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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-02)

     तंत्र, अध्यात्म और काम-ओशो
     दूसरा प्रवचन—(का अंश, तांत्रिक प्रेम)

(Tantra Spiituality and Sex का हिन्दी अनुवाद)

 शिव देवी से कहते हैं:?
''जब प्रेम किया जा रहा हो प्रिय देवी, प्रेम में शाश्वत जीवन की भांति प्रवेश करो।''
 शिव प्रेम से शुरू करते हैं। पहली विधि प्रेम से संबंधित है क्योंकि प्रेम ही वह निकटतम अनुभव है जिसमें तुम विश्राम पूर्ण, रिलैक्स होते हो। अगर तुम प्रेम नहीं कर सकते तो तुम्हारा विश्रामपूर्ण होना असंभव है। अगर तुम विश्रामपूर्ण हो सको तुम्हारा जीवन एक प्रेममय जीवन होगा।
तनाव से भरा व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। क्यों? तनाव से भरा व्यक्ति हमेशा किसी उद्देश्य के लिए जीता है। वह धन कमा सकता है लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं प्रेम कोई वस्तु नहीं। तुम उसका संग्रह नहीं कर सकते; तुम उसे बैंक में जमा-पूंजी नहीं बना सकते, तुम उससे अपने अहंकार को मजबूत नहीं कर सकते। निश्चित ही प्रेम एक बहुत ही अर्थहीन कृत्य है जिसका उसके पार कोई अर्थ नहीं कोई उद्देश्य नहीं। उसका अस्तित्व किसी और चीज के लिए नहीं अपने ही लिए है। प्रेम-प्रेम के लिए है।

तुम कुछ पाने के लिए धन कमाते हो वह एक साधन है। तुम घर बनाते हो किसी उद्देश्य से उसमें रहने के लिए बनाते हो, यह एक साधन है। प्रेम साधन नहीं है। तुम प्रेम क्यों करते हो? किसलिए करते हो? प्रेम अपने में एक साध्य है। इसीलिए बुद्धि जो बहुत हिसाबी-किताबी है तर्कवान है जो हमेशा उपयोगिता की भाषा में सोचती
है प्रेम नहीं कर सकती। और जो बुद्धि हमेशा किसी उपयोगिता किसी उद्देश्य की भाषा में ही सोचती है वह सदा तनावपूर्ण रहती है। क्योंकि उद्देश्य की पूर्ति भविष्य में होगी अभी और यहां कभी नहीं होती।
तुम मकान बनाते हो, तुम अभी और इसी समय उसमें नहीं रह सकते। पहले तुम्हें उसे बनाना पड़ेगा तुम भविष्य में ही उसमें रह पाओगे, अभी नहीं। तुम धन कमाते हो, बैंक में धन राशि भविष्य में जमा होगी अभी नहीं। उपाय तुम्हें अभी करने होंगे, फल भविष्य में आएंगे।
प्रेम हमेशा यहीं है। उसका कोई भविष्य नहीं। इसीलिए प्रेम ध्यान के अति निकट है। इसीलिए मृत्यु भी ध्यान के अति निकट है; क्योंकि मृत्यु अभी और यहीं है। वह कभी भविष्य में नहीं घटती। क्या तुम भविष्य में मर सकते हो? केवल वर्तमान में ही मर सकते हो। कोई कभी भविष्य में नहीं मरता। तुम भविष्य में कैसे मर सकते हो या तुम अतीत में कैसे मर सकते हो? अतीत जा चुका, वह अब है ही नहीं इसलिए तुम उसमें मर नहीं सकते। भविष्य अभी आया नहीं, इसलिए तुम उसमें कैसे मर सकते हो?
