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बुधवार, 27 जून 2018

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--034

संत की पहचान: सजग व अनिर्णीत, अहंशून्य व लीलामय—(प्रवचन—चौंतीसवां) 

अध्याय 15 : खंड 1

प्राचीन समय के संतजन

प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित एवं निष्णात संतजन सूक्ष्म
और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने में
सफल हुए। और वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
और चूंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे, इसलिए उनके संबंध में
इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है कि वे अत्यंत
सतर्क व सजग हैं, जैसा कोई शीत-ऋतु में किसी नाले को पार करते
समय हो; वे सतत अनिर्णीत व चौकन्ने रहते हैं, जैसा कि
कोई व्यक्ति जो कि सब ओर खतरों से घिरा हो;
वे जीवन में जैसे कि अतिथि हों, ऐसा गंभीर अभिनय करते हैं।
उनकी अस्मिता सतत विसर्जित होती रहती है, जैसे कि प्रतिपल
बिखरता हुआ बर्फ हो; वे अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा
नहीं करते, जैसे कि वह लकड़ी, जिसे अभी कोई भी रूप नहीं
दिया गया है; वे एक घाटी की भांति रिक्त और
मटमैले जल की भांति विनम्र होते हैं।


ह सूत्र बहुत अनूठा है। अनूठा इसलिए है कि संतों के संबंध में हमारी जो धारणा है, उसके बिलकुल प्रतिकूल है। संत के संबंध में जैसा हम सोचते हैं, वैसा लाओत्से नहीं सोचता।
लाओत्से का संत ज्यादा समग्र व्यक्ति है। हमारा संत अधूरा है। हम जिसे संत कहते हैं, आमतौर से उसे संत न कह कर सज्जन कहें, तो उचित हो। दुर्जन और सज्जन हमारी बुद्धि की पकड़ के भीतर होते हैं। जो बुरा कर रहा है, वह दुर्जन है; और जो भला कर रहा है, वह सज्जन है। सज्जन में हम, जो भी शुभ है, उसे जोड़ देते हैं; और दुर्जन में, जो भी अशुभ है, उसे।
लेकिन लाओत्से का संत समग्र व्यक्ति है, इंटिग्रेटेड। वह दुर्जन के खिलाफ नहीं है और मात्र सज्जन नहीं है। वह दोनों है और दोनों के पार है। वह एक साथ दोनों है, इसलिए दोनों के पार होने में समर्थ है।
इस सूत्र को समझने में दोत्तीन बातें हम पहले समझ लें। और फिर सूत्र की मौलिक आत्मा में प्रवेश करें।
एक महत्वपूर्ण बात लाओत्से कहता है, "प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित एवं निष्णात संतजन सूक्ष्म और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने में सफल हुए। और वे इतने गहरे थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।'
पहली बात, विज्ञान में नए सत्यों का उदघाटन निरंतर होता है। इसलिए विज्ञान के जगत में मौलिक चिंतक होते हैं, जो नई खोज करते हैं। धर्म के जगत में मौलिक चिंतन का कोई अर्थ नहीं होता। धर्म के जगत में नए सत्य की कोई खोज नहीं होती है। धर्म के जगत में सत्य न तो नया है, न पुराना। सनातन है। उसी सत्य का पुनः-पुनः उदघाटन होता है। व्यक्ति के लिए नया हो, क्योंकि उसने पहली बार जाना; लेकिन वह सत्य नया नहीं है। सत्य सदा से है।
इसीलिए विज्ञान के सत्य आज नए होते हैं, कल पुराने पड़ जाते हैं। जो भी नया है, वह पुराना पड़ेगा ही। धर्म के सत्य न तो नए होते और न पुराने पड़ते। क्योंकि जो नया नहीं है, उसके पुराने पड़ने का कोई उपाय भी नहीं है। धर्म निजी खोज है उस सत्य की, जो सदा है। इसलिए चाहे कृष्ण, चाहे क्राइस्ट, चाहे महावीर, चाहे लाओत्से, वे सभी उन ऋषियों की बात करते हैं, जिन्होंने पहले भी इस सत्य को पाया है।
यह थोड़ा विचारणीय है। वैज्ञानिक जब भी किसी सत्य की बात करेगा, तो वह कहेगा कि पहले इसे किसी ने भी नहीं पाया। अगर पहले भी इसे किसी ने पा लिया है, तो वैज्ञानिक की खोज व्यर्थ हो जाती है। अगर न्यूटन को कुछ सिद्ध करना है, तो वह कहेगा कि पहले इसे किसी ने भी नहीं पाया। विज्ञान में यह अनिवार्य है। अगर पहले किसी ने पा लिया है, तो न्यूटन के होने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए विज्ञान में हर चिंतक को सिद्ध करना पड़ता है कि मैं नया हूं, मौलिक हूं, ओरिजिनल हूं।
धर्म की स्थिति बिलकुल उलटी है। यहां अगर कोई चिंतक यह सिद्ध करने की कोशिश करे कि नया है, तो उसका अर्थ होगा कि वह गलत है। क्योंकि धर्म के सत्य बासे नहीं होते, उधार नहीं होते, मृत नहीं होते, जूठे नहीं होते। और जब भी कोई व्यक्ति उन्हें जानता है, तो वे ताजे और नए होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं होता कि उसके पहले नहीं जाने गए होते। हजारों लोग इसके पहले भी जान चुके होते हैं। सत्य तो वही है।
इसलिए विज्ञान का सत्य आज सत्य है, कल असत्य हो जाएगा। इसीलिए तो नया हो सकता है। इसे हम ऐसा समझें कि असत्य ही नया हो सकता है; सत्य नया नहीं हो सकता। और असत्य को खोज सकते हैं आप दूसरों से भिन्न; क्योंकि असत्य निजी हो सकते हैं, हर आदमी का अपना असत्य हो सकता है। लेकिन हर आदमी का अपना सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो एक ही होगा। और जब भी कोई व्यक्ति अपने हृदय को खोलेगा, तो उस सत्य को उपलब्ध हो जाएगा।
विज्ञान में ऐसा लगता है कि आदमी सत्य का दरवाजा खोलता है। और धर्म में अपने हृदय को सत्य के लिए खोलता है। और हृदय की अंतिम गहराई में जो छिपा है, वह एक ही है। इसलिए कृष्ण भी कहते हैं कि मुझसे पहले भी ऋषियों ने यही कहा। महावीर भी कहते हैं, मुझसे पहले तीर्थंकरों ने यही जाना। क्राइस्ट भी कहते हैं कि मुझसे पहले जो पैगंबर हुए, उन्होंने भी यही कहा। मोहम्मद भी यही कहते हैं। कोई उनमें से दावा नहीं करता कि जो मैं कह रहा हूं, वह नया है।
लाओत्से भी कहता है कि प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित संतजनों ने अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से जीवन के परम रहस्य में प्रवेश किया। लेकिन लाओत्से ने उनमें से किसी का भी नाम नहीं लिया है। यह भी विचारणीय है।
लाओत्से का खयाल है कि इस जगत में जो लोग जितने गहरे सत्य में प्रविष्ट हुए, इतिहास उनका स्मरण रखने में असमर्थ रहा है। क्योंकि इतिहास केवल उन्हीं लोगों का स्मरण रख सकता है, जो उस समय के आदमियों की समझ में आए हों। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने उस परम रहस्य को जाना। लेकिन वह परम रहस्य इतना गूढ़ था कि जब उन्होंने उसे कहा और जीया, तो लोग उसे समझ नहीं सके। इसलिए उन परम रहस्यदर्शियों का नाम भी विस्मृत होता चला गया। बहुतों के वचन हमारे पास हैं, लेकिन नाम खो गए हैं। बहुतों के नाम हमारे पास हैं, तो वचन खो गए हैं। और बहुतों के नाम और वचन, दोनों ही खो गए हैं।
लाओत्से उन संतों की बात कर रहा है, जिनका इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
मनुष्य की समझ बड़ा छोटा दायरा बनाती है। और मनुष्य की समझ में जो आ पाता है, वह अति क्षुद्र है। जितना विराट हो, जितना महान हो, मनुष्य की समझ के लिए उतनी ही कठिनाई हो जाती है। कई बार तो ऐसा होता है कि जैसे बहुत प्रकाश हो, तो आंखें बंद हो जाती हैं। सूरज के सामने आंखें हों, तो पलक झप जाती हैं। ठीक वैसे ही बहुत बार जिन्होंने परम सत्य को अनुभव किया, उनके सामने हमारी समझ झप जाती है, बंद हो जाती है। हम कुछ भी नहीं समझ पाते हैं। क्या कारण है?
इस संबंध में भी विज्ञान और धर्म के भेद को समझ लेना जरूरी है। अगर विज्ञान को समझना हो, तो आपकी समझ को बढ़ाने की जरूरत नहीं है; सिर्फ आपकी समझ में और जानकारी जोड़ देने की जरूरत है। अगर मैं दस तक गिनती जानता हूं, तो बीस तक गिनती जानने के लिए मेरी समझ को बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है। सिर्फ मुझे बीस तक की गिनती से परिचित हो जाना काफी है। मेरी समझ वही रहेगी; मैं बीस तक की गिनती जान लूंगा। हजार तक जान सकता हूं। सिर्फ जोड़ बढ़ता जाएगा। मेरी समझ वही रहेगी; सिर्फ मेरा संग्रह बढ़ता चला जाएगा।
इसलिए मनसविद कहते हैं कि आमतौर से बच्चे की समझ अठारह साल के बाद बढ़ती नहीं। अठारह साल पर समझ तो ठहर जाती है, लेकिन संग्रह बढ़ता चला जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि अठारह साल के बच्चे और अस्सी साल के बूढ़े में फर्क नहीं होगा। फर्क होगा। लेकिन फर्क समझ का नहीं, संग्रह का होगा। बूढ़े के पास ज्यादा संग्रह होगा, जानकारी ज्यादा होगी। अठारह साल के लड़के के पास जानकारी कम होगी। लेकिन वैज्ञानिक कहते हैं, समझ में कोई फर्क नहीं पड़ता। समझ तो ठहर जाती है अठारह साल पर। अठारह भी आखिरी आंकड़ा है। समझ और भी पहले अधिक लोगों की ठहर जाती है।
पिछले महायुद्ध में अमरीका में उन्होंने जिन सैनिकों की भर्ती की, उनकी समझ का अंक निकालने की कोशिश की, तो बहुत हैरान हुए। लाखों लोगों के बुद्धि-अंक खोजे गए, तो साढ़े तेरह वर्ष औसत उम्र मिली--उम्र मन की। साढ़े तेरह वर्ष औसत उम्र पाई गई। आदमी, साढ़े तेरह वर्ष पर उसकी समझ रुक जाती है। फिर संग्रह बढ़ता चला जाता है। समझ के लिहाज से साढ़े तेरह वर्ष के आदमी में और अस्सी साल के बूढ़े आदमी में फर्क नहीं होता। संग्रह के हिसाब से बहुत फर्क होता है।
