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शनिवार, 16 जून 2018

ईशावास्‍य उपनिषाद--प्रवचन--02

वह परम भोग है—दूसरा प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।

सूत्र:

            हरि ओम,
            ईशावास्‍यमिदं सर्वं यत्किज्व जगत्या जगत्।
            तेन त्यक्तेन पुज्जीथा: मा गृध: कस्यस्विद्धनमू।। 1।।


      जगत में जो कुछ स्थावर—जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा
      आच्छादनीय है। उसके त्याग— भाव से तू अपना पालन कर; किसी
                  के धन की इच्छा न कर।। 1।।

शावास्य उपनिषद की आधारभूत घोषणा : सब कुछ परमात्मा का है। इसीलिए ईशावास्य नाम है — ईश्वर का है सब कुछ।
मन करता है मानने का कि हमारा है। पूरे जीवन इसी भ्रांति में हम जीते हैं। कुछ हमारा है — मालकियत, स्वामित्व — मेरा है। ईश्वर का है सब कुछ, तो फिर मेरे मैं को खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।

ध्यान रहे, अहंकार भी निर्मित होने के लिए आधार चाहता है। मैं को भी खड़ा होने के लिए मेरे का सहारा चाहिए। मेरे का सहारा न हो तो मैं को निर्मित करना असंभव है।
साधारणत: देखने पर लगता है कि मैं पहले है, मेरा बाद में है। असलियत उलटी है। मेरा पहले निर्मित करना होता है, तब उसके बीच में मैं का भवन निर्मित होता है।
सोचें, आपके पास जो—जो भी ऐसा है, जिसे आप कहते हैं मेरा, वह छीन लिया जाए सब, तो आपके पास मैं भी बच नहीं रहेगा। मेरे का जोड़ है मैं। मेरा धन, मेरा मकान, मेरा धर्म, मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, मेरा पद, मेरा नाम, मेरा कुल, मेरा वंश। इन सारे लाखों मेरे के बीच में मैं निर्मित होता है। एक—एक मेरे को हम गिराते चले जाएं, तो मैं की भूमि छिनती चली जाती है। अगर एक भी मेरा न बचे, तो मैं के बचने की कोई जगह नहीं रह जाती।
मैं के लिए मेरे का नीड़ चाहिए, निवास चाहिए, घर चाहिए। मैं के लिए मेरे के बुनियादी पत्‍थर चाहिए, अन्यथा मैं का पूरा मकान गिर जाता है।
ईशावास्य की पहली घोषणा उस पूरे मकान को उस देने वाली है। कहता है ऋषि. सब कुछ परमात्मा का है। मेरे का कोई उपाय नहीं। मैं भी अपने को मेरा कह सकूं, इसका भी उपाय नहीं। कहता हूं अगर, तो नाजायज। अगर कहता ही चला जाता हूं तो विक्षिप्त। मैं भी मेरा नहीं डू। और तो सब ठीक ही है।
इसे दो—तीन दिशाओं से समझने की कोशिश करनी जरूरी है।
पहला तो, आप जन्मते हैं, में जन्मता हूं लेकिन मुझसे कोई पूछता नहीं। मेरी इच्छा कभी जानी नहीं जाती कि में जन्मना चाहता हूं! जन्म मेरी इच्छा, मेरी स्वीकृति पर निर्भर नहीं है। मैं जब भी अपने को पाता हूं जन्मा हुआ पाता हूं। जन्मने के पहले मेरा कोई होना नहीं है।
इसे ऐसा सोचें, आप एक मकान बनाते हैं। मकान से पूछते नहीं कि तूर बनना भी चाहता है या नहीं बनना चाहता है। मकान की कोई मर्जी नहीं। आप बनाते हैं, मकान बन जाता है। कभी आपने सोचा कि आपसे भी तो आपकी मर्जी कभी नहीं पूछी गई है। ईश्वर जन्माता है, आप जन्म जाते हैं। ईश्वर बनाता है, आप बन जाते हैं। मकान को भी होश आ जाए तो वह कहे, मैं। मकान को भी होश आ जाए तो वह बनाने वाले को मालिक नहीं मानेगा। मकान भी कहेगा कि बनाने वाला मेरा नौकर है, मुझे बनाया है इसने। मेरा साधन है, मेरी सेवा की है, मैं बनना चाहता था।
लेकिन मकान को होश नहीं हैं। आदमी को होश है। और कोन जाने कि मकान को होश नहीं है, हो भी सकता है। होश के भी हजार तल हैं।
आदमी का होश का एक ढंग है, एक तरह की कांशसनेस है। जरूरी नहीं है वैसी ही कांशसनेस सबकी हो। मकान की और तरह की हो सकती है। पत्थर की और तरह की हो सकती है। पौंधे की और तरह की हो सकती है। वे भी, हो सकता है, अपने—अपने मैं में जीते हो। और माली जब पौधे में पानी डालता हो तो पौधा यh न सोचता हो कि माली मुझे जन्मा रहा है, पौधा यही सोचता हो किं मैं माली की सेवाएं लेने का अनुग्रह कर रहा हूं। कृपा है मेरी कि सेवाएं ले लेता हूं! यद्यपि पौधे से कोई कभी पूछने नहीं गया कि तुझें जन्मना भी है!
जो जन्म हमारी इच्छा के बिना है, उसे मेरा कहना एकदम नासमझी है। जिस जन्म के पहले मुझसे पूछा ही नहीं जाता कभी, उसे मेरे कहने का क्या अर्थ हैं? न ही मौत आएगी तो पूछकर आएगी। न ही मौत पूछेगी कि क्या इरादे हैं? चलते हैं, नहीं चलते हैं? आएगी और बस आ जाएगी। ऐसे ही अनजानी जैसा जन्म आता है। ऐसे ही बिना पूछे, द्वार पर दस्तक दिए बिना, बिना किसी पूर्व—सूचना के, बिना आगाह किए, बस चुपचाप खडी हो जाएगी। और कोई विकल्प नहीं छोड़ती — कोई आल्टरनेटिव नहीं, कोई चुनाव नहीं, कोई च्‍वायेस नहीं। यह भी नहीं कि क्षणभर रुक जाना चाहूं तो रुक सकूं।
तो जिस मौत मैं मेरी इतनी भी मर्जी नहीं है, उसे मेरी मौत कहना बिलकुल पागलपन है। जिस जन्म मे मेरी मर्जी नहीं है, वह जन्म मेरा नहीं है। जिस मौत में मेरी मर्जी नहीं है, वह मौत मेरी नहीं है। और उन दोनो के बीच में जो जीवन है, वह मेरा कैसे हो. सकता है?
