही
थी कि मुझे
टेलीफ़ोन चोगे
को कान से दो
फुट दूर रखना
पडा।
‘हमारे
हाथ में जैक
पॉट लग गया।’
वह
चीख़ती सी
आवाज में बोल
रही थी।
यह
सोचते हुए कि
कोई बहुत बड़ी
बात हो गई है,
मैंने पूछा कि
क्या हो गया
है। और उसने
उत्तर दिया
कि पता चला है
कि देवराज,
देवगीत और आशु
जो ओशो के
दांतों की
देखभाल करते
है उन्हें
आंखों का
संक्रामक रोग
कॉन्जंक्टिवायटिस
है। इससे यह
सिद्ध होता है, उसने कहा, ‘कि वे
गंदे सुअर है।
और उन्हें
ओशो की देखभाल
नहीं करनी
चाहिए।’
मैंने
यह सोचते हुए
टेलीफ़ोन
नीचे रख दिया
कि हे परमात्मा
यह औरत वास्तव
में भटक गई
है।
दूसरा
क़दम यह था कि
वह चाहती थी
कि पूजा आकर ओशो
की आंखों की
जांच करे।
पूजा जो नर्स
मैन्गेले के
नाम से जानी
जाती थी। न तो
कोई उसे चाहता
था और न ही
विश्वास
करता था। उसका
चेहरा सांवला
था और ऐस फूला
हुआ था जैसे
सूजा हुआ हो।
आंखें जो
मात्र एक चीर
थी। जो सदा
रंगीन चश्मे
के पीछे छिपी
रहती थी।
मैंने ओशो को
बताया कि शीला,
पूजा को उसकी
आंखों की जांच
करने के लिए
भेजना चाहती
है। उन्होंने
कहा कि,
जबकि इस रोग
का कोई उपचार
ही नहीं है और
रोगियों को
अलग रखने की
जरूरत होती है, फिर इसकी क्या
आवश्यकता
है।
शाली
ने इस बात पर
जोर दिया कि
घर के सभी व्यक्ति
जाकर अपनी
आंखों की जांच
करवाएं। अत:
निरूपा, जो
ओशो की देखभाल
करती थी,
को छोड़कर हम
सब चिकित्सा
केंद्र गए। और
क्या आप विश्वास
करेंगे कि हम
सब उस रोग से
ग्रस्त थे।
विवेक,
देवराज,
देवगीत और
मुझे एक कमरे
में रखा गया।
और बाद में
शीला के दूसरे
बाहर लोग
जिनमे सविता
भी थी हमारे
साथ शामिल हो
गये। सविता
वही महिला थी
जो मुझे इंग्लैंड
में मिली थी
और अब एकाउंटस
का सारा काम उसी
के अधिकार में
था। इसके बाद
जिस ढंग से
जांच की गई वह
इतनी भद्दी थी
कि मैंने
संकल्प कर
लिया कि यदि
ओशो का
देहावसान
पहले हो जाता
है तो मैं
निश्चित रूप
से आत्म हत्या
कर लुंगी।
कमरे में
प्रत्येक व्यक्ति
के पास कुछ
अप्रिय,
घृणित बात
कहने के लिए
थी। ऐसा
प्रतीत होता था
जैसे नीचे
विचारों की
शराब बहुत समय
से तैयार हो
रही थी। और
उन्हें
हमारे उपर
उंडेलने का
अवसर मिल गया
था। सविता
कहती रहती कि
प्रेम सदा
सुखद नहीं
होता वह दुःख
भी होता है। हम
पर ओशो को
देखभाल ठीक से
न करने का
आरोप लगया जाता।
वे लोग ओशो के
बारे में कुछ
इस प्रकार बातें
करते जैसे कि
उन्हें वास्तव
में
पता नहीं कि
वे क्या कर
रहे है। उन्हें
आवश्यकता है
किसी की जो
उनके लिए सोच
सके।
यद्यपि
हममें रोग के
कोई लक्षण
दिखाई नहीं दे
रहे थे परंतु
चिकित्सकों
के
जांच-परिणाम
को लेकिर हम
बहस नहीं कर सकत
थे।
अगले
दिन ओशो के
दाँत में दर्द
शुरू हो गया
तथा उन्होंने
राज,गीत और आशु
को परिचर्या
के लिए
बुलाया। शीला
ने अपने डॉक्टर
और दंत-चिकित्सक
को भेजने का
प्रयास किया
परंतु ओशो ने
मना कर दिया।
उन्होंने
कहा खतरे की
परवाह न करते
हुए उन्हें
अपने लोगों को
पास रखना स्वीकार
