दिनांक
12 नवंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्न
सार:
पहला प्रश्न :
आपने हमें संन्यास दिया, लेकिन कोई मंत्र नहीं बताया। पुराने ढब के संन्यासी मिल जाते हैं तो वे
पूछते हैं, तुम्हारा गुरुमंत्र क्या है?
मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र
शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन
का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना
है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को
सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा।
निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं
चाहता कि तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र
बहुत हैं। तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत
है। बहुत तुमने सीखा। बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई
ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में है, किसी का मंत्र वेद में
है।
कोई ऐसा मानता, कोई वैसा मानता। मेरी सारी चेष्टा इतनी
ही है कि तुम्हारी सारी मान्यताओं से तुम्हारी मुक्ति हो जाए। तुम न हिंदू रहो,
न मुसलमान, न ईसाई। न वेद पर तुम्हारी पकड़ रहे,
न कुरान पर। तुम्हारे हाथ खाली हो जायें। तुम्हारे खाली हाथ में ही
परमात्मा बरसेगा। रिक्त, शून्य चित्त में ही आगमन होता परम
का; द्वार खुलते हैं।
तुम मंदिर हो। तुम खाली भर हो जाओ तो प्रभु आ जाए।
उसे जगह दो। थोड़ा स्थान बनाओ। अभी तुम्हारा घर बहुत भरा है—कूडे —कर्कट से, अंगड—खंगड से। तुम भरते ही चले जाते हो। परमात्मा आना भी चाहे तो तुम्हारे
भीतर अवकाश कहां? किरण उतरनी भी चाहे तो जगह कहां? तुम भरे हो। भरा होना ही तुम्हारा दुख है। खाली हो जाओ! यही महामंत्र है।
इसलिए मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया, क्योंकि मैं
तुम्हें किसी मंत्र से भरना नहीं चाहता। मन से ही मुक्त होना है। लेकिन अगर मंत्र
शब्द से तुम्हें बहुत प्रेम हो और बिना मंत्र के तुम्हें अड़चन होती हो, तो इसे ही तुम बता दिया करो कि मन से खाली हो जाने का सूत्र दिया है;
साक्षी होने का सूत्र दिया है।
कुछ रटने से थोड़े ही होगा कि तुम राम—राम, राम—राम दोहराते रहो तो कुछ हो जाएगा। कितने तो हैं दोहराने वाले! सदियों
से दोहरा रहे हैं। उनके दोहराने से कुछ भी नहीं हुआ। दोहराओगे कहां से? दोहराना तो मन के ही यंत्र में घटता है। चाहे जोर से दोहराओ, चाहे धीरे दोहराओ—दोहराता तो मन है। हर दोहराने में मन ही मजबूत होता है।
क्योंकि जिसका तुम प्रयोग करते हो वही शक्तिवान
हो
जाता है।
मैं तुम्हें कह रहा हूं कि साक्षी बनो। ये मन की जो
प्रक्रियाएं हैं, ये जो मन की तरंगें हैं, तुम इनके द्रष्टा बनो। तुम इन्हें बस देखो। तुम इसमें से कुछ भी चुनो मत।
कोई फिल्मी गीत गुनगुना रहा है, तो तुम कहते : अधार्मिक; और कोई भजन गा रहा है तो
तुम कहते हो : धार्मिक! दोनों मन में हैं—दोनों अधार्मिक। मन में होना अद्यर्म में
होना है। उस तीसरी बात को सोचो जरा। खड़े हो, मन चाहे फिल्मी
गीत गुनगुनाए और चाहे राम—कथा—तुम द्रष्टा हो। तुम सुनते हो, देखते हो, तुम तादात्म्य नहीं बनाते। तुम मन के साथ
जुड़ नहीं जाते। तुम्हारी दूरी, तुम्हारी असंगता कायम रहती है।
तुम देखते हो मन को ऐसे ही जैसे कोई राह के किनारे खड़े हुए चलते हुए लोगों को देखे:
साइकिलें, गाड़ियां, हाथी—घोड़े, कारें, ट्रक, बसें:। तुम राह
के किनारे खड़े देख रहे हो। तुम द्रष्टा हो।
अष्टावक्र का भी सारा सार एक शब्द में है—साक्षी।
मंत्र तो बोलते ही तुम कर्ता हो जाओगे। बड़ा सूक्ष्म
कर्तृत्व है, लेकिन है तो! मंत्र पढ़ोगे, प्रार्थना
करोगे, पूजा करोगे—कर्ता हो जाओगे। बात थोड़ी बारीक है। थोड़ा
प्रयोग करोगे तो ही स्वाद आना शुरू होगा।
जो चल रहा है, जो हो रहा है,
वही काफी है; अब और मंत्र जोड्ने से कुछ अर्थ
नहीं है। इसी में जागो। इसको ही देखने वाले हो जाओ। इससे संबंध तोड़ लो। थोड़ी दूरी,
थोड़ा अलगाव, थोड़ा फासला पैदा कर लो। इस फासले
में ही तुम देखोगे मन मरने लगा। जितना बड़ा फासला उतना ही मन का जीना मुश्किल हो
जाता है। जब तुम मन का प्रयोग नहीं करते तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब तुम मन का
सहयोग नहीं करते तब तुम्हारी शक्ति मन में नहीं डाली जाती। मन धीरे— धीरे सिकुड़ने
लगता है। यह तुम्हारी शक्ति से मन फूला है, फला है। तुम्हीं
इसे पीछे से सहारा दिये हो। एक हाथ से सहारा देते हो, दूसरे
हाथ से कहते हो: कैसे छुटकारा हो इस दुख से? इस नर्क से?
तुम सहारा देना बंद कर दो, इतना ही साक्षी का
अर्थ है।
मन को चलने दो अपने से, कितनी देर चलता है? जैसे कोई साइकिल चलाता है,
तो पैडल मारता तो साइकिल चलती है। साइकिल थोड़े ही चलती है, वह जो साइकिल पर बैठा है, वही चलता है। साइकिल को
सहारा देता जाता है, साइकिल भागी चली जाती है। तुम पैडल
मारना बंद कर दो, फिर देखें साइकिल कितनी देर चलती है! थोड़ी—बहुत
चल जाए, दस—पचास कदम, पुरानी दी गयी
ऊर्जा के आधार पर; लेकिन ज्यादा देर न चल पाएगी, रुक जाएगी। ऐसा ही मन है।
मंत्र का तो अर्थ हुआ पैडल मारे ही जाओगे। पहले भजन
या फिल्म का गीत गुनगुना रहे थे, अब तुमको किसी ने मंत्र
पकड़ा दिया—दोहराओ ओम, राम—उसे दोहराने लगे, दोहराना जारी रहा। पैडल तुम मारते ही चले जाते हो। प्रक्रिया में जुड़ जाना
मन की, मन को बल देना है।
तो अगर तुम्हें मंत्र शब्द बहुत प्रिय हो तो यही
तुम्हारा मंत्र है, महामंत्र, कि
मन से पार हो कर साक्षी बन जाना है। और जिन संन्यासियों की तुम बात कर रहे हो,
पुराने ढब के संन्यासी, उनसे थोड़े सावधान रहना।
वैसा संन्यास सड़ा—गला है। वैसा संन्यास बड़े धोखे और प्रवंचना से भरा है। वैसा
संन्यास एक शोषण है।
उधर
से आए सेठ जी
इधर
से संन्यासी
एक
ने कही,
एक
ने मानी
दोनों
ठहरे शानी
दोनों
ने पहचानी
सच्ची
सीख पुरानी
दोनों
के काम की
दोनों
की मनचीती
जय
सियाराम की
सीख
सच्ची सनातन
सौ
टंच सत्यानाशी!
पुराना संन्यास भगोड़ापन है। पुराना संन्यास पलायन
है जीवन के संघर्ष से। विकास तो जीवन के संघर्ष में है। क्योंकि जहां संघर्ष है, जहां चुनौती है, वहीं जागने का उपाय है। अगर भाग गए
संघर्ष से, सो जाओगे। इसलिए तो तुम पुराने ढंग के संन्यासी
को देखो, न प्रतिभा की कोई चमक है, न आंखों
में शांति है, न प्राणों में किसी गीत का गुंजन है, न पैरों में नृत्य है। भाग गया है, भगोड़ा है। कमजोर
है, कायर है। नहीं लड़ पाया, तो अगर
खट्टे हैं, ऐसा कहने लगा है। नहीं पहुंच पाया अंगसे तक,
तो अंगूरों को गाली देने लगा है।
निश्चित ही यह भगोड़ा किन्हीं लोगों के काम का है।
जिनकी सत्ता है—धन हो, पद हो, राजनीति
हों—जिनकी सत्ता है, उनके लिए यह सहयोगी है। क्योंकि यह एक
तरह की अफीम पैदा करता है समाज में, भगोड़ापन पैदा करता है।
यह एक तरह की तंद्रा पैदा करता है, एक तरह की निद्रा पैदा
करता है। यह लोगों को यही समझाए जाता है : यह सब माया है, भागो।
लेकिन अगर माया है तो भागते क्यों हो?
कोई आदमी भागा चला जा रहा है और तुम से कहता है: मत
जाओ उधर, उधर एक रस्सी पड़ी है जो सांप जैसी दिखती है, उसी के करण मैं भाग रहा हूं। थोड़ा सोचो, अगर रस्सी
है और सांप जैसी दिखती है तो भाग क्यों रहे हो? नहीं,
तुम्हें पक्का पता है कि सांप ही है। रस्सी नहीं है, यह तो तुम शास्त्र दोहरा रहे हो। अगर रस्सी ही होती तो भागते क्यों?
माया से कोई भागेगा क्यों? और भागेगा कहां?
नहीं, माया में कुछ बल है, कोई सत्य है, कोई यथार्थ है। माया से तुम घबडाए हुए
हो। भय से भाग रहे हो।
मैंने संन्यास को नया आयाम दिया है— भागो मत, जागो। मेरे संन्यास का सूत्र है : भागो मत, जागो।
जहां हो, जैसे हो, वहीं खड़े हो जाओ पैर
जमा कर। और असली सवाल बाहर से, बाहर की वस्तुओं से, पत्नी—बच्चों से, मकान—दूकान से नहीं है, असली सवाल तुम्हारे भीतर मन पर तुम्हारी जो जकड़ है, उससे
है। उस जकड़ को छोड़ दो। जहां हो वहीं रहो। और तुम पाओगे एक अपूर्व मुक्ति तुम्हारे
जीवन में उतरनी शुरू हो गई। अब तुम्हें कुछ बांधता नहीं।
जागरण मुक्ति है। साक्षी— भाव कहो, जागरण कहो, ध्यान कहो—जो तुम्हें नाम प्रीतिकर हो,
कहो। लेकिन भागना मत। क्योंकि भागने का तो अर्थ ही यह हो गया कि तुम
डर गए।
भीरु भगवान को कभी नहीं उपलब्ध होता। भगवान ने यह
जीवन ही तुम्हें दिया है ताकि इससे गुजरो। यह जीवन तुम्हें किसने दिया है? इस जीवन में तुम्हें किसने भेजा है? जिसने भेजा है,
प्रयोजन होगा। तुम्हारे महात्मा जरूर गलत होंगे, कहते हैं : भागो इससे! परमात्मा तो जीवन को बसाए चला जाता है और महात्मा
कहते हैं: भागो! महात्मा परमात्मा के विपरीत मालूम पड़ते हैं।
यह तो ऐसा हुआ कि मां—बाप तो भेजते हैं बच्चे को
स्कूल में, वहा कोई बैठे हैं सौ टंच सत्यानाशी, वे कहते हैं: भागो, स्कूल में कुछ सार नहीं है! पढ़ने
—लिखने में क्या धरा है?
