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शुक्रवार, 15 जून 2018

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-06

प्रवचन—छठवां   ( प्रश्‍न एवं उत्तर)

 बंबईदिनांक 20 फरवरी 1972, रात्रि
पहला प्रश्‍न:

     भगवान, काम-वृत्ति के उदाहरण को ध्यान में रखते हुए कृपया बतलाएं कि अचेतन को प्रत्यक्ष देखने के लिए क्या-क्या प्रयोगिक उपाय हैं और कैसे कोई जाने कि वह उससे मुक्त हो गया है?

      अचेतन वास्तव में अचेतन नहीं है। बल्कि वह केवल कम चेतन है अतः चेतन व अचेतन में विपरीत ध्रुवों का भेद नहीं है, बल्कि मात्राओं का भेद है। अचेतन और चेतन दोनों जुड़े हुए हैं, संयुक्त हैं। वे दो नहीं हैं।

      परन्तु हमारा सोचने का जो ढंग है, वह विशेष तर्क की झूठी पद्धति पर आधारित है जो कि प्रत्येक बात को विपरीत ध्रुवों में बांट देती है। वास्तविकता उस तरह कभी भी बंटी हुई नहीं है केवल तर्क ही उस तरह विभाजित है।

      हमारा तर्क कहता है--हां या नहीं। हमारी लाजिक कहती है--प्रकाश या अंधकार। जहां तक तर्क का संबंध है, उन दोनों में कोई संबंध नहीं है।
और जीवन न तो सफेद है और न काला। बल्कि, वह तो एक बहुत बड़ा विस्तार है भूरे रंग का। एक छोर सफेद हो जाता है, दूसरा छोर काला हो जाता है। और जीवन भूरे रंग का एक बड़ा विस्तार है--भूरे की मात्राओं का। परन्तु तर्क के लिए सफेद और काला दो वास्तविकताएं हैं और उन दोनों के बीच कुछ लेना-देना नहीं। परन्तु जीवन सदैव ही इन दोनों के बीच है। इसलिए वस्तुतः हर एक समस्या को किसी तर्क की समस्या की तरह नहीं समझना चाहिए वरन एक जीवन की समस्या की तरह ही उसे लेना चाहिए। केवल तभी आप उसके साथ कुछ कर सकते हैं। यदि आप इस झूठे तर्क से बहुत अधिक चिपके, तो फिर आप किसी भी समस्या को नहीं सुलझा सकेंगे।

      अरस्तू मनुष्य के दिमाग के लिए एक बहुत बड़ी रुकावट सिद्ध हुआ, क्योंकि उसने एक पद्धति का सृजन किया, जो कि सारी दुनिया पर छा गई जिसने कि प्रत्येक वस्तु को दो विरोधों में बांट दिया। सचमुच, यह एक विचित्र तथ्य है। हमारे पास कुछ भी नहीं है वास्तविकता के बीच में--यहां तक कि शब्द भी नहीं हैं।

      डी बोनो एक आधुनिक तर्कशास्त्री, जो कि अरस्तू की तरह नहीं है, उसने एक नए शब्द की रचना की है--पो। वह कहता है कि हमारे पास केवल दो शब्द है--हां या ना और कोई भी बीच का तटस्थ शब्द नहीं है। हां एक विरोध है और ना दूसरा। कोई तटस्थ शब्द नहीं है। इसलिए उसने एक नया शब्द बनाया पो, जिसका मतलब है कि न तो मैं पक्ष में हूं और न विपक्ष में हूं। यदि आप कुछ भी कहें और मैं कहूं तो पो, तो उसका अर्थ हुआ--मैंने आपकी बात सुन ली है। न तो मैं पक्ष में हूं, और न विपक्ष में हूं। मैं कोई निर्णय नहीं करता। और पो कहने का अर्थ होता है--शायद तुम ठीक हो, शायद तुम गलत हो। दोनों बात संभव हैं।
     
      अथवा पो शब्द के प्रयोग का अर्थ है कि यह भी एक दृष्टिकोण है। मुझे हां के अथवा ना के पक्ष के होने की कोई आवश्‍यकता नहीं। यह कोई बाध्यता नहीं।
     
      डी बोनो ने यह हाइपोथेसिस (अनुमान) अथवा पोटैन्शलिटी ; (संभावना) जैसे शब्दों से निकाला है। यह पो शब्द एक तटस्थ शब्द है जो कि किसी प्रकार का निर्णय, निंदा अथवा संबंध नहीं बतलाता। जरा इस शब्द का उपयोग कर के देखें और आपको इसके भेद का पता चल जाएगा। आप किसी विपरीत ध्रुव वाले बिंदु पर नहीं जाएंगे।

      अतः जब मैं चेतन और अचेतन कहता हूं, तो मेरा मतलब फ्रायड के विरोध से नहीं है। फ्रायड के लिए चेतन-चेतन है, और अचेतन अचेतन। तब दोनों के बीच काले और सफेद, हां और ना, जीवन और मृत्यु का भेद है। जब मैं कहता हूं अचेतन, तो मेरा मतलब है कम चेतन। और जब मैं कहता हूं चेतन, तो मेरा मतलब है कम अचेतन। वे दोनों एक दूसरे पर गिरते हुए हैं।

      इसलिए क्या करें अचेतन का सामना करने के लिए? जहां तक फ्रायड का संबंध है, यह सामना असंभव है क्योंकि वह अचेतन है। आप उसका सामना कैसे कर सकते हैं? यह प्रश्‍न ऐसा ही है जैसे कि कोई पूछे--अंधकार में कैसे देखें? यह प्रश्‍न ही असंगत है, अर्थहीन है। यदि आप ऐसा प्रश्‍न पूछते हैं कि अंधकार में कैसे देखें और मैं जवाब देता हूं कि प्रकाश के द्वारा, तो फिर प्रश्‍न का उत्तर बिलकुल नहीं दिया गया।

      आपने पूछा है--अंधकार में कैसे देखें, और यदि प्रकाश है तो फिर अंधकार नहीं है। आप प्रकाश में देख रहे हैं।

      अतः अंधकार में वस्तुतः कोई नहीं देख सकता, जब तक कि हमारा मतलब यह नहीं हो कि देखना संभव नहीं है। क्या मतलब होता है आपका, जब आज कहते हैं अंधकार? आपका अर्थ होता है कि देखना संभव नहीं है। जब आप कहते हैं प्रकाश, तब आपका क्या अर्थ होता है। आपका अर्थ होता है कि अब चीजें देखी जा सकती हैं। वास्तव में, प्रकाश आपने कभी नहीं देखा: आपने वस्तुओं में प्रकाश को प्रति बिम्बित होते देखा है, जिन्हें कि आप देख सकते हैं। अपने प्रकाश को कभी नहीं देखा है। कोई भी नहीं देख सकता है।

      हम केवल वस्तुएं देखते हैं, न कि प्रकाश, और चूंकि वस्तुएं देखी जा सकती हैं, हम अनुमान लगाते हैं, मतलब लेते हैं प्रकाश से।

      आपने अंधकार नहीं देखा है किसी ने भी नहीं देखा है। सचमुच, अंधकार भी मात्र एक अनुमान है, क्योंकि उसमें कुछ भी नहीं देखा जा सकता। आप कहते हैं, अंधकार है। अतः जब कोई पूछता है--अंधकार में कैसे देखें? तो ये शब्द अर्थपूर्ण दिखलाई पड़ते हैं, परन्तु वे हैं नहीं। भाषा बड़ी प्रवंचनात्मक है और जब कि  उसका उपयोग करने में सावधानी नहीं बरतें। तब तक वह किसी भी समस्या के भाषा को लेकर होती हैं।

      यदि आप नहीं जानते कि भाषा के जाल में कैसे प्रवेश करें, तो आप किसी भी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं कर सकेंगे।

      फ्रायड से पूछें कि अचेतन का सामना कैसे करें और वह कहेगा, यह मूर्खतापूर्ण बात है आप उसका सामना नहीं कर सकते। यदि आप उसका सामना करते हैं, तो वह चेतन हो जाता है क्योंकि सामना करना एक चेतन घटना है। यदि आप मुझसे पूछते हैं कि अचेतन का सामना कैसे करें, तो मैं कहूंगा--हां, ऐसे, तरीके हैं जिनसे उसका सामना किया जा सकता है। मेरे लिए, पहली बात जो कि ध्यान रखनी है वह है कि चेतन का मतलब है सिर्फ कम चेतन। यदि आप अधिक चेतन हो जाते हैं, तो आप उसका सामना कर सकते हैं। यह उस पर निर्भर करता है।
दूसरी बात, अचेतन और चेतन कोई बंधी हुई सीमाएं नहीं हैं। वे हर क्षण बदलती रहती हैं, जैसे कि हमारी आंख की पुतलियां। वे लगातार बदल रही हैं। यदि अधिक प्रकाश है, तो वे संकीर्ण हो जाती हैं। यदि कम रोशनी है, तो वे चौड़ी हो जाती हैं। वे निरंतर बाहर के प्रकाश के साथ एक संतुलन बना रही हैं। आपकी आंख वास्तव में, कोई ठहरी हुई स्थिर वस्तु नहीं है, वह लगातार बदल रही है। उसी तरह, आपकी आंख की तरह ही चेतना का घटनाचक्र भी संगति रखता है, क्योंकि चेतना आपकी अंतर्चक्षु है, आत्मा की आंख है।

      अतः आपकी आंख की भांति ही, आपकी चेतना लगातार बढ़ रही है, अथवा सिकुड़ रही है। यह सब निर्भर है एक-दूसरे पर।

      उदाहरण के लिए, यदि आप क्रोध में हैं, तो आप ज्यादा अचेतन हो जाते हैं। अचेतन की स्थिति अब अधिक है, और आपका जरा सा हिस्सा ही चेतन है। यहां तक कि वह हिस्सा भी कभी-कभी नहीं होता, और आप पूरे के पूरे ही अचेतन हो जाते हैं। मान लें आप अकस्मात दुर्घटना-ग्रस्त हो जाते हैं। आप सड़क पर जा रहे हैं और अचानक आपको लगता है कि दुर्घटना होने वाली है, आप उसके कगार पर ही हैं, तो आप चेतन हो जाते हैं, और तक कोई अचेतन नहीं होता। पूरा का पूरा मन ही चेतन हो जाता है। यह परिवर्तन लगातार हो रहा है।
     
      इसलिए जब मैं कहता हूं, चेतना और अचेतन, तो मेरा मतलब किसी पक्की सीमा रेखा से नहीं है। ऐसा कोई सीमाएं नहीं हैं। वह एक सतत परिवर्तित होता हुआ घटनाचक्र है। यह आप पर निर्भर आता है कि आप कम चेतन हैं या अधिक चेतन। आप चेतना निर्मित कर सकते हैं। आप अपने को प्रशिक्षित व अनुशासित कर सकते हैं ज्यादा चेतना के लिए या कम चेतना के लिए। यदि आप अपने को कम चेतना के लिए प्रशिक्षित करते हैं, तो आप चेतन का कभी प्रत्यक्षीकरण न कर सकेंगे। सचमुच, आप चेतन को जानने या उसे प्रत्यक्ष देखने के लिए अयोग्य हो जाएंगे।

      जब किसी ने कोई मादक पदार्थ लिया है, तो वह अपने मन को पूर्णतः अचेतन होने का प्रशिक्षण दे रहा है। वही होता है, जब आप नींद में जाते हैं। आपको सम्मोहित किया जा सकता है, अथवा आप स्वयं अपने को सम्मोहित कर सकते हैं और तब अपनी चेतना को खाते हैं। बहुत सी तरकीबें हैं, और उनमें बहुत सी तरकीबें, जो कि आपको अधिक मूर्च्‍छित होने में सहायक होती हैं, धार्मिक रीति-रिवाज समझी जाती हैं। यदि आप कोई भी उबाने वाला काम--दोहरायी जाने वाली चीज करें--जैसे कि यदि आप लगातार राम, राम, राम शब्द का उच्चारण बड़े ही उबाने वाले ढंग से करें--तो वह मात्र आत्म-सम्मोहन होगा। आप नींद में चले जाएंगे वह नींद के लिए ठीक उपाय है। जब आप ऊब में होंगे, तब आप कम चेतन होंगे, क्योंकि एक ऊबा हुआ मन सजग नहीं हो सकता। ऊब बहुत अधिक है, और मन सोना चाहेगा। प्रत्येक माता जानती है कि आपने बच्चे को कैसे सुलाए। एक लोरी कुछ और नहीं करती वरन एक ऊब, एक बोरडम पैदा करती है। हर माता जानती है कि बच्चे को कैसे सुलाया जाए: एक लोरी सुना करवही शब्द बार-बार दोहरा कर--उससे बच्चा बोर हो जाता है, और वह सो जाता है। यह लोरी हलन-चलन से भी पैदा की जा सकती है, किसी भी ची से पैदा की जा सकती है जो कि ऊबाने वाली है। बच्चे को हिला-डुला
कर ऊबा दो, उसको इतना घुमाओ कि वह ऊब जाए, और वह सो जाएगा, क्योंकि वह ऊब गया। यहां तक कि यदि आप हृदय के पास भी उसका सिर रखें, तो भी वह सो जाएगा, क्योंकि आपके दिल की धड़कन भी बहुत ही उबाने वाली चीज है। अतः बच्चे को अपने दिल के पास रखो, और वह ऊब महसूस करेगा आपके दिल की लगातार हो रही धड़कन के मारे, जो कि निरंतर दोहराई जा रही है।

      बच्चा अच्छी तरह से उसे जानता है, क्योंकि पूरे नौ महीने उसने सतत उसे सुना है। बूढ़े भी घड़ी की टिक-टिक का उपयोग सोने के लिए कर सकते हैं। और उसका कारण हृदय की धड़कन ने उसका मिलता हुआ होना है। यदि आपको लगे कि नींद नहीं आ रही है, तो घड़ी पर चित्त एकाग्र करें, टिक-टिक को महसूस करें और जल्दी ही आप नींद में गिर जाएंगे।

      अब मूच्र्छा उत्पन्‍न कर सकते हैं ऊब पैदा कर के। कोई मादक-द्रव्य ले कर, कोई नींद की दवा ले कर, या कोई शांत करने वाली दवाई खा कर, आप मूच्र्छा पैदा करते हैं। सजगता भी पैदा की जा सकती है, परन्तु तब बिलकुल भिन्‍न ही विधियां उपयोग में लानी होंगी।

      सूफी रहस्यवादी बहुत तेज घूमते हुए नृत्य का उपयोग करते हैं। आप इतनी तीव्रता से घूम रहे होते हैं कि आप सो नहीं सकते। कैसे आप सो सकते हैं, जब कि आप नाच रहे हैं। कोई जो कि तुम्हारा नृत्य देख रहा है, वह सो सकता है। उसके लिए वह उबाने वाली बात हो सकती है। परन्तु तुम नहीं सो सकते। इसलिए सूफी नाच का उपयोग करते हैं। अपने भीतर अधिक स्फूर्ति उत्पन्‍न करने के लिए, अपने भीतर अधिक शक्ति के लिए ताकि चेतना फैले, बढ़े!
     