उन दोनों के बीच मैं जिस जीवन को हम भरते हैं, जब उसके दोनों छोर मेरे नहीं हैं — दोनों बुनियादी छोर मेरे नही है,, दोनों अनिवार्य छोर मेरे नहीं हैं, जिनके बिना मैं हो भी नहीं सकता —— तो बीच का जो भराव है, वह भी धोखा है, डिसेप्शन है। और उसे हम भरते हैं, और हम मौत और जन्म को बिलकुल भूल जाते है।
अगर हम मनस्विद से पूछें तो वह कहेगा, हम जानकर भूल जाते हैं। क्योंकि बड़े दुखद स्मरण है ये। मेरा जन्म भी मेरा नहीं है तो कितना दीन हो जाता हूं। मेरी मृत्यु भी मेरी नहीं है तो छिन गया सब, कुछ बचा नहीं, मेरे हाथ रिक्त और खाली हो गए। राख बची। और इन दोनों के बीच में जिस जीवन के लंबे सेतु को मैं निर्मित करूंगा.. —एक नदी पर हम पुल बनाते है, ब्रिज बनाते हैं। न यह किनारा हमारा है, न वह किनारा हमारा है। न इस किनारे पर रखे हुए ब्रिज के, सेतु की बुनियाद हमारी है, न उस तरफ की बुनियाद हमारी है। तो यह बीच की नदी पर जो फैला हुआ पुल है, वह भी हमारा कैसे हो सकता है? आधार जिसके हमारे नहीं हैं, वह हमारा नहीं हो सकता है। इसलिए हम जानकर भुला देते है।
आदमी बहुत सी बातें जानकर भुलाए हुए है। कुछ बातों को वह स्मरण ही नही करता। क्योंकि वह स्मरण उसके अहंकार की सारी की सारी अकड़ खींच लेगा, बाहर कर देगा। फिर क्या है हमारा? छोड़े जन्म और मृत्यु को। जीवन में ऐसा भ्रम होता है कि बहुत कुछ हमारा है। लेकिन जितना ही खोजने जाते हैं, पाया जाता है कि नहीं बहू भी हमारा नहीं है।
आप कहते हैं, किसी से मेरा प्रेम हो गया, बिना यह सोचे हुए कि प्रेम आपका निर्णय है, योर डिसीजन? नहीं, लेकिन प्रेमी कहते हैं कि हमें पता ही नहीं चला, कब हो गया! इट हैपेन्द्व, हो गया, हमने किया नहीं। तो जौ हो गया, वह हमारा कैसे हो सकता है? नहीं होता तो नहीं होता। हों गया तो हो गया। बड़े परवश हैं, बड़ी नियति हैँ। सब जैसे कहीं बंधा है।
लेकिन बंधान कुछ ऐसा हें कि जैसे हम एक जानवर कों एक रस्सी में बांध दें, एक खूंटी में बाँध दें और जानवर रस्सी की खूंटी में चारों तरफ घूमता रहे। घूमने से भ्रम पैदा हो कि मैं स्वतंत्र हूं क्योंकि घूमता हुं। और रस्सी को भुला दे, क्योंकि रस्सी दुखद है। वह जो खूंटी से बंधी हुई रस्सी है, बहू बडी दुखद है, वह परतंत्रता की खबर लाती है। सच तो यह है कि वह स्वयं के न होने की खबर लाती है। परतंत्र होने योग्य भी हम नहीं हैं, स्वतंत्र होने कीं तो बात बहुत दूर है। परतंत्र होने के लिए भी तो हमें होना चाहिए, वह भी हम नहीं हैं। वह जौ खूंटी बंधी है, चारों तरफ घूम लेता है जानवर, चूंकि घूम लेता हें, कभी बाएँ चला जाता है, कभी दाएं चला जाता है, तो सोचता है, स्वतंत्र हूं। और जब स्वतंत्र हूं तो मैं हूं। फिर धीरे— धीरे अपने को समझा लेता होगा कि खूंटी से बंधा हूं यह भी मेरी मर्जी है। जब चाहूं तब तोड़ दूं। राजी हो गया हूं यह भी मेरे हित के लिए है।
जीवन में हम बहुत सा भ्रम पैदा करते हैं। कहते हैं क्रोध, कहते हैं प्रेम, कहते हैं घृणा, मित्रता, शत्रुता — लेकिन कुछ भी तो हमारा निर्णय नहीं है। कभी आपने ऐसा क्रोध किया है, जों आपने किया हो? कभी नहीं किया। जब क्रोध होता है तब आप होते ही नहीं। कभी आपने प्रेम किया है, जो आपने किया हो? अगर आप प्रेम कर सकते तब तो किसी को भी कर सकते थे, लेकिन किसी को कर पाते हैं और किसी को नहीं कर पाते। और किसी को कर पाते हैं, तो नहीं चाहते तो भी करते हैं। और किसी को नहीं कर पाते हैं, तो चाहें तो भी नहीं कर पाते।
जिंदगी की सारी भावनाएं किसी अज्ञात छोर से आती हैं — जहां से जन्म आता है वहीं से। आप नाहक ही बीच में मालिक बन जाते हैं। और आपने क्या किया है? क्या है जो आपका किया हुआ है? भूख लगती है, नींद आती है, सुबह नींद टूट जाती है, सांझ फिर आंखें बंद होने लगती हैं। बचपन आता है, फिर कब चला जाता है? फिर कैसे चला जाता है? न पूछता, न विचार—विमर्श लेता, न हम कहें तो क्षणभर ठहरता। फिर जवानी चली आती है, फिर जवानी विदा हो जाती है। फिर बुढ़ापा आ जाता है। आप कहां हैं?
नहीं, लेकिन आप कहे चले जाते हैं कि मैं जवान हूं मैं का हूं। जैसे कि जवानी कुछ आप पर निर्भर हो। फिर जवानी के अपने—अपने फूल हैं। बुढ़ापे के अपने फूल हैं जो खिलते हैं। वैसे ही खिलते हैं जैसे वृक्षों पर फूल खिलते हैं। गुलाब का पौधा नहीं कह सकता कि मैं गुलाब के फूल खिलाता हूं। क्योंकि यह तभी कह सकता था जब चमेली के खिला सकता होता। लेकिन चमेली के तो खिला नहीं पाता। चंपा के तो खिला नहीं पाता। मधुकामिनी तो नहीं लगती उस पर। गुलाब ही लगता है। फिर नाहक ही अकड़ है। गुलाब लगता है। चमेली पर चमेली लगती है।
बचपन में बचपन के फूल खिलते हैं, आप नहीं खिलाते। और अगर बचपन में निर्दोष होते हैं, तो होते हैं। कुछ गुण नहीं। कुछ गौरव नहीं। कुछ यश मत ले लेना उससे। बचपन में सरलता होती है, तो होती है। और जवानी में अगर काम और वासना पकड़ लेती है, तो वैसे ही पकड़ लेती है जैसे बचपन में निर्दोषता पकड़ लेती है। न उसके आप मालिक होते हैं, न जवानी में कामवासना के आप मालिक होते हैं। और अगर बुढ़ापे में मन ब्रह्मचर्य की तरफ झुकने लगता है, तो कुछ अपना गौरव मत समझ लेना। वैसे ही, ठीक वैसे ही, जैसे जवानी में काम पकड़ लेता है, बुढ़ापे में काम से विरक्ति पकड़ लेती है। और जिसको नहीं पकड़ती है, उसका भी कुछ वश नहीं है। और जिसको पकड़ लेती है, वह भी नाहक का गौरव न ले।
मैं को खड़े होने की जगह नहीं है। अगर जीवन को एक—एक कण—कण सोचेंगे, तो पाएंगे, मैं को खड़े होने की जगह नहीं है। लेकिन भ्रम पैदा हम क्यों कर लेते हैं? कैसे यह इलूजन पैदा होता है? यह डिसेप्शन, यह प्रवंचना आती कहां से है गुर
यह आती इसलिए है कि हमें पूरे वक्त ऐसा लगता है कि विकल्प हैं, आल्टरनेटिव हैं। जैसे आपने मुझे गाली दी, तो मेरे सामने दो विकल्प हैं कि चाहूं तो मैं गाली का जवाब दूं और चाहूं तो न दूं — ऐसा मुझे लगता है, है नहीं। ऐसा मुझे लगता है कि चाहूं तो जवाब दूं और चाहूं तो जवाब न दूं! लेकिन क्या सच में ही विकल्प होते हैं? क्या जो आदमी गाली के उत्तर में गाली देता है, वह चाहता तो न देता? आप कहेंगे कि चाहता तो नहीं दे सकता था।
लेकिन थोड़ा और' गहरे जाना पड़ेगा। वह चाह भी आप में होती है कि आप ले आते हैं? गाली देने की चाह, या न देने की चाह, वह भी आपके वश में है? नहीं, जो बहुत गहरे खोजते हैं, वे कहते हैं कि कहीं तो हमें पता चलता है कि चीजें हमारे वश के बाहर हो जाती हैं। एक आदमी को खयाल आता है कि गाली दूं गाली देता है। लेकिन आता है, नहीं दूं, नहीं देता है। लेकिन यह खयाल कि दूं या नहीं दूं , यह खयाल कहां से आता है? यह खयाल आपका है? यह वहीं से आता है, जहा से जन्म। यह वहीं से है, जहां से प्रेम। यह वहीं से आता है, जहां से प्राण। यह वहीं खो जाता है, जहां मौन। क्या. वहीं लीन हो जाता है, जहां जाती छुई श्वास। लेकिन धोखा देने की सुविधा हो जाती है कि मेरे हाथ में है। चाहता तो गाली न देता। लेकिन किसने कहा था कि आप दें?