परमात्मा भेजता है इस जगत में—जगत एक विद्यापीठ है।
यहां बहुत कुछ सीखने को है। यहां झूठ और सच की परख सीखने को है। यहां सार और असार
का भेद सीखने को है। यहां सीमा और असीम का शिक्षण लेना है। यहां पदार्थ और चैतन्य
की परिभाषा समझनी है। निश्चित ही भागने से यह न होगा, यह जागने से होगा।
और जागने के लिए हिमालय से कुछ प्रयोजन नहीं है।
ठेठ बाजार में जाग सकते हो। सच तो यह है, बाजार में
जितनी आसानी से जाग सकते हो, हिमालय पर न जाग सकोगे। बाजार
का शोरगुल सोने ही कहां देता है! चारों तरफ से उपद्रव है। नींद संभव कहां है!
हिमालय की गुफा में बैठ कर सोओगे नहीं तो करोगे क्या? तंद्रा
पकड़ेगी, सपने पकड़ेंगे। और यहां जीवन के यथार्थ में प्रतिक्षण
तुम्हारी छवि बनती है, जो तुम्हें बताती है, तुम कौन हो।
मैंने सुना है, एक स्त्री बड़ी
कुरूप थी। वह दर्पण के पास न जाती थी। क्योंकि वह कहती थी: दर्पण मेरे दुश्मन हैं।
दर्पण मेरे साथ अत्याचार कर रहे हैं। मैं तो सुंदर हूं दर्पण मुझे कुरूप बतलाते
हैं।’ कोई उसके पास दर्पण ले आए तो दर्पण तोड़ देती थी।
तुम्हारे जो संन्यासी हैं, वे ऐसे ही दर्पण तोड़ रहे हैं। पत्नी से भाग जाओगे, क्योंकि
पत्नी के पास रहने से कलह होती थी। कलह होती थी, इसका अर्थ
ही इतना है कि तुम्हारे भीतर कलह अभी मौजूद है। पत्नी तो दर्पण थी, तुम्हारा चेहरा बनता था। तुम सोचते हो पत्नी कलह करवा रही है तो तुम गलती
में हो। कोई कैसे कलह करवा सकेगा? पत्नी तो सिर्फ मौका है,
जहां तुम्हारा चेहरा दिखाई पड़ता है। वह चेहरा कुरूप लगता है,
तुम सोचते हो भाग जाओ, पत्नी छोड़ो, बच्चे छोड़ो—यह सब जंजाल है। यह जंजाल नहीं है। अपने चेहरे को बदलो! यह
दर्पण है। और तब तुम परमात्मा को पत्नी के लिए भी धन्यवाद दोगे कि अच्छा किया।
मैंने सुना है, सुकरात के पास
बड़ी खतरनाक पत्नी थी।’जिनथिप्पे' उसका नाम था। ऐसी दुष्ट
पत्नी कम ही लोगों को मिलती है। ऐसे तो अच्छी पत्नी मिलना मुश्किल है, मगर वह खराब में भी खराब थी। वह उसे चौबीस घंटे सताती। एक बार तो उसने चाय
का उबलता पानी उसके सिर से ढाल दिया। उसका आधा चेहरा सदा के लिए जल गया और काला हो
गया। लेकिन सुकरात भागा नहीं, जमा रहा! एक युवक उससे पूछने
आया कि मैं विवाह करना चाहता हूं आपकी क्या सलाह है? सोचा था
युवक ने कि सुकरात तो निश्चित कहेगा, भूल कर मत करना। इतनी
पीड़ा पाया है, सारा एथेन्स जानता था! घर—घर में यह चर्चा
होती थी कि आज’ जिनथिप्पे' ने सुकरात को किस तरह सताया। यह तो
कम से कम कहेगा कि विवाह मत करना। वह युवक विवाह नहीं करना चाहता था। लेकिन सुकरात
का सहारा चाहता था ताकि कह सके मा—बाप को कि सुकरात ने भी कह दिया है। लेकिन चौंका
युवक, क्योंकि सुकरात ने कहा: विवाह तो करना ही! अगर मेरी
पत्नी जैसी मिली तो सुकरात हो जाओगे। अगर अच्छी पत्नी मिल गयी, सौभाग्य! हानि तो है ही नहीं! इसी पत्नी की कृपा से मैं शांत हुआ। इसकी
मौजूदगी प्रतिपल परीक्षा है, पल—पल कसौटी है। अनुगृहीत हूं
इसका। इसी ने मुझे बदला। इसी में अपने चेहरे को देख—देख कर मैंने धीरे— धीरे रूपांतरण
किये। मन में तो मेरे भी बहुत बार उठा कि भाग जाऊं। सरल तो वही था। भगोड़ेपन से
ज्यादा सरल और क्या है! जहां जीवन में कठिनाई हो, भाग खड़े
होओ! इससे सरल क्या है?
तुम जिसको संन्यास कहते रहे हो अब तक, उससे सरल और क्या है? सब तरह के अपाहिज, सब तरह के कमजोर, दीन—हीन, बुद्धिहीन,
अपंग, कुरूप—सब भाग जाते हैं। बुद्ध को तो एक
नियम बनाना पड़ा था कि जिसका दिवाला निकल जाये वह भिक्षु न हो सकेगा। क्योंकि जिसका
भी दिवाला निकलता है, वही भिक्षु होने लगता है। जिसकी पत्नी
मर जाए, वह कम से कम साल भर रुके, फिर
संन्यास ले। क्योंकि जिसकी पत्नी मरी, वही संन्यासी होने को
तैयार हो जाता है! जहां जीवन में जरा—सा धक्का लगा कि बस, उखड़
गये। जड़ें भी हैं तुम्हारी या नहीं? बिना जड़ के जी रहे हो?
जरा—जरा से हवा के झोंके तुम्हें उखाड़ जाते हैं। ये तूफान, ये आंधिया, ये जीवन की कठिनाइया—ये सब मौके हैं,
अवसर हैं, जिनमें व्यक्ति पकता है।
यह तो ऐसा ही हुआ जैसे एक कुम्हार ने एक घड़ा बनाया
और वह मिट्टी के बने घड़े को आग में डाल रहा था और घड़ा चिल्लाने लगा’मुझे आग में मत
डालो। मुझे आग में क्यों डालते हो?' घड़े को पता ही
नहीं कि आग में पड़ कर ही पकेगा। यह कच्चा घडा किसी काम का नहीं है। यह अगर कुम्हार
ने इस पर दया की तो वह दया न होगी, वह बड़ी कठोरता हो जाएगी।
रोने दो, चीखने दो घड़े को, कुम्हार तो
इसे आग में डालेगा ही। क्योंकि घड़े को खुद ही पता नहीं है कि वह क्या कह रहा है।
आग में कभी गया नहीं, पता हो भी कैसे सकता है?
तुम्हारे महात्मा कहेंगे, मत डालो घड़े को आग में। लेकिन परमात्मा कहता है, आग
में बिना गये कभी कोई घड़ा मजबूत हुआ; कभी कोई घड़ा वस्तुत:
घड़ा हुआ। कच्चे घड़े में पानी भर सकोगे? देखने में लगेगा घड़े
जैसा, रखे रहो संभाल कर तो एक बात; पानी
भरने के काम न आएगा। और जब धूप पड़ेगी और सूरज तपेगा तो जल को शीतल करने के काम भी
न आएगा। पानी भरने गए तो पानी में ही घुल जाएगा।
तो तुम्हारे तथाकथित संन्यासी कच्चे घड़े हैं, भगोड़े हैं! मेरे देखे तो संन्यास संसार की आग में ही निर्मित होता है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: आपने यह क्या
किया? यह कैसा संन्यास कि लोग अपने घरों में हैं, पत्नी—बच्चे हैं, दूकान कर रहे हैं—और आप उनको
संन्यासी कहते हैं! उनका कहना ठीक है, क्योंकि सदियों से
उन्होंने जिसे संन्यास समझा था, स्वभावत: उनके संन्यास की
वही धारणा बन गयी। वैसी धारणा सार्थक सिद्ध नहीं हुई। लाखों संन्यासी रहे, लेकिन फूल कहां खिले धर्म के? संन्यास मैंने तुम्हें
दिया है— भागने को नहीं, जागने को। इसलिए जहां कठिनाई हो वहा
तुम पैर जमा कर खड़े हो जाना। जान लेना कि यहां दर्पण है। यहां से तो तभी हटेंगे जब
दर्पण गवाही दे देगा कि ही ठीक, सुंदर हो। जहां आग हो वहा से
तो हटना मत। यहां से तो तभी हटेंगे जब आग भी कह दे कि भाई, अब
और क्या पकायें, तुम पक गये। अब नाहक मुझे और न परेशान करो,
अब जाओ। हटना तभी जब परिपक्वता हो। और तब हटने की भी कोई जरूरत नहीं
है। भीतर है कुछ सम्हालना। यह बाहर की बात नहीं है।
स्वभावत: पुराना संन्यास जीवन—विरोधी था। उसमें
निषेध है, निराशा है, अवसाद है। पुराना
संन्यास दुखवाद है। मैं तुम्हें जो मंत्र दे रहा हूं वह जीवन को सौभाग्य मानने का
है; जीवन को प्रभु का प्रसाद मानने का है। तुम गाओ। संन्यास
गुनगुनाता हुआ हो।
दुख
से स्वर टूटता है
छंद
सधता नहीं
धीरज
छूटता है।
गा!
या
कि सुख से ही बोलती बंद है
रोम
सिहरे हैं
मन
निस्पंद है
फिर
भी गा, फिर भी गा!
मरता
है
जिसका
पता नहीं, उससे डरता है?
गा!
जीता
है
आसपास
सब कुछ इतना भरा—पूरा है
और
बीच में तू रीता है?