विज्ञान में हम आदमी का संग्रह भर बढ़ाए चले जाते हैं। इसलिए हमारी सारी शिक्षा समझ पर निर्भर नहीं करती, संग्रह पर निर्भर करती है। और हमारी सारी शिक्षा बुद्धि को नहीं बढ़ाती, केवल स्मृति को बढ़ाती है। इसलिए हमारी सारी परीक्षाएं स्मृति की परीक्षाएं हैं, बुद्धि की नहीं।
लेकिन धर्म की स्थिति बिलकुल दूसरी है। धर्म आपके संग्रह के बढ़ने से समझ में नहीं आता, आपकी समझ बढ़नी चाहिए। आपकी समझ विकसित होनी चाहिए। आपकी समझ जितनी प्रौढ़ हो, उतना ही ज्यादा धर्म को समझना आसान हो जाएगा।
मैंने कहा कि हमारी औसत उम्र साढ़े तेरह वर्ष पर रुक जाती है--बुद्धि की उम्र। लाओत्से के संबंध में बड़ी मीठी कहानी है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। यह बहुत प्रतीकात्मक है; क्योंकि लाओत्से के पास बचपन से वैसी समझ थी, जैसी सौ साल के बूढ़े आदमी के पास हो, अगर उसकी समझ बढ़ती चली जाए--संग्रह न हो, समझ बढ़ती चली जाए। संग्रह और समझ ही नालेज और विज़डम का फर्क है। तो ज्ञान तो बुद्धि को बिना बढ़ाए भी बढ़ सकता है, लेकिन बुद्धिमत्ता--विज़डम--बुद्धि को बदले बिना नहीं बढ़ सकती। और धर्म एक ऐसे लोक की बात करता है कि जब तक हमारी बुद्धि का समस्त रूपांतरण न हो, तब तक वह हमारी समझ के बाहर होगा।
लाओत्से कहता है कि उन सूक्ष्मदर्शी, संवेदनशील संतों ने उस परम रहस्य में प्रवेश किया; लेकिन वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
आज भी धर्म मनुष्य की समझ के परे है। और धर्म शायद सदा ही मनुष्य की समझ के परे रहेगा। क्योंकि मनुष्य की समझ वस्तुओं को समझने के लिए योग्य, लेकिन अनुभूतियों को समझने के योग्य नहीं है। मनुष्य की समझ दूसरे को समझने में समर्थ, स्वयं को समझने में अभी भी असमर्थ है। दूसरे को समझना बहुत आसान, खुद को समझना बहुत मुश्किल है। क्योंकि हमारे पास वह समझ ही नहीं है जो खुद को समझ ले।
इसे हम ऐसा समझें कि अगर मेरी आंखें खराब हो जाएं और मैं दूर ही देख सकूं और पास न देख सकूं, तो उसका अर्थ होता है कि आंखें दूरी पर फिक्स हो गईं। अब मुझे पास देखना हो तो चश्मे की जरूरत पड़े। और दूर देखना हो तो चश्मे की कोई भी जरूरत नहीं है। पास देखना मुश्किल, दूर देखना आसान। करीब-करीब मनुष्य की समझ दूर पर फिक्स हो गई है, ठहर गई है। दूसरे को देखना आसान, दूसरे को समझना आसान। जितने दूर की बात हो अपने से, उतने हम बुद्धिमान होते हैं। और जितनी पास आने लगे, उतने ही हम बुद्धिहीन होने लगते हैं। और जब हमारा ही सवाल हो, तो हम बिलकुल ही मूढ़ होते हैं।
इसलिए बहुत मजे की घटना घटती है कि हममें से सभी लोग दूसरों को सलाह देने में जितने कुशल होते हैं, खुद को सलाह देने में उतने कुशल नहीं होते। और अगर किसी आदमी को हम देखें जब वह दूसरे को सलाह दे रहा हो, तो बहुत बुद्धिमान मालूम पड़ेगा। और ठीक उसी स्थिति में वही आदमी जो करेगा, वह बिलकुल मूढ़तापूर्ण होगा। क्या बात क्या है? दूसरा दूरी पर है। दूरी पर हमारी समझ फोकस हो जाती है। पास, हमारी समझ धुंधली होने लगती है, डगमगाने लगती है। जितने हम पास आते हैं, उतनी कंपित होने लगती हैं आंखें। और बिलकुल पास जब केंद्र पर खड़े होते हैं, तो सब अंधेरा हो जाता है।
एक और तरह की समझ चाहिए, जो स्वयं पर केंद्रित होना जानती हो। धर्म का अर्थ है: स्वयं पर केंद्रित होने की क्षमता। एक गहरी सेंटरिंग, अपने पर खड़े हो जाने की। और अपने को ऐसे देखने की क्षमता, जैसे दूसरे को देख रहे हों। अपने को इतने अनासक्त भाव से देखने की क्षमता, जैसे दूसरे को देख रहे हों। जैसे दूसरे को सलाह देते हों, ऐसे अपने को दूरी से देखने की क्षमता। अपने पार होकर, अपने से भिन्न होकर, अपने से अनासक्त होकर, अस्पर्शित होकर दर्शक की तरह स्वयं को देखने की क्षमता धर्म के गूढ़ रहस्य में प्रवेश करवाती है।
हम सब समझदार हैं। जहां तक व्यर्थ की चीजों का संबंध हो, हमारी समझ उतनी ही ज्यादा होती है। जितनी हो व्यर्थ बात, हम उतने ज्यादा समझदार होते हैं। जितनी हो सार्थक बात, उतनी हमारी बुद्धि खोने लगती है। कचरा हो, तो हम जैसे जौहरी खोजना मुश्किल है; हीरा हो, तो हम अंधे हो जाते हैं।
इसलिए लाओत्से कहता है कि प्रवेश तो किया बहुत लोगों ने; लेकिन आदमी की समझ के वे परे थे। क्यों थे परे, उसके कुछ कारण भी कहता है। और चूंकि वे परे थे मनुष्य की समझ के, उनके संबंध में बड़ी भ्रांतियां पैदा होती हैं। और जब लाओत्से उनके लक्षण निर्देश करेगा, तब हमें भी समझ में आएगा कि हमारी भी भ्रांतियां कितनी गहन हैं।
"और चूंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे, इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है।'
ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। उनके संबंध में ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। क्योंकि जिस समझ में हम जीते हैं, उसकी तो भाषा है। और जिस समझ में हम कभी जीए नहीं, उसकी कोई भाषा नहीं है। व्यर्थ को प्रकट करना हो, हमारे पास बड़ी कुशल भाषा है।
कभी आपने खयाल किया, अगर आपको क्रोध करना हो और गालियां देनी हों, तो आप इतने मुखर हो जाते हैं जिसका हिसाब नहीं। और अगर प्रेम करना हो और प्रार्थना करनी हो, तो आप एकदम मूक हो जाते हैं। क्रोध की भाषा है हमारे पास; प्रेम की हमारे पास भाषा नहीं है। क्योंकि प्रेम की भाषा तो तभी हो सकती है, जब निकट की समझ हो। क्रोध की भाषा तो आसान है, क्योंकि क्रोध दूर के लिए है, पराए के लिए है, और के लिए है। तो गाली हम दे सकते हैं। और गाली हमारी जितनी अभिव्यक्ति देती है, उतना हमारा प्रेम अभिव्यक्ति नहीं देता।
प्रेमी अक्सर पाते हैं कि बोलने को कुछ भी नहीं है। क्या कहें? कैसे कहें? लेकिन वे ही प्रेमी जब क्रोध से भरेंगे और घृणा से, तो कभी नहीं पाएंगे कि क्या कहें, क्या न कहें। कहने को बहुत होगा।
भाषा हमारे पास नहीं है उस निकट को प्रकट करने की।
इसलिए लाओत्से कहता है, "इसलिए उनके संबंध में इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है।'
ठीक-ठीक कहना कठिन है, सिर्फ प्रयास हो सकता है। टटोल सकते हैं अंधेरे में, थोड़े इशारे कर सकते हैं। लेकिन खयाल रखें, कोई भी इशारा बहुत मजबूती से पकड़ने जैसा नहीं है। जगत इतना सूक्ष्म है भीतर का और इतना कोमल है, नाजुक है कि जोर से मुट्ठी बांधी, तो उसके प्राण निकल जाते हैं। रहस्य को पकड़ना हो, तो खुली मुट्ठी चाहिए। बहुत जोर से पकड़ने की चेष्टा नहीं चाहिए।
"वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे कोई शीत ऋतु में किसी नाले को पार करते समय हो।'
बहुत धुंधला चित्र लाओत्से देना चाहेगा, धुंधला जान कर, ताकि हमारी समझ उस रहस्य, उस धुंधलके में प्रवेश करने के लिए ऊपर उठे। बहुत बंधे हुए शब्द नहीं लाओत्से देता, इशारे करता है।
लाओत्से कहता है, जैसे सर्दी के दिन हों, बर्फीला नाला हो, पैर डालते खून जमता हो, उस नाले को कोई पार करे, तो जैसा सजग हो, वैसे वे सजग हैं। इस जीवन को पार करते समय उनकी सजगता ऐसी है, जैसे बर्फीले नाले को कोई पार करते वक्त हो।
थोड़ा खयाल करें। अगर बर्फीले नाले को पार करना पड़ रहा है आपको, तो रोआं-रोआं जाग जाएगा। कहीं नाले में गिर न पड़ें! एक-एक पैर उठाएंगे, तो उस पैर पर पूरा ध्यान होगा। अतीत भूल जाएगा, भविष्य भूल जाएगा। एक-एक पैर वर्तमान में ही महत्वपूर्ण हो जाएगा।
या ऐसा समझें कि किसी खंदक-खाई के ऊपर से, बहुत संकरे रास्ते से गुजरते हों, जहां जरा पैर चूके तो अतल खाई में गिर जाएं और प्राण खो जाएं। वहां आपको याद रहेंगी अतीत की बातें? वहां आपको खयाल आएगा बीता हुआ? या वहां सपने आपके मन को घेरेंगे? या वहां भविष्य की योजनाएं आपको पकड़ेंगी? असंभव है। क्योंकि मन जरा सा भी चूक गया वर्तमान से, तो नीचे अतल खाई है। नहीं, वहां आप अत्यंत सजग होकर, जाग कर, शायद जीवन में पहली बार जाग कर चलेंगे। एक-एक कदम आपकी चेतना से भरा होगा, स्मृतिपूर्वक होगा।
इसलिए जापान में झेन फकीरों ने, जिन पर लाओत्से का भारी प्रभाव है, अनेक-अनेक उपाय खोजे हैं आदमी को सजगता सिखाने के। उनमें तलवार चलाने की कला भी एक है। सोचा भी नहीं जा सकता कि ध्यान से तलवार चलाने का क्या संबंध होगा? लेकिन लाओत्से का यह सूत्र ही कारणभूत है।
जापान के फकीरों ने अनुभव किया कि आदमी को बिठा दो और कहो कि शांत हो जाओ, तो वह शांत नहीं होता। बल्कि अशांत हालत में जितना शांत मालूम पड़ता था, ध्यान के लिए बैठ कर उतना भी शांत नहीं रह जाता, और अशांत हो जाता है। जो लोग भी ध्यान में बैठने का कभी प्रयास किए हैं, उन सभी को अनुभव होगा कि मन और अशांत हो जाता है, मन और दौड़ने लगता है, मन और व्यस्त हो जाता है। जो बातें साधारणतया खयाल नहीं आतीं, वे भी खयाल आने लगती हैं। और जो विचार कभी नहीं उठे, वे भी मन पर छा जाते हैं। न मालूम भीतर जैसे सब पागलपन प्रकट होना शुरू हो जाता है।
कभी आधा घंटा शांत बैठने की कोशिश करें। तो वह आधा घंटा पागलपन का हो जाएगा। भला बाहर के लोग समझते हों कि आप ध्यान कर रहे हैं, आप भलीभांति समझते हैं कि आप बिलकुल पागल हो गए हैं। क्या कारण है?