      वे नृत्य, वास्तव में, नृत्य नहीं है। ये नृत्य की तरह लगते हैं। सूफी, जो कि नृत्य कर रहा है, वह सतत शरीर की हरकतों को स्मरण रख रहा है। कोई भी गति मूच्र्छा में नहीं करनी है। यहां तक कि यदि हाथ भी उठे, तो यह हाथ भी आपके इस पूरे होश कि आप इस हाथ को उठा रहे हैं। अब इस हाथ को उठा रहे हैं या अब इस हाथ को नीचे गिर रहे हैं। कोई भी हरकत बेहोशी, मूच्र्छा की हालत में नहीं होनी चाहिए। जोरों से घूमते हुए, तीव्रता से नृत्य करते हुए, किसी प्रकार की गति मूर्च्‍छित नहीं करनी है। हर एक गति होशपूर्वक करनी है, पूर्ण सजगता के साथ। तब अचानक अचेतन गिर जाता है, और लगातार तीन महीने घंटों नृत्य कर के आप अचेतन का सामना कर सकते हैं। आप गहरे, गहरे और गहरे उतर जाएं और अचानक आप उस सब के प्रति सजग हो जाते हैं, जो कि आपके भीतर है।
     
      यही मेरा मतलब है अचेतन से सामना करने से। कुछ भी नहीं बचता जो कि स्पष्ट दृष्टि में न आए: आपकी समग्रता--आपकी वृत्तियां, आपके दमन, आपका सारा जैविक ढांचा, सब कुछ--इस जीवन का ही नहीं, परन्तु सब जीवनों का--अचानक प्रकट हो जाता है। आप एक नए ही जगत में फेंक दिए जाते हैं, जो कि छिपा हुआ था या जिसके प्रति आप सजग नहीं थे। वह वहां था, परन्तु आप सोए हुए थे अथवा आपकी चेतना इतनी सिकुड़ी हुई थी कि वह बच जाती थी।
     
      हमारी चेतना एक संकीर्ण की हुई टार्च की भांति है। आप यह टार्च लेकर चेतना में प्रवेश कर सकते हैं। आपके पास प्रकाश है, परन्तु यह संकीर्ण की हुई रोशनी है। आप कुछ देख सकते हैं, पर बाकी सारा अंधकार में ढंका हुआ ही रहता है। जब मैं कहता हूं कि कुछ भी अचेतन नहीं बचता, तो मेरा मतलब है--अनफोकस्ड लाइट; संकीर्ण न की गई रोशनीवद्ध एक फोकस की हुई रोशनी सदैव कोई न कोई एक वस्तु देखने के लिए चुन लेगी और बहुत सी चीजें नहीं देखने के लिए चुन ली जाएंगी। यह एक चुनाव है। इसीलिए मैं इस उपमा का उपयोग करता हूं--टार्च की भांति, जो कि संकीर्ण कर ली गई हो। एक बिंदु बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा, और बाकी सब कुछ अंधकार में रह जाएगा। यही मतलब है हमारा एकाग्रता से, कंसेन्टंशन से।
     
      जितने अधिक आप एकाग्र-चित्त होते हैं, उतना ही कम आप अचेतन का सामना कर पाते हैं। आप कुछ के बारे में बहुत ठीक प्रकार से, निश्‍चित जान पाते हैं, बहुत सी बातों के संबंध में न जानने की कीमत पर।

      इसीलिए, विशेषज्ञ धीरे-धीरे अज्ञानी होते जाते हैं, सारे संसार के प्रति अज्ञानी: क्योंकि उन्होंने अपने दिमागो को संकीर्ण कर लिया है--एक विशेष चीज के लिए, उसके बारे में अधिक से अधिक जान कर। ऐसा कहा जाता है कि विशेषज्ञ वह है जो कि कम से कम के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानते हो और ज्यादा से ज्यादा के बारे में कम से कम। अंततः केवल एक बिंदु के बारे में वह जान जाता है, बाकी सब चीजों के बार में अज्ञानी होने की कीमत पर। इस तरह कार्य करती है एकाग्रता। एकाग्रता से आप कभी अचेतन के समक्ष नहीं हो सकते। आप केवल ध्यान से ही अचेतन का सामना कर सकते हैं और यही भेद है एकाग्रता में और ध्यान में। ध्यान का अर्थ है कि आपका मन टार्च की भांति नहीं, बल्कि लैंप की तरह काम कर रहा है प्रत्येक वस्तु आपके चारों तरफ प्रकाशित हो गई, प्रत्येक चीज। यहां रोशनी संकीर्ण नहीं की गई। प्रकाश को फैला दिया गया--वह सब दिशाओं में बढ़ रहा है। वह सब दिशाओं में चुपचाप गति कर रहा है।
सब का सब प्रकाश से भर गया है।

      सब कुछ आलोकित हो गया है। कैसे करें इसे? मैंने कहा सूफी लोग नृत्य का उपयोग करते हैं सक्रिय ध्यान के लिए और तब फिर वे अचेतन का सामना करते हैं। जापान में झेन फकीर बड़ी अर्थहीन समस्याएं काम में लाते हैं अचेतन का सामना करने के लिए। आप कुछ ऐसी समस्याओं का सामना करते हैं, जिन्हें कि आप कभी सुलझा नहीं सकते। आप कितनी ही कोशिश करें, परन्तु समस्या ही ऐसी है कि सुलाझाई ही नहीं जा सकती। ये अर्थहीन, एब्सर्ड समस्याएं हैं।
उदाहरण के लिए, वे किसी साधक से कहेंगे, पता लगाओ कि तुम्हारा असली चेहरा कौन सा है? और असली चेहरे से उनका अर्थ है उस चेहरे से जो कि तुम्हारा चेहरा था जन्म के पहले अथवा जो कि तुम्हारा चेहरा होगा मृत्यु के बाद--असली चेहरा! वे कहेंगे--खोजो कि तुम्हारा असली चेहरा कैसा दिखलाई पड़ता है।

      आप कैसे पता लगा सकते हैं? उस पर ध्यान करना होगा। समस्या ऐसी है कि आप उसे बुद्धि से तर्क सके नहीं सुलझा सकते। आप तर्क से उसका समाधान नहीं कर सकते आपको उस पर सोचना पड़ेगा, ध्यान करना पड़ेगा। आपको उस पर ध्यान करते जाना होगा और खोजते जाना होगा कि आपका वास्तविक, मूल चेहरा क्या है। गुरु वहां पर अपना डंडा लिए हुए होगा और वह चारों और देखता हुआ घूमता रहेगा कि कोई सो तो नहीं गया है, आप सोएंगे और तभी गुरु का डंडा आपके सिर पर पड़ेगा। आप सो नहीं सकते। निद्रा वहां पर बिलकुल भी नहीं आने दी जाएगी। आपको सतत जागते रहना पड़ेगा।

      इसलिए एक झेन गुरु बड़ा सख्त होता है। आपको उसके समक्ष ध्यान करना होता है और वह आपको नींद में नहीं जाने देगा, क्योंकि जिस क्षण आप नींद में गिरने को होते हैं, वही तो क्षण है जब आप अचेतन को आमने-सामने देख सकते हैं। उस क्षण यदि आप नींद के बाहर रह सकें। तो अचेतन वास्तविक रूप में सामने होगा: क्योंकि यही रेखा है, जहां से आप नींद में प्रवेश करते हैं और जहां आप अचेतन को प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

      आप रोज सोते हैं, परन्तु आपने कभी नींद का सामना नहीं किया है। आपने उसे देखा नहीं है--क्या है वह, कैसे वह आती है, आप उसमें कैसे गिरते हैं। आपने इसके बारे में कभी भी नहीं जाना है। आप उसमें रोज गिरते हैं, रोज ही उससे बाहर निकलते हैं, परन्तु आपने कभी अनुभव नहीं किया कि जिस क्षण नींद चित्त पर छाती है, तब क्या होता है। इसलिए इस पर प्रयोग करें, और तीन महीने के प्रयास अचानक आप किसी दिन अचेतन नींद में प्रवेश करेंगे। अपने बिस्तर पर लेट जाए, अपनी आंखें बंद कर लें और तब स्मरण करे कि नींद आ रही है और मुझे जागते हुए रहना है जब नींद आती है। यह बहुत कठिन है, परन्तु यह बड़ा सहायक है। एक दिन यह नहीं होगा, दूसरे दिन भी नहीं होगा। हर रोज प्रयत्न करें, निरंतर याद रखें कि नींद आ रही है और मुझे उसे बिना जाने नहीं देना है। मुझे सजग रहना है जब नींद प्रवेश करती है। मुझे अनुभव करना है कि जब नींद मुझ पर अधिकार करती है, तब कैसा अनुभव होता है।

            एक दिन ऐसा होगा कि नींद होगी, और आप फिर भी जागे हुए होंगे। उसी क्षण आप अपने चेतन के प्रति भी सजग हो जाएंगे। और एक बार आप अपने अचेतन के प्रति जागरूक हो जाएं, तो दिन में फिर आप कभी भी सो नहीं सकेंगे। नींद वहां होगी, परन्तु साथ ही साथ आप जागे हुए भी होंगे। एक केंद्र आपके भीतर जाग रहा होगा। चारों ओर नींद होगी, और केंद्र जाग रहा होगा। जब यह केंद्र जाग रहा होता है, तो फिर स्वप्न असंभव हो जाते हैं। और जब स्वप्न असंभव हो जाते हैं, तो दिवा-स्वप्न भी असंभव हो जाते हैं।

            तब आप भिन्‍न ही अर्थ में सोते हैं और सबेरे एक भिन्‍न ही अर्थ में जागते हैं। एक बिलकुल ही भिन्‍न गुण-धर्म पैदा होता है इस प्रत्यक्षीकरण से।

            परन्तु यह आपको कठिन प्रतीत होगा, अतः मैं आपको सरल तरीका उसे देखने का बतलाता हूं। अपने कमरे के दरवाजे बंद कर दें, और एक बहुत बड़ा दर्पण अपने सामने रख लें। कमरा अंधेरा होना चाहिए। और फिर दर्पण के पास एक हल्की रोशनी का लैंप रख लें इस तरह कि इसकी छाया शीशे में दिखलाई न पड़े।

            केवल आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो। फिर लगातार दर्पण में अपनी स्वयं की आंखों में देखें। पलक न झपके। यह चालीस मिनट का प्रयोग है और दो या तीन दिन में आप अपनी आंखों की पलक न झपकने देने में समर्थ हो जाएंगे।

            यदि आंसू भी आए तो आने दें, परन्तु पलक न झपके इसके लिए पूर्ण प्रयास करें। लगातार अपनी आंखों में देखते जाएं। दृष्टि का कोण न बदलें। देखते जाएं लगातार अपनी ही आंखों में और दो या तीन दिन में ही आप सारे कंपनों से अवगत हो जाएंगे। आपका चेहरा नए रूप लेने लगेगा। हो सकता है कि आप डर जाएं।

            शीशे में आपका चेहरा बदल जाएगा। कभी बिलकुल भिन्‍न ही चेहरा प्रकट होगा, जिसे कि आपने कभी नहीं देखा। वास्तव में, ये सारे चेहरे आपके हैं। अब अर्धचेतन मन विस्फोट करना शुरू कर रहा है। ये चेहरे, ये मुखौटे आपके हैं। कभी-कभी पिछले जन्मों के चेहरे भी आ सकते हैं।