गा।
गुनगुनाओ! नाचो! हंसो! प्रभु की अनुकंपा को स्वीकार
करो।
पुराना संन्यास प्रभु का विरोध है। वह कहता है :
तुमने जो दिया उसे हम स्वीकार न करेंगे। पुराना संन्यास यह कह रहा है: ’तुमने गलत
दिया। माया में उलझा दिया।’ मैं तुमसे कह रहा हूं कि अगर प्रभु ने माया में डाला, तो जरूरत होगी; तो आवश्यक होगा। तुम प्रभु से अपने
को ज्यादा समझदार मत मान बैठना। तुम उसे स्वीकार करना अहोभाव से, गुनगुनाते हुए। दुख हो तो भी गाना। गाने से मत चूकना। दुख हो तो दुख का
गीत गाना। सुख हो, सुख का गीत गाना—मगर गाना। तुम्हारे जीवन
में गुनगुनाहट समा जाए, तो तुम्हारे जीवन में प्रार्थना का
पदार्पण हो गया।
और नाचते हुए चलना प्रभु के मंदिर की तरफ। उदास और
लंबे चेहरे जैसे तुम्हें नापसंद हैं वैसे ही परमात्मा को भी नापसंद हैं। कौन पसंद
करता है उदास लंबे चेहरों के पास बैठना!
कभी तुम साधु—संतो के पास थोड़ी देर रहे? लोग जल्दी से नमस्कार करके भागते हैं कि महाराज, अब
जायें! सेवा करने जाते हैं—मतलब चरण छू लिए और भागे। कोई साधु—संतो के पास बैठता नहीं।
चौबीस घंटे भी अगर तुम किसी साधु के पास रह जाओ तो या तो उसकी गर्दन दबा दोगे या
अपनी दबा लोगे।
उदास! मरुस्थल! मरघट जैसी हवा! जहां फूल नहीं
खिलते! जहां फूल खिलने बंद हो गए! जहां कोई गीत नहीं जन्मता, जगता। जहां जीवन में उल्लास नहीं, प्रफुल्लता नहीं
है! नहीं, ऐसे संन्यासी को मैं सत्यानाशी कहता हूं।
तुम गाओ। तुम नाचो। तुम कृतज्ञता से भरी। तुम प्रभु
को धन्यवाद दो कि खूब परीक्षाएं तुमने जमायी—गुजरेंगे, पार करेंगे। पक कर ही आएंगे तेरे द्वार पर! अगर तूने भेजा है, प्रयोजन होगा। हम कौन जो बीच से भाग जाएं!
कृष्ण ने अर्जुन से इतना ही कहा है कि तू भाग मत।
गीता पढ़ते हैं लोग, लेकिन गीता समझी नहीं गई। कृष्ण ने
इतना ही कहा कि भाग मत। यह युद्ध अगर परमात्मा देता है तो सही है। भरोसा कर!
समर्पण कर! उतर युद्ध में, जूझ, जो
प्रभु दे उसमें ही भर। निमित्त मात्र हो! अपनी बीच में मत अड़ा। मत कह कि मैं तो
भाग कर संन्यासी होना चाहता हूं।
वह संन्यासी होना चाहता था—पुराने ढब का। वह कह रहा
था कि’इसमें क्या सार है! इनको—अपनों को मारना! मैं चला जाऊं, जंगल में बैठ जाऊंगा झाड़ के नीचे। ध्यान लगाऊंगा, समाधि
साधूंगा।’ कृष्ण उसे खींचते हैं। कहते हैं, जंगल जाने की
जरूरत नहीं, तू यहीं जूझ!
प्रभु जो कराए, करो। कर्ता—
भाव भर मत रखो। साक्षी बन जाओ। वह जो करवाए, करो। जो पाठ दे
दे, उसे पूरा कर दो, जैसे रामलीला के
मंच पर। तुम अपने को बीच में मत लाओ।
हम बीच—बीच में आ जाते हैं।
एक गांव में रामलीला होती थी। लक्ष्मण बेहोश पड़े
हैं। हनुमान को जड़ी—बूटी लेने भेजा है। जड़ी—बूटी मिलती नहीं, पहाड़ बड़ा है। और वे तय नहीं कर पाते तो पूरा पहाड़ ले आते हैं। रामलीला हो
रही है—तो एक रस्सी में बांध कर पहाड़ लिए हुए हनुमान आते हैं। बीच में कहीं घिर्री
अटक गई, तो वे लटके हैं। अब वह घिर्री चलाने वाला छिपा बैठा
है, वह बड़ी मुश्किल में है कि अब क्या करें। कुछ तो करना ही
पड़ेगा, क्योंकि ये कब तक लटके रहेंगे! इनको उतारना जरूरी है।
कुछ सूझा नहीं उसे, तो उसने रस्सी काट दी। तो हनुमान मय पहाड़
के धड़ाम से नीचे गिरे। रामचंद्रजी ने पूछा—जैसे पूछना चाहिए था, जैसा कहा गया था—कि हनुमान, जड़ी—बूटी ले आए? हनुमान ने कहा : ऐसी की तैसी जड़ी—बूटी की! पहले यह बताओ रस्सी किसने काटी?
भूल गया जो पाठ सिखाया था; खुद बीच में आ गए।
जीवन जैसा प्रभु ने दिया है उसे तुम वैसे ही
स्वीकार कर लेना। तुम अपने को बीच में मत लाना। तुम चुपचाप अंगीकार कर लेना। इस
अंगीकार— भाव को ही मैं आस्तिकता कहता हूं। ऐसे धीरे — धीरे समर्पण करते —करते एक
ऐसी घड़ी आती है जब तुम्हारे बीच और परमात्मा के बीच कोई फासला नहीं रह जाता।
क्योंकि जो वह करवाता है वही तुम करते हो, अन्यथा नहीं।
तुम्हारी कोई शिकायत नहीं है। तुम्हारी कोई मांग नहीं है। तुम न उससे कहते हो,
तुमने गलत करवाया; न तुम उससे कहते हो,
भविष्य में सुधार कर लेना। तुम्हारा स्वीकार परिपूर्ण है। तुम्हारी
तथाता पूरी—पूरी है। इसी घड़ी में मिलन हो जाता है। इसी घड़ी में तुम मिट जाते हो,
परमात्मा हो जाता है।
तुम मिटो ताकि परमात्मा हो सके। लेकिन इस मिटने को
भी गीत गा कर और हंस कर पूरा करना है। उदास—उदास मत जाना, अन्यथा शिकायत रहेगी। गीत गुनगुनाते जाना।
और मैं तुमसे कहता हूं : जिन्होंने भी प्रभु को कभी
जाना है उन सभी ने यह बात भी जानी कि जो भी हुआ इसके पहले वह सब जरूरी था; उसके बिना पहुंचना नहीं हो सकता था। जो दुख झेले, वे
भी जरूरी थे। जो सुख झेले, वे भी जरूरी थे। मित्र मिले,
वे भी जरूरी थे। शत्रु मिले, वे भी जरूरी थे।
अकारण कुछ भी कभी नहीं होता है। इस परम भाव को मैं संन्यास कहता हूं। यही तुम्हारा
मंत्र है।
दूसरा
प्रश्न :
जो निश्चयपूर्वक जानते हैं उनमें से कोई दैव को, कोई पुरुषार्थ को और कोई दोनों को प्रबल बताते हैं। ऐसा क्यों है? उनमें भी मतैक्य क्यों नहीं है?
जो जानते हैं, वे वही नहीं कहते—जो जानते हैं। क्योंकि जो जाना जाता है जीवन की आत्यंतिक
गहराई में उसे तो सतह पर ला कर शब्द नहीं दिये जा सकते। जो जाना जाता है वह तो कभी
कहा नहीं जाता। उसे कहा ही नहीं जा सकता। शब्द बड़े संकीर्ण और बड़े छोटे हैं। फिर
भी जानने वाले कुछ कहते हैं। वे क्या कहते हैं? और जब वे कुछ
कहते हैं तो तुम यह मत खयाल करना कि वे सत्य के संबंध में कुछ कहते हैं। वे असल
में तुम्हारे और सत्य के संदर्भ में कुछ कहते हैं। इस भेद को समझ लेना।
महावीर ने सत्य को जाना, बुद्ध ने सत्य को जाना। अष्टावक्र ने सत्य को जाना। लेकिन जब वे बोलते हैं
तो सत्य उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना सुनने वाला महत्वपूर्ण होता है। वे सुनने
वाले से बोलते हैं, अन्यथा बातचीत व्यर्थ हो जाएगी। वे
तुम्हारे संदर्भ में बोलते हैं। निश्चित ही जनक अलग तरह का श्रोता है; अर्जुन से बहुत भिन्न है। अगर जनक होता कृष्ण के सामने तो कृष्ण ने भी
अष्टावक्र—गीता ही कही होती। और अगर अष्टावक्र के सामने अर्जुन होता तो अर्जुन से
भी अष्टावक्र ने जो कहा होता वह कृष्ण की गीता से भिन्न नहीं होता।
ऐसा समझो कि तुम बीमार हो और तुम चिकित्सक के पास
गए हो, तो चिकित्सक अपना सारा चिकित्साशास्त्र थोड़े ही तुम पर
उड़ेल देता है; तुम्हारी बीमारी के संदर्भ में कुछ कहता है। प्रिसक्रिप्शन
तुम्हारी बीमारी के संदर्भ में होता है। वह निश्चित ही उसके चिकित्साशास्त्र के
अनुभव से आता है; लेकिन होता तुम्हारे संदर्भ में है। तो तुम
यह मत समझ लेना कि तुम जब एक चिकित्सक के पास गए और उसने तुम्हें एक प्रिसक्रिप्शन
दे दिया तो तुम यह मत समझ लेना कि यह प्रिसक्रिप्शन उसने हर मरीज के लिए दे दिया,
कि अब कोई भी बीमार हो जाए घर में तो डाक्टर के पास जाने की जरूरत
नहीं है, प्रिसक्रिप्शन तो अपने पास है। तो तुम खतरनाक हो
जाओगे। तो बीमारी तो ठीक शायद ही हो, तुम बीमारों को नष्ट कर
डालोगे, मार डालोगे। प्रिसक्रिप्शन तुम्हारे लिए था,
तुम्हारे संदर्भ में था। ऐसा समझो, जब किसी शानी
पुरुष के सामने कोई खड़ा होता है पूछने, अगर यह व्यक्ति बहुत
अहंकारी है तो ज्ञानी पुरुष कहेगा: ऐसे जीओ जैसे भाग्य से सब तय है। क्योंकि इसके
अहंकार की बीमारी से यह ग्रसित है। इसे इसके अहंकार से नीचे उतारना है। तो उस
ज्ञान की शून्यता से एक आवाज उठेगी ’दैव, भाग्य! तुम्हारे
किए कुछ भी नहीं होता।’ क्योंकि अहंकारी को तो यह लगता है, मेरे
किए ही सब हो रहा है; मैं करने वाला हूं। उसके अहंकार के
पीछे कर्ता ही तो छिपा है। तो सदगुरु कर्ता को खिसकाने लगेगा। एक दफा कर्ता हट गया
तो अहंकार ऐसे गिर जाता है, जैसे ताश के पत्तों का घर।
लेकिन अगर पूछने वाला आलसी है, तामसी है—अहकारी नहीं, राजसी नहीं, तामसी है, सुस्त है, अकर्मण्य
है और कहता है, जो होना है सो होगा, अपने
किये क्या होता; और बैठा रहता है गोबर—गणेश बना—तो ज्ञानी
पुरुष उसके संदर्भ में बोलेगा। वह कहेगा’ उठो, पुरुषार्थ के
बिना कभी कुछ नहीं होता। कुछ करो! ऐसे बैठे—बैठे—बैठे गंवाओ मत! थोड़ा हलन—चलन लाओ
जीवन में! थोड़ी ऊर्जा को जगाओ। ऐसे बैठे—बैठे परमात्मा न मिलेगा : यात्रा पर निकलो।’
क्यों?