मृत्यु हमेशा वर्तमान में घटती है।
मृत्यु प्रेम, ध्यान ये सभी वर्तमान में ही घटित होते हैं। इसलिए अगर तुम मौत से भयभीत हो तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर तुम प्रेम से भयभीत हो तो तुम ध्यान नहीं कर सकते। अगर तुम ध्यान से भयभीत हो तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ है--उपयोगिता की दृष्टि से व्यर्थ नहीं बल्कि इस अर्थ में कि तुम कभी जीवन में किसी आनंद को अनुभव न कर सकोगे... निरर्थक।
प्रेम, ध्यान, मृत्यु--इन तीनों को एक दूसरे के साथ जोड़ने की बात विचित्र लग सकती है लेकिन ऐसा नहीं है। ये तीनों समान अनुभव हैं। इसलिए अगर तुम एक में प्रवेश कर सको तो शेष दोनों में प्रवेश कर सकते हो।
शिव प्रेम से आरंभ करते हैं वह कहते हैं ''जब प्रेम किया जा रहा हो प्रिय राजकुमारी प्रेम में शाश्वत जीवन की भांति प्रवेश करो।''
इसका क्या अर्थ है? बहुत-सी बातें हैं। एक जब तुमसे कोई प्रेम कर रहा हो तो तुम्हारा कोई अतीत नहीं होता, कोई भविष्य नहीं होता। तुम वर्तमान में होते हो। क्या तुमने कभी किसी से प्रेम किया है? अगर तुमने कभी प्रेम किया है तब तुमने अनुभव किया होगा कि मन वहां नहीं है। इसीलिए तथाकथित बुद्धिमान लोग कहते हैं कि
प्रेमी अंधे होते हैं बुद्धिहीन और पागल। प्रेमी अंधे होते हैं क्योंकि उनके पास वे आंखों नहीं है जो भविष्य को देख सकें और जो वे कर रहे हैं उसका हिसाब किताब लगा सकें। वे अंधे हैं। वे अतीत को नहीं देख सकते।
प्रेमियों को क्या हो जाता है? वे बिना किसी भूत और भविष्य का हिसाब लगाए अभी और यहीं होते हैं बिना किसी परिणाम की चिंता किए इसीलिए लोग उन्हें अंधा कहते हैं। वे हैं। वे उन लोगों की नजरों में अंधे हैं जो बहुत हिसाबी-किताबी हैं और जो हिसाबी किताबी नहीं है उनके लिए वे द्रष्टा हैं। जो हिसाबी किताबी नहीं है वे प्रेम को
असली आंख असली दृष्टि की भांति देखेंगे।
इसलिए पहली बात- प्रेम के क्षण में अतीत और भविष्य दोनों ही नहीं रहते। एक सूक्ष्म बात समझने जैसी है:--जब न भूत काल है न भविष्य तब क्या तुम इस क्षण को वर्तमान कह सकते हो? वर्तमान केवल इन दोनों के बीच में हैं- भूत और भविष्य के बीच। यह संक्षेप है। अगर कोई भूत नहीं कोई भविष्य नहीं तब इसे वर्तमान कहने
का क्या अर्थ है? यह निरर्थक है। इसीलिए शिव वर्तमान शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे कहते हैं अनंत जीवन- शाश्वतता, शाश्वतता में प्रवेश करो।
हम समय को तीन कालों में विभाजित करते हैं : - भूत, वर्तमान, भविष्य। विभाजन गलत है बिल्कुल गलत है। समय वास्तव में भूत और भविष्य है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है वर्तमान शाश्वतता का हिस्सा है। वह जो बीत चुका है वह जो आने वाला है समय है। जो है वह समय नहीं क्योंकि यह कभी बीतता नहीं यह सदा है। अभी सदा यहां है- सदा यहां है। यह अभी अंतहीन है शाश्वत है।
अगर भूत से तुम चलो, तुम कभी वर्तमान में नहीं आते। भूत से तुम हमेशा भविष्य में चले जाते हो। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जो वर्तमान हो। भूत से तुम सदा ही भविष्य में पहुंच जाते हो। वर्तमान से तुम कभी भविष्य में नहीं जा सकते। वर्तमान से तुम गहरे और गहरे... और भी वर्तमान में और वर्तमान में... वही अनंत-जीवन है।
हम इसे इस तरह भी कह सकते है; : भूत से भविष्य समय है। समय का अर्थ है कि सीधे सपाट मैदान में सीधी रेखा में चलना इसे या हम यूं कह सकते है; : यह क्षैतिज हारिजोन्टल है। जैसे ही तुम वर्तमान में होते हो आयाम बदल जाता है। तुम ऊर्ध्वाधर वर्टिकल गति करने लगते हो या ऊपर या नीचे ऊंचाई की ओर या निचाई
की ओर गति करने लगते हो। लेकिन तब तुम सीधी सपाट एक ही रेखा में गति नहीं करते। कोई बुद्ध कोई शिव समय में नहीं, अनंतता में जीता है।
जीसस से किसी ने पूछा, ''तुम्हारे परमात्मा के राज्य में क्या होगा? जो आदमी यह उससे पूछ रहा था उसका तात्पर्य समय से न था। वह पूछ रहा था कि उसकी इच्छाओं का क्या होगा वे कैसे पूरी होंगी? क्या वहां जीवन चिरथायी होगा या वहां मृत्यु होगी? क्या वहां कोई दुख और पीड़ा होगी? क्या वहां कोई निस और उच्च व्यक्ति होंगे। वह इसी संसार की चीजों के बारे में पूछ रहा था। तुम्हारे परमात्मा के राज्य में क्या-क्या होगा?
