शिवयोगनिद्रा
च खेचरी
मुद्रा च
परमानंदी।
निर्गुण
गुणत्रयम्।
विवेक
लभ्यम्।
मनोवाग्
अगोचरम्।
निद्रा में
भी जो शिव में
स्थित हैं और
ब्रह्म में
जिनका विचरण
है, ऐसे
वे परमानदीं
हैं।
वे
तीनों गुणों
से रहित हैं।
ऐसी
स्थिति विवेक
द्वारा
प्राप्त की
जाती है।
अखंड जागरण
से प्राप्त—परमानंदी
तुरीयावस्था
निद्रा
में भी जो
प्रभु में
स्थित हैं।
हम
तो जागकर भी
पदार्थ में ही
स्थित होते
हैं। निद्रा
की तो बात
बहुत—दूर है, बेहोशी
की तो बात
बहुत दूर है।
जिसे हम होश
कहते हैं, वह
भी होश नहीं
मालूम पड़ता।
क्योंकि उस
होश में भी हम
पदार्थ के
अतिरिक्त और
कहीं स्थित
नहीं होते। मन
दौड़ता रहता
है नीचे की ओर।
ऋषि
कहता है, वे जो ज्ञान
को उपलब्ध
होते हैं, वे
जो ज्ञान की
तीर्थ—यात्रा
पर निकलते हैं,
वे जो स्वयं
को जगाते हैं
और विवेक में
प्रतिष्ठित
होते हैं, वे
अपनी निद्रा
में भी शिव
में ही स्थित
होते हैं।
नींद में भी
उनका होश नहीं
जाता।
हमारा
तो होश में भी
होश नहीं होता।
हम तो होश में
भी सोए हुए ही
होते हैं।
हमारे जागरण
को जागरण नहीं
कहा जा सकता, क्योंकि
हम अपने जागरण
में ऐसा सब
कुछ करते हैं,
जो केवल
बेहोशी में ही
किया जा सकता
है। हमारे
जागरण को
इसलिए भी
जागरण नहीं
कहा जा सकता, क्योंकि
कैसा है यह
जागरण जिसमें
हमें इसका भी
पता नहीं चलता
कि मैं कौन
हूं। इस जागरण
को इसलिए भी
जागरण नहीं
कहा जा सकता कि
कुछ भी पता
नहीं चलता कि कहां
से मैं आता
हूं कहां मैं
जाता हूं क्या
है प्रयोजन इस
जीवन का, क्यों
है यह जीवन, क्या है यह
जीवन!
जैसे
चौराहे पर हम
किसी से पूछें
कि कहां जाते
हो और वह कहे, मुझे पता
नहीं। और हम
पूछें, कहां
से आते हो, और
वह कहे मुझे
पता नहीं। और
हम पूछें कि
तुम कौन हो और
वह कहे, यही
तो मैं आपसे
पूछना चाहता
था। तो उस
व्यक्ति को हम
क्या कहेंगे?
होश में? जागा हुआ? लेकिन हमारी
भी उससे भिन्न
हालत नहीं है।
सुना
है मैंने कि
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
ट्रेन में
यात्रा कर रहा
था। टिकट चेकर
ने उससे टिकट मांगी, तो वह
अपनी सब जेबें
तलाश गया।
उसकी बेचैनी
और उसकी पसीने—पसीने
हालत को देखकर
टिकट चेकर ने
कहा कि रहने
भी दें। जरूर
होगी, जब
इतनी उससे
खोजते हैं तो
जरूर होगी, चिंता न
करें।
नसरुद्दीन ने
कहा कि
तुम्हारे लिए
चिंता नहीं कर
रहा हूं चिंता
अपने लिए है।
सवाल यह है कि
मैं जा कहां
रहा हूं? तुम्हारे
लिए चिंता कर
ही कौन रहा है!
अगर टिकट खो
गई, तो पता
कैसे चलेगा कि
मैं जा कहां
रहा हूं।
लेकिन
हमारी टिकट
खोई ही हुई है।
कुछ भी पता
नहीं है। हालत
हमारी ऐसी है।
बेहोशी हमारी
इतनी थिर है।
होश का हमें
कोई पता नहीं, इसलिए
बेहोशी का भी
पता नहीं चलता,
क्योंकि
पता हमेशा
विपरीत से
चलता है। अगर
अंधेरा सतत हो
और रोशनी कभी
देखी ही न हो, तो अंधेरे
का पता नहीं
चलता। कहीं
दीया दिख जाए
जला हुआ, तब
पता चलता है
कि कैसे
अंधेरे में हम
जीते थे, वह
अंधेरा था।
अंधेरे को
जानने के लिए
प्रकाश को
जानना जरूरी
है। नहीं तो
अंधेरे की
पहचान नहीं
होती।
स्मरण
आता है मुझे
और कि मुल्ला
नसरुद्दीन ने
पहली ही शादी
की। पंद्रह या
बीस दिन हुए
होंगे, पत्नी बहुत
उदास है और
अपनी किसी
सहेली से कह रही
है कि बहुत
मुश्किल हो गई।
कल ही मुझे
पता चला कि
नसरुद्दीन
शराब पीता है।
सहेली ने पूछा,
क्या कल वह
शराब पीकर आ
गया था? उसकी
पत्नी ने कहा,
नहीं, कल
वह बिना पीए आ
गया। नहीं तो
पता ही न चलता।
शादी के पहले
उससे मिलती थी,
तब भी वह
रोज पीए रहता
था। तो मैं
समझी कि यही
उसका ढंग है।
शादी के बाद
भी पंद्रह दिन
वह पीए रहता
था, तो मैं
समझी कि यही
उसका ढंग है।
कल वह बिना
पीए आ गया और
उलटी—सीधी
बातें करने
लगा। तब शक
हुआ। मैंने
पूछा कि क्या
शराब पीकर आ
गए हो? ऐसी
बात तो तुम
कभी नहीं करते।
उसने कहा, क्षमा
करना, आज
मैं पीना भूल
गया हूं।
हमारी
नींद इतनी थिर
है कि हमें यह
पता भी नहीं
चलता कि वह
नींद है।
हमारी बेहोशी
हमारे खून और
हमारी
हड्डियों में
भर गई है।
जन्मों—जन्मों
का सघन अंधकार
है भीतर। पता
ही नहीं चलता।
इसलिए चुपचाप
जीए चले जाते
हैं और इसी को
होश कहे चले
जाते हैं। यह
होश नहीं है, यह केवल
जागी हुई
निद्रा है।
निद्रा
के दो रूप हैं—सोई
हुई निद्रा और
जागी हुई
निद्रा। सोई
हुई निद्रा का
अर्थ है कि हम
भीतर भी सो जाते
हैं, बाहर
भी सो जाते
हैं। जागी हुई
निद्रा का
अर्थ है। भीतर
हम सोए रहते
हैं, बाहर
हम जाग जाते
हैं। ठीक ऐसे
ही दो तरह के
जागरण भी हैं।
जैसे दो तरह
की निद्राएं
हैं, ऐसे
दो तरह के
जागरण भी हैं।
ऋषि
उसी जागरण की
बात कर रहा है।
वह कह रहा है
कि वे जो
संन्यस्त हो
जाते हैं, वे नींद
में भी जागे
रहते हैं।
उनकी नींद भी
प्रभु से ही
भरी रहती है।
वे कितने ही
गहरी नींद में
सो रहे हों, उनके भीतर
कोई जागकर
प्रभु के
मंदिर पर ही
खड़ा रहता है।
वे स्वप्न भी
नहीं देखते
कोई और। वे
विचार भी नहीं
करते कोई और, एक में ही रम
जाते हैं।
बुद्ध
कहते थे, वे ऐसे हो
जाते हैं, जैसे
सागर का पानी
कहीं से भी
चखो, और
खारा। उन्हें
कहीं से भी
चखो, वे
प्रभु से ही
भरे हुए हैं।
उनका स्वाद
प्रभु ही हो
जाता है।
इस
सूत्र में कहा
है, निद्रा
में भी जो शिव
में स्थित हैं—शिवयोगनिद्रा
च
खेचरीमुद्रा
च परमानंदी वे
जो नींद में
भी परम शिवत्व
में ठहरे हुए हैं
और ब्रह्म में
जिनका विचरण
है। उठते हैं,
बैठते हैं,
चलते हैं, तो ब्रह्म
में ही। जगत
में नहीं, ब्रह्म
में ही। लेकिन
हम तो उन्हें
जगत में चलते
देखते हैं।
हमने बुद्ध को
चलते देखा है
इसी जमीन पर, महावीर को
चलते देखा है
इसी जमीन पर।
यही जमीन है, यहीं उनके
भी चरण—चिह्न
बनते हैं, इसी
मिट्टी में, इसी रेत में,
इन्हीं
वृक्षों के
नीचे उन्हें
बैठे देखा। और
यह सूत्र कहता
है कि वे
ब्रह्म में ही
विचरण करते
हैं।
वे
ब्रह्म में ही
विचरण करते हैं, क्योंकि
जो हमें जमीन
दिखाई पड़ती है,
वह उन्हें
ब्रह्म ही
मालूम होती है।
और जो हमें
वृक्ष मालूम
पड़ता है, वह
भी उन्हें
ब्रह्म की
छाया ही मालूम
होती है। और
जो इस जमीन पर
चलता है उनका
शरीर, वह
भी उन्हें
ब्रह्म का ही
रूप मालूम
होता है। उनके
लिए सभी कुछ
ब्रह्म हो गया
है।
जिसने
अपने भीतर
झांककर देखा, उसके लिए
सभी कुछ
ब्रह्म हो
जाता है। और
जो अपने बाहर
ही देखता रहा,
धीरे— धीरे
उसके भीतर भी
पदार्थ ही रह
जाता मालूम पड़ता
है। जिसकी
दृष्टि बाहर
है, उसे
भीतर भी आत्मा
दिखाई नहीं
पड़ेगी। जिसकी
दृष्टि भीतर
है, उसे
बाहर भी आत्मा
ही दिखाई पड़ती
है।
वे
ब्रह्म में ही
विचरण करते
हैं और ऐसे वे
परम— आनंदी
हैं।
अब
जिसका ब्रह्म
में विचरण हो
और जिसकी
निद्रा भी
भगवत—चैतन्य
में हो, वहां दुख
कैसा! वहां
दुख का प्रवेश
कैसा!