            `रोजाना चालीस मिनट एक सप्ताह तक देखने के बाद, आपका चेहरा एक प्रवाह, एक धीमी रोशनी का प्रवाह जैसा हो जाएगा। बहुत से चेहरे निरंतर आते-जाते रहेंगे। तीन सप्ताह के बाद आपको याद भी नहीं रहेगा कि आपका चेहरों कौन सा है। आपका अपना ही चेहरा आपको याद नहीं रहेगा, क्योंकि आपने इतने चेहरे आते और जाते देखे हैं कि सब गुम हो गया।

            यदि आप इसे चालू रखते हैं, तो तीन सप्ताह बाद किसी दिन भी एक सब से अधिक विचित्र बात होगीः अचानक दर्पण में कोई भी चेहरा नहीं होगा। दर्पण खाली होगा। आप रिक्तता में झांक रहे होंगे। कोई चेहरा भी चेहरा नहीं होगा। इसी क्षण अपनी आंखें बंद कर लें और अचेतन को देखें। जब दर्पण में कोई चेहरों न हो, तभी अपनी आंखें बंद कर लें, भीतर देखें, और आप अचेतन के समक्ष खड़े होंगे। आप नंगे होंगे, बिलकुल नंगे, जैसे कि आप हैं, सारी प्रवंचनाएं गिर जाएंगी। यह वास्तविकता है। समाज ने कितनी ही तहें निर्मित की हैं, ताकि आप उनके प्रति सजग न हों। इसके लिए एक बार जब आप स्वयं को अपनी नग्नता में, अपनी पूर्ण नग्नता में जान लेते हैं, आप दूसरे ही व्यक्ति होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते। अब आप जानते हैं कि आप क्या है, और जब तक आप न जानें कि आप क्या है, आप रूपांतरित नहीं हो सकते क्योंकि कोई भी रूपांतरण केवल इसी नग्न वास्तविकता में संभव है। यह नग्न वास्तविकता प्रसुप्त बीज है किसी भी रूपांतरण के लिए। कोई प्रवंचना रूपांतरित नहीं हो सकती। जब आपको मूल चेहरों यहां है और आप इसे रूपांतरित कर सकते हैं और वस्तुतः उसे रूपांतरित करने का संकल्प ही रूपांतरण को प्रभावित करता है।

      परन्तु आपके झूठे चेहरे--आप उन्हें नहीं बदल सकते। मतलब कि आप उन्हें बद तो सकते हैं, परन्तु रूपांतरित नहीं कर सकते। बदलने से मेरा मतलब है कि आप उनके स्थान पर दूसरे झूठे चेहरे लगा सकते हैं। एक चोर एक साधु हो सकता है। यदि एक अपराधी साधु हो सकता है, तो बहुत ही सरल है मुखौटा का बदलना, किंतु यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण का मतलब है वही हो जाना जो कि तुम हो असल में, जो कि तुम वस्तुतः हो। अतः जिस क्षण आप अचेतन को अपने समक्ष पाएं, उसका सामना करें, देखें, आप वास्तविकता के आमने-सामने खड़े हैं, आप आपने प्रामाणिक स्वरूप के समक्ष खड़े हैं।

      आपका झूठा स्वरूप वहां नहीं है, आपका नाम भी नहीं है, आपकी आकृति भी नहीं है, आपका चेहरा भी नहीं है। प्रकृति की नग्न शक्तियां रह गई हैं और इस नग्न शक्तियों के साथ कोई भी रूपांतरण संभव है, आपके जरा से संकल्प करने मात्र पर, चाहने भर पर। कुछ और नहीं करना है। आप मात्र चाह करें, और चीजें होने लगेंगी। जब आप स्वयं को इस नग्नता में देख लें, तब मात्र इच्छा करें, और जो कुछ भी आप चाहेंगे, वह हो जाएगा।

      बाइबिल में, परमात्मा ने कहा--प्रकाश हो और--प्रकाश हो गया। कुरान में, खुदा ने कहा, संसार होऔर संसार हो गया। सचमुच, ये कथाएं हैं, संकल्प की कथाएं, जो कि आप में छिपा हुआ है। जब आप अपनी नग्न सत्यवत्ता को देखते हैं, मूल, आधारभूत शक्तियों को देखते हैं तो आप एक सृष्टा बन जाते हैं, एक देवता हो जाते हैं। बस कहें, एक शब्द बोलें, और वह हो जाता है। कहें कि प्रकाश हो, और प्रकाश हो जाएगा। अपने प्रामाणिक स्वरूप से साक्षात्कार होने के पहले यदि आप अंधेरे का प्रकाश में रूपांतरित करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वह संभव नहीं है।

      अतः यह सामना मूल है, आधारभूत है किसी भी धार्मिक घटना के लिए। कितनी ही विधियां आविष्कृत की गई हैं। एकदम हो जाएं ऐसी विधियां भी है, और धीरे-धीरे हों ऐसी विधियां भी हैं। मैंने आपको धीरे-धीरे होने वाली विधि के बारे में बतलाया है। अचानक होने वाली विधियां भी हैं, लेकिन अचानक होने वाली विधि में यह सदैव बड़ा कठिन होता है, क्योंकि अचानक विधि में हो सकता है कि आपकी मृत्यु हो जाएं।

      अचानक विधि में हो सकता है कि आप पागल हो जाएं, क्योंकि घटना इतनी अचानक होती है कि आप उसके लिए सोच भी नहीं सकते। आप बस गिर पड़ते हैं, भयग्रस्त। गीता में यह होता है। अर्जुन कृष्ण को जोर देकर अपना विराट स्वरूप दिखलाने को कह रहा है। कृष्ण दूसरी चीजों की बात करते चले जाते हैं, लेकिन अर्जुन बार-बार जोर दे रहा है और वह कहता है--मुझे दिखलाना पड़ेगा। बिना देखे मैं मान नहीं सकता। यदि आप सचमुच परमात्मा हैं, तो अपना ब्रह्म स्वरूप मुझे दिखलाएं।

      कृष्ण उसे दिखलाते हैं, परन्तु वह इतना अचानक होता है कि अर्जुन उसके लिए कतई तैयार नहीं रहता, वह चिल्लाने लगता है और कृष्ण से कहता है--बंद करें! बंद करें इसे! मैं भय से मर रहा हूं। इसलिए याद आप किसी अचानक विधि से इस पर आए, तो यह खतरनाक होगा। कुछ खास विधियां हैं। वे केवल समूह में ही सिद्ध की जा सकती हैं--एक ग्रुप में, जिसमें आप दूसरों को दूसरे आपको सहायता दे सकें।

      वास्तव में, आश्रम का निर्माण भी इन्हीं अचानक विधियों के लिए किया गया था, क्योंकि वे अकेले साधी नहीं जा सकतीं। एक समूह ही आवश्‍यकता होती है, दूसरों की जरूरत होती है, एक निरंतर चौकसी की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि कभी-कभी आप महीनों के लिए बेहोश होकर गिर पड़ते हैं और तब यदि कोई नहीं हो जो कि जानता हो कि अब क्या करें, तो आपको मृत समझ लिया जाएगा। रामकृष्ण कितनी ही बार गहरी समाधि में चले जाते थे, छह-छह दिन के लिए, दो सप्ताह के लिए, लगातार। उन्हें सचमुच से जबरन खिलाया जाता था: क्योंकि वे बिलकुल ऐसे हो जाते थे, जैसे मूर्च्‍छित हों। एक साधक-समूह की आवश्‍यकता होती है।

      अचानक विधियों के लिए, और उसके लिए एक गुरु परम आवश्‍यक है। ये अचानक विधियां, सड़न मैथड़स भारतीय विधियों में से निकाल दी गई--बुद्ध, महावीर व शंकराचार्य के कारण। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साधुओं को सदैव यात्रा करते रहना चाहिए। उन्होंने साधुओं को आश्रमों में नहीं रहने दिया। उन्हें तीन दिन से ज्यादा कहीं भी नहीं रहना चाहिए। इसकी जरूरत भी थी, क्योंकि बुद्ध व महावीर के समय में, आश्रम शोषण के केंद्र बन गए थे, वे बड़े भारी व्यापार के केंद्र हो गए थे। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों ने इस बात पर जोर दिया कि संन्यासी तीन दिन से अधिक कहीं भी न रहे। और तीन दिन, एक बड़ी मनोवैज्ञानिक सीमा है, क्योंकि किसी भी स्थान या लोगों से परिचित होने के लिए आपको तीन दिन से अधिक की आवश्‍यकता होती है।

      एक नए घर में आप आराम से नहीं हो सकते जब तक कि आपने उसमें तीन दिन नहीं गुजार लिए हों। यह मनोवैज्ञानिक समय सीमा है किसी भी स्थान से तालमेल करने के लिए। यदि आप किसी घर में तीन दिन से ज्यादा रहें, तो घर ऐसा लगने लगता है जैसे वह आपका है। इसलिए संन्यासी को कहीं पर भी तीन दिन से अधिक नहीं रहना चाहिए। बुद्ध और महावीर ने इस पर बड़ा जोर दिया था। उनके बहुत जोर देने से ही आश्रम नष्ट कर दिए गए और ये पुरानी विधियां प्रचलन में से निकाल दी गई, क्योंकि एक घूमता हुआ साधु अचानक घटने वाली विधियों का अभ्यास नहीं कर सकता। वह एक गांव में हो सकता है, जहां कोई भी उसके बारे में कुछ नहीं जानता और यदि वह अचानक होने वाली विधि का अभ्यास करता है और घटना घट
जाती है, तो वह खतरे में पड़ जाएगा। वह मर गया हो--ऐसा लगेगा। इसलिए महावीर: बुद्ध और बाद में शंकराचार्य इन तीनों ने इस बात पर जोर दिया कि साधु बराबर घूमते रहें। वे एक स्थान पर न रहें। वे बेघरबार के घुमक्कड़ होने चाहिए। यह एक तरीके से ठीक भी था, और एक तरीके से गलत भी। यह अच्छा सिद्ध हुआ: क्योंकि पुराने जमे जमाए प्रबंध नष्ट हो गए, परन्तु यह बुरा भी साबित हुआ, क्योंकि पुराने प्रबंधों के साथ कुछ बड़े महत्वपूर्ण तरीके, विधियां आदि भी खो गई।

      अचानक विधियां सतत ध्यान मांगती हैं किसी एक ग्रुप का। इनमें एक गुरु आवश्‍यक हो जाता है। इसीलिए भ्रमणवादी बुद्ध कह सके कि तुम मेरे बिना भी जान लोगे। परन्तु गुरजिएफ ऐसा नहीं कह सकते। कृष्णमूर्ति कह सकते हैं कि किसी गुरु की आवश्‍यकता नहीं है, परन्तु गुरजिएफ नहीं कह सकते। और इनके भेद का असली कारण इनकी पद्धतियां हैं।

      गुरजिएफ की पद्धतियां एक स्कूल की पद्धतियां हैं, और कृष्णमूर्ति घुमक्कड़ों की परंपरा से संबंधित है--कोई स्कूल नहीं--अतः गुरु की भी कोई जरूरत नहीं।

      धीमी विधियों के साथ आप अकेले बढ़ सकते हैं, क्योंकि उसमें कोई खतरा नहीं है। एक-एक इंच आपको बढ़ना पड़ता है और जहां तक एक-एक इंच घटने का संबंध है, आप स्वयं उसको नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन यदि आपको छलांग लगानी है बिना मध्य में किसी भी सीढ़ी पर पैर रखे। तब आपको एक व्यक्ति की आवश्‍यकता पड़ेगी जो कि जानता हो कि आप कहां गिरोगे, जो कि जानता हो कि क्या हो सकता है। किसी विधि को बताने के लिए किसी गुरु की आवश्‍यकता नहीं होती: उसकी आवश्‍यकता तो बाद में होती है, जब कि उस विधि ने कुछ कर दिया हो, और आप अज्ञात में प्रवेश कर गए हो।

      अतः अचानक घटित होने वाली विधियां हैं तो, परन्तु मैं उनकी बात नहीं करूंगा। मैंने आपको एक धीरे-धीरे होने वाली विधि की बात कही। और भी बहुत सी विधियां हैं। मैं अकस्मात होने वाली विधियों के बारे में बात न करूंगा, क्योंकि उनकी बात करना भी खतरनाक है। यदि कोई उनमें दिलचस्पी रखता हो, तो उसे मार्गदर्शन दिया जा सकता है, लेकिन उन पर बात करना असंभव है। इसीलिए जिन परंपराओं ने अकस्मात विधियों पर प्रयोग किया है, उन्होंने सदा जोर दिया है कि अकस्मात विधियों के बारे में कुछ भी न लिखा जाए, क्योंकि एक बार कुछ भी लिखा गया, तो वह सबके पास पहुंच जाता है, और कोई भी उसे कर सकता है। कोई भी अपनी ही उत्सुकता का शिकार हो सकता है, और तब उसकी कोई मदद नहीं की जा सकेगी। और जब कुछ भी लिखा जाता है किन्हीं भी पद्धतियों के बारे में, तब तक आधारभूत कड़ी हमेशा लुप्त होती है।