और जीसस ने उत्तर दिया- उत्तर झेन गुरुओं की भांति है। जीसस ने कहा, ''वहां कोई समय नहीं होगा।'' उस व्यक्ति को शायद यह बात समझ न आई होगी उस व्यक्ति को इस तरह उत्तर दिया गया:--वहां कोई समय न होगा। जीसस ने केवल एक बात कही ''वहां कोई समय न होगा।'' समय हारिजान्टल है सीधी-सपाट रेखा।
और परमात्मा का राज्य ऊर्ध्वाधर वर्टिकल है। वह शाश्वत है नित्य है। यह सदा यहीं है; केवल तुम्हें ही समय से पार इसमें प्रवेश करना होगा।
इसलिए प्रेम पहला द्वार है... तुम समय के पार जा सकते हो। इसलिए हर कोई चाहता है कि प्रेम मिले और वह प्रेम करे। और कोई नहीं जानता कि प्रेम की इतना महत्ता क्यों हैं? इसके लिए एक गहरी कामना क्यों है? और जब तक तुम इसे भली भांति समझ नहीं लेते न तो प्रेम कर सकते हो और न ही प्रेम पा सकते हो क्योंकि प्रेम इस धरती पर एक गहरी से गहरी घटना है।
हम निरंतर यही सोचते हैं कि हर व्यक्ति जैसा भी वह है प्रेम पाने के योग्य है। यह मामला ऐसा नहीं है यह इस तरह नहीं है। इसीलिए तुम निराश और दुखी होते हो। प्रेम एक दूसरा ही आयाम है। और अगर तुम समय में किसी से प्रेम करने की कोशिश करते हो तो तुम अपनी कोशिश में असफल होओगे समय में प्रेम संभव नहीं है।
मुझे एक घटना स्मरण हो आई है।
मीरा कृष्ण को प्रेम करती थी। वह एक राजकुमार की पत्नी थी। राजकुमार कृष्ण से ईर्ष्या करने लगा। कृष्ण कहीं था ही नहीं, कृष्ण वहां विद्यमान भी न था। कृष्ण का कोई भौतिक शरीर भी नहीं था। कृष्ण के भौतिक अस्तित्व और मीरा के भौतिक अस्तित्व में पांच हजार वर्ष का अंतराल है। इसलिए देखा जाए तो मीरा कृष्ण के प्रेम में कैसे पड़ सकती है? समय का इतना बड़ा अंतराल!
इसलिए एक दिन मीरा से उसके पति ने पूछा ''तुम अपने कृष्ण से बातें करती रहती हो उसके सामने नाचती और गाती रहती हो, लेकिन वह है कहां? तुम किसके साथ इतना प्रेम करती हो?'' मीरा कृष्ण से बातें करती हंसी मजाक करती, झगड़ती और रूठती। वह पागल दिखाई देती थी वह हमारी नजरों में पगाल थी। इसलिए
राजकुमार ने कहा 'तुम पागल तो नहीं हो गई? कहां है तुम्हारा कृष्ण? तुम किससे प्रेम करती? तुम किससे साथ बातें करती हो? और मैं यहां हूं और तुम मुझे बिल्कुल ही भूल गई हो।''
मीरा ने कहा, ''कृष्ण यहां हैं तुम यहां नहीं हो, क्योंकि कृष्ण सदा है शाश्वत है तुम नहीं हो। वह सदा यहां रहेगा, वह सदा यहां था वह यहां है। तुम यहां नहीं रहोगे, तुम यहां नहीं थे। एक दिन तुम यहां नहीं होओगे।'' इसलिए मैं कैसे विश्वास करूं कि इन दो अनतित्वों में तुम यहां हो? दो अनतित्वों में अस्तित्व का होना कैसे संभव
है?
