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शुक्रवार, 29 जून 2018

ताओ उपनिषद--प्रवचन--114

 प्रवचन-एक सौ चौदहावां 

संत को पहचानना महाकठिन है:

They Know Me Not
My teachings are very easy to understand and very easy to practise,
But no one can understand them and no one can practise them.
In my words there is a principle.
In the affairs of men there is a system.
Because they know not these,
They also know me not.
Since there are few that know me,
Therefore I am distinguished.
Therefore the Sage wears a coarse cloth on top
And carries jade within his bosom.
अध्याय 70

वे मुझे नहीं जानते

मेरे उपदेश समझने में आसान हैं, और साधने में भी आसान हैं।
लेकिन न कोई उन्हें समझ सकता है, और न कोई उन्हें साध सकता है।
मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।
मनुष्य के कारबार में एक व्यवस्था है।
क्योंकि इन्हें वे नहीं जानते हैं, वे मुझे भी नहीं जानते हैं।
चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, इसलिए मैं विशिष्ट हूं।
इसलिए संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं,
लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।

जीवन सरल है, लेकिन तुम जटिल हो। इसलिए चलते हो साथ-साथ, जीवन के समानांतर; लेकिन जीवन से कभी मिलन नहीं हो पाता। जब तक कि तुम भी जीवन जैसे सरल न हो जाओ तब तक मिलन हो भी न सकेगा। क्योंकि समान से समान का मिलन हो सकता है, सरल से सरल का, जटिल से जटिल का।
जटिलता मन की है। और मन की जटिलता को समझ लो तो शेष सब समझ में आ जाता है। मन की जटिलता यह है: अगर फूल को देखो तुम, तो फूल को नहीं देखते, फूल के संबंध में सोचने लगते हो। संबंध में सोचा कि दूर निकल गए। फूल को ही देखते, सोचते न; फूल के सौंदर्य को जीते, सोचते न; फूल को पीते, सोचते न; फूल को घेर लेने देते तुम्हें सब ओर से, सोचते न; फूल को जाने देते हृदय तक, हृदय को जाने देते फूल तक, विचार की बाधा खड़ी न करते, तो सब सरल था। लेकिन देखा भी नहीं कि सोचना शुरू हो जाता है।
सोचने से ही तुम जीवन से दूर हो जाते हो। प्रेम नहीं करते, प्रेम के संबंध में सोचते हो। उत्सव नहीं मनाते, उत्सव के संबंध में सोचते हो। जीते नहीं, जीने के संबंध में विचार करते हो। और जितना तुम विचार से घिरते जाओगे उतना ही जीवन दूर होता जाएगा। विचार का अर्थ है दूर जाने की यात्रा। फिर एक विचार दूसरे विचार में ले जाता है; दूसरा तीसरे विचार में ले जाता है। फिर अनंतशृंखला हो जाती है। पहला कदम चूके कि फिर तुम चूकते ही चले जाते हो। पहले कदम पर ही जीने और विचार के फासले को ठीक से समझ लेना। जीना हो तो जीना निर्विचार में है; सोचना हो तो सोचना निर्जीवन है। इस जटिलता के कारण जीवन सरल होते हुए भी उपलब्ध नहीं हो पाता।
जीसस ने कहा है, देखो लिली के फूलों को! वे सोचते नहीं। लेकिन उनके सौंदर्य के सामने सम्राट सोलोमन का सौंदर्य भी फीका है।
फूल कल के संबंध में विचार नहीं करते; आज काफी है। आज इतना काफी है कि कल के संबंध में सोचने की जगह कहां? आज बहुत है। आज को उत्सव मना लेना है। तुम्हारे पास भी आज बहुत है। लेकिन तुम कल के संबंध में सोच रहे हो..जो अभी आया नहीं, और जो कभी आएगा भी नहीं। और तुम्हारी आदत निर्मित हो रही है। जब कल आएगा तो वह आज की तरह आएगा। और आज से टूटने की तुम्हारी आदत मजबूत होती चली जा रही है। कल भी तुम आगे आने वाले कल के लिए सोचोगे। ऐसे तुम जीओगे, और कभी न जी पाओगे। मरते क्षण भी तुम परलोक के संबंध में सोचोगे।
चूक जाने की यह कला है, जीवन से चूक जाने की कला है कि तुम सदा वहां मत रहो जहां जीवन है, कहीं और रहो। या तो अतीत में, जो जा चुका, मन बड़ा रस लेता है; या भविष्य में, जो आया नहीं, मन बड़ी कल्पना करता है। बस यह क्षण, जो आ गया है, जो अभी है, जो मौजूद है, जो वर्तमान है, जहां जीवन का द्वार है, बस इस क्षण में मन की कोई अभीप्सा नहीं, कोई प्यास नहीं। और यह क्षण बहुत छोटा है। यह क्षण इतना छोटा है कि तुम जरा सा हिले कि चूक जाओगे। और मन तो कंप रहा है; अतीत और भविष्य के बीच झूले मार रहा है। बस यहां नहीं रुकता, घड़ी के पेंडुलम की तरह घूमता है बाएं से दाएं; मध्य में नहीं ठहरता।
इसलिए जितना बड़ा विचारक उतना ही जीवन से दूर। पहले वह प्रेम के संबंध में सोचता है; फिर प्रेम के संबंध में जो सोचा उसके संबंध में सोचता है। ऐसे चलता जाता है। फिर कोई अंत नहीं है।
यह तो पहली बात ख्याल में ले लेनी जरूरी है कि जटिल तुम हो; जीवन सरल है। जीवन अभी उपलब्ध है; तुम अभी मौजूद नहीं। लौट आओ वर्तमान में, समेट लो अपने को पीछे से और आगे से, ठहर जाओ यहीं और अभी, और कुछ भी तुमने कभी खोया नहीं है। और कुछ भी पाने को नहीं रह जाता। सब तुम पा लोगे।
पर वर्तमान के क्षण में रुकना ही तो अड़चन है। तुम इस बात को भी सुन कर यही सोचते हो: अच्छा, तो कल अभ्यास करेंगे, तो कल कोशिश करेंगे वर्तमान में आने की। आज तो उलझनें और हैं। फिर इतने जल्दी किया भी नहीं जा सकता। तो तुम इसे भी स्थगित करते हो। तुम ध्यान को भी स्थगित करते हो। और ध्यान का अर्थ कुल इतना ही है: वर्तमान में होना।
मेरे पास लोग आते हैं। उनको मैं कहता हूं, ध्यान करो। तो वे कहते हैं, करेंगे। पर अभी बहुत उलझनें हैं; अभी लड़की की शादी निपटानी है। जैसे लड़की की शादी निपटाना ध्यान में कोई बाधा बनती हो। कि अभी बहुत काम-धाम है, उलझनें हैं सिर पर; और फिर अभी जीवन पड़ा है; फिर ध्यान तो वृद्धावस्था की बात है। वह तो चैथा चरण है, चैथा आश्रम है। आखिर में कर लेंगे।
ध्यान का अर्थ ही होता है वर्तमान में होना। तुम उसे भी टालते हो। और जब भी तुमसे कहा जाए ध्यान, तुम तत्क्षण पूछते हो, विधि क्या है? विधि का मतलब है, तुम अभ्यास करोगे। अभ्यास का मतलब है, कल पर टालोगे। अभ्यास का अर्थ ही होता है, तुमने टाल दिया कल पर। ध्यान अभ्यास नहीं है। ध्यान तो जागरण है। अभी हो सकता है। अभ्यास किया तो कभी न होगा, क्योंकि अभ्यास की बात में ही तुम भूल गए, चूक गए।
कृष्णमूर्ति निरंतर अपना सिर ठोंक लेते हैं। क्योंकि वे जीवन भर से समझा रहे हैं कि ध्यान की कोई विधि नहीं। और उनको वर्षों से सुनने वाले बार-बार फिर पूछते हैं, तो कैसे करें?
अब जब विधि नहीं है, तो कैसे करें पूछना बिल्कुल असंगत है। कैसे का तो मतलब होता है अभ्यास; कैसे का तो अर्थ होता है करेंगे तब मिलेगा। और ध्यान का अर्थ है कि वह मिला ही हुआ है इस क्षण। तुम कुछ मत करो; तुम सिर्फ रुक जाओ; तुम न करने में हो जाओ और ध्यान बरस जाएगा। तुम्हारे करने में ही चूका है; तुम्हारे न करने में मिलन है।
जीवन तो सरल है, लेकिन मन जटिल है। लाओत्से के इन वचनों को समझने की कोशिश करो।
‘मेरे उपदेश समझने में आसान हैं, और साधने में भी।’
क्योंकि लाओत्से का उपदेश ही क्या है! सच कहो तो यह कोई उपदेश है! लाओत्से का उपदेश तो जीवन ही है। जीवन को उपलब्ध हो जाओ। जो मिला ही है, उसे पुनः पा लो। जो तुम्हारे भीतर जगा ही है, उसे पहचान लो। जो तुम हो, उसके रस, उसके स्वाद को पा लो। लाओत्से का उपदेश यानी जीवन। लाओत्से कोई परमात्मा की बात करता नहीं। परमात्मा की बात भी वस्तुतः जीवन से बचने की तरकीब है मन की। जीवन है; परमात्मा कहां है? और जीवन को ही जिन्होंने उसकी गहनता में जान लिया उन्होंने परमात्मा को जान लिया।
लेकिन मैंने अब तक एक आदमी नहीं देखा जो मुझसे पूछने आया हो कि जीवन कैसे जीएं। मुझसे लोग पूछने आते हैं, परमात्मा को कैसे खोजें? एक आदमी नहीं आया जो पूछता हो जीवन कैसे जीएं। और जीवन है; और परमात्मा तो सिर्फ शब्द है। लेकिन परमात्मा के खोजी हैं; क्योंकि परमात्मा को खोजने में तो जन्म-जन्म लगेंगे। अगर तुम जीवन की बात मुझसे पूछोगे तो अड़चन में पड़ोगे। क्योंकि जीवन तो अभी यहां द्वार पर खड़ा है; अभी जी सकते हो। अगर परमात्मा को मिल कर नाचना है तो जन्मों-जन्मों की यात्रा है; पता नहीं कभी पूरी होगी कि नहीं होगी। लेकिन अगर जीवन को पाकर नाचना है तो तुम्हें कोई भी तो नहीं रोक रहा है। तुम नाच उठो अभी। द्वार पर जीवन बरस रहा है, सूरज उगा है, पक्षी गीत गा रहे हैं, सब तरफ उत्सव है। तुम किसकी खोज कर रहे हो? तुम क्यों नहीं उस उत्सव में सम्मिलित हो जाते अभी?