      जो लोग शास्त्रों को पढ़कर अभ्यास करते हैं, वे सदा खतरे में होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि वे पागल हो जाते हैं, क्योंकि वहां गुप्त कड़ी अवश्‍य गायब होगी और वह गुप्त कड़ी सदैव गुरु के द्वारा शिष्य को जबानी दी जाती है। यह एक गुप्त प्रक्रिया है, क्योंकि जो जानते हैं, वे अभी भी पूरी बात नहीं लिख सकते।

      कुछ छिपा हुआ अवश्‍य रहना चाहिए कुंजी की भांति। अतः कोई भी स्वतः पढ़कर उसे काम में नहीं ला सकता। आप पढ़ सकते है, आप उस पर आलोचन कर सकते हैं, आप उस पर शोध-प्रबंध लिख सकते हैं, परन्तु आप उसका अभ्यास नहीं कर सकते, क्योंकि एक विशेष कुंजी शास्त्र में नहीं दी गई है। अथवा यदि वह दी भी गई है, तो वह इस से दी गई है कि आप उसे इस्तेमाल नहीं कर सकते। उसे इस्तेमाल करने की तरकीब उसमें नहीं दी गई है।

      इसलिए अकस्मात विधियों को न करें, लेकिन आप कुछ धीरे-धीरे कर सकते हैं और यह दर्पण-ध्यान बहुत शक्तिशाली विधि है, बहुत शक्तिशाली है स्वयं के खंड्ड को, स्वयं के असली स्वरूप को जानने के लिए।
      और एक बार आपने इसे जाना नहीं कि आप मालिक हो जाते हैं। तब मात्र इच्छा करें और बात होने लगेगी। उस प्रत्यक्षीकरण में यदि आप कहें--मैं इस क्षण मर जाना चाहता हूं, तो आप उसी क्षण मर जाएंगे। यदि आप कहें--मुझे बुद्ध हो जाना है इसी क्षण, तो आप उसी क्षण बुद्ध हो जाएंगे। समय की जरूरत नहीं रहेगी जरा भी, केवल जरा सा संकल्प और सिद्धि सामने होगी।

      आप सोच सकते हैं कि यह बहुत सरल है, परन्तु यह बड़ी कठिन समस्या है। प्रथम तो पहुंचना कठिन है। वह इतना कठिन नहीं है, परन्तु उस समय में चाहना बहुत मुश्‍किल है। ऐसी जीवंत शांति आप पर उतरती है कि आप सोचते हैं कि आपका मन जरा भी नहीं चलता। आप एक ऐसी आश्‍चर्यजनक शांति की अवस्था में होते हैं कि प्रत्येक चीज यहां तक कि श्‍वास भी रुक जाती है। ऐसे शांत व स्थिर क्षण में, जब कि आप पूर्णतः शांत हैं, कुछ भी चाहना असंभव है। इसलिए ऐसे क्षण में चाहना सीखना पड़ता है--बिना शब्दों के चाहना, बिना विचारों के चाहना। वह संभव है, लेकिन उनके लिए भी अभ्यास करना पड़ता है।

      आप एक फूल को देख रहे हैं फूल को देखें, उसकी सुंदरता को अनुभव करें, लेकिन सुंदरता शब्द का उपयोग न करे, मन में भी गहरी। उसकी और देखें, उसे अपने भीतर उतरने दें, उसकी निकट से अनुभव करें, परन्तु शब्द का प्रयोग न करें। उसके सौंदर्य का अनुभव करें, परन्तु यह न कहें--यह सुंदर है मन के भीतर भी नहीं। कुछ भी न बोलें, और धीरे-धीरे आप इस योग्य हो जाएंगे कि फूल की सुंदरता को अनुभव कर सकें बिना शब्दों के। वस्तुतः यह कठिन नहीं है, यह स्वाभाविक है। आप पहले अनुभव करते हैं, और तभी शब्द आते हैं। परन्तु हम शब्दों से इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अनुभूति और शब्द के बीच कोई अंतराल नहीं रहता। अनुभूति होती है, और आपने अनुभव किया नहीं कि शब्द आ जाता है। अतः अनुभूति और शब्द के बीच अंतराल पैदा करें। केवल सौंदर्य का अनुभव करें, शब्द का उपयोग बिलकुल न करें।

      यदि आप शब्दों को अनुभूति से अलग कर सके, तो आप अनुभूति को अस्तित्व से अलग कर सकेंगे। तब फूल को होने दें, और आप भी हों, दो उपस्थितियों की तरह। परन्तु अनुभव को बीच में न आने दें। अब यह भी महसूस न करें कि फूल सुंदर है। फूल को होने दें और आप भी हों बिना किसी अनुभूति के एक गहरे मिलन में।

      तब आप सौंदर्य का अनुभव करेंगे बिना अनुभूति के। वस्तुतः तब आप ही फूल का सौंदर्य होंगे। यह अनुभव नहीं होगा: बल्कि आप स्वयं ही फूल होंगे। तब आपने अस्तित्वगत कुछ अनुभव किया है। जब आप यह कर सकने में समर्थ होंगे आप इच्छा कर सकेंगे? सब कुछ खो जाता हैः विचार, शब्द अनुभूति। तब आप अस्तित्वगत इच्छा कर सकते हैं।

      इस प्रकार की इच्छा की प्रक्रिया की मदद के लिए बहुत सी चीजों का उपयोग किया गया है। एक यह है कि साधक लगातार सोचता रहे कि जब वह घटना घटेगी तो मैं क्या होना चाहूंगा? उपनिषदों के सूत्र, जैसे कि अहं ब्रह्मास्मि, ये कोई कोरे कथन नहीं हैं। ये कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं हैं। इनका मतलब आपके भीतर कोष-कोष में, एक गहरे संकल्प को खोद देना है, ताकि जब वह घटना घटित हो, तो आपके मन को, आपके कहना न पड़े मैं ब्रह्म हूं। आपका शरीर ही उसे अनुभव करने लगे, आपके कोश उसे अनुभव करने लगें, आपका रेशा-रेशा अनुभव करने लगे--अहं ब्रह्मास्मि। और इस भाव को आपको पैदा करना पड़े। यह आपके अस्तित्व में गहरे चला जाए। अचानक जब आप अचेतन को अपने समक्ष पाएं, उस क्षण, वह भाव आ जाए। तब आप एक सृष्टा हो सकते हैं--मुझे बुद्ध हो जाना है इसी क्षण तो आप उसी क्षण बुद्ध हो जाएंगे। समय की जरूरत नहीं रहेगी जरा भी, केवल जरा सा संकल्प और सिद्धि सामने आएगी।

      आप सोच सकते हैं कि यह बहुत सरल है, परन्तु यह बड़ी कठिन समस्या है। प्रथम तो पहुंचाना कठिन है। वह इतना कठिन नहीं है, परन्तु उस समय में चाहना बहुत मुश्‍किल है। ऐसी जीवंत शांति आप पर उतरती है, आप सोचते हैं कि आपका मन जरा भी चलता। आप एक ऐसी आश्‍चर्यजनक शक्ति की अवस्था में होते हैं कि प्रत्येक चीज यहां तक कि श्‍वास भी रुक जाती है। ऐसे शांत व स्थिर क्षण में, जब कि आप पूर्णतः हैं, कुछ भी चाहना असंभव है। इसलिए ऐसे क्षण में चाहना सीखना पड़ता है--बिना शब्दों के चाहना, बिना विचारों के चाहना। वह संभव है, लेकिन उनके लिए भी अभ्यास करना पड़ता है।

      आप एक फूल को देख रहे हैं फूल को देखें, उसको सुंदरता को अनुभव करें, लेकिन सुंदरता शब्द का उपयोग न करे, मन में भी नहीं। उसकी ओर देखें, उसे अपने भीतर उतरने दें, उसको निकट से अनुभव करें, परन्तु शब्द का प्रयोग न करें। उसके सौंदर्य का अनुभव करें, परन्तु यह न कहें--यह सुंदर है मन के भीतर भी नहीं।

      कुछ भी न बोले, और धीरे-धीरे आप इस योग्य हो जाएंगे कि फूल की सुंदरता को अनुभव कर सकें बिना शब्दों के। वस्तुतः यह कठिन नहीं है, यह स्वाभाविक है। आप पहले अनुभव करते हैं, और तभी शब्द होते हैं। परन्तु हम शब्दों से इतने अभ्यस्त हो गई हैं। कि अनुभूति और शब्द के बीच कोई अंतराल नहीं रहता।

      अनुभूत होती है, और आपने अनुभव किया नहीं कि शब्द आ जाता है। अतः अनुभूति और शब्द के बीच अंतराल पैदा करें। केवल सौंदर्य का अनुभव करें, शब्द का उपयोग बिलकुल न करें।

      यदि आप शब्दों को अनुभूति से अलग कर सके, तो आप अनुभूति को अस्तित्व से अलग कर सकेंगे। तब फूल को होने दें, और आप भी हों, दो उपस्थितियों की तरह। परन्तु अनुभव को बीच में न आने दें। अब यह भी महसूस न करें कि फूल सुंदर है। फूल को होने दें और आप भी हों बिना किसी अनुभूति के एक गहरे मिलन में।

      तब आप सौंदर्य का अनुभव करेंगे बिना अनुभूति के। वस्तुतः तब आप ही फूल का सौंदर्य होंगे। यह अनुभव नहीं होगा: बल्कि आप स्वयं ही फूल होंगे। तब आपने अस्तित्वगत कुछ अनुभव किया है। जब आप यह कर सकने में समर्थ होंगे, आप इच्छा कर सकेंगे।? सब कुछ खो जाता हैः विचार, शब्द अनुभूति। तब आप अस्तित्वगत इच्छा कर सकते हैं। इस प्रकार की इच्छा की प्रक्रिया की मदद के लिए बहुत सी चीजों का उपयोग किया गया है। एक यह है कि साधक लगातार सोचता रहे कि जब वह घटना घटेगी तो मैं क्या होना चाहूंगा? उपनिषदों के सूत्र, जैसे कि अहं ब्रह्मास्मि, ये कोई कोरे कथन नहीं हैं। ये कोई दार्शनिक वक्तव्य नहीं हैं। इनका मतलब आपके भीतर कोष-कोष में, एक गहरे संकल्प को खोद देना है, ताकि जब वह घटना घटित हो, तो आपके मन को, आपको कहना पड़े मैं ब्रह्म हूं। आपका शरीर ही उसे अनुभव करने लगे, आपके कोष उसे अनुभव करने लगें, आपका रेशा-रेशा अनुभव करने लगे--अहं ब्रह्मास्मि। और इस भाव को आपको पैदा न करना पड़े। यह आपके अस्तित्व में गहरे चला जाए। अचानक जब आप अचेतन को अपने समक्ष पाएं, उस क्षण, वह भाव आ जाए। तब आप एक सृष्टा हो सकते हैं--आपका सारा अस्तित्व झंकार रहा है--अहं ब्रह्मास्मि। जिस क्षण भी आपका अस्तित्व झंकृत करने लगता है, आप वह हो जाते हैं। जो कुछ भी आप महसूस करते हैं, वही आप हो जाते हैं।

      इसे दर्शनशास्त्र की तरह नहीं जानना चाहिए: यह ऐसा नहीं है। यह एक अनुभूति है। इसलिए इसे आप एक सच्ची अनुभूति की तरह ही जान सकते हैं। ऐसा निर्णय न लें कि यह सही है या गलत हैं। हां या ना के अर्थों में भी न सोचें। केवल कहें--पो--ओके, और थोड़ा प्रयत्न करें। इतना ही कहें--ठीक: ऐसा हो सकता है।

      कोई निश्‍चल न करें, क्योंकि हम बहुत शीघ्रता करते हैं निर्णय लेने में। जब कोई कहता है नहीं, ऐसे संभव नहीं है। तब वस्तुतः वह कह रहा होता है--मैं प्रयत्न करने वाला नहीं हूं। वह ऐसा कह नहीं रहा है कि ऐसा संभव नहीं है। वह स्वयं को धोखा दे रहा है। वह कह रहा है, मैं कोशिश करने वाला नहीं हूं और क्योंकि मैं कोशिश करने वाला नहीं हूं, तब यह कैसे संभव हो सकता है? वह स्वयं अपने लिए ही तर्कणा कर रहा है।

      कोई कहता है, हां, यह संभव है। ऐसा बहुतों से हुआ है। ऐसा मेरे गुरु के साथ भी हुआ है। ऐसा इसके साथ, उसके साथ हुआ है। वह भी प्रयत्न करने वाला नहीं, क्योंकि वह इसे एक सामान्य बात बना देने वाला है, ऐसा बहुतों के साथ हुआ है, इसलिए यह ऐसी कोई बात नहीं है जिसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। वह सोचता है यह मेरे साथ भी हो सकता है। नहीं, ऐसा नहीं कहें--बल्कि कहें हां, मैं जानता हूं। बस, इसे एक प्रयोग की भांति लें, एक शोधकार्य जिस पर कि काम करना है। धर्म कोई ऐसी वस्तु नहीं जो कि दी जा सकते। उसे तो स्वयं में निर्मित करना होता है। वह कोई ऐसी वस्तु नहीं जो कि आपको दी गई हो या दी जा सकती हो। वह तो ऐसी वस्तु है, जिसे आपको अपने ही भीतर से उघाड़ना पड़ता है।

      इसलिए कोई निश्‍चय न करें जब तक कि आप अनुभव न करें, जब तक कि आप जाने नहीं, कोई निर्णय न करें। पहले से कभी निश्‍चय न करें, अन्यथा आप चीजों के बारे में सतत सुनते चले जाएंगे, उनके बारे में सोचते चले जाएंगे और कुछ भी नहीं करेंगे। सोचना, करना नहीं है। सोचना तो करने से बचने का उपाय है।



दूसरा प्रश्‍न:
     
      भगवान, आपकी जो यह द्रुत श्‍वास लेने की विधि है, यह अचानक-विधि है या धीरे-धीरे होने वाली विधि?