लाओत्से कहता है कि वह सजगता तभी अनुभव हो सकती है, जब जीवन एक खतरा हो, पल-पल खतरा हो। है जीवन पल-पल खतरा। हमें उसका पता नहीं है, इसलिए हम बेहोश चलते हैं। जैसे किसी आदमी की आंख पर पट्टी बंधी हो और उसे पता न हो कि वह खाई के किनारे से गुजर रहा है और अगर एक पैर चूक जाए तो जीवन समाप्त हो जाएगा। तो आंख पर पट्टी बंधा हुआ आदमी खाई के किनारे चलते समय भी अपने विचारों में खोया रहेगा। आंख की पट्टी खोल दें, विचार बंद हो जाएंगे। खतरा दिखाई पड़ेगा।
तो झेन फकीर कहते हैं कि तलवार चलाओ और तलवार चलाने में उस जगह आ जाओ, जहां तलवार ही रह जाए और खतरा इतना तीव्र हो कि तुम्हारे मन को पीछे और आगे जाने का उपाय न रहे। इसी क्षण ठहर जाए। इसलिए झेन फकीरों के मंदिरों के सामने तलवारों के चिह्न बने हुए हैं। और जहां तलवार सिखाई जाती है, उन कक्षों का नाम ध्यान-कक्ष है।
लाओत्से कहता है, वे पुरुष, वे संतजन सजग हो गए थे, यह पहली लक्षणा।
अगर हमसे कोई पूछे कि कौन आदमी संत है, तो हम कहेंगे: शराब नहीं पीता, मांस नहीं खाता, रात्रि-भोजन नहीं करता, झोपड़े में रहता है, नग्न रहता है। हम कुछ ऐसी परिभाषा करेंगे, जिसका संतत्व से कोई भी संबंध नहीं है। लाओत्से कहता है: सजगता। और सजगता में वह सब आ गया, जो हम कहते हैं। लेकिन हम जो कहते हैं, उसमें सजगता नहीं आती।
एक आदमी मूर्च्छित ही मांसाहार कर सकता है, मूर्च्छित ही शाकाहार कर सकता है। एक बच्चा मांसाहारी के घर में पैदा होता है, मांसाहार करता रहता है। एक बच्चा शाकाहारी के घर में पैदा होता है, शाकाहार करता रहता है। दोनों मूर्च्छित हैं। न तो शाकाहारी सजग है और न मांसाहारी सजग है। इन दोनों बच्चों को हम बचपन में बदल लेते, तो जो मांसाहारी है, वह शाकाहारी हो गया होता; जो शाकाहारी है, वह मांसाहारी हो गया होता। कोई अड़चन न आती, कोई अड़चन न आती। जितने मजे से एक आदमी दूध पी लेता है, उतने ही मजे से दूसरा आदमी दूसरी व्यवस्था में खून पी लेता है। दूध पीने में भी उतनी ही बेहोशी बनी रहती है, जितनी खून पीने में।
दूध पीने वाला सोचता होगा कि हम बहुत सजगता से पी रहे हैं, तो गलत सोचता है। मांसाहारी सोचता हो कि बहुत सजगता से मांसाहार कर रहा है, तो गलत सोचता है। हमारे जीवन की जो व्यवस्था है, वह बिलकुल मूर्च्छित है। हम कुछ भी कर सकते हैं उस मूर्च्छा में। उस मूर्च्छा में हमें कुछ भी करने के लिए निष्णात, प्रशिक्षित किया जा सकता है। अगर गैर-मांसाहारी के सामने मांस रख दें, तो उसे उलटी हो जाए। इसलिए नहीं कि उसके पास बहुत बड़ी आत्मा है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि उसके पिछले संस्कार मांसाहार के विपरीत हैं। और कुछ भी नहीं है। अभ्यास नहीं है उसका। मूर्च्छा उसकी उतनी ही है, अभ्यास भिन्न है। ऐसे लोग हैं, जो दूध को भी पीने में मांसाहार ही समझते हैं। तो उनके सामने दूध रखें तो भी वोमिट हो जाएगी। आपको दूध देख कर कभी भी वोमिट नहीं होगी। होगी ही नहीं; दूध तो शुद्ध आहार है। लेकिन ऐसे पंथ हैं, जो मानते हैं कि दूध भी रक्त का ही हिस्सा है। है भी। इसीलिए दूध पीने से इतना रक्त बढ़ जाता है। रक्त में दो तरह के कण हैं: सफेद और लाल। सफेद कण इकट्ठा होकर दूध बन जाते हैं। इसलिए दूध पूर्ण आहार है; क्योंकि पूरा रक्त आपके शरीर को मिल जाता है। जिसको यह खयाल है और जिसका इसके लिए प्रशिक्षण हुआ है, वह दूध को देख कर भी घबड़ा जाएगा। ऐसे लोग हैं, जो अंडे को शाकाहार समझते हैं। क्योंकि वे कहते हैं, जब तक जीवन प्रकट नहीं हुआ, तब तक शाक-सब्जी ही है। उनको अंडे से कोई तकलीफ नहीं होगी। आपकी सजगता पर यह निर्भर नहीं है। आपके आस-पास की व्यवस्था और संस्कार पर निर्भर है कि आपको क्या सिखाया गया है।
इसलिए लाओत्से जैसे व्यक्ति आपकी व्यवस्था पर जोर नहीं देंगे कि आप क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कब सोते हैं, कब उठते हैं। ज्यादा गहरी बात पर उनका जोर है कि आप कुछ भी करते हों, आप जीवन में ऐसे चलते हैं, जैसे शीत ऋतु में सर्द नाले में, बर्फीले नाले में से गुजरता हुआ कोई आदमी सजग चलता है। जो भी आप करते हैं, सजग करते हैं।
और बड़े मजे की बात है, अगर कोई भी व्यक्ति अपने संस्कारों में सजग हो जाए, तो उसका जीवन रूपांतरित हो जाता है। फिर आप क्या खाते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। खाते वक्त आप सजग होते हैं या नहीं, यह महत्वपूर्ण है। और जो सजग है, निश्चित ही जो व्यर्थ है, उससे छूट जाएगा। जो सजग है, उससे जो गलत है, वह अपने आप छूट जाएगा। जो सजग है, उसके साथ सही ही बचेगा, गलत के बचने का उपाय नहीं है। सही और गलत की परिभाषा ही यही है कि जो सजग होकर भी बच जाए, वह सही; और जो सजग होते ही गिरने लगे, वह गलत। सजग होकर भी मैं जो कर सकूं, वही पुण्य है। और जिसे करने के लिए मुझे मूर्च्छित होना अनिवार्य हो, वही पाप है। मूर्च्छा पाप है और सजगता पुण्य है।
इसलिए पहली संतत्व की परिभाषा में लाओत्से कहता है, वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे शीत ऋतु में कोई नाले को पार करता हो।
यहां जोर गुण पर है, आचरण पर नहीं। यहां जोर भीतरी बोध पर है, बाहरी व्यवहार पर नहीं। कल्पना में भी सोचें, आप पार कर रहे हैं बर्फीला नाला। हर आदमी अपने ढंग से पार कर सकता है। कोई दौड़ कर करेगा, कोई धीमे करेगा। अपना-अपना ढंग होगा। कोई गीत गाकर करेगा, कोई चुप रह कर करेगा। लेकिन भीतरी एक गुण--सजगता। कौन कैसे करेगा, यह गौण है। सजग रह कर करेगा, बस इतना काफी है।
लाओत्से के समय में एक बहुत प्रसिद्ध फकीर था। फकीर वह था नहीं, सम्राट के घर पशुओं को काटने का बधिक का काम करता था। पूरे तीस वर्ष उसने सम्राट के भोजनगृह के लिए पशुओं को काटा था। बड़ा सम्राट का भोजनगृह था। अनेक पशु रोज कटते थे। लाओत्से ने अनेक बार अपने शिष्यों को कहा कि अगर कभी तुम्हें सजग आदमी देखना हो, तो उस बधिक को जाकर देखना। लोग चौंक जाते थे कि बधिक और सजग!
लाओत्से की मान कर कभी उस बधिक के पास कोई गया। उस बधिक को पशुओं को काटते देखा। एक बात तो सुनिश्चित मालूम पड़ी कि पशुओं को काटने में उसकी कुशलता अनूठी थी। और जो देखने गया था, उसने पूछा उस बधिक को कि तुम इतने पशु काटते हो, यह तुम जिस खंजर से काटते हो, कितने दिन में खराब हो जाता है?
तो उस बधिक ने कहा, मेरे पिता भी इसी से काटते थे, उनके पिता भी इसी से काटते थे, मैं भी इसी से काट रहा हूं। लेकिन हम इतनी सजगता से काटते हैं कि इसकी धार मरती नहीं, रोज नई हो जाती है। हम बेहोशी से नहीं काटते कि हड्डी पर पड़ जाए। हम इतनी सजगता से काटते हैं कि जहां दो हड्डियां मिलती हैं, उनके बीच से यह शस्त्र गुजर जाता है। और वे दोनों हड्डियां इस पर धार रखने के काम आ जाती हैं।
उस आदमी ने उस बधिक से पूछा कि तुम्हें कभी तकलीफ नहीं होती इनको काटते?
तो उस बधिक ने कहा, जो कट सकता है, वही कटता है। जो नहीं कट सकता, उसके कटने का कोई उपाय नहीं है। मैं जिसे काटता हूं, वह मरा ही हुआ है। और जो जीवंत है, उसको किसी अस्त्र-शस्त्र से काटने का कोई भी उपाय नहीं है।
उसने वही कहा, जो कृष्ण ने गीता में कहा है। लेकिन कृष्ण के शब्द हमारी समझ में आ सकते हैं, एक बधिक के शब्द हमारी समझ में आना मुश्किल हो जाएंगे।
वह आदमी लौटा और उसने कहा कि बात तो वह बहुत ज्ञान की करता है, लेकिन आचरण ज्ञानी का नहीं मालूम पड़ता। पता नहीं, बात ही करता हो। तो लाओत्से ने कहा कि तू जा एक तलवार लेकर और उस बधिक का हाथ काट दे। वह आदमी गया और उसने तलवार उठाई, तो बधिक ने अपना हाथ उसके सामने कर दिया और कहा कि ठीक जोड़ पर मारना, नहीं तो तलवार की धार खराब हो जाएगी। तुझे कुछ अंदाज भी नहीं है, नया-नया है। तो ठीक जोड़ पर!
उस आदमी की हिम्मत नहीं पड़ी। वह वापस लौट आया। लेकिन यह जो आदमी है, यह पशुओं को काटते वक्त ही सजग हो, ऐसा नहीं, अपने को कटाते वक्त भी उतना ही सजग है।
सजगता पर जोर है लाओत्से का, आचरण पर नहीं। सजगता है अंतस का गुण, भीतर की घटना, होश, बोध। आचरण है बाहर की व्यवस्था। आचरण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। दो संतों के आचरण भी भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। होंगे ही। सिर्फ दो जड़बुद्धियों के आचरण एक जैसे हो सकते हैं। दो संतों के आचरण भिन्न-भिन्न होंगे ही। लेकिन हजार संतों की भी जागरूकता भिन्न-भिन्न नहीं होगी, एक ही होगी। और हजार मूढ़ भी इकट्ठे हों, तो उनकी जागरूकता एक सी नहीं होगी। उनके आचरण एक जैसे हो सकते हैं।
इसे हम ऐसा समझें। एक मिलिटरी की पंक्तिबद्ध कतार खड़ी है। उनका आचरण बिलकुल एक जैसा होगा। बाएं घूमो; तो लाख लोग बाएं घूम जाएंगे। दाएं घूमो; तो लाख लोग दाएं घूम जाएंगे। उनका आचरण हम बाहर से व्यवस्थित कर सकते हैं, यूनिफार्म कर सकते हैं। और मजे की बात है कि सैनिक के शिक्षण में हमें उसके आचरण को इतना यूनिफार्म करना पड़ता है कि उसका व्यक्तित्व बिलकुल मिट जाए। और जिस मात्रा में आचरण यूनिफार्म हो जाता है, उसी अर्थ में बुद्धि क्षीण हो जाती है। होगी ही।
सैनिक के पास बुद्धि की जरूरत भी नहीं है। अगर हो, तो दुनिया में युद्ध नहीं हो सकते। इसलिए कोई नहीं चाहता कि सैनिक के पास बुद्धि हो। सैनिक जितना निर्बुद्धि हो, उतना कुशल होगा, उतना आज्ञाकारी होगा, उतना समान आचरण-धर्मा होगा।
एक तरफ सैनिकों की, लाख सैनिकों की पंक्ति है, जो एक व्यक्ति की तरह व्यवहार करेगी। दो संतों को भी एक साथ रखें, तो एक सा व्यवहार नहीं होगा। बुद्ध और महावीर को एक साथ बिठा दें, एक सा व्यवहार जरा भी नहीं होगा। लेकिन भीतर सजगता बिलकुल एक सी होगी।
संत निर्णीत होते हैं सजगता से, साधारणजन निर्णीत होते हैं आचरण से।
चूंकि हम सब आचरण से निर्णीत होते हैं, हम संतों को भी आचरण से ही सोचते हैं। इसलिए समझ मुश्किल हो जाती है। यह दुनिया में जो इतना विवाद है संतों के संबंध में, उसका कुल कारण इतना है। महावीर को जिन्होंने संत मान लिया, वे बुद्ध को कैसे संत मानें? उनके आचरण भिन्न हैं। जिन्होंने बुद्ध को संत मान लिया, वे कृष्ण को कैसे संत मानें? उनके आचरण भिन्न हैं। जिन्होंने कृष्ण को संत मान लिया, उन्हें क्राइस्ट कैसे संत मालूम पड़ेंगे? उनके आचरण भिन्न हैं। महावीर और मोहम्मद को कैसे साथ रखिएगा? कोई उपाय नहीं है। और आचरण को ही हम देख पाते हैं, इसलिए हमारी तकलीफ है।
फिर हम सब के आचरण पर भी बंधी हुई धारणाएं हैं। अगर मैं जैन घर में पैदा हुआ, तो महावीर का आचरण मेरे चित्त पर भारी हो जाएगा। फिर मैं सारे जगत में घूमूंगा उसी आचरण के नक्शे को लेकर। जीसस उसमें नहीं बैठेंगे, तो मैं समझूंगा, जीसस ज्ञानी नहीं हैं। जैन नहीं मानते कि बुद्ध को परम ज्ञान हुआ। क्योंकि परम ज्ञान होता, तो आचरण महावीर जैसा हो जाना चाहिए था।
एक बहुत विचारशील जैन ने एक किताब लिखी। बहुत सदभाव से लिखी और यह सिद्ध करने की कोशिश की कि महावीर और बुद्ध दोनों ही एक ही संदेश दुनिया को देते हैं। लेकिन किताब का नाम रखा: भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध। मैंने उनसे पूछा कि यह इतना फर्क कैसा? तो उन्होंने कहा, और सब तो ठीक है, लेकिन बुद्ध उस स्थिति में नहीं पहुंचे थे। तो ज्यादा से ज्यादा महात्मा; महावीर के साथ भगवान की हैसियत में हम उन्हें नहीं रख सकते। मैंने उनसे पूछा कि यह जान कर आपने रखा? उन्होंने कहा कि नहीं, आपने पूछा तो मुझे खयाल आया; यह अनजाने ही हुआ होगा। यानी साफ मेरे मन में खयाल नहीं था।
एक ढांचा है फिर। बुद्ध कपड़े पहने हुए हैं। महावीर नग्न हैं अगर, तो नग्न महावीर को मानने वाला सोचेगा, बुद्ध का अभी कपड़े से मोह नहीं छूटा--स्वभावतः। और जब कपड़े ही से मोह नहीं छूटा, तो फिर और क्या मोह छूटा होगा? तो मान सकते हैं कि अच्छे आदमी हैं, महात्मा हैं, संत हैं, लेकिन महावीर के साथ नहीं रख सकते।
क्राइस्ट को कैसे रखिएगा महावीर के, बुद्ध के, कृष्ण के साथ?