अगर तुम जीवन की पूछोगे तो अभी मिल सकता है। इसलिए तुम जीवन की पूछते ही नहीं। तुम पूछते हो, परमात्मा कहां है? परमात्मा का रूप क्या है? परमात्मा है या नहीं? तुम परमात्मा को तर्क से सिद्ध करते हो, असिद्ध करते हो, सिद्धांत बनाते हो। और जो है वह तो सिर्फ जीवन है। उसका कोई सिद्धांत है? उसका कोई शास्त्र है? बिना वेद के पक्षी जी रहे हैं, बिना बाइबिल के वृक्ष जी रहे हैं, बिना कुरान के आकाश जी रहा है। तुम क्यों नहीं जी सकते? तुम क्यों शास्त्र को बीच में लाते हो? कहीं कोई गहरी चालाकी है जो तुम अपने साथ खेल रहे हो; कोई खेल है जिसमें तुम अपने को धोखा दे रहे हो।
एक दिन मैं मुल्ला नसरुद्दीन के घर गया, वह पेशेंस खेल रहा था, ताश खेल रहा था अकेला ही। मैं बैठा उसका खेल देखता रहा। मैंने देखा कि वह कई बार अपने को ही धोखा दे रहा है। अकेले ही खेल रहा है, दोनों तरफ से चालें खुद ही चल रहा है, लेकिन उसमें भी धोखाधड़ी कर रहा है।
मैंने पूछा कि नसरुद्दीन, धोखा दे रहे हो? उसने कहा, कहां दिया! धोखा वगैरह कुछ नहीं दे रहा हूं; नियम से खेल रहा हूं। मैंने कहा, तुम्हारे अतिरिक्त यहां कोई भी नहीं है। तुम्हीं दोनों तरफ से चालें चल रहे हो। धोखा भी देने का क्या सार है? उसने कहा, मैंने कभी धोखा दिया ही नहीं। अभी भी वह धोखा दे रहा है। मैंने पूछा, यह तो असंभव मालूम पड़ता है कि तुम अकेले हो, धोखा दो और पता न चले! उसने कहा कि मैं काफी होशियार हूं धोखा देने में; देता हूं और पता भी नहीं चलने देता।
किसको धोखा दे रहे हो तुम शास्त्रों को बीच में लाकर? शास्त्रों की दीवाल खड़ी करके तुम किसे रोक रहे हो? तुम जीवन के ही प्रवाह को रोक रहे हो। तुम सूर्य की किरणों को रोक रहे हो। तुम पक्षियों के गीत को रोक रहे हो। तुम अपने को ही रोक रहे हो। लेकिन एक बार तुम शास्त्र में उलझ गए कि फिर तुम गहन जंगल में खो गए। शब्दों के जंगल से बाहर आना बड़ा मुश्किल है। क्योंकि बाहर आने का उपाय नहीं मिलता। एक शब्द दूसरे शब्द में ले जाता है; दूसरा तीसरे शब्द में ले जाता है। और इतना जाल खड़ा हो जाता है कि जितना तुम सुलझाते हो, लगता है और उलझने लगा।
जीवन के संबंध में पूछो। जीवन ही परमात्मा है। और जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।
लेकिन तुम्हारे धर्मगुरु तो जीवन की निंदा कर रहे हैं। उन्होंने तो परमात्मा को जीवन के विपरीत खड़ा कर रखा है। वे तो कहते हैं, जिसे परमात्मा की तरफ जाना हो उसे जीवन को काट डालना पड़ेगा। उनकी तो सारी सिखावन यही है कि तुम जीवन को काटो, पत्तों को, शाखाओं को, जड़ों को। जिस दिन तुम जीवन को बिल्कुल काट डालोगे उस दिन तुम्हें परमात्मा मिलेगा। उनकी बात तुम्हें जंचती है। जंचती है, क्योंकि जीवन को काटने में तुम्हारे मन की हिंसा पूरी होती है। और जीवन को काटने में कल पर टालने की सुविधा मिलती है।
और जीवन को काटते रहोगे तो तुम कभी भी न पा सकोगे परमात्मा को। क्योंकि अगर परमात्मा कहीं था तो जीवन की धड़कन में था; जहां हृदय धड़कता है, जहां श्वास चलती है, वहीं परमात्मा छिपा था। परमात्मा जीवन की ऊर्जा का नाम है।
लेकिन अगर जीवन ही परमात्मा है तो फिर मंदिरों की और मस्जिदों की जरूरत क्या रहेगी? जीवन तो बिना मंदिर-मस्जिद के मौजूद है। अगर जीवन ही परमात्मा है तो कुरान, बाइबिल और वेद की क्या जरूरत है? जीवन का तो अपना ही वेद है; जीवन तो खुद ही वेद है। तो पुरोहित जी न सकेगा; धर्मगुरु बच न सकेगा। उसका धंधा ही मिट जाएगा। वह तुम्हें जीवन के विपरीत खड़ा करता है। क्योंकि जीवन के विपरीत खड़े होने में ही उसका धर्म और उसका धंधा खड़ा होता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे फैलते चले जाते हैं। सारी पृथ्वी भर गई उनसे, और आदमी के जीवन में कहीं कोई आनंद की पुलक नहीं है; आदमी के जीवन में कहीं कोई रस की धार नहीं बहती।
इसे ठीक से समझ लो। क्योंकि यह मैं किसी और के संबंध में नहीं कह रहा हूं, यह तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है। जीवन को करो प्रेम; जीवन को मानो अहोभाग्य; जीवन है परम आशीर्वाद। और अगर जीवन में कहीं बुराई दिखती हो तो जानना कि तुम्हारी ही कोई भूल है। जीवन को काटने में मत लग जाना। जहां तुम्हें बुराई दिखती है वहां भी कुछ भला छिपा होगा। जरा और गहरे खोजना, जल्दी निर्णय मत लेना। क्योंकि तुमने जल्दी निर्णय लिया तो पुरोहित और पंडित तुम्हें शोषण करने को तैयार खड़े हैं। तुमने जरा भी कहा कि यह गलत है कि उन्होंने कहा कि हम तो पहले से ही कहते हैं कि जीवन गलत है, और नर्क है, और पाप है। सुनो हमारी! खोजो परमात्मा को! हम तुम्हें परलोक का मार्ग दिखाते हैं।
बस यही लोक है। इसी लोक में गहरे जाने के उपाय हैं। परलोक कहीं भी नहीं है। यही क्षण है। यद्यपि इस क्षण के बड़े गहरे आयाम हैं। तुम चाहो तो नदी को ऊपर से देख कर लौट आ सकते हो। तुम चाहो तो नदी की सतह पर तैर सकते हो। तुम चाहो तो नदी में गहरी डुबकी लगा सकते हो। नदी में गहरे होने के बहुत उपाय हैं। अथाह है जल जीवन का। अगर कहीं भूल दिखाई पड़े तो जल्दी मत करना। क्योंकि उसी भूल के नीचे गहराई में कुछ छिपा होगा। अगर कहीं कठोरता भी मालूम पड़े तो भी जल्दी निंदा मत करना। वहीं कठोरता के भीतर कहीं कोमलता छिपी होगी। और अगर कहीं तुम्हें ऐसा लगे कि अन्याय हो रहा है तो भी निर्णायक मत बनना। क्योंकि जब तक तुम पूर्ण को न जान लो तब तक तुम निर्णय कैसे करोगे? तुम्हें अन्याय दिख सकता है कहीं। क्योंकि तुम खंड को ही जानते हो। तुम्हें पूरे का कुछ भी पता नहीं है।
छोटा सा बच्चा पैदा होता है; पहला ही काम तो करता है कि चीख कर रोता है, चिल्लाता है। धर्मगुरुओं ने इसका भी शोषण कर लिया। उन्होंने कहा, रोते हुए ही तुम पैदा होते हो। जन्म ही रुदन है, दुख है। जन्म की शुरुआत दुख से होती है।
वे बिल्कुल ही गलत बात कह रहे हैं। बच्चा दुख के कारण नहीं रोता। और बच्चे के रोने और चिल्लाने के पीछे जीवन की अभीप्सा छिपी है, दुख नहीं।
बच्चा चिल्लाता है; उसके माध्यम से उसका फेफड़ा, गला साफ होता है, और श्वास की धारा शुरू होती है। चिकित्सक जानते हैं कि अगर बच्चा तीन मिनट तक न रोए-चिल्लाए तो बचाना मुश्किल है; मर जाएगा। क्योंकि अब तक तो मां की श्वास से जीता था; अब अपनी श्वास लेनी है। तो वह जो चीखना है, रोना है, चिल्लाना है, वह सिर्फ गले का साफ करना है। उसमें न तो कोई पीड़ा है; अगर हम बच्चे को जान सकें तो उसके भीतर छिपा अहोभाव है। उसने पहली स्वतंत्रता की श्वास ली। वह पहली दफा अपने तईं चिल्लाया है, आवाज दी है, पुकार दी है। वहां दुख जरा भी नहीं है। वहां पीड़ा जरा भी नहीं है। हां, तुम व्याख्या कर ले सकते हो। और धर्मगुरु उसको पकड़ लेता है कि देखो रोने से...।
तुम्हें पता होना चाहिए कि रोने का अनिवार्य संबंध दुख से नहीं है। कभी आदमी सुख में भी रोता है। कभी तो महासुख में ऐसे आंसू बहते हैं जैसे दुख में कभी भी नहीं बहे। रोने का कोई संबंध दुख से नहीं है अनिवार्य। दुख में भी आदमी रोता है; सुख में भी आदमी रोता है। महासुख और आनंद में भी लोगों को रोते हुए पाया गया है। आंसू तो केवल, जब भी तुम्हारे भीतर कोई चीज लबालब हो जाती है, इतनी हो जाती है कि तुम सम्हाल नहीं पाते, तभी बहते हैं। वह बच्चे की पहली पुकार है, जीवन की पुकार है। वह जीवन का पहला कदम है।
लेकिन धर्मगुरु ने उसकी भी निंदा कर दी। धर्मगुरु ने कुछ छोड़ा ही नहीं, उसने हर चीज की निंदा कर दी। जन्म से लेकर मृत्यु तक उसने हर चीज को बुरा बता दिया है। और तुम्हें इस बुराई से इतना आक्रांत कर दिया है, यह व्याख्या तुम्हारे मन में भी इतनी गहरी बैठ गई है। और व्याख्या के परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।
फ्रांस में एक बहुत बड़ा चिकित्सक है जिसने एक अनूठी बात खोजी है। वह पूरी मनुष्यता को जैसे भूल ही गई व्याख्या के कारण। बच्चे पैदा होते हैं; तो हम सोचते हैं कि मां को बड़ी पीड़ा होती है, प्रसव-पीड़ा होती है। क्योंकि सारी दुनिया में करीब-करीब, कम से कम सभ्य लोगों में तो पीड़ा होती ही है। और असभ्यों की तो हम फिक्र ही नहीं करते। आदिम जातियों में पीड़ा नहीं होती। बच्चा पैदा होता है; मां काम करती रहती है खेत में, बच्चा पैदा हो जाता है, टोकरी में बच्चे को रख कर वह फिर काम में लग जाती है। कोई प्रसव-पीड़ा नहीं होती। लेकिन सारी सभ्य जातियों में होती है। सभ्यता से प्रसव-पीड़ा का क्या संबंध होगा?