      यह धीरे-धीरे होने वाली विधि है। वस्तुतः अचानक होने वाली विधि सब लोगों के बीच में नहीं दी जा सकती: उन विधियों को सबको नहीं दिया जा सकता। अचानक विधियों के लिए सारे जीवन को दांव पर लगाना होता है, क्योंकि उनके लिए आपको समग्रता की आवश्‍यकता होती है। धीरे-धीरे होने वाली विधियों के लिए आपकी समग्रता की कोई आवश्‍यकता नहीं। आप उन्हें एक घंटे कर सकते हैं, और फिर तेईस घंटे संसार में रह सकते हैं। परन्तु अचानक विधियों के लिए, आपकी समग्रता की जरूरत पड़ती है। आपको कुछ भी दूसरा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। अतः सारा जीवन ही दे देना पड़ता है, और आपको पूरी तरह विधि के साथ ही रहना पड़ता है।

      पूरी चेतना ही तैयार करनी पड़ती है, क्योंकि एक भी हिस्सा, जो कि बिना तैयार किया छूट जाएगा, तो खतरे पैदा करेगा, और वह कुछ भी खतरा उत्पन्‍न कर सकता है, क्योंकि हर एक क्षण संभावना का क्षण है। जो कुछ भी आपके चारों ओर आता है, उसे शुद्ध करना पड़ेगा: अंत आपको सारी अशुद्धताओं के अलग करना पड़ेगा, हर चीज से खाली होना पड़ेगा। धीरे-धीरे होने वाली विधियों के लिए बहुत सी दूसरी चीजों में से धर्म एक चीज हो सकती है। अचानक विधियों के लिए धर्म को समग्र होना पड़ेगा। कुछ और नहीं करने दिया जा सकता।

      जब भी कोई गुरजिएफ के पास आता, तो वह पूछता--क्या तुम इसके लिए मरने को तैयार हो? इससे कम में काम नहीं चलेगा। क्या तुम इसके लिए मरने को राजी हो? उसका मतलब होता है--क्या तुम सब कुछ छोड़ सकने को तैयार हो? पूरी चेतना की जरूरत है। मरना जरूरी नहीं, परन्तु मरने की तैयारी अवश्‍य चाहिए उसके लिए।

      धीरे-धीरे होने वाली विधियां के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं होती। और जैसे भी रहते आए हैं रहते रहें और अपना काम करते चले जाएं। धीरे-धीरे, बढ़ना जारी रहेगा और बिना जाने भी किसी दिन आप उसके लिए मरने को तत्पर हो जाएंगे। परन्तु यह बढ़ना गर्भ के बढ़ने जैसा है। मां भी नहीं जानती कि क्या हो रहा है, क्या घटित हो रहा है। बच्चा बढ़ता चला जाता है, और बढ़ता चला जाता है। नौ महीने के बाद बच्चा इतना बड़ा हो जाता है कि उसको मां की कोई जरूरत नहीं रहती। इसलिए वह बाहर आ जाता है। मां को इसमें नष्ट होता है। इसका कारण केवल शारीरिक ही नहीं है। भीतर गहरे में मनोवैज्ञानिक कारण भी है, क्योंकि उसका अपना बच्चा इतना बड़ा हो गया है कि उसका उसे छोड़ना मां को बच्चे द्वारा दिया जाने वाला
पहला धोखा बन जाते हैं। जब इसके बाद दूसरे धोखे भी आएंगे। वह पहला दर्द जन्म का दर्द है, अब बहुत से अन्य दर्द भी पीछे-पीछे आएंगे। जब बच्चा यौन से प्रौढ़ होगा, तो वह फिर दूसरी बार किसी अन्य स्त्री के लिए मां को छोड़ उसे धोखा देगा।

      अतः जन्म एक लगातार होने वाली प्रक्रिया है और एक मां को कितने ही दर्दों में से गुजरना पड़ेगा। और यदि वह इसे नहीं समझ सकती, तो वह उस दर्द को स्वयं पैदा करती है। जब बच्चा पैदा होने को होता है, तब वह सारे शरीर को सिकोड़ लेती है, इसीलिए दर्द पैदा होता है। अन्यथा प्रसव में शारीरिक व्यथा बिलकुल अनावश्‍यक है। वह सिर्फ एक द्वंद्व है। मां छोड़ने को राजी नहीं है, और बच्चा बाहर आने को ताकत लगा रहा है। इसीलिए बहुत से बच्चों को रात्रि को जन्म लेना पड़ता है इसीलिए बहुत से बच्चों को रात्रि को जन्म लेना पड़ता है। अस्सी प्रतिशत बल्कि इससे भी अधिक बच्चे रात में जन्मते हैं, क्योंकि तब मां सो रही होती है, तो वह कम से कम प्रतिरोध करती है।

      आजकल बहुत से वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तरीके हैं। यदि एक माता को सहयोग देने के लिए राजी किया जा सके, तो फिर कोई दर्द नहीं होगा। पेरिस में, डाक्टर लोरन्जो ने बहुत सी विधियों पर काम किया है, मनोवैज्ञानिक व राजी करने वाली विधियों पर। उसने हजारों प्रसव करवाए हैं, माताओं को सहायता दी है और उन्हें कोई दर्द नहीं हुआ, बिलकुल भी नहीं। यह एक बच्चे के साथ, जो कि बाहर आ रहा है, सहयोग करने का तरीका है--न कि प्रतिरोध करने का। सहयोग करने का व यह महसूस करने का कि जो बच्चा बाहर आ रहा है, उसकी सहायता करनी है।

      लोरन्जो बहुत सी माताओं को राजी कर सकता है, परन्तु उससे भी ज्यादा समस्या तब होती है, जब कि बच्चा दूसरी स्त्री के पास जाता है। उसे मां को फिर समझना पड़ेगा कि दुःख न मनाए, बल्कि बच्चे की मदद करे किसी और स्वर्ग के पास जाने के लिए। मदद करे, सहयोग करे, क्योंकि यह दूसरी बार बच्चे का जन्म है।

      अतः ग्रेज्युअल मैथड़म--धीरे-धीरे होने वाली विधियों में आप गर्भ की तरह से बढ़ते हैं। धीरे-धीरे आप पुनः जन्मते हैं। सड़न मैथड़म, अचानक विधियों में बात बिलकुल भिन्‍न है, पूर्णतः भिन्‍न। सब कुछ छोड़ देना अनिवार्य है अचानक विधियों के लिए। पुराने समय में, संन्यास अचानक विधियों से प्रारंभ हुआ। इसीलिए यह आवश्‍यक था कि सब कुछ छोड़ दिया जाए। विशेषतः भारत में हमने इस बात पर बहुत जोर दिया कि कोई भी संन्यास के लिए न जाए, जब तक कि वह वृद्ध न हो जाए। उसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है। जब आप बूढ़े हो जाते हैं, तो आपने जीवन पूरी तरह जी लिया होता है। तब समग्र परित्याग आसान हो जाता है क्योंकि सूक्ष्म ढंग से जीवन भी तुम्हें त्याग रहा है, इसलिए तुम भी जीवन को त्याग सकते हो। आप एक सूखा पत्ता हो गए हो, अब आप पेड़ को छोड़ सकते हो बिना पेड़ को चोट पहुंचाए व बिना स्वयं को तकलीफ दिए। पेड़ जानेगा भी नहीं कि सूखा पत्ता कब गिर गया।

      एक हरे, ताजे पत्ते को तोड़ें और वृक्ष को पीड़ा होती है, साथ में पत्ते को भी। घाव सदैव के लिए भी बना रह सकता है। इसलिए अचानक विधियों के लिए निश्‍चित किया गया था कि एक आदमी तभी छोड़े, जबकि जीवन भी उसे छोड़ रहा हो। तभी वह समग्रता से छोड़ सकेगा। धीरे-धीरे होने वाली विधियों के लिए यह आवश्‍यक नहीं था।

      अब संसार में अचानक विधियां असंभव हो गई हैं, क्योंकि कोई प्रामाणिक स्कूल नहीं हैं, कोई संस्थाएं, कोई घनिष्ठ संस्थाएं नहीं हैं, जहां कि आप अचानक विधियों का अभ्यास कर सकें। यह जरूरी नहीं है कि आप संसार को छोड़कर किसी पहाड़ या जंगल में ही चले जाएं। अब आप जहां हैं, वहां ही रह सकते हैं और धीरे-धीरे होने वाली विधियों को करते रह सकते हैं।

      उपलब्धि तो वही होती है, धीमी विधियों के लिए केवल समय की अधिक आवश्‍यकता होती है, मात्र अधिक समय, और अचानक विधियों के लिए कम समय की जरूरत होती है






तीसरा प्रश्‍न:

  भगवान, किस तरह का समाज ऐसे व्यक्तियों को पैदा कर सकता है, जिनमें कि अर्धचेतन मन उपयोगिता की तरह हो और आसानी से छोड़ा जा सके?

      यह एक जटिल समस्या है, बहु आयामी, लेकिन कुछ आधारभूत सूत्र समझे जा सकते हैं। एक अच्छा समाज तभी संभव है, जब कि बच्चों को विरोध की भाषा, द्वैत, शरीर और चेतना के बीच, न सिखलाई जाए।

      पहली बात, उन्हें यह बात सिखलाई ही न जाए। उनसे यह न कहा जाए कि तुम शरीर में हो उनसे यह न कहा जाए कि तुम शरीर को सम्हालते हो। यह कहा जाना चाहिए कि तुम शरीर हो। जब मैं यह कहता हूं कि यह कहा जाना चाहिए कि तुम शरीर हो, तो मेरा मतलब किसी भौतिक धारणा से नहीं है। वास्तव में, केवल इसी में से वह आत्मिक स्वरूप उत्पन्‍न हो सकता है। एकता को भंग नहीं करना चाहिए।

      एक बच्चा एक समग्रता के साथ पैदा होता है हम उसे दो में तोड़ देते हैं। पहला विभाजन शरीर और चेतना के बीच होता है। हम खंडता के बीज बो देते हैं। अब वह कभी भी खो गई एकता को आसानी से प्राप्त न कर सकेगा। जितना वह बड़ा होगा, अंतराल भी उतना ही बड़ा होता जाएगा। एक व्यक्ति जिसके शरीर और चेतना में अंतराल है, वह सहज नहीं होगा। जितना बड़ा अंतराल होगा, उतना ही विक्षिप्त वह होगा: क्योंकि तब शरीर और मन का भेद एक भाषागत भ्रांति होगी। हम साइकोसोमेटिक--शरीर और मन दोनों हैं, एक साथ। इन दोनों को बांटना संभव नहीं है। वे दो नहीं हैं बल्कि एक ही हैं।

      इसलिए एक अच्छे समाज के लिए पहली चीज है कि एक खंडित मन नि£मत न करें, विभाजित मन पैदा न करें, क्योंकि पहला विभाजन शरीर और मन के बीच होता है, और तब दूसरे विभाजन आते हैं। आपने यदि एक बार विभाजन का मार्ग ले पकड़ लिया, तब फिर मन पुनः बांटा जाएगा, और शरीर भी फिर से बांटा जाएगा।

      यह एक विचित्र तथ्य है। मुझे आश्‍चर्य है कि क्या आप भी यह अनुभव करते हैं कि आप शरीर और चेतन में बंटे हुए हैं? तब शरीर फिर बांटा जाता है उपर और नीचे में। तब फिर नीचे वाला बुरा है, और उपर वाला अच्छा है। कहां से उपर का हिस्सा और कहा से नीचे का हिस्सा शुरू होता है? हम कभी भी अपने
नीचे के हिस्से के साथ आराम से नहीं होते--कभी भी नहीं। इसीलिए इतनी सारी मूर्खता कपड़ों के साथ प्रचलित है--इतनी सारी मूर्खता! हम नग्न नहीं हो सकते? क्यों? जिस क्षण भी आप नग्न होते हैं, शरीर एक हो जाता है।

      हमारे पास दो तरह की पोशाकें हैं--एक नीचे के हिस्से के लिए, दूसरी उपर के लिए। कपड़ों का यह विभाजन आधारभूत शरीर के विभाजन से जुड़ा हुआ है। यदि आप नग्न खड़े हैं, तब आप कैसे विभाजन करेंगे कि कौन सा नीचे का हिस्सा है और कौन सा उपर का। अतः जो लोग आदमी को बांटते हैं, वे आदमी की नग्नता के साथ राजी नहीं होंगे। यह केवल प्रारंभ है,
क्योंकि भीतर और भी अधिक नग्नता है। यदि आप अपने शरीर से नंगे होने को भी तैयार नहीं हैं, तो आप अपनी भीतरी परतों के होने को भी तैयार नहीं हैं, तो आप अपनी भीतरी परतों के बारे में तो कभी भी सच्चे नहीं होंगे। हो भी कैसे सकते हैं आप?