क्राइस्ट को मानने वाले की भी पीड़ा यही है। उसका भी आचरण स्पष्ट है। क्राइस्ट को मानने वाला जानता है कि क्राइस्ट की हैसियत का आदमी अपने को कुर्बान कर देता है सबके लिए। महावीर ने किसके लिए अपने को कुर्बान किया? किसी के लिए नहीं। तो महावीर कितने ही अच्छे हों, स्वार्थी हैं। अपने ही लिए ध्यान है, अपने लिए मोक्ष है। अपने ही लिए सब कुछ है। क्राइस्ट की बात ही और है। अपने जीवन की आहुति दे दी सबके लिए। सब सुखी हो सकें, इसलिए अपने को सूली पर लटकवा दिया। इसलिए जीसस को मानने वाले को महावीर और बुद्ध बहुत पीछे मालूम पड़ते हैं। किसकी सेवा की? किसी की कोई सेवा नहीं की। अपनी ही सेवा की होगी, तो की। अपने ही लिए सब कुछ किया। तो यह तो बहुत गहन स्वार्थ है। और जो अभी अपने स्वार्थ से मुक्त नहीं हुए, वे अहंकार से कैसे मुक्त होंगे? इसलिए जीसस को मानने वाला जानता है कि अहंकार से तो वही मुक्त होगा, जिसने अपने स्वार्थ को छोड़ा और सबके स्वार्थों के लिए बलि दे दी।
लेकिन अगर महावीर के भक्त को पूछें, तो वह कहेगा कि सूली तो कर्मों के फल से लगती है। जरूर पिछले जन्म में कुछ पाप किया होगा। महावीर के पैर में कांटा तो चुभ जाए! सूली तो बात और। तो जैन मानते हैं कि महावीर जब रास्ते पर चलते हैं, तो सीधा कांटा भी पड़ा हो, तो तत्काल उलटा हो जाता है। क्योंकि महावीर जहां से गुजरते हों, पुण्यधर्मा, उनको एक कांटे का दुख भी तो यह जगत क्यों देगा? उन्होंने किसी को कभी कोई दुख नहीं दिया।
ये हमारे आचरण के ढांचे हैं। फिर इसमें कठिनाई शुरू हो जाती है। और सबके पास आचरण का ढांचा है; क्योंकि सब एक संत के आस-पास अपनी पूरी रूप-रेखा निर्मित कर लेते हैं। फिर उस रूप-रेखा को लेकर चलते हैं। वह किसी पर लागू नहीं होगा कभी। किसी पर कभी लागू नहीं होगा। दूसरा संत खोजना मुश्किल है, जो उससे तालमेल खा जाए। फिर हम दीन-दरिद्र हो जाते हैं। फिर सबके अपने चुनाव हो जाते हैं, और शेष सब वर्जित हो जाता है।
लाओत्से इसलिए ऊपरी गुणों की चर्चा नहीं करता। लाओत्से कहता है भीतरी बात। अगर महावीर नग्न हैं और अगर बुद्ध वस्त्र पहने हुए हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। महावीर अपनी नग्नता में जितने सजग हैं, बुद्ध अपने वस्त्र पहने हुए उतने ही सजग हैं। और अगर महावीर अपने ध्यान में लीन हैं और जीसस समस्त के ध्यान में, तो महावीर अपने ध्यान में जितने सजग हैं, जीसस सब के ध्यान में उतने ही सजग हैं। वह सजगता का आंतरिक गुण ही मूल्यवान है। अगर वह आंतरिक गुण नहीं है, तो स्वार्थ भी और परार्थ भी, दोनों अंधे हैं। और अगर वह आंतरिक गुण मौजूद है सजगता का, तो स्वार्थ भी और परार्थ भी, दोनों एक से पुण्यवान हैं। अगर मैं अंधा होकर दूसरे की सेवा में लगा हूं, तो यह अंधापन उतना ही बुरा है, जितना अंधा होकर अपने स्वार्थ में लगा हूं। स्वार्थ बुरा नहीं है; परार्थ भला नहीं है। अंधापन बुरा है; सजगता भली है।
इसे थोड़ा ठीक से समझ लें, क्योंकि इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हमारे सोचने की, जीने की, अनुप्रेरित होने की सारी प्रक्रियाएं इस पर निर्भर करती हैं। अंतस मूल्यवान है, आचरण नहीं। और आचरण अंतस की छाया है। और छाया अलग-अलग होगी, क्योंकि व्यक्तित्व अलग-अलग हैं। मीरा नाचेगी; बुद्ध नाच नहीं सकते। महावीर के साथ नाचना जोड़िए; बहुत बेहूदा लगेगा। लेकिन महावीर मौन खड़े होकर जितने सजग हैं, मीरा नाचते क्षण उनसे जरा भी कम सजग नहीं है।
अगर नाचने पर जिद्द रखिएगा, तो मीरा का भक्त कहेगा, महावीर भी क्या रूखे-सूखे खड़े हैं, ठूंठ वृक्ष की भांति! एक हरा पत्ता नहीं उनके जीवन में! कोई पक्षी गीत नहीं गाता, कोई फूल नहीं खिलते, कोई सुगंध नहीं! मृतवत खड़े हैं। कहां मीरा, कहां उसकी पायल की झंकार, कहां उसका गीत, कहां उसकी वीणा! यहां जीवन अपनी पूरी प्रफुल्लता में प्रकट हुआ है। तो महावीर रूखे-सूखे लगेंगे।
लेकिन अगर महावीर को मानने वाला है, तो वह मीरा को कहेगा कि यह तो सब राग है, आसक्ति है। यह कृष्ण की हाय-हाय, यह तो दुखी चित्त का लक्षण है। यह कृष्ण की पिपासा, यह मांग, यह तो डिजायर है, इच्छा है, वासना है। यह मीरा का कहना कि कब आओगे मेरी सेज पर सोने, यह सब क्या है? यह तो वासना का ही वेग है, दमित वेग है। यहां-वहां से फूट कर बह रहा है। यह प्रार्थना बन रही है वासना।
आचरण को अगर हमने मूल्यवान समझा और प्राथमिक समझा, तो हम एक संत के साथ तो न्याय कर पाएंगे, जगत के सभी संतों के साथ अन्याय हो जाएगा। और यह रोज हो रहा है। जब तक हम अंतस को मूल्यवान न मानें, तब तक हम जगत के विभिन्न-विभिन्न रूपों में प्रकट हुए संतों को समझ नहीं पा सकते हैं। इसलिए सारे गुण लाओत्से ने भीतरी कहे हैं।
"वे अत्यंत सतर्क व सजग हैं, जैसे सर्दी की ऋतु में किसी नाले को पार करते समय कोई हो।'
भीतर जागा हुआ दीया हो--सतर्क, सजग।
"वे सतत अनिर्णीत और चौकन्ने हैं, जैसे कोई व्यक्ति जो कि सब ओर से खतरों से घिरा हो।'
यह बड़ा कीमती सूत्र है।
"वे सतत अनिर्णीत व चौकन्ने हैं, इररिजोल्यूट, लाइक वन फीलिंग डेंजर आल एराउंड'
आमतौर से हम समझेंगे कि संत तो रिजोल्यूट होगा, सुनिश्चित होगा। हमारी सभी की धारणा कहेगी कि संत तो दृढ़ निश्चय वाला होगा। लाओत्से कहता है--इररिजोल्यूट, अनिश्चितमना। बड़ी उलटी बात कहता है। इसे थोड़ा समझना कठिन पड़ेगा। कठिन इसलिए पड़ेगा कि हमें जीवन की गहरी समझ नहीं है। समझें इसे।
एक आदमी कहता है कि मैंने दृढ़ निश्चय किया है कि अब मैं झूठ नहीं बोलूंगा।
यह दृढ़ निश्चय वह किसके खिलाफ करता है? अपने ही खिलाफ। और दृढ़ता की इतनी जरूरत क्यों है? क्योंकि उसको पक्का पता है कि भीतर झूठ बोलने वाला इससे भी ज्यादा दृढ़ है। अगर उसके खिलाफ हमने दृढ़ता न रखी, तो झूठ हमसे बोला ही जाएगा। तो वह कहता है, मैं दृढ़ निश्चय कर लिया हूं। और जितना दृढ़ निश्चय करता है, उतनी जल्दी टूट जाता है। जितना टूटता है, फिर उतना ज्यादा दृढ़ निश्चय करता है। लेकिन दृढ़ता किसके खिलाफ? जिसके भीतर विपरीत स्वर न रहा हो, उसके भीतर निश्चय जैसी कोई बात न रह जाएगी।
निश्चय करते हैं हम अपने ही भीतर छिपे हुए विपरीत के प्रति। मैं करता हूं निश्चय कि क्रोध नहीं करूंगा; क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे भीतर क्रोध करने वाला छिपा है। मैं तय करता हूं कि कामवासना में नहीं उतरूंगा; क्योंकि कामवासना मेरे भीतर छिपी बैठी है। मैं कसम खाता हूं ब्रह्मचर्य की; क्योंकि मुझे मालूम है, भीतर ब्रह्मचर्य को छोड़ कर और सब कुछ है। मेरे भीतर विपरीत स्वर हैं। इसलिए विपरीत को दबाने के लिए मुझे बड़ी दृढ़ता से निश्चय करने पड़ते हैं, रिजोल्यूट होना पड़ता है, संकल्पवान होना पड़ता है। दबा-दबा कर मैं अपने को किसी तरह चलाता हूं।
लेकिन जिनके भीतर विपरीत न रहा हो, वे किसके प्रति निश्चय करेंगे? वे निश्चय-शून्य होंगे। इसका मतलब आप यह मत समझ लेना कि वे डगमगाने वाले होंगे। इसका मतलब आप यह भी मत समझ लेना कि उन्हें साफ नहीं है, इसलिए अनिश्चित हैं। उन्हें इतना साफ है कि निश्चित होने की कोई जरूरत नहीं है।
महावीर सुबह उठ कर कसम नहीं लेते कि आज मैं अहिंसा का व्यवहार करूंगा। अहिंसा इतनी सहज है कि इस निश्चय की कोई भी जरूरत नहीं है। अहिंसा होगी ही। महावीर को कोई नींद से उठा ले, तो भी अहिंसा होगी। इसके लिए किसी निश्चय की कोई भी जरूरत नहीं है। बुद्ध कोई निश्चित नहीं करते कि तुम यह पूछोगे, तो मैं यही उत्तर दूंगा। यह तो सिर्फ वे ही लोग निश्चित करते हैं, जिनके पास उत्तर देने की क्षमता नहीं है। तो पहले से तय करना पड़ता है। उत्तर तय होना चाहिए, साफ होना चाहिए। कोई पूछेगा ऐसा, तो ऐसा मैं कहूंगा। लेकिन जिनकी चेतना सजग है, उनके पास कोई निश्चय नहीं होता। पूछा जाता है कुछ, उत्तर आता है। उत्तर आता है, इसके लिए पूर्व-निश्चय नहीं होता। इसके लिए पूर्व-निश्चित होने की कोई जरूरत नहीं होती।
बर्नार्ड शॉ से किसी ने पूछा है। बर्नार्ड शॉ बोलने जा रहा है किसी सभा में; और कोई पूछता है कि क्या बोलिएगा, कुछ तय कर रखा है?
बर्नार्ड शॉ ने कहा कि जब मुझे ही तय करना है और मुझी को बोलना है, तो वहीं बोल लेंगे और वहीं तय कर लेंगे। अगर तय किसी और को करना हो और बोलना मुझे हो, तो पहले से तैयारी करवानी पड़ेगी। जब मुझे ही यह काम करना है, तो वहीं ठीक समय पर कर लेंगे।
उस आदमी ने कहा, लेकिन निश्चित होना पहले से ठीक होता; कुछ भूल-चूक हो जाए!
वह आदमी ठीक कह रहा है। अगर उसको बोलना हो, तो वह तय करेगा तो ही बोल सकता है। और मजे की बात यह है कि तय करने वाले अक्सर बोलने में भूल करते हैं। नहीं तय करने वाले से भूल हो नहीं सकती; क्योंकि जो भी निकले, वही बोलना है।
इररिजोल्यूट, अनिश्चित का अर्थ यही है कि क्षण जो भी लाएगा, उसमें मैं पूरी तरह, जो भी मुझसे हो सकेगा, उसके लिए राजी हूं। उसके लिए पूर्व-धारणा नहीं है। मैं आज तय नहीं करता कि कल कैसे जीऊंगा। और जिस आदमी ने आज तय किया कि कल कैसे जीएगा, उसका कल आज ही मर गया। उसका भविष्य आज ही अतीत हो गया। अगर मैंने तय किया कि इस शब्द के बाद कौन सा शब्द मैं बोलूंगा, तो मैं एक यंत्र हो गया, आदमी न रहा। जिस आदमी को अपने पर जितना कम भरोसा है, उतना पूर्व-निश्चय करके जीएगा। कम भरोसे के लोग सब कुछ तय कर लेंगे, तभी चल सकेंगे। जिनका भरोसा पूर्ण है, वे बिलकुल अनिश्चय से चलेंगे। उनका हर कदम तय करने वाला होगा। उनका हर कदम तय करने वाला होगा।
जीसस से उनके शिष्य पूछते हैं। उस रात जब वे पकड़े गए और दूसरे दिन सुबह जब सूली लगाई गई, तो उनका एक शिष्य पूछता है कि जब सूली लग जाएगी तो आप क्या करिएगा? जीसस ने कहा, कम से कम सूली तो लगने दे। सूली लगने दे। मुझे पता नहीं है; जैसे तू देखेगा कुछ हो रहा है, वैसे ही मैं भी देखूंगा कि कुछ हो रहा है। फिर अभी से निश्चय कैसे किया जा सकता है?