राजकुमार समय में है कृष्ण समयातीत है इसलिए तुम राजकुमार के निकट हो सकते हो पर दूरी मिटाई नहीं जा सकती। तुम दूरी होओगे। तुम समय में कृष्ण से बहुत-बहुत दूर होते हुए भी समीप हो सकते हो। लेकिन यह एक अलग आयाम है।
मैं अपने सामने देखता हूं और वहां एक दीवार है। मैं अपनी नजर घुमाता हूं और वहां आकाश है। जब तुम समय में देखते हो, तो वहां सदा दीवार है। जब तुम समय के पार देखते हो वहां एक खुला आकाश है अनंत असीम। प्रेम असीमता, अस्तित्व की अनंतता शाश्वतता के द्वार खोल देता है। इसलिए अगर तुमने वास्तव में कभी प्रेम किया हो तो प्रेम को ध्यान की विधि बनाया जा सकता है। यह वही विधि है : ऐसे प्रेमी मत बनना जो अलग-अलग बाहर खड़ा हो गया है। प्रेम को और अनंतता शाश्वतता में प्रवेश करो। जब तुम किसी से प्रेम करते हो क्या तुम वहां एक प्रेम करने वाले के रूप में होते हो? अगर तुम वहीं हो, तो तुम समय में हो। और प्रेम झूठा है नकली है। अगर अब भी तुम वहां मौजूद हो और कह सकते हो ''मैं हूं'' तब तुम
शारीरिक रूप से निकट हो सकते हो आत्मिक रूप से तुम्हारे बीच ध्रुवीय अंतर है।
प्रेम में तुम नहीं, केवल प्रेम, केवल प्रेममयता ही बचनी चाहिए। प्रेममय बनो! अपने प्रेमी या प्रेमिका को दुलारते, पुचकारते, चुमकारते समय दुलार ही हो जाना। चुंबन लेते समय चुंबन देने वाला या लेने वाला मत होना चुंबन ही हो जाना। अहं को, मैं को बिल्कुल भूल जाओ; कर्म में ही लीन हो जाओ। कृत्य में इस तरह डूब जाओ कि कर्त्ता ही न बचे। और अगर प्रेम में इस तरह गति नहीं कर सकते तो चलने खाने आदि कृत्यों को में तुम्हारे लिए इस तरह गति करना कठिन है बहुत ही कठिन हैं क्योंकि प्रेम अहंकार को मिटा देने के लिए सरलतम उपाय है। इसलिए जो अहंकारी हैं वे प्रेम नहीं कर सकते। वे इसके संबंध में चर्चा कर सकते हैं गीत गा सकते हैं लिख सकते हैं लेकिन प्रेम नहीं कर सकते।
अहंकार प्रेम नहीं कर सकता।
शिव कहते हैं ''प्रेममय हो जाओ।'' जब तुम आलिंगन में बंधे हो तो आलिंगन ही हो जाओ चुंबन ही हो जाओ। स्वयं को पूर्णतया भूल जाओ ताकि तुम कह सको मैं हूं ही नहीं। केवल प्रेम ही है। तब हृदय नहीं धड़कता प्रेम ही धड़कता है तब रक्त का संचार नहीं होता प्रेम ही संचरित होता है। तब आंखों नहीं देखती तब प्रेम ही देखता
है। तब हाथ स्पर्श नहीं करते, प्रेम ही स्पर्श करता है।
''प्रेम ही हो जाओ!'' और शाश्वत जीवन में प्रवेश करो। प्रेम अचानक ही तुम्हारे जीवन का आयाम बदल देता है। तुम समय से बाहर फेंक दिये जाते हो। और तुम शाश्वतता के सम्मुख खड़े हो जाते हो।
प्रेम एक गहरा ध्यान बन सकता है उतना गहरा जितना संभव हो सकता है। और प्रेमियों ने कभी-कभी उसे जाना है जो संतों ने भी नहीं जाना। प्रेमियों ने उस केंद्र को छुआ है बड़े योगी भी चूक जाते हैं। लेकिन तब तक यह एक झलक मात्र ही होगी जब तक तुम अपने प्रेम को ध्यान में रूपांतरित नहीं कर लेते। तंत्र का यही अर्थ है ''प्रेम का ध्यान में रूपांतर।'' और अब तुम समझ पाओगे कि क्यों तंत्र ''प्रेम और संभोग के संबंध में'' इतनी बात करता है। क्यों? क्योंकि प्रेम वह सहजतम प्राकृतिक द्वार है जहां से तुम इस संसार के पार जा सकते हो इस अनुप्रथ, हारिजान्टल आयाम से।
शिव को अपनी देवी के साथ देखो। दोनों की और ध्यान से देखो। वे दो दिखाई नहीं देते वे एक हैं। एकत्व इतनी गहरी है कि वह प्रतीकात्मक बन गया है। हम सबने शिवलिंग देखा है। वह लिंग-प्रतीक है वह शिव की जननेंद्रिय का प्रतीक है। लेकिन वह अकेला नहीं वह देवी की योनि में स्थित है। उस समय के हिंदू बहुत ही साहसी