      यदि आप अपने शरीर की नग्नता का भी सामना नहीं कर सकते, तो आप अपनी नग्न चेतना का सामना कैसे कर सकेंगे?

      प्रारंभ में एक बच्चा एक अखंडता लिए हुए पैदा होता है और वही बच्चा फिर एक भीड़ की तरहएक समग्र पागलखाने की तरह मरता है। सब कहीं वह बंट जाता है और इन विभाजनों में एक सतत द्वंद्व, एक निरंतर संघर्ष चलता रहता है। उर्जा का अपव्यय होता है, और वस्तुतः आप कभी नहीं मरते आप अपने को मारते हैं। हम सब आत्मघात करते हैं क्योंकि यह उर्जा का अपव्यय ही है। इसलिए यह बड़ी मुश्‍किल से होता है कि एक आदमी मरता है--बहुत कम ऐसा होता है। प्रत्येक स्वयं को मारता है, धीमे-धीमे विष दे कर। उसके लिए भिन्‍न-भिन्‍न विधियां हैं--अलग-अलग तरकीबें हैं स्वयं को मारने की, किंतु प्रारंभ में सबके विभाजन ही है।

      एक अच्छा समाज, एक नैतिक, समाज, एक धार्मिक समाज कभी अपने बच्चों को विभाजित करने की आज्ञा न देगा। परन्तु हम यह विभाजन कैसे उत्पन्‍न करते हैं? यह विभाजन कब आता है? मनोवैज्ञानिक को यह पता लग रहा है कि जिस क्षण बच्चा अपनी कामेंद्रिय को, अपने जनन के स्थान को स्पर्श करता है, विभाजन शुरू हो जाता है। जैसे ही बच्चा अपनी कामेंद्रिय को छेड़ता है, सारा समाज सजग हो जाता है कि कोई बुरी घटना होने वाली है। माता-पिता, भाई-बहन सारा परिवार इस बात के प्रति सजग हो जाता है। अपी आंखों से, अपने हाव-भाव से, अपने हाथों से, वे सब कहते हैं--नहीं, स्पर्श मत करो। बच्चा समझ ही नहीं पाता इस
बात को। वह एक अखंडता है, चाहे लड़का चाहे लड़की। उसको यह बात समझ में नहीं आती कि वह अपने ही शरीर को क्यों नहीं छू सकता। उसमें गलत क्या है? वह नहीं जानता कि आदमी पाप में जन्मा है।

      वह बाइबिल को नहीं जानता, वह किसी धर्म को नहीं जानता। वह किसी गुरु को नहीं जानता, वह किसी महात्मा को नहीं जानता--संतों को भी नहीं। वह नहीं जान पाता कि क्यों शरीर का एक अंग अलग छोड़ दिया जाए।

      समस्या और भी बड़ी हो जाती है, क्योंकि काम-केंद्र शरीर में सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं, सर्वाधिक आनंद प्रदान करने वाला। बच्चे को उनके स्पर्श में आनंद का पहला अनुभव होता है। उसके जीवन का प्रथम अनुभव कि शरीर भी आनंद दे सकता है, या शरीर सुखद है, या शरीर का भी मूल्य है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन महीने का बच्चा भी कामेंद्रिय का गहरे से गहरा अनुभव कर सकता है। वह अपनी कामेंद्रिय को शिखर तब अनुभव कर सकता है और इसमें सारा शरीर कांपने लग जाता है। यह उसके शरीर का प्रथम अनुभव है, परन्तु यही विषाक्त हो जाता है क्योंकि माता-पिता उसे होने नहीं देते।

      वे क्यों नहीं स्पर्श करने देते? क्योंकि उन्हें स्वयं ऐसा नहीं करने दिया गया। उसके लिए कोई न्याययुक्त कारण नहीं है। इसके साथ ही शरीर बंट जाता है, और मन व शरीर भी बंट जाते हैं बच्चा डर जाता है, भयभीत हो जाता है और उसमें दोष का भाव पैदा हो जाता है। वह छूएंगा, परन्तु छिपाकर। हमने एक छोटे बच्चे को अपराधी बना दिया। वह उसे करेगा, क्योंकि वह प्राकृतिक है किंतु अब वह डरा हुआ रहेगा कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है, कि कहीं मां तो नहीं है! यदि कोई नहीं है तो वह छूएंगा, परन्तु यह चोरी से किया गया स्पर्श उतना आनंद नहीं देगा, जितनी कि यह दे सकता था। मन में अपराध का भाव जो आ गया।

      वह डरा हुआ है, वह भयभीत है। यही भय सारे जीवन भर चलता है।

      विश्‍व में कोई भी अपने यौन-अनुभव से संतुष्ट नहीं है। भय चलता है, इसलिए वह बार-बार यौन क्रिया में आएगा, किंतु वह कभी भी तृप्ति का अनुभव नहीं करेगा और न वह उसमें गहरा आनंद ही कभी महसूस करेगा। क्योंकि वह असंभव बना दिया गया है। आपने जड़ को ही विषाक्त कर दिया। अब वह स्वयं को अपराधी महसूस करेगा।
     
      हम सेक्स के कारण ही अपने को दोषी मानते हैं। हम सेक्स के कारण ही पापी हैं। आपने ही यह मूल विभाजन पैदा किया है कि शरीर में आपको चुनाव करना है। कुछ अंग अच्छे हैं, कुछ अंग खराब हैं। क्या बेवकूफी है! या तो सारा शरीर अच्छा है, या सारा शरीर बुरा है, क्योंकि शरीर में कुछ भी पृथक नहीं है।

      वही खून सारे शरीर में घूमता है, वही नसों की प्रक्रिया है। सब कुछ भीतर से एक है, तब फिर बच्चे के लिए ही विभाजन क्यों? आपने उसके प्रथम आनंद को ही विषाक्त कर दिया। अब वह कभी आनंद का अनुभव नहीं करेगा।
     
      मेरे पास रोज लोग आते हैं और मैं जानता हूं कि उनकी मूल समस्या ध्यान नहीं है, उनकी मूल समस्या धर्म नहीं है, उनकी मूल समस्या सेक्स है। मैं इस पर बहुत लाचार महसूस करता हूं कि उनकी मदद कैसे की जाए, क्योंकि यदि मैं वस्तुतः ही उनसे बात करना चाहूं, तो फिर वे दोबारा मेरे पास नहीं आएंगे। वे मुझसे डर जाएंगे क्योंकि वे यौन से डरे हैं। यौन की तो बात ही नहीं की जानी चाहिए! परमात्मा की बात करो, कुछ और बातें करो। उसकी समस्या परमात्मा की नहीं है। यदि समस्या परमात्मा की हो, तो आसानी से उनकी मदद की जा सकती है, परन्तु वह तो समस्या ही नहीं है। उनकी आधारभूत समस्या तो सेक्स होती है, और वे किसी भी चीज का आनंद नहीं ले सकते, क्योंकि वे तो उस पहली भेंट का ही आनंद नहीं ले सके जो कि उन्हें प्रकृति द्वारा, दिव्य शक्तियां द्वारा दी गई थी। उनके पास आनंद की वह पहली अनुभूति ही नहीं है, इसलिए वे आनंद नहीं ले सकते।
     
      मैंने कितनी ही बार अनुभव किया है कि एक व्यक्ति, जो कि सेक्स का आनंद नहीं ले सकता, वह ध्यान में गहरे नहीं जा सकता: क्योंकि जब कभी आनंद की अनुभूति होती है, वह डर जाता है। यह संबंध गहरा हो जाता है। इसके लिए आपने बाधा नि£मत की है। अब आप मन को भी बांटेंगे, क्योंकि मन से सेक्स का हिस्सा स्वीकार नहीं किया जा सकता सेक्स शरीर व मन दोनों का है। प्रत्येक चीज दोनों में है। आप में दोनों है। इसे सदैव यार रखें। सेक्स शरीर व मन दोनों में है। और सेक्स का मन का हिस्सा दबाया ही जाना चाहिए, तो यह दबाया गया हिस्सा ही अचेतन बन जाएगा। जो शक्तियां, विचार, धारणाएं, नैतिक उपदेश आदि उसे दबाएंगे, वे उससे अर्धचेतन का निर्माण करेंगे। एक बहुत छोटा सा हिस्सा मन का आपके पास होगा, एक बहुत छोटा सा हिस्सा चेतन होगा, जो कि रोजाना के काम के लिए होगा और वह कोई और काम
नहीं आएगा।
     
      कम से कम वह गहरे जीने के उपयोग में तो नहीं हो आएगा। आप जी सकते हैं, बस इतना ही काफी है। आप खा सकते हैं, आप कमा सकते हैं, आप मकान बना सकते हैं, परन्तु आप जीवन को नहीं जान सकते, क्योंकि मन के दस में से नौ हिस्से को तो मना ही कर दिया गया। आप कभी भी समग्र नहीं हो सकते, और केवल एक समग्र आदमी ही पवित्र हो सकता है। जब तक कि आप समग्र नहीं हैं, आप पवित्र नहीं हो सकते।
     
      अतः पहली आधारभूत बात जो कि एक नए समाज, एक अच्छे समाज, एक धार्मिक समाज के निर्माण के लिए करनी है, वह है विभाजनों का निषेध। यही--विभाजन पैदा करना सबसे बड़ा पाप है। बच्चे को एक युनिटी, एक इकाई की भांति बढ़ने दो। उसे सब चीजों के साथ, उनमें एक अनुरूपता, एक एकता की तरह जो कि उसके भीतर है, बढ़ने दो। जल्दी ही वह सब का अतिक्रमण कर सकेगा, वह सेक्स। का अतिक्रमण कर सकेगा: वह अपनी वृत्तियों के पार जा सकेगा। वह उन सब के पार जा सकेगा एक इकाई की तरह, न कि विभक्त की तरह, यही बात है। वह उनका अतिक्रमण कर सकेगा, क्योंकि वह समग्र हैइतना शक्तियुक्त, इतना अविभक्त ऐक्य कि वह किसी भी चीज का अतिक्रमण कर सकता है।

      जो कुछ भी रोग हो जाता है, वह उसे फेंक सकता है। जो कुछ भी मानसिक क्लेश हो जाते है, वह उसे फेंक सकता है। वह शक्तिशाली है। एक अविभाजित एकता ही एक बहुत बड़ी उर्जा है। उससे वह कुछ भी बदल सकता है।
     
      परन्तु एक बंटा हुआ बच्चा कुछ भी नहीं कर सकता। वास्तव में, एक विभाजित बच्चे में, चेतन मन का एक बहुत छोटा हिस्सा रहता है और अचेतन मन का बहुत बड़ा। सारे जीवन, एक बंटा हुआ बच्चा, एक बहुत छोटी उर्जा के साथ एक बहुत बड़ी चाह से लड़ रहा होता है। इसलिए उसे लगातार हारना पड़ेगा और तब वह निराशा का अनुभव करेगा। और तब वह कहेगा--ठीक है यह संसार केवल एक दुःख है।

      यह संसार दुःख नहीं है--यह भलीभांति ध्यान रख लें। आप विभाजित हैं, इसलिए आप इस दुनिया में दुःख का निर्माण कर लेते हैं। आप अपने से ही लड़ रहे हैं, इसलिए आप दुःखी हो जाते हैं। अतः पहली बात, विभाजन पैदा न करें। बच्चे बढ़ने दें, जैसा वह बढ़ सके। दूसरी बात, बच्चे को बजाय सख्त रुखों से अधिक लचीलेपन के लिए प्रशिक्षित करें--केवल लचीले पन के लिए। उसे सख्त, सब तरफ से बंद घर में प्रशिक्षित न करें। कभी न कहें कि यह अच्छा है और वह बुरा है, क्योंकि जीवन में यह एक प्रवाह है। एक वस्तु, जो इस क्षण में अच्छी है, वही दूसरे क्षण बुरी हो जाएंगी और जो चीज इस स्थिति में बुरी है, वह दूसरी स्थिति में अच्छी हो जाएगी। अतएव उसे नैतिक शास्त्र या धर्म शास्त्र की बंधी कसौटी न देकर खुली कसौटी
दें--विवेक की।
     
      बच्चे को अधिक सजग रहने के लिए प्रशिक्षित करें, जानने के लिए कि वस्तुतः बात क्या है। यह न कहें कि एक मुसलमान बुरा है, क्योंकि वह मुसलमान है। एक हिंदू अच्छा है, क्योंकि वह हिंदू है। ऐसी बातें कभी न कहें, क्योंकि अच्छी और बुरी बातें ठहरी हुई नहीं हैं। पक्के, सख्त विशेषण न दें। उसे प्रशिक्षण दें कि स्वयं पता लगाए कि कौन अच्छा है, कौन बुरा है। परन्तु यह बहुत कठिन है, क्योंकि नाम देना बहुत सरल है। आप नाम, लेबल व विभाजित खंडों के साथ जीते हैं। आप किसी को भी एक मापदंड में रख देते हैं--ठीक है। वह हिंदू है वह अच्छा है या बुरा है। वह मुसलमान है वह अच्छा या वह बुरा है। बात तय हो जाती है बिना व्यक्ति को देखे हुए। लेबल ही तय कर देता है। अतः कोई भी निश्‍चित विशेषण न दें।