नहीं, आप कहेंगे, बुद्ध हैं, महावीर हैं, वे गाली नहीं देते।
क्या आप समझते हैं कि वै चाहें तो गाली दे सकते हैं? नहीं, जैसे आप गाली देने में बंधा हुआ अनुभव करते हैं, उससे कम बंधा हुआ बुद्ध और महावीर अनुभव नहीं करते है न गाली देने में। चाहें तो भी दे नहीं सकते। नहीं, वह चाह पैदा ही नहीं होती।
एक झेन फकीर के— पास सुबह—सुबह एक आदमी आया और कहने लगा कि, इतने शांत क्यों हैं? और मैं इतना अशांत क्यों हूं? उस फकीर ने कहा कि बस मै शा हूं और तुम अशांत हो। तुम अशांत हो, बात खतम हो गई। अब इसमें कुछ और आगे कहने को नहीं है। उस आदमी ने कहा कि नहीं, लेकिन आप शांत कैसे हुए? उस फकिर ने पूछा कि मैं तुमसे पूछना चाहूंगा कि तुम अशांत कैसे होते हो? वह आदमी कहने लगा, अशांति आ जाती है। उस फकीर ने कहा, बस ऐसा ही हुआ है, शांति आ गई। और मेरा कोई गौरव नहीं है। जब तक अशांति आती थी, आती थी। मैं कुछ भी कर न सका। और जब शांति आ गई, तो अब मैं अगर अशांति लाना चाहूं तो उतना ही का गया हूं, अब कुछ नहीं कर पाता हुं।
उस आदमी ने कहा, नहीं, लेकिन मुझे भी रास्ता बताए शात होने का। उस फकिर ने कहा, मैं तो एक ही रास्ता जानता हूं कि तुम यह भ्रम छोड़ दो कि तुम कुछ कर सकते हो। अशांत हो तो अशांत हो जाओ। जानो कि अशांत हूं मेरे हाथ में नहीं,  और तब तुम पाओगे कि पीछे से शांति आने लगी। बह भी तुम्हारे कोशिश क्यों नहीं  करता है। और अशांत हो जाते। शांत होने की कृपा कोशिश मत करो। जो लोग भी कोशिश करते हैं और अशांत हो जाते है। अशांत तो होते ही हैं, अब यह शांत होने की कोशिश और नई अशांति को जन्म दे जाती है।
पर उस आदमी ने कहा कि नहीं, मुझे बात कुछ जमती नहीं र मुझे शांत होना —है। उस फकीर ने कहा, तुम अशांत' रहोगे।  क्‍योंकि तुम्हें कुछ होना है। तुम छोड़ नहीं सकते परमात्मा पर। जबकि सब उस पर है। तुम्हारे हाथ में कुछ है नहीं। जिस दिन से हम राजी हो गए जो था उसी के लिए, उसी दिन से हम शांत हुए। जब तक हम कुछ होना चाहते थे, तब तक हम कुछ हो न सके।
पर नहीं, वह आदमी नहीं माना। उसने कहा कि तुम्हारी शांति मे ईर्ष्या पैदा होती है। और हम ऐसे मानकर चले न जाएंगे। तब उस फकीर ने कहा, रुको। जब कोई न रहे यहां तब पूछ लेना। फिर दिन में कई मौके आए, कोई न था। उस आदमी ने फिर कहा कि अब कुछ बता दें, अब कोई भी नहीं है। उस फकीर ने ओंठ पर उंगली रखी और कहा कि चुप।
वह आदमी बड़ा परेशान हुआ। उसने कहा कि जब लोग आ जाते हैं तब मैं पूछता हूं तो आप कहते हैं, जब कोई न रहे। और जब कोई नहीं रहता है और मैं पूछता हूं तो आप कहते हैं, चुप! यह हल कैसे होगा?
फिर सांझ हो गई, सूरज ढल गया, सब लोग चले गए। झोपड़ा खाली हो गया। उसने कहा कि अब तो बताएं! तो फकीर ने कहा, बाहर आ। बाहर गए, पूर्णिमा का चांद निकला था। फकीर ने कहा, देखता है ये पौधे? सामने ही छोटे—छोटे पौधे लगे थे।
उसने कहा, देखता हूं।
फकीर ने कहा, देखता है वे दूर खड़े वृक्ष आकाश को छूते?
उसने कहा, देखता हूं।
उस फकीर ने कहा, वे बड़े हैं और ये छोटे हैं। और झगड़ा कुछ भी नहीं। इनमें मैंने कभी विवाद नहीं सुना। इस छोटे पौधे ने कभी बड़े पौधे से नहीं पूछा कि तू बड़ा क्यों है? छोटा अपने छोटे होने में शांत है। बड़े ने कभी छोटे से नहीं पूछा कि तू छोटा क्यों है? बड़े की अपनी मुसीबतें हैं। जब तूफान आते हैं तब पता चलता है। छोटे की अपनी तकलीफें हैं। पर छोटा छोटा होने को राजी है, बड़ा बड़ा होने को राजी है। और उन दोनों के बीच मैंने कभी संवाद नहीं सुना। और मैंने दोनों को शांत पाया है। तू भी कृपा कर और मुझे छोड़। मैं जैसा हूं वैसा हूं। तू जैसा है वैसा है।
पर वह आदमी कैसे माने! हम भी कैसे मानें! मन करता है कुछ होने को। कपों करता है? हमने मान रखा है कि हम कुछ कर सकते हैं। नहीं, ईशावास्य कहता है, नहीं कर सकते। कर्ता नहीं बन सकते।
भाग्य की जो अदभुत कल्पना है, उसके पीछे यह रहस्य था। नियति की, डेस्टिनी की जो अदभुत धारणा है, उसके पीछे यह राज है। नियति और भाग्य का यह मतलब नहीं है कि आप कुछ न करें, बैठ जाएं। क्योंकि भाग्य तो कहता है, बैठ भी नहीं सकते तुम। वह बिठाए तो बैठ सकते हैं। भाग्य तो कहता है, कुछ न करें हम फिर, यह भी तुम नहीं कर सकते। वह न कराए तो नहीं करना आ जाएगा।
ध्यान रखें, भाग्यवादी जो लोग दिखाई पड़ते हैं उनमें एक भी भाग्यवादी नहीं है। वे कहते हैं, सब भाग्य कर रहा है, हम क्या करें। तो हम कुछ नहीं करते। हम कुछ नहीं करते, इतना भी खयाल शेष रह गया तो करने का भाव शेष है। पूर्ण नियति की धारणा यह है कि हम हैं ही नहीं। करने का उपाय नहीं है। वही है — परमात्मा ही है।
और जब हम कर न सकते हों, कर्ता न हो सकते हों, तो फिर ममत्व, मेरा क्या होगा? किसे हम कहें, मेरा है? बेटे को कहें, मेरा है? लगता है, क्योंकि मैंने जन्म दिया मालूम पड़ता है। ऐसा भ्रम होता है। हालांकि किसी ने कभी किसी बेटे को जन्म नहीं दिया। बेटे जन्मते हैं। आपसे रास्ता खोज लेते हैं।
कामवासना को आप जन्म नहीं देते। आपसे रास्ता बना लेती है। एक स्त्री को आप प्रेम करने लगते हैं। वह प्रेम आपसे नहीं आता, वह प्रेम आपसे रास्ता बना लेता है। वह दोनों की वासना, दोनों का प्रेम, दोनों के शरीर मिलने को आतुर हो जाते हैं। वह आतुरता आपकी नहीं है। वह आतुरता आपके रोएं—रोएं में छिपी है। वह दबी है कण—कण में, वह धक्के देती है। फिर एक बच्चे का जन्म हो जाता है। कोई मां बन जाती है, कोई बाप बन जाता है। जैसे हमने जन्म दिया हो! नियति हंसती है। नियति बिलकुल हंसती है। आपसे जन्म लिया गया है, आपने दिया नहीं। यू हैव बीन जस्ट ए पैसेज, एक यात्रा—पथ मात्र, जिससे नियति ने जन्म लिया है। आपने कुछ किया नहीं।