अगर भाग्य की बात यह अज्ञानी सुन ले तो उस भाग्य की
बात को सुन कर यह तो बड़ा निश्चित हो जाएगा। यह तो कहेगा यही तो हम कहते थे। तो हम
तो शान को उपलब्ध ही हैं। हम तो कुछ करते नहीं, बैठे रहते हैं।
घर के लोग पीछे पड़े हैं, नासमझ हैं! कोई कहता है, नौकरी करो; कोई कहता है, धंधा
करो; कोई कहता है कुछ करो—मगर हम तो अपने शांत बैठे रहते हैं।
जापान में ऐसा हुआ, एक
सम्राट बहुत आलसी था—अति आलसी था। एक दिन पड़े—पड़े बिस्तर पर उसे खयाल आया, मैं तो सम्राट हूं, तो जितना भी आलस्य करूं, करूं, कोई कुछ कह नहीं सकता, लेकिन
और आलसियो का क्या हाल होता होगा! बेचारे बड़े मुश्किल में पड़े होंगे। तो उस सम्राट
ने सोचा कि सभी अपनों के लिए कुछ करते हैं, मुझे भी उनके लिए
कुछ करना चाहिए। तो उसने डुंडी पिटवा दी सारे राज्य में कि जितने आलसी हों सब आ
जाएं राजमहल। सबके रहने —खाने का इंतजाम राज्य की तरफ से होगा।
मंत्रियों ने कहा महाराज, आप ही काफी हैं! अब यह क्या कर रहे हैं? और अगर ऐसा
किया तो पूरा राज्य उमड़ पड़ेगा, रुकेगा कौन! किसको मतलब फिर!
फिर तो झूठे—सच्चे का पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि आलसी कौन है।
सम्राट ने कहा : वह तुम चिंता करो पता लगाने की, लेकिन जो —जो आलसी हैं उनको राज्य से शरण मिलेगी। उनका कसूर क्या है?
भगवान ने उन्हें आलसी बनाया। वे अपना आलस्य का जीवन जी रहे हैं।
उनको सुख—सुविधा होनी चाहिए। और करने वाले तो कर लेते हैं, न
करने वाले का कौन
है? उसका भी तो कोई होना चाहिए। तो तुम: यह तुम फिक्र कर लो कौन सच्चा,
कौन झूठा।
वह तो डुंडी पिट गई तो हजारों लोग आने शुरू हो गए।
गांव के गांव! मंत्रियों ने व्यवस्था की पता लगाने की। उन्होंने घास की झोपड़ियां
बनवा दीं; जो भी आए उनको ठहरा दिया। और आधी रात में आग लगा दी। सब
भाग खड़े हुए। लेकिन चार आदमी अपना कंबल ओढ़ कर सो रहे। उनको दूसरों ने खींचा भी तो
उन्होंने कहा : भाई अब परेशान न करो आधी रात। लोगों ने कहा: आग लगी है पागलो!
उन्होंने कहा: लगी रहने दो। मगर नींद मत तोड़ो।
उन चार को वजीरों ने कहा कि ये निश्चित पहुंचे हुए
सिद्ध पुरुष हैं। इन चार को राज्य— आश्रय मिले, समझ में आता है।
जब ऐसा कोई व्यक्ति किसी ज्ञानी के सामने आ जाए तो
उससे वह क्या कहे? भाग्य की बात कहे? नहीं, वह दर्शन उसके जीवन के काम का नहीं होगा। वह
औषधि उसका इलाज नहीं है।
ये जो वक्तव्य हैं, औषधियां
हैं। बुद्ध ने तो बार—बार कहा है कि मैं चिकित्सक हूं दार्शनिक नहीं। नानक ने बहुत
बार कहा है कि मैं तो वैद्य हूं कोई विचारक नहीं। जोर इस बात पर है कि तुम्हारी
बीमारी जो है, उसका इलाज......:।
अर्जुन भागना चाहता था, अकर्मण्य होना चाहता था। कृष्ण ने उसे खींचा। भागने न दिया कर्म से। जनक
सम्राट है और सम्राट के भीतर स्वभावत: न तो करने का कोई सवाल होता है, न करने की कोई जरूरत होती है। और स्वभावत: सम्राट के भीतर एक गहन अहंकार
होता है, सूक्ष्म अहंकार होता है—परिमार्जित, परिष्कृत। सम्राट कुछ करे न भी तो भी जानता यही है कि उसी के किए सारा
साम्राज्य चल रहा है। कुछ न भी करे तो भी, वैसी सूक्ष्म
धारणा तो बनी ही रहती है! वह माने ही रहता है कि मेरे बिना क्या होगा। जिस दिन मैं
न रह जाऊंगा, दुनिया में सूरज अस्त हो जाएगा। तो लोग सोचते
हैं, मेरे बाद कौन! कोई भिखारी तो नहीं सोचता ऐसा कि मेरे
बाद कौन! लेकिन जिनके पास पद है, शक्ति है, वे सोचते हैं, मेरे बाद कौन! क्यों? तुम्हें इसकी चिंता क्या है? तुम्हारे बाद जो होंगे
वे फिक्र कर लेंगे। नहीं, लेकिन वह सोचता है कि मैं कुछ
इंतजाम कर जाऊं। मेरे बाद के लिए भी इंतजाम मुझे करना है। व्यवस्था मुझे जुटानी है।
वसीयत कर जाऊं। गरीब तो कोई वसीयत नहीं करता, वसीयत करने को
भी कुछ नहीं है। अमीर वसीयत करता है—कौन सम्हालेगा!
जनक में एक सूक्ष्म अस्मिता रही होगी—कहीं बहुत
गहरे में पड़ी रही होगी। चिकित्सक की आंख से तो तुम बच नहीं सकते, क्योंकि चिकित्सक की आंख तो एक्स—रे है; वह तो दूर
तक देखती है। गुरु की आंख से तुम बच नहीं सकते। वह तो तुम्हारी गहनतम चेतना में
प्रवेश करती है। वह तो तुम्हारे अचेतन को उघाड़ती है। वह तो वहां तक देखती है जहां
जन्मों—जन्मों के संचित संस्कार पड़े हैं जिनको तुम भूल ही गए हो, जिनकी तुम्हें याद भी नहीं रही है; जहां बीज पड़े हैं,
जो कभी फले नहीं, जो कभी फूले नहीं, जिनमें कभी अंकुर नहीं आए, लेकिन कभी भी सुसमय पा कर,
ठीक मौसम में वर्षा हो जाने पर अंकुरित हो जाएंगे।
तो जब अष्टावक्र ने जनक को ऐसा कहा, तो जनक को ऐसा कहा है, इसे याद रखो। ये वक्तव्य निजी
हैं और व्यक्तियों को दिये गए हैं। एक गुरु और एक शिष्य के बीच जो घटा है इसे तुम
सार्वजनीन
सत्य
मत मान लेना। यह सबकी औषधि नहीं है। यह कोई रामबाण—औषधि नहीं है कि कोई भी बीमारी
हो, ले लेना और ठीक हो जाओगे। तुम्हारी बीमारी पर निर्भर
करेगा। इसलिए कभी—कभी उल्टा भी हो जाता है। अक्सर उल्टा हो जाता है।
अब अष्टावक्र की गीता, अक्सर जो आलसी हों, उनको जंचेगी। वह उल्टा हो गया
मामला। जो अकर्मण्य हैं उनको जंचेगी। वे कहेंगे, बिलकुल
सत्य! यही तो हम जानते रहे सदा से। तब बजाय जीवन में प्रभु का प्रकाश फैले,
उनके जीवन में नर्क का अंधकार फैल जाएगा।
यही तो भारत में हुआ। भाग्य का अपूर्व सिद्धात भारत
को दीन और दरिद्र कर गया। लोग काहिल हो गए, लोग सुस्त हो गए।
उन्होंने कहा, जो भगवान करेगा, गुलामी
दे तो, कोई लूट—पाट ले तो ठीक; भूखा
रखे, अकाल पड़े, तो ठीक। लोग बिलकुल ऐसे
दीन हो कर बैठ गए कि हमारे किए तो कुछ होगा नहीं।
ये सूत्र तुम्हें अकर्मण्य बनाने को नहीं हैं। ये
सूत्र तुम्हें अकर्ता बनाने को हैं, अकर्मण्य बनाने
को नहीं हैं। और अकर्ता का अर्थ अकर्मण्यता नहीं होता। अकर्ता तो बड़ा कर्मण्य होता
है। सिर्फ कर्म उसका अब अपना नहीं होता है; अब ईश्वर समर्पित
होता है। करता तो वह बहुत है, लेकिन करने का श्रेय नहीं लेता।
करता सब है और कर्ता नहीं बनता। और यह नहीं कहता कि मैं करने वाला हूं। करता सब है
और सब प्रभु—चरणों में समर्पित कर देता है। कहता है, तुमने
करवाया, किया!
इस बात को खयाल रखना। अगर भाग्य का परम सिद्धात
तुम्हारे जीवन में अकर्मण्यता और आलस्य लाने लगे तो समझना कि तुमसे चूक हो गई; तुम समझ नहीं पाए। अगर भाग्य का सिद्धात तुम्हारे जीवन में कर्म का प्रकाश
लाए, और कर्ता को विदा कर दो तुम, और
सारे कर्म का श्रेय परमात्मा के चरणों में चढ़ता जाए, तो
समझना कि तुम बिलकुल, बिलकुल ठीक समझ गए; तीर ठीक जगह लग गया है।
पूछा है: ’जो निश्चयपूर्वक जानते हैं उनमें से कोई
दैव को, कोई पुरुषार्थ को, कोई दोनों को
प्रबल बताते हैं।’
निर्भर करता है—किस व्यक्ति से बात कही जा रही है?