हमारा कमजोर मन सब निश्चय करके चलता है। ध्यान रखना, निश्चय करना कमजोर मन का लक्षण है। आमतौर से हम मानते हैं कि निश्चय करने वाला बहुत मजबूत मन वाला है। ठीक है, कमजोर मन निश्चय करे, तो उन कमजोर मनों से मजबूत हो जाएगा जो निश्चय न करें। कमजोर मन निश्चित करे, तो उन मनों से मजबूत हो जाएगा जो कमजोर हैं और निश्चित न करें।
लेकिन लाओत्से उन संतों की बात कर रहा है, जिनका मन ही न रहा। कमजोर मन की तो बात ही अलग, मन ही न रहा। और मन जब तक रहेगा, कमजोरी रहेगी। मन कमजोरी है। वे क्या निश्चय करें? समय आता है और वे जीते हैं पल-पल, मोमेंट टु मोमेंट। दूसरे पल की कोई आयोजना नहीं है।
जीसस की प्रार्थनाओं में प्रसिद्ध प्रार्थना है कि हे परमात्मा, मुझे आज की रोटी दे; कल की मैं चिंता न करूं। आज काफी है। आज का मतलब: अभी, यही क्षण पर्याप्त है।
वे सतत अनिर्णीत हैं। उनके पास कोई भी निर्णय नहीं है। क्योंकि उनके पास वे स्वयं हैं। जिनके पास स्वयं का होना नहीं है, वे निर्णय के आधार पर जीएंगे।
बुद्ध के पास कोई आता है; बुद्ध एक जवाब देते हैं। वही प्रश्न लेकर दूसरा आदमी आता है; बुद्ध दूसरा जवाब देते हैं। आनंद बहुत बार बुद्ध से कहता है कि आपको ऐसा नहीं लगता कि आप असंगत हैं, इनकंसिस्टेंट हैं! क्षण भर पहले आपने एक आदमी से यह कहा था और क्षण भर बाद ही आपने दूसरे आदमी से यह कहा। और उन दोनों के प्रश्न समान थे। बुद्ध कहते हैं, उन दोनों के प्रश्न समान थे; लेकिन वे दोनों व्यक्ति अलग थे। और एक ने सुबह पूछा था और एक ने दोपहर। सुबह से दोपहर तक गंगा का कितना जल बह जाता है! मैं सुबह से बंधा हुआ नहीं हूं। दोपहर हो गई, अब दोपहर का ही उत्तर होगा। सांझ होगी, सांझ का ही उत्तर होगा।
इसलिए अगर बुद्ध में कोई संगति खोजने जाए, तो बहुत गहरी खोज करनी पड़े; तब संगति मिलेगी। ऊपर तो असंगति मिलेगी। एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य को खंडित करता हुआ मालूम पड़ेगा। सिर्फ क्षुद्र बुद्धि के लोग, मीडियाकर लोग कंसिस्टेंट होते हैं। उनकी जिंदगी भर खोज जाओ, तो जो उन्होंने जब दूध की चम्मच उनके मुंह में थी तब कहा था, जब वे मर रहे होंगे तब भी वही कह रहे होंगे। एकदम कंसिस्टेंट होंगे, संगत होंगे। उसका मतलब यह है कि झूले के बाद वे जीए ही नहीं। झूला ही उनकी कब्र हो गया। जो जीएगा, वह क्षुद्र अर्थों में संगत नहीं हो सकता; एक आंतरिक संगति होगी। उसे खोजना मुश्किल है। उसे वही खोज सकता है, जो आंतरिक संगति पर ध्यान रखे।
बुद्ध एक आदमी से कहते हैं ईश्वर नहीं है, एक से कहते हैं ईश्वर है, तीसरे के संबंध में चुप रह जाते हैं। अब इतना असंगत--ईश्वर है, ईश्वर नहीं है, दोनों। लेकिन भीतर एक संगति है गहरी।
आनंद रात में पूछता है कि मैं सो न पाऊंगा, मैं मुश्किल में पड़ गया। मैंने तुम्हारे तीनों उत्तर सुन लिए। तो बुद्ध कहते हैं, पहली तो बात यह आनंद कि जो तुझे नहीं कहा गया था, वह तुझे सुनना नहीं था। न तूने पूछा था, न तेरा सवाल था, तो तूने जवाब क्यों लिया? ऐसे अगर तू हर जवाब इकट्ठे करेगा, तो कैसे सो पाएगा? और जब मैं देने वाला सो रहा हूं मजे से, तुझे चिंता क्या है?
पर वह आनंद कहता है कि नहीं, आपकी आप जानें; बाकी मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं कि ये सब बातें एक साथ कैसे हो सकेंगी! सुबह आपने कहा ईश्वर नहीं है; दोपहर कहा है; सांझ चुप रह गए, जब किसी ने पूछा। असंगति दिखाई पड़ती है। मुझे थोड़ी शांति दे दें, थोड़ा बता दें, तो मैं सो जाऊं।
तो बुद्ध कहते हैं, असंगत मैं हो कैसे सकता हूं! असंगत तो वह आदमी हो सकता है, जिसका सिद्धांत तय हो। सुबह जो आदमी आया था--मैं तो दर्पण की तरह हूं--उसकी जो शक्ल थी, वह मुझमें बन गई। दोपहर जो आदमी आया, वह दूसरा था। मैं तो दर्पण की तरह हूं। मेरा अपना कोई सिद्धांत बांध कर नहीं बैठा हूं। उसकी जो शक्ल थी, वह मुझमें बन गई। क्या तुम दर्पण से कहोगे कि बड़े असंगत हो! सुबह एक शक्ल दिखाई दी, दोपहर दूसरी, सांझ तीसरी। जो आदमी सुबह आया था पूछते कि ईश्वर है, वह नास्तिक था। वह मानता था कि ईश्वर नहीं है। वह मुझसे पूछने आया था, ताकि मैं भी गवाह बन जाऊं और कहूं कि नहीं है। वह आदमी गलत था। उसने बिना खोजे मान लिया कि ईश्वर नहीं है। तो मुझे उसे तोड़ना पड़ा और मुझे कहना पड़ा बलपूर्वक कि ईश्वर है। मैंने उसे हिला दिया। अब उसे खोज में लगना पड़ेगा। अब मैं उसका पीछा करूंगा जिंदगी भर। जब भी उसको खयाल आएगा, ईश्वर नहीं है, तब बुद्ध की शक्ल उसे याद आएगी कि उस आदमी ने कहा था है। अब मैं उसका पीछा करूंगा।
जो आदमी दोपहर आया था, वह आस्तिक है; उसी तरह आस्तिक, जैसे सुबह वाला नास्तिक था। खोजा नहीं है, मान लिया कि है। उसकी आस्तिकता उतनी ही अज्ञानपूर्ण थी, जितनी सुबह वाले की नास्तिकता। मुझे उसे भी हिलाना पड़ा। मुझे उसे भी यात्रा पर भेजना पड़ा। मैंने कहा, ईश्वर? बिलकुल नहीं है। अब यह आदमी जब मंदिर में पूजा का थाल सजा कर खड़ा होगा, तो कहीं न कहीं मैं इसे दिखाई पड़ता ही रहूंगा--बुद्ध ने कहा है। मुझसे पूछने इसीलिए आया था कि बुद्ध का वजनी सबूत साथ हो जाए। बुद्ध भी कह दें है, तो अपनी पूजा में वह और गहन उतर जाए। लेकिन उसकी पूजा झूठी है; क्योंकि अभी होने का बोध ही उसका असत्य है। अभी उसे कुछ भी पता नहीं है। बिना जाने माना कि है, बिना जाने माना कि नहीं है, ये दोनों एक जैसे हैं। आनंद, यह तुझे लगता है कि यह विपरीत। और इसलिए मुझे इनको विपरीत उत्तर देने पड़े। लेकिन दोनों उत्तरों में एक संगति है। मैं दोनों को उनकी अज्ञान की स्थिति से हिलाना चाहता था।
सांझ जो आदमी आया था, वह न आस्तिक है, न नास्तिक। उसकी जिज्ञासा गवाह को खोजने की जिज्ञासा नहीं थी। वह मुझसे कुछ अपने को सिद्ध करवाने नहीं आया था। उसकी जिज्ञासा बड़ी सरल और निर्दोष थी। उसने पूछा था, ईश्वर है? उसकी कोई मान्यता नहीं थी। बिना मान्यता के उसने पूछा था, ईश्वर है? ऐसे आदमी से अगर मैं कहूं है, तो शायद वह मेरे है के कारण मान ले कि है। ऐसे आदमी से मैं कहूं कि नहीं है, तो शायद मेरे नहीं है के कारण मान ले कि नहीं है। इतना निर्दोष कि उसके सामने शब्द का उपयोग करना खतरनाक था। इसलिए मैं मौन रह गया। और मेरे मौन ने ही उसको भी हिलाया और वह उत्तर लेकर गया है कि अगर ईश्वर को जानना है, तो मत पूछो है या नहीं, मौन हो जाओ।
ये असंगत हैं बातें--ऊपर से देखने पर। भीतर एक संगति का तार है। वह गूढ़ है, वह छिपा है। शब्द में नहीं पकड़ में आएगा।
ऐसे व्यक्ति अनिर्णीत, इररिजोल्यूट, अनिश्चित...कोई सिद्धांत नहीं है उनका। कोई दृढ़ बंधन नहीं है उनका, कोई बंधन नहीं। मुक्त जैसे आकाश में उड़ने को सदा तत्पर। और चौकन्ने। ध्यान रहे, जो जितना निर्णीत होगा, उतना मूर्च्छित हो जाएगा। जितना अनिर्णीत होगा, उतना चौकन्ना होगा। आप निर्णीत होते ही इसीलिए हैं, इसीलिए होना चाहते हैं, ताकि शांति से सो सकें। यह चौकन्नापन न रहे चौबीस घंटे।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप पक्का कह दें, ईश्वर है? मैं उनसे कहता हूं, मैं कितना ही पक्का कहूं, इससे तुम्हें क्या होगा? वे कहते हैं कि हमें भरोसा हो जाएगा, निर्णय हो जाएगा कि ईश्वर है।
यह किसलिए कह रहे हैं? इसलिए नहीं कि ईश्वर को खोजना चाहते हैं; इसलिए कि है, ऐसा पक्का हो जाए, तो इनको चौकन्ने होने की जरूरत न रहे, खोजना न पड़े। खोजने में खतरा है। खोजने में श्रम है। खोजने में शक्ति लगेगी। साहस की जरूरत होगी। चुकाना पड़ेगा मूल्य। वह सब झंझट न हो, कुछ करना न पड़े; कोई कह दे। वे कहते हैं मुझसे कि आप कह भर दें। आप क्यों संकोच करते हैं? पक्का कह दें कि है, तो हम निश्चिंत हो जाएं।
निश्चिंत आदमी किसलिए होना चाहता है? ताकि मूर्च्छित हो जाए, सो जाए, कुछ करना न पड़े। जितना अनिर्णीत होगा व्यक्ति, उतना सजग होगा।
कभी आपने खयाल किया? एक आदमी आपके पड़ोस में, अजनबी, आकर बैठ जाता है; आपकी रीढ़ फौरन कुर्सी को छोड़ कर चौकन्नी हो जाती है। एक अजनबी आदमी बगल में बैठा है, तो आप चौकन्ने हो जाते हैं। फिर आप सिलसिला शुरू करते हैं: नाम? धाम? कितनी तनख्वाह मिलती है? कुछ ऊपर भी मिल जाता है या नहीं? थोड़ी देर में आप अपनी रीढ़ कुर्सी से टिका लेते हैं कि ठीक है जान लिया। अब आप निश्चिंत हो गए। अब कोई इसका भय रखने की जरूरत नहीं है। अपने ही जैसा चोर है, कोई अजनबी नहीं है, ठीक अपने ही जैसा है। अब आप निश्चिंत हो जाते हैं।
हमारी जो इतनी आतुरता होती है परिचय बनाने की, वह इसलिए नहीं होती कि हम दूसरे में उत्सुक हैं। हमारी आतुरता इसीलिए होती है, ताकि हमें निश्चिंत करो, साफ हो जाए कि कौन हो--हिंदू हो, कि मुसलमान हो, कि जैन हो--तो हम पक्का कर लें। एक कैटेगरी हमारे मन में है कि मुसलमान ऐसा होता है, जैन ऐसा होता है, हिंदू ऐसा होता है। तो हम जल्दी से अपने खांचे में तुम्हें बिठाएं और निश्चिंत हो जाएं। यह तुम्हारी वजह से बेचैनी पैदा हो रही है। यह मन पूछता है कि कौन है यह आदमी?