एक मकान आप बना लेते हैं, तो कहते हैं, मेरा है। लेकिन देखते हैं, चिड़िया भी घोंसला बना लेती हैं। इस जगत में छोटे से छोटा प्राणी भी रहने की जगह बनाता है। और ऐसी चिड़िया भी हैं जो कभी किसी से सीखती नहीं। कुछ ऐसी चिड़िया हैं, जिनको जन्म देने के बाद, जिनके अंडा देने के बाद मां तो उड़ जाती है। अंडा जब फूटता है, तो चिड़िया सीधी बाहर निकल आती है। उसे मां की शिक्षा नहीं मिल पाती, पिता का संरक्षण नहीं मिल पाता। कोई स्कूलिंग, कोई स्कूल में उसको भर्ती नहीं किया जाता। बड़े आश्चर्य की बात है, वह चिड़िया फिर वैसा ही घोंसला बनाती है जैसा उसकी मां ने बनाया था, और उसकी मां की मां ने बनाया था, और उसकी मां की मां ने बनाया था। और वह घोंसला साधारण नहीं होता, बहुत टेक्यीकल, बड़े तकनीक का, बड़ा आर्किटेक्चर का होता है। कि आदमी को भी बनाना पड़े तो सीखना पड़े, फिर भी पूरी कुशलता से बना ले तो कठिन है।
यह घोंसला कैसे बन जाता है? वैज्ञानिक कहते हैं, बिल्ट—इन प्रोग्राम। वे कहते हैं, चिड़िया के भीतर उसके रोएं—रोएं में बिल्ट—इन प्रोग्राम है। उसके जन्म के साथ ही उसकी हड्डी—मांस—मज्जा में उस घोंसला बनाने की पूरी की पूरी नियमावली छिपी है। वह बनाएगी ही। वह वही घास—पत्ते खोज लाएगी जो उसकी मां ने खोजे थे। किसी ने सिखाया नहीं है। मां उसे मिली नहीं है। कोई स्कूल में उसे भर्ती नहीं किया गया। वह वही पत्ते चुन लाएगी, वह वही घास के तिनके उठा लाएगी, फिर वही ढांचा, फिर वही घोंसला बन जाएगा।
आदमी भी बनाता है। सभी बनाते हैं। मेरे के कहने का कोई कारण नहीं है। मेरे के कहने का कोई भी कारण नहीं है।
किस चीज में हम कहें मेरा है? क्योंकि धन इकट्ठा कर लेते हैं? संग्रह सारे प्राणी करते हैं। अनेक—अनेक रूपों में करते हैं। और ऐसा नहीं है कि आदमी उनमें सर्वाधिक कुशल है। ऐसा भी नहीं है। आदमी से भी ज्यादा कुशल संग्रह करने वाले प्राणी हैं।
साइबेरिया में सफेद भालू होता है। छह महीने बर्फ पड़ती है। उस छह महीने में आदमी का बचना मुश्किल है, लेकिन भालू बच जाता है। उसके संग्रह करने का ढंग बहुत अदभुत है। उसका परिग्रह करने का ढंग बहुत कुशल है। वह चीजें इकट्ठी नहीं करता, वह छह महीने चर्बी इकट्ठी करता है शरीर के भीतर। चर्बी बढ़ाए चला जाता है। चर्बी इतनी इकट्ठी कर लेता है वह कि छह महीने जब बर्फ पड़ती है और बर्फ में दबकर नीचे दब जाता है, तो अपनी ही चर्बी खाता रहता है छह महीने तक बर्फ में दबा हुआ।
आपकी तिजोरी इतने भीतर नहीं है। चोर उठा ले जा सकते हैं। और तिजोरी बहुत सी चीजों पर निर्भर है, तभी काम कर पाएगी। धन पास में हो, बाजार खो जाए, तो काम नहीं कर पाएगा। वह सफेद भालू ज्यादा कुशल है। वह सीधा भोजन ही इकट्ठा करता है। और चूंकि बर्फ में इतना दब जाएगा कि चबाने, श्वास लेने, मांस—मज्जा बनाने की सुविधा नहीं रह जाएगी, इसलिए तैयार भोजन भीतर चर्बी की तरह इकट्ठा करता है, उसको चुपचाप पचा लेगा।
सारा जगत संग्रह करता है। तो संग्रह करने में कुछ यह मत सोच लें कि हम ही करते हैं। कोई मां अगर अपने बेटे को दूध पिलाती है, तो किसी बहुत गौरव से न भर जाए। दूध भर आता है, बेटे के आने के साथ ही शरीर दूध बनाना शुरू कर देता है। बेटा दूध पीने से इनकार कर दे तब मां को तकलीफ हो, तब उसे पता चले कि आब्लिगेटरी..। बच्चा दूध पी लेता है, बड़ी कृपा है। न पीए तो बेचैनी पैदा हो जाएगी। मां ने कभी जानकर दूध नहीं बनाया। जैसे बच्चा अनजाना पैदा होता है, ऐसा ही बच्चे के साथ दूध पैदा हो जाता है। बच्चा बड़ा हुआ कि दूध खोना शुरू हो जाता है। जैसे ही बच्चे की दूध की जरूरत पूरी हो गई, दूध विदा हो जाता है। यह सब निसर्गगत है। संग्रह की वृत्ति निसर्गगत है।
इसलिए ईशावास्य का यह सूत्र कहता है सब परमात्मा का है। निसर्ग का कहें, नियति का कहें, प्रकृति का कहें, लेकिन ईशावास्य कहता है, परमात्मा का है। क्योंकि निसर्ग, नियति और प्रकृति मेकेनिकल शब्द हैं, यांत्रिक शब्द हैं। यह इतना विराट, यह इतना रहस्यपूर्ण, यांत्रिक नहीं हो सकता — जीवंत है, चेतन है।
विज्ञान भी यही कहता है कि सब प्रकृति कर रही है, सब प्रकृति कर रही है। लेकिन जब हम कहते हैं विज्ञान की भाषा में कि सब प्रकृति कर रही है, तो हम दीन तो हो जाते हैं, हीन तो हो जाते हैं, यंत्रवत हो जाते हैं। लेकिन जब ईशावास्य कहता है, सब परमात्मा कर रहा है, तो एक तरफ हमारा अहंकार भी छिन जाता है, लेकिन दूसरी तरफ हम परमात्मा हो जाते हैं। वही महत्वपूर्ण है। वही समझ लेने जैसा है।
इसलिए विज्ञान जितना विकसित होता जाता है.. विज्ञान का भी जोर यही है कि आदमी यह भ्रम छोड़ दे कि मैं कर रहा हूं सब हो रहा है। लेकिन उसका जोर इस बात पर है कि सब मेकेनिकल हो रहा है, सब यंत्रवत हो रहा है। मशीन की तरह सब होता है। सारा जगत यंत्रवत चल रहा 'है। अगर सब यंत्रवत हो रहा है, तो आदमी दीन तो हो जाता है, उसका अहंकार तो खंडित हो जाता है, लेकिन किसी दूसरे मार्ग से उसकी गरिमा वापस नहीं लौटती। उसका गौरव, जो अहंकार से मिलता था बड़ा क्षुद्र था। छोटे से मिट्टी के तेल में जलते हुए दीए की तरह था। वह तो बुझ जाता है — गहन अंधकार छा जाता है — सूरज कहीं से वापस नहीं लौटता।
इसलिए विज्ञान की बजाय ईशावास्य की घोषणा ज्यादा कीमती है। इधर आपकी टिगिटमाती छोटी सी ज्योति को बुझाता है ईशावास्य कि बुझो तुम, तुम नहीं हो। तुम नाहक परेशान हो। दूसरी तरफ महासूर्य को जन्म दे जाता है। परमात्मा है। एक तरफ कहता है, तुम नहीं हो और दूसरी तरफ से तत्काल तुम्हें परमात्मा की स्थिति में स्थापित कर जाता है। एक तरफ से तुम्हें छीन लेता है, मिटा देता है और दूसरी तरफ से तुम्हें पूर्ण को दे जाता है। इसलिए अहंकार के मिट्टी के दीए और मिट्टी के तेल में जलती हुई धुंधियारी ज्योति को तो बुझा देता है — धुआ भी था, बास भी थी — और सूरज के आलोक को दे जाता है। मिटाता है मैं को, लेकिन परम मैं को प्रतिष्ठा दे जाता है।
