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बुधवार, 27 जून 2018

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--025

 आमंत्रण भरा भाव व नमनीय मेधा—(प्रवचन—पचीसवां)

अध्याय 10 : सूत्र 2
अद्वय की स्वीकृति

जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने में और शासन के
व्यवस्थापन की प्रक्रिया में क्या वह सोद्देश्य
कर्म के बिना अग्रसर नहीं हो सकता?
क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे (नासारंध्र)
को खोलने और बंद करने में एक स्त्रैण
पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता?
जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो,
तब क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?

विचारशील मनुष्य निरंतर ही पूछता है: जीवन का उद्देश्य क्या? जीएं क्यों? किसलिए? और ऐसा आज नहीं, सदा से ही विचारशील मनुष्य ने पूछा है। समस्त धर्मों का जन्म और समस्त दर्शनों का जन्म इस प्रश्न के आस-पास ही निर्मित हुआ है: उद्देश्य क्या है? प्रयोजन क्या है? लक्ष्य क्या है? अंत क्या है? और जो ऐसा नहीं पूछते हैं, विचारशील लोग सोचते रहे हैं कि वे विचारहीन हैं, अज्ञानी हैं। जो ऐसे ही जीए चले जाते हैं, बिना लक्ष्य को पूछे, उन्हें विचारशील लोग सदा से अज्ञानी समझते रहे हैं।

लाओत्से की बात बहुत हैरान करेगी। क्योंकि लाओत्से कहता है कि जिसने उद्देश्य से जीना चाहा, उद्देश्य तो कभी मिलेगा ही नहीं, जीवन जरूर खो जाएगा। जिसने किसी लक्ष्य के लिए जीने की कोशिश की, वह लक्ष्य को तो पा ही नहीं सकेगा, जीवन को जरूर नष्ट कर लेगा। जी तो वही सकता है, जो निष्प्रयोजन जीने की कला जान ले। जीने की सघनता में तो वही उतर सकता है, जिसका कोई उद्देश्य नहीं है इस क्षण के बाहर। तो इसे थोड़ा एक-एक कदम समझना पड़े, क्योंकि शायद यह कठिनतम बात है हमारे मन की पकड़ में आने के लिए। और कठिन इसीलिए है कि मन तो बिना उद्देश्य के एक क्षण भी नहीं जी सकता। हम तो जी सकते हैं, लेकिन मन बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता। अगर उद्देश्य नहीं है कोई, तो मन बिखर जाएगा। इसलिए मन को बहुत कठिनाई होगी यह बात जानने के लिए, समझने के लिए। असल में, मन जीवन से विपरीत घटना है। तो जितना ज्यादा मन होता है हमारे पास, उतना ही कम जीवन हो जाता है।
इसे बहुत पहलुओं से समझना पड़े। एक, कि उद्देश्य की सारी की सारी चर्चा और विचारणा बड़ी अर्थहीन है। अर्थहीन उस बात को कहते हैं कि हम चाहे कोई भी उत्तर खोज निकालें, जिस प्रश्न के लिए हमने उत्तर खोजा था, वह अगर पुनः वैसा ही खड़ा रहे, तो सारी चेष्टा व्यर्थ हो जाती है।
जैसे लोग पूछते हैं कि जगत को किसने बनाया? तो यह अर्थहीन प्रश्न है। यह अर्थहीन इसलिए है कि यदि हम उत्तर दे पाएं कि जगत को अ ने बनाया, तो प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि अ को किसने बनाया? और हम कितने ही उत्तर खोजते चले जाएं--ब, , और अंतहीन--लेकिन हर उत्तर के बाद प्रश्न अपनी जगह ही खड़ा पाया जाएगा। क्योंकि प्रश्न में हमने एक बात मान ली थी कि कोई चीज बिना बनाए नहीं हो सकती। वहीं भ्रांति हो गई। अब वही भ्रांति हमारा पीछा करेगी। अगर कोई कहेगा ईश्वर ने बनाया, तो प्रश्न उठेगा, ईश्वर को किसने बनाया? और आप अब यह न कह सकेंगे कि ईश्वर बिना बनाया हुआ है। क्योंकि अगर आप यही कहते हैं, तो पहला प्रश्न ही गलत था। फिर संसार ही बिना बनाया हो सकता है। तो यह प्रश्न जो है, इनफिनिट रिग्रेस में ले जाता है, अंतहीन व्यर्थ उत्तरों में ले जाता है। तो जिस प्रश्न का उत्तर प्रश्न को समाप्त न करता हो और प्रश्न उत्तर के बाद भी ठीक वैसा ही खड़ा रहता हो जैसा पहले था, तो वह प्रश्न व्यर्थ है।
ठीक जीवन के उद्देश्य के संबंध में भी वही भ्रांति होती है। जब हम पूछते हैं, जीवन का उद्देश्य क्या? तब हम यह मान ही लेते हैं कि कोई चीज बिना उद्देश्य के नहीं हो सकती। यह हमारा इंप्लीकेशन है, यह हमने भीतर स्वीकार कर लिया। लेकिन हम भूलते हैं; हम कुछ भी उद्देश्य बताएं, पुनः यह पूछा जा सकता है कि जो हमने बताया, उसका उद्देश्य क्या? जैसे धार्मिक आदमी कहेगा, जीवन का उद्देश्य ईश्वर को पा लेना है। लेकिन क्या यह नहीं पूछा जा सकता कि ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या है? पाकर भी क्या करेंगे? पा भी लिया, फिर क्या होगा? पा लेने के बाद भी ईश्वर को यह प्रश्न तो संगत रूप से पूछा ही जा सकता है कि इस ईश्वर को पा लेने का उद्देश्य क्या? धार्मिक व्यक्ति कह सकते हैं कि जीवन का लक्ष्य मोक्ष को पा लेना है। लेकिन मोक्ष का लक्ष्य?
तो यह व्यर्थ प्रश्न है। व्यर्थ इसलिए है कि कोई भी उत्तर इसे खंडित नहीं करेगा। कोई भी उत्तर, ध्यान रखें! ऐसा मत सोचें कि कोई उत्तर तो होगा ही, जो इसे खंडित कर देगा। आपका उत्तर मुझे पता नहीं है, तो भी मैं कहता हूं, कोई भी उत्तर आप खोज लाएं, वह व्यर्थ होगा। क्योंकि यह प्रश्न पुनः सार्थक रूप से पूछा जा सकता है कि आप जो भी खोज लाए हैं एक्स, वाई, जेड, उसका उद्देश्य क्या है? इस बात को कहने के लिए कि यह प्रश्न व्यर्थ है, आपके उत्तर को जानना मेरे लिए जरूरी नहीं है। यह प्रश्न ही व्यर्थ है, क्योंकि इसका सार्थक रूप से कोई भी उत्तर नहीं दिया जा सकता। क्योंकि हर दिए गए उत्तर के बाद यह पुनः अपना सिर वैसे ही खड़ा कर लेता है।
लेकिन जिसको हम बुद्धिमान आदमी कहते हैं, विचारशील आदमी कहते हैं, समझदार कहते हैं, वह निरंतर लोगों को समझाते हुए पाया जाता है कि व्यर्थ मत जीओ। जीवन में उद्देश्य लाओ। किसी चीज के लिए जीओ। देश के लिए जीओ, धर्म के लिए जीओ, सेवा के लिए जीओ, सत्य के लिए जीओ, परमात्मा के लिए जीओ। एक भूल भर मत करना, जीवन के लिए भर मत जीना; और सब चीजों के लिए जीना। क्योंकि वैसा आदमी यह मानने को राजी नहीं होगा कि जीवन अपना ही उद्देश्य है, पर्याप्त अपने में ही, उसे बाहर किसी उद्देश्य को खोजने की जरूरत नहीं है। क्योंकि वैसा आदमी कहेगा कि तब तो जीवन व्यर्थ हो गया; क्योंकि इसमें कोई प्रयोजन नहीं, कोई लक्ष्य नहीं। तब तो जीवन एक ऐसा रास्ता हो गया, जिसकी कोई मंजिल नहीं। क्योंकि उस आदमी ने मान ही रखा है कि रास्ते की मंजिल होनी ही चाहिए। यात्रा भी मंजिल हो सकती है, यात्रा ही मंजिल हो सकती है, ऐसा उसकी बुद्धि नहीं पकड़ पाती। और इसलिए वह मंजिल निर्मित करता चला जाता है। लेकिन कोई भी मंजिल मंजिल नहीं हो सकती, क्योंकि हम पुनः पूछ सकते हैं कि यह मंजिल किसलिए? यह मंजिल भी किस मंजिल को पाने के लिए?
सोद्देश्य जीवन, प्रयोजन-सहित जीवन मन के लिए प्रीतिकर है, अहंकार के लिए भी। क्योंकि अहंकार अगर बिना उद्देश्य के जीए, तो अपने को भर नहीं सकता। इसलिए जितना बड़ा उद्देश्य होगा, उतना बड़ा अहंकार होगा। अगर आप अपने परिवार के लिए ही जी रहे हैं, तो आपके पास बहुत बड़ा अहंकार नहीं हो सकता। अगर आपको बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरे राष्ट्र के लिए जीएं। तब आपके पास विराट अहंकार होगा। अगर और बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरी मनुष्यता के लिए जीएं। अगर और बड़ा अहंकार चाहिए, तो पूरे ब्रह्मांड का केंद्र आप ही बन जाएं और पूरे ब्रह्मांड के लिए जीएं। तो जितना बड़ा उद्देश्य होगा, उतना बड़ा अहंकार हो सकता है; जितना छोटा उद्देश्य होगा, उतना छोटा अहंकार होगा।
इसलिए बहुत मजे की बात है कि जो आदमी धन खोज रहा है, वह कभी उतना बड़ा अहंकारी नहीं हो सकता, जितना वह आदमी अहंकारी हो सकता है, जो ज्ञान खोज रहा है। जो आदमी पद खोज रहा है, वह उतना बड़ा अहंकारी नहीं हो सकता, जितना बड़ा वह हो सकता है, जो सेवा खोज रहा है। जितना बड़ा हो लक्ष्य! और बड़े लक्ष्य का अर्थ होता है कि जितनी बड़ी परिधि बनाता हो वह लोगों के आस-पास। और बड़े का यह भी अर्थ होता है कि जितना नॉन-काम्पिटीटिव हो, जितनी प्रतियोगिता कम हो।
अगर आप धन खोज रहे हैं, तो बहुत प्रतियोगिता होगी, क्योंकि और लोग भी धन खोज रहे हैं। अगर आप सेवा खोज रहे हैं, तो कम प्रतियोगिता होगी, क्योंकि बहुत कम लोग सेवा खोज रहे हैं। अगर आप अपने लिए ही इज्जत चाहते हैं, तो प्रतियोगिता बहुत होगी, क्योंकि प्रत्येक अपने लिए इज्जत चाहता है। लेकिन अगर आप अपने राष्ट्र के लिए, अपने धर्म के लिए, अपनी जाति के लिए प्रतिष्ठा चाहते हैं, तो प्रतिस्पर्धा बहुत कम होगी। दूसरे राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा होगी, आपके राष्ट्र के भीतर कोई स्पर्धा नहीं होगी। आपका अहंकार सुगमता से निर्मित हो सकता है।
तो जितना बड़ा लक्ष्य हो, उतनी सुगमता है अहंकार को मजबूत होने के लिए, बड़ा होने के लिए। अहंकार उद्देश्य की भाषा बोलता है। इसलिए हम एक-एक बच्चे को अहंकार की भाषा सिखाते हैं। बच्चे तो निरुद्देश्य जीते हैं; उद्देश्य हम सिखाते हैं। अगर एक बच्चा खेल रहा है, और हम उससे पूछें, किसलिए खेल रहे हो? तो बच्चे को हमारा प्रश्न समझ में ही नहीं आता। क्योंकि किसलिए का कोई अर्थ ही नहीं है; खेलना पर्याप्त है। हम तो खेलते भी हैं, तो किसलिए भीतर होता है कि किसलिए खेल रहे हैं। बच्चा खेल रहा है, तो खेलना अपने में इतना काफी है कि खेलने के बाहर कोई लक्ष्य नहीं है। खेलना ही आनंद है। खेलने से कुछ और मिलेगा, ऐसा नहीं, खेलने में ही मिल जाएगा। खेलना ही मिलना भी है। साधन और साध्य अलग नहीं हैं, एक ही हैं।
लेकिन ऐसे बच्चे को जीवन के संघर्ष में नहीं उतारा जा सकता। तो ऐसे बच्चे को हमें खेल के बाहर निकालना पड़ेगा और सोद्देश्य क्रिया में लगाना पड़ेगा। उसे पढ़ना सिखाना पड़ेगा। पढ़ना इसलिए कि कल नौकरी मिल सकेगी। और पढ़ना इसलिए कि कल धन मिल सकेगा। हमें उसके जीवन को उस पटरी पर चलाना पड़ेगा, जहां लक्ष्य सदा कल होता है और काम आज। जहां साधन और साध्य अलग हो जाते हैं। साध्य सदा भविष्य में और साधन सदा वर्तमान में। तो फिर वह लड़का कल गणित पढ़ेगा। तब वह यह नहीं कह सकेगा कि मैं आनंद ले रहा हूं। वह कहेगा कि झेल रहा हूं तकलीफ, लेकिन कल आनंद मिलेगा उस आशा में। परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं, क्योंकि परीक्षा के पार जीवन के संघर्ष में उतरने में सुविधा होगी।
तो प्रत्येक बच्चे को हमें निकालना पड़ता है निरुद्देश्य जीवन से सोद्देश्य जीवन में। हमारी सारी शिक्षा की प्रक्रिया वही है। यह मजबूरी है, करना ही पड़ेगा। जीवन की जरूरत है यह। और अगर हम बच्चे को सोद्देश्य जीवन में न खींच पाएं, तो वह समाज का अंग नहीं बन पाएगा और शायद अपने को बचा भी नहीं पाएगा। शायद इस बचने की जो भयंकर प्रतियोगिता चल रही है, इसमें वह हार ही जाएगा, पराजित हो जाएगा, टूट जाएगा। इसमें वह बच नहीं सकता। इसलिए उसे खींचना पड़ेगा। यह जो सरवाइवल के लिए, बचने के लिए इतना युद्ध चल रहा है, उस युद्ध में उसको खड़े होने को भी कोई जगह नहीं है।
जीसस ने अपने शिष्यों से कहा है कि क्यों तुम फिक्र करते हो रोटी की! फूलों को देखो; पक्षियों को देखो। न रोटी की चिंता है, न रोटी कमाने का कोई उपाय है; लेकिन भोजन तो मिलता है। इन खेत में खिले हुए लिली के फूलों को देखो! और खुद सम्राट सोलोमन भी अपनी श्रेष्ठतम वेशभूषा में इतना सुंदर न था। लेकिन ये न तो वस्त्र के लिए धागा बुनते हैं, न कपास उगाते हैं। फिर भी ये काफी सुंदर हैं। और निर्वस्त्र नहीं हैं।
यह जीसस बिलकुल ठीक कह रहे हैं। जीसस वही बात कह रहे हैं, जो लाओत्से कह रहा है।
लेकिन मजबूरी है। आदमी को खेत के लिली के फूलों की तरह नहीं छोड़ा जा सकता। और पक्षियों की तरह उसे अनाज भी नहीं मिल सकता। आदमी ने पशुओं के जगत से अपना संबंध तोड़ लिया है। उसने जिम्मेवारी ले ली है। उसे संघर्ष में जाना ही पड़ेगा।
इसलिए यह बात सच है कि जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है, फिर भी हमें प्रत्येक व्यक्ति को जीवन का उद्देश्य सिखाना पड़ता है। वह एक असत्य है, जो जीवन के लिए जरूरी है। एक नेसेसरी ईविल, एक अनिवार्य बुराई है, जो हमें आदमी को सिखानी पड़ती है। लेकिन उस बुराई के बाहर निकला जा सकता है। और पुनः उस बुराई के बाहर निकलना जीवन को बहुत गहन रूप से समृद्ध कर जाता है। फिर से बच्चे हो जाना जीवन को बहुत समृद्ध कर जाता है। और तब यह सारी दौड़ एक अभिनय हो जाती है। और भीतर गहरे में हम जानते हैं कि जीवन निरुद्देश्य है।
निरुद्देश्य का अर्थ? निरुद्देश्य का अर्थ है कि जीवन का प्रतिपल अपना उद्देश्य है। जहां हैं हम, जो हैं हम, वहीं परिपूर्णता जीवन की है। हम कल के लिए न जीएं, क्योंकि कल के लिए जीने में हम सिर्फ आज को खोते हैं। और जिस आज को हम खोते हैं, उसे हम पुनः फिर न पा सकेंगे। और जिस व्यक्ति को आज को खोने की आदत बन गई, वह कल को भी खो देगा। क्योंकि कल जब आज बनेगा, और ध्यान रहे, कल जब भी आएगा मेरे हाथ में, वह आज की शक्ल में आएगा। कल की शक्ल में तो कोई कल आता नहीं। जब कल मेरे पास आएगा, तो वह आज होगा। और आज को मैंने सदा ही कल के लिए कुर्बान करने की आदत बना ली है। तो मैं पूरे जीवन को कुर्बान करता जाऊंगा। और आखिर में पाऊंगा कि मौत के अतिरिक्त मेरे हाथ में कुछ भी नहीं बचा।
हम सभी अपने जीवन को ऐसे ही खोते हैं। जिसे हम आज कह रहे हैं, यह भी तो कल कल था। लेकिन कल के दिन को हमने खोया था आज के लिए। आज को हम खोते हैं कल के लिए। कल को हम खोएंगे और आगे के लिए। और ऐसे हम समय को खोते चले जाएंगे। और एक दिन हम पाएंगे कि सिवाय आशाओं की राख के हमारे हाथ में कुछ भी छूट नहीं गया है। उद्देश्य तो कुछ पूरा नहीं हुआ, जीवन खो गया।
एक क्षण से ज्यादा हमें उपलब्ध नहीं है। दो क्षण किसी को भी नहीं मिलते हैं एक साथ। एक क्षण मिलता है, बारीक क्षण। और वह क्षण भी कोई स्थिर बात नहीं है। दौड़ती हुई, भागती हुई, निरंतर शून्य में खोती हुई प्रक्रिया है। हाथ में आता नहीं कि छूट जाता है। उस क्षण को, लाओत्से कहता है, अगर हमने किसी भी साध्य के लिए समर्पित किया, तो हम जीवन से वंचित हो जाएंगे। वह साध्य कोई भी हो, चाहे क्षुद्र धन हो और चाहे श्रेष्ठ धर्म हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। चाहे इसी जमीन पर एक महल बनाने का लक्ष्य हो और चाहे स्वर्ग में महल को पा लेने की कामना हो! और चाहे यहीं किसी बड़े पद पर बैठ जाने की आकांक्षा हो और चाहे मोक्ष में सिद्धशिला पर विराजमान होने की वासना हो! इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। कल की आकांक्षा जहर है, क्योंकि आज के जीवन को समाप्त कर जाती है।
यह क्षण क्या अपने में ही नहीं जीया जा सकता? क्या यह क्षण अपने में ही पूरा नहीं माना जा सकता?
इसका यह अर्थ नहीं है कि कल आपको ट्रेन पकड़नी है, तो आपको आज ही पकड़नी पड़ेगी। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप कल पकड़ने वाली ट्रेन का टाइम-टेबल आज नहीं देख सकते हैं। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि एक वर्ष में आपकी फैक्ट्री बन कर पूरी होगी, तो आज उसकी आप योजना नहीं कर सकते हैं। लोगों के मन में ऐसे सवाल उठते हैं कि फिर क्या होगा! कल का तो तय आज करना पड़ेगा कि कल सुबह मुझे पांच बजे उठ कर ट्रेन पकड़नी है। लेकिन इसे थोड़ा समझें, तो खयाल में आ जाएगा।
जब आप इसे तय कर रहे हैं, तब तय करने की प्रक्रिया वर्तमान की प्रक्रिया है। अभी इस क्षण में तय कर रहे हैं। तो इस तय करने में इतना आनंद लें, जितना तय करने में लिया जा सकता है। और किसी भी चीज को तय करना अपने आप में आनंद है। किसी भी चीज को डिसीजन तक ले जाना अपने आप में आनंद है। इस आनंद को अभी लें कि आप कल सुबह पांच बजे उठने वाले हैं। यह इसी क्षण का निर्णय है। और इसको, इसी क्षण के निर्णय को पूरा हो जाने दें। कल सुबह पांच बजे उठने का आनंद लेना। आज के क्षण में पांच बजे उठने के निर्णय का आनंद लें।
लेकिन आज का क्षण इसलिए परेशानी में बीत जाए कि कल सुबह पांच बजे उठना है और कल पांच बजे सुबह उठ कर और आगे की परेशानियां होंगी, हर क्षण आगे आने वाली परेशानी में बीत जाए, तो हम अस्तित्व से कभी संयुक्त नहीं हो पाते।
नहीं, वर्तमान में रहने का यह अर्थ नहीं कि आप योजना न कर पाएंगे। वर्तमान में रहने का अर्थ इतना ही है कि योजना आपका जीवन नहीं है, जीना ही आपका जीवन है। और जीना अभी और यहीं, इसी क्षण संभव है, और किसी क्षण संभव नहीं है।
तो एक तो है निरुद्देश्य जीवन उस आदमी का, जिसे हम मूढ़ कहते हैं। जो पड़ा है, धक्के खा रहा है, जहां भी जीवन धक्का दे दे, वहां चला जाएगा। प्रमाद से भरा हुआ, आलस्य में डूबा हुआ। जीवन को अपने हाथ में जिसने लिया ही नहीं है, जो हवा में उड़ते हुए एक पत्ते की भांति है। एक तो वह आदमी है, उसे हम कहें निरुद्देश्य जीवन।
एक वह आदमी है, जो चौबीस घंटे दौड़ रहा है उद्देश्य को पाने के लिए। जिसको हम बुद्धिमान, समझदार आदमी कहते हैं। वह है सोद्देश्य जीवन, जो प्रतिपल खो रहा है आगे पल के लिए। जो हमेशा इनवेस्ट किए चला जा रहा है। आज के क्षण को कल के लिए लगा रहा है। कल के क्षण को परसों के लिए लगा रहा है। और आखिर में मर जाता है; दौड़ते-दौड़ते मर जाता है। शायद इस आदमी की बजाय तो वह जो निरुद्देश्य आदमी था, उसने भी कुछ झलक जानी हो।
लेकिन लाओत्से उस आदमी के लिए नहीं कह रहा है। लाओत्से एक तीसरे आदमी की बात कर रहा है: उद्देश्य-मुक्त जीवन। वह एक तीसरा ही आदमी है। न तो वह आलसी है, न वह प्रमादी है। न वह जीवन से पलायन कर रहा है, न वह मुर्दे की भांति पड़ा हुआ है और जीवन की धारा उसके ऊपर से गुजरी जा रही है। नहीं, न तो वह पहले आदमी की तरह है, न वह दूसरे आदमी की तरह है कि पागल की तरह दौड़ रहा है। वह एक तीसरा ही आदमी है। जो दौड़ता भी है, तो किसी मंजिल के लिए नहीं; दौड़ने का हर कदम उसके लिए आनंद है। जो अगर दौड़ता भी है, तो दौड़ने में ही उसका आनंद है। जो कहीं पहुंचने के लिए नहीं दौड़ रहा है।
इस तीसरे तरह के आदमी को कभी असफलता नहीं मिल सकती। यह कभी विफल नहीं हो सकता। और यह कभी संताप को उपलब्ध नहीं होगा। फ्रस्ट्रेशन, विषाद जिसे कहें, इसे कभी फलित नहीं होगा, क्योंकि इसने कभी कोई आशा ही नहीं बांधी है। इसने तो प्रत्येक क्षण को उसकी पूर्णता में जी लिया था, निचोड़ लिया था। यह किसी मंजिल के लिए नहीं दौड़ा, इसलिए कभी यह नहीं कहेगा खड़े होकर कि मेरी जिंदगी बेकार चली गई, मैं पहुंच नहीं पाया। क्योंकि इसने पहुंचने की कभी कोई कोशिश नहीं की।
यह आदमी कहेगा, मैंने जीवन का क्षण-क्षण जी लिया है; पूरी तरह निचोड़ लिया है जीवन का रस। यह आदमी मृत्यु को भी आनंद से गले लगा लेगा। यह आदमी मृत्यु को भी जी सकेगा। इस आदमी के लिए मृत्यु भी जीवन की एक घटना होगी, जीवन का अंत नहीं। यह मृत्यु का भी रस, और मृत्यु का भी आलिंगन कर सकेगा। क्योंकि जो भी इसके सामने रहा है, इसने उसे जीया है। जो भी इसे मिल गया है, इसने उसे पूरा का पूरा भोगा है। इसने रत्ती भर उसे छोड़ा नहीं, आगे-पीछे का इसने हिसाब नहीं रखा है। दौड़ा यह भी बहुत, शायद उनसे ज्यादा दौड़ा, जो मंजिल बना कर दौड़ रहे थे। क्योंकि आपको खयाल हो, जब मंजिल का बोझ हो सिर पर, तो पैर भी भारी हो जाते हैं। और जब किसी लक्ष्य को बना कर कोई चलता है, तो चलना एक थकान हो जाती है।
कभी आपने खयाल किया? आप सुबह जिस रास्ते पर घूमने निकलते हैं, दोपहर उसी रास्ते से दफ्तर के लिए भी जाते हैं। पैर भी वही होते हैं, रास्ता भी वही होता है, आकाश भी वही होता है। लेकिन सुबह जब आप घूमने निकले होते हैं, तो पैरों का नृत्य अलग होता है और प्राणों के गीत में भेद पड़ता है। उसी रास्ते से दोपहर आप दफ्तर के लिए जाते हैं। पैर भी वही, रास्ता भी वही। लेकिन अब एक मंजिल और है, कहीं पहुंचना है। सुबह घूमने गए थे, तब कहीं पहुंचना नहीं था, चलना ही काफी था।
वह चलने का जो सुख था सुबह, वह इसी रास्ते पर दोपहर को क्यों नहीं मिल पाता है? और हो सकता है, आपके बगल में कोई आदमी चल रहा हो जो घूमने निकला हो, तो उसे अभी भी वही रस मिल रहा है। लेकिन सुबह घूमने में भी अगर किसी ने इसको रिलीजस डयूटी बना रखा हो, एक धार्मिक कृत्य बना रखा हो कि पांच बजे उठ कर घूमना ही है, अन्यथा पाप हो जाएगा, तो यह आदमी घूमने में भी सुख को खो देगा। इसका घूमना भी एक कर्तव्य है, करना है। यह घूमेगा भी ऐसे, जैसे दफ्तर जा रहा है, दूकान जा रहा है। यह घूमने से लौटेगा भी ऐसे कि ठीक है, एक काम से छुटकारा मिला, एक काम पूरा कर लिया है।
जहां उद्देश्य है, वहां भार हो जाता है। जहां उद्देश्य नहीं है, वहां निर्भार दशा उत्पन्न हो जाती है। और जितना निर्भार हो व्यक्ति, उतनी आनंद की संभावना बढ़ती है। और जितना भारग्रस्त हो, उतना जीवन एक बोझ और किसी तरह गुजारने जैसा हो जाता है। हम प्रत्येक चीज को कर्तव्य बना लेते हैं, खेल नहीं। और लाओत्से को समझेंगे, तो लाओत्से यह कह रहा है कि पूरा जीवन एक खेल है। हम खेल को भी कर्तव्य बना लेते हैं। हम अगर खेलने भी बैठते हैं, तो हमारी आंखें और हमारे चेहरे पर जो सिकुड़न होती हैं, वे काम की होती हैं।
इसलिए अगर दो लोग ताश खेलते हैं, तो अकेले ताश खेलने में सुख नहीं आता, जब तक वे कुछ रुपए दांव पर न लगा लें, थोड़े ही सही। क्योंकि रुपए लगाते से ही खेल काम बन जाता है; रुपए लगाते से ही उद्देश्य आ जाता है खेल में। चाहे वह करोड़पति क्यों न हो, वह एक रुपया लगा कर उद्देश्य पैदा कर लेगा। एक रुपया मिलने से कुछ मिलने वाला नहीं, लेकिन फिर भी उद्देश्य हो गया। अब खेल में रस आ जाएगा, जान आ जाएगी। खेल अपने में काफी नहीं था। एक रुपए ने आकर खेल को भी प्राण दे दिए। रुपया हमारी इतनी भारी आत्मा हो गई है कि उसे खेल में भी न डालें, तो खेल भी बेकार है। धंधा बन जानी चाहिए हर चीज।
उद्देश्य का अर्थ है कि प्रत्येक काम किसी और चीज के लिए किया जा रहा है। रस उस चीज के पाने में है; यह काम तो एक मजबूरी है। अगर बिना काम किए वह मिल जाए, तो हम इस काम को तत्क्षण छोड़ देंगे। चूंकि बिना काम किए लक्ष्य नहीं मिलता, इसलिए काम हमें करना पड़ता है। तो हम खेल को भी व्यवसाय बनाते हैं। हम प्रेम को भी काम में रूपांतरित कर लेते हैं। मां अपने बेटे की सेवा कर रही है, तो उसको भी कर्तव्य बना लेती है। पति अपनी पत्नी के लिए अगर श्रम कर रहा है, तो उसको भी कर्तव्य बना लेता है।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, गृहस्थी है, कर्तव्य को निभाना है।
अगर कर्तव्य को निभाना है, तो गृहस्थी है कहां? घर नहीं है, वहां भी दूकान है। घर का तो मतलब ही यह होता है कि वह हमारा आनंद है। अगर पति इसलिए काम कर रहा है कि ठीक है, एक पत्नी पाल ली है पीछे, तो कर्तव्य है। और मां अगर बेटे को इसलिए दूध पिला रही है कि ठीक है, भाग्य में था, पैदा हो गया है, तो काम पूरा कर लेना है। लेकिन हमारे जो सोद्देश्य ढंग हैं जीवन के, वे सभी चीजों पर ऐसी काली छाया डाल देते हैं। कुछ भी चीज खेल नहीं है। किसी भी चीज में हम इतने मुग्ध नहीं हो जाते कि पार की चिंता छोड़ दें। एक क्षण को भी हम वहां नहीं हो पाते जहां हम हैं; सदा मन कहीं और होता है।
लाओत्से कहता है, "जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने, शासन की व्यवस्था की प्रक्रिया में, अनुशासन में, सोद्देश्य कर्म के बिना क्या अग्रसर नहीं हुआ जा सकता है?'
वह कहता है, एक सम्राट भी शासन की व्यवस्था को क्या एक खेल नहीं बना सकता है? बना तो भिखारी भी नहीं पाता। लाओत्से कह रहा है, एक सम्राट भी चाहे तो शासन के विराट कर्म को भी एक खेल बना सकता है। उद्देश्य को छोड़ दे।
हमें तत्काल लगता है कि अगर उद्देश्य को छोड़ दें, तो हम बैठ जाएंगे। फिर हम कुछ करेंगे ही क्यों? उद्देश्य को हमने छोड़ा कि हमें लगता है करना ही खो जाएगा। क्योंकि हमने सदा ही उद्देश्य के लिए किया है। निरुद्देश्य हमने जीवन में कभी कुछ नहीं किया। या अगर कभी कुछ किया हो, कभी कोई छोटा सा कृत्य भी निरुद्देश्य किया हो, तो लौट कर उसका स्मरण करें।
निरुद्देश्य! कोई नदी में डूबता हो, और आपने घाट पर खड़े होकर इतना भी न सोचा हो कि जीवन को बचाना मेरा कर्तव्य है, कूद पड़े हों क्षण में, बिना सोचे, बिना विचारे, बिना किसी उद्देश्य के, बिना सोचे कि हिंदू है कि मुसलमान है, बचाएं कि न बचाएं, अपना है कि पराया है, कि पीछे काम पड़ेगा कि नहीं काम पड़ेगा, कुछ भी न सोचा हो, बस कोई डूबता था और सहज-स्फूर्त आपके प्राणों में छलांग लग गई हो और आप कूद कर उसे बचा लिए हों, तो आपको एक झलक मिल सकती है आनंद की।
लेकिन हम ऐसे हैं कि अगर ऐसा कोई मौका भी मिल जाए, तो हम उसे बहुत शीघ्र नष्ट कर लेंगे, बहुत शीघ्र नष्ट कर लेंगे। अगर हम एक आदमी को किसी तीव्र प्रेरणा के क्षण में, सहज क्षण में कूद कर बचा भी लें, तो बचाते से ही हम उद्देश्य में पड़ जाएंगे। बचाते से ही, किनारे पर लगते से ही हम सोचने लगेंगे कि यह आदमी धन्यवाद दे रहा है कि नहीं दे रहा है? अखबार में खबर छपेगी कि नहीं छपेगी? कोई देखने वाला आस-पास है या नहीं है? काश, हम थोड़ी देर को भी बिना उद्देश्य के किसी कर्म में डूब जाएं, तो वही कर्म ध्यान बन जाता है।
लेकिन हम तो ध्यान भी करते हैं, तो उद्देश्य से करते हैं। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करने से जीवन में सफलता तो मिलेगी न!
जीवन की सफलता और ध्यान?
वे पूछते हैं कि आर्थिक हालत खराब जा रही है, ध्यान करने से प्रभु की कृपा तो उपलब्ध होगी न!
तो ध्यान भी एक इनवेस्टमेंट है। और ध्यान भी उनके धंधे का एक हिस्सा है। ध्यान भी! हम सोच ही नहीं सकते कि उद्देश्य से ध्यान का कोई संबंध नहीं है। यह भी कहना गलत है कि ध्यान से आनंद मिलेगा। यह भी कहना गलत है। हालांकि इसका यह अर्थ नहीं कि ध्यान से आनंद नहीं मिलता है। ध्यान से ही आनंद मिलता है। लेकिन यह भी कहना गलत है कि ध्यान से आनंद मिलेगा। क्योंकि जो आनंद के लिए ध्यान करेगा, वह ध्यान कर ही नहीं पाएगा। ध्यान के लिए ही जो ध्यान करेगा, उसे आनंद जरूर मिल जाता है। कर्म के लिए ही जो कर्म में उतर जाता है, प्रत्येक कृत्य को ही जो उस क्षण में पूरा बना लेता है और स्वयं को पूरा डुबा देता है, पीछे कोई बचता ही नहीं है, उसका पूरा जीवन ही ध्यान हो जाता है।
लाओत्से कहता है, एक सम्राट भी चाहे तो विराट जनसमूह के प्रति प्रेम, बड़े राज्य की व्यवस्था, इसको भी खेल बना सकता है। इसको भी बिना उद्देश्य के जी सकता है। लेकिन वह प्रश्नवाचक उसका वक्तव्य है।
वह कहता है, "जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने में और शासन के व्यवस्थापन की प्रक्रिया में क्या वह सोद्देश्य कर्म के बिना अग्रसर नहीं हो सकता? क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे (नासारंध्र) को खोलने और बंद करने में एक स्त्रैण पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता? जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?'
ये प्रश्न इसलिए उठा रहा है लाओत्से, वह जो कहना चाहता है, वह बहुत स्पष्ट है, लेकिन प्रश्न के साथ कहना चाहता है। क्योंकि हम जैसे हैं, बहुत संदिग्ध मालूम पड़ता है लाओत्से को भी कि हम निरुद्देश्य हो सकेंगे। लेकिन हो सकते हैं। होने का रास्ता क्या है? और होने से क्या फलित होगा? होने से क्या घटित होता है?
तो तीन बातें समझ लें।
एक: जीवन अपने में ही अपना लक्ष्य है; जीवन के पार कोई भी लक्ष्य नहीं है। कितना ही हमारे मन को कठिनाई होती हो यह बात स्वीकार करने में, यह तथ्य है। इसलिए ऐसा सोचें ही मत कि किसलिए जीएं; ऐसा सोचें कि कैसे जीएं। और जैसे ही उद्देश्य हटता है, प्रश्न बदल जाते हैं। जब तक उद्देश्य होता है, हम पूछते हैं, किसलिए जीएं? जैसे ही यह समझ में आ जाए कि जीवन ही अपना लक्ष्य है, वैसे ही प्रश्न का रुख बदल जाएगा। तब हम यह नहीं पूछेंगे, किसलिए जीएं? हम पूछेंगे, कैसे जीएं?
कैसे से विज्ञान का जन्म होता है--हाऊ? कैसे से योग का जन्म होता है। किसलिए जीएं, इससे हवाई दर्शनशास्त्र, मेटाफिजिक्स का जन्म होता है। फिर हजारों लोग उत्तर देने वाले मिल जाते हैं कि इसलिए जीएं, क्योंकि जीवन के पार एक मोक्ष है और जीवन के पार एक परमात्मा। लेकिन तब सब चीजें जीवन के पार होती हैं; यहां कुछ भी नहीं होता। तब सभी चीजें कब्र के बाद होती हैं; यहां कुछ भी नहीं होता। और जिस व्यक्ति के भी जीवन में कब्र के बाद की तस्वीर बहुत महत्वपूर्ण हो जाए, उसका यह जीवन एक लंबी कब्र बन जाएगा। क्योंकि इस जीवन में कुछ पाने योग्य बचता नहीं, कुछ पाने योग्य बचता नहीं।
इस सारी जमीन पर तथाकथित धर्मों के कारण एक जीवन-निषेध का अंधकार फैल गया; एक लाइफ-निगेशन का। जीवन बेकार है। पार कहीं लक्ष्य है, उसे पाना है। और हमें पता नहीं कि यह उद्देश्य पूछने वाले लोगों को अगर मोक्ष भी मिल जाए, तो एकाध दिन भला ही ये यहां-वहां टहल कर दर्शन करें मोक्ष का, तत्काल पूछेंगे कि उद्देश्य क्या है? इस मोक्ष में भी होने से क्या होगा? क्योंकि जिन्होंने सदा यही पूछा है, वे मोक्ष से भी यही सवाल उठाएंगे: कि मान लिया कि यहां शांति है, सुख है; लेकिन फायदा क्या है? इससे मिलेगा क्या? यह क्रानिक क्वेश्चनिंग है, यह जो बीमारी है, स्थायी है। इसको बदल नहीं सकते। यह आदमी कहीं भी पहुंच जाए, यह पूछेगा ही।
मैंने सुना है, मार्क ट्वेन की आदत थी कि जब भी उससे कोई सवाल करे, तो वह जवाब हमेशा सवाल में ही देता था। आप कुछ पूछें, तो वह जो उत्तर देगा, वह एक सवाल होगा। अगर आप उससे पूछें कि आपका नाम क्या है? तो वह नाम नहीं बताएगा, वह पूछेगा कि नाम पूछने का प्रयोजन क्या है? सवाल से सदा ही दूसरे सवाल को वह उठाता था। सुना है मैंने कि अमरीकी प्रेसीडेंट से वह मिलने गया था। अमरीकी प्रेसीडेंट ने उससे पूछा कि मार्क ट्वेन, सुना है मैंने कि तुम हर सवाल के जवाब में पुनः सवाल खड़ा करते हो! मार्क ट्वेन ने कहा, क्या अब भी मैं ऐसा करता हूं? क्या अब भी मैं ऐसा करता हूं, उसने पूछा। क्रानिक! उसे भी पता नहीं कि वह क्या कह रहा है। उसे भी शायद बाद में ही पता चला होगा कि मैंने फिर सवाल ही खड़ा किया है।
यह जो उद्देश्य को पूछने वाली वृत्ति है, यह रुग्ण है। सच तो यह है कि हमारे रोगी चित्त की गवाह है। जब जीवन में आनंद होता है, तो हम नहीं पूछते कि किसलिए?
कभी आपने खयाल किया है, हम सदा पूछते हैं, लोग पूछते हैं, मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, एक बच्चा जन्म से ही अंधा पैदा हुआ, क्यों? वे यह कभी नहीं कहते मुझसे आकर कि इतने बच्चे जन्म से ही अंधे पैदा नहीं हुए, क्यों? अगर कोई आदमी बीमार होता है, तो वह पूछता है, बीमारी क्यों है? स्वस्थ होता है, तो कभी नहीं पूछता कि स्वास्थ्य क्यों है? एक आदमी जब भी सुख में होता है, तो कभी नहीं पूछता कि जगत में सुख क्यों है? और जब दुख में होता है, तो पूछता है, जगत में दुख क्यों है? पांच हजार साल के लिखित प्रश्न हमारे पास हैं उपलब्ध। एक भी आदमी ने नहीं पूछा कि जगत में सुख क्यों है? बुद्ध भी यही पूछते हैं कि जगत में दुख क्यों है? और हर आदमी यही पूछता है कि जगत में दुख क्यों है?
तो जब भी कोई आदमी पूछता है कि जीवन का उद्देश्य क्या है, तो वह यह पूछ रहा है कि जीवन क्यों है? इसका मतलब ही यह है कि सारा जीवन उसने दुख से भर लिया है। अन्यथा वह कभी न पूछता कि जीवन का उद्देश्य क्या है? जीवन क्यों है? वह जीता; और जीना पर्याप्त होता। लेकिन स्थिति ऐसी है कि जीवन हमने दुख से भर लिया है; इसलिए यह सवाल उठता है।
लाओत्से कहता है कि क्या एक सम्राट भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता? क्योंकि सम्राट को तो, जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह मिल गया है। इसलिए वह सम्राट की बात कर रहा है। अगर एक भिखारी से कहे, तो भिखारी कहेगा, बिना उद्देश्य के कैसे जी सकता हूं? अभी एक मकान भी मेरे पास नहीं। इसलिए उसकी बात छोड़ दे रहा है। एक सम्राट की बात उठा रहा है, कि क्या एक सम्राट भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता? उसके पास सब है, जो भी मिल सकता था। लेकिन वह भी बिना उद्देश्य के नहीं जी सकता। क्यों? क्योंकि चीजों से उद्देश्य का कोई संबंध नहीं है। उद्देश्य से जीने की बीमारी हमारे मन की बीमारी है। सब मिल जाए, तो भी मन पूछता है कि क्यों? किसलिए? पूछता ही चला जाता है।
इसलिए बहुत अजीब घटना घटती है। गरीब आदमी इतना दुखी कभी नहीं होता, जितना अमीर आदमी दुखी हो जाता है। और अगर अमीर होकर भी कोई दुखी न हुआ हो, तो समझना कि अभी गरीब है। अमीर होने का लक्षण ही यही है कि आदमी इतना दुखी हो जाए कि दुख से बचने का कोई उपाय न सूझे। अमीर होने का मतलब ही यही है कि वे सब चीजें मिल गईं जिनसे आशा थी कि सुख मिलेगा, और सुख नहीं मिला। सब चीजें इकट्ठी हो गईं और आदमी बीच में खड़ा है। और अब कुछ पाने को भी नहीं बचा। और जो पाना चाहा था, वह मिला भी नहीं। तब दुख का जन्म होता है। गरीब आदमी कष्ट में रहता है, दुख में कभी नहीं। कष्ट का मतलब होता है, कोई चीज की कमी है। कष्ट हमेशा अभाव से होता है। रोटी नहीं है, पेट खाली है, तो कष्ट होता है। दुख होता है, जब पेट भरा होता है और भरेपन का बिलकुल अनुभव नहीं होता। सोने को बिस्तर नहीं है, तो कष्ट होता है। दुख तब होता है, जब बिस्तर तो श्रेष्ठतम उपलब्ध है और सोना मुश्किल हो गया। कष्ट होता है अभाव से, दुख होता है भाव से। कष्ट होता है किसी चीज की कमी से, और दुख होता है किसी चीज के होने से। कष्ट गरीब आदमी का हिस्सा है, दुख अमीर आदमी का हिस्सा है। तो जब दुख हो तो समझना चाहिए आदमी अमीर हुआ।
यह दुख क्या है? यह दुख यही है कि जब तक हम दौड़ते रहते हैं, दौड़ते रहते हैं, लगता है कोई चीज पाने को मंजिल है, तो जीवन में रस मालूम होता है। इसलिए गरीब आदमी की जिंदगी में एक रस होता है। क्योंकि उद्देश्य दूर होते हैं--कल, भविष्य में, जन्म के बाद। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि परलोक की कल्पना गरीब का संतोष है। थोड़ी दूर तक सच है। क्योंकि गरीब को अगर जीना हो, तो परलोक की कल्पना के बिना वह जी नहीं सकेगा। दौड़ेगा कैसे? उठेगा कैसे? चलेगा कैसे? और अगर परलोक हटा दो, तो फिर कोई समाजवाद, कोई साम्यवाद, कोई उटोपिया, इसी जमीन पर; लेकिन कल। नहीं तो गरीब आदमी जीएगा कैसे? कोई न कोई कल चाहिए, चाहे परलोक में हो वह सपने का लोक, और चाहे जमीन पर हो; लेकिन कल। तो गरीब आदमी दौड़ लेता है--लक्ष्य, उद्देश्य। लेकिन अगर सभी उद्देश्य पूरे हो जाएं और सभी लक्ष्य उपलब्ध हो जाएं, तो पहली दफे पता चलेगा कि यह तो दौड़ बिलकुल बेकार हो गई। उद्देश्य सब पूरे हो गए, मंजिल सामने आ गई; और हाथ में कुछ भी नहीं है।
इसलिए आज अगर समृद्ध देशों में समृद्ध देशों के दार्शनिक अर्थहीनता, मीनिंगलेसनेस की बात करते हैं, तो विचारणीय है। चाहे सार्त्र, चाहे कामू, चाहे कोई और, हाइडेगर, वे सभी पश्चिम के विचारशील लोग एक ही बात कर रहे हैं कि जीवन बिलकुल अर्थहीन है। यह अर्थहीनता जीवन की नहीं है, यह हमने अर्थहीनता अपने हाथ से पैदा की है। क्योंकि हमने जीवन को सोद्देश्य जीने की कोशिश की है। अब उद्देश्य पूरे हो गए हैं और अर्थ हाथ में नहीं आया, इसलिए हम परेशान हैं।
जब भी कोई आदमी कहता है मैं बिलकुल निराश हो गया, तो समझना कि उसकी आशा के कारण ही हुआ है। जिस आदमी ने आशा नहीं बांधी, वह निराश कभी नहीं होता। आप मुझे आकर कभी निराश नहीं कर सकते, क्योंकि मैं आपसे कोई आशा ही नहीं बांधता। तो आप कुछ भी करें, कुछ भी व्यवहार करें, आप मुझे निराश नहीं कर सकते। क्योंकि मैंने पहली भूल ही नहीं की, आपके हाथ में वह ताकत ही नहीं दी। मैंने कभी आपसे कोई आशा नहीं बांधी। लेकिन मैं आपसे आशा बांध लूं, छोटी, सस्ती आशा बांध लूं कि रास्ते पर निकलेंगे तो कम से कम हाथ जोड़ कर नमस्कार करेंगे, तो भी आप मुझे निराश कर सकते हैं। आप मेरे मालिक हो गए। आज निकले रास्ते पर और आपने मुंह दूसरी तरफ कर लिया और नमस्कार नहीं किया, तो मेरी छाती में छुरे का घाव हो जाएगा। निराश हो गया मैं। तब मैं कहूंगा, जीवन बिलकुल बेकार है। इस आदमी पर इतना भरोसा किया था और यह नमस्कार तक नहीं कर रहा है! अगर आशा बांधी, तो निराशा हाथ लगती है; अगर उद्देश्य बनाया, तो एक दिन निरुद्देश्यता के गङ्ढे? गिर जाना पड़ता है।
लाओत्से कहता है, बनाओ ही मत, जीवन को जीओ बिना उद्देश्य के। और तब विषाद तुम्हारे भाग्य में कभी भी फलित नहीं होगा। तब तुम प्रतिक्षण ताजे और नए और आनंद से भरपूर हो सकोगे।
तो पहली तो बात, बड़ा विरोध लाओत्से का है उद्देश्य से। छोड़ दो उद्देश्य। मांगो ही मत भविष्य से कुछ। फिर भविष्य जो भी दे देगा, अनुग्रह है। मांगो ही मत। मांगा कि उपद्रव शुरू हो जाता है। और हम सब मांगते हैं। इसलिए हमारा पूरा जीवन एक उपद्रव हो जाता है। संबंध हों, तो हम मांगते हैं। अगर मैं किसी से प्रेम करूं, तो मांगता हूं। कल सुबह से फिर ललचाई आंखों से देखता हूं कि उसका प्रेम मुझे मिले। तब सब दुख हो जाता है। आदर, तो आदर मांगने लगता हूं। दया, तो दया मांगने लगता हूं। जो भी मेरी मांग है, वही फिर मुझे विषाद में गिराती चली जाती है।
और विषाद में गिर कर मैं मांगना बंद नहीं करता; मजे की बात यह है। अगर मैं आपसे नमस्कार मांगता था और आपने नहीं दी, तो इससे मैं यह नहीं सोचता कि मांगना ही बंद कर दूं। क्यों गुलाम बनता हूं? नहीं, मैं किसी दूसरे से मांगना शुरू कर देता हूं। कि यह आदमी गलत साबित हुआ, तो कोई दूसरा आदमी सही साबित होगा। लेकिन मेरी पुरानी आदत जारी रहती है। अगर मेरा प्रेम एक जगह असफल होता है, तो मैं दूसरे व्यक्ति से प्रेम करना शुरू कर देता हूं। अगर एक सीढ़ी पर मुझे रास्ता नहीं मिलता, तो मैं दूसरी सीढ़ी से अहंकार की खोज कर लेता हूं। अगर एक तरफ महत्वाकांक्षा टूटती है, तो मैं दूसरे मार्ग खोज लेता हूं। लेकिन मैं यह कभी नहीं सोचता कि क्या ऐसा भी नहीं हो सकता--लाओत्से यही कहता है--क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बिना उद्देश्य के कोई जीए?
हो सकता है। कठिन है, क्योंकि हमारा सारा शिक्षण उद्देश्य का है। कठिन है, क्योंकि हमारी पूरी संस्कृति उद्देश्य सिखाती है। कठिन है, क्योंकि समाज हमें बनाता ही उद्देश्य के लिए है। बाप के जो-जो उद्देश्य अधूरे रह गए, वह अपने बेटे की छाती में आरोपित कर जाता है। मां के जो-जो उद्देश्य अधूरे रह गए, वह उसकी बेटी में बीज डाल जाती है। मनसविद कहते हैं कि हर बेटा अपने बाप की निराशाओं-आशाओं का फिर से विस्तार करता है। हर बाप मरते दम तक, आखिरी दम तक इसी कोशिश में रहता है कि जो काम वह नहीं कर पाया, उसका बेटा पूरा कर जाए। आशाएं हमारी टूटती नहीं हैं। हम उन आशाओं को शाश्वत करना चाहते हैं।
इसलिए पुराने शास्त्र तो कहते हैं कि जिसका बेटा नहीं हुआ उसका जीवन बेकार है। बड़े मजे की बात है। जीवन अपना है, लेकिन बेटे के न होने से बेकार हो जाएगा। क्यों? क्योंकि अगर बेटा न हुआ, तो तुम्हारी अधूरी आकांक्षाओं का क्या होगा? तुम किसके कंधे पर सवार होकर शाश्वत की यात्रा पर निकलोगे? इसलिए बेटा तो होना ही चाहिए। तो अपना भी न हो, तो उधार भी लिया जा सकता है, गोद भी लिया जा सकता है। लेकिन मेरी अधूरी, दुष्पूर आकांक्षाओं को कोई तो अपने कंधे पर लेकर चले! मैं नहीं रहूंगा, लेकिन मेरी आशाएं--आश्चर्य है, मैं भी नहीं रहूंगा, फिर भी मेरी आशाएं बनी रहें।
लाओत्से कहता है, तुम भले रहो, आशाओं को जाने दो। और हम ऐसे हैं कि हम भला मिट जाएं, लेकिन हमारी आशाएं न मिटें
बेटों को मरते वक्त बाप कह जाते हैं कि ध्यान रखना अपने वंश की परंपरा का। उसी के अनुसार चलना। जो नहीं हम कर पाए, तुम करके दिखाना। आश्चर्य है, तुम भी कोरे गए, तुम व्यर्थ गए, तुम बेटे को भी व्यर्थ किए जा रहे हो! लेकिन हर बाप अपने रोगों को अपने बेटे को दे जाता है। हर पीढ़ी अपनी बीमारियां बड़ी सुविधा से, बड़ी व्यवस्था से नई पीढ़ी को सौंप जाती है धरोहर में। और इसलिए हर नई पीढ़ी और ज्यादा बीमार होती चली जाती है।
लोग कहते हैं, कलियुग कैसे आया? कलियुग आने का ढंग है यह। अगर दस हजार साल से हर बाप अपनी बीमारी बेटे को देता चला जा रहा है, तो बीमारियां तो बढ़ती चली जा रही हैं। और बेटे की ताकत! तो बीमारियों का ढेर होता चला जा रहा है। यह कलियुग आता है तुम्हारे सतयुग की सारी बीमारियों का संग्रह है। दशरथ राम को दे गए होंगे। राम लव-कुश को दे गए होंगे। और चला आ रहा है। तो एक-एक बेटे की छाती पर भारी पहाड़ इकट्ठे हो गए हैं। और उन पहाड़ों के नीचे वह दबा जा रहा है। लेकिन बाप देना चाहता है, क्योंकि अधूरी आशा अभी भी टिमटिमाती रहती है कि शायद कोई पूरा कर ले, मेरे खून का कोई हिस्सा पूरा कर ले।
लाओत्से कहता है कि क्या यह नहीं हो सकता कि तुम उद्देश्य से जीयो ही मत; तुम सिर्फ जीओ!
तथाकथित महात्मागण कहेंगे, वैसा जीवन तो पशुओं जैसा हो जाएगा, तो पशुओं जैसा हो जाएगा। एक अर्थ में वे ठीक कहते हैं और एक अर्थ में गलत कहते हैं। एक अर्थ में पशुओं जैसा हो जाएगा, क्योंकि पशु क्षण में ही जीते हैं। कल का उन्हें पता नहीं। टाइम कांशसनेस तो पशु को समय की कोई कल्पना नहीं होती। इसलिए वह जोड़ भी नहीं सकता। अतीत का भी स्मरण नहीं रख सकता ज्यादा। भविष्य का भी बहुत खयाल नहीं रख सकता। बहुत छोटा सा उसका समय का दायरा है। वह उसी में जीता है।
एक अर्थ में तो वे ठीक कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति, जो निरुद्देश्य जीता है, पशु की तरह हो जाएगा। लेकिन एक अर्थ में बिलकुल गलत कहते हैं। क्योंकि ऐसा जो व्यक्ति है, वह इसलिए नहीं क्षण में जीता कि उसे कल का पता नहीं है। उसे कल का पूरी तरह पता है, आपसे ज्यादा पता है; इसीलिए वह क्षण में जीता है। उसे पता है कि कल सिवाय विषाद के कुछ भी नहीं लाता। उसे पता है कि कल तक खींचने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए नहीं कि उसे समय का पता नहीं है, कि उसकी कोई समय की धारणा में कमी है। सच तो यह है कि समय का उसे इतना पता है कि समय उसे धोखा नहीं दे सकता। तो एक अर्थ में तो वह पशु जैसा जीएगा, पशु जैसा सरल हो जाएगा। वैसे आदमी की आंख में गाय की आंख जैसी झलक आ जाएगी। एक अर्थ में तो वह ऐसा हो जाएगा। और दूसरे अर्थ में वह परमात्मा जैसा हो जाएगा, क्योंकि समय उसे धोखा नहीं दे सकता।
लेकिन कठिनाई है। मैं अभी एक जैन मुनि विद्यानंद की एक छोटी सी किताब देख रहा हूं--समय का मूल्य। तो जैसा साधारण बुद्धि कहती है, एक क्षण को भी व्यर्थ मत खोओ, क्योंकि समय बहुत मूल्यवान है। इसलिए व्यर्थ मत खोओ, उस समय से कुछ कमाओ, अर्जित करो। दुकानदार ऐसी बात कहे, समझ में आता है। दुकानदार लिखे ही रहता है, टाइम इज़ वेल्थ; वह लिखे रहता है, समय धन है। लेकिन एक मुनि भी यही कहता है कि समय धन है, खोओ मत। इसको मोक्ष पाने में लगाओ, इसको आत्मा की खोज में लगाओ, इसको पुण्य में लगाओ। देखो, समय खो न जाए! क्योंकि समय लौट कर नहीं आएगा। लेकिन किसी चीज को पाने में लगाओ, अन्यथा खो गया, मतलब यह है। किसी चीज को पाने में लगाओ, अन्यथा खो गया। अगर कुछ न पाया, तो खो गया।
लाओत्से जो कह रहा है, वह गहरी धार्मिक बात है। वह दुकानदार की भाषा नहीं है।
और असल में, जो साधु दुकानदारों को प्रभावित कर पाते हैं, उसका कारण कुल इतना ही होता है कि भाषा दोनों की एक ही होती है। नहीं तो प्रभावित भी नहीं कर सकते। दुकानदार भी सिर हिलाता है कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, टाइम इज़ वेल्थ, समय धन है, बिलकुल है। अब रह गई बात इतनी कि उस धन की परिभाषा क्या करें। इसी जमीन में तिजोरी भरने को धन कहें कि पुण्य को धन कहें, यह परिभाषा की बात है। लेकिन समय धन है। और जिसने गंवाया, वह बेकार गया। कमाओ, समय को नियोजित करो और कुछ कमाओ, किसी उद्देश्य पर समर्पित करो, तो ही तुम धनी हो पाओगे। चाहे तिजोरी वाले धनी, चाहे पुण्य वाले धनी, लेकिन धनी तुम तब ही हो पाओगे, जब समय को तुम धन में बदल लो।
लाओत्से कहता है, समय को बदलना ही मत धन में। समय जीवन है, तुम उसे जी लो। तुम उसमें डूब जाओ। तुम उसमें नहा लो। तुम उससे कुछ आगे पाने की चेष्टा मत करो। अभी, अभी इसी समय तुम उसमें इतने लीन हो जाओ कि तुम और तुम्हारे समय में कोई फासला न रह जाए। समय धन नहीं है, समय जीवन है। और समय से कुछ भी नहीं कमाया जा सकता, क्योंकि समय स्वयं ही अपना लक्ष्य है। जो समय से कमाने जाएगा, वह दरिद्र भिखारी की तरह मरेगा। जो समय को जीएगा अभी और यहीं, वह सम्राट हो जाएगा। सम्राट हो जाएगा इसलिए कि हर क्षण जीकर जीवन की संपदा, जीवन का रस, जीवन की अनुभूति प्रगाढ़ हो जाएगी। वह जीवंत से जीवंत होता चला जाएगा, उसका जीवन निखरता चला जाएगा। हर क्षण समय का उसके जीवन की तलवार पर और धार रख जाएगा। और उसके जीवन की सुरा और सघन, और गहन हो जाएगी। और उसके जीवन का नृत्य और कुशल, और आनंदपूर्ण हो जाएगा। लेकिन यह हो जाएगा यहीं और अभी--एक।
और दूसरा, लाओत्से कहता है कि क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे को खोलने और बंद करने की प्रक्रिया में एक स्त्रैण पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता?
इसे थोड़ा समझना पड़े। एक तो पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है और एक स्त्रैण चित्त के काम करने का ढंग है। लाओत्से स्त्रैण चित्त के पक्ष में है। एक पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है; पुरुष चित्त के काम करने का ढंग है आक्रमण, एग्रेशन। पुरुष से मतलब नहीं है, यह सिर्फ प्रतीक है। आक्रमण की जो व्यवस्था है, किसी चीज को पाना हो तो एक ढंग है: आक्रमण करो और पा लो। इसे लाओत्से कहता है, यह पुरुष चित्त का ढंग है। एक दूसरा है: आक्रमण मत करो, सिर्फ प्रतीक्षा करो और निमंत्रण दो। आक्रमण नहीं, निमंत्रण। एग्रेशन नहीं, इनवीटेशन। इसे लाओत्से स्त्रैण चित्त की व्यवस्था कहता है।
अगर हम उद्देश्यपूर्ण जीवन जीते हैं, तो हम पुरुष चित्त की तरह जीएंगे। क्योंकि जिसे उद्देश्य को पूरा करना है, उसे प्रतिपल आक्रमण करना पड़ेगा। रोज उसे आक्रमण करना पड़ेगा कल पर, क्योंकि उद्देश्य कल है। और आक्रमण की तैयारी करनी है। तो वह रोज आक्रमण की तैयारी और आक्रमण करता रहेगा। हमलावर होगा वह। जिंदगी के साथ उसका संबंध दोस्ती का नहीं, दुश्मनी का होगा। जैसा पश्चिम में लोग कहते हैं कि प्रकृति पर विजय पानी है! उसकी भाषा विजय की होगी। जो भी चीज है, उसको जीतना है।
लाओत्से कहता है, यह जीतने वाला चित्त सब कुछ हार जाता है। जिंदगी की पहेली में जो जीतने चलता है, वह हार जाता है। क्योंकि जीतना तो सदा भविष्य में ही हो सकता है, कल ही हो सकता है। आज तो तैयारी में ही बिताना पड़ता है, आज तो तैयारी ही करनी पड़ती है। कल के लिए तैयारी करनी पड़ती है। प्रेम तो अभी हो सकता है, लेकिन युद्ध अभी नहीं हो सकता। क्योंकि प्रेम के लिए किसी तैयारी की जरूरत नहीं है, युद्ध के लिए तैयारी की जरूरत है। खयाल करते हैं आप? प्रेम तो अभी हो सकता है, यहीं, इसी क्षण। लेकिन युद्ध अभी नहीं हो सकता। युद्ध के लिए तैयारी करनी पड़ती है।
इतिहासविद कहते हैं कि अब तक इतिहास ने दो तरह के समय जाने हैं: युद्ध का समय और युद्ध की तैयारी का समय। शांति तो अब तक जानी नहीं। दस-पंद्रह साल एक मुल्क को युद्ध की तैयारी करनी पड़ती है, फिर युद्ध करना पड़ता है; फिर तैयारी करनी पड़ती है, फिर युद्ध करना पड़ता है। आक्रमण पुरुष चित्त का लक्षण है: जीतो, युद्ध करो, संघर्ष करो। जगत एक शत्रु है। और अस्तित्व और हमारे बीच कोई मैत्री नहीं है। निमंत्रण तो मित्र को देना पड़ता है, प्रेमी को। आक्रमण शत्रु पर करना होता है।
स्त्रैण चित्त का अर्थ लाओत्से लेता है, वह जो ग्राहकता की क्षमता है।
पुरुष और स्त्री की जो यौन-व्यवस्था है, उसमें बुनियादी फर्क है। पुरुष की यौन-व्यवस्था आक्रमण की है। इसलिए कोई स्त्री बलात्कार नहीं कर सकती। उसकी यौन-व्यवस्था से बलात्कार घटित नहीं हो सकता। अगर स्त्री को बलात्कार भी करना हो, तो पुरुष की सहायता की जरूरत है। स्त्री बलात्कार करवा सकती है, कर नहीं सकती। क्योंकि पुरुष अगर सहयोग न दे, तो स्त्री बलात्कार कैसे करे? लेकिन पुरुष बलात्कार कर सकता है, स्त्री के सहयोग की अनिवार्यता नहीं है। बल्कि कुछ लोगों को बलात्कार के सिवाय प्रेम में रस ही नहीं आता, क्योंकि बलात्कार में ही आक्रमण का पूरा रस मिलता है।
इसलिए जो स्त्री उपलब्ध हो जाती है, पुरुष को उसमें रस नहीं आता। क्योंकि जीत का काम ही समाप्त हो गया। जो स्त्री उपलब्ध नहीं होती, उसमें उसे रस आता है। तो जितनी अनुपलब्ध स्त्री हो, पुरुष के लिए उतना रस का कारण होती है। जितनी दूर हो, उतना रस का कारण होती है। क्योंकि उसे पाना मुश्किल है, तो पाने के लिए संघर्ष और युद्ध और आक्रमण और तैयारी करनी पड़ती है। उसमें उसके पुरुष चित्त को, आक्रामक चित्त को रस मिलता है।
स्त्री काम-व्यवस्था से भी आक्रमण नहीं कर सकती और उसका चित्त भी आक्रामक नहीं है। वह ग्राहक है, रिसेप्टिव है। वह सिर्फ स्वीकार करती है, वह सिर्फ अंगीकार करती है। उसके अंगीकार में ही जगत के प्रति, जीवन के प्रति एक सदभाव है।
लाओत्से के हिसाब से अस्तित्व से हमारे दो तरह के संबंध हो सकते हैं: एक संबंध आक्रमण का; और एक संबंध मैत्री का, प्रेम का, निमंत्रण का। तो वह कहता है, एक स्त्रैण पक्षी की तरह, एक स्त्रैण चित्त की तरह, क्या यह नहीं हो सकता कि तुम अपने स्वर्ग के दरवाजे को भी इस तरह ठोंको-पीटो मत, धकाओ मत।
स्वामी राम कहा करते थे कि दरवाजे दो तरह से हो सकते हैं। एक तो दरवाजा जिसमें पुश लिखा रहता है--धक्का दो! और एक दरवाजा जिस पर पुल लिखा रहता है--अपनी तरफ खींचो!
स्त्रैण चित्त का जो दरवाजा है, उस पर है पुल--खींचो। स्त्री सिर्फ खींचती है। जाती नहीं, सिर्फ बुलाती है। पुरुष का चित्त जो है, वह धक्के देता है। यह जो धक्के देने की चेष्टा है, क्या स्वर्ग के दरवाजे खोलने में भी तुम आक्रामक की तरह प्रवेश करोगे? क्या एक नेपोलियन और एक सिकंदर और एक हिटलर की तरह स्वर्ग के दरवाजे पर भी पहुंच जाओगे? क्या वहां भी तुम हमला करोगे? परमात्मा पर भी हमला करोगे?
पुरुष परमात्मा पर भी हमला करने ही निकलता है। जब कोई पुरुष परमात्मा को खोजने निकलता है, तो उसका भाव ऐसा होता है कि देखें, कहां है? खोज कर रहेंगे! वह मीरा की तरह नाचता हुआ नहीं जाता परमात्मा की तरफ, एग्रेसिव होता है। उसकी सारी चेष्टा ऐसी होती है कि खोज कर रहेंगे। शायद इसीलिए पुरुष...। पुरुष से मतलब पुरुष ही नहीं, क्योंकि पुरुष भी मीरा की तरह जा सकते हैं, एक कबीर नाचता हुआ जा सकता है। और मीरा भी चाहे तो पुरुष की तरह जा सकती है। ये सिर्फ प्रतीक हैं, खयाल रखना। पुरुष से मतलब पुरुष का ही नहीं, स्त्री से मतलब स्त्री का ही नहीं। स्त्री पुरुष की तरह व्यवहार कर सकती है, पुरुष स्त्री की तरह व्यवहार कर सकता है।
स्त्रैण चित्त खोजने भी जाता है, तो निमंत्रण की तरह। और अगर स्त्रैण चित्त को न मिले, तो वह यह नहीं कहेगा कि तू कसूरवार है, कहां छिपा है कि मुझे मिलता नहीं? स्त्रैण चित्त इतना ही कहेगा कि जरूर मेरे निमंत्रण में कमी रह गई और मेरी प्रतीक्षा की पुकार पूरी नहीं थी। तू तो यहीं कहीं है। लेकिन मैं अपने द्वार नहीं खोल पाया। मेरे द्वार अधखुले या बंद रह गए।
इस फर्क को समझ लें। ईश्वर को खोजने का जो ज्ञानी का ढंग है, वह पुरुष का ढंग है। ईश्वर को खोजने का जो भक्त का ढंग है, वह स्त्री का ढंग है। इसलिए भक्त अगर ऐसा कहने लगे तो वह प्रतीक भाषा थी कि कृष्ण के सिवाय कोई पुरुष नहीं। वह सिर्फ प्रतीक भाषा थी, क्योंकि बाकी सब खोजने वाले हैं, तो उन्हें स्त्री होना ही चाहिए। इसका कोई और मतलब नहीं है, इसका यह मतलब नहीं है कि बाकी सब स्त्रियां हैं।
कुछ नासमझ वैसा भी समझे। तो बंगाल में एक संप्रदाय है, सखी संप्रदाय। तो सखी संप्रदाय को मानने वाला पुरुष भी कृष्ण की मूर्ति रात छाती से लगा कर बिस्तर में सोता है, सखी बन कर।
अब मैं मानता हूं कि यह भला कितना ही सखी बन रहा हो, लेकिन एक बात पक्की है कि कृष्ण की मूर्ति यही उठा कर अपनी छाती से लगाता है। और यही रात उसको छाती से दबा कर सोता होगा; कृष्ण की मूर्ति इसकी छाती को नहीं दबाती होगी। यह भला अपने को सखी कह रहा हो, लेकिन इसका सारा ढंग पुरुष का है। यही कर रहा है कुछ, कृष्ण बिलकुल इसमें अपराधी नहीं हैं, इसमें बिलकुल निर्दोष हैं। अगर कभी मुकदमा चले, तो यही फंसेगा। असल में, पुरुष छोड? नहीं सकता अपने को, कुछ करके रहेगा। किए बिना उसे चैन नहीं है।
लाओत्से कहता है, छोड़ दो, लेट गो। विश्राम में हो जाओ, चीजों को घटित होने दो। घटाने की इतनी आतुरता मत करो। इतनी जल्दबाजी और इतना आग्रहपूर्ण रुख मत रखो कि ऐसा ही हो। जो हो जाए, उसे स्वीकार करने की क्षमता रखो। और द्वार खुले रखो, और राजी रहो, जो हो जाए। और इस जगत से, अस्तित्व से शत्रुता मत लो। एक मैत्री का भाव रखो, तो जगत जो भी करवाए, वह ठीक होगा। ऐसी एक छिपी हुई सदभावना, ऐसी एक निकटता अस्तित्व के साथ कि अस्तित्व जो भी करेगा, वह ठीक होगा। इस भाव के साथ जीने का नाम स्त्रैण ढंग है।
और तीसरा सूत्र है, "जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?'
और जब ज्ञान परिपूर्ण हो, तब भी क्या ज्ञानी होने का दंभ बचाने की जरूरत है? और जब मेधा अपनी पूरी ज्योति में जलती हो, तब भी क्या बताना पड़ेगा कि मैं ज्ञानी हूं?
असल में, जब तक कोई कहता रहता है मैं ज्ञानी हूं, तब तक जानना कि अज्ञान शेष है। क्योंकि ज्ञान कैसे दावा करेगा? ज्ञान दावेदार नहीं होता, सब दावे अज्ञान के हैं। ज्ञान कैसे कहेगा कि मैंने जान लिया? क्योंकि सच तो यह है कि जैसे ही कोई जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि जानना असंभव है। जैसे ही कोई जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि कितना ही जानो, जानने को सदा शेष है। जैसे ही कोई जानता है, उसे पता चल जाता है कि मैंने अपने हाथ में जो चुल्लू भर पानी ले लिया है, वह उस सागर का हिस्सा है जो अनंत है और मेरी मुट्ठी में समाने वाला नहीं है। सच तो यह है कि जानता वही है, जिसकी मुट्ठी ही खो जाती है। जानता वही है, जिसकी पकड़ ही खो जाती है। जो सागर में ऐसे लीन हो जाता है, जैसे कोई नमक की डली को डाल दे और नमक एक हो जाए, सागर के साथ एक हो जाए। बचता कहां है जानने वाला!
तो जिसे जानने की यात्रा पर निकलना है, उसे मिटने की यात्रा पर निकलने की तैयारी चाहिए। उद्देश्य जहां है, वहां मिटना नहीं हो सकता। वहां तो अहंकार मजबूत होता है। लेकिन जहां कोई उद्देश्य नहीं है, वहां अहंकार के बचने का कोई कारण नहीं। मैं अभी मिट गया, अगर मुझे कल की कोई चिंता नहीं है। अगर आने वाले क्षण में क्या होगा इसकी मेरी कोई योजना नहीं है, अगर मैंने आने वाले क्षण के साथ आग्रह नहीं रखा है कि यही होगा तो ही मैं सुख पाऊंगा अन्यथा दुखी हो जाऊंगा, तो मैं मिट गया, अभी मिट गया। क्षण आएगा, मेरा अस्तित्व भी होगा, लेकिन मेरा मैं नहीं होगा। मैं हमारी आग्रहपूर्ण योजनाओं का जोड़ है। तो जितना हमारा भविष्य से आग्रह है, उतना हमारा मैं है।
लाओत्से कहता है कि क्या जान लेने के बाद भी ऐसा नहीं जीया जा सकता कि जैसे नहीं जानता हूं?
लाओत्से से कोई पूछता सवाल, तो कभी-कभी तो लाओत्से घंटों चुप रह जाता था। पूछने वाला सवाल भूल जाता। तब लाओत्से फिर से पूछता, क्या पूछा था? वह आदमी कहता, अब तो मैं भी भूल गया, अब मैं फिर कभी आऊंगा। वह आदमी कहता कि लेकिन जब मैंने पूछा था, तब आपने जवाब नहीं दिया! तो लाओत्से कहता, मुझे जवाब पता होता, तो मैं दे देता। मैं रुका, ठहरा, मैंने प्रतीक्षा की कि शायद जवाब आ जाए, शायद जवाब आ जाए। इसलिए तुमसे फिर पूछता हूं कि तुम्हारा सवाल क्या था?
लाओत्से जिंदगी भर कुछ भी नहीं लिखा। यह छोटी सी किताब आखिरी किताब है--आखिरी और पहली। उसने कोई और किताब लिखी नहीं। जिंदगी भर शिष्य उसके कहते रहे, कुछ लिखो। लाओत्से कहता, लेकिन मैं जानता कहां हूं? और अज्ञान तुम्हारे हाथ में दे जाऊं, तो खतरनाक है। लेकिन जितना लाओत्से इनकार करता गया, इनकार करता गया, उतना लाखों लोग उस पर दबाव डालने लगे कि कुछ लिख जाओ। फिर भी लाओत्से एक रात निकल भागा बिना कुछ लिखे। वह तो सीमा पर पकड़ लिया गया मुल्क की। मुल्क छोड़ते वक्त चुंगी नाके पर पकड़ लिया गया। और चुंगी का जो आफिसर था, उसने कहा, बाहर न जाने दूंगा, जब तक कुछ लिख कर न दे दो। इस मजबूरी में लिखी है यह किताब। उसने कहा कि तीन दिन रुक जाओ यहां, अन्यथा सीमा के पार नहीं निकलने दूंगा। तो जो तुम जानते हो, वह लिख जाओ।
लाओत्से बड़ी मुश्किल में पड़ा। जिंदगी भर जो चुप रहा, चुप्पी को जिसने साधन बनाया, ज्ञान की जिसने कभी घोषणा न की, उसको लिखने की मजबूरी खड़ी हो गई; क्योंकि वह निकलने देने की बात थी। उसे जाना था मुल्क के बाहर। उसे जाना था पर्वतीय एकांत में लीन होने को सदा को। और यह आदमी जाने नहीं देगा। तो तीन रात सोया नहीं, तीन रात में यह किताब, इसको अगर किताब कह सकें तो, उसने लिखी। लेकिन पहली बात यही लिखी कि जो जाना जाता है, वह कहा नहीं जा सकता; और जिसे शब्द कहते हैं, वह सत्य नहीं है। यह उसने पहले लिखा। फिर पीछे किताब शुरू की।
तो वह कहता है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जो जान ले, वह न जानने जैसे भाव में प्रतिष्ठित हो जाए?
हो नहीं सकता, ऐसा होता ही है। ऐसा होता ही है। लेकिन इस बात को भी एक डॉगमेटिक एसर्शन, एक रूढ़ वक्तव्य न बन जाए, इसलिए झिझकते हुए लाओत्से प्रश्न के रूप में कहता है। वह कहता है, जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो, जब वह सब कुछ जानने की स्थिति में खड़ा हो जाए, जब सब द्वार उसके लिए खुल गए हों और सभी आयाम से प्रकाश उस पर पड़ता हो, तो क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता? प्रश्न में इसलिए रखता है, ताकि एक झिझक, जो कि परम ज्ञानी का लक्षण है। झिझक परम ज्ञानी का लक्षण है, बेझिझक अज्ञानी वक्तव्य देते हैं। झिझक ज्ञानी का लक्षण है।
महावीर से कोई पूछता था, तो वे स्यात लगाए बिना वक्तव्य नहीं देते थे। कोई उनसे पूछता, ईश्वर है? तो महावीर कहते, स्यात। परहेप्स, शायद है। कभी कहते, स्यात नहीं है। कभी कहते, शायद दोनों ही बातें सच हैं।
परम ज्ञानी गणित जैसे वक्तव्य नहीं दे सकता कि दो और दो चार होते हैं। क्योंकि जीवन इतनी बड़ी पहेली है, इतना बड़ा रहस्य है कि जिसने बहुत साफ-साफ वक्तव्य दिए, वह ठीक से समझ ले कि बहुत कुछ उसे छोड़ देना पड़ेगा। वक्तव्य को साफ बनाने के लिए बहुत कुछ छोड़ देना पड़ेगा। वह भी जीवंत था। और जो हमने छोड़ दिया है, वह आज नहीं कल बदला लेगा।
इसलिए लाओत्से ऐसा नहीं कहता, क्योंकि वह कहना भी बहुत अथारिटेटिव, बहुत आप्त हो जाता। लाओत्से ऐसा भी कह सकता था--इस फर्क को समझें--लाओत्से यह भी कह सकता था कि जो ज्ञानी है, उसे अज्ञानी जैसा व्यवहार करना चाहिए। बात यही होती, लेकिन यह वक्तव्य अज्ञानपूर्ण हो जाता। यह वक्तव्य अज्ञानपूर्ण हो जाता।
मैंने सुना है, सुकरात के पास उस जमाने का एक बहुत बड़ा तर्कनिष्ठ, एक सोफिस्ट मिलने आया।
सुकरात तो बहुत झिझकता था। सुकरात का चित्त लाओत्से जैसा रहा होगा। अगर पश्चिम में कोई एक आदमी हुआ है जो लाओत्से के निकट पहुंचे, तो वह सुकरात है। सुकरात लोगों से सवाल पूछता था, लेकिन खुद कभी जवाब नहीं देता था। तो लोग तो...इसीलिए उसको जहर देने में एक कारण यह भी था कि लोगों को उसने बहुत परेशान कर दिया। सवाल हमेशा पूछेगा और जवाब कभी नहीं देगा। क्योंकि सुकरात कहता, मैं जानता कहां हूं? अज्ञानी हूं, इसलिए सवाल तो पूछने का मुझे हक है। लेकिन ज्ञान नहीं है, इसलिए जवाब मैं क्या दूं? और ऐसे आदमी से आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे, जो जवाब न दे और सवाल पूछे। क्योंकि सवाल तो अंतहीन पूछे जा सकते हैं। और जो खुद जवाब न दे, उससे आप एक भी सवाल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उसने कभी कोई जवाब नहीं दिया जिस पर सवाल उठाए जा सकें।
तो पूरा एथेंस सुकरात से परेशान हो गया था। रास्ते पर लोग उसे देख कर गली से बच कर निकल जाते थे कि अगर वह मिल गया और कुछ सवाल पूछ लिया, तो भीड़ इकट्ठी हो जाएगी और झंझट खड़ी हो जाएगी। क्योंकि आप जितनी बातें जानते हुए मालूम पड़ते हैं, उनमें से एक का भी आपको पता कहां है? वह तो कोई पूछता नहीं है, इसलिए आप मजे से अपने ज्ञान में थिर रहते हैं। अगर कोई पूछ ले, तो आप मुश्किल में पड़ेंगे। पूछते भी लोग इसीलिए नहीं हैं कि जो आपसे पूछे, वह भी झंझट में पड़ेगा। उसको भी अपना ज्ञान बचाना है। आपको अपना बचाना है। एक म्यूचुअल कांस्पिरेसी है; अज्ञानियों का एक षडयंत्र है सामूहिक। क्योंकि अगर आपसे कोई पूछे कि ईश्वर है? तो आप ही मुश्किल में नहीं पड़ेंगे, उस आदमी से भी आप पूछ सकते हैं कि आपका क्या मानना है? वह भी कुछ मानता है। आत्मा है? वह कठिनाई खड़ी होगी। इसलिए हम अज्ञान एक-दूसरे का छेड़ते ही नहीं। अपने अज्ञान में हम ज्ञानी, आप अपने अज्ञान में ज्ञानी! हम एक-दूसरे का ज्ञान सम्हालते हैं। अशिष्टाचार है इस तरह की बातें उठाना।
यह सुकरात अशिष्ट था। सुकरात को जहर देने के पहले मजिस्ट्रेट ने कहा है कि अगर तुम यह सत्य बोलने का काम बंद कर दो, तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं। सुकरात ने कहा, लेकिन यह मेरा धंधा है। मैं सत्य बोलना बंद कैसे कर सकता हूं? क्योंकि मैं जो बोलता हूं, वह सत्य ही होता है। तुम तो यह कह रहे हो कि मैं बोलना ही बंद कर दूं। तो फिर जीकर भी, ऐसी परतंत्रता में जीकर भी क्या होगा?
सुकरात जवाब नहीं देता, सवाल पूछता है। यह एक तर्कनिष्ठ, सोफिस्ट सुकरात को मिलने आया है। तो वह तो तर्कवादी है। उसने अपने तर्क का एक सिद्धांत सुकरात को कहा। उसने सुकरात को कहा कि इस जगत में कोई भी चीज निरपेक्ष नहीं है, एब्सोल्यूट नहीं है। कोई भी चीज इस जगत में पूर्ण नहीं है। न कोई मनुष्य पूर्ण है, न कोई सत्य पूर्ण है, न कोई सिद्धांत पूर्ण है; इस जगत में कोई भी चीज पूर्ण नहीं है। सुकरात ने उससे पूछा कि तुम्हारा यह वक्तव्य पूर्ण सत्य है या नहीं? जोश में था तर्कशास्त्री, वह भूल ही गया कि फंसा जा रहा है। उसने कहा, यह पूर्ण सत्य है। सुकरात ने कहा, अब मुझे कहने को कुछ भी नहीं बचता है। बात समाप्त हो गई। अब तुम सोचना।
जब भी हम किसी चीज की पूर्णता का दावा करते हैं, तब हमें पता नहीं कि यह जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है, दो और दो जैसा नहीं है कि चार हो जाए। कुछ छूट गया, वही हमारी मौत बनेगा। इस आदमी ने अगर ऐसा कहा होता कि जगत में कुछ सत्य पूर्ण हैं, कुछ सत्य पूर्ण नहीं हैं; इस आदमी ने ऐसा कहा होता कि शायद जगत में कोई सत्य पूर्ण नहीं है, तो सुकरात इसको दिक्कत में नहीं डाल सकता था। लेकिन इस आदमी ने कहा कि जगत में कोई सत्य पूर्ण नहीं है। इसने इसी वक्त कह दिया कि कम से कम मेरा सत्य पूर्ण है। यह इसमें अपूर्णता को कहीं गुंजाइश ही नहीं बची, कोई गुंजाइश नहीं बची। कम से कम एक बात पूर्ण है, यह तो इसने घोषणा कर ही दी। और वह एक बात भी अगर पूर्ण है, तो इसका वक्तव्य गलत हो गया।
जब भी हम घोषणाएं करते हैं रूढ़बद्ध और विपरीत को भूल जाते हैं, तो विपरीत बदला लेता है। इसलिए लाओत्से ऐसा नहीं कहता कि वह आदमी अज्ञानी है जो ज्ञान का दावा करता है, क्योंकि यह भी तो ज्ञान का दावा हो जाएगा--यह भी। इसलिए लाओत्से कहता है, क्या ऐसा नहीं हो सकता, क्या ऐसा संभव नहीं है कि जिसके सब द्वार ज्ञान के खुल गए हों, वह अज्ञानी जैसा व्यवहार कर सके? एक प्रश्न में रखता है इस बात को बहुत झिझक के साथ। यह लाओत्से की जो नमनीय प्रज्ञा है, वह जो कोमल प्रज्ञा है, वह जो तरल चेतना है, उसका लक्षण है।
ये तीन सूत्र--उद्देश्य-मुक्त जीवन, आमंत्रण से भरा हुआ भाव, ज्ञानरहित होने की तैयारी, साहस--जिस व्यक्ति में हों, उस व्यक्ति को वह जीवन का जो परम लक्ष्य है, परम जीवन जो है, वह अभी और यहीं उपलब्ध हो जाता है। उसके लिए फिर कल के लिए बाट नहीं जोहनी पड़ती। उसे फिर कल के लिए स्थगित भी नहीं करना पड़ता। फिर ऐसे व्यक्ति का मोक्ष मृत्यु के बाद नहीं, अभी और यहीं है। और ऐसे व्यक्ति का परमात्मा किसी दूसरे लोक में वास नहीं करता, अभी और यहीं, चारों तरफ से उसे घेरे हुए है। और ऐसे व्यक्ति को पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता, क्योंकि जीवन की सारी संपदा के द्वार अभी और यहीं खुल जाते हैं।

शेष हम कल बात करें।
पांच मिनट बैठेंगे, कीर्तन में सम्मिलित हों। जिन मित्रों को यहां नीचे खड़े होकर कीर्तन में सम्मिलित होना हो, वे भी आगे आ जाएं।


1 टिप्पणी:

  1. बहुत सुंदर कलेक्शन है ओशो महाराज के सारे प्रवचनों का। आओ सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।

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