यह जो पूरे समय हम हमेशा सोने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा धर्म, हमारे शास्त्र, हमारे तथाकथित साधु-संत, वे सब हमें सोने में सहायता देते हैं, वे सांत्वना देते हैं।
लाओत्से कहता है, अनिश्चित थे वे, अनिर्णीत थे वे, चौकन्ने थे।
कुछ भी निश्चित न था, तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा। सारा जगत अजनबी है। किसी से कोई परिचय नहीं है। सब परिचय झूठा है। तो चौकन्ना रहना पड़ेगा। एक-एक इंच चल रहे हैं, तो अनजान रास्ते पर चल रहे हैं। अनचार्टर्ड, कोई नक्शा नहीं है, समुद्र का कोई पता नहीं है कि कहां ले जाएगा, हाथ में कोई दिशा-सूचक यंत्र नहीं है, तो चौकन्ना रहना ही पड़ेगा। जितना अनिर्णीत होगा व्यक्ति, उतना ही ज्यादा चौकन्ना होगा। जितना निर्णीत होगा, उतना सुरक्षित होगा, उतना मूर्च्छित होगा।
यह भी लाओत्से भीतर की ही बात कर रहा है--अनिर्णीत और चौकन्ने! चौकन्ने का मतलब है अलर्ट। जैसे कि सब ओर से खतरा घिरा हो!
कभी आपने किसी हिरन को देखा है जंगल में? जरा सी आवाज होती है कहीं, पत्ता सरकता है, हिरन जैसा अलर्ट, चौकन्ना होकर खड़ा हो जाता है। उसका रोआं-रोआं सुनने लगता है, कहां क्या हो रहा है। उसका पूरा व्यक्तित्व एक जागरूकता बन जाता है। खतरा चारों तरफ है। एक छोटा सा खरगोश भी जरा सी आवाज सुन कर--कभी उसे देखें--कैसा चौकन्ना हो जाता है! बिल्ली सो रही हो आपके घर में, जरा सी आवाज हो, एकदम चौकन्नी हो जाती है। नींद से एकदम छलांग जागरूकता में लग जाती है। खतरा!
आदमी सबसे सुरक्षित जानवर है। और आदमी ने इतनी सुरक्षा कर ली है कि जानवर जैसा चौकन्नापन भी उसके पास नहीं है। सुरक्षित है। मकान है, दरवाजा है, ताला है, सब सुरक्षा है। घर में पैसा था, वह भी बैंक में है। सब सुरक्षित है। कहीं कोई खतरा नहीं है। मर भी जाए, तो लाइफ इंश्योरेंस है। मर भी गए, तो भी कोई खतरा नहीं है, कोई खतरा नहीं है। मरने में भी कोई डर नहीं है। क्योंकि पैसा तो मिलने ही वाला है। यह सारी सुरक्षा, भीतर के चौकन्नेपन को खतम कर दिया। हमसे पशु भी ज्यादा चौकन्ने हैं।
लाओत्से कहता है, संत ऐसा ही चौकन्ना होता है भीतर से। कोई सुरक्षा नहीं बनाता। कोई इंतजाम नहीं बनाता। चारों तरफ जैसे खतरा हो प्रतिपल, उस खतरे में जीता है।
खतरा है भी। हम कितना ही इंतजाम करें, खतरा मिटता नहीं। खतरा है ही। मौत तो हर वक्त मौजूद है, चारों तरफ मौजूद है। किसी भी क्षण। लेकिन हम उसे टालते रहते हैं, स्थगित करते रहते हैं। हम मानते रहते हैं मन में कि मरते होंगे दूसरे लोग, यह कोई अपना काम नहीं है। मौत हमेशा दूसरे की होती है, इतना तो पक्का ही है, अपनी कभी नहीं होती। जब भी देखते हैं, कोई और मरता है। निश्चिंत रहते हैं कि हमेशा और ही कोई मरता है। हम तो कभी नहीं मरते। लेकिन वे जो मर रहे हैं, वे भी इतने ही निश्चिंत थे। मौत है चारों तरफ। किसी भी क्षण सब खो जा सकता है। खयाल करें, एक आदमी आपकी छाती पर छुरा रख दे और कहे कि बस, एक सेकेंड! जो भी सोचना हो, सोच लें। सोचना बंद हो जाएगा। एक सेकेंड ही बचा, तो सोचना क्या है? सोचना एकदम बंद हो जाएगा। सब सुरक्षा टूट गई। सोच-विचार कुछ न रहा। यही क्षण सब कुछ हो गया; क्योंकि मौत खड़ी है। चौकन्ने हो जाएंगे।
तो बुद्ध तो अपने भिक्षुओं को मरघट भेजते थे कि तुम तब तक ध्यान में न जा सकोगे, जब तक तुम मौत की निकटता अनुभव न करो। तो जाओ, मरघट पर बैठो, जलते हुए लोगों को देखो। लाशें गलती हुई देखो। जानवर लाशों को तोड़ रहे हैं, खींच ले जा रहे हैं, वह देखो। हड्डियां, खोपड?ियां बिखरी हुई देखो। रहो मरघट पर। जब तुम्हें मौत ऐसा मालूम पड़ने लगे कि चारों तरफ है; सुबह उठते हो, और लाश जल रही है; दोपहर उठते हो, और लाश जल रही है; रात उठते हो, और लपटें उठ रही हैं; जहां भी जाते हो, हड्डियां हैं; जहां भी हिलते हो, खोपड़ियां हैं; तुम्हें मौत चारों तरफ मालूम होने लगे।
मोग्गलायन जब बुद्ध के पास पहले गया, तो बुद्ध ने कहा, तू मरघट जा मोग्गलायन, वहीं तू चिंतन कर। मोग्गलायन ने कहा, आप मौजूद हैं, तो आपके पास ही चिंतन करूं। मरघट से क्या होगा? बुद्ध ने कहा, तू अभी चिंतन न कर सकेगा; क्योंकि मैं भी तेरे लिए एक सुरक्षा हूं कि बुद्ध के पास है। क्या डर? पहले तू जा, पहले मौत को अपने पास देख! जिस दिन मौत तेरे पास होगी, उसी दिन मैं भी तेरे पास हो सकता हूं, उसके पहले नहीं।
मोग्गलायन ने कहा कि मरघट पर तो बहुत डर लगता है। मैं तो आपके पास ही ठीक हूं।
हम संतों के पास भी जाते हैं, तो सुरक्षा के लिए। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे में जाते हैं--सुरक्षा के लिए। इंतजाम कर रहे हैं हम। और आगे तक का इंतजाम कर रहे हैं। कहीं कोई खतरा न हो, सब तरफ व्यवस्था बिठा ले रहे हैं। लोग आते हैं, वे पूछते हैं, आत्मा तो निश्चित ही अमर है! निश्चित ही! अनिश्चय उनके भीतर साफ है। डरते हैं वे भी कहने में कि आत्मा अमर है।
एक महिला मेरे पास आई थी। वह कुछ अनुसंधान करती है आत्मा की अमरता के संबंध में, पुनर्जन्म के संबंध में। पर मैं थोड़ा हैरान हुआ; क्योंकि वह पुनर्जन्म और आत्मा की अमरता के सिद्धांतों की बात करती है, लेकिन बहुत भयभीत है। हाथ-पैर उसके कंपते हैं। जब वह आत्मा की अमरता की बात भी करती है, तब भी हाथ कंपता रहता है। वह मेरे पास आई थी, तो मैंने उससे कहा कि हाथ तू ऊंचा कर और फिर तू बात कर, ताकि मैं तेरे हाथ को देखता रहूं। उसने कहा, क्या मतलब?
एक कागज पड़ा था, मैंने उसे कागज दे दिया कि यह कागज तू हाथ में पकड़ ले, ताकि तेरे हाथ का कंपन मुझे कागज में साफ दिखाई पड़े। फिर तुझे जो बात करनी है, कर। उसने कहा, हाथ तो मेरे कंपते हैं और पसीना भी बहुत आता है, नर्वसनेस मुझे बहुत है। लेकिन आत्मा अमर है! शरीर ही मरता है; आत्मा कभी नहीं मरती।
मैंने कहा, तुझे अनुसंधान की यह प्रेरणा कैसे मिली? तूने कुछ अध्ययन किया, कुछ ध्यान किया, आत्मा की तुझे कोई झलक मिली? उसने कहा कि नहीं, बचपन में ही मेरी मां मर गई। फिर मेरे पिता मर गए। और मृत्यु मेरे ऊपर भारी हो गई। नहीं, लेकिन मृत्यु तो सब शरीर की है। आत्मा तो अमर है।
भय मृत्यु का है, आत्मा की अमरता की पकड़ है यह भय से सुरक्षा के लिए--कोई भरोसा दिला दे! तो अब वह अनुसंधान में लगी है; इसलिए नहीं कि आत्मा अमर है, इससे किसी को कुछ लाभ होगा; अगर सिद्ध हो जाए, तो वह जो मृत्यु का भय पीछा कर रहा है, वह छूट जाए।
बुद्ध ने मोग्गलायन से कहा कि पहले तू मौत को अनुभव कर, तभी तू चौकन्ना हो सके! और चौकन्ना हो सके, तो ध्यान में जा सके; नहीं तो ध्यान में कभी नहीं जा सकेगा।
ध्यान का अर्थ ही है: एक चौकन्नापन, एक ताजगी, सतत जागरूकता। एक क्षण को भी भीतर मूर्च्छा नहीं।
जैसे चारों तरफ व्यक्ति खतरों से घिरा हो, ऐसे वे चौकन्ने और अनिर्णीत थे!
"वे जीवन में जैसे कि अतिथि हों, ऐसे गंभीर अभिनय में रत थे।'
अतिथि आपके घर आता है, मेहमान आपके घर आता है। आप मेजबान होते हैं, आतिथेय होते हैं, होस्ट होते हैं। अतिथि घर में आता है, नया हो, तो गंभीर अभिनय उसे करना पड़ता है। जैसे-जैसे पुराना होने लगता है, वैसे-वैसे गंभीर अभिनय छोड़ने लगता है। आतिथेय भी नया होता है, तो पहले गंभीर अभिनय करता है। कुर्सियां पड़ोस की उठा लाता है। घड़ी दीवार पर टांग देता है किसी की मांग कर, रेडियो लाकर रख देता है। टेलीफोन, जिसमें कोई कनेक्शन नहीं, उसे जमा देता है। फिर मेहमान परिचित होने लगता है, तो ये सामान धीरे-धीरे हटा दिए जाते हैं। और जब मेहमान बहुत परिचित हो जाता है, तो मेहमान को हटाने की कोशिश शुरू हो जाती है।
अपरिचय में एक अभिनय है। तो अपरिचित आदमी से जब हम मिलते हैं, तो हम नहीं मिलते सिर्फ हमारे बनावटी चेहरे मिलते हैं। इससे बड़ी भ्रांति होती है। अगर दो व्यक्ति मित्र बन जाते हैं, तो पहली दफा जो मुलाकात होती है, वह उन दोनों की नहीं होती, वह दो झूठे चेहरों की होती है। दो-चार घंटे में--वे चेहरे कब तक चल सकते हैं--वे सरक जाते हैं, असली चेहरा बाहर आ जाता है। और तब हमें ऐसा लगता है बड़ा धोखा हुआ, क्या समझा था इस आदमी को और क्या निकला!