धर्म और विज्ञान के मूल आयाम में यही भेद है। विज्ञान भी उन्हीं बातों को कह रहा है जिन्हें धर्म कहता है। उसकी एस्फेसिस मेकेनिकल है, उसका जोर यंत्र पर है। धर्म भी वही कह रहा है, लेकिन उसका जोर चेतना पर, प्रज्ञा पर, जीवंत पर है। और वह जोर कीमती है। अगर पश्चिम का विज्ञान सफल हो गया, तो अंततः आदमी मशीन हो जाएगा। अगर पूरब का धर्म जीत गया, तो अंतत: मनुष्य परमात्मा हो जाता है। दोनों ही अहंकार छीन लेते हैं। लेकिन एक से अहंकार छिनता है तो आदमी नीचे गिरता है।
आज से डेढ़ सौ, दो सौ वर्ष पहले जब विज्ञान ने पहली बार यह बात करनी शुरू की कि आदमी परवश है। जब डार्विन ने कहा कि तुम यह भूल जाओ कि तुम्हें परमात्मा ने निर्मित किया है, तुम पशुओं से आए हो। तब आदमी का पहला अहंकार टूटा। बड़े जोर से टूटा। सोचता था, ईश्वर—पुत्र हैं। पता चला, नहीं। पिता ईश्वर नहीं मालूम पड़ता। वानर जाति का एक चिंपांजी, बबून, कोई बंदर पिता मालूम पड़ता है। निश्चित, धक्के की बात थी। कहां परमात्मा था सिंहासन पर, जिसके हम बेटे थे, और कहां बंदर के बेटे होना पड़ा। बहुत दुखद था। बहुत पीड़ादाई था।
तो पहले विज्ञान ने कहा कि आदमी आदमी है, यह भूले; एक प्रकार का पशु है। सारी अहंकार की, सारी ईगो की व्यवस्था टूट गई। लेकिन यात्रा जब भी किसी तरफ शुरू हो जाए तो जल्दी रुकती नहीं, अंत तक पहुंचती है। जानवर पर रुकना मुश्किल था। पहले विज्ञान ने कहा कि आदमी एक तरह का पशु है। फिर वितान ने पशुओं की खोजबीन की और पाया कि पशु एक तरह का यंत्र है। पाया कि पशु एक तरह का यंत्र है।
अब आप देखते हैं, कछआ सरक रहा है। आप देखते हैं, धूप घनी हो गई, तो कछुआ छाया में चला गया। आप कहेंगे, कछुआ सोचकर गया। वितान कहता है, नहीं। विज्ञान ने मेकेनिकल कछुए बना लिए, यंत्र के कछुए बना लिए। उनको छोड़ दें। जब तक धूप कम तेज रहती है, तब तक वे धूप में रहे आते हैं। जैसे ही धूप घनी हुई कि वे सरके। वे झाड़ी में चले गए। यंत्र है! क्या हो गया उसको? विज्ञान कहता है कि थमोंस्टेट है। इतने से ज्यादा गर्मी जैसे ही भीतर पहुंची कि बस छाया की तरफ सरकना शुरू हो जाता है। इसमें कुछ चेतना नहीं है। यंत्र भी यह कर लेगा। यह आटोमेटिक यंत्र भी कर लेगा।
आप देखते हैं, एक पतिंगा उड़ता है दीए की ज्योति की तरफ। कवि कहते हैं कि दीवाना है, ज्योति का प्रेमी है, इसलिए जान गंवा देता है। वैज्ञानिक नहीं कहते हैं। वे कहते हैं, दीवाना वगैरह कुछ भी नहीं है, मेकेनिकल है। जैसे ही उस पतिंगे को ज्योति दिखाई पड़ती है, उसका पंख ज्योति की तरफ झुकना शुरू हो जाता है। उन्होंने यांत्रिक पतिंगे बना लिए हैं। उनको छोड़ दें, अंधेरे में घूमते रहेंगे। फिर दीया जलाएं, फौरन दीए की तरफ चले जाएंगे।
पीछे विज्ञान ने सिद्ध किया कि जानवर यंत्र है। अंतिम नतीजा बड़ा अजीब हुआ। आदमी था जानवर, फिर जानवर हुआ यंत्र। अंतत: निष्कर्ष हुआ कि आदमी यंत्र है। स्वभावत: इसमें सच्चाई है। इसमें थोड़ी सच्चाई है। अहंकार तोड़ते हैं, यह तो ठीक है।
लेकिन अहंकार तोड़कर आदमी नीचे गिरता है, यंत्रवत हो जाता है। परिणाम खतरनाक होंगे। परिणाम खतरनाक हुए हैं।
स्टैलिन और हिटलर करोड़ों लोगों की हत्या कर सके। क्योंकि अगर आदमी यंत्र है, तो हत्या से कोई फर्क नहीं पड़ता। देखें, मजे की बात। कृष्‍ण भी गीता में कह सके कि आदमी की आत्मा अमर है, मरती नहीं, हत्या से कोई फर्क नहीं पड़ता। और स्टैलिन भी कह सकता है कि आदमी यंत्र है, आत्मा है ही नहीं, हत्या से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कृष्ण जब कहते हैं कि आत्मा अमर है अर्जुन, तू कितना ही मार, मरती नहीं। तब नतीजा तो वही दिखाई पड़ता है कि अर्जुन भी मारने को उत्सुक हो जाता है। लेकिन परिणाम बड़े भिन्न हैं। आत्मा की अमरता की घोषणा, मृत्यु बेमानी हो जाती है। यहां स्टैलिन भी राजी हो जाता है मारने को लाखों—करोड़ों लोगों को। लेकिन इसलिए कि आत्मा तो है ही नहीं, मारने में हर्ज क्या है?
एक मशीन को मारने में कोई भी हर्ज तो नहीं है। अगर आप एक मशीन को डंडा मार दें, तो कोई अहिंसक भी तो आपसे नहीं कह सकेगा कि हिंसा की। एक मशीन को तोड़कर दो टुकड़े कर दें, तो अदालत में मुकदमा तो नहीं चलाया जा सकता। परिणाम एक से मालूम पड़ते हैं। नहीं, लेकिन एक से नहीं हैं, क्योंकि परिणाम की आभा बहुत भिन्न है। अर्थ बहुत भिन्न हैं। सारी बात ही बदल जाती है।
विज्ञान भी कहता है कि प्रकृति कर रही है सब, मनुष्य नहीं। धर्म भी कहता है, लेकिन धर्म कहता है, परमात्मा कर रहा है, मनुष्य नहीं। विज्ञान अहंकार को तोड़कर मनुष्य को नीचे गिरा देता है। धर्म अहंकार को तोड़कर मनुष्य को ऊपर की यात्रा पर भेज देता है।
ईशावास्य का यह सूत्र कहता है? न मानना किसी चीज को अपना, तो मैं मिट जाएगा। मानना परमात्मा का। किसी के धन की वांछा न करना। क्यों? यह भी बहुत मजे की बात है। जब मेरा कुछ भी नहीं है, तो तेरा भी कुछ नहीं हो सकता।
ध्यान रखें, इस सूत्र के बड़े गलत अर्थ किए गए हैं। किसी के धन की वांछा मत करना। इतने गलत अर्थ किए गए हैं कि कभी—कभी हैरानी होती है कि जिन लोगों ने उस तरह के अर्थ किए हैं.. समस्त, अधिकतर व्याख्याकारों ने इसका अर्थ किया है कि दूसरे के धन की वांछा पाप है, दूसरे के धन की वांछा मत करना। लेकिन पागल मालूम पड़ते हैं। क्योंकि पहले सूत्र कहता है कि धन किसी का है ही नहीं, परमात्मा का है। तो जब पहले ही यह सूत्र कहता है कि धन मेरा नहीं, तो तेरा कैसे हो सकता है?