पुरुषार्थ
है पल—पल डोलते हुए मन को निस्पंद करना।
पुरुषार्थ
है सोचने की प्रक्रिया को बंद करना।
पुरुषार्थ
वह है जो मन को समेट कर उसके उत्स पर डाल दे;
मस्तिष्क
के महल से सारी स्मृतियों को बुहार कर निकाल दे।
मन
का महल जब साफ होगा, तुम अपने — आप के दर्शन पाओगे।
मैं
शपथपूर्वक कहता हूं कि सोचना बंद करने से तुम मर नहीं जाओगे।
ऐसी
है पुरुषार्थ की परिभाषा—परम पुरुषार्थ!
'पुरुषार्थ' शब्द
को तुमने कभी सोचा? पुरुष और अर्थ! तुम्हारे भीतर जो छिपा
हुआ चैतन्य है, उसका नाम है पुरुष। तुम्हारा शरीर तो नगर है,
पुर। और उसके भीतर जो छिपा हुआ दीया है चैतन्य का, वह है—पुरुष। तुम एक बस्ती हो। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात करोड़ जीवाणु
शरीर में रह रहे हैं। सात करोड़! छोटी—मोटी बस्ती नहीं—बड़े नगर हो, महानगर हो। बंबई भी छोटी है; आधा
करोड़
लोग ही रहते हैं। तुम्हारे शरीर में सात करोड़, चौदह गुनी
क्षमता है! भीड़ है तुम्हारे शरीर में। इन सारे जीवाणुओं के बीच में छिपा हुआ
तुम्हारे चैतन्य का दीया है। उसका नाम पुरुष है। पुरुष इसीलिए कि वह इस पूरे पुर
के बीच में बसा है। फिर उस पुरुष के अर्थ को जान लेना पुरुषार्थ है। क्या है इस
पुरुष का अर्थ? कौन है यह पुरुष? क्या
है इसका स्वाद? —उसे जान लेना।
तो पुरुषार्थ तो एक ही है स्वयं को जान लेना। और
स्वयं को जानने के लिए अहंकार का गिरा देना अत्यंत अनिवार्य है, क्योंकि वही नहीं जानने देता। अहंकार का अर्थ है : तुमने मान लिया कि तुम
अपने को जानते हो बिना जाने। अहंकार का अर्थ है: तुमने कुछ झूठी मान्यता बना ली
अपने संबंध में कि मैं यह हूं यह हूं? यह हूं —हिंदू हूं जैन
हूं? ब्राह्मण हूं शूद्र हूं; धनी हूं
अमीर हूं गरीब हूं काला, गोरा, युवा,
बूढ़ा—ऐसी तुमने धारणाएं बना लीं। इनमें से तुम कोई भी नहीं हो।
जवानी आतोई है, चली जाती है। बुढ़ापा आता है, बुढ़ापा भी चला जाता है। जीवन आया, जीवन भी चला जाता
है। तुम तो वही के वही बने रहते हो। न तुम गोरे, न तुम काले।
चमड़ी का रंग पुरुष को नहीं रंगता, चमड़ी बाहर है। पुरुष बहुत
गहरे में छिपा है। वहा तक चमड़ी का रंग नहीं पहुंचता है। चमड़ी का रंग तो बड़ी साधारण—सी
बात है।
वैज्ञानिक कहते हैं, गोरे और
काले में चार आने के रंग का फर्क है। आज नहीं कल वैज्ञानिक इंजेक्यान निकाल ही
लेंगे। कि गोरे को नीग्रो होना है, एक इंजेक्यान लगवा लिया।
चार आने का पिगमेंट, और सुबह उठे और नीग्रो हो गए। नीग्रो को
गोरा होना है, चार आने का इंजेक्यान लगा लिया। चार आने के
पीछे कितनी मारा—मारी है!
चमड़ी का रंग भीतर नहीं जाता है। तुम बीमार हो तो
बीमारी भीतर नहीं जाती। तुम स्वस्थ हो तो स्वास्थ्य भीतर नहीं जाता। भीतर तो तुम
उस परम अतिक्रमण की अवस्था में सदा एकरस हो, न बीमारी फर्क
लाती, न स्वास्थ्य फर्क लाता। जीओ या मरो, उस भीतर के पुरुष को कोई तरंग नहीं छूती। निस्तरंग! वहां तक कोई लहर नहीं
पहुंचती। सागर की सतह पर ही लहरें हैं, गहराई में कहां लहर!
और यह तो गहरी से गहरी संभावना है जो तुम्हारे भीतर है। प्रशांत महासागर भी इतना
गहरा नहीं, जितनी गहराई पर तुम्हारा पुरुष छिपा है। इस पुरुष
के अर्थ को जानने का नाम ही पुरुषार्थ है। और उस जानने के लिए जो भी तुम करो,
वह सब पुरुषार्थ है।
भाग्य का केवल इतना ही अर्थ है कि तुम अतिशय रूप से
अपने जीवन में तनाव मत ले लेना। चलना जरूर। यात्रा करना, खोजना, लेकिन तनाव मत ले लेना। श्रम—रहित हो
तुम्हारा प्रयास। करो तुम खूब, लेकिन करने के कारण उद्विग्न,
चिंतित न हो जाना। तुमने फर्क देखा दोनों बातो में—स्व चित्रकार
चित्र बनाता है, तुम देखो बैठ कर पास, कैसे
बनाता है! जैसे छोटा बच्चा खेलता हो। कोई तनाव नहीं। कब पूरा होगा, होगा पूरा कि नहीं होंगा—इसकी भी कोई चिंता नहीं है; कोई खरीदेगा, नहीं खरीदेगा; बिकेगा,
नहीं बिकेगा—इसकी भी कोई चिंता नहीं है। ऐसा लीन हो जाता है चित्र
बनाने में, जैसे बनाना अपने— आप में पूर्ण है। साधन ही साध्य
है। कोई फलाकाक्षा नहीं है। लवलीन! डुबकी लग जाती है! चित्रकार तो मिट ही जाता है।
इसलिए सभी महाचित्रकारों ने कहा है कि हमें पता
नहीं कौन हमारे हाथ में तूलिका सम्हाल लेता है! सभी महाकवियों ने कहा है: हमें पता
नहीं, कौन हमारे भीतर गीत को गुनगुनाने लगता है! हम तो केवल
वाहक होते हैं। हम तो केवल ले आते हैं उसकी खबर बाहर तक। संदेशवाहक! जैसे कि तुम
कलम से लिखते हो तो कलम थोडे ही लिखती है! लिखने वाले तुम हो; कलम तो सिर्फ तुम्हारे हाथ में सधी होती है। ऐसा ही महाचित्रकार या महाकवि
या महानर्तक सिर्फ कलम की तरह हो जाता है परमात्मा के हाथ में। नहीं कि लिखना नहीं
होता, लिखना तो खूब होता है अब। अब ही लिखना हो पाता है!
लेकिन अब परमात्मा लिखता है! कोई तनाव नहीं रह जाता।
महाकुविक्र हुआ : कूलरिज। मरा तो चालीस हजार
कविताएं अधूरी छोड़ कर मरा। मरने के पहले किसी ने पूछा कि इतना अंबार लगा रखा है, इनको पूरा क्यों नहीं किया? और अदभुत कविताएं हैं!
किसी में सिर्फ एक पंक्ति कम रह गई है। पूरी क्यों नहीं की?
तो कूलरिज ने कहा : मैं कैसे पूरी करूं? उसने वहीं तक लिखवाई। फिर मैं राह देखता रहा। फिर पंक्ति आगे नहीं आई।
शुरू—शुरू में जब मैं जवान था, तो मैं जोड़—तोड़ करता था;
तीन पंक्तियां उतरी, एक मैं जोड़ देता था।
लेकिन धीरे— धीरे मैंने पाया, मेरी पंक्ति मेल नहीं खाती। वे
तीन तो अपूर्व हैं; मेरी बड़ी साधारण! वह तो ऐसा हुआ जैसे
सोने में मिट्टी लगा दी, सुगंध में दुर्गंध जोड़ दी। जब
मुझमें समझ आई तो फिर मैंने यह काम बंद कर दिया। कभी कविता पूरी उतरी तो उतरी;
कभी अधूरी उतरी तो अधूरी उतरी। कभी ऐसा हो गया कि आधी अभी उतरी और
आधी साल भर बाद उतरी, तब पूरी हुई। तो मैं सिर्फ प्रतीक्षा
करता रहा हूं। मेरा किया इसमें कुछ भी नहीं है। जिसने लिखवाई हैं, उसी से तुम बात कर लेना।
एक दूसरे महाकवि इलियट से किसी ने पूछा कि तुम्हारी
इस कविता का अर्थ क्या है? मैं शिक्षक हूं विश्वविद्यालय में
और विद्यार्थियों को पढ़ाता हूं। और यह कविता मेरा कचूमर निकाल देती है। यह कविता
जब पढ़ाने का समय आता है, मेरे हाथ—पैर कंपने लगते हैं। इसका
अर्थ क्या है?
इलियट ने कहा कि दो आदमियों को इसका अर्थ मालूम था, अब केवल एक को ही मालूम है। शिक्षक खुश हुआ। उसने कहा कि चलो, कम से कम तुमको तो मालूम है। उसने कहा: मैंने यह कहा नहीं। दो को मालूम था—परमात्मा
को और मुझे। मैं तो भूल— भाल गया। अब तो वही जाने। जब उसने गुनगुनाई थी, तब तो मुझे भी पता था। तब तो मैं भरा— भरा था। तब तो जैसे वर्षा आई थी और
बाढ़ आ गई थी। मेरा रोआ—रोआ जानता था कि अर्थ क्या है। वह बौद्धिक अर्थ न था। मेरी
श्वास—श्वास पहचानती थी कि अर्थ क्या है। अर्थ मुझमें भरा था। अब वर्षों बीत गए,
मैं तो बहुत बहा और बदल गया। अब तो सिर्फ परमात्मा जानता है। तुम
उसी से प्रार्थना करना। शायद प्रार्थना की किसी घड़ी में जिसने मुझे कविता दी थी,
वही अर्थ भी तुम्हें खोल दे।
महाकाव्य अवतरण है। तो महाकवि के जीवन में कोई तनाव
नहीं होता। रवींद्रनाथ के चेहरे पर तुम्हें जो प्रसाद दिखाई पड़ता है, वह प्रसाद इसीलिए है। उनकी वाणी में जो उपनिषदों की गंध है वह इसीलिए है।
उनको कवि कहना ठीक नहीं—वें ऋषि हैं। जो उनसे आया है वह उनका नहीं है—कोई और गाया
है। किसी और ने वीणा के तार छेड़े हैं। ज्यादा से ज्यादा वे उपकरण हैं, वीणा हैं; लेकिन तार किसी और ने छेड़े हैं; अंगुलियां किसी और अज्ञात की उन पर गंजी हैं।
तनाव—रहित प्रयास का अर्थ होता है, तुम्हें अब कोई फल का विचार नहीं है। जो इस क्षण हो रहा है, तुम परिपूर्ण रूप से उसे कर रहे हो। परमात्मा पूरा करवाना चाहेगा, पूरा करवा लेगा; अधूरा
तो
अधूरा। फल आएगा तो ठीक; न आएगा तो ठीक। यह तुम्हारी चिंता
नहीं है।
फलाकांक्षा—रहित जो कृत्य है उसमें तनाव चला जाता
है। तनाव गया, कर्ता गया, कर्ता गया, अहंकार गिरा।
भाग्य का ऐसा अर्थ है कि भगवान कर रहा है। तो इसे
मैं तुम्हारी कसौटी के लिए कह दूं कि कर्म तो जारी रहे और कर्ता का भाव संगृहीत न
हो तो समझना कि अष्टावक्र को तुमने ठीक से समझा। कर्म ही बंद हो जाए और कर्ता का
भाव तो बना ही रहे, तो समझ लेना कि तुम चूक गए। और
दूसरी बात ज्यादा आसान है, पहली बात बहुत कठिन है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि जब वही कर रहा है तो हम करें ही क्यों? थोड़ा सोचो, तुम्हारा यह कहना ही कि हम करें ही क्यों?