      तरल सजगता दें। नहीं न कहें कि यह ठीक है न कहें, यह बुरा है। इतना ही सिखलाएं कि उसे सतत खोजना पड़े कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। दिमाग को प्रशिक्षित करें कि खोज करे, जाने। यही विवेक है।

      इस रुख के लचीलेपन के बहुत से आयाम हैं। बच्चे को एक तरह के मोनोगैमस (एक से प्रेम करने वाले) रुखों में जड़ न करें। बच्चे को न कहें--मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। इससे बच्चे में असमर्थता पैदा हो जाएंगी और इससे फिर वह किसी को भी प्यार नहीं कर सकेगा। इससे फिर ऐसा होता है कि प्रौढ़ बच्चे (मैं बूढ़ों को भी प्रौढ़ हो गए बच्चे कहता हूं)               बाद में भी बंधे हुए ही रहते हैं। आप अपनी पत्नी से प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि बहुत गहरे में भीतर आप केवल अपनी मां को ही प्रेम कर सकते हैं। आपकी मां आपकी पत्नी नहीं हो सकती, और आप मां के साथ ही अभी भी बंधे रहते हैं। आप अभी भी उन्हीं बातों की अपेक्षा करते हैं पत्नी से जैसे कि वह आपकी पत्नी न होकर आपकी मां हो, यद्यपि सचेतन रूप से नहीं। यदि वह मां की तरह व्यवहार नहीं करे तो आप बेचैन रहेंगे। समस्या और भी जटिल हो जाती है, क्योंकि यदि वह आपकी मां की तरह से व्यवहार करे, तब भी आप संतुष्ट नहीं होंगे। उसे आपकी पत्नी भी
होना चाहिए।
     
      एक मां को यह कभी नहीं कहना चाहिए मुझे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। उसे अपने बच्चे को अधिक से अधिक लोगों को प्रेम करना सिखलाना चाहिए। बच्चा जितना पोलीगेमस (एक से अधिक को प्रेम करने वाला) होगा, उतनी ही उसकी जिंदगी भरी-पूरी होगी। वह कभी रुका हुआ, जड़ महसूस नहीं करेगा और जहां भी जाएगा, वह प्रेम कर सकेगा। उससे नहीं कहें कि मां को प्यार करना चाहिए, बहन को प्यार करना चाहिए, भाई को प्रेम करना चाहिए। उससे नहीं कहें कि चूंकि कोई अजनबी है इसलिए उससे तुम प्रेम मत करा। वह हमारे परिवार से संबंधित नहीं है, वह हमारे धर्म का नहीं है, वह अपने देश का नहीं है, इसलिए उससे प्रेम मत करो। यदि ऐसा कहेंगे, तो आप बच्चे को अपंग बना रहे हैं।
     
      उससे कहें कि प्रेम करना एक आनंद है, इसलिए प्रेम करते चले जाओ। जितना तुम प्रेम करोगे, तुम बढ़ते चले जाओगे। एक व्यक्ति जो कि अधिक प्रेम कर सकता है, वह बढ़ता चला जाता है, संपन्‍न होता जाता है। हम सब गरीब हैं, हम सब दरिद्र हैं, क्योंकि हम प्रेम ही नहीं कर सकते। यह एक तथ्य है। यदि आप अधिक से अधिक लोगों को प्रेम करते हैं, तो आप किसी को भी प्रेम करने में समर्थ हो जाते हैं। यदि आप केवल एक व्यक्ति को ही प्रेम करें, तो अंत में आप उसे भी प्रेम नहीं कर सकेंगे। क्योंकि तब आपकी प्रेम करने की क्षमता ही संकीर्ण हो जाएगी, जम जाएगी। यह ऐसा ही है जैसे कि हम किसी वृक्ष से कहेंसारी जड़ों को काट दो, और केवल एक जड़ को रहने दो। यदि आप वृक्ष से कहें--केवल यही तुम्हारा प्रेय है,
इसी जड़ से सारा प्रेम पा लो, तो वृक्ष मरने लगता है।
      हमने एक मोनोगेमस माइंड (एक को प्रेम करने वाले चित्त) का निर्माण किया है। इसीलिए इतनी लड़ाइयां हैं, इतनी निर्दयता है, इतनी हिंसा है, कितने ही नामों में--रूपों में--धर्म, राजनीति, आदर्श कोई भी मूर्खता चलेगी। आप सदैव कोई न कोई कारण हिंसक होने के लिए ढूंढ़ ही लेते हैं। और तब देखें लोग कैसे हो जाते हैं। उनकी आंखें चमक उठती हैं जब भी युद्ध होता है। प्रत्येक व्यक्ति मरने के भय से स्वतंत्र हो जाता है, अतः जब आप किसी को भी मार सकते हैं। आपको बड़ा रस आता है। जब भी आप किसी को मारते हैं।
     
      जब आप किसी को प्रेम करते हैं, तो आपको कभी आनंद नहीं आता। जाएं और देखें बंगला देश में। जाएं और देखें जहां कि बहुत से लोग मरे हों और चखें उस रस को। जब कोई हिंसा शेष न हो, तो देखें लंगड़ेपन को, अपंगता को, मुरझाई आंखों को। कोई भी निर्मल सरिता की भांति नहीं लगेगा। एक अर्थ हीनता लगता है। किसी को भी किसी को मारने के लिए तैयार करो और हर एक जूदा हो जाता है। क्यों?

      हमने प्रेम करने की क्षमता को ही नष्ट कर दिया है, इसलिए। एक बच्चा किसी को भी प्रेम कर सकने में समर्थन है। एक बच्चा सारे विश्‍व को प्रेम करने के लिए पैदा हुआ है। एक बच्चा हर चीज को प्रेम करने के लिए पैदा हुआ है, एक बच्चा सारे जगत को प्रेम करने के लिए उत्पन्‍न हुआ है--इतनी विराट क्षमता है, उसमें, किंतु यदि आप उसे संकीर्ण कर देते हैं, तो वह बच्चा उसी क्षण से मरना प्रारंभ कर देता है।

      परन्तु यह मोनोगेम (संकीर्णता) क्यों है? यह स्वामित्व का रुख क्यों है? यह दुष्चक्र है। मां स्वयं तृप्त नहीं है। उससे प्रेम नहीं किया गया, उसे प्रेम नहीं मिला, इसलिए वह अपने बच्चे की मालिक बन जाती है। वह चाहेगी कि बच्चे का संपूर्ण प्रेम उसी के लिए हो। वह कहीं और न जाए। उसे सारी प्रारंभ जड़ें काट डालनी पड़ेंगी। ताकि बच्चा पूर्णतः उसी का रहे। यह हिंसा है, प्रेम नहीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि प्रारंभ के सात वर्ष जीवन के आधार स्तंभ के होते हैं। एक बार एक बात हो गई फिर उसे मिटाना असंभव हो जाता है, वस्तुतः असंभव, क्योंकि मूल ढांचा ही बच्चे की नींव बन जाता है। अब वह सब कुछ इसी ढांचे पर करेगा।

      यह ढांचा उसकी जिंदगी का आधार-स्तंभ हो गया। इसलिए प्रत्येक को इजाजत दो कि मालिक न बने, अधिक से अधिक प्रेम करे--बिना किसी शर्त के, बिना किसी आग्रह के।
इसका यह अर्थ नहीं होता कि कोई व्यक्ति प्रेम करने योग्य है इसलिए उसे प्रेम किया जाए। बल्कि जोर इस बात पर होना चाहिए। कि आप उसे बस प्रेम करें। प्रेम अपने में ही सुंदर है और बहुत गहरी तृप्ति देने वाला है, इसलिए प्रेम करें--जो कुछ भी आपको महसूस होता हो, जहां कहां भी होता हो। यह प्रेम का बहना ही आपको बृहत्तर जीवन के बारे में सचेतन करोगे, और वह बृहत्तर जीवन ही आपको परमात्मा की ओर, दिव्यता की ओर ले जाएगा।

      प्रेम ही प्रार्थना के लिए आधार-भूमि है। जब तक कि आपे संपूर्णता से प्रेम नहीं किया हो, आप कृतज्ञता कैसे महसूस कर सकते हैं? किसके लिए आप कृतज्ञ हो सकते हैं? क्या है जिसके लिए अनुग्रह-भावना से भर जाएं? अगर तुम्हारे पास प्रेम ही नहीं है तो फिर क्या है जिसके लिए परमात्मा के प्रति धन्यवाद से भर जाएं? अतः जीवन नींव है, प्रेम शिखर है और यदि आपने प्रेम किया है, तो अचानक आप प्रेम से भरे संसार के प्रति सजग हो जाते हैं। यदि आपने प्रेम नहीं किया है, तो सब जगह घृणा है, ईष्र्या है। परन्तु अब तक सारा जोर इसी बात पर रहा है कि हमें प्रेम मिले। इसलिए हर एक आदमी विषाद का अनुभव करता है, जब उसे प्रेम नहीं मिलता। और किसी को भी विषाद भाव महसूस नहीं होता, अब वह प्रेम नहीं दे रहा हो।

      वस्तुतः जोर इस बात पर होना चाहिए कि आप स्वयं ही प्रेम दें, न कि प्रेम पाने पर। प्रत्येक इस प्रयास में लगा हुआ है कि कहीं से भी प्रेम को छीन ले। ऐसा नहीं हो सकता। आप सिर्फ दे सकते हैं आप केवल देते रह सकते हैं। और जीवन इतना बेरुखा नहीं है यदि आप देते हैं, तो जीवन हजार गुना लौटा है। परन्तु आप उसके लौटने से मतलब न रखें, आप सिर्फ देते जाएं।

      अतः हर एक बच्चे को अधिकाधिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए प्रेम देने के लिए--और गणित, हिसाब, भूगोल, इतिहास की शिक्षा कम। उसे प्रेम में ज्यादा प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, क्योंकि भूगोल शिखर होने वाला नहीं है, और न गणित शिखर होने वाला है, न ही इतिहास या तकनीकी ज्ञान ही शिखर होने वाला है।

      किसी के साथ भी प्रेम की तुलना नहीं की जा कसती, क्योंकि प्रेम ही शिखर होने वाला है। यदि आप प्रेम को चूक जाते हैं, तो सब कुछ खोजता है। तब फिर आपका जीवन केवल शून्य होता है--एक बर्बादी, एक रिक्तता। और तब चिंता पैदा होती है।

      इसलिए दूसरी बात: प्रेम को खूब गहरा खूब गहरा खुदने दो। एक बच्चे का। एक भी ऐसा मौका व्यर्थ मत जाने दो, जो कि उसे प्रेम की ओर अग्रसर करता हो। परन्तु हमारा ढांचा इसके लिए आज्ञा नहीं देगा, क्योंकि हम डरे हुए हैं। क्योंकि जब एक व्यक्ति अधिकाधिक व्यक्तियों या वस्तुओं से प्रेम करेगा, तो फिर विवाह का क्या होगा? इसका और उसका क्या होगा? हम चिंतित हो जाते हैं। वास्तव में, हम यह कभी नहीं सोचते कि विवाह में क्या घटित हो रहा है।

 विवाह आज क्या है, और विवाह हमेशा से क्या रहा है? यह एक दर्दनाक वेदना है--एक लंबी वेदनाझूठे मुस्कुराते हुए चेहरों की प्रदर्शनी। वह सिर्फ एक दुःख साबित हुआ है। ज्यादा से ज्यादा वह एक खाली सुविधा बना है। मेरा मतलब यह नहीं है कि जब आप अधिक लोगों से प्रेम करेंगे, तो आप विवाह नहीं करेंगे। जहां तक मैं सोचता हूं एक व्यक्ति जो कि अधिक से अधिक लोगों को प्रेम करेगा, वह प्रेम के कारण ही विवाह नहीं करेगा। कृपया मुझे समझें।

      यदि कोई व्यक्ति बहुत व्यक्तियों को प्रेम करता है तो कोई कारण नहीं है कि वह किसी व्यक्ति विशेष से ही विवाह करे सिर्फ प्रेम के कारण। वह बहुत लोगों को बिना विवाह किए प्रेम कर सकता हैं। हमने प्रत्येक को विवाह करने के लिए बाध्य किया, इस संकीर्ण प्रेम के कारण। चूंकि आप अजनबी लोगों से प्रेम नहीं कर सकते, इसलिए आपने जबरदस्ती प्रेम और विवाह को एक साथ जोड़ दिया। विवाह गहरी चीजों के लिए होते हैं। वह एक और भी गहरा संबंध है। वह किसी ऐसे प्रयोजन के लिए हैं जोकि अकेले संभव नहीं है और जो कि किसी अन्य के साथ ही किया जाना चाहिए--जिसके लिए कि साथ की आवश्‍यकता हैएक गहरे संग की। इस प्रेम के भूखे समाज के कारण हम विवाह में पड़ते हैं एक कोरे काल्पनिक प्रेम के लिए।