नहीं, दूसरे के धन की वांछा इसलिए मत करना कि जो धन मेरा नहीं है वह तेरा भी नहीं है। वांछा का उपाय तभी है जब वह तेरा और मेरा हो सके। नहीं तो वांछा का उपाय नहीं है। लेकिन नीतिशास्त्रियों ने इसका जो उपयोग किया है, इस सूत्र का, वह यह किया है कि दूसरे के धन को सोचना भी पाप है! लेकिन जब मेरा ही धन नहीं है, तो दूसरे का कैसे हो सकता है?
इस सूत्र का अर्थ नीतिवादी नहीं निकाल पाएगा। यह सूत्र गहन है, गंभीर है। नीतिवादी तो इसी फिक्र में होता है किसी के धन की चोरी मत कर लेना, किसी के धन को अपना मत मान लेना। लेकिन किसी का है, इस पर उसका जोर है। और ध्यान रहे, जो आदमी कहता है कि वह चीज आपकी है, वह आदमी, मेरी हैं चीजें, इस भावना से कभी मुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि ये दोनों संयुक्त भावनाएं हैं। जब तक मकान मेरा है, तभी तक मकान तेरा है। लेकिन जिस दिन मेरा नहीं रहा मकान, तो आपका कैसे रह जाएगा?
दूसरे के धन की वांछा मत करना, इसका यह अर्थ नहीं है कि दूसरे का धन है और उसकी वांछा करना पाप है। इसका यह अर्थ है कि धन किसी का भी नहीं है, इसलिए वांछा पाप है। धन किसी का भी नहीं है, परमात्मा का है। उसे मेरा भी मत जानना और तेरा भी मत जानना। उसे मेरा बनाकर मालिक भी मत बन जाना और दूसरे की मालकियत समझकर उसे छीनने की कोशिश में भी मत पड़ जाना। न उसे हम छीन पाएंगे, न हम उसे बचा पाएंगे। वह परमात्मा का है, जिससे छीनने का कोई उपाय नहीं है, जिससे बचाने का कोई उपाय नहीं है।
कैसा मजेदार है! एक जमीन के टुकड़े पर मैं तख्ती लगा देता हूं मेरी है। मैं नहीं था तब भी जमीन का टुकड़ा था। जमीन का टुकड़ा बहुत हंसता होगा। क्योंकि मुझसे पहले भी बहुत लोग तख्ती लगा चुके उस टुकड़े पर कि मेरी है। और उस जमीन के टुकड़े ने उन सबको दफना दिया। उसी टुकड़े में दफना दिया। जहा आप बैठे हैं, एक—एक आदमी जहां बैठा है, वहां कम से कम दस—दस आदमियों की कब बन चुकी है। जमीन पर एक इंच जगह नहीं है जहां दस आदमियों की कब न बन चुकी हो। क्योंकि इतने आदमी हो चुके हैं कि एक—एक इंच जमीन पर दस—दस आदमी मर चुके हैं। वह जमीन को पूरी तरह पता है कि और भी दावेदार पहले तख्ती लगाकर जा चुके हैं। मगर नहीं, आदमी है कि फिर तख्ती लगाएगा। और यह भी नहीं देखता कि पुरानी तख्ती पर वार्निश करके अपना नाम लिख रहा है। वह यह भी नहीं देखता कि कल किसी को फिर वार्निश करने की तकलीफ उठानी पड़ जाएगी। यह नाहक मेहनत हो रही है। वह जमीन भी हंसती होगी।
नहीं, दूसरे के धन की वांछा मत करना, क्योंकि धन किसी का भी नहीं है। ध्यान रहे, मेरा जोर बहुत अलग है। मैं यह नहीं कहता हूं कि दूसरे के धन को अपना बना लेना पाप है। दूसरे के धन को दूसरा या अपना मानना पाप है। किसी का भी मानना पाप है। परमात्मा के अतिरिक्त मालकियत किसी की भी है तो पाप है।
अगर इसे समझेंगे, तो ईशावास्य का जो गहरा आयाम है, वह खयाल में आएगा। नहीं तो, नहीं तो इतना ही मतलब होता है, इन सूत्रों से यही मतलब निकल आता है कि हरेक अपनी—अपनी संपत्ति पर कब्जा रखे और दूसरे से सुरक्षा के लिए शिक्षा देता रहे चारों तरफ कि दूसरे की धन की वांछा मत करना।
इसलिए अगर मार्क्स जैसे लोगों को यह लगा कि यह सब धर्मों ने धनपतियों को सुरक्षा दी है, तो गलत नहीं लगा। क्योंकि ऐसे सूत्रों की जो व्याख्याएं की गई हैं, वे व्याख्याएं गलत हैं। इससे ऐसा लगता है कि जो जिसका है वह उसका है, तुम मत छीनने की कोशिश करना। इसका मतलब साफ हुआ, इसका मतलब साफ हुआ कि यह पुलिस को ही सहारा देने वाला है। व्यवस्था को, स्थिति—स्थापकता को, मालकियत को सहारा देने वाला सूत्र है।
लेकिन यह सूत्र हो नहीं सकता। क्योंकि यह सूत्र पहले ही घोषणा करता है, ईशावास्य की, सब कुछ परमात्मा के होने की। परमात्मा ही मालिक है, तो दूसरा फिर और कोन है? परमानात्मा के अलावा कोई दूसरा परमात्मा है? कोई दूसरा परमात्मा भी नहीं। न मैं मालिक हूं —न— तू मालिक है, मालकियत भ्रम है। मालिक तो सिर्फ वही है जिसने कभी आकर घोषणा नहीं की कि मे मालिक हूं। क्योंकि वह घोषणा किसके सामने करे?  वह किसको कहे कि जमींन मेरी है,  कहने के लिए कम से कम एक दूसरे की जरूरत पड़ती है। जब आप तख्ती लगाते है जमीन पर कि मैरी है, तो ध्यान रखें, किसी के लिए लगाते हैं — कोई पढ़े, कोई जाने कि मेरी हैं। जंगल मैं नहीं लगाते हैं। अगर बिलकुल अकेले रह जाएं जमीन पर, तो मैं नहीं मानता हु कि ऐसे आप पागल होंगे कि तख्तियां लगाते फिरेंगे कि मेरी है। अगर आप अकेले जमीन पर बचे तो जमीन आपकी है। कहने को भी उपाय नहीं।
परमात्मा घोषणा नहीं करता, लेकिन वही मालिक है। ध्यान रहे, ईशावास्य के इस वचन' का —यह भी अर्थ है कि जो भा घोषणाएं करते हैं, वे मालिक नहीं हो सकते। मालिक को घोषणा करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। मालिक अघोषित मालिक है। घोषणा सिर्फ नौकर करते हैं। जितने जोर से कोई घोषणा करता है, समझना कि उतना ही शक है। कोई जोर सै कहे कि नहीं, मेरी हैं, तब आप पक्का समझ लेना कि इसकी नहीं हो सकती। घोषणा क्यों इतने जोर से की जा रही है?