कोई धोखा नहीं हुआ है, कोई धोखा नहीं हुआ है। जीवन में अपरिचय हो, तो लोग एक-दूसरे के प्रति गंभीर भाव रखते हैं, ताकि वही प्रकट हो जो होना चाहिए--शिष्ट, आचरणपूर्वक, व्यवस्थित, अनुशासित। फिर जब निकटता बढ़ती जाती है, तो अनुशासन छूट जाता है। दो मित्रों की गहरी मित्रता का मतलब ही यह होता है कि अब मजे से एक-दूसरे को गाली देते हैं और बुरा नहीं मानते। गंभीरता चली गई है।
लाओत्से कहता है कि वे जीवन में ऐसे जीते हैं, जैसे अतिथि हों--पूरा जीवन। पूरा जीवन, हर स्थिति में वे इस जगत में एक आउटसाइडर हैं, अतिथि हैं। इस जगत को कभी अपना घर नहीं मान पाते। संतजन इस जगत को कभी अपना घर नहीं मान पाते, कभी एट-होम इस संसार में वे अनुभव नहीं कर पाते।
कोलिन विल्सन ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है: दि आउटसाइडर। उस किताब में उसने बड़ी मेहनत ली है कि इस जगत के जो भी महत्वपूर्ण लोग हैं, वे सब आउटसाइडर्स हैं। बुद्ध हों, कि सुकरात हो, कि लाओत्से हो, सब आउटसाइडर्स हैं। यहां वे ऐसे रहते हैं, जैसे एक अपरिचित घर में अतिथि की तरह हों। और यह अतिथिपन उनका कभी नहीं टूटता, क्योंकि अजनबीपन कभी नहीं टूटता।
यह बड़े मजे की बात है, हम अपने से जितने कम परिचित होते हैं, उतना ही हमें लगता है कि हम दूसरों से ज्यादा परिचित हैं। और जब अपने से परिचय बढ़ता है, तो दूसरे से अपरिचय बढ़ने लगता है। इसे ऐसा समझें कि जो आदमी समझता है कि मैं इतने लोगों को जानता हूं, एक बात पक्की समझना कि अपने को नहीं जानता होगा। और जो आदमी अपने को जान लेता है, तत्क्षण उसे पता चलता है कि मैं किसी को भी नहीं जानता। अतिथि की भांति वैसा आदमी जीता है।
लेकिन लाओत्से बहुत मजे की बात इसमें कह रहा है कि वे जीवन में ऐसे होते हैं, जैसे अतिथि हों--ऐसा गंभीर अभिनय करते हैं। अतिथि की तरह होते हैं; और जो कुछ भी वे करते हैं वह एक अभिनय है, वास्तविकता नहीं है। थोड़ा उदाहरण लें, तो खयाल में आ सके।
बुद्ध वर्षों के बाद घर लौटे हैं। तो आनंद ने बुद्ध से एक प्रतिज्ञा ली थी दीक्षा के पहले कि मैं सदा साथ रहूंगा। बुद्ध राजमहल में आ गए हैं। राजधानी के द्वार पर सारे नगर ने स्वागत किया। सिर्फ यशोधरा, पत्नी नहीं आई। बुद्ध ने आनंद से कहा, देखते हो आनंद, यशोधरा दिखाई नहीं पड़ती।
आनंद को बड़ी चिंता हुई, कि बुद्ध होकर और अभी भी पत्नी का खयाल! बारह वर्ष, इतने परम ज्ञान को पाया, अभी भी पत्नी का खयाल! पर आनंद ने धीरज रखा कि देखेंगे, समय पर पूछ लेंगे।
फिर बुद्ध महल पहुंचे हैं। द्वार पर भी पत्नी नहीं है। फिर महल के भीतर प्रविष्ट हुए हैं। तो बुद्ध ने आनंद से कहा कि आनंद, तुझे मैंने आश्वासन दिया है कि तू जहां भी मेरे साथ रहना चाहेगा, रहेगा। अभी भी मैं अपना वचन नहीं तोडूंगा, लेकिन फिर भी तुझसे प्रार्थना करता हूं कि पत्नी बारह वर्ष से नाराज बैठी है; छोड़ कर मैं उसे भाग गया था। कोई और उपाय न था, कोई और उपाय न था। और अब अगर पहली दफा बारह वर्ष के बाद भी मैं किसी को लेकर भीड़-भड़क्के में उससे मिलूं, तो उसकी नाराजगी नहीं टूटेगी। उसे थोड़ा मौका दे कि वह नाराज हो ले, चिल्ला ले, जो उसने बारह वर्ष में इकट्ठा किया हो, वह निकाल ले। तो अच्छा हो कि तू थोड़ा पीछे रुक जा! मैं उससे अकेले में ही जाकर मिल लूं।
आनंद और भी घबड़ाया। पत्नी से अकेले में मिलने की क्या बुद्ध को जरूरत है?
लेकिन बुद्ध ठीक कह रहे हैं। और बुद्ध का अकेले मिलना परिणामकारी हुआ। और यशोधरा ने उनको अकेले आते देख कर निश्चित ही क्रोध निकाला, चिल्लाई, नाराज हुई, सब लांछनाएं दीं कि तुमने धोखा दिया! और तुमने इतना भी भरोसा न किया मेरा कि तुम मुझसे पूछ तो लेते!
बुद्ध चुपचाप खड़े होकर सुनते हैं। क्रोध निकल गया, नाराजगी निकल गई, फिर वह रोने लगी। फिर बारह वर्ष की पीड़ा है और बारह वर्ष का दुख है, वह सब निकला। फिर उसके आंसू सूखे। बुद्ध चुपचाप खड़े हैं। वह सब कहे चली जा रही है। फिर उसने आंखें ऊपर उठाईं, बुद्ध की तरफ देखा। और तब यशोधरा ने कहा कि तुम अकेले आए, इस बात ने ही मुझे बदल दिया। अगर तुम भीड़-भड़क्का साथ लेकर आते, तो मैं मानती कि मेरे लिए तुम्हारे मन में कोई भी जगह नहीं है। बुद्ध फिर भी चुपचाप खड़े हैं। पत्नी उनके पैरों पर गिर पड़ी है। नाराजगी निकल गई, दुख निकल गया; वह क्षमा मांग रही है। बुद्ध ने उसे कहा कि मैं जो लेकर आया हूं, एक ही आकांक्षा मेरे मन में रही है कि तुझे भी वह कब मिल जाए!
यह सब अभिनय है। बुद्ध के तल पर यह सब अभिनय है। लेकिन पत्नी दीक्षित हो गई। वह भिक्षुणी हो गई। और पांच साल गुजर गए, ध्यान में गहरी उतर गई। तब एक दिन यशोधरा ने बुद्ध से कहा, तुमने खूब अभिनय किया! कितनी मैं पुलकित हुई उस दिन जान कर कि नगर के द्वार पर आकर तुमने पूछा, आनंद से कहा, यशोधरा नहीं दिखाई पड़ती। बारह वर्ष का दुख मेरा छूट गया। कितनी पुलकित हुई उस दिन जान कर कि तुम अकेले आए हो, आनंद को बाहर रोक कर। तुम्हारे बाबत जितनी नाराजगी थी, सब बह गई। लेकिन अब मैं जानती हूं कि तुमने खूब अभिनय किया। तुम्हारा अभिनय ही मुझे बदलने का कारण हो सका।
लाओत्से कहता है, ऐसे व्यक्ति इस जगत के भीतरी हिस्से कभी नहीं हो पाते; लेकिन निरंतर अभिनय करते रहते हैं कि इस जगत के भीतरी हिस्से हैं। ऐसे व्यक्ति इस जगत में कोई संबंध निर्मित नहीं कर पाते; लेकिन निरंतर अभिनय करते रहते हैं कि सब संबंध बहुत गहरे हैं। और यह अभिनय बड़ा गंभीर है। होगा ही गंभीर, अन्यथा अभिनय टिकेगा नहीं। अभिनय गंभीर न हो, तो टिक नहीं सकता। एक तो अभिनय और फिर गंभीर न हो, तो टिकेगा नहीं।
संत का यह भी एक भीतरी लक्षण कि जगत में वह बाहरी होकर भीतरी की तरह जीएगा, अतिथि की तरह जीएगा और एक गहन अभिनय में संलग्न होगा। कर्ता वह नहीं है अब। अब तो जो भी है, वह बाहर है और खेल है। वह रामलीला में राम का पात्र भर, राम का अभिनय भर कर रहा है। वह असली राम नहीं है।
और अगर हम असली राम का भी पता लगाने जाएं, तो फिर बहुत मजा आएगा। अगर असली राम का भी हम पता लगाने जाएं, तो वे भी रामलीला में एक अभिनय के पात्र से ज्यादा नहीं थे। और वही उनकी खूबी है। इसलिए जिस सीता को खोजने के लिए जिंदगी दांव पर लगाएं, उस सीता को एक नासमझ धोबी के कुछ कहने से जंगल छोड़ दें! जिस राज्य को जीतने के लिए अथक श्रम लें, फिर उसे ऐसा ही दान कर दें! अगर राम के लिए यह सब वास्तविक हो, तो बहुत कठिन हो जाए। यह वास्तविक नहीं है। एक बड़े अभिनय का हिस्सा है।
और राम अति गंभीर हैं। अन्यथा इस छोटी सी बात के लिए, धोबी की बात के लिए सीता को छोड़ने का कोई अर्थ न था। लेकिन अति गंभीर हैं। अभिनय को पूरा कर रहे हैं। इसलिए हमने अच्छे शब्द खोजे हैं; हम इसे कहते हैं: रामलीला। यह राम का अभिनय है कि राम रो रहे हैं। सीता खो गई है; छाती पीट रहे हैं। जंगल में दरख्तों से पूछ रहे हैं कि मेरी सीता कहां है? और मजा यह है कि एक सोने के हिरन के पीछे भागे हैं। हमको भी पता है कि सोने का हिरन नहीं होता। राम को भी पता होगा ही। सोने के हिरन के पीछे भागे हैं। वह एक बड़े अभिनय का हिस्सा है। सोने के हिरन के पीछे भागे हैं, फिर लक्ष्मण को चिल्लाए हैं कि बचाओ!
सीता ने भी बहुत मजे की बात कही है। लक्ष्मण जाने को तैयार नहीं है छोड़ कर। पहरे पर उसे खड़ा किया है। और राम कह गए हैं कि हटना मत। लेकिन राम की जिंदगी खतरे में है, कुछ उपद्रव हुआ है। और चिल्लाहट आती है कि मुझे बचाओ लक्ष्मण, भागो! लेकिन लक्ष्मण हट नहीं सकते। तो सीता लक्ष्मण से कहती है कि मुझे पता है भलीभांति कि तुम चाहते हो तुम्हारा भाई मर जाए, तो तुम मुझे पा लो।
यह बड़ी तीखी बात है। और सीता इसे तभी कह सकती है, जब यह अभिनय का हिस्सा हो। अन्यथा इसका कोई अर्थ नहीं है। मगर लक्ष्मण बेचारा फंस जाता है। उसे क्रोध आ जाता है कि हद हो गई बात की। मैं इसलिए नहीं जा रहा हूं कि राम मुझे कह गए हैं कि पहरा देना और सीता यह कह रही है कि मैं जानती हूं पहले से कि तुम्हारी नजर मुझ पर है। तो राम भूल गए लक्ष्मण के खयाल से, सीता भूल गई। क्रोध भयंकर हो गया। अहंकार को भारी चोट लग गई। लक्ष्मण सीता को छोड़ कर चला जाता है।
यह एक बड़े अभिनय का हिस्सा है। सीता के मुंह से ये वचन बहुत लोगों को बहुत कष्टपूर्ण हुए हैं। बहुत कष्टपूर्ण हुए हैं! लेकिन उन्हीं को होंगे, जो इस लीला की पूरी व्यवस्था को न समझें, जो इसे बहुत वास्तविक समझ लें। उन्हें सीता के शब्द अभद्र मालूम होंगे और व्यवहार कठोर मालूम होगा। और यह बात ओछी मालूम होगी। लेकिन यह अभिनय, मात्र अभिनय का हिस्सा है।
लेकिन लक्ष्मण को यह स्थिति नहीं है। लक्ष्मण को यह स्थिति नहीं है। लक्ष्मण के लिए सभी कुछ वास्तविक है। इस पूरे खेल में राम को हमने प्रमुख माना और रामलीला नाम दिया, उसका कारण है। ऐसे कोई चाहे तो भरत को भी प्रमुख मान सकता था। और कोई कमी न होती; वह नायक कुछ कम नहीं है राम से। रावण को भी प्रमुख माना जा सकता था; क्योंकि उसके बिना भी यह घटना नहीं घट सकती। और सीता तो केंद्रीय है ही; क्योंकि सारा जाल उसके आस-पास फैलता और बड़ा होता है। लेकिन हमने सब का नाम छोड़ कर राम को नायक माना। क्योंकि उस पूरे खेल में खेल ही जानने वाले वे अकेले ही व्यक्ति गहरे हैं। उनको यह सारे का सारा खेल है, यह सारी लीला है।
"उनकी अस्मिता सतत विसर्जित होती रहती है, जैसे कि प्रतिपल बिखरता हुआ बर्फ हो।'
जैसे बर्फ पिघल रहा हो धूप में, ऐसे संत की अस्मिता, आत्मा, होने का भाव कि मैं हूं, वह पिघलता चला जाता है। यह थोड़ा सोचने जैसा है। यही फर्क गहरा है। संत तब तक संत कहा जाएगा, जब तक उसकी अस्मिता का कुछ हिस्सा अभी और भी पिघलने को शेष रह गया है। जिस दिन अस्मिता बिलकुल पिघल जाएगी, उस दिन संत संत भी नहीं रह जाएगा। उस दिन वह परमात्मा ही हो गया। अस्मिता, आत्मा का भाव...।
अब इसे हम दो तरह से ले लें। हमारे भीतर अहंकार है--मैं हूं। यह बिलकुल झूठा मैं है। यह पिघल जाए, तो संतत्व पैदा होगा। संतत्व में मैं पर तो जोर नहीं रहेगा, हूं पर जोर रहेगा। मैं हूं, आई एम। हमारा जोर मैं पर है। हूं सिर्फ एक पूंछ है, छाया है। संत का मैं गिर जाएगा, तभी वह संत होगा। लेकिन हूं रह जाएगा--हूं, अस्मिता। अहंकार--मैं, ईगो। एमनेस, अस्मिता--सिर्फ होने का भाव। लेकिन यह भी उसका पिघलता चला जाएगा बर्फ की तरह। और जिस दिन यह भी पिघल जाएगा, जिस दिन मैं भी नहीं बचेगा, हूं भी नहीं बचेगी, उस दिन, उस दिन संत भी गया। उस दिन सिर्फ ईश्वर रहा, अस्तित्व रहा।
तो लाओत्से कहता है कि उनकी अस्मिता पिघलती रहती है प्रतिपल, प्रतिपल, जैसे बर्फ पिघल रही हो। यह भी भीतरी घटना है, यह भी भीतरी घटना है। अगर हम बुद्ध, महावीर, या कृष्ण या क्राइस्ट को निकट से देखें, तो कहीं भी होने पर पकड़ नहीं मालूम पड़ेगी।
महावीर गुजर रहे हैं एक रास्ते से। लोग कहते हैं, वहां से मत जाएं, वहां एक भयंकर सर्प है। वहां से कोई जाता नहीं। राह निर्जन हो गई है। सर्प बहुत भयंकर है और हमले करता है। दूर से फुफकार मार देता है, तो आदमी मर जाता है। तो महावीर कहते हैं, जब वहां से कोई भी नहीं जाता, तो सर्प के भोजन का क्या होगा?