यही बताता है कि तुम्हें अभी भी यह खयाल है कि तुम कर्ता हो। पहले
तुम करते थे, अब तुम नहीं करते हो, लेकिन
कर्ता हो, यह खयाल तो तुम्हारा मजबूत अभी भी है। तुम कहते हो,
अब हम क्यों करें? जैसे कि अब तक तुम करते थे!
भ्रांति अभी भी कायम है। जो समझेगा वह कहेगा, करना न करना
अपने हाथ में नहीं है; जो होगा, होगा।
हम बाधा न डालेंगे। हम साथ हो लेंगे। हम उसकी लहर के साथ बहेंगे।
फिर कभी—कभी ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति ठीक
मध्य में होता है, जिसके भीतर पुरुषार्थ और भाग्य
संतुलित होते हैं। ऐसा व्यक्ति अगर सदगुरु के पास आए तो वह उससे कहेगा : दोनों ही
ठीक हैं; पुरुषार्थ भी ठीक है, भाग्य
भी ठीक है। क्योंकि यह व्यक्ति संतुलित है। इससे कहना कि पुरुषार्थ ठीक नहीं,
इसका संतुलन तोड़ना है। इससे कहना कि भाग्य ठीक है, इसका संतुलन तोड़ना है। यह संतुलित हो ही रहा है।
एक आदमी ने बुद्ध से पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा: नहीं। उसी दिन दूसरे आदमी
ने पूछा, ईश्वर है? बुद्ध ने कहा:
निश्चय ही। और उसी सांझ एक तीसरे आदमी ने पूछा और बुद्ध चुप रह गए। रात आनंद उनसे
पूछने लगा: मुझे पागल कर दोगे क्या? क्योंकि आनंद तीनों
मौकों पर मौजूद था। उसने कहा : मैं आज सो न सकूंगा, आप मुझे
समझा दें। यह बात निपटारा ही कर दें। ईश्वर है या नहीं? सुबह
आपने कहा, नहीं है। मैंने कहा, चलो ठीक,
कोई बात नहीं, उत्तर एक साफ हो गया। दोपहर
होते—होते आप बदल गए। कहने लगे, है। सांझ चुप रह गए।
बुद्ध ने कहा: उनमें से कोई भी उत्तर तेरे लिए नहीं
दिया था, तूने लिया क्यों? ऐसे बीच—बीच में
झपटोगे तो झंझट में पड़ोगे। जो मेरे पास आया था पहले से ही भाव लिए कि ईश्वर नहीं
है, उससे मैंने कहा, है। उसे उसकी
स्थिति से हटाना जरूरी था। वह नास्तिक था। उसकी नास्तिकता को डावांडोल करना जरूरी
था। उसकी यात्रा बंद हो गई थी। वह मान कर ही बैठ गया था कि ईश्वर नहीं है। बिना
जाने मान कर बैठ गया था, ईश्वर नहीं है। बिना कहीं गए मानकर
बैठ गया था कि ईश्वर नहीं है। उसको धक्का देना जरूरी था। उसकी जड़ों को हिलाना
जरूरी था। उसे राह पर लगाना जरूरी था। तो मैंने कहा कि ईश्वर, ईश्वर है।
वह जो दूसरा आदमी आया था, वह मान कर बैठ गया था, ईश्वर है। बिना खोजे, बिना आविष्कार किए, बिना चेष्टा, बिना साधना, बिना श्रम, बिना
ध्यान, बिना मनन, बस मान कर बैठ गया था
उधार कि ईश्वर है। उसे भी डगमगाना जरूरी था। उसकी श्रद्धा झूठी थी, उधार थी। उससे
मुझे
कहना पड़ा, ईश्वर नहीं है।
और जो तीसरा आदमी सांझ आया था, उसकी कोई धारणा न थी, कोई विश्वास न था, वह परम खोजी था। उससे कुछ भी कहना खतरनाक है। कोई भी धारणा उसके भीतर
डालनी उसके मन को विकृत करना है, इसलिए मैं चुप रह गया।
मैंने उससे कहा मौन उत्तर है। और वह समझ गया। और बुद्ध ने कहा : कुछ घोड़े होते हैं,
उनको मारो तो बामुश्किल चलते हैं। कुछ घोड़े होते हैं, उनको सिर्फ कोड़ा फटकासे, चलने लगते हैं। कुछ घोड़े
होते हैं, सिर्फ कोड़ा देख लेते हैं, फटकारने
की जरूरत नहीं पड़ती और चलते हैं। और ऐसे भी कुछ कुलीन घोड़े होते हैं कि कोड़े की
छाया भी काफी है। वह जो तीसरा था उसको कोड़े की छाया काफी थी। शब्द की जरूरत न थी।
शब्द का कोड़ा चलाना आवश्यक न था—मौन रह जाना......:! उसने मुझे देख लिया। बात उसकी
समझ में आ गई। कह दिया मैंने जो कहना था, सुन लिया उसने जो
सुनना था। और शब्द बीच में आया नहीं, सिद्धात बीच में आए
नहीं। भाषा का उपयोग नहीं हुआ। हृदय से हृदय मिल गए और साथ—साथ हम हो लिए। वह भी
समझ गया, मैं भी समझ गया कि वह समझ गया है। तुम इन तीनों में
से कुछ भी उत्तर, आनंद, मत ले लेना।
तुम्हें कोई भी उत्तर नहीं दिया गया है।
काश, तुम इस बात को
समझ लो तो तुम्हें महापुरुषों के जीवन में जो विरोधाभास दिखाई पड़ते हैं, वे तत्क्षण विदा हो जाएंगे। तब तुम्हें महावीर, बुद्ध,
क्या, राम, मुहम्मद,
जरथुस्त्र, जीसस में कोई विरोधाभास दिखाई न
पड़ेगा। अलग—अलग शिष्यों की अलग— अलग जरूरतें थीं। अलग— अलग रोगियों के लिए अलग—
अलग औषधि है।
तीसरा
प्रश्न:
माना कि आत्मज्ञानी के लिए निजी सुख—दुख के अनुभव
समाप्त हो जाते हैं, लेकिन वे भी तो दूसरों के सुख—दुख
से सुखी—दुखी होते ही होंगे न! कृपा कर प्रकाश डालें।
नहीं, जिसके सुख—दुख के अनुभव समाप्त हो गए, वह दूसरे के
सुख—दुख से भी प्रभावित नहीं होता। तुम्हें कठिनाई होगी यह बात सोच कर, क्योंकि तुम सोचते हो कि उसे तो बहुत प्रभावित होना चाहिए तुम्हारे सुख—दुख
से। नहीं, उसे तो दिखाई पड़ गया कि सुख—सुख होते ही नहीं हैं।
तो तुम्हारा सुख—दुख देख कर तुम पर दया आती है, लेकिन सुखी—दुःखी
नहीं होता। सिर्फ दया आती है कि तुम अभी भी सपने में पड़े हो!
ऐसा समझो कि दो आदमी सोते हैं, एक ही कमरे में, दोनों दुख—स्वप्न में दबे हैं,
दोनों बड़ा नारकीय सपना देख रहे हैं। एक जग गया। निश्चित ही जो जग
गया अब उसे सपने के सुख—दुख व्यर्थ हो गए। क्या तुम सोचते हो दूसरे को पास में
बड़बड़ाता देख कर, चिल्लाता देख कर, उसकी
बात सुन कर कि वह कह रहा है,’हटो, यह
राक्षस मेरी छाती पर बैठा है,' यह दुखी—सुखी होगा? यह हंसेगा और दया करेगा। यह कहेगा कि पागल! यह अभी भी सपना देख रहा है। यह
इसके राक्षस को हटाने की कोशिश करेगा कि इसकी छाती पर राक्षस न हो? राक्षस तो है ही नहीं, हटाओगे कैसे? हटाने के लिए तो होना चाहिए। यह तो देख रहा है कि सज्जन अपनी ही मुट्ठी
बांधे छाती पर, पड़े हैं। और गुनगुना रहे हैं कि राक्षस बैठा
है, यह रावण बैठा दस सिर वाला मेरे ऊपर! इसको हटाओ!
यह जो जाग गया है, क्या
करेगा? यह इस आदमी को भी जगाने की कोशिश करेगा। इसके दुख को
हटाने की नहीं—इसको जगाने की। फर्क साफ समझ लेना। जब बुद्ध तुम्हें दुखी देखते हैं,
तो तुम्हारे दुख को मान नहीं सकते कि है; क्योंकि
वे तो जानते हैं दुख हो ही नहीं सकता, भ्रांति है। तुम्हें
जगाने की कोशिश करते हैं। तुम्हें भागते देख कर कि तुम रस्सी को सांप समझ कर भाग
रहे हो, वे एक दीया ले आते हैं। वे कहते हैं, जरा रुको तो, जरा इस सांप को गौर से तो देखें,
है भी? उस प्रकाश में रस्सी तुम्हें भी दिखाई
पड़ जाती है, तुम भी हंसने लगते हो।
ज्ञानी पुरुष तुम्हारे सुख—दुख से जरा भी प्रभावित
नहीं होता। और जो प्रभावित होता हो, वह ज्ञानी नहीं
है। यद्यपि तुम्हारे सुख—दुख से दया उसे जरूर आती है। कभी—कभी हंसता भी है—देख कर
सपने का बल, व्यर्थ का बल; देख कर झूठ
का बल!