यह व्याख्या है, जो गहरे बैठ गई। प्रसव पीड़ा है, यह ख्याल, यह विचार गहरे बैठ गया।
फ्रांस में एक चिकित्सक ने स्त्रियों को सम्मोहित किया प्रसव के पहले और उन्हें यह धारणा दी कि प्रसव बड़ा आनंदपूर्ण है। होश में आ गईं, पर यह धारणा उसने सम्मोहन के द्वारा उनमें गहरे बिठा दी कि प्रसव बड़ा समाधिपूर्ण है; समाधिस्थ आनंद, आखिरी आनंद प्रसव में होगा।
होना भी यही चाहिए, क्योंकि बड़ी से बड़ी घटना घट रही है; एक नये जीवन का पदार्पण हो रहा है। यह दुख में कैसे होगा? और मां बड़े से बड़ा कृत्य कर रही है इस जगत में। कोई चित्रकार कितना ही बड़ा चित्र बना ले, कोई मूर्तिकार कितनी ही बड़ी मूर्ति गढ़ ले, कोई संगीतज्ञ कितने ही बड़े संगीत को जन्म दे दे; फिर भी एक साधारण स्त्री के सृजन का मुकाबला नहीं कर सकता। क्योंकि सब सृजन..संगीत का, कि मूर्ति का, कि चित्र का, कि काव्य का..मुर्दा है। एक साधारण सी स्त्री की भी सृजन की क्षमता, बड़े से बड़े चित्रकार, मूर्तिकार, स्रष्टा में नहीं है। एक जीवंत व्यक्ति को जन्म दे रही है। यह तो अहोभाव का क्षण होना चाहिए; यह तो बड़े उत्सव का क्षण होना चाहिए। यह दुख का कैसे हो गया? धर्मगुरु ने इतनी निंदा की है कि यह गहरे बैठ गया।
तो इस चिकित्सक ने सम्मोहित किया स्त्रियों को और फिर उनको बच्चे हुए। और वे इतनी आनंदित हुईं। दुख की तो बात ही अलग रही, प्रसव देना एक आनंद की घटना हो गई; ऐसे आनंद की घटना कि उन स्त्रियों ने कहा कि फिर दुबारा ऐसा आनंद नहीं जाना।
उसने कोई लाखों प्रयोग करवाए। और अब तो वह सम्मोहित भी नहीं करता। अब तो वह कहता है, देख लो, इतनी स्त्रियों को आनंदपूर्ण प्रसव हो रहा है! उसने चित्र प्रकाशित किए हैं, फिल्में बनाई हैं। उन स्त्रियों के चेहरे पर वही भाव है जो कभी बुद्ध के चेहरे पर दिखाई पड़ता है, या कभी मीरा के चेहरे पर दिखाई पड़ता है। वही नृत्य, वही आनंद। और कुछ भी खास घटना नहीं घट रही है, बच्चे का जन्म हो रहा है। न चीख है, न पुकार है; न रोना है, न आंसू हैं। बिल्कुल उलटी स्थिति है। और उसकी बात सारी दुनिया में प्रचारित हो रही है। रूस में तो उन्होंने हर अस्पताल में प्रयोग शुरू कर दिए। क्योंकि स्त्री के लिए अकारण कष्ट दे रहे हो। जो घटना महासुख बन सकती थी उसको हमने दुख बना दिया।
जल्दी मत करना। जहां भी तुम दुख पाओ, समझना कि कहीं कुछ भूल हो रही है। क्योंकि गहरे में तो सुख ही होगा; क्योंकि गहरे में परमात्मा है। हर घटना के पीछे छिपा है वही। तो ऊपर-ऊपर से निर्णय मत ले लेना; भीतर जाना। जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। और जीवन की निंदा जिसने की, उसके मंदिर के द्वार सदा के लिए बंद हो गए। फिर वह भटके काशी, काबा, कैलाश, उसके मंदिर के द्वार बंद हो गए। फिर वह करे सत्संग, सुने रामायण, गीता, वेद, करे पाठ, कुछ भी न होगा। जीवन पास था; वह शब्दों में खो गया। जीवन यहां था; वह वहां दूर भटकने लगा।
लाओत्से कहता है, ‘मेरे उपदेश समझने में आसान हैं।’
और आसान क्या हो सकती है बात? सीधे-सीधे हैं।
‘और साधने में भी आसान हैं।’
क्योंकि जब बात ही सीधी-सादी है। तुम्हें कोई जीवन सिखाना पड़ेगा?
यह तो ऐसा ही हुआ कि मुल्ला नसरुद्दीन पकड़ लिया गया मछली मारते एक ऐसे तालाब पर जहां मछली मारना वर्जित था। जब पुलिस ने उसे पकड़ लिया और पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? तख्ती दिखाई नहीं पड़ती कि यहां मछली मारना वर्जित है? यह सम्राट का अपना तालाब है, इसमें कोई मछली नहीं मार सकता। नसरुद्दीन ने कहा, मछली मार कौन रहा है? लेकिन उसकी बंसी में फंसी एक मछली तड़प रही थी। तो उन्होंने कहा, फिर यह क्या हो रहा है? उसने कहा कि मछली को तैरना सिखा रहा हूं।
तुम्हें जीवन सिखाना ऐसा ही है जैसे मछली को कोई तैरना सिखाए। सिखाना क्या है? जीवन तो है ही। तुम क्या सीखने के लिए भटकते फिर रहे हो? और तुम सीखने के लिए भटकते हो तो कोई न कोई चालबाज मिल जाता है जो सिखाने लगता है। तुम मानते ही नहीं, तुम कहते हो, सीखेंगे ही। मछली तैरने के सीखने की आकांक्षा करती है; कोई न कोई नसरुद्दीन मिल जाएगा जो तैरना सिखा देगा।
जीवित तुम हो। सब तुम्हारे पास है। और लाओत्से का कोई और उपदेश तो नहीं है, जीवन ही उपदेश है। इसलिए वह कहता है कि मेरे उपदेश समझने में आसान और मेरे उपदेश साधने में आसान हैं। साधना क्या है?
लेकिन तब दूसरे दो वचन तुम्हें बड़े हैरानी के लगेंगे, और बड़े सच।
‘लेकिन न कोई उन्हें समझ सकता है, और न कोई उन्हें साध सकता है।’
पहली बात समझ में आती है कि जीवन ही अगर उपदेश है तो सरल है। न कोई योग करना है; न कोई शीर्षासन करने हैं; न कोई नौली-धोती करनी है; न कोई उलटा-सीधा जीवन को करना है। न कुछ त्यागना है, न कुछ छोड़ना है; जीना है। जहां हो, जैसे हो, उसे ही परमात्मा का आशीर्वाद मान कर चुपचाप जी लेना है। उसी आशीर्वाद के भाव से प्रार्थना का जन्म होगा। उसी आशीर्वाद के भाव में गहराई उतरेगी, अथाह का प्रारंभ होगा।
‘लेकिन न कोई उन्हें समझ सकता है...।’
क्योंकि तुम जिस बुद्धि से समझने की कोशिश करते हो वही तो नासमझी है।
इसलिए लाओत्से कहता है, समझने में आसान, लेकिन कोई उन्हें समझ नहीं सकता। क्योंकि समझने की कोशिश बुद्धि की है। और जीवन बुद्धि से ज्यादा गहरा है। जीवन को जी सकते हो, समझोगे कैसे? प्रेम में उतर सकते हो; प्रेम को समझोगे कैसे? सौंदर्य को पी सकते हो; समझोगे कैसे? क्या है सौंदर्य?
सौंदर्य पर हजारों शास्त्र लिखे गए हैं; अब तक कोई सौंदर्य की व्याख्या नहीं कर पाया कि क्या है सौंदर्य। जिन्होंने भी व्याख्याएं की हैं, वे सब हार गए, थक गए। और यह भी नहीं कह सकते कि सौंदर्य नहीं है, इसलिए व्याख्या किसकी करें! सौंदर्य तो है, सब तरफ है। सौंदर्य से भरा है अस्तित्व। तो यह तो कह ही नहीं सकते कि सौंदर्य नहीं है। लेकिन क्या है सौंदर्य? कैसे कहो? कैसे परिभाषा बनाओ? शब्द में कैसे समझाओ? सौंदर्य का शास्त्र नहीं बन पाता। सौंदर्य है भरपूर, और शास्त्र नहीं बन पाता।
तो लाओत्से कहता है, समझने में आसान, लेकिन न कोई उन्हें समझ सकता है और न कोई उन्हें साध सकता है। समझने की बात ही नहीं है। यही तो समझना है। बात जीने की है।
कबीर ने कहा है: लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात।
कोई लिखा-लिखी की होती, समझ लेते, पढ़ लेते। यह देखा-देखी बात! देखने की है। सौंदर्य देख सकते हो, समझ नहीं सकते। सौंदर्य को अनुभव कर सकते हो, समझ नहीं सकते। अनुभव संपूर्ण का होता है; समझ बुद्धि की होती है। समझ तो सिर्फ विचार की होती है, अनुभव तन-प्राण सबका होता है, इकट्ठे का होता है। रोआं-रोआं उसमें सम्मिलित होता है। जब फूल को तुम खिलते देखते हो और सौंदर्य की प्रतीति होती है, तो क्या प्रतीति खोपड़ी में ही होती है? रोएं-रोएं पर छा जाता है फूल। उसके खिलने में तुम भी कहीं भीतर खिल जाते हो। उसके साथ एक रास बन जाता है, एक रंग बन जाता है। आंख, कान, सब तरफ से प्रवेश कर जाता है। बुद्धि को भी उसका अंश मिलता है, पर अंश ही मिलता है। समग्र शरीर पर व्याप्त हो जाता है; समग्र आत्मा पर फैल जाता है।
समझ तो केवल बुद्धि की है, शब्दों की है; अनुभव जीवन का है।
इसलिए लाओत्से कहता है, समझने में आसान, लेकिन कोई समझ न पाएगा। और साधने में आसान, लेकिन कोई साध न सकेगा।
जीवन को कोई साध सकता है? जो मिला ही हुआ है उसे साधोगे कैसे? साधना तो उसे पड़ता है जिसे हम लेकर नहीं आते। सीखना तो उसे पड़ता है जो हमारा स्वभाव नहीं है। सीखने का अर्थ ही होता है पर-भाव।
एक बच्चा पैदा होता है। उसे हम जो-जो बातें सिखाते हैं वे उसके स्वभाव में नहीं हैं। अगर हम न सिखाते तो वे कभी अपने आप पैदा न होतीं। लेकिन कुछ बातें अपने आप पैदा हो जाती हैं। वह उसका स्वभाव है। बच्चा जवान होता है और प्रेम की आकांक्षा उठती है। बच्चा जवान होता है और प्रेम की पुकार उठती है। क्या तुम सोचते हो अगर एक बच्चे को ऐसा बड़ा किया जाए कि उसे पता ही न चले कि प्रेम जैसी कोई घटना होती है, कोई प्रेम का शास्त्र उसके पास न आने दिया जाए, वात्स्यायन की कोई खबर उसे न मिले, खजुराहो, कोणार्क के मंदिर देखने को न मिलें, किसी पुरुष को कभी किसी स्त्री के प्रेम में पड़े होने की खबर उसे न मिले..हम उसे ठेठ जंगल में पाल सकते हैं, छिपा कर रख सकते हैं..लेकिन एक घड़ी आएगी जब उसके भीतर प्रेम का उदय होगा। तब न वात्स्यायन की जरूरत होगी, न खजुराहो की जरूरत होगी। उसने शायद अपने जीवन में कोई स्त्री न भी देखी हो, तो भी उसके सपनों में स्त्री की छाया पड़ने लगेगी; उसे रूप भी स्त्री का पता न हो, पर रूप की प्यास उठने लगेगी। उसे कुछ भी कभी न समझाया गया हो कि क्या है प्रेम, क्या है काम, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह स्वभाव है। वह जागेगा।
पशुओं को, पक्षियों को, पौधों को कौन सिखा रहा है? कहां है विश्वविद्यालय जहां पशु-पक्षियों और पौधों को प्रेम सिखाया जा रहा है? स्वभाव से उठती है बात। और जीवन तुम्हारा स्वभाव है। साधना क्या है?