अगर आपसे किसी ने कहा होता कि उस रास्ते पर सर्प है, सर्प को छोड़ें, चूहा है, उधर से मत जाएं, चूहा बड़ा खतरनाक है, तो आपको जो पहला खयाल आता वह अपना आता कि जाना कि नहीं। महावीर को पहला खयाल सर्प का आया कि भूखा तो नहीं होगा। यह अस्मिता गल गई, गली जा रही है। यहां मैं का खयाल ही नहीं आता; उसका खयाल आ रहा है कि फिर तो जाना ही पड़ेगा। महावीर ने कहा, भला किया कि तुमने बता दिया। जाना ही पड़ेगा। अगर मैं न जाऊंगा, तो फिर कौन जाएगा?
तो महावीर उस सर्प को खोजते हुए पहुंचते हैं। मीठी कथा है कि सर्प ने उनके पैर में काट लिया, तो कथा है कि खून नहीं निकला, दूध निकला। दूध निकल सकता नहीं पैर से। लेकिन यह काव्य-प्रतीक है, यह काव्य-प्रतीक है। दूध प्रेम का प्रतीक है, मां का प्रतीक है। सिर्फ मां के पास संभावना है कि खून दूध हो जाए। और मनसविद कहते हैं कि अगर मां प्रेम से बिलकुल क्षीण हो जाए, तो उसके भीतर भी खून दूध में परिवर्तित नहीं होगा। वह परिवर्तन भी इसीलिए संभव है कि उसका अति प्रेम ही उसके अपने खून को अपने प्रेमी के लिए, अपने बच्चे के लिए दूध बनाता है, भोजन बना देता है। यह सिर्फ प्रतीक है कि महावीर के पैर में काटा सांप ने, तो वह दूध हो गया। इस प्रतीक को पूरा तभी समझ सकेंगे, जब समझें कि महावीर ने कहा कि सांप भूखा होगा। और मैं नहीं जाऊंगा, तो कौन जाएगा? यह ठीक मां जैसी पीड़ा है, जैसे बच्चा भूखा हो। इसलिए यह प्रतीक है कि उनके पैर से दूध बहा। दूध तो बहेगा नहीं; लेकिन महावीर के पैर से खून भी बहा हो, तो वह ठीक वैसा ही दूध जैसा बहा जैसे मां का प्रेम बहता हो भूखे बच्चे के प्रति। यह अस्मिता का विसर्जन है, मैं का भाव नहीं है।
बुद्ध को खबर मिली है कि इस रास्ते से मत जाएं। वहां अंगुलीमाल है। वह लोगों को काट देता है। उसने नौ सौ निन्यानबे अंगुलियों की माला बना ली है। एक आदमी को और मारना है। और वह इतना पागल है कि सुनते हैं अगर कोई न मिला, तो आज रात वह अपनी मां के घर पर जाकर मां की हत्या करके उसकी अंगुली की माला पहन लेगा। उसे एक हजार आदमियों की अंगुलियां चाहिए। नौ सौ निन्यानबे पूरे हो गए। तीन महीने से कोई वहां से निकलता नहीं; क्योंकि वह बिलकुल पागल है। बुद्ध ने यह सुना और वे उस रास्ते पर चल पड़े। साथियों ने, संगियों ने, अनुयायियों ने कहा, आप क्या कर रहे हैं? वहां जाने की कोई जरूरत नहीं है। जो अपनी मां को काटने को तैयार है, वह आपको भी छोड़ेगा नहीं। बुद्ध ने कहा, मां को छोड़ सके, मुझे ले ले; इसीलिए जाता हूं।
यह अस्मिता गल रही है। यह भीतर से अब होने का भी भाव खो रहा है।
मैं तो गया, तब आदमी संत बनता है। और जब हूं भी चला जाए, तब परमात्मा हो जाता है। संत की अस्मिता गलती रहेगी; वह धीरे-धीरे परमात्मा में बिखर कर एक हो रहा है।
"वे अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा नहीं करते, जैसे कि वह लकड़ी जिसे अभी कोई रूप नहीं दिया गया हो।'
आप एक लकड़ी पर बैठे हैं, वह कुर्सी है। एक लकड़ी तख्त बन गई है। एक लकड़ी दरवाजा बन गई। एक लकड़ी मूर्ति बन गई। इन लकड़ियों ने घोषणा कर दी कि हम क्या हैं--एक लकड़ी मूर्ति है, एक कुर्सी है, एक दरवाजा है। लाओत्से कहता है, संत अपने संबंध में कोई घोषणा नहीं करते। वे उस लकड़ी की भांति हैं, जिसे अभी कोई रूप न दिया गया हो; जो कोई घोषणा न कर सके कि मैं कौन हूं। अभी जंगल से कटी हुई लकड़ी है, ताजी। अभी कुछ बनी नहीं है, अरूप है। बन सकती है कुछ भी; लेकिन बनी कुछ भी नहीं है।
लाओत्से कहता है कि संतजन सदा ही अनबने होते हैं। उनकी कोई घोषणा नहीं कि हम यह हैं।
ध्यान रहे, जैसे ही घोषणा हुई, वैसे ही सीमा आ जाती है। अघोषित असीम होगा। और असीम जो है, उसे अघोषित रहना पड़ेगा। वह घोषणा नहीं कर सकता कि मैं कौन हूं। कोई घोषणा नहीं होती। हम सब घोषणा करते हैं कि कौन हैं। कोई कहता है, मैं मजिस्ट्रेट हूं; कोई कहता है, मैं डाक्टर हूं; कोई कहता है, मैं नेता हूं; कोई कहता है, मैं यह हूं, वह हूं। हम सब घोषणाएं करते हैं। संत से पूछो कि तुम कौन हो, तो उसकी कोई घोषणा नहीं हो सकती कि मैं कौन हूं।
बोधिधर्म से जब पूछा चीन के सम्राट वू ने कि तुम कौन हो? तो बोधिधर्म ने कहा, आई डू नॉट नो, मुझे कुछ भी पता नहीं। वू तो बहुत हैरान हो गया। उसने कहा कि मैं तो सोचा था कि तुमसे आत्म-ज्ञान की शिक्षा लूंगा; तुमको खुद ही पता नहीं कि तुम कौन हो।
बोधिधर्म को समझना मुश्किल है। यही लाओत्से कहता है कि हमारी समझ के परे हैं। बोधिधर्म ने जब कहा कि मुझे पता नहीं, तो वू यही समझा, जैसा कोई साधारण आदमी कहता है कि मुझे पता नहीं।
बोधिधर्म हंसने लगा और उसने कहा कि तुम थोड़ा उन लोगों के पास रहो, जो और तरह की भाषा बोलते हैं, ताकि तुम मेरी भाषा समझ सको।
बोधिधर्म का यही मतलब था--अघोषणा। क्योंकि मैं क्या कहूं कि कौन हूं? कैसे कहूं कि कौन हूं? बोधिधर्म ने कहा, मुझे कुछ भी पता नहीं है। संत अघोषित हैं। और असंत का मन बहुत घोषणाएं करना चाहेगा कि मैं यह हूं, यह हूं, यह हूं। उसे पूरे वक्त डर बना है। अगर घोषणा न की तो कौन जाने, कोई पहचाने न पहचाने। संत आश्वस्त है। जो भी है--अघोषित, मौन।
"वे एक घाटी की भांति हैं--रिक्त।'
एक पहाड़ की भांति नहीं। एवरेस्ट के शिखर की भांति नहीं; आकाश में उठे हुए नहीं, घोषणा करते हुए नहीं। एक घाटी की भांति, छिपे हुए, अंधेरे में, जिसकी कोई भी घोषणा नहीं है। आड़ में, अंधेरे में, गुप्त, मौन!
और सबसे अदभुत बात कही है, "मटमैले जल की भांति। वैकेंट लाइक ए वैली एंड डल लाइक मडी वाटर।'
संत की सोच सकते हैं आप कल्पना मटमैले पानी की भांति? बरसात में जो पानी मटमैला होकर बहता है, वैसे हैं। स्वच्छ होने तक की घोषणा नहीं, पवित्र होने तक की घोषणा नहीं, संत होने तक की घोषणा नहीं--लाइक मडी वाटर, मटमैले जल की भांति। गंगा के पवित्र जल होने की घोषणा नहीं; मटमैले जल की भांति। कोई घोषणा नहीं है। नालियों में से भी बह सकते हैं, गंगा में से भी बह सकते हैं। कोई अंतर नहीं पड़ता। निम्नतम के साथ उसी तरह जी सकते हैं, जैसे श्रेष्ठतम के साथ। स्वर्ग में हों कि नर्क में, कोई भेद नहीं।
आखिरी बात। जापान का एक सम्राट संत की खोज में था लाओत्से को पढ़ कर कि ऐसा संत कहां मिले, लाइक मडी वाटर, लाइक ए वैकेंट वैली। गहन खाई की तरह शून्य, मटमैले पानी की तरह, कहां मिले? मंदिरों में गया, जिन पर स्वर्ण-शिखर थे। वहां संत मिले, वे शिखरों की भांति थे। लेकिन वह सम्राट पूछता कि खाई की भांति, घाटी की भांति, मटमैले जल की भांति!
वह खोजता रहा। उसे कहीं भी संत नहीं मिले, जैसे संत की वह तलाश में था। जब वह अपने गांव वापस लौट रहा था, राजधानी, तो गांव के नगर-द्वार पर ही एक भिखारी भीख मांगता था। उसने चिल्ला कर उस सम्राट को कहा कि बहुत बार तुम्हें घोड़े पर आते-जाते यहां से वहां देखता हूं, किसकी खोज कर रहे हो? सम्राट ने कहा, मैं उसकी खोज कर रहा हूं, उस संत की, जो खाई की भांति होता है लाओत्से ने कहा है; मिट्टी से मिले जल की भांति। तो वह फकीर खूब हंसने लगा और उसने कहा कि जाओ भी। सम्राट ने कहा कि तुमने पूछा और फिर कहा जाओ भी! उस फकीर ने कहा कि तुम अब जाओ ही।
सम्राट को बड़ी हैरानी हुई। और जब गौर से उस फकीर की तरफ देखा, तो उसे खाई दिखाई पड़ी उस फकीर की आंखों में। पर उसने कहा कि तुम तो भिखारी हो और तुम्हारी आंखों में खाई दिखाई पड़ती है! मैं तो इसीलिए तुम्हारी तरफ कभी न देखा कि एक भिखारी है, कुछ मांगने न लगे। और मैं जगह-जगह खोजता फिरा। तो उस फकीर ने कहा कि तुम खोजते थे वहां, जहां शिखर ही हो सकते हैं। तुमने वहां खोजा ही नहीं। लेकिन किसी को बताना मत। हम भीख मांग कर किसी तरह अपने को छिपाए हैं। किसी को बताना मत, किसी को खबर मत करना।
सम्राट तो महल आया भागा हुआ कि खबर कर दे। ले गया दरबारियों को। लेकिन फकीर फिर नहीं खोजा जा सका। दूसरे भिखारियों ने खबर दी कि वह इतना कह गया है कि मेरे गुरु की आज्ञा थी कि घोषणा मत करना और भूल से मुझसे घोषणा हो गई। सम्राट से मैंने बात कर ली। और सम्राट मेरी आंखों में झांक लिया। मेरे गुरु ने कहा था, आंखें झुका कर रखना कि कोई तेरी खाई को न देख ले। और मेरे गुरु ने कहा था कि भिखारी के वस्त्रों में रहना, ताकि मटमैले जल की भांति!
लाओत्से ने ये आंतरिक संकेत दिए।

आज इतना ही। शेष कल। लेकिन पांच मिनट बैठें। कीर्तन के बाद ही जाएं।


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