ऐसा ही समझो, एक छोटा बच्चा
है, और उसकी गुड़िया की टांग टूट गयी और वह रो रहा है। तुम
क्या करते हो? रोते हो उसके पास बैठ कर? तुम भी दुखी होते, आंसू झारते हो? तुम उससे कहते हो कि ’बेटा, नासमझ, यह गुड़िया ही है! टूटने को ही थी। इसमें कोई प्राण थोड़े ही हैं कि तू
परेशान हो रहा है? यह टांग कोई असली टांग थोड़े ही है।’ हालांकि
तुम्हारी समझ की बातें शायद बेटे को समझ न भी आयें। लेकिन तुम भी जानते हो,
यह भी बड़ा होगा कल, थोड़ी प्रौढ़ता आयेगी,
गुड्डा—गुड्डी भूल जायेगा। फेंक देगा कहीं फिर, लौट कर देखेगा भी नहीं। अभी बचपना है, तो गुड्डा—गुड्डियों
से खेल रहा है।
ज्ञानी पुरुष तुम्हें सुख—दुख में डूबा देख कर
जानता है कि तुम अभी भी सोये सपना देख रहे हो। छाया मत छूना मन
होगा
दुख दूना मन
यश
है न वैभव है
मान
है न सरमाया
जितना
ही दौड़ा तू
उतना
ही भरमाया
जो
है यथार्थ कठिन
उसका
तू कर पूजन
छाया
मत छूना मन
होगा
दुख दूना मन।
तुम्हारे सब दुख छाया, झूठे हैं, माया! बुद्धपुरुष को, समाधिस्थ पुरुष को जो यथार्थ है, दिखाई पड़ता है।
जिसे अपना यथार्थ दिखाई पड़ गया, उसे सबका यथार्थ दिखाई पड़
जाता है। फिर भी तुम पर दया करता है—दया करता है कि तुम अभी भी सोये हो। दया करता
है, क्योंकि कभी वह भी सोया था। और जानता है कि तुम्हारी
पीडा गहन है, झूठी है, फिर भी गहन है।
जानता है, तुम तड़प रहे हो; माना कि
जिससे तुम तड़प रहे हो वह है नहीं। क्योंकि वह भी तड़पा है। वह भी कभी ऐसा ही रोया
है, गिड़गिड़ाया है। वह पहचानता है।
वह भी कभी खेल—खिलौनों से खेला है। कभी गुडियाएं
टूट गयी हैं, कभी विवाह रचाते—रचाते नहीं रच पाया है तो बड़े दुख हुए
हैं। कभी बना—बना कर तैयार किया था ताश का महल, हवा का झोंका
आया है और गिरा गया है, तो बच्चे की आंखों से झर—झर आंसू झरे
हैं, ऐसे आंसू उसको भी झरे थे। वह जानता है। वह पहचानता है।
वह भलीभांति तुम्हारे दुख में सहानुभूति रखता है। लेकिन फिर भी हंसी तो उसे आती है,
क्योंकि बात तो झूठी है। है तो सपना ही। भला तुम्हारे सामने हंसे न;
सौजन्यतावश, सज्जनतावश तुम्हें थपथपाये भी;
तुमसे कहे भी कि बड़ा बुरा हुआ, होना नहीं था—लेकिन
भीतर हंसता है।
जैसे कि तुम छोटे बच्चे को समझाते हो कि’घबड़ा मत, टांग भला टूट गयी, गुड़िया की आत्मा अमर है, घबड़ा मत! गुड़िया परमात्मा के घर चली गयी, देख प्रभु
की गोद में बैठी है, कैसा मजा कर रही है!' तुम समझाते हो। तुम कहते हो,’दूसरी गुड़िया ले आयेंगे।
घबड़ा मत। रो मत। चीख— पुकार मत मचा। कुछ भी नहीं बिगड़ा है। सब ठीक हो जायेगा।’ समझाते
हो। थपथपाते हो। फिर भी भीतर तुम जानते हो, एक खेल तुम्हें
भी खेलना पड रहा है।
जब बुद्धपुरुष तुम्हारे दुख में तुम्हें सहानुभूति
दिखलाते हैं तो एक नाटक है, एक अभिनय है—सौजन्यतावश। तुम्हें
बुरा न लगे। तुम्हें पीड़ा न हो। लेकिन साथ—साथ चेष्टा करते रहते हैं कि तुम भी
जागो। क्योंकि असली घटना तो तभी घटेगी दुख के बाहर होने की, जब
तुम जानोगे कि सब दुख—सुख छाया हैं, माया हैं।
चौथा प्रश्न :
मुझे लगता है कि जैसे—जैसे सजगता बढ़ती है वैसे—वैसे
संवेदनशीलता भी बढ़ती है, जिसे मैं बिलकुल भी सह नहीं
पाती हूं। कृपाकर मार्गदर्शन करें।
नयनहीन को राह दिखा प्रभु,
चलत—चलत गिर जाऊं मैं!
निश्चित ही जैसे—जैसे सजगता बढ़ेगी, संवेदनशीलता भी बढ़ेगी। साधारणत: तो हम एक तरह की धुंध में रहते हैं—बेहोश,
मूर्च्छित। जैसे एक आदमी शराब पीए पड़ा है नाली में, तो उसे नाली की बदबू थोड़े ही आती है। तुम्हें लगता है कि नाली में पड़ा है
बेचारा। मगर वे तो बड़े मजे से पड़े हैं। हो सकता है कि सपना देख रहे हों, महल में विश्राम कर रहे हैं। कि राष्ट्रपति हो गए हैं, दरबार लगाए बैठे हों!
तुम्हें लगता है कि कीचड़ में, बदबू में पड़ा है। मुंह में कीचड़ चली जा रही है। नाक के पास नाली बह रही है।
बड़ी दुर्गंध इसे आती होगी। लेकिन वह बेहोश पड़ा है। दुर्गंध वगैरह आने के लिए थोड़ा
होश चाहिए। हां, सुबह जब आंख खुलेगी उसकी और होश आएगा,
तो झाड—झकाडू कर भागेगा घर; स्नान— ध्यान करके,
चंदन—मंदन लगा कर, पूजा—पाठ करके तैयार हो कर
बैठकखाने में बैठ जाएगा। तब तुम उससे कहो कि जरा नाली में चल कर लेट जाओ, असंभव हो जाएगा। क्योंकि अब सब इंद्रियां सजग होंगी।
ऐसी ही घटना घटती है। जैसे—जैसे सजगता बढ़ती है, तुम्हारे जीवन की बहुत—सी नालियां जिनको तुम अब तक स्वर्ग समझ कर जी रहे
थे, दुर्गंधयुक्त हो जाती हैं। बहुत—से सुख जिन्हें तुम अब
तक सुख समझते थे, दुख जैसे मालूम होने लगते हैं, चुभने लगते हैं। इसलिए सजगता बढ़ने के साथ एक उपद्रव बढ़ता है। वह उपद्रव है
कि आदमी बहुत संवेदनशील, कोमल हो जाता है। एक गहन कोमलता उसे
घेर लेती है।
लेकिन यह मार्ग पर ही है बात। जैसे —जैसे सजगता
परिपूर्णता पर पहुंचती है, पहले आदमी की जड़ता टूटती है,
संवेदनशीलता बढ़ती है। फिर एक ऐसी घड़ी आती है—सजगता की आखिरी छलांग—जब
जाग इतनी गहन हो जाती है कि शरीर और मन दूर हो जाते हैं। फिर कोई संवेदनशीलता कष्ट
नहीं देती, दुख नहीं देती। बोध तो होता है। अगर बुद्ध को
काटा लगेगा तो तुमसे ज्यादा बोध होता है। क्योंकि बुद्ध का बोध प्रगाढ़ है।
तुम्हारा बोध तो कुछ भी नहीं है।
देखा कभी हाकी के मैदान पर खेलते—खेलते खिलाड़ी के
पैर में चोट लग गई, खून बह रहा है, मगर वह खेलता चला जाता है! उसे पता नहीं। सब देखने वालों को दिखाई पड़ रहा
है कि पैर से खून बह रहा है, खून की कतार बन गई है मैदान पर।
उसे पता नहीं है। वह खेल में मस्त है, बेहोश है। होश कहां
उसे अपने शरीर का! जैसे ही खेल बंद होगा, रेफरी की सीटी
बजेगी, तत्क्षण दुख होगा, दर्द होगा,
बैठ जाएगा पैर पकड़ कर। कहेगा कि हाय, पता नहीं
कब से चोट लगी है! अब उसे दुख होगा। इतनी देर भी दुख तो था, लेकिन
बोध नहीं था।
तो पहली दफा जब तुम्हारे जीवन में ध्यान आएगा तो
बहुत—सा बोध आएगा। उस बोध के साथ—साथ जो—जो गलत तुम अब तक कर रहे थे, उस सबकी संवेदनशीलता आएगी। जरा—सा तुम
क्रोध
करोगे और तुम्हारे प्राण कैप जाएंगे। जरा—सी तुम ईर्ष्या करोगे और जहर फैल जाएगा।
जरा—सी तुम घृणा करोगे और तुम अनुभव करोगे जैसे अपनी ही छाती में छुरा भोंक लिया।
तो कठिन होगा। लेकिन इस कठिनाई से भागना मत और घबराना मत।
हृदय
छोटा हो तो शोक वहां नहीं समाएगा।
और
दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा।
टीस
उसे उठती है जिसका भाग्य खुलता है।
वेदना
गोद में उठा कर सबको निहाल नहीं करती।
जिसका
पुण्य प्रबल होता है, वही अपने आंसुओ से धुलता है।
दर्द तो बढ़ेगा, पीड़ा बढ़ेगी,
बोध बढ़ेगा। लेकिन यह संक्रमण में होगा। एक घड़ी आएगी, छलांग लगेगी। सौ डिग्री पर जैसे पानी भाप बन जाता है और और छलांग लग जाती
है—ऐसे सौ डिग्री पर जब होश आता है, एक छलांग लग जाती है।
तत्क्षण तुम पाते हो कि तुम्हारा शरीर और मन पीछे छूट गया। सब सुख—दुख वहीं थे,
इंद्रियों में थे। अब तुम पार हो गए। तुम दूर हो गए। अब तुम्हारा
सारा तादात्म्य समाप्त हो गया।
लेकिन इस घड़ी के आने के पहले बोध के साथ—साथ दुख भी
बढ़ेगा।
संस्कृत में बड़ा प्यारा शब्द है: वेदना। उसके दोनों
अर्थ होते हैं : दुख और बोध।’वेद' उसी धातु से बना है जिससे’वेदना'। वेद का अर्थ होता है : ज्ञान, बोध।’वेदना' का अर्थ होता है : ज्ञान, बोध। और दूसरा अर्थ होता
है: दुख, पीड़ा।
संस्कृत बहुत अनूठी भाषा है। उसके शब्दों का