साधना उन चीजों को पड़ता है जो स्वभाव नहीं हैं। हां, इस बच्चे को भाषा नहीं आएगी, अगर न सिखाई गई। तो यह गणित नहीं सीख लेगा; यह तर्कशास्त्र नहीं सीख पाएगा, अगर न सिखाया गया। यह बच्चा सभ्य नहीं हो सकेगा, अगर न सिखाया गया। इसे सभ्यता का कोई पता न होगा।
ऐसा बहुत बार हुआ है कि कुछ बच्चों को भेड़ियों ने पाल लिया है। छोटे बच्चों को उठा ले गए। ऐसी तीन घटनाएं हैं; इस सदी में ही घटी हैं। अभी कुछ वर्ष पहले एक बच्चे को लखनऊ के पास पकड़ा गया जो भेड़ियों ने पाला था। वह भेड़ियों जैसा चलता था, आदमियों जैसा चलता भी नहीं था। दो पैर पर भी खड़ा नहीं होता था। शायद वह भी हम सिखाते हैं। बच्चा अपने आप अगर छोड़ दिया जाए तो शायद चारों हाथ-पैर से चलेगा, क्योंकि वही सुगम है। दो पैर पर खड़ा होना तो बड़ा हठयोग है बच्चे के लिए। धीरे-धीरे अभ्यास होने से खड़ा हो जाता है। कोई भाषा नहीं बोलता था, क्योंकि भाषा कैसे सीखता? लेकिन एक बात अनुभव की गई उस बच्चे में कि अगर वह अशांत होता और कोई प्रेमपूर्ण स्त्री उसके ऊपर हाथ फेर देती तो वह शांत हो जाता। वह जो स्त्री का स्पर्श, वह उसे शांत करता। उसे मां का स्पर्श बन जाता होगा। उसे कभी मां का स्पर्श याद भी नहीं। प्रेम की आकांक्षा उसमें भी थी। लेकिन और उसके पास कुछ भी न था। वह बिल्कुल जंगली जानवर था। मांस कच्चा खाता था। छह महीने लग गए उसे भोजन खिलाने में सिखाने में। छह महीने लग गए उसको किसी तरह खड़ा करने में। छह महीने में वह मर भी गया।
और मेरा अपना ख्याल है कि उसको सिखाने की यह जो चेष्टा की गई, इसमें वह मर गया। अन्यथा वह बड़ा स्वस्थ था जब आया था। क्योंकि उसके ऊपर यह भारी हो गया। बारह साल का बच्चा था, उसको यह सिखाना बहुत भारी हो गया। यह इतना ज्यादा तकलीफदेह हो गया कि वह मर गया। जैसे-जैसे सिखाया वैसे दुर्बल होता गया।
जीवन को सिखाने की जरूरत ही नहीं है। जीवन कोई सभ्यता थोड़े ही है। जीवन कोई शिक्षण थोड़े ही है। जीवन तो तुम हो। तो जीवन को जानने के लिए तो तुमने जो सीख लिया है उसको थोड़ा अनसीखा करना ही हितकर होता है, ताकि तुम थोड़े मुक्त हो सको बंधनों से, ताकि तुम थोड़े अपने चारों तरफ की दीवाल को तोड़ कर बाहर आ सको।
तो लाओत्से अगर कुछ भी कह रहा है तो वह यह कह रहा है कि तुमने जितना सीख लिया है वह जरूरत से ज्यादा है। कामचलाऊ को बचा लो, बाकी को छोड़ दो। या जो तुम बचाओ उसको भी बाहर-बाहर रखो, भीतर मत ले जाओ। उसे तुम्हारे प्राणों को आक्रांत मत करने दो। जीवन को सिखाना नहीं है। जीवन तुम हो।
इसलिए लाओत्से कहता है, न कोई उसे साध सकता है; समझने में आसान, और कोई समझ नहीं सकता।
और जब तक तुम समझने की कोशिश करोगे, तुम वंचित रहोगे समझने से। साधने में आसान; और कोई साध नहीं सकता। जीवन को साधने की कोशिश मत करना। जीवन को तुम्हारे साधने की कोई जरूरत नहीं है। जीवन लंगड़ा नहीं है कि उसे शिक्षा की बैसाखियां चाहिए हों। जीवन के पास अपने पंख हैं, अपने पैर हैं। तुम सिर्फ जीवन को खुला, मुक्त छोड़ देना। और तुम पाओगे कि जीवन चलने लगा अपने आप। जीवन के पास परमात्मा की ऊर्जा है। यह पूरा अस्तित्व उसे साथ दे रहा है। जीवन पंगु नहीं है। और न जीवन कमजोर है। जीवन के पास बड़ी ऊर्जा है। तुम सिर्फ एक मौका देना कि तुम बाधा मत डालना, और जीवन चलने लगेगा, दौड़ने लगेगा। और जीवन उड़ने भी लगेगा। कोई आकाश इतना बड़ा नहीं है जहां जीवन उड़ न सके। बड़े से बड़े आकाश को छोटा सा आंगन बना लेगा।
लेकिन साधने की कोशिश तुमने की कि चूक जाओगे; समझने की कोशिश की कि नासमझी पैदा होगी। इसलिए तो पंडितों से ज्यादा अज्ञानी और नासमझ खोजना मुश्किल है। साधने की कोशिश की कि तुम भटक जाओगे। क्योंकि तुम जो भी करोगे वह तुम करोगे, तुम्हारी बुद्धि करेगी, जो कि बहुत छोटी है, और उस पर करेगी जो बहुत बड़ा है। अंश अंशी को साधने लगे, खंड अखंड को साधने लगे। तो मुश्किल में पड़ जाएगा। एक ही साधना है कि तुम खंड का आग्रह छोड़ दो, तुम खंड को अखंड में डुबा दो, तुम बूंद को सागर में गिरा दो। फिर सागर ही सम्हाल लेगा। तुम यह मत पूछो कि फिर बूंद का क्या होगा, फिर बूंद कहां जाएगी, भटक तो न जाएगी। तुम बूंद को बचाओ मत। और सागर को सिखाने की कोशिश मत करो। और सागर को बांधने की चेष्टा मत करो; सागर को साधने की चेष्टा मत करो।
अगर लाओत्से को ठीक से समझो तो कोई साधना नहीं है। इसलिए लाओत्से ने किसी योग की विधियों की कोई बात नहीं की। न कोई पद्धतियां, न कोई मार्ग। साधना ही नहीं है। लाओत्से यह कह रहा है कि तुम्हें मिला है, उसे भोगो; तुम्हें मिला है, उसे जीओ।
तुम जीने में कृपणता कर रहे हो। तुम जीने तक में कंजूस हो। तुम श्वास तक डरे-डरे लेते हो। कोई आदमी पूरी श्वास नहीं लेता। फेफड़ों में, वैज्ञानिक कहते हैं, छह हजार छिद्र हैं। और स्वस्थ से स्वस्थ आदमी भी जो श्वास लेता है वह केवल दो हजार छिद्रों तक जाती है। चार हजार छिद्र तो बिना उपयोग के पड़े रहते हैं। तुम श्वास तक पूरी नहीं ले रहे, कैसे घबड़ाए हुए हो? और श्वास लेने में क्या तुम्हारा खो रहा है? लेकिन श्वास के साथ आता है जीवन; श्वास के साथ आती है ऊर्जा। और ऊर्जा का भय है।
छोटे बच्चे पूरी श्वास लेते हैं। कभी छोटे बच्चे को लेटा हुआ देखो जब वह सो रहा हो। तो उसकी छाती नहीं उठती, उसका पेट ऊपर उठता है। वह श्वास का पूरा ढंग है। क्योंकि तब श्वास पेट तक जा रही है, नाभि तक जा रही है, गहरे से गहरे छिद्रों तक फेफड़े में श्वास जा रही है। इसलिए छोटे बच्चे के जीवन में जो तरलता होती है वह तुम्हारे जीवन में खो जाती है। उसके जीवन में जो कोमलता होती है वह तुम्हारे जीवन में खो जाती है। छोटे बच्चे में जो ताजगी होती है वह तुम्हारे जीवन में खो जाती है।
फिर छोटा बच्चा क्यों ऐसी गहरी श्वास लेना बंद कर देता है?
तुम जरा बच्चों को ध्यान करो। अगर तुमने बच्चे को कभी डांटा, तत्क्षण तुम पाओगे, उसकी श्वास धीमी हो जाती है और गहरी नहीं जाती। वह घबरा गया। क्योंकि जब भी तुम डांटते हो तभी तुम यह कह रहे हो कि तुम गलत हो। और जीवन में जब भी कोई गलत चीज मालूम पड़ती है तो जीवन सिकुड़ता है। तुमने कहा, ऐसा मत करना! तो तुमने एक द्वार बंद कर दिया जीवन का। तुमने कहा, बाहर मत जाना! तुमने दूसरा द्वार बंद कर दिया। तुमने कहा, अंधेरे में निकलना मत! तुमने तीसरा द्वार बंद कर दिया। तुमने कहा, इतना शोरगुल मत करो! तुम द्वार बंद करते जा रहे हो। बच्चा श्वास कैसे ले? क्योंकि श्वास तो ऊर्जा पैदा करेगी। ऊर्जा पैदा होगी तो बच्चा दौड़ेगा, अंधेरे को भी जानना चाहेगा, समुद्र में भी उतरना चाहेगा, वृक्ष पर भी चढ़ना चाहेगा। इसलिए अब एक ही उपाय है कि बच्चा ऊर्जा पैदा न होने दे। कमजोर हो जाए, खुद ही पेड़ पर चढ़ने में डरने लगे, तो तुम्हें डराने की जरूरत न रहे। तुम्हारे नियमों के कारण बच्चा अपने को कमजोर कर लेता है।
अगर तुम्हारे नियम न हों तो हर बच्चा वृक्षों पर चढ़ेगा, हर बच्चा नदियों में तैरेगा, हर बच्चा पहाड़ की यात्रा पर जाएगा, और जीवन के सभी अभियान करेगा। अगर तुम्हारे निषेध-नियम न हों तो बच्चा वह सब जानना चाहेगा जो जीवन जानना चाहता है। जो उसका भीतर का जीवन कहेगा जानो, वह जानेगा। बुरे को भी जानेगा, क्योंकि वह भी जीवन का आयाम है; भले को भी जानेगा, क्योंकि वह भी जीवन का आयाम है। क्रोध भी करेगा, करुणा भी करेगा, हंसेगा भी, रोएगा भी। वह जीवन के सब आयाम को अनुभव करेगा। और तब तुम पाओगे, उसकी श्वास पूरे छह हजार छिद्रों तक जाती है। तब उसके पास एक जीवन होगा जो ऊपर से बह रहा है; भरा-पूरा जीवन होगा।
लेकिन सभ्यता ने बहुत विषाक्त कर दिया है। इधर जो लोग भी गहन ध्यान में उतरना शुरू होते हैं, और विशेषकर सक्रिय ध्यान में, जिसमें श्वास का बड़ा प्रयोग है, वे मेरे पास आना शुरू हो जाते हैं। वे कहते हैं कि बड़ी अजीब-अजीब बातें श्वास की चोट से उठनी शुरू हो रही हैं! कि कभी इतना क्रोध अनुभव नहीं किया था; क्रोध अनुभव हो रहा है! और कोई कारण नहीं है। और कभी इतनी उदासी नहीं थी; उदासी अनुभव हो रही है! और कोई कारण नहीं है। वे दबी हुई, जो श्वास कम लेकर जिनको दबा दिया था, वे सब वृत्तियां वापस उठनी शुरू हो जाती हैं। डायाफ्राम के पास तुम्हारे सब दबे हुए मनोवेग पड़े हैं। उन पर जैसे ही चोट लगती है वे सब जगने शुरू हो जाते हैं। घबराहट होती है कि कहीं पागल तो न हो जाएंगे!