पर
एक बात समझ
लें। वहां दुख
भी नहीं होता
और सुख भी
नहीं होता। अन्यथा
हमें भूल होती
है सदा। जब इस
सूत्र को हम
पढ़ेंगे या ऐसे
किसी भी सूत्र
को पढ़ेंगे, तो हमें
लगता है कि
वहां सुख ही
सुख होगा।
लेकिन हमारा
दुख भी वहां
नहीं होता, हमारा सुख
भी नहीं होता
वहां, क्योंकि
हम ही वहा
नहीं होते।
हमने जिसे दुख
जाना है, वह
तो होता ही नहीं;
हमने जिसे
सुख जाना है, वह भी नहीं
होता। वहा
दोनों ही
शून्य हो जाते
हैं। और तब जो
प्रकट होता है,
उसका नाम
आनंद है।
आनंद
सुख नहीं है।
इसे ठीक से
समझ लें। आनंद
सुख नहीं है।
आनंद सुख और
दुख दोनों का
अभाव है। असल
में दुख की भी
अपनी पीड़ा है
और सुख की भी
अपनी पीड़ा है।
दुख तो दुख है
ही, जो
जानते हैं, वे कहते हैं,
सुख भी दुख
का ही एक ढंग
है। दुख तो
दुख है, सुख
प्रीतिकर दुख
है, जिसे
हम चाहते हैं।
बस, इतना
ही फर्क है।
इसलिए
कोई भी सुख
किसी भी दिन
दुख हो जाता
है। हमारी चाह
हट जाती है, दुख हो
जाता है। और
कोई भी दुख
किसी भी दिन
सुख बन सकता
है। अगर हमारी
चाह उससे जुड़
जाए, तो वह
भी सुख बन
सकता है।
सुख
और दुख घटनाओं
में नहीं होते, परिस्थितियों
में नहीं होते,
वस्तुओं
में नहीं होते,
सुख और दुख
हमारे चाहने
और न चाहने
में होते हैं।
जिसे हम चाहते
हैं, वह
सुख मालूम
पड़ता है; जिसे
हम नहीं चाहते,
वह दुख
मालूम पड़ता है।
लेकिन कोई
बाधा नहीं है
कि जिसे हम
अभी चाहते हैं,
क्षणभर बाद
चाहें, तो
न चाह सकें।
क्षणभर बाद
नहीं चाह सकते
हैं। ऐसी भी
कोई बात नहीं
है कि जिसे आज
हम नहीं चाहते
हैं, कल भी
उसे नहीं
चाहेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
सास मर गई थी, मदर इन ला।
तो बड़ा
प्रसन्न था, बड़ा आनंदित
मालूम हो रहा
था। उसकी
पत्नी ने कहा
कुछ तो शर्म
खाओ। मेरी मां
मर गई, तुम
इतने प्रसन्न
हो रहे हो!
नसरुद्दीन ने
कहा, इसीलिए
तो प्रसन्न हो
रहा हूं। उसकी
पत्नी ने कहा
कि कभी तो कुछ
मेरी मां में तुमने
अच्छा देखा
होता! और अब तो
वह मर भी गई।
कुछ एकाध गुण
तो कभी देखा
होता!
नसरुद्दीन ने कहा,
गुण हो ही
नहीं। मैंने
बहुत कोशिश की
तेरी बात
मानकर देखने
की, लेकिन
जब हो ही नहीं,
तो दिखाई
कैसे पड़े।
उसकी
पत्नी दुखी तो
थी ही मां के
मरने से, छाती पीटकर
रोने लगी। और
उसने कहा, मेरी
मां ने ठीक ही
कहा था। शादी
के पहले उसने
बहुत जिद की
थी कि इस आदमी
से शादी मत
करो।
नसरुद्दीन ने
कहा, क्या
कहती है? तेरी
मां ने शादी
से रोका था? काश, मुझे
पता होता तो
मैं उसे इतना
बुरा कभी भी
नहीं समझता।
बेचारी! अगर
मुझे पता होता,
तो उसे
बचाने की
कोशिश करता।
इतनी भली
स्त्री थी, यह तो मुझे
पता ही नहीं
था।
अभी
मर गई थी सास, तो सुख था,
अब दुख हो
गया।
वह
जो चाह है
भीतर, जरा
सा संबंध कहीं
से भी शिथिल
कर ले, जोड़
ले, तो सब
बदल जाता है।
यह जो हमारा
मन है, जिससे
जुड़ जाता है, वहा सुख
मालूम होता है।
सुख एक भांति
है, जो
उसके साथ
मालूम पड़ती है
जिससे जुड़
जाता है। दुख
भी एक भ्रांति
है, जो
उसके साथ
मालूम पड़ती है,
जिससे टूट
जाता है।
बुद्ध
ने बहुत बार
कहा है, बुद्ध ने
बहुत बार कहा
है कि
प्रियजनों के
मिलने में सुख
है और बिछुड़ने
में दुख।
अप्रियजनों
के मिलने में
दुख है, बिछुड़ने
में सुख।
दोनों बराबर
हैं। अनुपात
तो बराबर है।
प्रियजनों के
मिलने में सुख
है, बिछुड़ने
में दुख।
अप्रियजनों
के मिलने में
दुख है, बिछुड़ने
में सुख।
अनुपात तो
बराबर है।
सुख
भी एक तनाव है
मन पर, जिसे
हम पसंद करते
हैं। दुख भी
एक तनाव है मन
पर, जिसे
हम पसंद नहीं
करते। सुख का
तनाव भी आदमी
को रुग्ण कर
जाता है, दुख
का तनाव भी
रुग्ण कर जाता
है। क्योंकि
दोनों ही
मनुष्य को बोझ
से भर देते हैं।
आनंद अतनाव है,
तनावरहित
अवस्था है, उत्तेजनाशून्य
है, न वहा
दुख है, न
वहा सुख है।
फर्क
समझ लें, प्रियजन से
मिलने में सुख
है, अप्रियजन
से बिछुड़ने
में सुख है।
प्रियजन से
बिछुड़ने में
दुख है, अप्रियजन
से मिलने में
दुख है। आनंद
कब होगा? जहां
कोई भी नहीं
बचता और सिर्फ
मैं ही बच रहता
हूं सिर्फ
चेतना ही बच
रहती है। न
किसी से मिलना
और न किसी से
बिछुड़ना। जहा
स्वभाव में
थिरता आ जाती
है, वहां आनंद
है।
ऋषि
कहता है, ऐसे वे
परमानंदी हैं।
वे
परम आनंद में
हैं, क्योंकि
स्वभाव में
जीते हैं, शिव
में जीते हैं,
प्रभु में
जीते हैं, ब्रह्म
में जीते हैं।
वह जो
आत्यंतिक
सत्य है, उसमें
जीते हैं।
बाहर नहीं
जीते, भीतर
जीते हैं। वह
जो भीतर में
मूल स्रोत है,
उससे जुड़कर
जीते हैं।
वहां कोई दुख
नहीं, क्योंकि
वहां कोई सुख
नहीं। हमारा
तर्क कुछ और
है। हम कहते
हैं, वहा
कोई दुख नहीं,
क्योंकि
वहां सुख ही
सुख है। ऋषि
कहते हैं, वहां