घोषणा हम सदा ही जो नहीं है हमारा उसे सिद्ध करने के लिए करते हैं। परमात्मा घोषणा नहीं करता। किसके लिए घोषणा करे? क्यों घोषणा करे? व्यर्थ होगी घोषणा। घोषणा की नहीं है उसकी। नहीं उसका ही है सब, जिसने कभी नहीं कहा। जिन—जिनने कहां है, उन —उन क़ा बिलकुल नहीं है।
दूसरे के धन की वांछा मत करना, क्योंकि धन किसी का भी नहीं है, परमात्मा का है। न— अपना मानना उसे, न दूसरे का मानना उसे। उसे जानना प्रभु का। और दूसरे भी उतने ही प्रभु के है जितने हम प्रभु के हैं। इसलिए छीन—झपट बेकार है। इसलिए छीन—झपट बेमानी हें, अर्थहीन है, असंगत हैं। उसमे कोई युक्ति नहीं है। व्यर्थ की हम मेहनत कर रहे हैं। ऐसा श्रम उठा रहे हैं जो पानी में खींची गई लकीरों जैसा खो जाएगा।
और भी एक बात तेन त्यक्तेन भुज्जीथा: कहा कि जो छोड़ते हैं, वे ही भाग पाते हैं।
नहीं, ऐसा हमारा जानना नहीं है। हम तो जानते हैं कि जो पकड़ते हैं, वे ही भोग पाते हैं। यह ऋषि उलटी बात कहता है। कहता है, जो छोड़ते हैं — तेन त्यक्तेन — वे ही भोगतै हैं। बड़ी उलटी बात है। जो छोड़ देते हैं, वे ही भोग पाते हैं। जो नहीं मालिक बनते, वे ही मालिक बन जाते हैं। जिनकी कोई पकड़ नहीं, उनके हाथ में सब आ जाता है।
कुछ—कुछ ऐसा है जैसे कोई हवा को मुट्ठी में पकड़े। हवा को मुट्ठी में पकड़िए तब खयाल आएगा — तेन त्यक्तेन भुज्जींथा: पकड़िए मुट्ठी में जोर से, बाधिए मुट्ठी को — और हवा बाहर निकली। बांधते चले जाइए, आखिर में मुट्ठी ही रह जाएगी, हवा उसमें नहीं बचेगी। खोल दें मुट्ठी को, मत बांधें। और हवा बड़ी प्रगाढ़ होकर बहती है। खुली मुट्ठी में हवा होती है, बंद मुट्ठी में हवा खो जाती है। जिसने जितने जोर से बांधा, उतनी ही खाली हो जाती है। जिसने पूरी खोल दी, कभी खाली नहीं होती, सदा भरी होती है। और प्रतिपल ताजी हवाएं, प्रतिपल ताजी हवाएं भरती चली जाती हैं। कभी देखा, खुली मुट्ठी कभी खाली नहीं होती। बंधी मुट्ठी सदा खाली हो जाती है। कुछ थोड़ा—बहुत बच भी जाए तो गंदा और बासा और पुराना और जरा—जीर्ण हो जाता है। सड़ जाता है।
वे ही भोग पाते हैं, जो त्याग पाते हैं!
इस जगत में, इस जीवन में छोड़ने के लिए जो जितना राजी है, उतना ही उसे मिलता है। पैराडाक्सिकल है। लेकिन जीवन के सभी नियम पैराडाक्सिकल हैं। जीवन के सभी नियम बड़े विरोधाभासी हैं। विरोधी नहीं हैं, विरोधाभासी हैं। दिखाई पड़ते हैं कि विपरीत हैं। यहां जिस आदमी ने चाहा कि सम्मान मिले, उसे अपमान सुनिश्चित है। जिस आदमी ने चाहा कि मैं धनी हो जाऊं, जितना धन मिलता जाता है, वह आदमी भीतर उतना ही निर्धन होता चला जाता है। जिस आदमी ने सोचा कि मैं कभी न मरूं, वह चौबीस घंटे मौत में घिरा रहता है। मौत का भय पकड़ रहता है। जिस आदमी ने कहा कि हम अभी मरने को राजी हैं, उसके दरवाजे पर मौत कभी नहीं आती। जो मरने को राजी हुआ, उसे अमृत का पता चल जाता है। और जो मोत से भयभीत हुआ, वह चौबीस घंटे मरता है। वह मरता ही है, जीने का उसे पता ही नहीं चलता। जिसने भी कहा कि मैं मालिक बनूंगा, वह गुलाम बन जाता है। और जिसने कहा कि हम गुलाम होने को भी राजी हैं, उसकी मालकियत का कोई हिसाब नहीं।
मगर ये उलटी बातें हैं। और इसलिए बड़ी कठिन हो जाती हैं। और इनके अर्थ जब हम निकालते हैं, तो हम आमतोर से जो अर्थ निकाल लेते हैं — वह इस विरोधाभास को बचाने के लिए जो हम अर्थ निकालते हैं — वे गलत होते हैं। इसका भी वैसा ही अर्थ लोगों ने निकाला है। लोगों ने निकाला — तेन त्यक्तेन भुज्जीथा: — तो निकाला कि दान करो तो स्वर्ग में मिलेगा। गंगा के तट पर एक पैसा दो तो एक करोड़ गुना मोक्ष में मिलने वाला है!
असल में महावाक्यों की जितनी दुर्दशा होती है जगत में, उतनी और किसी चीज की नहीं होती। और ऋषियों के साथ जितना अन्याय होता है, उतना किसी और के साथ नहीं होता। क्योंकि उन्हें समझना कठिन हो जाता है। हम उनसे जो अर्थ निकालते हैं, वे अर्थ हमारे होते हैं। हमने सोचा कि यह बात बिलकुल ठीक है। कुछ दान करोगे तो परलोक में पाओगे। लेकिन पाने के लिए करना दान। दान करना पाने के लिए।
और ध्यान रखना, सूत्र कहता है कि जो छोड़ता है, उसे मिलता है; लेकिन जो मिलने के लिए छोड़ता है, उसको मिलता है, ऐसा नहीं कहता है। जो मिलने के लिए ही छोड़ता है, वह तो छोड़ता ही नहीं। वह तो सिर्फ मिलने का इंतजार कर रहा है। जो आदमी कहता है कि मैं दान कर रहा हूं यहां, ताकि मुझे स्वर्ग में मिल जाए, वह छोड़ ही नहीं रहा। वह सिर्फ मुट्ठी आगे तक कस रहा है। अगर ठीक से समझें, तो वह इस लोक में ही कस नहीं रहा है मुट्ठी, परलोक में भी मुट्ठी कस रहा है। वह कह रहा है कि यहां तो ठीक, वहां भी!