हद्द आश्चर्य है कि जीवन को सिकोड़ कर तुम स्वस्थ बने हो, और जीवन को फैलाते ही पागल होने का डर पैदा होता है। तुम्हें इतना डरा दिया गया है। तुम्हें समझाया ही यह गया है कि तुम मरे-मरे जीना। क्योंकि तुम अगर प्रगाढ़ता से जीओगे तो बुराई भी आएगी। और तुम्हें संस्कृत होना है, सभ्य होना है, सज्जन होना है, साधु बनना है। असाधु को काट कर तुम्हारा आधा जीवन काट दिया गया है। अगर परमात्मा भी असाधुता को काट दे संसार से तो परमात्मा भी तुम जैसा ही रुग्ण, खोजता फिरेगा किसी गुरु को कि जीवन को कैसे सीखें? कि जीवन को कैसे साधें?
जीवन में बुराई भलाई का अनिवार्य अंग है, अंधेरा प्रकाश के साथ-साथ है, मृत्यु जीवन का अंग है।
लाओत्से कहता है, न तो तुम साध सकोगे, न तुम समझ सकोगे, यद्यपि बात समझने में आसान है और साधने में भी।
‘क्योंकि मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।’
वह क्या है सिद्धांत लाओत्से का? उसका मूल आधार क्या है?
उसका मूल आधार है: जीवन को तुम बेशर्त स्वीकार करो। बेशर्त शब्द स्मरण रखो। जीवन पर कोई शर्त मत लगाओ। क्योंकि तुम्हारी सब शर्तें जीवन को काटेंगी। जीवन को निषेध मत दो। जीवन को विधेय बनाओ। द्वार बंद मत करो; सब बंद द्वार खोल दो। जीवन अपने आप में परिपूर्ण है, तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है। तुम उसमें सुधार करना बंद करो। सुधार करने से ही तुमने उसमें बिगाड़ कर दिया है। सुधार-सुधार कर ही तुमने जहर डाल दिया है।
लाओत्से का मूल सिद्धांत है: जीवन को बेशर्त स्वीकार करो। डरो मत; कुछ भी खोने को नहीं है। डरोगे तो भी मरोगे; तो भी सब खो जाएगा जो तुम्हारे पास है। जी लो अभय से, परिपूर्ण अभय से।
लेकिन तुम्हारे भीतर, जब मैं यह कह रहा हूं तब भी मैं जानता हूं, बेचैनी आ गई होगी..अभय से जी लो! फिर पाप का क्या होगा? अभय से जी लो! फिर बुराई का क्या होगा? अभय से जी लो! फिर नियम, शास्त्र, समाज, सभ्यता, संस्कृति, इसका क्या होगा? और बड़े आश्चर्य की तो बात यह है कि अगर तुम अभय से जीओ तो पाप धीरे-धीरे परमात्मा में लीन हो जाता है। निषेध तुम करो ही मत तो निषेध करने को कुछ बचता ही नहीं; सभी विधेय हो जाता है। तुम अचानक पाते हो कि जगत एक संगीतपूर्ण लयबद्धता है जिसमें बुराई का भी अपना स्थान है, जिसमें बुराई वर्जित नहीं है; वरन भलाई में स्वाद डालती है। बुराई नमक है जिसके बिना भलाई बेस्वाद हो जाती है।
तुम थोड़ा सोचो। एक आदमी जो क्रोध कर ही न सकता हो उसकी करुणा में कितनी गहराई होगी? छिछली होगी, उथली होगी; उसकी करुणा नपुंसक होगी, उसमें बल न होगा। जो आदमी क्रोध कर सकता हो, जिसने क्रोध पर कोई निषेध न लगाया हो, बल्कि जिसने क्रोध को जीया हो..और जीकर ही क्रोध करुणा बन गया हो, जितना क्रोध को जाना हो उतनी करुणा उपजने लगी हो, जितना अपने भीतर की हिंसा को पहचाना हो उतनी ही भीतर की अहिंसा जगने लगी हो..उसकी करुणा में एक गहराई होगी, अतल गहराई होगी। वह गहराई क्रोध के कारण आ रही है। जिस आदमी ने कामवासना जानी ही नहीं, उसके ब्रह्मचर्य में क्या होगा? उसके ब्रह्मचर्य को तुम नपुंसकता से ज्यादा और क्या नाम दे सकोगे? और नपुंसक ब्रह्मचर्य कोई ब्रह्मचर्य है! लेकिन जिसने वासना का उभार जाना, जिसने वासना का ज्वार जाना, जिसने वासना को जीया, उसके अनंत-अनंत रूपों में पहचाना; उस पहचान, उस स्वाद, उस अनुभव से ब्रह्मचर्य का जन्म होगा। तो ब्रह्मचर्य एक शिखर होगा..जो घाटियों को पार कर गया, जिसने अंधेरी घाटियां छोड़ दीं, जो अंधेरी घाटियों के ऊपर उठ गया। उस ब्रह्मचर्य का रस और, रहस्य और, ऊर्जा और।
जीवन में कुछ भी बुरा नहीं है। क्योंकि सभी बुराइयां अंततः भली हो जाती हैं। जो बेशर्त जीता है उसे शुरू में तो कठिनाई होगी। क्योंकि चारों तरफ समाज है; चारों तरफ निषेध लिए हुए लोग हैं। चारों तरफ अदालतें, नरक, स्वर्ग, सब खड़े हैं; पंडित, पुजारी, पुरोहित..सब मुर्दा..लेकिन तुम्हें भी मुर्दा बनाने को उत्सुक। स्वाभाविक है यह, क्योंकि जो खुद भी नहीं जी रहा है वह दूसरे को जीने न देगा। जो खुद जीने से वंचित रह गया है उसकी ईष्र्या भयंकर होती है। तुम्हारे साधु-संन्यासी तुम्हें जीने न देंगे। क्योंकि वे मर रहे हैं। उन्होंने अपने को काट डाला है। उन्होंने अपनी जड़ें तोड़ ली हैं। वे चाहेंगे कि तुम भी अपनी जड़ें तोड़ लो। उनकी ईष्र्या भयंकर है। और उनकी ईष्र्या धर्म के आवरण में छिपी है, इसलिए तुम पहचान भी न सकोगे। उनकी ईष्र्या निंदा बन गई है। उनकी ईष्र्या ने तुम्हारे लिए नरकों का इंतजाम किया है।
जो व्यक्ति भी जी नहीं पा रहा है ठीक से वह दूसरे को भी जीने नहीं देगा। तुम मुस्कुराओगे तो उसे पीड़ा होगी। वह तुम्हारी मुस्कुराहट पर भी जहर डाल देगा और कहेगा कि यह पाप है। तुम नाचोगे तो उसे पीड़ा होगी, क्योंकि वह लंगड़ा है। उसके हाथ-पैर उसने खुद ही काट डाले हैं। वह तुम्हारे उत्सव को मिटा डालना चाहेगा। वह सारे जगत को उदासी और मरघट से भर देना चाहेगा।
लेकिन जिस व्यक्ति ने जीवन को बेशर्त जीया है वह दूसरों को भी मुक्त करेगा। और उसे ही मैं सदगुरु कहता हूं जिसने जीवन को जीया है; और जो तुम्हारे प्रति ईष्र्या से नहीं भरा है, क्योंकि भरने का कोई कारण ही नहीं है। जो तुम्हारे प्रति करुणा से भरा है। जिसने जीवन को जीया है वह तुम्हें भी जीवन को जीने में सहारा देगा। वह तुम्हें काटेगा नहीं, जोड़ेगा। वह तुम्हारी पंगुता को मिटाएगा, तुम्हारे पक्षाघात को पिघलाएगा। वह तुम्हें फिर से जीवन देना चाहेगा। जिसने महाजीवन को जाना है वही केवल तुम्हें जीवन देने को उत्सुक हो सकता है।
लेकिन जो खुद अपने को मार रहे हैं, आत्मघाती हैं, वे तुम्हें भी मार डालना चाहेंगे। और उनका जाल बड़ा है, और उनका जाल बड़ा पुराना है। और उनके जाल के बाहर आना बड़ा ही मुश्किल है।
इसलिए लाओत्से कहता है, उपदेश सुनने में मेरे आसान, साधने में भी। लेकिन तुम सुन न सकोगे; समझ भी न सकोगे; साध भी न सकोगे। क्योंकि चारों तरफ जो जाल है वह उसके विपरीत है; जीवन के विरोध में खड़ा है सारा जाल। इसलिए तुम्हें अपने जीवन की हिम्मत खुद ही जुटानी पड़ेगी। साहस, पहले कदम पर बड़े साहस की जरूरत है..कि जो होगा होगा। और जो जीवन जाना ही है वह ठीक है। निंदा होगी, होगी। तुम निंदा को सह लेना, लेकिन जीवन को मत काटना। सारी दुनिया तुम्हें पापी कहे तो तुम सुन लेना, लेकिन तुम जीवन को काटने का पाप मत करना। तुम एक दिन परमात्मा तक पहुंच जाओगे। जीवन को जिसने काटा वह परमात्मा तक कभी भी नहीं पहुंच सकता है।
‘मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।’
वह सिद्धांत है बेशर्त जीवन का स्वीकार। कोई छोटी-छोटी बात मत लगाना कि लोग क्या कहेंगे। तुम लोगों के कहने के लिए यहां नहीं हो। और तुम कुछ भी करो, लोग कभी तुम्हारे संबंध में भला कहते हैं क्या?
बड़ी पुरानी कथा है कि शिव पार्वती को लेकर एक पूर्णिमा की रात घूमने निकले हैं। और शिव तो जीवन के प्रतीक हैं; जीवन का महाभोग, बेशर्त भोग, उसके ही प्रतीक हैं। दोनों चल रहे हैं। साथ में नंदी चल रहा है। कुछ लोग मिले राह पर। उन्होंने कहा, ये मूर्ख देखो दोनों! जब नंदी साथ है तो पैदल क्यों चल रहे हैं?
अब उनका कुछ लेना-देना नहीं, न नंदी से, न शिव से, न पार्वती से। लेकिन लोग कुछ तो कहेंगे। लोग बिना निर्णय लिए नहीं रह सकते।
तो शिव ने कहा, ठीक। तो शिव नंदी पर बैठ गए। पार्वती चलने लगी। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, यह देखो मूरख आदमी! खुद चढ़ा है नंदी पर और पत्नी को पैदल चला रहा है। हद हो गई असभ्यता की। तो शिव नीचे उतर आए; पार्वती को नंदी पर चढ़ा दिया। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, यह देखो औरत निर्लज्ज! पति पैदल चल रहा है, पत्नी नंदी पर चढ़ी है। ऐसा न कभी सुना न देखा। तो शिव ने कहा, अब क्या करें? दोनों नंदी पर चढ़ गए। फिर कुछ लोग मिले। उन्होंने कहा, हद हो गई। नंदी की जान ले लोगे? दो-दो चढ़े हैं। नंदी का भी तो कुछ सोचो। तो शिव ने कहा, अब क्या करें? अब तो एक ही उपाय है। और वे लोग जो यह कह रहे थे कि कुछ तो सोचो, इससे तो अच्छा हो कि तुम दोनों नंदी को अपने सिर पर रख लो बजाय दो-दो उसके ऊपर चढ़ो। तो शिव ने कहा, चलो अब यही करें। तो उन्होंने नंदी को बांधा। बामुश्किल तो नंदी को बांध पाए। दोनों ने कंधे पर रखा। नंदी तड़फ रहा है। फिर वे एक नदी के पुल पर आए। वहां बड़ी भीड़ थी और लोग कहने लगे, हद हो गई मूर्खता की! बहुत मूर्ख देखे भई, ये महामूर्ख हैं। नंदी पर चढ़ने के लिए है कि उसको कंधे पर ढोने के लिए? अब बड़ी मुश्किल थी। अब कोई विकल्प ही न छूटा था। और तभी नंदी तड़फड़ाया जोर से और पुल से नीचे गिरा। शिव ने पार्वती को कहा कि देख ले, कुछ भी करो, लोग तो निंदा करेंगे ही।
क्योंकि यह सवाल नहीं है कि तुम कुछ करते हो, इसलिए वे निंदा करते हैं। वे निंदा करना चाहते हैं, इसलिए कोई भी बहाना खोज लेते हैं। निंदा करेंगे ही। क्योंकि निंदा में ही उनके अहंकार की तृप्ति है। तुम्हारा करना तो सिर्फ बहाना है उनके लिए। तुम कुछ भी करो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर हालत में निंदा पाओगे।
लोगों की फिक्र छोड़ दो। समझदार उनकी फिक्र नहीं करता। वे क्या कहते हैं, वह उनकी वे जानें। वे कहते हैं, खुद सुनें। समझदार उनकी चिंता नहीं करता। समझदार तो अपने जीवन को ऐसे जीता है जैसे वह अकेला है, यहां कोई दूसरा है ही नहीं। तुम ऐसे ही जीयो कि तुम जैसे अकेले हो; तभी तुम्हारे जीवन में वह सूत्र आ जाएगा जिसको लाओत्से कहता है मेरा सिद्धांत। बेशर्त जीओ। कुछ खोने को नहीं है, और पाने को सब कुछ है, अगर बेशर्त जीए।
लाओत्से कहता है, ‘मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है, और मनुष्यों के कारबार में एक व्यवस्था है।’
क्या है व्यवस्था मनुष्य के कारबार में जो मनुष्य को दिखाई नहीं पड़ती? वह व्यवस्था यह है कि जीवन का सारा कारबार विरोधियों के मिलन से निर्मित है। और मन विरोधियों के मिलन को बरदाश्त नहीं कर पाता। यहां जीवन और मृत्यु दोनों साथ-साथ हैं, और मन दोनों को साथ-साथ समझ भी नहीं पाता, सोच भी नहीं पाता, विपरीत कैसे साथ हो सकते हैं? मन कहता है, विपरीत साथ नहीं हो सकते; विपरीत विपरीत हैं। और लाओत्से कहता है कि सारे कारबार में एक व्यवस्था है। विपरीत विपरीत हैं ही नहीं, सहयोगी हैं, कांप्लीमेंटरी हैं।
ये दो बातें अगर ख्याल में रह जाएं कि जीवन को बेशर्त जीओ, और विपरीत को विपरीत मत मानो, सहयोगी मानो, तो तुम मुक्त हो जाओगे। अगर तुमने विपरीत को विपरीत माना तो तुम चुनाव करोगे। तब तुम असाधु के खिलाफ साधु बनोगे। तब तुम आधे रहोगे। और आधा जीवन कोई जीवन है? असाधु कहां जाएगा तुम्हारा फिर? वह बोझ की तरह तुम्हारे ऊपर लटका रहेगा। काट थोड़े ही सकते हो! क्योंकि जीवन की व्यवस्था यह है कि तुम साधु असाधु दोनों हो; जैसे बाएं और दाएं पैर की जरूरत है चलने के लिए।
अब कहीं कोई अगर धर्म पैदा हो जाए जो कहे कि बायां पैर बुरा और दायां पैर अच्छा..और ऐसे लोग हैं, बाएं हाथ को बुरा मानते हैं; दायां अच्छा और बायां बुरा..तो तुम बाएं पैर का करोगे क्या? बाएं के बिना चलोगे कैसे? अगर बाएं को काट डाला तो चल न पाओगे। और अगर बाएं को बांध दिया तो घिसटोगे।
तुमने बच्चों का खेल देखा है, लंगड़ी दौड़। वही तुम्हारा पूरा जीवन। उसमें दो बच्चे एक-एक टांग बांध लेते हैं। तो तीन टांगें हो जाती हैं चार की जगह। और फिर वे दौड़ते हैं। तुम्हारा जीवन एक लंगड़ी दौड़ है जिसमें तुमने एक टांग को समाज की टांग से बांध लिया है, और फिर दौड़ने की कोशिश कर रहे हो। सभ्यता की टांग से बांध लिया है, फिर दौड़ने की कोशिश कर रहे हो। कहीं नहीं पहुंचते। जहां थे वहीं मरते हो। जहां पाया था अपने को जन्म के क्षण, वहीं तुम पाओगे मरते वक्त। रत्ती भर यात्रा नहीं हुई। पैर तुम्हारे मुक्त ही नहीं हैं।
विपरीत सहयोगी हैं। इसलिए लाओत्से साधु का पक्षपाती नहीं है। मैं भी नहीं हूं। और संत हम उस आदमी को कहते हैं जिसने अपनी साधुता और असाधुता में संगीत खोज लिया, जिसने असाधुता का भी उपयोग कर लिया, जिसने बुराई को काट कर न फेंका। वह कोई बहुत कुशल कारीगर नहीं है जो चीजों को फेंक दे। कुशल कारीगर तो वही है कि हर चीज का उपयोग कर ले। और चीजों का मूल्य चीजों पर नहीं होता, उनके उपयोग पर होता है। कैसे तुम उन्हें जमाते हो, इस पर निर्भर करता है। पूर्ण के भीतर कोई खंड किस भांति जमाया गया है, इस पर निर्भर करता है।
संगीत शोरगुल है, लेकिन कुशल कलाकार उस शोरगुल को ऐसा जमाता है कि तुम्हारा हृदय नाच उठता है। संगीत है तो शोरगुल। एक बंदर को पकड़ा दो सितार; वह भी बजाएगा, लेकिन तुम्हें पागल कर देगा..अगर बजाता रहा। सितार वही है, लेकिन उसी को कोई कुशल संगीतज्ञ छूता है, स्वरों के बीच जो वैपरीत्य है, विरोध है, वह खो जाता है, स्वर एक संगीत में बंध जाते हैं, और सभी स्वरों के मेल से एक चीज पैदा होती है जो स्वरों के पार है। संगीत स्वरों का जोड़ नहीं है, स्वरों के जोड़ से कुछ ज्यादा है। वह जो कुछ ज्यादा है वही तो कुशल संगीतज्ञ की कला है।
सौंदर्य फूल के अंगों का जोड़ नहीं है, उससे कुछ ज्यादा है। इसीलिए तो उसकी व्याख्या नहीं हो पाती। प्रेम दो प्रेमियों का मिलन नहीं है; किसी तीसरे का अवतरण है। दो तो केवल मौजूदगी हैं; उन दो के बीच में तीसरा उतर आता है। इसीलिए तो प्रेम अव्याख्य है। और इसीलिए तो प्रेम परमात्मा जैसा है, और प्रेम प्रार्थना बन जाता है। इसलिए प्रेम को कोई समझा न सकेगा। तुम प्रेमियों को समझा सकते हो, प्रेमी की व्याख्या हो सकती है, उसका सब पता-ठिकाना बता सकते हो। लेकिन प्रेम का कोई पता-ठिकाना है? जब दो व्यक्ति विरोध की तरह पास नहीं आते, सहयोग की तरह पास आते हैं, जब दो व्यक्ति एक-दूसरे के साथ बिल्कुल लीन होने को पास आते हैं, तब प्रेम का अवतरण हो जाता है। वे भूमि बन जाते हैं, प्रेम अवतरित हो जाता है।
जीवन में बुराई और भलाई है, पाप और पुण्य है, अंधेरा और प्रकाश है, मृत्यु और जीवन है। इन दोनों के बीच जब कोई संबंध खोज लेता है, संगीत, तब संतत्व का जन्म होता है। संतत्व की व्याख्या नहीं हो सकती। साधु की व्याख्या हो सकती है, असाधु की व्याख्या हो सकती है। साधु का तुम सम्मान करोगे, असाधु की निंदा करोगे। संत को तुम पहचान भी न पाओगे। वह अव्याख्य है। और संत के विपरीत तुम्हारे असाधु भी होंगे और तुम्हारे साधु भी होंगे। क्योंकि न तो असाधु उसे आत्मसात कर पाएंगे, क्योंकि साधु उसके भीतर छिपा है; न साधु उसे आत्मसात कर पाएंगे, क्योंकि असाधु को भी उसने आत्मलीन कर लिया है।
इसलिए जब बुद्ध पैदा होते हैं, या क्राइस्ट पैदा होते हैं, तो तुम हैरान होओगे कि बुरे आदमी तो उनके विपरीत थे ही, भले आदमी भी उनके विपरीत थे। वह बड़ा चमत्कार मालूम पड़ता है। लेकिन कुछ चमत्कार नहीं, बात सीधी-साफ है। गणित साफ-सुथरा है। जीसस को बुरे आदमियों ने सूली नहीं दी; भले आदमियों ने सूली दी। बुरे आदमी तो विपरीत थे ही। उन्होंने फिक्र ही न की, कि यह आदमी का कुछ खास मतलब ही नहीं है। लेकिन भले आदमियों ने सूली दी। वे बरदाश्त न कर सके। क्योंकि जीसस एक संगीत हैं, जो भले और बुरे के पार उठ गया; जहां बुराई ने अपनी बुराई खो दी, भलाई ने अपनी भलाई खो दी; जहां दोनों एक हो गए, और एक अनूठी घटना, जिसकी व्याख्या करनी मुश्किल है।
‘क्योंकि वे इन्हें नहीं जानते..मेरे एक सिद्धांत को और मनुष्यों के जीवन की विपरीत के बीच संगीत की व्यवस्था को..वे मुझे भी नहीं जानते हैं।’
क्योंकि जो जीवन को ही नहीं जानते, वे लाओत्से को कैसे जान पाएंगे? लाओत्से यानी जीवन का शुद्धतम रूप, लाओत्से यानी जिंदगी का सारभूत रूप, जरा भी जिसे गढ़ा नहीं गया, अनगढ़ पत्थर; जिस पर जरा भी सामाजिक शिष्टाचार, सभ्यता, संस्कृति की छाप नहीं डाली गई; अनगढ़ पत्थर, किसी पहाड़ी नदी में लुड़कता राज हो, किसी आदमी के हाथ ने जिसे छुआ नहीं; जिस पर मनुष्य की कोई छाप नहीं है। हां, प्रकृति की काई कितनी ही जमी हो, और बहते हुए नदियों और पहाड़ों में कितने ही रूप और रंग जिसने लिए हों, लेकिन मनुष्य की जिस पर कोई छाप नहीं, ऐसा अनगढ़ पत्थर। उसे तुम कैसे पहचान सकोगे?
‘वे मुझे भी नहीं जानते हैं। चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं...।’
यह वचन बड़ा अनूठा है।
‘...इसलिए मैं विशिष्ट हूं।’
साधारणतः हम उस आदमी को विशिष्ट कहते हैं जिसे बहुत लोग जानते हैं। जिसे सारी दुनिया जानती है वह विशिष्ट। लाओत्से बड़े मजे की बात कह रहा है।
वह कह रहा है, ‘चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, इसलिए मैं विशिष्ट हूं।’
कनफ्यूशियस को बहुत लोग जानते थे लाओत्से के समय में; लाओत्से को कोई नहीं जानता था। कनफ्यूशियस आदर्श पुरुष था..पुरुषोत्तम, नीति-निष्ठ, आचारवान। उसकी साधुता में जरा भी कमी न थी। तुम कनफ्यूशियस में इंच भर भूल न खोज सकते थे। वह पूर्ण महात्मा था। उसे लोग जानते थे। साधु उसे श्रेष्ठ साधु मानते थे, आदर्श, जैसा उन्हें होना है। असाधु भी उससे ईष्र्या करते थे, जैसे घाटियां ईष्र्या करती हों पहाड़ों से, अंधेरी रात ईष्र्या करती हो दिन से। असाधु भी सपने में सोचते थे कि कभी कनफ्यूशियस जैसे हो जाएं। और साधु भी सोचते थे कि कभी यह आदर्श पूरा होगा चलते-चलते। शिखर था कनफ्यूशियस चीन में। लाओत्से को कोई भी नहीं जानता था। क्योंकि लाओत्से को पहचानना मुश्किल। कनफ्यूशियस था किसी के आंगन में लगे हुए साफ-सुथरे बगीचे की भांति, जहां हर चीज कटी है, साफ-सुथरी है, जहां माली के हाथ के स्पष्ट चिह्न हैं, जहां तुम भूल नहीं खोज सकते, जहां उद्यान के सब नियमों का पालन किया गया है। और लाओत्से था किसी पहाड़ी जंगल की भांति, जहां कोई नियम नहीं है, जहां कोई व्यवस्था नहीं मालूम होती। या कोई ऐसी व्यवस्था है जो अदृश्य है और दिखाई नहीं पड़ती।
है तो जंगल की भी व्यवस्था, क्योंकि जंगल भी जीता है। और क्या तुम्हारे बगीचे जीएंगे जंगल के सामने..कमजोर, दीन-हीन! लेकिन जंगल में सब समाविष्ट है। सूखे पत्ते भी गिरे हैं, वे भी समाविष्ट हैं। सूखी डालें भी पड़ी हैं, वे भी समाविष्ट हैं, इरछे-तिरछे वृक्ष हैं, वे भी समाविष्ट हैं। जंगल के भीतर प्राण तो महान है, लेकिन रूप पर कोई काट-छांट नहीं की गई है। जंगल वैसा ही है जैसा परमात्मा ने चाहा है। जंगल में भय लगेगा; बगीचे में तुम विश्राम कर सकते हो निश्चिंत होकर।
और जंगल में सौंदर्य देखना हो तो तुम्हारे भीतर भी जंगली आत्मा चाहिए। नहीं तो तुम्हें सौंदर्य दिखाई न पड़ेगा। बगीचे का सौंदर्य तो कोई भी देख लेगा; उसके लिए किसी विराट जंगल जैसी आत्मा की जरूरत नहीं है। वह तो दुकान और बाजार में बैठा आदमी भी बगीचे के सौंदर्य को पहचान लेता है। क्योंकि वह आदमी का ही बनाया हुआ है और आदमी की समझ में आता है। जंगल परमात्मा का बनाया हुआ है और परमात्मा जैसे तुम न हो जाओ तो समझ में नहीं आता। अराजकता दिखाई पड़ती है ऊपर से और भीतर बड़ा संगीत छिपा है। ऊपर सब अस्तव्यस्त मालूम होता है और सारी अस्तव्यस्तता में एक व्यवस्था छिपी है।
तो लाओत्से को तो लोग नहीं समझ पाए। कोई जानता भी न था। अभी भी शक है कि लाओत्से कभी हुआ कि नहीं। अभी भी इतिहासज्ञ मानने को राजी नहीं हैं कि यह आदमी कभी हुआ। यह तो मालूम होता है कि एक मिथ, एक पुराण है। कहीं ऐसे आदमी होते हैं? कहीं कोई जीवित आदमी इस तरह की बातें कहता है? उनको भरोसा नहीं आता। कब पैदा हुआ? किस घर में पैदा हुआ? कोई हिसाब-किताब भी नहीं है उसका। आदमी ही हिसाब-किताब का न था। कनफ्यूशियस के संबंध में सब साफ-सुथरा है।
या ज्यादा उचित होगा कोई निकट का उदाहरण जो तुम्हें समझ में आ जाए। महात्मा गांधी ठीक कनफ्यूशियस जैसे आदमी हैं..साफ-सुथरे, गणित बिल्कुल चैकस, रत्ती भर भूल तुम न खोज सकोगे। महात्मा हैं, आदर्श व्यक्ति हैं; चैबीस घंटे हिसाब रखते हैं नियम से जीने का। और एक आदमी था इस मुल्क में उसी समय, अरुणाचल के पहाड़ पर बैठा हुआ, रमण। कोई हिसाब-किताब नहीं है, न कोई नियम-व्यवस्था है। दुनिया में बहुत कम लोग रमण को जान पाए। गांधी को न जानने वाला आदमी खोजना मुश्किल है; रमण को जानने वाला आदमी खोजना मुश्किल है। गांधी इतिहास-पुरुष होंगे, रमण भूल जाएंगे। संदेह उठना शुरू होगा किसी न किसी दिन कि यह आदमी हुआ कि नहीं हुआ। क्योंकि इस आदमी ने ऐसा कुछ भी तो नहीं किया है जिसका चिह्न घटनाओं पर छूट जाए। गांधी को तो मानना ही पड़ेगा। भारत की आजादी है; अछूतों का उद्धार है। हजार कृत्य हैं एक आदमी के पास; हजार कृत्यों पर इसके हस्ताक्षर हैं। घटनाओं की दुनिया में इसकी बड़ी पकड़ थी। अखबार पर इसकी छाप थी। जहां भी कुछ घट रहा था वहां यह आदमी मौजूद था। यह आदमी जहां मौजूद था वहां चीजें घटना शुरू हो जाती थीं। घटनाक्रम में इस आदमी की गति थी। वहां रमण थे, वे लाओत्से जैसे; कुछ भी कर नहीं रहे थे। कुछ किया ही नहीं तो इतिहास क्या बनेगा? अब न करने का कोई इतिहास तो होता नहीं। दुनिया में कोई ऐसी बड़ी क्रांति नहीं करी कि जिसको लिखा जाए। करोड़ों-करोड़ों लोगों का जीवन नहीं बदल डाला; उनके जीवन की व्यवस्था नहीं बदल डाली। कौन फिक्र करेगा?
एक इटालियन विचारक लेंजा देलवास्तो रमण के आश्रम गया। तीन दिन रहा, और उसने कहा कि यह आदमी अपने काम का नहीं। फिर गांधी के आश्रम आया, और उसने कहा कि यह आदमी है। यह रमण भी कोई आदमी है? खाली बैठा है। कुछ सेवा करो! दुनिया में इतना कष्ट है, कष्ट को मिटाओ! इतने बीमार हैं! इतनी पीड़ा है! यह किस तरह का अध्यात्म कि तुम खाली बैठे हो। इस अध्यात्म को पहचानना बहुत मुश्किल है। और यही एक मात्र अध्यात्म है। लेंजा देलवास्तो गांधी से जाकर दीक्षित हुआ; रमण को छोड़ आया और गांधी से दीक्षित हुआ। लोगों के दुर्भाग्य का कोई हिसाब नहीं है। गांधी ने नाम दिया शांतिदास। लेंजा देलवास्तो शांतिदास हो गए, लेकिन जहां शांति थी वहां से चूक गया। गांधी के पास तो भयंकर अशांति थी।
लेकिन गांधी को करोड़ों लोग जानेंगे। रमण को कौन जानेगा? रमण को वे थोड़े से लोग जानेंगे जो गहन शांति में प्रवेश करेंगे, जो अस्तित्व को अनुभव करेंगे। वे रमण को जानेंगे। और तभी वे जान पाएंगे कि अक्रिया की भी एक क्रिया है। और अक्रिया की विराट ऊर्जा है। वह ऊपर से चोट नहीं करती, कहीं भीतर से काम करती है; प्रत्यक्ष आक्रमण नहीं करती, परोक्ष से प्रवेश करती है। लेकिन वह अदृश्य का खेल है। दृश्य के जगत में तो गांधी का मूल्य होगा। अदृश्य! लेकिन अदृश्य को कितने लोग जानते हैं? सूक्ष्म को कितने लोग जानते हैं? गांधी सतह पर हैं, जहां सारी दुनिया खड़ी है। रमण गहराई में हैं, जहां कोई गोताखोर ही पहुंच पाएगा।
इसलिए लाओत्से कहता है, ‘चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, मैं विशिष्ट हूं।’
विशिष्ट को बहुत लोग जान ही कैसे सकते हैं? क्योंकि लोग तो उसी को जान सकते हैं जो उन जैसा हो, जो उनकी भाषा में आता हो। लोग तो उसी को जान सकते हैं जिनसे उनका कोई संबंध बनता हो।
गांधी से संबंध बनता है। पीड़ा है, और गांधी कोढ़ी का पैर दाब रहे हैं। संबंध बनता है। गुलामी है, और गांधी गुलामी को तोड़ रहे हैं; जीवन को दांव पर लगा रहे हैं। संबंध बनता है। गांधी में ऐसा कुछ भी तो नहीं है जो तुम्हारे लिए बेबूझ हो। सब तो साफ-साफ है; गणित सीधा है। तुम्हारी भाषा में और गांधी की भाषा में कहीं रत्ती भर भी तो फर्क नहीं है। भला तुम गांधी न होओ, लेकिन होना तो तुम भी गांधी ही चाहते हो। आदर्श तो वही है। वे हो गए हैं; तुम कल हो जाओगे। तुम कोशिश करोगे; वे मंजिल पर पहुंच गए हैं, तुम रास्ते पर हो। लेकिन रास्ता एक ही है। वे दस कदम आगे होंगे; तुम दस कदम पीछे हो। या दस मील आगे होंगे; तुम दस मील पीछे हो। लेकिन तुम में और गांधी में एक तारतम्य है; भेद नहीं है। गांधी बिल्कुल समझ में आते हैं; रमण बिल्कुल समझ में नहीं आते। क्योंकि वे उस रास्ते पर ही नहीं मालूम पड़ते जिस पर तुम हो। वे चलते ही नहीं मालूम पड़ते, रास्ते की तो बात दूर। वे बैठे मालूम पड़ते हैं।
लाओत्से और तुममें बड़ा फर्क है। भाषा ही नहीं मिलती; दोनों के बीच कोई कम्युनिकेशन का, संवाद का साधन नहीं जुड़ता। दोनों जैसे बिल्कुल अपरिचित, अजनबी हैं; दो अलग-अलग लोकों के वासी हैं। कैसे तुम जान पाओगे? कैसे तुम पहचानोगे? तुम लाओत्से के पास से गुजर जाओगे, लेकिन तुम्हें महात्मा दिखाई न पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारे महात्मा सतह पर हैं। तुम्हारे महात्मा तुम्हारी भाषा में आते हैं। तुम्हारे साग-सब्जी तौलने के बटखरों से तुम्हारे महात्मा भी तुल जाते हैं। तुम्हारे फुट-इंचों से तुम्हारे महात्मा भी नप जाते हैं। फुट-इंच तुम्हारे हैं; नाप तुम्हारा है। और तुम्हारे महात्मा भी बहुत बड़े नहीं हो सकते जो तुम्हारे फुट-इंच से नप जाते हैं। लेकिन तुम कैसे नापोगे लाओत्से को? थाह नहीं है। फुट-इंचों का काम नहीं है। तुम कैसे नापोगे लाओत्से को? तुम्हारे बटखरे बड़े छोटे हैं। उनसे कोई तालमेल ही नहीं उठता; उनसे कोई संबंध ही नहीं जुड़ता।
और इसलिए तुम चूक जाओगे। लाओत्से के पास से गुजरोगे, लाओत्से दिखाई न पड़ेगा। और ऐसा नहीं है कि तुम न गुजरे होओ। इतने लंबे समय से तुम पृथ्वी पर हो। न मालूम कितनी बार लाओत्से जैसे व्यक्तियों के पास से गुजरने का मौका मिला होगा। लेकिन वे तुम्हें दिखाई नहीं पड़े; क्योंकि उनमें ऐसा कुछ भी न दिखाई पड़ा जिसे तुम तौल लेते। तुमने उन्हें अस्पताल में सेवा करते न पाया। तुमने उन्हें जाकर गरीब को भूदान करते न देखा। तुमने उन्हें समाज की सामान्य क्षुद्र व्यवस्थाओं में कोई क्रांति करते न देखा। उन्होंने दहेज-प्रथा के खिलाफ कोई आंदोलन न चलाया। और न हरिजनों का उद्धार करने की कोई चेष्टा की। इनको तुम पहचानोगे कैसे?
ये तो ऐसे थे जैसे वृक्ष हों। ये तो ऐसे थे जैसे पहाड़ी चट्टानें हों। ये तो ऐसे थे जैसे पहाड़ी झरने हों। ठीक है, थोड़ी देर तुम इनके पास बैठ लिए..एक जंगली सौंदर्य था इनके पास..फिर तुम अपनी राह पर हो लिए। ये तुम्हारे काम के न थे। तुम इनका उपयोग न कर सके, इसलिए तुम इनसे वंचित हो गए। और तुम इनका उपयोग कर भी नहीं सकते। विराट का उपयोग नहीं हो सकता। विराट आकाश का क्या उपयोग करोगे? छोटे-छोटे आंगन चाहिए तुम्हें। तुम्हारे महात्मा छोटे-छोटे आंगन हैं, फुलवारियां हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है, चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, मैं विशिष्ट हूं। लोग पास से गुजर जाते हैं, और पहचानते नहीं; मैं विशिष्ट हूं।
विशिष्ट की यह परिभाषा बड़ी अनूठी है।
‘इसलिए संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं, लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।’
संत के मणि-माणिक्य उसके कपड़ों पर नहीं जड़े हैं; साधु के मणि-माणिक्य उसके कपड़ों पर जड़े हैं। साधु को तुम ऊपर से ही पहचान लेते हो। वह नग्न खड़ा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह धूप में खड़ा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह भूखा खड़ा है; उपवास कर रहा है। कैसे बचोगे पहचानने से? वह शीर्षासन कर रहा है; कांटों पर लेटा है। तुम भागोगे कहां? तुम बचोगे कैसे? उसके सब मणि-माणिक्य ऊपर जड़े हैं।
साधु एक्झिबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं। असाधु और साधु में बहुत फर्क नहीं है। वे एक ही चीज के दो पहलू हैं। असाधु भी चर्चा करते हैं अपनी असाधुता की। अगर तुम चोरों-डाकुओं के पास जाओ तो वे सब दावा करते हैं कि कितनों को लूटा, कितनों को मारा। झूठे दावे! मारे होंगे दो तो बताते हैं बीस। कारागार में चले जाओ, पागलखाने में चले जाओ। पूछो। तो तुम पाओगे, वहां अपराधी बता रहे हैं, एक-दूसरे पर रोब गांठ रहे हैं। काटी होगी जेब, बताते हैं खजाना लूट लिया। असाधु भी प्रदर्शनवादी है। वह भी कोई छोटा असाधु नहीं होना चाहता। वह भी कहता है, मुझसे बड़ा कोई असाधु नहीं। तुम्हारे साधु भी प्रदर्शनवादी हैं। वे कहते हैं, हमने इतने उपवास किए, इतनी तपश्चर्या की, इतने हजार दफे माला फेरी, लाख राम के नाम लिख डाले। वे भी हिसाब रखे हुए हैं। उनसे बड़ा कोई साधु नहीं है।
संत का कोई दावा नहीं है; क्योंकि न तो वह साधु है कि दावा कर सके और न असाधु है कि दावा कर सके। उसमें रात और दिन मिल गए हैं। रात भी प्रकट दिखाई पड़ती है..गहन अंधकार! भरी दोपहरी भी साफ है..सूरज जलता है! साधु तो संध्या जैसा है, जहां दिन और रात मिलते हैं; सब धुंधला-धुंधला है। वास्तविक संत संध्या जैसा है, जहां सब धुंधला है, जहां कुछ साफ नहीं है। रहस्यपूर्ण है; न रात है, न दिन है; दोनों मिल गए हैं। न जीवन है, न मृत्यु है; दोनों मिल गए हैं। न शुभ है, न अशुभ है; दोनों मिल गए हैं। संत का जीवन तो संध्या का जीवन है, जहां सब मिल गया है। जान सकेंगे वे ही जो मधुर के संगीत को सुन सकते हैं। जिनको दोपहरी की आदत है उनको संध्या न जंचेगी। उसमें त्वरा नहीं है, तेजी नहीं है; सब धीमा-धीमा, फीका-फीका है। जिनको गहन अंधेरी रात की आदत है, उनको भी संध्या जंचेगी नहीं। अंधकार की तीव्रता, अंधकार का घनापन वहां नहीं है, सब विरल है। रात भी साफ है; दिन भी साफ है। संध्या धुंधली है। संत धुंधला है। उसे वे ही पहचान सकते हैं जिनको धुंधले में देखने की आंखें हों जिनके पास, जो रहस्य में झांक सकते हों। जहां सीमाएं खो जाती हैं, वहां जिनको देखने की क्षमता हो। जहां परिभाषाएं मिट जाती हैं, जहां द्वंद्व लीन हो जाता है, वहां जिनके पास पहचान हो, वहां गति करने की जिनके पास क्षमता हो, वे थोड़े से लोग ही पहचान सकेंगे।
और तब संत के भीतर बड़े मणि-माणिक्य हैं। काश तुम संध्या में झांक सको! तो संध्या में सारा दिन भी छिपा है और सारी रात भी। काश तुम अपरिभाष्य में झांक सको! तो सब सत्य भी वहीं छिपे हैं, सब असत्य भी। काश तुम एक संत में झांक सको! तो तुम्हें जीवन के सभी राज वहां मिलते हुए मिलेंगे। शुभ और अशुभ वहां आलिंगन किए खड़े हैं। वहां प्रथम और अंत एक साथ मौजूद हैं।
‘संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं, लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।’
बाहर उनका कोई भी दावा नहीं है। इसलिए अगर तुम्हें दावेदारों को ही पहचानने की आदत है तो तुम संत को कैसे पहचान पाओगे? उसका कोई भी दावा नहीं है। संत बिना दावे के जीता है..बिना शर्त, बिना दावे के। संत सिर्फ जीता है। अगर तुम्हें जीवन की सुगंध पहचानने की कला आ गई तो तुम पहचान सकोगे। और तब संत से एक द्वार खुलता है, जो द्वार तुम्हें ठीक परमात्मा के मंदिर में पहुंचा दे।
लेकिन संत को पहचानना मुश्किल है। संत बिल्कुल सरल है, इसीलिए पहचानना मुश्किल है। संत जीवन जैसा सरल है, इसीलिए पहचानना मुश्किल है। संत को साधना भी मुश्किल है। साधु को साध सकते हो; असाधु को साध सकते हो। साधु हम कहते ही हैं उसको क्योंकि उसने बहुत साध लिया। असाधु भी इसीलिए कहते हैं कि उसने विपरीत साध लिया। संत को तुम न साध सकोगे, न समझ सकोगे।
संत को तो तुम सिर्फ अगर मौका दे दो तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होने का, संत के पास तो तुम अगर बैठ जाओ दो घड़ी, विश्राम कर लो, साधना की बात छोड़ दो, विधि-विधान छोड़ दो, संत के संग-साथ हो लो थोड़ी देर, दो कदम चल लो, दो कदम बैठ लो, तो संत संक्रामक है, तो उसका हृदय तुममें डोल जाएगा, उसकी धड़कन तुम्हारी धड़कन का भाग बन जाएगी। और तभी पहचान संभव है। तुम अगर संत को थोड़ी देर जी लो। इसलिए एकमात्र रास्ता है लाओत्से, रमण जैसे व्यक्तियों को जानने का: उनके पास होने की कला। वही शिष्यत्व है। सीखने को वहां कुछ है नहीं। तुम मछली हो; तैरना तुम जानते हो।
एक छोटी सी कहानी; विवेकानंद को बहुत प्रिय थी यह कहानी।
बड़ी पुरानी कहानी है कि एक सिंहनी एक पहाड़ी से छलांग लगाई दूसरी पहाड़ी पर। गर्भिणी थी; छलांग की चोट में बच्चा नीचे गिर गया। नीचे भेड़ों का एक झुंड गुजरता था। भेड़ों ने बच्चे को बड़ा कर लिया। भेड़ों के साथ बड़ा हुआ सिंह, लेकिन उसको याद तो यही रही कि मैं भेड़ हूं। वह भेड़ों जैसा ही मिमियाता। बड़ा हो गया, भेड़ों से बड़ा ऊंचा हो गया। न तो भेड़ें उससे डरतीं, न वह भेड़ों को खाता। उसे याद ही नहीं थी कि वह सिंह है।
एक दिन एक सिंह ने हमला किया भेड़ों के इस झुंड पर। देख कर सिंह चकित हुआ कि एक सिंह भी भेड़ों में घसर-पसर करता हुआ भाग रहा है! न तो भेड़ें उससे डरी हैं; न वह भेड़ों पर हमला कर रहा है। यह चमत्कार था! उसे भरोसा ही न आया। वह भागा; बामुश्किल इस सिंह को पकड़ पाया। पकड़ा तो वह मिमियाता था, रोता था, जैसे भेड़ें रोती हैं। और उस सिंह ने उसको बहुत डांटा-डपटा कि तू यह क्या कर रहा है? तुझे पता है तू कौन है? लेकिन वह मिमियाता ही रहा। वह भागना चाहता था। किसी तरह पकड़ कर सिंह उसे नदी के किनारे लाया। शांत जल में उसने कहा, झांक! दोनों ने सिर जल में किए।
क्षण भर में क्रांति हो गई। वह जो सिंह अपने को भेड़ समझता था, अचानक सिंहनाद निकल गया उसके मुंह से। सब बदल गया। बात ही बदल गई। उसकी आंखें और हो गईं। उसकी चाल और हो गई। कुछ करना न पड़ा। एक दूसरे सिंह के साथ पानी के दर्पण में अपनी छवि को पहचान लिया।
बस संत के पास होने से इतना ही हो सकता है। संत कुछ सिखाता नहीं; तुम जो हो, वही तुम्हें बता देता है।
आज इतना ही।

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