कोई दुख नहीं,
क्योंकि
वहां कोई सुख
नहीं। जहां
सुख ही नहीं, वहां दुख
नहीं हो सकता।
और जहां दोनों
नहीं हैं, वहा
जो रह जाता है
शेष, वह
आनंद है।
इसलिए आनंद को
स्वभाव कहा है।
दुख
भी दूसरे से
मिलता है और
सुख भी दूसरे
से मिलता है, यह आपने
खयाल किया? मिलता आपको
है, लेकिन
मिलता दूसरे
से है। सदा
दूसरा
निमित्त होता
है। दुख भी
दूसरे से, सुख
भी दूसरे से।
गाली भी कोई
देता है, प्रशंसा
भी कोई करता
है। आनंद
स्वयं से
मिलता है, दूसरे
से नहीं। दुख
भी परतंत्र है,
सुख भी
परतंत्र है।
दूसरा चाहे तो
सुख खींच ले
और दूसरा चाहे
तो दुख खींच
ले। वह दूसरे
के हाथ में है,
आप गुलाम
हैं। लेकिन
आनंद
स्वतंत्र है।
वह दूसरे के
हाथ में नहीं।
उसे दूसरा
नष्ट नहीं कर
सकता। जो इस
भांति जागकर
जीता है कि
प्रभु में ही
उसका विचरण बन
जाता है, वह
परम आनंद में
जीता है।
वे
तीनों गुणों
से रहित हैं।
ऐसी अवस्था को
उपलब्ध
चेतनाएं
निर्गुण गुणत्रयम्
तीनों गुणों
से रिक्त, मुक्त, अतीत हैं।
तीन
गुणों से सारा
जगत निर्मित
है। जो भी
निर्मित है, वह तीन
गुणों से
निर्मित है।
यह तीन का
आकड़ा बहुत
कीमती है। और
सबसे पहले, संभवत: भारत
ने ही तीन के
इस गणित को
खोजा। नाम
बदलते रहे हैं,
लेकिन तीन
की संख्या
नहीं बदलती है।
भारतीय
कहते रहे हैं, तीन गुण
हैं—रज, तम,
सत्व। उन
तीन से मिलकर
यह जगत बना।
क्रिश्चियन्स
कहते हैं, ट्रिनिटी
है, त्रैत
है जगत—गाड द
फादर, होली
घोस्ट एंड
जीसस
क्राइस्ट द सन।
पिता
परमात्मा और
पवित्र आत्मा—दो
और पुत्र
क्राइस्ट—तीन,
इन तीन से
मिलकर सारा
जीवन है। ये
नाम अलग हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जितना हम
अस्तित्व में
प्रवेश करते
हैं, उतना
ही पता चलता
है कि तीन से
मिलकर सारा
अस्तित्व है।
उनके नाम अलग
हैं, वैज्ञानिक
हैं। वे कहते
हैं, इलेक्ट्रान,
प्रोटान, न्यूट्रान।
उन तीन से
मिलकर सारा
जगत है।
लेकिन
एक बहुत मजे
की बात है कि चार
कोई नहीं कहता, दो भी कोई
नहीं कहता। वे
क्या
परिभाषाएं
करते हैं, क्या
नाम देते हैं,
यह दूसरी
बात है। युग
बदलते हैं, शब्द बदलते
हैं, परिभाषाएं
बदल जाती हैं,
लेकिन यह
तीन की संख्या
कुछ
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती है।
यह घिर मालूम
पड़ती है। जगत
एक त्रैत है, तीन से
मिलकर बना है।
लेकिन
विज्ञान कहता
है, बस इस
तीन में सब
समाप्त है।
यहां उसकी भूल
है। अभी उसे
चौथे का पता
नहीं है।
क्योंकि इन
तीन को जो
जानता है, वह
तीसरा नहीं हो
सकता, तीन
में नहीं हो
सकता। इन तीन
को जो जानता
है और पहचानता
है, वह
चौथा ही हो
सकता है—द
फोर्थ।
हिंदू
बहुत अदभुत
रहे हैं
शब्दों की खोज
में। पुरानी
कौम है और
उसने बहुत
अनुभव किए हैं
और बहुत सी
बातें खोजी
हैं। तो हमने
जो चौथे के
लिए नाम रखा
है, वह
नाम नहीं रखा,
क्योंकि
नाम रखने की
कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
पाचवां है
नहीं। इसलिए
चौथी अवस्था
को हमने कहा, तुरीय।
तुरीय का अर्थ
होता है
सिम्पली द
फोर्थ—चौथी।
उसका कोई नाम
नहीं है। बस
चौथी से काम
चल जाएगा, उसके
आगे कोई बात
ही नहीं है।
अभी
रूस के एक
बहुत बड़े
गणितज्ञ ने एक
किताब लिखी है, पी डी
आस्पेंस्की
ने, द
फोर्थ वे—चौथा
मार्ग। और
आस्पेंस्की
करीब—करीब घूम—घूमकर
वहीं आ गया है,
जहां तुरीय
की धारणा आती
है।
तीन
से काम नहीं
चलेगा, क्योंकि तीन
से जो निर्मित
है उसको जानने
वाला एक चौथा
भी है, जो
अलग मालूम
पड़ता है।
पदार्थ तीन से
निर्मित है, यह सत्य है, जगत तीन से
निर्मित है, यह सत्य है; लेकिन एक
चौथा भी है जो
जगत के भीतर
भी होकर जगत
के बाहर है—चेतना
है, काशसनेस
है, बोध है—वह
चौथा है। जो
इस चौथे को
जान लेता—
निर्गुण
गुणत्रयम्—वह
तीन गुणों के
पार हो जाता
है। द फोर्थ
मस्ट बी नोन।
उस चौथे को
जाने बिना तीन
के बाहर नहीं
होता आदमी। और
जब तक चौथे को
नहीं जानता, तब तक तीन
में से किसी
एक के साथ
अपना संबंध
जोड़कर समझता
है, यही
मैं हूं।
जन्मों—जन्मों
तक यह भूल
चलती चली जाती
है। तीन में
से हम किसी से
अपने को जोड़
लेते हैं और कहते
हैं, यही
मैं हूं। और
उसका हमें पता
ही नही—जो कह
रहा है, जो
देख रहा है, जो जान रहा
है—उसका हमें
कोई पता नहीं।
पता
इसलिए नही
चलता, जैसे
कि किसी दर्पण
के सामने सदा
ही भीड़ गुजरती
हो, सदा ही।
दर्पण बाजार
में लगा हो, एक पान वाले
की दुकान पर
लगा हो, भीड़
दिनभर गुजरती
हो। कोई बैठा
हुआ देखता हो,
दर्पण कभी
खाली न दिखे—सदा
भरा रहे, सदा
भरा रहे, सदा
भरा रहे। उस
आदमी ने कभी खाली
दर्पण न देखा
हो, तो
क्या उसे पता
चलेगा कि इस
भीड़ की जो
तस्वीरें
निकलती हैं, इसके अलावा
भी दर्पण कुछ
है? कैसे
पता चलेगा?