वहां भी हम छोड़ेंगे नहीं। वहां भी चाहिए। और अगर वहां मिलने का कोई पक्का भरोसा होता हो, तो हम यहां कुछ इनवेस्टमेंट, कुछ इनवेस्टमेंट कर सकते हैं। हम कुछ लगा सकते हैं पूंजी यहां, अगर परलोक में कुछ मिलने का पक्का हो।
नहीं, वह समझा ही नहीं। यह सूत्र यह नहीं कहता। यह सूत्र तो यह कहता है, जो छोड़ता है, उसे मिलता है। यह यह नहीं कहता कि तुम इसलिए छोड़ना ताकि तुम्हें मिले। क्योंकि मिलने की जिसकी दृष्टि है, वह तो छोड़ ही नहीं सकता। वह तो सिर्फ इनवेस्ट करता है, वह छोड़ता कभी नहीं। वह तो सिर्फ पूंजी नियोजित करता है ताकि और मिल जाए।
एक आदमी एक लाख रुपया कारखाने में लगाता है, तो दान कर रहा है? नहीं। वह डेढ़ लाख मिल सकेगा इसलिए लगा रहा है। फिर वह डेढ़ लाख भी लगा देता है, तो दान कर रहा है? वह तीन लाख मिल सके इसलिए लगा रहा है। वह लगाए चला जाता है, वह लगाए चला जाता है, इसलिए कि मुट्ठी को और कसना है। और पकड़ लेना है। जो आदमी भी दान करता है पाने के लिए, उसने दान के राज को नहीं समझा। वह दान का खयाल ही उसको पता नहीं चला कि क्या है।
यह सूत्र यह कहता है, इतना ही कहता है, सीधी—सीधी बात कि जो छोड़ता है वह भोगता है। यह यह नहीं कहता कि तुम्हें भोगना हो तो तुम छोड़ना। यह यह कहता है कि अगर तुम छोड़ सके, तो तुम भोग सकोगे। लेकिन तुम भोगने का खयाल अगर रखे, तो तुम छोड़ ही नहीं सकोगे।
अदभुत है सूत्र। पहले कहा, सब परमात्मा का है। उसमें ही छोड़ना आ गया। जिसने जाना, सब परमात्मा का है, फिर पकड़ने को क्या रहा? पकड़ने को कुछ भी न बचा। छूट गया। और जिसने जाना कि सब परमात्मा का है और जिसका सब छूट गया और जिसका मैं गिर गया, वह परमात्मा हो गया। और जो परमात्मा हो गया, वह भोगने लगा, वह रसलीन होने लगा, वह आनंद में डूबने लगा। उसको पल—पल रस का बोध होने लगा। उसके प्राण का रोआ—रोआ नाचने लगा। जो परमात्मा हो गया, उसको भोगने को क्या बचा? सब भोगने लगा वह। आकाश उसका भोग्य हो गया। फूल खिले तो उसने भोगे। सूरज निकला तो उसने भोगा। रात तारे आए तो उसने भोगे। कोई मुस्कुराया तो उसने भोगा। सब तरफ उसके लिए भोग फैल गया। कुछ नहीं है उसका अब, लेकिन चारों तरफ भोग का विस्तार है। वह चारों तरफ से रस को पीने लगा।
धर्म भोग है। और जब मैं ऐसा कहता हूं धर्म भोग है, तो अनेकों को बड़ी घबराहट होती है। क्योंकि उनको खयाल है कि धर्म त्याग है। ध्यान रहे, जिसने सोचा कि धर्म त्याग है, वह उसी गलती में पड़ेगा — वह इनवेस्टमेंट की गलती में पड़ जाएगा। त्याग जीवन का तथ्य है। इस जीवन में पकड़ना नासमझी है। पकड़ रहा है, वह गलती कर रहा है — सिर्फ गलती कर रहा है। जो उसे मिल सकता था, वह खो रहा है, पकड़कर खो रहा है। जो उसका ही था, उसने घोषणा करके कि मेरा है, छोड़ दिया। लेकिन जिसने जाना कि सब परमात्मा का है, सब छूट गया। फिर त्याग करने को भी नहीं बचता कुछ। ध्यान रखना त्याग करने को भी उसी के लिए बचता है, जो कहता है, मेरा है।
एक आदमी कहता है कि मैं यह त्याग कर रहा हूं तो उसका मतलब हुआ कि वह मानता था कि मेरा है। सच में जो कहता है, मैं त्याग कर रहा हूं उससे त्याग नहीं हो सकता है। क्योंकि उसे मेरे का खयाल है। त्याग तो उसी से हो सकता है जो कहता है, मेरा कुछ है नहीं, मैं त्याग भी क्या करूं। त्याग करने के लिए पहले मेरा होना चाहिए। अगर मैं कुछ कह दूं कि यह मैंने आपको त्याग किया — कह दूं कि यह आकाश मैंने आपको दिया, तो आप हंसेगे। आप कहेंगे, कम से कम पहले यह पक्का तो हो जाए कि आकाश आपका है! आप दिए दे रहे हैं! मैं कह दूं कि दे दिया मंगल ग्रह आपको, दान कर दिया। तो पहले मेरा होना चाहिए। त्याग का भ्रम उसी को होता है जिसे ममत्व का खयाल है।
नहीं, त्याग छोड़ने से नहीं होता। त्याग इस सत्य के अनुभव से होता है कि सब परमात्‍मा का है। त्याग हो गया। अब करना नहीं पड़ेगा। घटित हो गया। इस तथ्य की प्रतीति है कि सब परमात्मा का है, अब त्याग को कुछ बचा नहीं। अब आप ही नहीं बचे जो त्याग करे। अब कोई दावा नहीं बचा जिसका त्याग किया जा सके। और जो ऐसे त्याग की घड़ी में आ जाता है, सारा भोग उसका है। सारा भोग उसका है। जीवन के सब रस, जीवन का सब सौंदर्य, जीवन का सब आनंद, जीवन का सब अमृत उसका है।
इसलिए यह सूत्र कहता है, तेन त्यक्तेन भुज्जीथा:, जिसने छोड़ा उसने पाया। जिसने खोल दी मुट्ठी, भर गई। जो बन गया झील की तरह, वह भर गया। जो हो गया खाली, वह अनंत संपदा का मालिक है।
यह एक सूत्र आज सुबह के लिए। फिर शेष बात रात करेंगे।
अब सुबह के ध्यान के संबंध में दो—तीन बातें समझ लें। फिर हम ध्यान के लिए... थोड़ी सी बात, क्योंकि करने का है। और जो मैंने समझाया वह सब ध्यान है। वह सब ध्यान है। मुट्ठी खोलनी है थोड़ी सी और हवा से भर जाएंगे। थोड़ा सा जानना है कि सब परमात्मा का है और नृत्य भीतर जग जाएगा।
चालीस मिनट का ध्यान होगा। आंख और कान तो हमें बंद कर लेने हैं पूरी तरह जरा भी रोशनी न रह जाए। और सबको थोड़े दूर—दूर खड़े हो जाना है। जो बीमार हों, वृद्ध हों, बैठना चाहते हों, वे फिर बहुत पीछे जाकर बैठ जाएं, अन्यथा कोई उनके ऊपर जाएगा। और खड़े रहें पहले तो, जब गिरने की हालत आ जाए तब गिरे, तो मजा और है पहले खड़े रहें।
तो दूर हट जाएं। ध्यान रखें, चारों तरफ जगह बना लें, क्योंकि बहुत जोर से कुंडलिनी का जागरण होगा। बहुत लोग बहुत चीखेंगे, चिल्लाएंगे, कूदेंगे, नाचेंगे, इसलिए काफी जगह पर फैल जाएं।
फैल जाएं! इस पूरी जगह का उपयोग कर लें! ही, बातचीत न करें। बातचीत बिलकुल करें। बातचीत की कोई जरूरत ही नहीं है। आप चुपचाप फैल जाएं। फिर मैं चारों सूत्र आपसे कह दूं। फैल जाएं। अभी पट्टी न बांधें। पहले मेरी पूरी बात सुन लें, फिर बांध लें।
पहले दस मिनट तो गहरी श्वास लेनी है पूरी शक्ति लगाकर। ताकि सारी शक्ति कुंडलिनी की भीतर जग जाए। साथ में ही शरीर नाचने—डोलने लगे, कूदने लगे, तो कूदने देना

नाचने देना है, डोलने देना है। चिंता नहीं करनी है। दूसरे दस मिनट में शरीर को बिलकुल छोड़ देना है आनंद—मग्न भाव से। कूदेगा, नाचेगा, हंसेगा, चिल्लाएगा, गाएगा, जो भी करना चाहे करेगा, उसे पूरी शक्ति से करना है। तीसरे दस मिनट में नाचते रहते, कूदते रहते पूछना है — मैं कोन हूं? यह भी बड़े आनंद से मंत्र की तरह पूछना है — मैं कोन हूं? मैं कोन हूं? यह पूछते चले जाना है। चौथे दस मिनट में कोई खड़ा रहेगा, कोई गिर जाएगा, कोई लेट जाएगा। दस मिनट मौन प्रतीक्षा करनी है कि परमात्मा हममें उतरे। हमने मुट्ठी खुली छोड़ दी, अब वह हममें उतर आए। हमने छोड़ा, अब जरा भोग का क्षण, रस हममें उतर आए। उसकी प्रतीक्षा करनी है।
सबसे पहले जैसे ही हम प्रयोग शुरू करेंगे, संकल्प कर लेना है। हाथ जोड़कर परमात्मा के सामने संकल्प कर लेना है। पहले संकल्प कर लें, फिर आप अपनी पट्टियां बांधेंगे। हाथ जोड़ लें, आंख बंद कर लें। परमात्मा को साक्षी रखकर हृदय में तीन बार संकल्प कर लें — मैं प्रभु को साक्षी रखकर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा। मैं प्रभु को साक्षी रखकर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा। मैं प्रभु को साक्षी रखकर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा।
अब आंख पर पट्टियां बांध लें और कान में कपास डाल दें। कान और आंख पूरी तरह बंद कर लें। दूर—दूर फैल जाएं, दूर—दूर फैल जाएं, ताकि किसी को बाधा न रहे। पट्टियां बांध लें। और शुरू करें!
 आज इतना ही।

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