विश्लेषण बड़ा बहुमूल्य है। क्योंकि जिन्होंने उस भाषा को रचा है, बहुत जीवन की गहन अनुभूतियों के आधार पर रचा है। जैसे—जैसे बोध बढ़ता है,
दुख बढ़ता है। अगर दुख के बढ़ने से घबरा गए तो एक ही उपाय है: बोध को
छोटा कर लो। वही तो हम करते हैं। सिर में दर्द हुआ, एस्प्रो
ले लो! एस्प्रो करेगी क्या? दर्द को थोड़े ही मिटाती है,
सिर्फ बोध को क्षीण कर देती है, तंतुओं को
शिथिल कर देती है, तो दर्द का पता नहीं चलता। ज्यादा तकलीफ
है, पत्नी मर गई, शराब पी लो! दिवाला
निकल गया, शराब पी लो। बोध को कम कर लो, तो वेदना कम हो जाएगी।
बहुत—से लोगों ने यही खतरनाक तरकीब सीख ली है। जीवन
में दुख बहुत है, उन्होंने बोध को बिलकुल नीचा कर
लिया है : न होगा बोध, न होगी पीड़ा। लेकिन यह बड़ा महंगा सौदा
है। क्योंकि बोध के बिना तुम्हारा बुद्धत्व कैसे फलेगा, तुम्हारा
फूल कैसे खिलेगा? कैसे बनोगे कमल के फूल फिर? यह सहस्रार अनखुला ही रह जाएगा।
घबड़ाओ मत, इस पीड़ा को
स्वीकार करो। इस पीड़ा की स्वीकृति को ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। तपश्चर्या मेरे
लिए यह अर्थ नहीं रखती है कि तुम उपवास करो, धूप में खड़े रहो,
पानी में खड़े रहो—उन मूढताओं का नाम तपश्चर्या नहीं है। तपश्चर्या
का इतना ही अर्थ है : बोध के बढ़ने के साथ वेदना बढ़ेगी, उस
वेदना से डरना मत; उसे स्वीकार कर लेना कि ठीक है, यह बोध के साथ बढ़ती है। थोड़े दूर तक बोध के साथ वेदना बढ़ती रहेगी। फिर एक
घड़ी आती है, बोध छलांग लगा कर पार हो जाता है, वेदना पीछे पड़ी रह जाती है। जैसे एक दिन सांप अपनी पुरानी केंचुली के बाहर
निकल जाता है, ऐसे एक दिन वेद वेदना की केंचुली के बाहर निकल
जाता है। बोध वेदना के पार चला जाता है।
लेकिन मार्ग पर पीड़ा है। उसे स्वीकार करो। उसे इस
तरह स्वीकार करो कि वह भी उपाय है तुम्हारे बोध को जगाने का।
तुमने कभी खयाल किया, जब तुम
सुख में होते हो, भगवान भूल जाता है; जब
तुम दुख में होते हो, तब याद आता है! तो दुख का भी कुछ उपयोग
है।
सूफी फकीर हुआ बायजीद। वह रोज प्रार्थना करता था, वह कहता था,’सब करना प्रभु, थोड़ा
दुख मुझे दिये रहना। सुख ही सुख में मैं भूल जाऊंगा। तुम्हें मेरा पता नहीं है।
सुख ही सुख में मैं निश्चित भूल जाऊंगा। तुम इतना ही सुख मुझे देना जितने में मैं
भूल न सकु बाकी तुम दुख को देते रहना।’
यह बायजीद ठीक कह रहा है। यह कह रहा है: दुख रहेगा
तो जागरण बना रहेगा। सुख में तो नींद आ जाती है। सुख में तो आदमी सो जाता है।
व्यर्थ
कोई भाग जीवन का नहीं है
व्यर्थ
कोई राग जीवन का नहीं है।
बांध
दो सबको सुरीली तान में तुम,
बांध
दो बिखरे सुरों को गान में तुम।
दुख भी अर्थपूर्ण है। उसका भी सार है। वह जगाता है।
जिस दिन तुमने यह देख लिया कि दुख जगाता है, उस दिन तुम दुख
को भी धन्यभाग से स्वीकार करोगे। उस दिन तुम्हारे जीवन में निषेध गिर जायेगा। अब
तो तुम काटो को भी स्वीकार कर लोगे, क्योंकि तुम जानते हो
काटो के बिना फूल होते नहीं। यह गुलाब का फूल काटो के साथ—साथ है। यह बोध का फूल
वेदना के साथ—साथ है।
पांचवां प्रश्न :
जीवन का सत्य यदि अद्वैत है, तो फिर द्वैत क्यों है?
एक
जगत रूपायित प्रत्यक्ष
एक
कल्पना संभाव्य
एक
दुनिया सतत मुखर
एक
एकांत निस्लर
एक
अविराम गति उमंग
एक
अचल निस्तरंग
दो
पाठ, एक ही काव्य।
दो नहीं है। दो पाठ हैं—काव्य एक ही है।
सत्य तो एक ही है। सोये—सोये देखो तो संसार मालूम
पड़ता है। जाग कर देखो, परमात्मा मालूम पड़ता है। संसार और
परमात्मा ऐसी दो चीजें नहीं हैं। सोये हुए आदमी ने जब परमात्मा को देखा तो संसार
देखा और जागे हुए आदमी ने जब संसार देखा तो परमात्मा को देखा।
जागा हुआ आदमी कहता है: संसार नहीं है, परमात्मा है। सोया हुआ आदमी कहता है : कहां है परमात्मा? संसार ही संसार है।
ये दो दृष्टियां हैं; सत्य तो
एक है। दो पाठ, एक ही काव्य!
आखिरी प्रश्न :
मुझे लगता है कि मैं आपको चूक रहा हूं। यह समझ में
नहीं आता कि मैं क्या करूं कि आपको न चूक। आप गहन से गहन होते जा रहे हैं और मैं
पाता हूं कि मैं इस गहनता के लिए तैयार नहीं हूं। क्या मैं ऐसे ही हाथ मलता रह
जाऊंगा?
चूकने न चूकने की भाषा ही लोभ की
भाषा है। लोभ छोड़ो। मेरे साथ उत्सव में सम्मिलित रहो। 'चूक जाऊंगा'—इसका मतलब हुआ कि तुम लोभ की भाषा से
देख रहे हो। सब सम्हाल लूं सब मिल जाए, सब पर मुट्ठी बांध
लूं सब मेरी तिजोरी में हो जाए; धन भी हो वहां, ध्यान भी हो वहां; संसार भी हो, परमात्मा भी हो—ऐसा लोभ तुमने अगर रखा तो निश्चित चूक जाओगे। चूकोगे—लोभ
के कारण। यह चूकने न चूकने की भाषा छोड़ो।
यहां मैं तुम्हें कुछ दे नहीं रहा हूं। यहां मैं
तुमसे कुछ छीन रहा हूं। और यहां मैं तुम्हें कुछ ज्ञान देने नहीं बैठा हूं। तुम
मेरे साथ उत्सव में थोड़ी देर सम्मिलित हो जाओ, मेरे साथ
गुनगुना लो। तुम थोड़ी दूर मेरे साथ चलो। दो कदम मेरे साथ चल लो, बस इतना काफी है।
तुम्हें एक दफा स्वाद लग जाए परम का, फिर कोई भय नहीं है। फिर मैं यहां रहूं न रहूं—कोई चिंता नहीं है। मेरे
रहते तुम्हें थोड़ा—सा स्वाद लग जाए।
तो तुम यह चूकने, खोने
इत्यादि की बातें छोड़ो। इनमें तुम उलझे रहे तो तुम मेरे उत्सव में सम्मिलित न हो
पाओगे। चाह तो ठीक है, लेकिन लोभ से जुड़ी है, इसलिए गलत हुई जा रही है। चाहतीं किरणें धरा पर फैल जाना
चाहतीं
कलिया चटख कर महमहाना
फूल
से हर डाल सजना चाहती है
प्राण
की यह बीन बजना चाहती है।
चाहतीं
चिड़िया वसती गीत गाना
पत्तियां
संदेश मधु ऋतु का सुनाना
वायु
ऋतुपति नाम भजना चाहती है
प्राण
की यह बीन बजना चाहती है।
ठीक है, भाव तो बिलकुल
ठीक है। सिर्फ लोभ की दृष्टि से उसे मुक्त कर लो।
इसी क्षण मैं यहां हूं तुम भी मेरे साथ रहो। यह
हिसाब—किताब मन में मत बांधो कि सम्हाल लूं यह पकड़ लूं यह पकडूं न पकडुं यह समझ
में आया कि नहीं आया। छोड़ो, समझ इत्यादि का कोई सवाल नहीं है।
उत्सव, महोत्सव में सम्मिलित हो जाओ! तुम मेरे साथ सिर्फ
बैठो। तुम सिर्फ मेरे साथ हो रहो, सत्संग होने दो! थोड़ी देर
को तुम मिट जाओ। यहां तो मैं नहीं हूं, अगर वहां तुम थोड़ी
देर को मिट जाओ......। वह लोभ न मिटने देगा। वह लोभ खड़ा रहेगा कि कैसे पकडुं कैसे
इकट्ठा करूं। थोड़ी देर को तुम मिट जाओ! तुम कोरे और शून्य हो जाओ। उसी क्षण जो भी
मैं हूं उसका स्वाद तुम्हें लग जाएगा। और वह स्वाद तुम्हारे ही भविष्य का स्वाद है।
पूरी धरती पर फैला ली
बांहें
इन
बांहों में आकाश नहीं आया
हर
परिचय को आवाज लगा ली है
सुन
कर भी कोई पास नहीं आया
मील के पत्थर लगे हैं, किंतु अक्षर मिट गए
कौन
से पूछें कि अपना गांव कितनी दूर है!
मील
के पत्थर लगे हैं, किंतु अक्षर मिट गए
कौन
से पूछें कि अपना गांव कितनी दूर है!
भोर
होते ही चले थे, अब दुपहरी हो रही
कौन
से पूछें कि शीतल छाव कितनी दूर है!
धूल
मस्तक से लगा मिलती दिशा गंतव्य की
कौन
से पूछें कि पावन पांव कितनी दूर हैं!
मैं यहां मौजूद हूं। तुम्हें किसी से पूछने की कोई
जरूरत नहीं है। मुझसे भी पूछने की कोई जरूरत नहीं है। सिर्फ मेरे साथ क्षण भर को
गुनगुना लो। मेरे अस्तित्व के साथ थोड़ी देर को रास रचा लो। नहीं चूकोगे। लेकिन अगर
चूकने न चूकने की भाषा में उलझे रहे, तो चूक रहे हो,
चूकते रहे हो और निश्चित ही चूक जाने वाले हो।
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