वह जानेगा कि
दर्पण इस भीड़
का नाम है, जो
गुजरती रहती
है। उसे दर्पण
का कभी पता
नहीं चलेगा।
दर्पण का पता
तो तभी चल
सकता है, जब
दर्पण खाली हो
और भीड़ न गुजर
रही हो। भीड़
में दब जाता
है। इसे छोड़े,
और आसान
होगा समझना।
फिल्म
देखने गए हैं
आप। पर्दा
दिखाई नहीं
पड़ता, जब
तक फिल्म चलती
रहती है।
पर्दा दिखाई
कैसे पड़ेगा, आवृत्त है, फिल्म दौड़
रही है, चित्र
दौड़ रहे हैं।
और बड़े मजे की
बात है कि
पर्दा
चित्रों से
ज्यादा
वास्तविक है।
लेकिन जो
ज्यादा
वास्तविक है,
वह चित्रों
में दब गया है।
और चित्र कुछ
भी नहीं है, सिर्फ धूप—छांव
है। सिर्फ
छाया और
प्रकाश का जोड़
है। लेकिन तब
तक न दिखेगा
पर्दा आपको, जब तक द एंड न
हो जाए, चित्र
बंद न हो जाए।
चित्र बंद हो,
तो आप
चौकेंगे कि
फिल्म तो झूठ
थी, झूठ के
पीछे एक अलग
सच्चाई थी। वह
पर्दा है सफेद।
हमारा
वह जो चौथा है
अंक, वह
जो हमारा
वास्तविक
स्वभाव है, वह जो तुरीय
है हमारे भीतर
छिपा हुआ, उसका
'हमें तब
तक पता नहीं
चलेगा, जब
तक हम विचारों
की भीड़ और
विचारों की
फिल्म से दबे
रहते हैं। जिस
दिन विचार बंद
हो जाते हैं, उसी दिन
अचानक पता
चलता है, मैं
विचार नहीं, मैं तो कुछ
और हूं। मैं
शरीर नहीं, मैं तो कुछ
और हूं। मैं
मन नहीं, मैं
तो कुछ और हूं।
इसका तो मुझे
पता ही नहीं
था।
ऋषि
कहता है, जो निद्रा
में भी जागकर
सोते हैं, ब्रह्म
में जिनका
आचरण है, विचरण
है, परम
आनंद में जो
स्थिर हैं, वे चौथे को
जान लेते हैं,
वे तुरीय को
पहचान लेते
हैं, वे द
फोर्थ को
जानने वाले हो
जाते हैं। वे
तीनों गुणों
के पार हो
जाते हैं।
तीनों
गुणों के पार
हो जाते हैं, इसका
अर्थ है कि अब
वे अपना संबंध
तीन गुणों से
नहीं जोड़ते—सत,
रज, तम
से नहीं जोड़ते।
अब वे जानते
हैं कि हम
पृथक हैं, भिन्न
हैं, और
हैं। हर
स्थिति में
जानते हैं। के
हो जाएं, तो
वे जानते हैं
कि जो का हो
गया, वह
तीन गुणों का
जोड़ है, मैं
नहीं। बीमार
हो जाएं, तो
वे जानते हैं,
वह तीन
गुणों का जोड
है जो बीमार
हो गया, मैं
नहीं। मौत आ
जाए तो वे
जानते हैं कि
मौत में वही
मिट रहा है जो
जन्म में जुड़ा
था—तीन गुणों
का जोड़—मैं
नहीं। वे सदा
ही अपने को
पार, ट्रासेंड,
अतिक्रमण
में देख पाते
हैं—सदा, हर
स्थिति में।
और
जब ऐसा अनुभव
हो कि हर
स्थिति में
कोई अपने को
तीनों गुणों
के पार देख
पाए, तो
उस अनुभव का
सूत्र क्या
होगा? कैसे
यह अनुभव होगा?
तो ऋषि कहता
है, विवेक
लष्यम् ऐसी जो
स्थिति है, वह विवेक के
द्वारा, अवेयरनेस
के द्वारा, होश के
द्वारा
प्राप्त होती
है।
विवेक
लभ्यम्।
विवेक
से बड़ी
भ्रांति समझी
जाती है।
विवेक से हम
जो अर्थ लेते
हैं, वह
वह लेते हैं
अर्थ, जो
अंग्रेजी के
शब्द
डिसक्रिमिनेशन
का है। आमतौर
से भाषाकोशों
में लिखा होता
है, विवेक
का अर्थ है, भेद करने की
बुद्धि—द पावर
आफ
डिसक्रिमिनेशन।
सच में वह
परिभाषा या वह
अर्थ विवेक
का., बहुत
ही सीमित अर्थ
है और आशिक
अर्थ है।
विवेक
का पूर्ण अर्थ
है : होश, अमूर्च्छा,
अवेयरनेस।
विवेक का अर्थ
है : अप्रमाद।
विवेक का अर्थ
है : आत्म—स्मृतिपूर्वक
जीना, सेल्फ
रिमेंबरिग
जिसको
गुरजिएफ ने
कहा है।
गुरजिएफ
कहता था कि
रास्ते पर
चलते हो, तो चलते
वक्त चलने की
क्रिया भी होनी
चाहिए और चल
रहा हूं मैं, इसे जानने
की शक्ति पूरे
वक्त सक्रिय
होनी चाहिए।
देखते हो, तो
देखने की
क्रिया भी
होनी चाहिए और
मेरे भीतर
छिपा है जो
देखने वाला, उसका भी
स्मरण बना
रहना चाहिए कि
मैं देख रहा हूं।
देखने की
क्रिया हो रही
है, इसका
भी बोध बना
रहना चाहिए।
क्रियाओं के
जाल के बीच
में, केंद्र
पर कोई जागा
हुआ दीए की
तरह चेतना
खड़ी रहनी
चाहिए और
देखती रहनी
चाहिए।
विवेक
लभ्यम्।
तो
ऐसे दीए का जो
लाभ है, जो उपलब्धि
है, जो फल
है, जो
परिणाम है, वह तीन
गुणों के पार
ले जाने वाला
है।
हम
अपनी
क्रियाओं को
समझें, तो खयाल में
आ जाएगा। कभी
रास्ते के
किनारे बैठ
जाएं और
रास्ते पर चलते
हुए लोगों को
जरा देखें। तो
अनेक लोगों को
देखेंगे अपने
से ही बातचीत किए
चलते जा रहे
हैं। उनके
चेहरे पर हाव—
भाव आ रहे हैं।
भीतर बहुत कुछ
चल रहा होगा।
रास्ता पार कर
रहे हैं, लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि वे
रास्ता पार कर
रहे हैं, क्योंकि
भीतर चेतना तो
किसी और बात
में उलझी हुई
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अधिकतम
दुर्घटनाएं, जो सड्कों
पर हो रही हैं,
वे हमारी
मूर्च्छा का
परिणाम हैं।
एक आदमी कार
चलाए जा रहा
है और भीतर
खोया हुआ है।
होश तो नहीं
है उसे, खतरा
होगा ही। इतने
कम होते हैं, यही
आश्चर्यजनक
है। बहुत कम
होते हैं, आदमियों
को देखते हुए
खतरे बहुत कम
होते हैं, दुर्घटनाएं
बहुत कम होती
हैं।
अपने
को भी खयाल
में लें। जब
आप किसी से
बात कर रहे
होते हैं, तब बात
होशपूर्वक
करते हैं कि
बात अलग चलती
रहती है, भीतर
कुछ और भी
चलता रहता है
और बेहोशी बनी
रहती है! हमारी
सारी
क्रियाएं हम
मूर्च्छा में
चलाते हैं।
अगर
विवेक को
जगाना है, उस विवेक
को, जो लाभ
बन जाता है
आध्यात्मिक
सिद्धि में, तो हमें एक—एक
क्रिया के साथ
होश को जोड़ना
पड़े। भोजन कर
रहे हैं, होशपूर्वक
करें।
होशपूर्वक का
क्या अर्थ है?
अर्थ कि कौर
भी उठाएं तो
हाथ ऊपर उठे, तो भीतर
चेतना जाने कि
अब हाथ ऊपर
उठता है। कौर
बांधें, तो
चेतना जाने कि
अब कौर बंधता
है। मुंह में
कौर जाए चबाएं,
तो चेतना
जाने कि अब
मैं चबा रहा
हूं। छोटे से
छोटा काम भी
हो तो चेतना
के जानते हुए हो।
चेतना के
अनजाने न हो
पाए कोई काम।
कठिन है, बहुत
कठिन है। एक
सेकेंड भी होश
से भरे रहना
बहुत कठिन है।
लेकिन प्रयोग
से सरल हो
जाता है। छोटे—छोटे
प्रयोग करते
रहें।
खाली
बैठे हैं, आंख बंद
कर लें, श्वास
को ही देखते
रहें कि श्वास
का होश रखूंगा।
आप बहुत हैरान
होंगे कि एकाध
सेकेंड होश
नहीं रहता और
दूसरी बात पर
चला जाता है।
श्वास भूल
जाती है। फिर
होश को लौटा
लाएं, फिर
श्वास को
देखने लगें।
घूमने निकले
हैं, ध्यानपूर्वक
कदम रखें—कि
जानता रहूंगा,
बायां पैर
उठा, दायां
पैर उठा; बायां
पैर उठा, दायां
पैर उठा। कहने
को नहीं कह
रहा हूं कि जब
बायां उठे, तो आप भीतर
कहें, बायी
उठा और जब
दायां उठे तो
कहें, दायां
उठा। अगर आप
इस कहने में
लग गए, तो
पैर का होश खो
जाएगा। आप
इसमें लग
जाएंगे।
मैं
यह कहने को
नहीं कह रहा
हूं। फील इट—बायां
उठ रहा है, तो भीतर
अनुभव करें, बायां उठ
रहा है। यह
मुझे तो कहना
पड रहा है, आपको
कहने की जरूरत
नहीं है। जब
बायां उठे, तो आप सिर्फ
जानें कि
बायां उठा। जब
दायां उठे तो
जानें कि
दायां उठा। दस—पांच
कदम में ही आप
पाएंगे कि
हजार दफे भूल
हो जाती है।
एक पैर उठता
है, दूसरा
भूल ही जाता
है। खयाल ही
नहीं रहता कि
दायां कब उठ
गया। तब आपको
पता चलेगा कि
कितनी
मूर्च्छा है।
अपने
चलते हुए पैर
का भी पता
नहीं है, तो और
जिंदगी के और
रास्तों का
क्या पता होगा?
क्षणभर को
होश नहीं रख
पाता हूं
श्वास का, तो
क्रोध का कैसे
होश रख
पाऊंगा! श्वास
जैसी इनोसेंट
क्रिया, जिसमें
किसी का कुछ
बनता—बिगड़ता
नहीं, किसी
से कुछ लेना—देना
नहीं—निर्दोष
बिलकुल, निजी
बिलकुल—उसमें
भी नहीं होश
रह पाता। तो
मैं कसमें
लेता हूं कि
अब क्रोध नहीं
करूंगा, कैसे
चलेंगी ये
कसमें न: कसम
एक तरफ पड़ी
रह जाएगी जब
क्रोध आएगा, होश का पता
ही नहीं रहेगा।
क्रोध हो
जाएगा, तब
पीछे से पता
चलेगा। और
पीछे से तो
दुनिया में
सभी
बुद्धिमान
होते हैं।
पीछे से
दुनिया में
सभी
बुद्धिमान
होते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
कहता था, एक दिन लौट
रहा था किसी
सभा में भाषण
करके। पत्नी
से कहने लगा
कि तीसरा भाषण
सबसे जोरदार
हुआ। पत्नी ने
कहा, तीसरा
भाषण न:
तुम्हारा
अकेला तो भाषण
ही था! मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, मेरा
ही तीसरा भाषण।
उसकी पत्नी ने
कहा, लेकिन
तीसरा! एक कुल
जमा तुमने
भाषण दिया।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा, पहले
मेरी पूरी बात
सुन लो। एक
भाषण तो वह है,
जो मैं घर
से तैयार करके
चला था कि
दूंगा। एक वह
है, जो
मैंने दिया।
और एक वह है, जो मैं अब
सोच रहा हूं
कि दिया होता।
यह तीसरा, द
बेस्ट, इसका
कोई मुकाबला
ही नहीं।
बेहोश
आदमी ऐसा ही
चल रहा है। जो
कहना चाहता था, वह कहा
नहीं। जो कहा,
वह कहना
नहीं चाहता था।
जो कहना चाहता
था, वह
अपने भीतर कह
रहा है। यह सब
चल रहा है, बेहोशी
के कारण। होश
को जगाना हो, विवेक को
जगाना हो, इस
लाभ को पाना
हो त्रिगुण के
पार जाने का
त्रिगुण के
पार जाए बिना
अमृत की
उपलब्धि नहीं
है। क्योंकि
तीन गुणों के
भीतर तो
मृत्यु ही
मृत्यु है, चौथे में
अमृत है। तो
इसको साधना
पड़े—उठते —बैठते,
चलते—सोते
साधना पड़े।
आप
कितनी दफे सो
चुके हैं
जिंदगी में!
आदमी साठ साल
जीता है, तो कम से कम
बीस साल तो
सोता है। आठ
घंटे रोज सोए,
तो साठ साल
में बीस साल
सोने में गुजर
जाते हैं। बीस
साल! अगर आप
साठ साल के
हैं, तो आप
बीस साल सो
चुके हैं।
लेकिन कभी आपने
नींद को आते
देखा? कभी
नींद को जाते
देखा? कभी
आपको पता है, बीस साल
सोते हो गए, आपको यह भी
पता नहीं कि
नींद किस क्षण
में आती है और
कैसी होती है।
यह भी पता
नहीं है, नींद
कब चली जाती
है। अपनी ही
नींद, लेकिन
होश बिलकुल
नहीं! अपना ही
जागरण, लेकिन
होश बिलकुल नहीं!
तो
प्रयोग करें।
रात सो रहे
हैं, बिस्तर
पर पड़े हैं।
होश रखें, कब
नींद आ जाती
है। जागते—जागते
देखते रहें, कब नींद का
धुआ उतरता है।
कब नींद का
अंधेरा भीतर
छा जाता है।
कब हृदय की
धड़कनें शिथिल
हो जाती हैं।
कब श्वास तंद्रिल
हो जाती है।
कब भीतर सपने
जगने लगते हैं।
देखते रहें।
महीनों
तक तो कोई पता
नहीं चलेगा।
सुबह ही आपको
पक चलेगा कि
अरे, नींद
आ गई! लेकिन अगर
प्रयास किया
धीरे—धीरे, धीरे—धीरे, तो किसी दिन
अचानक
अभूतपूर्व
अनुभव होता है—जब
कोई नींद को
अपने ऊपर
उतरते देख
लेता है। और
ध्यान रहे, जब आप नींद
को अपने ऊपर
उतरते देख
लेते हैं, तो
आप नींद में
भी जागने में
समर्थ हो जाते
हैं। क्योंकि
फिर क्या बात
रही, नींद
को हमने देखा,
नींद उतर
रही है—हम देख
रहे हैं, हम
जागे हुए हैं।
नींद आ गई, उसने
सब तरफ से घेर
लिया और हम
देख रहे हैं, तो हमारे
भीतर कोई जागा
हुआ है।
लेकिन
अभी तो जागने
में ही जागने
की कोशिश करें।
अभी नींद में
जागने की
कोशिश से कोई
फायदा न होगा।
जो जागने में
ही जागा हुआ
नहीं, वह
नींद में कैसे
जागेगा! अभी
जागने में ही
जागे। जो भी
करते हैं, उसको
करते समय होश
भी रखने की
कोशिश करें।
कोई भी काम कर
रहे हैं छोटा—मोटा,
तो होश साथ
में रखने की
कोशिश करें।
अभी
मुझे सुन रहे
हैं। तो मैं
बोल रहा हूं? आप सुन
रहे हैं। तो
सारा होश मुझ
पर मत रखें।
सुनें, लेकिन
सुनने वाले का
भी खयाल रखें,
कोई सुन भी
रहा है भीतर।
कोई बोल रहा
है बाहर, कोई
सुन रहा है भीतर।
दोनों के बीच
शब्दों का
आदान—प्रदान
हो रहा है।
लेकिन बोलने
वाले में इतने
सम्मोहित न हो
जाए? इतने
खो न जाएं कि
सुनने वाले का
पता ही न रहे।
क्योंकि असली
तो सुनने वाला
ही है। उसकी
याद बनी रहनी
चाहिए। डबल
एरोड, चेतना
का तीर दोनों
तरफ होना
चाहिए—इधर
बोलने वाले की
तरफ, उधर
सुनने वाले की
तरफ। दोनों
तरफ होश रहे।
और
तब जो आपकी
समझ होगी, वह बहुत
गहरी हो जाएगी।
क्योंकि जब
सुनने वाला
सोया हुआ है, तो बोलने
वाला क्या
समझा पाएगा? और अगर
सुनने वाला
जागा हुआ है, तो बोलने
वाला चुप भी
रह जाए तो भी
समझा सकता है।
इसी
संबंध में
आपको कल के
लिए खबर दे
दूं कि दोपहर
के जो तीस
मिनट का मौन
है, वह
अकारण नहीं है।
उस तीस मिनट
में मैं आपसे
मौन में बोलने
की कोशिश कर
रहा हूं। तो
आप तीस मिनट
रिसेप्टिव, ग्राहक होने
की कोशिश करें।
पंद्रह मिनट
कीर्तन, पंद्रह
मिनट आपकी जो
मौज आए वह और
फिर तीस मिनट
आप अपने सब
द्वार—दरवाजे
खोलकर
होशपूर्वक
बैठ जाएं कि
कोई आवाज किसी
सूक्ष्म
मार्ग से आए, तो मेरे
दरवाजे बंद न
हों।
तो
मैं आपसे मौन
में बोलने की
कोशिश कल से
शुरू करूंगा।
आज आपका मौन
ठीक जगह पर आ
गया। तो कल से
आप मौन में
सिर्फ अपने को
खुला रखें और
शात रहें, तो बिना
वाणी के आपसे
थोड़ी बात हो
सके। सच तो यह
है कि जो
महत्वपूर्ण
है, वह
वाणी से नहीं
कहा जा सकता, उसे तो मौन
में ही कहा जा
सकता है। और
अगर वाणी का
उपयोग भी किया
जा रहा है, तो
सिर्फ इसीलिए
कि किसी तरह
आपको वाणी के
पार, मौन
की क्षमता और
मौन में समझने
की योग्यता और
पात्रता मिल
जाए। ऋषि कहता
है, विवेक
लभ्यम्।
विवेक से
उपलब्ध होती
वह स्थिति।
मनोवाग्
अगोचरम्। और
वह स्थिति मन
और वाणी का
अविषय है।
वह
स्थिति, जो विवेक से
उपलब्ध होती
है, न तो मन
से जानी जा
सकती है और न
वाणी से समझाई
जा सकती है।
वह इन दोनों
के लिए अविषय
है। इन दोनों
का आब्जेक्ट
नहीं है। इसे
ठीक से समझ
लें। मन और
वाणी का अविषय
है वह स्थिति।
मन
का अविषय कौन
होता है? जो मन के पार
है, वह मन
का विषय नहीं
बन सकता। मन
उसे देख सकता
है, जो मन
के सामने है।
मन उसे नहीं
देख सकता, जो
मन के पीछे है।
जैसा मैंने
कहा दर्पण उसे
देख सकता है, जो दर्पण के
सामने है।
दर्पण उसे
नहीं देख सकता,
जो दर्पण के
पीछे है।
लेकिन दर्पण
नहीं देख सकता
दर्पण के पीछे
जो है, तो
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
दर्पण के पीछे
कुछ भी नहीं
है। दर्पण का
न देखना
अस्तित्व का
अभाव नहीं है।
सिर्फ दर्पण
की क्षमता की
सूचना है।
मन
हमारा दर्पण
है जगत के लिए—जस्ट
ए मिरर। यह जो
चारों तरफ
विराट पदार्थ
का जगत है, इसे मिरर
करने के लिए
इसे दिखाने के
लिए इसका प्रतिबिंब
बनाने के लिए
मन की फैकल्टी
है, मन की
इंद्रिय है।
मन के अंग हैं
फिर। आंख मन
का एक द्वार
है, जहां
से रूप प्रवेश
करता है, आकृति,
रंग। कान
दूसरा द्वार
है, जहां
से ध्वनि
प्रवेश करती
है, शब्द।
हाथ, नाक, ये सब द्वार
हैं। ये पांच
इंद्रियां मन
के द्वार हैं।
मन इनका आधार
है। ये मन के
एक्सटेंशस
हैं। इनके
द्वारा मन
बाहर के जगत
में जाता और
जानता है।
जरूरी है। मन
की बड़ी
उपयोगिता है।
लेकिन
आंख बाहर देख
सकती है, भीतर नहीं।
कान बाहर सुन
सकते हैं, भीतर
नहीं। हाथ
बाहर छू सकते
हैं, भीतर
नहीं। हाथ
बाहर ही
स्पर्श कर
सकते हैं, भीतर
नहीं। सब
इंद्रियां
बाह्य को विषय
बना सकती हैं,
लेकिन जो
भीतर है, उसे
विषय नहीं बना
सकती हैं। मन
के भी भीतर
चेतना है। मन
के भी पार
पीछे चेतना है।
वह अविषय है।
वह मन के लिए...
कोई उपाय नहीं
है मन के पास
कि उस चेतना
को जान सके।
और हमारी यही
उलझन है।
क्योंकि हम
जगत में सारी
चीजें मन से
जान लेते हैं,
तो हम सोचते
हैं, मन से
ही चेतना को, आत्मा को भी
जान लेंगे।
कुर्सी
को देख लेते
हैं हम मन से, चट्टान
को देख लेते
हैं मन से, दुकान
को देख लेते
हैं मन से।
गणित पढ़ लेते
हैं, भूगोल
पढ़ लेते हैं, भाषा पढ़
लेते हैं मन
से। विज्ञान
के ज्ञाता हो
जाते हैं मन
से। तो एक
भ्रांति पैदा
होती है कि
शायद, जब सभी
कुछ मन से जान
लिया जाता है—विश्वविद्यालय
में जो भी
पढ़ाया जाता है,
सभी मन से
जान लिया जाता
है; कोई
आक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी
में वे तीन सौ
साठ विषयों को
पढ़ाते हैं, जिसमें सभी
कुछ आ जाता है;
वह सब मन से
जान लिया जाता
है—तों
भ्रांति पैदा
होती है कि
फिर यह आत्मा
और परमात्मा
मन से न जाने
जा सकेंगे! जब मन
की इतनी
क्षमता है, तो मन सब जान
लेगा। और चूकिं
मन अपने पीछे
की चीजों को
नहीं जान सकता
है, इसलिए
मन कह देता है,
जिसे मैं
नहीं जान सकता,
वह नहीं है।
पश्चिम
की कठिनाई यही
हो गई है।
पश्चिम ने मन
से बहुत कुछ
जाना है, पूरब से
बहुत ज्यादा
जाना है।
पदार्थ में
पश्चिम ने
बहुत गति की
है, बड़े
रहस्य खोजे
हैं। उसी से
मुश्किल खड़ी
हो गई है।
क्योंकि जब
वैज्ञानिक
सोचता है कि
परमाणु को जान
सकता हूं मन
से, अनंत
दूरी पर जो
तारा है, उसकी
जानकारी ले
सकता हूं मन
से, तो यह
आत्मा जो इतने
पास कहते हैं
लोग—मोहम्मद
कहते हैं कि
गले की जो नस
है, कट जाए
तो आदमी मर
जाता है, आत्मा
उससे भी पास
है—तो जो इतनी
पास है, उसे
न जान सकेंगे? जान लेंगे।
तो मन से वह
कोशिश करता है।
और जब नहीं
जान पाता, तो
निष्कर्ष
देता है कि
आत्मा नहीं है।
लेकिन
ऋषि कहते हैं, न जानने
का कारण यह
नहीं है कि
आत्मा नहीं है,
न जानने का
कारण यह है कि
आत्मा मन के
लिए अगोचर है,
अविषय है।
नाट एन
आब्जेक्ट फार
द माइंड—मन के
लिए विषय नहीं
है।
इसे
हम ऐसा समझें, तो हमें
आसानी पड़ेगी। आंख
देख लेती है, लेकिन सुन
नहीं पाती।
अगर कोई संगीत
सुनने आंख
लेकर पहुंच
जाए, तो वह
कहे, आंख
मेरी बिलकुल
दुरुस्त है, चश्मा भी
नहीं लगता, तो यह संगीत
सुनाई क्यों
नहीं पड़ रहा
है? लेकिन आंख
के लिए सुनना
अविषय है। नाट
एन आब्जेक्ट
फार द आई। वह आंख
का विषय नहीं
है, उसमें आंख
का कोई कसूर
नहीं है। आंख
के पास पकड़ने
का उपाय ही
नहीं है ध्वनि
को। आंख पकड़ती
है रंग को, रूप
को, आकार
को, प्रकाश
कों—साउंड को
नहीं, ध्वनि
को नहीं। उसके
पास यंत्र
नहीं है। आंख
का कोई कसूर
नहीं है।
अविषय। ऐसे ही
मन पकड़ता है
पदार्थ को।
चैतन्य उसके
लिए अविषय है।
इसलिए
ऋषि एक तो
कारण यह है कि
कहते हैं कि
मन का अविषय
है, अगोचर
है। मन को
नहीं दिखाई
पड़ेगा। इसलिए
जो मन से
खोजने चला, वह गलत साधन
लेकर खोजने
चला है। और
अगर आत्मा
नहीं मिलती, तो इससे
आत्मा का न
होना सिद्ध
नहीं होता, इससे सिर्फ
इतना ही सिद्ध
होता है कि आप
जो साधन लेकर
चले थे, वह
असंगत था, इररेलेवेंट
था। उसका कोई
जोड़ ही नहीं
बनता था। उससे
कोई संबंध ही
नहीं जुड़ता था।
उसके लिए कुछ
और ही रास्ते
खोजने पड़ेंगे।
ध्यान
वही रास्ता है।
जो मन नहीं
करता, वह
ध्यान कर पाता
है। जो मन के
लिए अविषय है,
वह ध्यान के
लिए विषय है।
ध्यान उस नई
शक्ति को भीतर
जगाना है, जो
मन से
अतिरिक्त है—न
आंख की है, न
कान की है, न
नाक की है, न
हाथ की है, न
शरीर की है, न मन की है।
इन सब से अलग
और भिन्न है।
उस ध्यान से।
अगर
हम ऐसा समझें
तो आसानी हो
जाएगी।
मैंने
कहा, एक
दर्पण लगा है।
उसके सामने जो
पड़ता है, वह
दिखाई पड़ जाता
है। हम दर्पण
के पीछे एक और
दर्पण लटका
देते हैं, तो
पीछे का जो है,
वह भी दिखाई
पड़ने लगता है।
मन एक दर्पण
है, पदार्थ
को पकड़ने के
लिए। ध्यान भी
एक दर्पण है, परमात्मा को
पकड़ने के लिए।
ध्यान के बिना
नहीं है। गोचर
नहीं हो पाएगा।
और
ऋषि इसलिए भी
कहता है कि मन
और वाणी का
अविषय है, क्योंकि
मन सोच सकता, जान नहीं
सकता—इट कैन
थिंक, बट
इट कैन नाट नो।
मन का अर्थ ही
होता है, मनन
की क्षमता—द
कैपेसिटी टु
थिंक। इसीलिए
उसको मन कहते
हैं। और
इसीलिए
मनुष्य को
मनुष्य कहते
हैं, वह जो
सोच सकता। मन
का अर्थ है :
सोचने की
क्षमता, विचारने
की क्षमता।
लेकिन शान और
ही बात है। सच
तो यह है कि
जहां हमें
ज्ञान नहीं
होता, वहां
मन
सस्थ्यीट्यूट,
परिपूरक का
काम करता है।
जहां ज्ञान
नहीं होता, वहा हम
सोचकर काम
चलाते हैं।
जहां ज्ञान
होता है, वहां
सोचकर काम
करने की कोई
जरूरत ही नहीं
रह जाती। कि रह
जाती है पइ
अंधा
आदमी, कमरे
के बाहर जाना
है, तो वह
पूछता है कि
रास्ता कहां
है? सोचता
है, रास्ता
कहां है? पता
लगाता है, रास्ता
कहा है? आंख
वाला आदमी, जब उसे
निकलना होता
है, न
सोचता.. खयाल
करना, सोचता
भी नहीं कि
रास्ता कहां
है। सोचता भी
नहीं कि
दरवाजा कहां
है। पूछने का
तो सवाल ही
नहीं है, भीतर
भी नहीं सोचता
कि दरवाजा
कहां है। आंख
वाला आदमी, निकलना है—उठता
है और निकल
जाता है। आप
उसको याद
दिलाएं, तब
शायद उसे खयाल
आए कि वह
दरवाजे से
निकला, अन्यथा
दरवाजे का भी
खयाल नहीं
आएगा। आंख जब
देख सकती है, तो सोचने की
कोई जरूरत
नहीं रह गई।
जिसका
भी ज्ञान होता
है, वहां
सोचने की
जरूरत नहीं रह
जाती। अज्ञान
में सोचना
चलता है। शान
में सोचना बंद
हो जाता है।
ऐसा समझें कि
अज्ञान के लिए
मन उपाय है।
अज्ञान के साथ
जीना हो, तो
मन चाहिए, बहुत
सक्रिय मन
चाहिए। शान
में जिसे जीना
है, ज्ञान
जिसे उपलब्ध
हुआ, उसके
लिए मन की कोई
भी जरूरत नहीं
रह जाती। मन
बेकार हो जाता
है। उसे
कचरेघर में
डाला जा सकता
है।
इसलिए
भी ऋषि कहते
हैं कि वह मन
का विषय नहीं
है, वह
ज्ञान का विषय
है। ज्ञान
होता है चेतना
को, विचार
होते हैं मन
को।
साथ
ही ऋषि कहता
है, वाणी
का भी अविषय
है वह।
शब्द
से भी उसे कहा
नहीं जा सकता।
इसलिए दूसरे
को जतलाने का
कोई भी उपाय
नहीं। नो वे
टु
कम्मुनिकेट, संवाद
करने का कोई
उपाय नहीं। णो
का गुड़ हो
जाता है। जिसे
पता चल जाता
है, वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाता है, क्योंकि वह
कहना चाहता है
किसी को और कह
नहीं पाता।
हजार—हजार
डिवाइस, हजार—हजार
उपाय खोजता है
कि जिनसे आपको
कह दे। फिर भी
पाता है कि सब
उपाय व्यर्थ
हो जाते हैं, कहा नहीं
जाता। वाणी का
वह अविषय है, क्योंकि
वाणी मन की
शक्ति है।
जिसको मन जान
नहीं सकता, उसको मन
कहेगा कैसे? अगर मन जान
सकता, तो
वाणी कह सकती।
इसलिए
ध्यान रखें, मन जो भी
जान सकता है, वाणी उसे कह
सकती है।
लेकिन जिसे मन
जान ही नहीं
सकता, वाणी
उसे कहेगी
कैसे? वाणी
तो मन की ही
दासी है। वह
मन का ही एक
हिस्सा है।
इसलिए वाणी
उसे कह नहीं
पाती।
फिर
भी उपनिषद तो
कहा जाता है।
वेद कहे जाते
हैं। बुद्ध
चालीस वर्ष तक
सतत बोलते हैं।
जीसस बोल—बोलकर
फंस जाते हैं
और सूली पर
लटकते है।
सुकरात
से अदालत कहती
है कि तू अगर
बोलना बंद कर
दे, तो
हम तुझे माफ
कर दें।
सुकरात कहता
है, बोलना
कैसे बंद कर
सकता हूं? आप
फांसी ही दे
दें, जहर
ही पिला दें, वह चलेगा।
बोलना बंद
नहीं हो सकता।
और यही सुकरात
कहता फिरता है
कि सत्य बोला
नहीं जा सकता,
और यही
सुकरात बोलने
के लिए मरने
को तैयार है।
मर जाता है, जहर पी लेता
है। वह कहता
है, बिना
बोले रहूंगा
कैसे! बोलूंगा
तो ही, यह
तो अपना धंधा
है। सुकरात का
शब्द है यह, सत्य को
बोलना तो मेरा
धंधा है। इसके
बिना मैं
जीऊंगा कैसे?
और कहता
फिरता है कि
सत्य कहा नहीं
जा सकता!
अदालत
तो कोई गलती
आग्रह नहीं कर
रही थी। जब
सुकरात खुद ही
कहता है, सत्य नहीं
कहा जा सकता, तो अदालत
क्या बड़ी मांग
कर रही थी? वह
यही कह रही थी
कि जो नहीं कहा
जा सकता, कृपा
करके मत कहो।
जो कहा ही
नहीं जा सकता,
उसको कहने
के चक्कर में
क्यों पड़ते हो?
और कह—कहकर
मुसीबत में
पड़ते हो!
अदालत तक आ गए
हो।
सुकरात
ने कहा, वह कहा तो
नहीं जा सकता,
लेकिन उसे
कहने से रुका
भी नहीं जा
सकता।
क्योंकि जब
मैं देखता हूं
कि मेरे ही
सामने कोई जा
रहा है और
गड्डे में
गिरेगा, मैं
जानता हूं कि
नहीं कहा जा
सकता गड्डा है,
फिर भी मैं
चिल्लाऊंगा।
फिर भी मैं
आवाज दूंगा।
कौन जाने, किसी
तरह संकेत मिल
जाए। और न भी
मिले संकेत, तो सुकरात
ने कहा है, कम
से कम इतनी तो
तृप्ति होगी
कि मैं चुपचाप
नहीं खड़ा रहा
था। जो मुझे
करना था, वह
मैंने किया था।
अब अगर
परमात्मा की
मर्जी नहीं, अस्तित्व का
नियम नहीं, तो मेरा
कसूर नहीं, मेरी कोई
जिम्मेवारी
नहीं।
सत्य
को जान लेने
के बाद एक
अल्टीमेट
रिस्पासिबिलिटी, एक
आत्यंतिक
जिम्मेवारी
आदमी पर पड़
जाती है कि
उसने जो जाना
है, वह कह
दे। कोई सुने
तो ठीक, न
सुने तो ठीक।
सुनने वाला
समझे तो ठीक, न समझे तो
ठीक। जो कहा
है, वह कहा
जा सके तो ठीक,
न कहा जा
सके तो ठीक।
लेकिन यह बोझ
मन पर न रह जाए
कि कुछ मैं
जानता था, जिसे
कोई और भी
तलाश रहा था
और मैंने उससे
कहने का कोई
उपाय न किया।
और
कभी—कभी ऐसा
हो जाता है, अगर
बुद्धिमान हो
कोई दूसरा
सुनने वाला, तो नहीं कही
जा सकती जो
बात वाणी से, वह भी वाणी
की असमर्थता
और विवशता से
कुछ—कुछ समझी
जा सकती है।
नहीं कही जा
सकती जो
शब्दों से, शब्दों के
पीछे छिपी हुई
कहने की
आतुरता से, शब्दों के
पीछे छिपी हुई
करुणा से कहीं
हृदय की कोई
तंत्री झंकृत
हो सकती है।
तो
ऋषि कहता है, वह वाणी
और मन दोनों
के अतीत और
अगोचर है और
दोनों का विषय
नहीं है।
इसलिए जिसे
उसे जानना हो,
उसे वाणी के
भी पार जाना
पडता है, मन
के भी पार
जाना पड़ता है।
और उस नए
दर्पण को
निर्मित करना
पड़ता है, जिसका
नाम ध्यान है।
कहें, विवेक
है। जो भी
शब्द दें, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। उस
विवेक या उस
ध्यान को जगाए
बिना ऋषियों
ने जिन सत्यों
की बात कही है,
वह हमारे
कानों तक ही
जाती है, प्राणों
तक नहीं। हम
उसे सुनते हुए
मालूम पड़ते
हैं और फिर भी
बहरे रह जाते
हैं।
जीसस
बार—बार कहते
थे : जिनके पास आंखें
हों, वे देख
लें; जिनके
पास कान हों, वे सुन लें।
जो भी उनको
सुनने आते थे,
सभी के पास
कान थे। सुनने
कान वाले लोग
आते हैं। जो
भी उनके दर्शन
को आते थे, उनके
पास आंखें थीं।
दर्शन को आंख
वाले लोग आते
हैं। और आंख
वाले लोगों से
ही जीसस का यह
कहना कि आंखें
हों तो देख लो,
कान हों तो
सुन लो, बड़ा
अजीब है। पर
जरा भी गलत
नहीं है। कान
होने से ही
सुना जा सकता
अगर सत्य, तो
अब तक सभी ने
सुन लिया होता।
और आंख होने
से ही देखा जा
सकता सत्य, तो अब तक सभी
ने देख लिया
होता। आंख और
कान तो हमें
जन्म से ही
मिल जाते हैं।
लेकिन एक और
फैकल्टी, एक
और हमारी
अंतःप्रज्ञा
की क्षमता
जन्म से नहीं
मिलती, उसे
हमें जन्माना
पड़ता है।
जन्म
से तो हम कहें
कि जीने के
लिए जो उपयोगी
हैं, वे
यंत्र हमें
मिलते हैं।
जानने के लिए
सत्य को, जीवन
को जानने के लिए
जो उपयोगी है,
वह यंत्र तो
हमें ही
सक्रिय करना
पड़ता है। वह
बीज—रूप हमारे
भीतर होता है,
लेकिन उसे
सक्रिय हमें
करना पड़ता है।
अन्यथा वह बीज
की तरह पड़ा—पड़ा
फिर खो जाता
है। और जन्मों—जन्मों
हमें मिलता है
अवसर और हम
चूकते चले जाते
हैं।
वह
बीज है ध्यान
का, विवेक
का। थोड़ा सा
ही श्रम, थोड़ी
प्रतीक्षा, थोड़ा धैर्य,
थोड़ा साहस,
थोड़ा
संकल्प, थोड़ा
समर्पण; और
उस बीज से
जीवन— अंकुर
फूटना शुरू हो
जाता है। और
जिस व्यक्ति
के भीतर ध्यान
का अंकुर जन्म
गया, बस
वही कह सकता
है कि जीवन
में कोई
सार्थकता पाई,
अन्यथा
जीवन सिर्फ अपने
को व्यर्थ
गंवाने से
ज्यादा और कुछ
भी नहीं है।
तो
मन और वाणी के
जो पार है, वह ध्यान
से जाना जाता
है।
आज
इतना ही।
अब
हम ध्यान में
उतरेंगे। वह
मन और वाणी के
जो पार है, उसे
जानने को
चलेंगे। दों—तीन
सूचनाएं, फिर
आप उठें।
बहुत
ठीक प्रयोग आप
कर रहे हैं—शायद
दस—पांच
मित्रों को
छोड्कर।
लेकिन वे जो
दस—पांच हैं, वे भी
व्यर्थ समय न
चूके। बड़े मजे
की बात तो यह
है कि आ ही गए
हैं, खड़े
ही हैं, समय
जा ही रहा है, घंटा बीत ही
जाएगा—चाहे
ध्यान करिएगा
कि नहीं
करिएगा। जब आ
ही गए हैं, खड़े
ही हैं और
ध्यान चल ही
रहा है, तो
आप क्यों
किनारे पर खड़े
रह जाते हैं? जब गंगा
इतनी पास बहती
हो, तो आप
क्यों प्यासे
रह जाते हैं?
तो
कोई भी वंचित
न रहे, कोई
भी खड़ा न रहे।
प्रयोग करके
ही देख लें—न
मिलेगा, तो
खोका तो कुछ
भी नहीं। नहीं
भी पाया कुछ, तो खोने की
कोई बात नहीं
है। इसलिए कोई
भी खाली न खड़ा
रह जाए। फिर
भी कोई बिलकुल
ही नासमझ हो, आंखें होते
हुए आंख न हों,
कान होते
हुए कान न हों,
तो वह दूर
पहाड़ी पर हट
जाए। वहां
बैठे, यहां
न खड़ा रहे।
दूसरी
बात, पहले
दो मिनट काफी
गहरी श्वास ले
लेनी है, ताकि
शरीर से शक्ति
जग जाए।
तीसरी
बात, अपलक
आंख—पलक झुकानी
नहीं है—मुझे
देखते रहना है।
चौथी
बात, जिन
लोगों को बहुत
तीव्रता से
करना है, वे
आगे होंगे। और
उसी मात्रा
में पीछे होते
चले जाएंगे।
जिनको खड़े
रहकर धीमे—धीमे
करना है, वे
बिलकुल पीछे
की कतार में
होंगे। फिर
यहां मेरे पास
भी जो लोग खड़े
हैं, वे भी
थोड़ी जगह
बनाकर खड़े
होंगे तो कूद
सकेंगे, नाच
सकेंगे।
और
आखिरी बात, जब मैं
खड़ा हो जाऊं
और आपको इशारा
शुरू करूं, तो आपको हू
की आवाज, हू
की चोट जोर से
करनी है और
नाचना है। जब
मैं हाथ नीचे
से ऊपर की तरफ
उठाऊं, तो
वह इशारा है
कि आप अपनी
पूरी शक्ति
लगा दें। और
जब मैं ऊपर ले
जाऊं, तो
आपमें जितनी
ताकत हो उतनी
लगा दें —आवाज,
नाच...।
और
कभी—कभी बीच
में जब हाथ
मैं उलटे कर
लूं और ऊपर से
नीचे की तरफ
लाऊं, तब
आप और भी
जितनी शक्ति
हो, वह
इकट्ठी करके
लगा दें।
क्योंकि तब
मैं आशा करता
हूं कि अगर
आपने पूरी
शक्ति लगाई, तो आपमें से बहुतों
के ऊपर
शक्तिपात हो
सकेगा।
परमात्मा का
ऊपर से स्पर्श
मिल सकेगा।
Thank you for sharing!!
जवाब देंहटाएंthank you guruji
जवाब देंहटाएं❦︎❦︎❦︎
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