      प्रेम, विवाह के लिए कभी भी वस्तुतः एक बड़ा आधार नहीं बन सकता, क्योंकि प्रेम एक खेल और एक आनंद है। यदि आप किसी से प्रेम के कारण विवाह करते हैं, तो आपको जल्दी ही निराशा की अनुभूति होने लगेगी, क्योंकि खेल शीघ्र ही खत्म हो जाएगा, नयापन जल्दी ही विलीन हो जाएगा और ऊब आ जाएगी। विवाह तो एक गहरी मित्रता है--एक गहरी अखंडता। प्रेम उसमें होता ही है, लेकिन अकेला प्रेम ही नहीं होता इसलिए विवाह आध्यात्मिक है। उसमें आत्म प्रसार की इच्छा भी शामिल है। बहुत चीजें हैं जो कि आप अकेले नहीं बढ़ा सकते, विवाह उन्हीं बातों के लिए है। वह आपकी एक बड़ी आवश्‍यकता के लिए है कि कोई प्रतिसंवेदन करे--कोई इतना, इतना खुला हो कि आप अपने को पूर्णतः उसे सौंप सकें।

      विवाह यौन संबंध बिलकुल नहीं होता। हमने उसे जबरदस्ती यौन संबंध बना दिया है। सेक्स हो सकता है उसमें, नहीं भी हो सकता है। विवाह तो गहरी आध्यात्मिक मैत्री है। और यदि ऐसा विवाह होता है, तो हम एक भिन्‍न ही प्रकार की आत्मा को जन्म देते हैं--एक बहुत गुणात्मक रूप से भिन्‍न आत्मा को। इस प्रकार की मैत्री से जो बच्चा उत्पन्‍न होता है, उसका आधार आध्यात्मिक हो सकता है। परन्तु हमारे विवाह तो खाली यौन-संबंध है--मात्र एक सेक्स तृप्ति की व्यवस्था। और इस व्यवस्था में क्या पैदा हो सकता है? या तो हमारे विवाह यौन-क्रिया के लिए इंतजाम होते हैं अथवा वे क्षणिक रोमांटिक प्यार में निकलते हैं और ऊब में समाप्त होते हैं।

      वस्तुतः रोमांटिक (काल्पनिक) प्रेम रुग्ण होता है, क्योंकि आप बहुत लोगों को वैसा प्रेम नहीं कर सकते। अतः आप प्रेम करने की क्षमता इकट्ठी करते चले जाते हैं--संचय करते चले जाते हैं। जब आप उससे बुरी तरह भर जाते हैं, तब, जब कभी भी आपको कोई मिलता है और अवसर मिलता है तो वह जो बुरी तरह भर गया प्यार है प्रक्षेपित होता है। एक साधारण सी स्त्री देवी दिखलाई पड़ती है। एक साधारण सा पुरुष दिव्य हो जाता है, दिव्य मालूम पड़ता है--परमात्मा की तरह। परन्तु जब वह प्रवाह चला जाता है और आप सामान्य हो जाते हैं, तब आपको पता चलता है कि आप धो खा गए, और वह तो एक साधारण सा आदमी है, या कि वह एक साधारण सी स्त्री है।

      यह रोमांटिक पागलपन हमारे मोनोगेमस सिस्टम के कारण निर्मित होता है। यदि एक व्यक्ति को प्रेम करने दिया जाए, तो वह तनाव इकट्ठे नहीं करता। जिन्हें कि प्रक्षेपित करना पड़े। रोमांस केवल एक बहुत रुग्ण समाज में ही संभव है। वास्तव में, एक बहुत स्वस्थ समाज में कोई रोमांस नहीं होगा। प्रेम होगा, परन्तु रोमांस (उत्तेजना) नहीं। और यदि कोई रोमांस नहीं होगा, तो विवाह एक गहरे तल पर होगा और वह कभी भी निराशाजनक नहीं होगा। और यदि विवाह केवल प्रेम के कारण नहीं है वरन एक और अधिक गहरे संग के लिए है, मैं तू के गहरे संबंध के लिए है ताकि आप दोनों बढ़ सकें मैं की तरह नहीं बल्कि हम की भांति, तब विवाह सचमुच एक प्रशिक्षण बन जाता है अहं-शून्यता के लिए। परन्तु हम इस तरह के विवाह के
बारे में कुछ भी नहीं जानते। जो कुछ भी हम जानते हैं वह सिर्फ एक कुरूपता है, सिर्फ पूतें हुए चेहरे हैं और भीतर सब कुछ मृत है।

      और अंततः एक बच्चे को विधायक रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए न कि निषेधात्मक ढंग से। हर चीज में एक विधायक जोर होना चाहिए। तभी एक बच्चा बढ़ सकता है, तभी वस्तुतः वह एक व्यक्ति हो सकता है। यही मेरा मतलब है विधायक जोर से। हमारा जोर हमेशा निषेधात्मक होता है। मैं कहता हूंमैं किसी एक को प्रेम कर सकता हूं, किंतु मैं सबको प्रेम नहीं कर सकता। यह निषेधात्मक प्रशिक्षण है। इसके विपरीत मैं यह कहने में समर्थ हो। मैं सबको प्रेम कर सकता हूं, सिर्फ इस एक कोई नहीं। प्रेम करने की क्षमता बहुतों के लिए होनी चाहिए। सचमुच, कुछ व्यक्ति होते हैं जिन्हें कि आप प्रेम नहीं कर सकते, अतः उन्हें प्रेम करने के लिए स्वयं को बाध्य न करें। परन्तु आपका जोर तो अभी इस बात पर है कि मैं केवल
एक को प्रेम कर सकता हूं! मजनू ने कहा--मजनू केवल लैला को प्रेम करता हूं। मैं किसी और को प्रेम नहीं कर सकता। यह निषेधात्मक है। सारे संसार को वर्जित कर दिया गया। एक विधायक रुख यह होगा: विधायक रूप से मैं इस एक को प्रेम नहीं कर सकता, परन्तु मैं सारे विश्‍व को प्रेम कर सकता हूं। सभी आयामों में वे क्षेत्रों में सदैव अधिक ज्यादा विधायकता के लिए सोचें। यदि मैं अपने रुखों में निषेधात्मक हूं, तो फिर मैं अपने ही निषेधों से घिरा
हुआ हूं और मैं सब जगह निषेध ही देखता हूं। यह आदमी अच्छा नहीं है, क्योंकि यह झूठ बोलता है। किंतु यदि वह झूठ भी बोलता है फिर भी वह केवल झूठ ही तो नहीं है। क्यों नहीं और अधिक विधायक अंग की और देखें? क्यों बहुत जोर से झूठों के लिए ही चिंतित हों? और हम कहते हैं कि--वह आदमी चोर है। यदि वह आदमी चोर भी है, तो भी वह उससे कुछ अधिक ही है। एक चोर में भी अच्छे गुण हो सकते हैं।

      और वास्तव में उसमें होते हैं, क्योंकि बिना कुछ गुणों के आप चोर भी नहीं हो सकते। अतः क्यों नहीं हम उसके अच्छे गुणों की परवाह करते?

      एक चोर साहसी होता है, इसलिए क्यों नहीं हम उसके साहस की सराहना करें? क्यों नहीं उसके साहस को प्रेम करें? यहां तक कि जो आदमी झूठ बोलता है, बुद्धिमान होता है। यदि आप बुद्धिमान नहीं हैं, तो आप झूठ नहीं बोल सकते। झूठ को बहुत गहरी बुद्धि की आवश्‍यकता पड़ती है, जिसकी सच को नहीं होती। आप मूर्ख हैं, इसीलिए आप सच बोलते रह सकते हैं। परन्तु झूठ बोलने के लिए आपको चतुराई व एक विस्तृत चेतना की आवश्‍यकता पड़ती है। यदि आप एक झूठ बोलती हैं, तो आपको एक सौ झूठ बोलना पड़ता है।

      तब आपको उन सब को याद रखना पड़ेगा। अतः क्यों नहीं विधायक गुणों की ही चिंता की जाए? निषेध पर ही जोर क्यों हो?

      परन्तु हमारे समाज ने निषेधात्मक चित्त नि£मत किए हैं। और आप यह निषेधात्मक प्रत्येक में पा सकते हो। यह होगी ही, क्योंकि जीवन खाली विधायकताओं पर काबलियत नहीं हो सकता। इसलिए निषेध भी हैं, और यदि आप बच्चों को निषेध के लिए ही तैयार करते हैं तो वे अपने सारे जीवन निषेध की ही दुनिया में जीएंगे प्रत्येक बुरा हो जाएगा। और जब प्रत्येक बुरा होगा, तो आप अहंमन्य अनुभव करेंगे। तब केवल आप ही अच्छे होंगे।

      हम अपने बच्चों को हर चीज में बुराई ढूंढ़ने के लिए तैयार करते हैं। वे अच्छे होने की कोशिश करते हैं। हम उन्हें अच्छे होने के लिए जोर देते हैं और यह महसूस करने के लिए कि बाकी सब बुरे हैं। परन्तु कैसे कोई एक बुरे संसार में अच्छा हो सकता है? यह संभव नहीं है। आप केवल एक अच्छे संसार में ही अच्छे हो सकते हैं। इसलिए एक अच्छा समाज केवल एक विधायक मन से ही नि£मत हो सकता है। अतः, मन की विधायक स्थिति लाओ। और यहां तक कि कुछ नकारात्मक भी हो, तो भी उसमें भी सदैव कुछ विधायक देखो। वह वहां होगा हो। और यदि बच्चा विधायक को देखने में समर्थ हो जाए--निषेधात्मक में भी, तो आपने उसे कुछ दिया वह प्रसन्‍न होगा।

      आपने उसे एक निषेधात्मक चित्त दिया है। और यदि वह विधायक में भी निषेध देखने में समक्ष हो जाए, तो समझ लीजिए आपने उसके लिए नरक नि£मत कर दिया। सारी जिंदगी वह नर्क में रहेगा। स्वर्ग तो विधायक जगत में जीने में ही है। निषेधात्मक जगत में तो केवल नर्क है।

      यह सारा जगत एक नर्क हो गया है निषेधात्मक चित्त के कारण। मां अपने बच्चे से नहीं कह सकती कि वह स्त्री सुंदर है। कैसे हो सकता है यह? केवल वह स्वयं ही सुंदर है कोई और नहीं। एक पति अपनी पत्नी से नहीं कह सकता, उस स्त्री की ओर देखो जो कि सड़क पर जा रही है, कितनी सुंदर है वह! वह ऐसा नहीं कह सकता। वह कहता है, परन्तु अपने भीतर ही। और यदि पत्नी साथ है तो वह भीतर भी कहने में डरेगा।

      एक पति जो कि अपनी स्त्री के साथ जा रहा हो, तो इधर-उधर देखने में भी डरा है। वह नहीं देख सकता। इसलिए वह कभी अपनी पत्नी के साथ जाने में खुश नहीं होता। यह एक ऐसा नर्क है! यदि कोई सुंदर है, तो हम वैसा कह क्यों नहीं सकते?

      एक मां अपने बच्चे की बात ही नहीं सुन सकती, यदि वह यह कह रहा हो कि कोई सुंदर है। वह तो महसूस करेगी कि सिर्फ वह ही सुंदर है, और सारा जगत कुरूप है। और अंततः बच्चा यह महसूस करेगा कि उसकी मां। सर्वाधिक कुरूप है, अतः कैसे आप एक कुरूप संसार में सुंदरता के दर्शन कर सकते हैं?

      इसीलिए एक पिता, एक शिक्षक जो सदा यही कहे चले जाते हैं कि केवल मैं ही सत्य का मालिक हूं बच्चे की श्रद्धा नहीं पा सकते।

      कोई महिला दो दिन पहले ही यहां आई और उसने मुझसे कहा--मैं भी आपको सुनना चाहती हूं, परन्तु मेरा गुरु कहता है कि यह पाप है। तुम मेरी हो, तो फिर तुम कहीं और कैसे जा सकती हो? और जब मैं तुम्हें सत्य दे सकता हूं, तो क्या जरूरत है कहीं और जाने की? जल्दी या देर से यह गुरु-गुरु नहीं रहेगा, यह शिक्षक नहीं रह पाएगा, क्योंकि वह निषेध की शिक्षा दे रहा है। और यही निषेध एक दिन अंततः इस पर लौटने वाला है।

      झेन में, गुरु अपने शिष्यों को दूसरों के पास, अपने विरोधियों के पास भेजेंगे। कोई एक गुरु के पास करीब एक अर्थ रहेगा, तब गुरु उसे कहेगा--अब तुम मेरे विरोधी के पास जाओ। कुछ मैंने बतलाया, परन्तु शेष यह बतला सकता है--वह जो दूसरा हिस्सा है। इसलिए तुम जाओ।
यह गुरु सदा गुरु की तरह स्मरण किया जाएगा। आप उसका कभी निरादर नहीं कर सकते। आप कैसे निरादर कर सकते हैं? वह आपको विरोधी के पास भेजता है--दूसरे हिस्से का पता लगाने के लिए। मैंने आपको कुछ कहा, परन्तु यह पूर्ण तो नहीं है और पूर्ण को कोई नहीं कह सकता, क्योंकि पूर्ण इतना विराट है। अतः विधायक रुख नि£मत करो और एक ज्यादा अच्छा संसार उसमें से उदित होगा। किंतु ये बहुत प्राथमिक बातें हैं यह बहुत ही जटिल विषय है। अतएव हम इस पर फिर कभी बात करेंगे।
आज के लिए इतना ही।
बंबई, दिनांक 20 फरवरी 1972, रात्रि

ओशो

आत्‍म पूजा उपनिषद

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