है। ।अंतत: वे
तीनों ओशो गृह
में लौट गए।
वहां उन्हें
पूरी तरह
कीटाणु मुक्त
किया गया और
उन्हें ओशो
के उपचार की
अनुमति मिल
गई।
पूरे
कम्यून का इस
रोग के लिए
जिसे ओशो ‘बोगस
डिसीज’ (झूठा
रोग) कहते थे।
परीक्षण किया
गया और प्रत्येक
व्यक्ति
में यह रोग
पाया गया।
चिकित्सा
केंद्र पर
लोगों की भीड़
जमा होने लगी।
कम्यून की
देखभाल के लिए
कोई नहीं बचा।
अंतत: एक डॉक्टर
ने नेत्र
विशेषज्ञ से
बात की और पता
चला कि परीक्षा
करते समय कार्निया
पर जो
छोटे-छोटे
धब्बे दिखाई
दे रहे थे वे
ऐसे किसी भी
व्यक्ति के
लिए साधारण
बात थी जो
शुष्क और धूल
भरी जलवायु
में रहता है।
तीन
दिन के पश्चात
हमें वापस अपने
घर भेज दिया गया।
ड्राइव-वे पर चलते
हुए मैंने देखा
कि हमारा सारा
सामान रास्ते
पर और लॉन में बिखरा
पडा है। तो मुझे
बहुत हैरानगी हुई।
सफ़ाई करनेवाले
एक दल ने शीला की
आज्ञानुसार हमारे
घर का सारा सामान
यह कहकर बाहर फेंक
दिया था कि वह दूषित
हो गया था। हमारे
ऊपर अलकोहल का
छिड़काव किया गया।
और उसके पश्चात
हमारा एक और परीक्षण
से स्वागत हुआ।
और इस बार एक टेपरिकार्डर
जिसे शीला ने इसलिए
लगवाया था कि जो
कुछ भी कहा जाए
उसकी सही-सही रिपोर्ट
उसे मिल सके। यह
सब बताने के लिए
विवेक ओशो के कमरे
में गई। जब वह उनका
यह संदेश लेकिर
लौटी कि वे लोग
यह सब बकवास बंद
कर वापस लौट जाएं
तो किसी ने भी उसका
विश्वास नहीं
किया। यह तो शिकारी
कुत्तों को उस
समय वापस बुलाने
जैसी बात थी जब
उन्होंने शिकार
की माँद सूंघ ली
हो। उन्होने कहा, विवेक
झूठ बोल रही है।
हम उठे और वहां
बैठे सभी लोगों
को छोड़कर चल दिए।
प्रतिपाद जो शीला
की टीम में एक थी, पूरे जोर से टेप-रिकार्डर
में चिल्ला-चिल्लाकर
गालियां दे रही
थी क्योंकि अब
वहां कोई बचा ही
नहीं था जिस पर
वह चिल्ला सके।
अगले
दिन अपने कमरे
में ओशो ने कुछ
लोगों की मीटिंग
बुलाई इसमे सविता, शीला
तथा उसके कुछ अनुयायी
भी थे। ओशो ने कहा
कि यदि हम मिलकर
प्रेमपूर्वक नहीं
रह सकते तो वे 6 जूलाई
को अपना शरीर छोड़
देंगे। कम्यून
के बाहर पहले ही
पर्याप्त संघर्ष
चल रहा था। उन्होंने
सत्ता के दुरूपयोग
की चर्चा की।
इस घटना
के कुछ दिन पश्चात
ओशो ने कम्यून
में रहनेवाले इक्कीस
व्यक्तियों
की सूची दी जो सम्बोधि
को उपलब्ध थे।
इसने हलचल मचा
दी। यह धमाका ही
कम न था कि तीन और
संसदों की घोषणा
की गई 8 जिनमें सम्बुद्ध, महासत्व
तथा बोधिसत्व
शामिल थे। ओशो
के साथ कुछ घट जाने
पर ये लोग कम्यून
का कार्य भर संभालेंगे।
न तो शीली का नाम
किसी भी सूची में
था और नहीं उनके
किसी अंतरंग मित्र
का। ऐसा करके ओशो
ने शीला के उतराधिकारी
होने की सभी सम्भावनाएं
समाप्त कर दी।
उसके हाथ कोई शक्ति
न रही।
क्रमश:
अगले भाग में पढ़....अध्याय
अधिक लम्बा है....इस
लिए इसके दो भाग
कर रहा हूं
मां
प्रेम शुन्यों
(माई
डायमंड डे विद
ओशो) हीरा
पायो गांठ
गठियायो)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें