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गुरुवार, 28 जून 2018

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--079

ताओ सब से परे है—(प्रवचन—उन्‍नासिवां)

अध्याय 42

हिंसक मनुष्य

ताओ से एक का जन्म हुआ;
एक से दो का; दो से तीन का;
और तीन से सृष्ट ब्रह्मांड का उदय हुआ।
सृष्ट ब्रह्मांड के पीछे यिन का वास है
और उसके आगे यान का;
इन्हीं व्यापक सिद्धांतों के योग से
वह लयबद्धता को प्राप्त होता है।
"अनाथ', "अयोग्य' और "अकेला' होने से
मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।
तो भी राजा और भूमिपति अपने

को इन्हीं नामों से पुकारते हैं;
क्योंकि चीजें कभी घटाई जाने से
लाभ को प्राप्त होती हैं
और बढ़ाई जाने से हानि को।
दूसरों ने इसी सूत्र की शिक्षा दी है,
मैं भी वही सिखाऊंगा:
"हिंसक मनुष्य की मृत्यु हिंसक होती है।'
इसे ही मैं अपना आध्यात्मिक गुरु मानूंगा।
 "ताओ से एक का जन्म हुआ।'

ताओ पर्यायवाची है शून्य का। वेदांत जिसे एक ब्रह्म कहता है, ताओ उससे भी पीछे है। जिसे वेदांत एक ब्रह्म कहता है, अद्वैत कहता है, लाओत्से कहता है, वह भी ताओ से पैदा हुआ। ताओ को एक भी कहना उचित नहीं। ताओ है शून्य। ताओ है स्वभाव।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। स्वभाव ही एकमात्र अस्तित्व है; बाकी सब स्वभाव से पैदा होता है। इस स्वभाव को मानने, स्वीकार करने के लिए कोई विश्वास, कोई शास्त्र आवश्यक नहीं। स्वभाव हमारे भीतर उसी भांति मौजूद है जैसा पूरा अस्तित्व। उसे हम यहीं और अभी, इस क्षण भी जान ले सकते हैं। ब्रह्म एक सिद्धांत है, ईश्वर एक धारणा है; लेकिन ताओ एक अनुभव है।
ताओ का अर्थ है: तुम जिससे पैदा हुए, जो तुम्हारे भी पहले था, और तुम जिसमें लीन हो जाओगे और जो तुम्हारे बाद भी होगा। ताओ का कोई व्यक्तित्व नहीं है। जैसे सागर में लहरें उठती हैं ऐसा स्वभाव में अस्तित्व की, व्यक्तित्व की लहरें उठती हैं। यह जो ताओ है इसे कोई धार्मिक-अधार्मिक विभाजन में बांटने की जरूरत नहीं है। नास्तिक भी इसे स्वीकार कर लेगा।
इसलिए लाओत्से का विचार नास्तिकता और आस्तिकता का अतिक्रमण कर जाता है। ईश्वर को नास्तिक स्वीकार करने को राजी नहीं होगा। ब्रह्म को शायद अस्वीकार करे; आत्मा के संबंध में विवाद उठाए; लेकिन स्वभाव के संबंध में कोई विवाद नहीं है। विज्ञान जिसको नेचर कहेगा, लाओत्से उसी को ताओ कह रहा है।
इस ताओ को एक भी कहना उचित नहीं। क्योंकि हम गणना उसी की कर सकते हैं जिसकी कोई सीमा हो, और एक भी हम तभी कह सकते हैं जब दो और तीन होने का उपाय हो। ताओ शून्य ही हो सकता है, जिससे सारी संख्याएं पैदा होती हैं और सारी संख्याएं जिसमें लीन हो जाती हैं। ताओ स्वयं कोई संख्या नहीं है। जहां से संख्या शुरू होती है वहीं से संसार शुरू हो जाता है।
इस देश ने तो एक पूरे विचार पद्धति को जन्म दिया; जिसका नाम सांख्य है।
सांख्य का अर्थ है, अस्तित्व की संख्या की गणना। जहां से सांख्य शुरू होता है वहां से संसार शुरू हो जाता है। जिसकी हम गणना कर सकें, जिसे हम गिन सकें, जिसकी हम कोई धारणा बना सकें, और जिसकी परिभाषा हो सके, वह हमसे छोटा होगा। जिसका हम अध्ययन कर सकें, मनन कर सकें, सोच-विचार कर सकें, वह हमसे छोटा होगा। हमसे जो विराटतर है, जिससे हम पैदा होते हैं, उसकी कोई गणना नहीं हो सकती, उसकी कोई संख्या नहीं हो सकती। उस संबंध में हम जो भी कहेंगे, वह गलत होगा। उस संबंध में हम सिर्फ चुप और मौन ही हो सकते हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है, "ताओ से एक का जन्म हुआ।'
ताओ के बाद जो भी जगत में है उसे समझने का उपाय है। उसकी परिभाषा भी हो सकती है, उसके सिद्धांत भी निर्मित हो सकते हैं, उसे शास्त्र में बांधा जा सकता है। लेकिन ताओ के संबंध में कोई सिद्धांत, कोई बुद्धि, कोई विचार काम नहीं आएगा। अगर ताओ को पहचानना हो तो सोचने की, समझने की, संख्या को गिन लेने की जो क्षमता है, जो बुद्धिमत्ता है, उसे हमें त्याग देना पड़े। जैसे ही हम विचार छोड़ते हैं वैसे ही शून्य में प्रवेश हो जाते हैं। अगर आपके भीतर कोई विचार की तरंग नहीं है तो आप जहां होंगे वही ताओ है। अगर कोई भी कंपन नहीं भीतर, चेतना में कोई भी लहर नहीं, अकंप, कोई विचार नहीं बनता, आकाश खाली है, कोई विचार का बादल नहीं तैरता, उस क्षण में आप जहां होंगे वही ताओ है।
लेकिन उस क्षण में अकेले आप ही होंगे, और कुछ भी नहीं होगा। यह पूरा संसार भी नहीं होगा। और आप भी ऐसे नहीं होंगे कि कह सकें कि मैं हूं; सिर्फ होना मात्र होगा। इसे कहते ही से तो एक का जन्म हो जाएगा कि मैं हूं। और जैसे ही इसे कहेंगे वैसे ही दूसरे का भी जन्म हो जाएगा। क्योंकि किससे कहेंगे कि मैं हूं! जैसे ही कोई कहता है मैं हूं, संसार शुरू हो गया। इसलिए परम ज्ञानियों ने कहा है, जब तक मैं न छूट जाए तब तक सत्य का कोई अनुभव न होगा। क्योंकि मैं के साथ ही संसार खड़ा हो जाता है। इधर मैं निर्मित हुआ कि वहां तू आया। क्योंकि बिना तू के मैं निर्मित नहीं हो सकता। और जहां दो आ गए वहां शृंखला शुरू हो गई।
"एक का जन्म होता है ताओ से; एक से दो का, दो से तीन का।'
इसे थोड़ा समझ लें। ताओ अगर शून्य स्वभाव है। तो जैसे ही हम कहते हैं मैं, एक का जन्म हो गया। लाओत्से की भाषा में अस्मिता का बोध, अहं-बोध संसार का प्रारंभ है। वह बीज है। जैसे ही मैंने कहा मैं, मैं किसी से कहूंगा, किसी की अपेक्षा में कहूंगा--कोई सुनता हो, चाहे न सुनता हो--लेकिन जब भी मैं कहता हूं मैं हूं, तो मैं दूसरे की अपेक्षा में ही कहता हूं। वह मौजूद न भी हो तो भी दूसरा मौजूद हो गया। शब्द अकेले में व्यर्थ है; दूसरे के साथ ही उसकी सार्थकता है। भाषा अकेले में व्यर्थ है; दूसरे के साथ संवाद या विवाद में ही उसका उपयोग है। जैसे ही मैंने कहा मैं; मैं एक सेतु है जो मैंने दूसरे के ऊपर फेंका, एक ब्रिज मैंने बनाया। दूसरा आ गया। और जैसे ही दूसरा आया, तीसरा प्रविष्ट हो जाता है। क्योंकि दो के बीच जो संबंध है वह तीसरा है। मैं हूं, आप हैं। फिर मेरे मित्र हैं या मेरे शत्रु हैं या पिता हैं या बेटे हैं या भाई हैं, या मेरे कोई भी नहीं हैं। जैसे ही दूसरा आया कि संबंध, और तीन निर्मित हो जाते हैं। और ऐसे संसार फैलता है। लेकिन मैं की घोषणा उसका आधार है। इससे पीछे लौटना हो तो मैं की शून्यता उपाय है। जैसे ही कोई व्यक्ति मैं को खोता है, पूरा संसार खो जाता है।
इसलिए जो संसार को छोड़ने में लगते हैं वे व्यर्थ की मेहनत करते हैं। संसार छोड़ा नहीं जा सकता--जब तक मैं हूं। क्योंकि मेरे मैं के कारण ही मैंने संसार चारों तरफ निर्मित किया है, बनाया है। वह मेरे मैं की ही उत्पत्ति है। जब तक मैं हूं तब तक गृहस्थी मिट नहीं सकती। जहां मैं हूं वहां मेरा घर और मेरी गृहस्थी निर्मित हो जाएगी। क्योंकि जहां मैं हूं वहां संबंध पैदा हो जाएंगे। तो जो घर को छोड़ कर भागता है वह व्यर्थ ही भागता है, क्योंकि घर का बीज तो भीतर छिपा है। जो संसार को छोड़ कर हिमालय जाता है वह व्यर्थ जाता है, क्योंकि हिमालय में भी संसार निर्मित हो जाएगा। मैं जहां भी रहूंगा, वहीं संसार निर्मित हो जाएगा। क्योंकि मैं मूल हूं। मैं वृक्ष से बातें करूंगा, और मैत्री निर्मित हो जाएगी। और वृक्ष कल तूफान में गिर जाएगा तो मैं रोऊंगा, और दुख और पीड़ा निर्मित हो जाएगी। मैं जहां हूं वहां आसक्ति होगी, संबंध होंगे, संसार होगा।
और ठीक संसार में खड़े होकर अगर मेरा मैं शून्य हो जाए तो वहीं मैं ताओ में प्रवेश कर जाऊंगा, वहीं स्वभाव निर्मित हो जाएगा; वहीं मैं उस मूल शून्य में खो जाऊंगा जहां से सबका जन्म होता है।
"ताओ से एक का जन्म हुआ। एक से दो का; दो से तीन का; और तीन से सृष्ट ब्रह्मांड का उदय हुआ।'
एक, दो, तीन--गहरे प्रतीक हैं। और अगर आप तीसरे को मिटाने से शुरू करते हैं तो आप गलती कर रहे हैं। जैसे कोई आदमी वृक्ष के पत्ते काटता हो और सोचता हो कि वृक्ष नष्ट हो जाएगा। एक पत्ते की जगह दो पत्ते आ जाएंगे। वृक्ष समझेगा, आप कलम कर रहे हैं। संसार तो आखिरी बात है। वह तो पत्ते हैं। मैं जड़ हूं। मेरे बिना कोई संसार नहीं हो सकता।
इसका यह अर्थ नहीं कि मैं नहीं रहूंगा तो वृक्ष, पर्वत और लोग नहीं रहेंगे। वे रहेंगे, लेकिन मेरे लिए वे संसार न रहे। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही उनके ऊपर जो आवरण थे व्यक्तित्व के वे मेरे लिए खो जाएंगे; मुझे उनके भीतर का सागर दिखाई पड़ने लगेगा। उनकी लहरों की जो आकृतियां थीं वे मेरे लिए व्यर्थ हो जाएंगी; लहरों के भीतर जो छिपा था सागर वही सार्थक हो जाएगा। मेरे लिए संसार मिट जाएगा। संसार का मिटना दृष्टि का परिवर्तन है। मैं के बिंदु से जब मैं देखता हूं अस्तित्व को तो संसार है, और जब मैं मैं-शून्य होकर देखता हूं तो वहां कोई संसार नहीं। वहां जो शेष रह जाता है वही ताओ है, वही स्वभाव है। स्वभाव का अर्थ है, वही आखिरी तत्व है जिससे सब पैदा होता है और जिसमें सब लीन हो जाता है। वह बेसिक, आधारभूत अस्तित्व है।
"सृष्ट ब्रह्मांड के पीछे यिन का वास है, और उसके आगे यान का। इन्हीं व्यापक सिद्धांतों के योग से वह लयबद्धता को प्राप्त होता है।'
लाओत्से की दृष्टि समस्त विरोधों के बीच संगीत को खोज लेने की है। जहां-जहां विरोध है वहां-वहां विरोध को जोड़ने वाली कोई लयबद्धता होगी। और जब तक हमें लयबद्धता न दिखाई पड़े तब तक हम भ्रांति में भटकते रहेंगे।
स्त्री है; पुरुष है। स्त्री भी दिखाई पड़ती है; पुरुष भी दिखाई पड़ता है। लेकिन दोनों के बीच एक लयबद्धता है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती। और जब भी स्त्री-पुरुष उस लयबद्धता में आ जाते हैं तो उसे हम प्रेम कहते हैं। लेकिन प्रेम किसी को दिखाई नहीं पड़ता। और जब भी स्त्री-पुरुष के बीच की वह लयबद्धता टूट जाती है तो घृणा पैदा हो जाती है। घृणा भी दिखाई नहीं पड़ती। व्यवहार दिखाई पड़ता है। दो व्यक्ति घृणा में हों तो दिखाई पड़ता है; दो व्यक्ति प्रेम में हों तो दिखाई पड़ता है। प्रेम दिखाई नहीं पड़ता; घृणा दिखाई नहीं पड़ती। प्रेम है दो विरोधी तत्वों का लयबद्ध हो जाना। उनके बीच का विरोध शत्रुता में न रह जाए, बल्कि विरोध के कारण ही एक लय पैदा हो जाए; विरोध परिपूरक हो जाए, कांप्लीमेंटरी हो जाए, तो प्रेम का जन्म होता है।
जीसस ने बार-बार कहा है कि परमात्मा प्रेम है। और अगर जीसस के वचन का अर्थ समझना हो तो लाओत्से में खोजना पड़ेगा कि प्रेम का क्या अर्थ है। प्रेम का अर्थ है, दो विरोधों के बीच लयबद्धता। और जहां भी दो विरोध के बीच लयबद्धता होती है वहां सृष्टि बड़े अनूठे शृंगार में और उत्सव में जन्म लेती है।
आपका पूरा जीवन जन्म और मृत्यु के बीच एक लयबद्धता है। और जब आप पूरी तरह जीवंत होते हैं तो उसका केवल इतना ही अर्थ होता है कि मृत्यु और जन्म की जो प्रक्रिया है उसका सारा विरोध खो गया।
बच्चे को हम पूरा जीवंत नहीं कहते, क्योंकि बच्चे में जन्म का प्रभाव ज्यादा है, मृत्यु का अंश कम है। बूढ़े को हम पूरा जीवित नहीं कहते, क्योंकि उसमें मृत्यु का प्रभाव ज्यादा हो गया और जीवन का, जन्म का अंश कम हो गया। ठीक जवान आदमी को हम शिखर पर मानते हैं जीवन के। उसका कुल इतना ही अर्थ है कि ठीक जवानी के क्षण में मृत्यु और जन्म दोनों संतुलित हो जाते हैं; दोनों बाजू तुला की एक रेखा में आ जाती हैं। जवानी एक संगीत है जन्म और मृत्यु के बीच। बचपन अधूरा है; बुढ़ापा अधूरा है। एक सूर्योदय है; एक सूर्यास्त है। लेकिन जवानी ठीक मध्य बिंदु है, जहां दोनों शक्तियां संतुलित हो जाती हैं।
स्त्री-पुरुष, या अगर हम विज्ञान की भाषा का उपयोग करें तो ऋण और धन विद्युत पोलेरिटीज हैं, विरोधी ध्रुव हैं। और जहां दोनों संतुलित होते हैं वहीं एक गहन, प्रगाढ़ शांति, और उस प्रगाढ़ शांति में एक क्रिएटिविटी, एक सृजनात्मक ऊर्जा का जन्म होता है। लाओत्से का नाम है: यिन और यान। इन्हें वह दो विरोधी तत्व कहता है। चाहे स्त्री-पुरुष कहें, चाहे ऋण-धन कहें। उसका शब्द है: यिन और यान। और लाओत्से कहता है, इन दोनों विरोधों के बीच जो लयबद्धता है वही ताओ है।
लेकिन हम या तो पुरुष होते हैं, या स्त्री होते हैं। हम एक ध्रुव से बंधे होते हैं, एक विरोधी अंग से। और इसलिए हम दूसरे विरोधी अंग की तलाश करते हैं। स्त्री पुरुष को खोज रही है; पुरुष स्त्री को खोज रहा है। जन्म मृत्यु को खोज रहा है; मृत्यु पुनः जन्म को खोज रही है। वह जो विरोधी है, उसके बिना हम अधूरे हैं। इसलिए उसकी खोज जारी रहती है।
यह थोड़ा समझने जैसा है कि हम सब जीवन में अपने से विपरीत को खोजते रहते हैं। आपकी सारी खोज विपरीत की खोज है। अगर आप गरीब हैं, दीन हैं, दरिद्र हैं, तो धन को खोज रहे हैं। पर बड़े मजे की बात है कि जिनके पास सच में धन हो जाता है वे दरिद्रता को खोजने में लग जाते हैं। महावीर हैं, बुद्ध हैं; इनके लिए धन का आकर्षण नहीं है। ये परम दरिद्र होने की खोज कर रहे हैं। जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे जो दरिद्र हैं।
हम जब भी कुछ खोजते हैं तो विरोध को खोजते हैं। और इससे बड़ी कठिनाइयां पैदा होती हैं। विरोधी को हम खोजते हैं, लेकिन विरोधी के साथ रहना एक महान कला है। क्योंकि वह विरोधी है। पुरुष स्त्री को खोज रहा है। आस्कर वाइल्ड ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं स्त्री के बिना भी नहीं रह सकता, और स्त्री के साथ तो बिलकुल नहीं रह पाता। स्त्री के बिना रहना मुश्किल है; अधूरापन है। और स्त्री के साथ रहना बहुत मुश्किल है। क्योंकि विपरीत है, विरोध है। और हर बात में कलह है। विपरीत एक-दूसरे को आकर्षित करते हैं। लेकिन वे विपरीत हैं, और जब निकट आएंगे तो कलह शुरू हो जाएगी। प्रेमियों की कलह अनिवार्य है। क्योंकि प्रेम का मतलब ही है कि विपरीत को आकर्षित किया है।
फ्रायड ने तो बड़ा ही निराशाजनक दृष्टिकोण लिया है; उसका कहना है कि आदमी कभी भी सुखी हो नहीं सकता। आदमी के होने का ढंग ऐसा है कि वह दुखी ही होगा। क्योंकि जो भी वह चाहता है अगर न मिले तो दुखी होता है, अगर मिल जाए तो भी दुखी होता है। और दो ही विकल्प दिखाई पड़ते हैं।
लाओत्से के हिसाब से एक तीसरा विकल्प है। और वह है: विरोध के बीच लयबद्धता। पुरुष जब तक स्त्री को खोजेगा, दुखी होगा। स्त्री जब तक पुरुष को खोजेगी तब तक दुखी होगी। और जब स्त्री-पुरुष के बीच की लयबद्धता को वे खोजने में लग जाते हैं तो सुख की पहली किरण उतरनी शुरू होती है। वास्तविक प्रेम का जन्म उस दिन होता है जिस दिन स्त्री-पुरुष के बीच जो प्रवाह है, जो ऊर्जा का अदृश्य प्रवाह है, वह खयाल में आना शुरू हो जाता है। विरोध के बीच में जो संगम है, विरोधियों के बीच में जो बहती हुई धारा है, दो किनारों के बीच जो बहती हुई नदी है, जब वह दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, तो ही जीवन में सुख की कोई संभावना उतरती है। और जैसे ही किसी व्यक्ति को यह लयबद्धता दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है, विरोधी का आकर्षण भी खो जाता है। इस लयबद्धता की प्रतीति--योग कहता है ध्यान है; तंत्र कहता है महासमाधि, महासंभोग का क्षण है; लाओत्से कहता है, यिन और यान के बीच एक संगीत का जन्म है।
जहां भी आपको आकर्षण दिखाई पड़े, दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहला, कि जिससे भी आप आकर्षित हों, वह आपका विपरीत होगा; इसलिए आप खतरे में उतर रहे हैं। कोई भी व्यक्ति अपने समान से आकर्षित नहीं होता। समान के प्रति एक तरह का विलगाव होता है, रिपल्शन होता है, एक विकर्षण होता है। समान से हम दूर हटते हैं; असमान हमें खींचता है। ठीक वैसे ही जैसे धन और धन विद्युत एक-दूसरे को हटाएंगे, ऋण और धन विद्युत चुंबकीय हो जाएंगे और करीब आ जाएंगे। समान से विकर्षण, विपरीत से आकर्षण नियम है। इसलिए जिससे भी आप आकर्षित होते हैं, वह आपका विपरीत है। दूसरी बात, विपरीत जैसे ही निकट आएगा, उपद्रव और द्वंद्व शुरू हो जाएगा। विपरीत दूर हो तो आकर्षित करता है; पास आए, तो चूंकि वह विपरीत है और विरोधी है, संघर्ष पैदा होगा।
तीसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है, जिससे भी संघर्ष पैदा हो सकता है, उससे संगीत भी पैदा हो सकता है। जहां-जहां संघर्ष है, वहां-वहां संगीत की संभावना है। क्योंकि जहां-जहां संघर्ष है, वहां स्वरों का उत्पात है। और जहां स्वर उत्पात में हैं, वहां अगर कोई जानता हो कला तो वे लयबद्ध हो सकते हैं। दो समान के बीच तो स्वर पैदा नहीं होते। समान के बीच स्वर ही पैदा नहीं होता, इसलिए संगीत का कोई उपाय नहीं है। असमान के बीच स्वर पैदा होते हैं, घर्षण होता है। घर्षण अंत नहीं है। उसे अगर नियोजित किया जा सके, उसे अगर बांधा जा सके, उसे अगर व्यवस्था दी जा सके, अनुशासन पैदा किया जा सके, तो विपरीत के बीच जो लयबद्धता है, ताओ और लाओत्से की मान्यता है, वही योग है। वही कला है--विरोध को जोड़ लेने की।
ये तीन बातें खयाल में हों तो आप जीवन के किसी भी कोने से समाधि को उपलब्ध हो सकते हैं। फिर जीवन पूरा का पूरा एक साधना बन जाता है। फिर जो भी आकर्षित करे, आप जानते हैं, वहां खतरा है। और जान कर ही आप उस भूमि पर पैर रखते हैं। खतरा है, इसलिए संभावना भी है। वहां कुछ गलत हो सकता है तो कुछ ठीक भी हो सकता है। जहां गिरने का डर है वहां चढ़ने की सुविधा भी है। जब समतल भूमि पर आप चलते हैं तो गिरने का कोई डर नहीं है, क्योंकि चढ़ने का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए जीवन में प्रेम सबसे खतरनाक घटना है। वह तलवार की धार पर चलना है। बड़ा उत्पात होगा, बड़ी अराजकता होगी; जीवन विपरीत के संघर्ष से भर जाएगा। अगर यहीं कोई रुक गया तो जो पत्थर सीढ़ी बन सकता था, उसे आपने बाधा मान ली और आप वापस लौट गए। जो बाधा मालूम पड़ी थी, वह सीढ़ी भी बन सकती है; सिर्फ उसे कैसे पार किया जाए, यही खयाल में होना चाहिए।
"ब्रह्मांड के पीछे यिन का वास है और उसके आग यान का। इन्हीं व्यापक सिद्धांतों के योग से वह लयबद्धता को प्राप्त होता है।'
प्रतिक्षण जीवन की सारी गति विपरीत से बंधी है। न केवल बंधी है, बल्कि हर चीज अपने विपरीत में परिवर्तित हो रही है। यह बहुत आश्चर्यजनक खयाल है लाओत्से का--और अब विज्ञान भी उससे राजी होता है--कि हर चीज अपने से विपरीत में परिवर्तित होती रहती है। न केवल विपरीत से आकर्षित होती है, बल्कि विपरीत में परिवर्तित होती है।
स्त्रियों की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, उनमें पुरुष तत्व प्रकट होने लगता है; पुरुषों की जैसे-जैसे उम्र बढ़ने लगती है, उनमें स्त्रैणता प्रकट होने लगती है। स्त्रियां जैसे-जैसे ज्यादा उम्र की होती जाएंगी, कर्कश होने लगेंगी; उनका स्वर पुरुष का होने लगेगा, और उनके व्यक्तित्व में पुरुष जैसी कठोरता आने लगेगी। पुरुष जैसे-जैसे बूढ़े होने लगेंगे, वैसे-वैसे कोमल होने लगेंगे, और उनके व्यक्तित्व में स्त्रैणता आने लगेगी। न केवल मानसिक रूप से, बल्कि शारीरिक रूप से, हारमोन के तल पर भी ऐसा ही फर्क होता है।
हर चीज अपने विपरीत की तरफ डोलती रहती है, बदलती रहती है।
अक्सर ऐसा होता है कि अगर इस जन्म में आप पुरुष हैं तो अगले जन्म में आप स्त्री हो जाएंगे। बहुत लोगों के पिछले जीवन में झांक कर इसे नियम की तरह कहा जा सकता है कि अगर आप इस जन्म में पुरुष हैं तो पिछले जन्म में स्त्री। बहुत मुश्किल से ऐसा होता है कि आप इस जन्म में भी पुरुष हों और अगले में भी पुरुष हों।
उसके कारण हैं। क्योंकि जिससे आप आकर्षित होते हैं, जिससे आप प्रभावित होते हैं, और जिसकी आप कामना करते हैं, वही कामना तो आपके अगले जन्म का निर्धारक तत्व होगी। पुरुष स्त्री को चाह रहा है और स्त्री को सुंदर मान रहा है। उसे लगता है कि स्त्री में कुछ रहस्य छिपा है। और जीवन भर वह स्त्री के संबंध में सोचेगा। स्वप्न और कल्पना, उसके मन के सारे तार स्त्री के आस-पास घूमेंगे। उसके गीत, उसकी कविताएं, उसका संगीत, सब स्त्री के आस-पास घूमेगा। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होने वाला है कि अगला जन्म आपका स्त्री का हो जाए। और स्त्रियां निश्चित ही पुरुष होना चाहती हैं। कोई स्त्री स्त्री होने से तृप्त नहीं है। स्त्री पुरुष से प्रभावित है और आकर्षित है। इस जीवन में भी आप विरोधी की तरफ धीरे-धीरे बदलते जाते हैं और अगले जीवन में तो आप निश्चित रूप से विरोध में उतर जाते हैं। यिन यान हो जाता है और यान यिन हो जाता है।
इसे, यह तो लंबे विस्तार की बात है, लेकिन छोटे जीवन के क्षणों में भी इसे समझना जरूरी है।
अगर आप ठीक से क्रोध कर लिए हों तो तत्क्षण पीछे करुणा का जन्म होता। और अगर आप में करुणा का जन्म नहीं होता तो उसका अर्थ यही है कि आप क्रोध कभी ठीक से नहीं करते। वह आथेंटिक नहीं है, प्रामाणिक नहीं है। जब भी आप पूरी प्रामाणिकता से क्रोधित हो जाते हैं तो उसके बाद तत्क्षण आप पाएंगे कि करुणा का जन्म हो रहा है। विपरीत में चित्त उतर जाता है। जब भी आप गहरा प्रेम करते हैं तो उससे तृप्त हो जाएंगे और प्रेम के बाद विरोध और घृणा और संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी। जैसे रात के बाद दिन है और दिन के बाद रात है, ऐसा ही आपके चित्त का प्रत्येक पहलू अपने विपरीत के साथ जुड़ा हुआ है। और जब भी एक पहलू तृप्त हो जाता है तो दूसरे पहलू का जन्म हो जाता है।
मनसविद कहते हैं कि नैतिक शिक्षण ने मनुष्य के जीवन से बहुत सी चीजें छीन लीं। क्योंकि हम लोगों को झूठा होना सिखाते हैं। हम कभी किसी बच्चे को नहीं कहते कि जब तुम क्रोध करो तो ठीक से और पूरी तरह ईमानदारी से क्रोध करना। हम उसे झुठलाने की कला सिखाते हैं। हम उसे कहते हैं, अगर क्रोध आ भी जाए तो भी तुम छिपाना, पी जाना; चेहरे पर मत प्रकट होने देना। यही सुसंस्कृत होने का लक्षण है। मुस्कुराते रहना, ढांक लेना क्रोध को। और हमारी आकांक्षा यह है कि शायद ऐसा व्यक्ति जो क्रोध नहीं करता, बहुत प्रेम कर पाएगा। वह भ्रांत है। क्योंकि जिस-जिस मात्रा में इसका क्रोध अप्रामाणिक हो जाएगा, उसी-उसी मात्रा में इसका प्रेम भी अप्रामाणिक हो जाएगा। तब यह मुस्कुराएगा, ऊपर से प्रेम प्रकट करेगा, और भीतर इसके कोई उदभाव पैदा नहीं होगा।
जब आप प्रेम में होते हैं, कभी आपने खयाल किया, कि भीतर कुछ भी नहीं होता; जैसे आप कोई एक नाटक कर रहे हैं, जैसे कुछ काम है जो पूरा कर रहे हैं। बच्चा सामने आ जाता है तो उसका सिर आप थपथपा देते हैं, लेकिन भीतर कुछ नहीं होता। मुस्कुरा देते हैं, उसको गले भी लगा लेते हैं, लेकिन भीतर कुछ भी नहीं होता। एक औपचारिकता है जो आप निभाते हैं।
आदमी बुरी तरह झूठ हो गया है। और उसका कारण है कि हम भय के कारण, कि कहीं कुछ आदमी गलत न हो जाए, कहीं क्रोध करके अड़चन में न पड़ जाए, जो-जो नकारात्मक है उसको हम रुकवाते हैं। लेकिन उसके साथ विधायक भी रुक जाता है। जो आदमी प्रामाणिक रूप से प्रेम करेगा, वह प्रामाणिक रूप से क्रोध भी करेगा। उस समय तक जब तक कि आप ताओ को उपलब्ध नहीं हो जाते तब तक इस विरोध में ही आपको जीना पड़ेगा। और इस विरोध में जीना हो तो प्रामाणिक रूप से जीने से ही संभावना है कि किसी दिन आप लयबद्धता को उपलब्ध हो जाएं। अप्रामाणिक आदमी के लिए तो कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह जीवन की धारा से उसका कोई संबंध ही नहीं जुड़ता है। ऊपर-ऊपर, सब ऊपर-ऊपर है। उसकी प्रार्थना, उसकी पूजा, उसका प्रेम, उसकी घृणा, उसकी दुश्मनी, उसकी मित्रता, सब ऊपर-ऊपर है। किसी बात से उसके कोई प्राण आंदोलित नहीं होते।
इसे थोड़ा प्रयोग करके देखें, कि अगर जीवन में किसी चीज की कमी मालूम पड़ती हो, लगता हो कि दया की कमी है, करुणा की कमी है, तो थोड़ा समझने की फिक्र करें। उसका मतलब होगा, आपका क्रोध अप्रामाणिक है, क्रोध बनावटी है। वह वास्तविक नहीं है। जहां करना है वहां आप नहीं करते, और जहां नहीं करना है वहां आप करते हैं। ऐसे झूठे क्रोध के साथ जो जी रहा है, वह लाख उपाय करे तो भी अहिंसक नहीं हो सकता। उसकी अहिंसा भी इतनी ही थोथी और उथली होगी। जैसे घड़ी का पेंडुलम जितनी दूर तक बाएं जाएगा उतनी ही दूर तक दाएं जा सकता है। आप सोचते हों कि बाएं तो बिलकुल न जाए और दाएं खूब दूर तक जाए, तो आप गलती में हैं। क्योंकि दाएं जाने के लिए बाएं जाकर ही शक्ति इकट्ठी की जाती है।
इसलिए पश्चिम में मनोवैज्ञानिक एक बहुत नया शिक्षण दे रहे हैं। वह पूरब को बहुत हैरान करने वाला है; पश्चिम को भी हैरान करने वाला है। और वह यह है कि आपके जो भी मनोभाव हैं उनमें आप ईमानदार हों। अगर पति-पत्नी के बीच कोई लगाव नहीं रह गया है और सब चीजें सूखी हो गई हैं, रसहीन हो गई हैं, तो उन्हें कितना ही समझाया जाए कि वे प्रेमपूर्ण हो जाएं, व्यर्थ होगा। उन्हें समझाना होगा कि वे प्रामाणिक हो जाएं।
अभी कल ही एक युवक और युवती मेरे पास आए। दोनों प्रेम में हैं और विवाह करना चाहते हैं। युवती ने मुझे कहा कि हम विवाह तो करना चाहते हैं, लेकिन इधर कुछ दिनों से आपस में काफी क्रोध पैदा हो जाता है, छोटी-छोटी चीज में चिड़चिड़ाहट, नाराजगी और एक-दूसरे पर टूट पड़ने की वृत्ति हो गई है। तो मैंने उन्हें पूछा कि सिर्फ टूट पड़ने की वृत्ति या तुम टूट भी पड़ते हो? उन्होंने कहा कि नहीं, आप भी कैसी बात करते हैं! हम ऐसा तो नहीं कर सकते कि टूट पड़ें। शारीरिक रूप से हमने कोई एक-दूसरे पर हमला नहीं किया है।
तो मैंने उनको कहा कि जब तुम प्रेम करोगे तब वह प्रेम भी फिर शारीरिक रूप से नहीं हो सकता। अगर तुम शारीरिक रूप से प्रेम की गहराई में उतरना चाहते हो तो क्रोध के क्षण में भी फिर मन से नीचे शरीर तक आओ। और डर क्या है? सिर्फ क्रोध को सोचते क्यों हो? और प्रेम को इतना कमजोर क्यों मानते हो कि झगड़ पड़ोगे, एक-दूसरे को चोट पहुंचा दोगे, तो प्रेम टूट जाएगा। इतना कमजोर प्रेम चलेगा भी कैसे? तो मैंने कहा, तुम एक प्रयोग करो। अब जब तुम्हें दुबारा क्रोध आए तो तुम सिर्फ सोचना ही मत और दबाना मत, तुम उसे निकाल देना। और फिर लौट कर मुझे खबर देना।
सुबह ही वे आए थे, सांझ उन्होंने मुझे खबर भेजी कि आश्चर्यजनक है कि क्रोध के बाद हम इतने हलके हो गए हैं! और पहली दफा इन महीनों में एक-दूसरे के प्रति प्रेम का भाव उदय हुआ है, और हम इतने करीब हैं जितने हम पहले कभी नहीं थे।
विपरीत में एक संबंध है। और मनसविद कहते हैं कि प्रेमी लड़ कर दूर हो जाते हैं, ताकि फिर पास आने का आनंद ले सकें। अगर दूर होने का डर है तो पास होने का आनंद भी नष्ट हो जाएगा। जब दो प्रेमी लड़ कर दूर हो जाते हैं तो फिर नएत्ताजे हो गए, जैसे वे पहले दिन जब मिले होंगे दूर थे, उस दिन की स्थिति में पहुंच गए। फिर से पास आना, फिर एक नया हनीमून है; फिर एक नई शुरुआत है; फिर वे ताजे हैं।
अगर जीवन के द्वंद्व को हम ठीक से समझें तो इतना परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम किया है तो क्रोध के लिए तैयार होना चाहिए। और अगर यह खयाल में हो कि इस क्रोध के माध्यम से हम प्रेम की क्षमता को पुनः पा रहे हैं तो यह क्रोध भी दुखद नहीं रह जाएगा, यह भी खेल हो जाएगा। और जो व्यक्ति प्रेम भी कर सकता है और क्रोध भी कर सकता है और दोनों में प्रामाणिक है, बहुत शीघ्र ही उसे क्रोध और प्रेम के बीच में जो लयबद्धता है उसकी प्रतीति होनी शुरू हो जाएगी। और तब प्रेम भी गौण हो जाएगा, क्रोध भी गौण हो जाएगा; लयबद्धता ही प्रमुख हो जाएगी। ये दोनों किनारे गौण हो जाएंगे, बीच की सरिता ही...।
पर वह सरिता अदृश्य है। और जीवन के भावों में जब तक आप ठीक-ठीक ईमानदारी से प्रयोग न करें, उस अदृश्य का आपको कोई पता नहीं चल सकता है।
लेकिन हम भयभीत और डरे हुए लोग हैं। और हमारे भय ने हमारे सारे जीवन को विषाक्त कर दिया है। फिर हम जो भी करते हैं, वह अधूरा-अधूरा है, अपंग; उसके कोई पैर नहीं, वह कहीं ले जाता नहीं। हम जीते हैं मरे हुए, क्योंकि जीवन के किसी भी क्षण को हम अपनी पूर्णता नहीं देते।
किसी भी दिन अगर वैज्ञानिक ढंग से आदमी का चरित्र विकसित किया जाएगा तो उसे सिखाया जाएगा प्रामाणिक होना। और प्रामाणिक होने का मतलब यह है कि जो भी तुम्हारी भाव-दशा हो उसमें तुम पूरे ही जूझ जाना; जो भी परिणाम हो, परिणाम भोगने के लिए तैयार रहना। परिणाम के डर से हम पूरे जीवन को ही गंवा देते हैं। जो भी परिणाम हो प्रामाणिकता का, वह बुरा नहीं होगा। उससे लाभ होंगे; उससे आपकी आत्मा का जन्म होगा। और जो भी लाभ दिखाई पड़ते हों अप्रामाणिक और झूठे होने के, वे कितने ही लाभ दिखाई पड़ते हों, अंततः आपकी आत्मा का हनन है। और आखिर में आप पाएंगे कि आपने आत्मघात कर लिया; अपनी होशियारी में ही आप डूब मरे।
लाओत्से कहता है, यिन और यान, ये दो विरोधी तत्व हैं; इनको स्त्री-पुरुष कहें, या जो भी नाम देना हो, प्रकृति-पुरुष कहें; इन दोनों के बीच एक लयबद्धता है। ये दो तो दिखाई पड़ते हैं। ये दो किनारे साफ हैं, ये दृश्य हैं; इनके बीच बहने वाली धारा अदृश्य है और अरूप है। उस अरूप को देखने के लिए इन दोनों किनारों को स्पष्ट रूप से, दोनों किनारों को स्पष्ट रूप से पकड़ लेना होगा। इसमें जरा भी बेईमानी, और आदमी भटक जाता है। जो भी हमें मिला है--बुरा है या भला है, शुभ है या अशुभ है, विधायक है या नकारात्मक है--हमें मिला है स्वभाव से। जरूर उसमें छिपा हुआ कुछ रहस्य है। जल्दी उसे निंदा न करें, और जल्दी उसके त्याग की चिंता न करें। त्याग इतना आसान नहीं। त्याग तो केवल वे ही कर पाते हैं जो इन दोनों के बीच संतुलन को खोज लेते हैं। उनके किनारे अपने आप छूट जाते हैं। जिसको धारा मिल गई, वह फिर किनारों की चिंता नहीं करता। वे छूट ही जाते हैं। जिसको धारा मिल गई, वह न फिर पुरुष रह जाता और न स्त्री। जिसको बीच का संतुलन मिल गया, संगीत मिल गया, वह न विधायक रह जाता, न नकारात्मक, न यिन और न यान। वह दोनों एक साथ हो जाता है, या दोनों के एक साथ पार हो जाता है। इस पार, अतिक्रमण करने वाली कला को ही लाओत्से ने योग कहा है।
"अनाथ, अयोग्य और अकेला होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।'
थोड़ा समझना। अनाथ, अयोग्य, अकेला होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।
"तो भी राजा और भूमिपति अपने को इन्हीं नामों से पुकारते हैं। क्योंकि चीजें कभी घटाई जाने से लाभ को प्राप्त होती हैं और बढ़ाई जाने से हानि को।'
अनाथ, अयोग्य और अकेला--ये हमारे भय हैं। अकेले होने से हम बहुत भयभीत हैं। शायद इससे बड़ा कोई भी भय नहीं है। कोई भी अकेला नहीं होना चाहता। कोई न कोई, किसी न किसी प्रकार का साथ चाहिए। अगर हम अकेले हो भी जाएं किसी कारणवश, परिस्थितिवश, तो भी हम चिंतन करते हैं दूसरों का, ताकि कम से कम कल्पना में कोई दूसरा रहे और हम बिलकुल अकेले न हो जाएं।
कवि कहते हैं कि प्रियजनों से दूर होने पर प्रेम बढ़ता है। वह इसीलिए बढ़ता है कि प्रियजन दूर होते हैं तो हम उनका चिंतन करते हैं; पास होते हैं तो चिंतन की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सब्स्टीटयूट है कल्पना; जो हमारे पास नहीं है उसकी हम चिंतना करते हैं। चिंतना करके हम एक काल्पनिक साथ पैदा कर लेते हैं। उपवास के दिन आदमी भोजन का विचार करता है। वह न मालूम किस-किस प्रकार के भोजन की सोचता है। अनजाने ही, अचेतन में ही यह प्रवाह उठने लगता है। और जब तक आदमी उपवास करके भोजन की सोचता रहे तब तक उसका उपवास बिलकुल व्यर्थ गया। वह सिर्फ भूखा मरा। क्योंकि उसे उपवास अभी आया ही नहीं। उपवास का अर्थ ही यह है कि भोजन का खयाल न हो। भोजन पेट में डालने से भी ज्यादा, भोजन खयाल में न डाला जाए--तो उपवास हुआ।
अकेले होने का अर्थ है, दूसरे का कोई विचार न हो। अकेले होने में मौज हो, प्रसन्नता हो; दीनता न हो। लेकिन अकेले होने से सभी डरते हैं। और सभी अकेले हैं। इसलिए सभी भयभीत हैं। क्योंकि जिस सत्य से हम छूट नहीं सकते, उस सत्य से हम भयभीत हैं। हर आदमी अकेला है। अकेला ही पैदा होता है; अकेला ही जीता है। भ्रम पैदा करता है कि कोई साथ है। लेकिन कोई किसी के साथ हो नहीं सकता। सब साथ काल्पनिक है।
और दूसरा सोच रहा है आप उसके साथ हैं, और आप सोच रहे हैं कि दूसरा मेरे साथ है। न आपको चिंता है दूसरे को साथ देने की; न दूसरे को चिंता है आपको साथ देने की। एक-दूसरे का शोषण है। दूसरे की मौजूदगी से आपको लगता है ठीक है, भरा-पूरा लगता है, अकेला नहीं हूं। लेकिन अकेला होना एक सत्य है। और जब तक हम अकेले होने की क्षमता न जुटा लें तब तक हम अपने स्वभाव से परिचित न हो सकेंगे। अकेले ही नहीं हो सकते तो स्वयं को कैसे हम जानेंगे? अकेले होने की तैयारी चाहिए--चाहे कितना ही भय मालूम हो, असुरक्षा मालूम हो। चाहे कितना ही मन करे कि साथ खोज लो, तो भी अकेले होने का साहस करना चाहिए।
अब यह बड़े मजे की घटना दुनिया में घटती है। हम जो कुछ भी खोज करते हैं, उस सब खोज के अंतिम परिणाम में हम अकेले हो जाते हैं। एक आदमी धन की तलाश करता है, और अकेले होने से डरता है। और जितना ज्यादा धन उसके पास होने लगेगा उतना ही समाज उसका छोटा होने लगेगा। अब वह सभी से नहीं मिल सकेगा। अब वह उन थोड़े से लोगों से मिल सकेगा जो उसके स्टेटस, उसकी हैसियत के हैं। और वह धन इकट्ठा करता जा रहा है; लोगों को पीछे छोड़ता जा रहा है। एक घड़ी आएगी जब वह अकेला हो जाएगा; जब उसकी स्टेटस का, उसकी हैसियत का कोई भी न होगा। इसी के लिए जीवन भर उसने कोशिश की कि मैं आखिरी शिखर पर पहुंच जाऊं, गौरीशंकर पर खड़ा हो जाऊं। और जब वह गौरीशंकर पर खड़ा हो जाएगा तब हार्ट अटैक हो जाएगा। क्योंकि वह बिलकुल अकेला हो जाएगा। अब कोई संगी-साथी न रहा।
राजनीतिज्ञ उस मुसीबत में पड़ जाते हैं। यात्रा करते-करते जब वे चोटी पर पहुंच जाते हैं तब अचानक पाते हैं कि बिलकुल अकेले हो गए; उनका कोई संगी-साथी नहीं है। धन की खोज हो कि पद की खोज हो! बड़े विचारक, बड़े वैज्ञानिक इस हालत में पहुंच जाते हैं। क्योंकि आइंस्टीन को लगता है, किससे बात करे! क्योंकि उसकी भाषा भी कोई नहीं समझेगा। पत्नी है जरूर, लेकिन फासले बहुत हो गए। आइंस्टीन आइंस्टीन रह कर अपनी पत्नी से भी बात नहीं कर सकता।
विलहेम रेक की पत्नी के मैं संस्मरण पढ़ता था। विलहेम रेक फ्रायड के बाद एक बहुत क्रांतिकारी, कीमती मनोवैज्ञानिक हुआ। उसकी पत्नी ने लिखा है कि मैं रेक को कुछ भी समझ नहीं पाई। यह आदमी पागल था कि प्रतिभाशाली था, ठीक था कि गलत था, कुछ भी कहना मुश्किल है। विशिष्ट था, इतना ही कहा जा सकता है, कुछ विशेष था। और कोई संबंध नहीं हो सकते। पहली पत्नी ने तलाक दिया, फिर दूसरी पत्नी ने छोड़ा। संबंध नहीं बन पाते। क्योंकि जिस जगत में वह विचर रहा है वहां वह बिलकुल अकेला है।
सभी बड़े विचारक उस हालत में पहुंच जाते हैं जहां उन्हें लगता है, कोई उनका संगी-साथी नहीं। एक अकेलापन अनुभव होता है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि जिनको पागल होना चाहिए वे तो पागल नहीं होते--निक्सन पागल नहीं होते, माओ पागल नहीं होते, हिटलर पागल नहीं होता--जिनको कि पागल होना चाहिए। लेकिन बड़े विचारक, विलहेम रेक पागल हो जाता है, पागलखाने में मरता है। ऐसी ऊंचाई पर खड़े हो जाने की घटना घट जाती है मन में जहां से किसी से कोई संबंध नहीं रहा। फिर घबड़ाहट होती है। और इसी की खोज थी।
आप कहीं भी पहुंच जाएं, अगर आप ठीक से चलते ही गए तो अकेले हो जाएंगे। अगर आपने ठीक प्रतिस्पर्धा की, प्रतियोगिता की और संघर्ष किया तो ज्यादा से ज्यादा इतनी बात में आप सफल हो सकेंगे, एक दिन आप अचानक पाएंगे आप अकेले हैं; अब कोई प्रतियोगी नहीं बचा। और तब आप घबड़ा जाते हैं। इसलिए सभी सफलताएं अंत में असफलताएं सिद्ध होती हैं। क्योंकि अकेला कोई होना नहीं चाहता। जब तक आप सफल नहीं हुए हैं तब तक आप भीड़-भाड़ में हैं; तब तक कुछ करने को बाकी है।
लाओत्से कहता है, अकेले होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है, अयोग्य होने से बड़ी घृणा करता है। लेकिन लाओत्से कहता है, तुम्हारी योग्यता का मतलब क्या है? और जब तुम योग्य होते हो तो उसका परिणाम क्या है? लाओत्से का बड़ा अदभुत खयाल है योग्यता के बाबत। वह कहता है, योग्यता का कुल मतलब इतना है कि लोग तुम्हें साधन की तरह उपयोग करेंगे, अगर तुम योग्य हो।
बाप अपने योग्य बेटे से बड़ा प्रसन्न होता है। क्योंकि बाप जो-जो महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं कर पाया वे इस बेटे के कंधे पर सवार कर देगा। यह योग्य बेटा है, यह पूरी करेगा। जिस नासमझी में उसने अपनी जिंदगी गंवाई और वे अधूरी रह गईं नासमझियां; यह योग्य बेटा उनको पूरी करेगा। योग्य पति से पत्नी बड़ी प्रसन्न होती है। और कुल परिणाम क्या होगा इस योग्य पति का कि यह धन को बढ़ाता चला जाएगा।
एंड्रू कार्नेगी ने कहीं कहा है। किसी ने उससे पूछा कि तुम इतना धन कैसे इकट्ठा कर पाए? दस अरब रुपया वह छोड़ कर मरा। तो उसने कहा कि मैं इकट्ठा कर पाया, कहना मुश्किल है। मैं सिर्फ यह देखना चाहता था कि क्या मैं इतना धन भी इकट्ठा कर सकता हूं जो मेरी पत्नी खर्च न कर सके! मैं सिर्फ एक साधन था। मगर मैं यह देखना चाहता था कि क्या यह हो सकता है कि मैं उस जगह पहुंच जाऊं, इतना धन कमा लूं कि मेरी पत्नी खर्च न कर सके! लेकिन पत्नी खर्च कर रही है। पति योग्य है। वह दौड़ाए चली जा रही है।
योग्यता का कुल परिणाम इतना होता है कि आपका शोषण होगा। और क्या होगा? जितने ज्यादा योग्य होंगे, उतने ज्यादा लोग आपका शोषण करेंगे। लाओत्से बहुत अनूठा है, वह कहता है कि तुम योग्य बनने की कोशिश में मत पड़ना। लाओत्से कहता है, अयोग्य अक्सर बच जाते हैं उपद्रव से, योग्य पिस जाते हैं। लेकिन संसार कहता है, योग्य बनो! क्योंकि संसार शोषण करना चाहता है।
कुशल बनो! संसार निंदा करता है अयोग्य की; योग्य की प्रशंसा करता है। लेकिन संसार उसी की प्रशंसा करेगा जो बलि का बकरा होने को है। और सभी लोग भयभीत हैं कि अयोग्य न हो जाएं। क्यों भयभीत हैं? क्योंकि अयोग्य को संसार प्रतिष्ठा नहीं देता; अहंकार की तृप्ति नहीं देता। और क्या भय है? अयोग्य को यही भय है कि अगर कोई कह दे कि तुम अयोग्य हो तो कोई मूल्य न रहा, कोई कीमत न रही। बाजार में कोई मूल्य न हो तो आदमी को लगता है मैं निर्मूल्य हो गया।
लेकिन लाओत्से कहता है, तुम कोई वस्तु नहीं हो कि तुम्हारा मूल्य होना चाहिए। और अगर योग्य होकर तुम्हारा कोई मूल्य है तो तुम्हारा मूल्य नहीं है, किसी और चीज का मूल्य है जो तुमसे पैदा हो रही है। तुम्हारा मूल्य तो तभी हो सकता है जब तुम बिलकुल योग्य नहीं हो, फिर भी तुम्हारा कोई मूल्य है। सिर्फ तुम्हारा होने का मूल्य है; तुम हो। इसे थोड़ा समझें।
आप अपने बेटे को प्रेम करते हैं, क्योंकि योग्य है। और अगर योग्य नहीं है तो प्रेम नहीं करते। आपका बेटे से प्रेम है? या बेटे से कुछ आप उपाय लेना चाहते हैं, कुछ काम लेना चाहते हैं, कोई साधन पूरा करना चाहते हैं? तो बेटा एक उपकरण है, एक मीन्स है, साध्य नहीं है। बेटा साध्य अगर हो तो उसकी योग्यता-अयोग्यता अर्थ नहीं रखती। फिर उसका होना, उसका बीइंग, उसका अस्तित्व मूल्यवान है। आप प्रसन्न हैं, क्योंकि वह है। उसका होना काफी है। उसके होने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहिए। अगर प्रेम का अर्थ समझें तो यही हो सकता है: किसी व्यक्ति का होना, बिना किसी बाजार के मूल्य के हिसाब के, बिना इस धारणा के कि वह किसी साध्य का साधन बन सकता है। सिर्फ उसका होना!
लाओत्से ने बड़ी प्रशंसा की है अयोग्य होने की कला की। लाओत्से अपने संस्मरणों में कहीं कहा है: एक गांव में एक आदमी कुबड़ा था, हंच बैक। राजा ने सारे जवानों को पकड़ लिया, क्योंकि युद्ध का समय था और हर व्यक्ति को फौज में जाना जरूरी था। सिर्फ गांव में जो कुबड़ा आदमी था--वह तो किसी काम का नहीं था--उसे छोड़ दिया। लाओत्से उसके पास गया और कहा कि धन्य हो तुम! अगर तुम योग्य होते तो आज गए थे। अयोग्यता ने ही तुम्हें बचाया। तुम परमात्मा को धन्यवाद दो, क्योंकि योग्यता मरेगी युद्ध के मैदान पर। और लाओत्से हमेशा तलाश में रहता था कि अयोग्यता कैसा कवच है।
पर हम योग्य होने के लिए इतने पीड़ित होते हैं। वस्तुतः इसीलिए कि हम योग्य नहीं हैं। असल में, हम वही चाहते हैं जो हमारे पास नहीं होता। इसे थोड़ा समझें। यह उलटा लगेगा। अयोग्य होने को तो वही राजी हो सकता है जो योग्य है ही, और जिसकी योग्यता किसी बाह्य आधार पर निर्भर नहीं है; जिसके होने पर, जिसके स्वभाव पर निर्भर है। आप वही तो चाहते हैं जो आपमें नहीं है। योग्य होना चाहते हैं, क्योंकि योग्य नहीं हैं। और लाओत्से कहता है, जो अयोग्य होने को राजी है उसने स्वभाव की योग्यता पा ली। अब उसे किसी बाहरी योग्यता की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका होना ही काफी धन्यता है। हम सबके भीतर, जो नहीं है, उसे ढांकने की चेष्टा चलती है। कमजोर आदमी शक्तिशाली दिखना चाहता है; हो सके तो अच्छा, न हो सके तो कम से कम दिख सके। कमजोर आदमी कमजोर नहीं दिखना चाहता। सब तरह के उपाय करता है कि कोई उसकी कमजोरी न पहचान ले। अयोग्य आदमी सब तरह की योग्यता का आवरण अपने आस-पास खड़ा करता है कि कोई उसकी अयोग्यता न पहचान ले।
एडलर ने बहुत काम किया है इस सदी में हीनता की ग्रंथि पर, इनफीरियारिटी कांप्लेक्स पर। और उसने कहा कि जितने भी उपाय जगत में चल रहे हैं वे सब हीनता की ग्रंथि से पैदा होते हैं। जिस संबंध में जो आदमी अपने को हीन अनुभव करता है, उसकी पूर्ति में लग जाता है; दौड़ने लगता है। वह भयभीत है कि कोई उसके भीतर के घाव को देख न ले।
बड़े आश्चर्य की बात है। नीत्शे शारीरिक रूप से कमजोर था; बहुत कमजोर आदमी था। शक्तिशाली किसी भी स्थिति में नहीं कहा जा सकता; बीमार, कमजोर, सदा रुग्ण। लेकिन उसने शक्ति की पूजा के लिए बड़ा काम किया है; और महानतम ग्रंथ उसने लिखा: दि विल टु पावर। और नीत्शे कहता है कि मनुष्य की आत्मा एक ही चीज की कोशिश कर रही है, वह है शक्ति की तलाश। और नीत्शे ने शक्तिशाली मनुष्य को इतना सम्मान दिया है कि किताबें पढ़ कर ऐसा लग सकता है कि नीत्शे बहुत शक्तिशाली रहा होगा। वह बिलकुल भी शक्तिशाली नहीं था। नीत्शे की शक्ति की पूजा के आधार पर जर्मनी में हिटलर का फैसिज्म पैदा हुआ, नाजीवाद पैदा हुआ। क्योंकि नीत्शे ने कहा कि यह जो नार्डिक जर्मन जाति है, यही महान शक्तिशाली जाति है, और यही जन्मसिद्ध अधिकार है इसका कि सारे जगत पर राज्य करे। वह खुद भी नार्डिक नहीं था; न शक्तिशाली था। पर उसकी अपनी हीनता की ग्रंथि थी। जो उसमें नहीं था, उसको उसने फैला कर शास्त्रों में लिखा। वह खुद कभी लड़ नहीं सकता था, युद्ध के मैदान पर जाने की बात दूर रही। लेकिन उसने लिखा है कि इस जगत में जो सबसे सुंदर दृश्य मुझे याद है, वह है: जब सैनिक दोपहर की चमकती धूप में अपनी संगीनें लेकर एक लयबद्ध कतार में चलते हैं। उनकी संगीनों पर जो चमक होती है धूप की, बस उससे बड़ा संगीत, उससे महान संगीत मैंने अपने जीवन में दूसरा अनुभव नहीं किया। वही सबसे सुंदरतम दृश्य है। यह, जो नहीं है भीतर, उसकी पूर्ति की आकांक्षा है।
अगर हम अपने भीतर भी झांकेंगे तो हमें समझ में आ जाएगा कि जो हमारे भीतर नहीं है, उसी की पाने की हम कोशिश में लगे हैं। महावीर लात मार सके राज्य को, क्योंकि भीतर का राज्य समझ में आ गया। हम नहीं मार सकते हैं राज्य को लात; हम दीन-दरिद्र हैं, भिखमंगे हैं। बुद्ध भिखमंगे होकर खड़े हो सके, क्योंकि भिखमंगापन भीतर न रहा। हम भिखमंगे होकर खड़े नहीं हो सकते, क्योंकि हम जानते हैं हम भिखमंगे हैं, और अगर बाहर भी भिखमंगे हो गए तो सारी बात ही खुल जाएगी, सारा राज ही खुल जाएगा। बुद्ध खड़े हो सकते हैं भिखमंगे होकर, क्योंकि भिखमंगे होने से कुछ राज नहीं खुलता, बल्कि भीतर का सम्राट पूरी तरह प्रकट हो जाता है।
लाओत्से कहता है, हम अयोग्य होने से डरते हैं, क्योंकि हम अयोग्य हैं; अकेले होने से डरते हैं, क्योंकि हम अकेले हैं; अनाथ होने से डरते हैं, क्योंकि हम अनाथ हैं। हम जो हैं उसी से हम डरे हुए हैं। अनाथ का अर्थ है हेल्पलेस, असहाय। लेकिन हम स्वीकार करने में--स्वीकार करने से बचना चाहते हैं कि हम असहाय हैं, कि अकेले हैं, कि अयोग्य हैं। और ठीक इससे विपरीत अवस्था पैदा करने की कोशिश में हम जीवन को गंवा देते हैं।
लाओत्से कहता है, जो तथ्य है उसे स्वीकार कर लें। तथ्य की स्वीकृति मुक्तिदायी है। और इसका यह मतलब नहीं है कि लाओत्से कहता है तुम अयोग्य रह जाओगे, कि अकेले रह जाओगे, कि अनाथ रह जाओगे। लाओत्से यह कहता है कि जिस दिन तुम समझ गए कि तुम अकेले हो, फिर तुम अकेले नहीं हो। यह जरा जटिल है। क्योंकि जिस दिन तुमने स्वीकार कर लिया कि तुम अकेले हो, यह जीवन का तथ्य है, उसी दिन अकेलापन मिट गया। दूसरे को खोजते थे, इसलिए अकेलापन मजबूती से बना रहता था। अब तुमने स्वीकार कर लिया कि तुम अकेले हो, यह जीवन का तथ्य है; दूसरे की खोज छोड़ दी! धीरे-धीरे तुम भूल ही जाओगे कि तुम अकेले हो। और जिस दिन तुम भूल जाओगे कि तुम अकेले हो उस दिन दूसरा भी मिट जाएगा, तुम भी मिट जाओगे, और वही रह जाएगा जो स्वभाव है, जो ताओ है, जो सबके भीतर छिपा है। वह कभी अकेला नहीं है। हम अकेले इसलिए हैं कि हम लहर की भांति अपने को अलग मान लिए हैं सागर से, और फिर दूसरी लहरों के साथ एक होने की कोशिश कर रहे हैं; खुद भी क्षणभंगुर लहर हैं, दूसरी क्षणभंगुर एक दूसरी लहर के साथ निकटता बना रहे हैं, ताकि अकेलापन मिट जाए। खुद क्षणभंगुर हैं, दूसरे क्षणभंगुर तत्व से मिल कर अकेलापन मिटा रहे हैं।
लाओत्से कहता है कि लहर जिस दिन समझ ले कि अकेली है, यह स्वभाव है, दूसरी लहर की चिंता छोड़ दे, उसी दिन उसे नीचे के सागर का बोध शुरू हो जाएगा। दूसरे पर आंख गड़ी रहे तो भीतर आंख नहीं जाती; दूसरे के कारण ही बाहर भटकती है।
इसलिए अगर इस अकेलेपन की गूढ़ता को समझें तो पर्वत पर जाना संसार को छोड़ने के लिए नहीं, सिर्फ अकेले होने के लिए सार्थक है। वह कोई त्याग नहीं है, वह सिर्फ अकेले होने के अनुभव में उतरने की व्यवस्था है। वह दूसरे से भागना नहीं है, वह अपने में उतरने के लिए सिर्फ सुविधा जुटाना है, ताकि मैं अपने अकेलेपन को उसकी पूरी नग्नता में जान लूं। जहां कोई दूसरा न होगा, दूसरे का मैं चिंतन न करूंगा, वहां मैं अपने अकेलेपन को उसकी पूरी नग्नता में, पूरी प्रगाढ़ता में जान लूंगा। और जिस दिन कोई उसे उसकी पूरी प्रगाढ़ता में जान लेता है, स्वीकार कर लेता है, उसी दिन अकेला नहीं रह जाता। उसी दिन मूल स्वभाव में उतर जाता है। फिर कोई दूसरा नहीं है, मैं ही हूं।
और जो जान लेता है कि अयोग्यता होगी ही, क्योंकि मैं पूर्ण नहीं हूं। लहर कैसे योग्य हो सकती है? और लहर कुछ भी पा ले, उसके पाने का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि लहर खुद मिट जाने वाली है; उसका पाया हुआ भी उसके साथ मिट जाने वाला है। लहर कुछ भी उपलब्ध कर ले, उसकी उपलब्धि कोई कीमत नहीं रखती। तो आप कितने ही योग्य हो जाएं, आप ही खो जाएंगे। और जहां आधारशिला खो जाने वाली है वहां जो भवन योग्यता का है, उसका क्या मूल्य है? थोड़ी देर के लिए दूसरों की आंखों में चमक सकते हैं। लेकिन दूसरों की आंखों का क्या मूल्य है? वे आंखें भी कल मिट्टी हो जाएंगी। थोड़ा इतिहास झांक कर देखें। क्या मूल्य है नेपोलियन का या सिकंदर का? क्या मूल्य है? न होते तो क्या फर्क था? अगर आप भी नेपोलियन रहे हों--कोई न कोई तो रहा होगा--तो आज आपको क्या मूल्य है? आज आपको कोई यह बता भी दे कि आप नेपोलियन थे, यह प्रमाणित हो जाए, तो आज आप हंसेंगे। कल यही आपके साथ हो जाने वाला है। कल आप मिट्टी में गिर जाएंगे। आपकी प्रतिष्ठा, योग्यता, यश, सम्मान, समादर, सब मिट्टी में गिर जाएगा आपके साथ। जिन्होंने दिया था वे भी मिट्टी में गिर जाएंगे। जहां सभी कुछ मिट्टी में खो जाता हो वहां हम इतने दीवाने होकर लगते हैं कुछ चीजों के पीछे, यह भूल ही जाते हैं कि उनकी कोई शाश्वतता नहीं है, उनकी कोई सार्थकता नहीं है, उनका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि वे कहीं टिकने वाली नहीं हैं।
लाओत्से कहता है, योग्यता की दौड़ अहंकार की दौड़ है; अयोग्यता की स्वीकृति विनम्रता का भाव है कि मैं अयोग्य हूं।
इसका यह मतलब नहीं है कि ऐसा अयोग्य आदमी कुछ भी न कर पाएगा। लाओत्से कहता है, यही कर पाएगा। क्योंकि योग्य आदमी तो योग्यता सम्हालने में ही जीवन की ऊर्जा को खो देता है।
राजनीतिज्ञ क्या कर पाते हैं? धनपति क्या कर पाते हैं? क्या है उनकी उपलब्धि? क्या है जोड़? लगते हैं बहुत करते हुए, हाथ आखिर में कुछ भी आता नहीं। लेकिन जो आदमी स्वीकार कर ले विनम्रता से, जो भी मैं हूं हूं, उसके जीवन से बहुत कुछ होता है। करने का भाव नहीं होता वहां, सिर्फ जीवन से होता है, जैसे वृक्षों में फूल लगते हैं।
लाओत्से के जीवन में यह फूल लगा--यह ताओ उपनिषद का, ताओ तेह किंग का। यह कोई चेष्टा से नहीं हुआ। इसके लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इसके लिए कोई दौड़-धूप नहीं की है। यह ऐसे ही हुआ जैसे वृक्ष में फूल आ जाते हैं। यह लाओत्से की जो जीवन की ऊर्जा है, उसका सहज प्रस्फुटन है। इसके पीछे कहीं कोई कर्ता का भाव नहीं है। ऐसा हुआ, क्योंकि ऐसा लाओत्से में हो सकता था। न लाओत्से लिखना जानता है, न लाओत्से बोलना जानता है; लेकिन फिर भी यह महानतम वचनों की शृंखला उससे पैदा हुई। इसके लिए कोई भी आयोजन उसने किया नहीं। संयोगवशात ताओ तेह किंग का जन्म हुआ। हैपनिंग है, डूइंग नहीं; एक घटना है जो घटी। जिसके लिए लाओत्से भी नहीं कह सकता कि क्यों। न घटती तो कोई हर्ज न था। घट गई तो कोई सम्मान, कोई प्रतिष्ठा उसके लिए मिलनी चाहिए, ऐसी कोई आकांक्षा नहीं है।
बड़े मजे की बात है कि लाओत्से इन वचनों को बोल कर खो गया; फिर उसका पता नहीं चला। ये उसके आखिरी वचन हैं; इसके बाद वह चीन से खो गया। कोई कहता है भारत की तरफ लाओत्से आया; कोई कहता है हिमालय, या तिब्बत। लेकिन इतिहास से खो गया। इतने बहुमूल्य अमृत-वचन देकर फिर वह यह भी नहीं रुका कि कोई क्या कहेगा। किसी ने सुने, किसी ने पढ़े, किसी का जीवन रूपांतरित हुआ, कुछ हुआ लाभ या हानि, इससे भी कोई प्रयोजन नहीं था। जैसे पक्षी गीत गाते हैं, वृक्षों में फूल लगते हैं, नदियां बहती हैं, ऐसा लाओत्से में ताओ तेह किंग लगा और बहा।
जो व्यक्ति अपनी अवस्था को स्वीकार कर लेता है जैसी भी है, उसके जीवन में बहुत कुछ होगा। लेकिन उस होने से अहंकार का कोई संबंध नहीं। वह होगा स्वभाव से, वह होगा परम प्रकृति से। तब वैसा व्यक्ति यह भी कह सकता है कि परमात्मा मुझसे काम ले रहा है; वही कर रहा है। लाओत्से तो यह भी नहीं कहता, क्योंकि इसमें भी अस्मिता आ सकती है कि परमात्मा मुझसे काम ले रहा है, किसी और से काम नहीं ले रहा! लाओत्से तो कह रहा है, स्वभाव में ऐसा हो रहा है। इसमें कुछ विचारणीय नहीं है।
और अनाथ, असहाय...।
हम सब तरह से उपाय करते हैं इस बात को छिपाने का कि हम असहाय हैं। धन से, पद से, प्रतिष्ठा से चारों तरफ एक बागुड़ लगाते हैं कि उसके भीतर हम सुरक्षित मालूम पड़ें और लगे कि हम कोई असहाय नहीं हैं, कोई अनाथ नहीं हैं। लेकिन आदमी असहाय है। मौत आएगी और हम किसी भांति उसे रोक न पाएंगे।
विलियम जेम्स एक पागलखाने को देखने गया। खुद बहुत बड़ा मनसविद। लौट कर बहुत चिंतित हो गया। और फिर कहते हैं, जीवन भर वह चिंता उसे छूटी नहीं। और चिंता इस बात की कि पागलखाने में उसने लोगों को देखा और उसे यह खयाल आया एक मित्र को देख कर, क्योंकि कल तक वह ठीक था, और कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह पागल हो जाएगा, कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि वह पागल हो जाएगा; बिलकुल ठीक था, और पागल हो गया, तो विलियम जेम्स को एक खयाल पकड़ गया कि अगर मैं भी कल पागल हो जाऊं तो उपाय क्या है? मैं क्या कर सकूंगा? और पक्का क्या है कि मैं कल नहीं हो जाऊंगा? क्योंकि कल यह मेरा मित्र भी ठीक था और कभी सोच भी नहीं सकता था कि पागल हो जाएगा। मैं भी कल पागल हो जा सकता हूं। मेरी सामर्थ्य क्या है? और उपाय क्या है करने का कि मैं न हो जाऊं?
जो भी किसी मनुष्य को कभी घटा है वह आपको भी घट सकता है। किसी भी मनुष्य को जो भी घटा है! रास्ते पर कोई भीख मांग रहा है तो आप यह मत सोचें कि वह उसको घटा है, आपको नहीं घट सकता। कल आप भीख मांग सकते हैं। आज सोच भी नहीं सकते। आज सोचने का कोई कारण भी नहीं है। सोचें तो भी खयाल में नहीं आएगा, क्योंकि सारी सुविधा है, सब सुरक्षा है। कोई वजह नहीं है व्यर्थ की बातें सोचने की। लेकिन यह घट सकता है। सम्राटों ने भीख मांगी है। शक्तिशाली लोग दीन-दरिद्र हो गए हैं।
रूस में लेनिन के पहले, सत्ता में आने के पहले, करेंसकी प्रधान मंत्री था। बड़ा ही शक्तिशाली आदमी था। फिर क्रांति हुई, कम्युनिस्ट क्रांति में करेंसकी खो गया। फिर लोग उसको भूल ही गए कि करेंसकी की कभी कोई ताकत थी। उन्नीस सौ साठ में पता चला कि अमरीका में वह किराने का काम करता है; एक दुकानदार है छोटा सा और किराने का काम, बेचने का काम करता है। उन्नीस सौ साठ में, उन्नीस सौ सत्रह से खोया हुआ आदमी! कोई सोच भी नहीं सकता कि लेनिन दुकान पर बैठ कर कहीं किराना बेच रहा होगा। करेंसकी एक दिन लेनिन से बड़ी ताकत का आदमी था। जब लेनिन कुछ भी नहीं था तब करेंसकी प्रधान मंत्री था। लेकिन यह हो जाता है।
जो किसी भी मनुष्य को घटा है वह आपको भी घट सकता है--कोई दुख, कोई पीड़ा, कोई आघात, पागलपन, मृत्यु, दीनता, दरिद्रता--कुछ भी, मनुष्यता को जो भी हो सकता है वह प्रत्येक मनुष्य को हो सकता है। असहाय हम बिलकुल हैं। और जब हो तो हम कुछ भी नहीं कर सकते। हमारी नाव किसी भी क्षण डूब सकती है। क्योंकि नावें रोज डूबती हैं। और एक न एक दिन तो सभी नाव को डूबना ही पड़ता है। अगर किसी तरह हम बचा भी लिए तो बचा कर पहुंचेंगे कहां? कितने ही बच कर जाएं, आखिर में मौत में पहुंच जाते हैं। सब बचाव मौत में ले जाता है। असहाय होना हमारा जीवन का अनिवार्य तत्व है।
लाओत्से कहता है, "अनाथ, अयोग्य और अकेला होने से मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।'
और यह तथ्य है। और जो तथ्य से घृणा करता है वह सत्य को कभी भी नहीं जान सकेगा।
"तो भी राजा और भूमिपति अपने को इन्हीं नामों से पुकारते हैं।'
लेकिन चीन के सम्राट अपने को इन्हीं नामों से पुकारते रहे हैं--अनाथ, अयोग्य, अकेला। किसी कारण से। इसलिए नहीं कि वे बहुत बुद्धिमान थे; बल्कि किसी कारण से। क्योंकि चीनी ज्योतिष ऐसा मानता है कि हमेशा अपने को उस जगह मानो जहां से प्रगति की संभावना हो। कभी भी पूर्णिमा का चांद अपने को मत मानो, क्योंकि उसके बाद सिवाय पतन के और कुछ भी नहीं होता। सदा दूज के चांद अपने को मानो। तो बढ़ सकते हो। इसलिए चीन के सम्राट अपने को सदा अनाथ, अयोग्य और अकेला मानते रहे हैं, ताकि बढ़ती की संभावना रहे। किसी बुद्धिमत्ता के कारण नहीं, लेकिन एक पुरानी परंपरा के कारण। पर परंपरा बुद्धिमानों से जन्मी है। क्योंकि जिन्होंने यह कहा कि अपने को दूज के चांद की तरह समझो उन्होंने बड़ी कीमत की बात कही। उन्होंने यह कहा, ताकि तुम सदा फैल सको, सदा बढ़ सको; गुंजाइश हो, स्पेस हो, जगह हो; सिकुड़ न जाओ।
इसलिए विनम्र आदमी बढ़ सकता है; अहंकारी नहीं बढ़ सकता। वहां जगह नहीं है बढ़ने की। वह जो भी हो सकता था, जो होने की संभावना थी, वह मानता है वह है ही। जो अपने को अज्ञानी मानता है वह कभी ज्ञानी हो सकता है, लेकिन जो ज्ञानी अपने को इसी क्षण मान रहा है उसके सारे द्वार बंद हो गए। जो अपने को शून्य मानता है वह पूर्ण हो सकता है। सब द्वार खुले हैं। कहीं से भी जीवन को रोकने का कोई उसने इंतजाम नहीं किया है। जीवन सब तरफ से आए, तो उसका निमंत्रण है।
"क्योंकि चीजें कभी घटाई जाने से लाभ को प्राप्त होती हैं, और बढ़ाई जाने से हानि को। दूसरों ने इसी सूत्र की शिक्षा दी है, मैं भी वही सिखाऊंगा: हिंसक मनुष्य की मृत्यु हिंसक होती है। इसे ही मैं अपना आध्यात्मिक गुरु मानूंगा।'
लाओत्से के सभी वचन बहुत सूक्ष्म हैं; नाजुक भी। और उसके इशारे न समझे जाएं तो भूल-चूक हो सकती है। लाओत्से कहता है, वही आदमी अहिंसक है जो अपने को अकेला, अनाथ और अयोग्य मानता है। यह बड़ी अनूठी बात है; क्योंकि अहिंसक से हम सीधा इसका कोई संबंध न जोड़ेंगे। लेकिन गहरा संबंध है।
जो आदमी अपने को योग्य मानता है वह हिंसक होगा। इस घोषणा में ही कि मैं योग्य हूं, उसने हिंसा शुरू कर दी। इस घोषणा के साथ ही वह दूसरे को अयोग्य सिद्ध करने में लग जाएगा। संघर्ष शुरू हो गया। जिस आदमी ने कहा कि मैं अनाथ नहीं हूं, मैं नाथ हूं, स्वामी हूं, मालिक हूं, उसने हिंसा शुरू कर दी। इसे वह सिद्ध करेगा। मालिक होकर ही सिद्ध किया जा सकता है। दूसरे का मालिक होना ही हिंसा है, क्योंकि दूसरे को मिटाए बिना कोई भी मालिक नहीं हो सकता। स्वामी बनने की चेष्टा विध्वंसक है; दूसरे को नष्ट करना ही पड़ेगा, तोड़ना ही पड़ेगा; अंग-भंग करने पड़ेंगे। दूसरे की स्वतंत्रता छीन लेनी पड़ेगी। और दूसरे के व्यक्तित्व को नष्ट करके एक वस्तु बना देना होगा। तभी कोई स्वामी हो सकता है।
हम सभी इसी कोशिश में लगे होते हैं कि हमारा स्वामित्व का दायरा बड़ा हो जाए। उसका मतलब, हमारी हिंसा का दायरा बड़ा हो जाए। हम ज्यादा लोगों को काट-पीट सकें, ज्यादा लोग हमारी मुट्ठी में हों कि जब भी हम हाथ दबाएं, उनको हम खत्म कर सकें।
मुल्ला नसरुद्दीन को उसके सम्राट ने बुलाया था। खबर पहुंची सम्राट तक कि वह बहुत बुद्धिमान है, नसरुद्दीन बुद्धिमान है। सम्राट ने कहा कि बुलाओ; तलवार सब बुद्धिमानियों को नष्ट कर सकती है। वह तलवार का भरोसा ही था उसे। वह नंगी तलवार लेकर बैठा। नसरुद्दीन लाया गया। उस सम्राट ने नसरुद्दीन से कहा कि तुम एक वक्तव्य दे सकते हो, एक वचन, एक वाक्य बोल सकते हो। और सुना है मैंने कि तुम बुद्धिमान हो। तो एक वचन बोलो! अगर वचन सत्य हुआ तो तुम्हें तलवार से काटा जाएगा, और अगर वचन झूठ हुआ तो तुम्हें सूली पर लटकाया जाएगा। और एक वचन बोलने की तुम्हें आज्ञा है। और सुना है मैंने कि तुम बुद्धिमान हो। सूली उसने तैयार करवा रखी थी; नंगी तलवार लिए आदमी सामने खड़ा था।
नसरुद्दीन ने जो वचन कहा वह बहुत अदभुत है। नसरुद्दीन ने कहा, आई एम गोइंग टु बी हैंग्ड; मुझे सूली होने वाली है। सम्राट को मुसीबत में डाल दिया। क्योंकि उसने कहा था, अगर तू सच बोले तो तुझे तलवार से काटा जाएगा; अगर तू झूठ बोले तो तुझे सूली लगाई जाएगी। अब वह कहता है, मुझे सूली लगाई जाने वाली है। अगर उसको तलवार से काटा जाए तो वह सच बोला था, और अगर उसे सूली लगाई जाए तो सूली तभी लगाई जा सकती है जब वह झूठ बोला हो। सम्राट ने कहा कि तुमने मुझे मुसीबत में डाल दिया। और मैं तो सिर्फ एक ही बात जानता हूं; हिंसा और तलवार के सिवाय मैं कुछ नहीं जानता। लेकिन तुम चालाक हो, तुम निश्चित बुद्धिमान हो।
हमारी बुद्धिमानी भी सिर्फ दूसरों की हिंसा से बचने में लगती है। दो ही तरह के लोग हैं। एक वे, जिनकी सारी शक्ति हिंसा करने में लग रही है; और दूसरे, जिनकी बुद्धिमानी अपने को बचाने में लग रही है। बाकी सारा खेल हिंसा का है। या तो हम हिंसा करने वालों में लगे हुए हैं, साथ हैं, और या फिर हिंसा से बचने की कोशिश में लगे हुए हैं। मगर सारा जीवन या तो हम स्वामी बनना चाहते हैं, या कोई हमें गुलाम न बना ले, इसकी फिक्र में हैं। पर दोनों हालत में हमारा संदर्भ सदा हिंसा है।
लाओत्से कहता है, जो अपने को अनाथ, अयोग्य और अकेला मान लेता है वह हिंसा से मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति न तो दूसरे की मालकियत बनने की फिक्र में लगता है और न अपने को बचाने की फिक्र में लगता है। क्योंकि वह जानता है, बचने का कोई उपाय ही नहीं। मौत आएगी ही। न वह किसी को मारने जाता है, क्योंकि मौत सभी को मार डालेगी, उसके काम को बीच में करने की कोई जरूरत नहीं है; और न वह अपने को बचाने की बहुत चिंता में लगता है, क्योंकि मौत यह काम भी कर देगी। अहिंसा का जन्म तभी होता है जीवन में जब न तो हम किसी को गुलाम बनाना चाहते हैं और न हम किसी के गुलाम बनना चाहते हैं, न गुलाम बनने से बचना चाहते हैं। हम हिंसा की भाषा में सोचते ही नहीं। और जो व्यक्ति भी अनाथ, अयोग्य और अकेला मानने को राजी हो जाए वह एक सूक्ष्म द्वार से जैसे हिंसा के जगत के बाहर हो जाता है।
इसका यह मतलब नहीं कि हम उसे नहीं मार डाल सकते; हम उसे मार डाल सकते हैं। लेकिन फिर भी हम उसे छू नहीं सकते। हम उसकी गर्दन काट सकते हैं, लेकिन फिर भी हम उसे नहीं काट सकते। गर्दन कटते क्षण में भी उसे हम चोट नहीं पहुंचा सकते, क्योंकि उसने इसे स्वीकार ही कर लिया था कि यह जीवन का अनिवार्य अंग है मृत्यु। वह कैसे घटती है यह गौण है। घटना उसका अनिवार्य है। वह सुनिश्चित है।
"दूसरों ने भी इसी सूत्र की शिक्षा दी है, मैं भी वही सिखाऊंगा: हिंसक मनुष्य की मृत्यु हिंसक होती है।'
इस सूत्र में बहुत सी बातें हैं। जो दूसरों का मालिक बनना चाहता है वह आखिर में पाता है कि दूसरे उसके मालिक बन गए। जो किसी को गुलाम बनाता है, वह उसका गुलाम बन जाता है। जो हम दूसरों के साथ करते हैं, उसका ही प्रतिफल हम पर लौट आता है।
यही होगा भी। जीवन का सीधा नियम है। हम जो जीवन की तरफ फेंकते हैं वही जीवन हमें लौटा देता है। जो भी हमें मिलता है वह हमारा ही दिया हुआ है जो जीवन के हाथों वापस आया, चाहे समय कितना ही लगा हो और हम भूल भी गए हों कि हमने ही दिया था। जब कोई गाली आपके पास आती है तो शायद आपको याद भी न हो, क्योंकि हो सकता है बड़ा समय बीत गया हो, जन्म-जन्म बीत गए हों। लेकिन जो दिया है वही वापस लौट आता है। हम हिंसा करते हैं, हिंसा हमारे ऊपर चारों तरफ से बरस जाती है।
"हिंसक मनुष्य की मृत्यु हिंसक होती है।'
जो हम बोते हैं उससे अन्यथा काटने का उपाय नहीं है। और अगर हम हिंसा काट रहे हों, हमारे ऊपर हिंसा बरस रही हो, तो उसका अर्थ है कि उसे भी हम चुपचाप स्वीकार कर लें कि वह हमारा पिछला हिसाब है जो साफ हुआ जा रहा है। लेकिन प्रतिकार न करें। प्रतिकार फिर नए बीज बो देता है, और शृंखला का कोई अंत नहीं आता।
"इसे ही मैं अपना आध्यात्मिक गुरु मानूंगा।'
लाओत्से कह रहा है, यह सूत्र मार्ग-निर्देशक है। तुम न किसी के मालिक बनना, न तुम किसी से अपने को योग्य सिद्ध करना, न तुम अपने को इस भुलावे में डालना कि दूसरे का संग-साथ हो सकता है। तब तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे जीवन से हिंसा विसर्जित हो गई। और जैसे ही हिंसा विसर्जित होती है वैसे ही तुम्हारी आंखें धुएं से मुक्त हो जाती हैं और वह जो सत्य चारों तरफ छिपा है वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है।
लेकिन सिद्धांतों को तो हम सिर का बोझ बना लेते हैं। जीसस भी यही कहते हैं कि जो तलवार उठाएगा वह तलवार से ही काटा जाएगा। महावीर यही कहते हैं, बुद्ध यही कहते हैं। लेकिन सिद्धांत तो शास्त्र बन जाते हैं; फिर उनको हम कंधों पर रख लेते हैं; फिर हम उन्हें ढोने लगते हैं। फिर हम भूल जाते हैं कि उनकी कोई उपयोगिता है, वे कंधों पर रख कर ढोने के लिए नहीं हैं। कभी-कभी हम उन्हें अध्ययन भी करते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जब छोटा था, तो उसकी मां ने एक दिन उसे कहा कि बेटा, मैं थोड़ा नदी तक जाती हूं, तू जरा दरवाजे पर ध्यान रखना। नसरुद्दीन बैठा रहा। आधा घंटा, घंटा, फिर बेचैनी उसे शुरू हो गई। आखिर कब तक वह दरवाजे पर ध्यान रखे? चला-फिरा, दरवाजे का चक्कर भी लगाया, बाहर-भीतर गया। लेकिन ध्यान दरवाजे पर रखना था, एक सिद्धांत की बात मां कह गई थी। आखिर बेचैनी बढ़ गई। दो घंटे पूरे होने लगे। तो झोपड़ा तो था; उसने दरवाजे को हिला कर निकाल लिया, कंधे पर रखा और बाजार की तरफ चल दिया। उधर से मां लौटती थी नदी के किनारे, उसने कहा कि नसरुद्दीन, यह तू क्या कर रहा है? मैंने तुझसे कहा था दरवाजे पर ध्यान रखना! उसने कहा, कब तक ध्यान रखते? मैंने सोचा, दरवाजा साथ ही रखो। ध्यान रखने की कोई जरूरत ही नहीं। और जहां जाओ दरवाजा साथ ही रहेगा, फिक्र भी कुछ नहीं है। ध्यान रखे हुए हूं।
वह मकान और असुरक्षित हो गया।
हम भी मार्ग-निर्देशक सूत्रों पर ध्यान रखे हुए हैं। हम सबको पता है कि क्या ठीक है। पर वह हमारे कंधे पर बंधा है। उसमें हमारे जीवन का कोई संबंध नहीं है। और जीवन में हम पूरी चेष्टा यही कर रहे हैं जो कहा गया है कि मत करना। फिर हम दुख पा रहे हैं। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि हम जीवन में सब अच्छा कर रहे हैं, फिर भी हम दुख पा रहे हैं।
यह नहीं हो सकता। उसका मतलब ही इतना है कि वे अच्छा सोच रहे हैं। कर तो वे जो रहे हैं वह गलत ही है। या वे गलत की भी व्याख्या ऐसी कर रहे हैं कि उनके शास्त्र से मेल खा जाती है, लेकिन वे कर तो गलत ही रहे हैं। अब यह हो सकता है कि आप राजनीतिज्ञ बन कर लोगों के मालिक न बनें, यह हो सकता है धन इकट्ठा करके लोगों के मालिक न बनें, आप गुरु हो जाएं और लोगों की गर्दन जकड़ लें। तो एक ही बात है। और गुरु जिस बुरी तरह गर्दन पकड़ सकता है, कोई भी नहीं पकड़ सकता। गुरु से बचने का उपाय नहीं। क्योंकि आप हमेशा गलत हैं, वह हमेशा ठीक है।
और कुछ लोग सिर्फ इसीलिए ठीक रह सकते हैं कि वह आपको गलत करने का मजा ठीक रहने में ही छिपा हुआ है। आपका गुरु बिलकुल नियम के अनुसार चल सकता है, सिर्फ इसलिए कि उसको आपको भी नियम के अनुसार चलाने का मजा लेना है। बहुत से गुरु विदा हो जाएं अगर उनके शिष्य चले जाएं। उनके सब नियम टूट जाएं, क्योंकि नियमों का केवल एक रस था कि उनके माध्यम से मालकियत मिलती थी।
आप तीन बजे रात उठ सकते हैं अगर हजार आदमियों को आपको तीन बजे रात उठाने का मजा लेना हो। और तब आपको बिलकुल कष्ट नहीं होगा। तीन बजे आप इतने मजे से उठ आएंगे जिसका हिसाब नहीं। और लोग शायद यही सोचेंगे कि आप ब्रह्ममुहूर्त में उठने का मजा ले रहे हैं। लेकिन मन बहुत अदभुत है, वह एक हजार आदमियों को सताने का मजा ले रहा है कि उनको, तीन बजे रात उनको भी उठना पड़ेगा।
आप रास्ते निकाल सकते हैं बुरा करने के इस भांति कि वे अच्छे मालूम हों। लेकिन आदमी की बड़ी गहरी तलाश अहंकार की पूर्ति की ही बनी रहती है, दूसरे को नीचा दिखाने की बनी रहती है। वह कैसे नीचा दिखाता है, यह बात दूसरी है। धन से नीचा दिखाता है, पद से, कि ज्ञान से, यह बात दूसरी है, कि त्याग से। मगर दूसरे को नीचा दिखाने का जो रस है, वह कायम बना रहता है। और जब तक वह न मिट जाए तब तक जीवन से हिंसा का कोई अंत नहीं है।
"हिंसक मनुष्य की मृत्यु हिंसा से होती है। इसे ही मैं अपना आध्यात्मिक गुरु मानता हूं।'
इस सूत्र को ही, लाओत्से कहता है, अगर कोई व्यक्ति ठीक से जीवन में उतार ले तो कुछ और उतारने की जरूरत न रह जाएगी। यह सूत्र काफी गुरु है।

आज इतना ही।

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