थे। अब जब तुम शिवलिंग देखते हो तो तुम्हें याद भी नहीं कि यह लिंग-प्रतीक है। हम भूल गए हैं; हमने इसे पूरी तरह भुला देने का प्रयत्न किया है।
जुंग ने अपने संमरणों में एक बड़े मजे की घटना का उल्लेख किया है वह भारत आया, वह कोणार्क के मंदिरों को देखने गया और कोणार्क के मंदिरों में बहुत से शिवलिंग हैं--लिंग-प्रतीक हैं जो पंडित उसे मंदिर दिखाने ले गया था, उसने शिवलिंगों को छोड़कर शेष सब की व्याख्या की। और वे संख्या में इतने थे कि उनसे बचना मुश्किल था।
जुंग को अच्छी तरह पता था लेकिन उस पंडित को चिढ़ाने के लिए वह बार-बार पूछता लेकिन ये क्या हैं? इस पर पंडित ने आखिर जुंग के कान में कहा ''यह बात यहां मत पूछो। मैं तुम्हें बाद में बता दूंगा। यह गुप्त बात है।'' जुंग भीतर ही भीतर हंसा होगा। ये हैं आज के हिंदू।
मंदिर के बाहर आकार पंडित ने पास आकर कहा, दूसरों के सामने पूछना आपके लिए ठीक नहीं था। अब मैं आपको बताता हूं। यह गुप्त बात है। ''और तब फिर उसने जुंग के कान में कहा ''वे हमारे गुप्त अंग हैं।'' जब जुंग वापस गया, वह एक महान विद्वान से मिला पूर्वी विचार धारा का मिथक का, दर्शन का प्रकांड पंडित था। उसने यह किसा हेनरिक जिम्मर को सुनाया। जिम्मर उन प्रतिभाशाली व्यक्तियों में से एक था जिन्होंने भारतीय चिंतन, मिथक दर्शन को गहराई से समझने का प्रयत्न किया था और वह भारत का और इसकी चिंतन शैली का, जीन के प्रति इसके अताअकक दृष्टिकोण का प्रेमी था। जब उसने जंग से यह बात सुनी वह हंसा और उसने कहा, ''नवीनता की दृष्टि से यह ठीक है। मैंने हमेशा महान भारतीय--बुद्ध कृष्ण, महावीर के बारे में सुना था। तुम जो कुछ भी बता रहे हो वह महान भारतीयों के संबंध में नहीं केवल भारतीयों के संबंध में है।''
प्रेम, शिव के लिए महान द्वार है। और उनके लिए कामवासना कुछ ऐसी चीज नहीं जिसकी निंदा की जाए। उनके लिए काम बीज है और प्रेम उसका फूल है। अगर तुम बीज की निंदा करते हो तो तुम फूल की निंदा कर रहे हो। काम वासना प्रेम बन सकती है। अगर वह कभी प्रेम नहीं बनती तो वह अपंग है। अपंगता की निंदा करो, काम वासना की नहीं। प्रेम में फूल आने ही चाहिए; काम वासना प्रेम बननी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं हो रहा तो यह काम वासना की गलती नहीं। यह तुम्हारी गलती है।
कामवासना केवल कामवासना ही न रह जाए यही तंत्र की शिक्षा है - इसका प्रेम में अवश्य रूपांतरण होना चाहिए। और प्रेम प्रेमी ही न रह जाए। यह प्रकाश में ध्यान में, परम रहस्यमय शिखर में रूपांतरित होना चाहिए। प्रेम को कैसे रूपांतरित करें? कृत्य ही हो जाओ और कर्त्ता को भूल जाओ। प्रेम करते समय प्रेम ही हो जाओ। तब यह तुम्हारा प्रेम या मेरा प्रेम या किसी अन्य का प्रेम नहीं रह जाएगा। वह मात्र प्रेम है। जब तुम वहां नहीं होते तब परम स्रोत, परम धारा के हाथों में होते हो तब तुम प्रेम में होते हो। वह तुम नहीं जो प्रेम में हो तब प्रेम ने ही तुम्हें घेर लिया है तुम मिट गए हो। तुम मात्र एक प्रवाहमान ऊर्जा हो गए हो।
डी. एच. लारेंस, जो इस सदी का बहुत ही सृजनात्मक प्रतिभा का व्यक्ति था जाने या अनजाने तंत्र-विशेषज्ञ था। पश्चिम में उसकी पूरी तरह निंदा की गई उसकी किताबों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। न्यायालय में उस पर कई अभियोग चलाए गए; क्योंकि उसने कहा कि काम-ऊर्जा ही एक मात्र ऊर्जा है यदि तुम उसके प्रति निंदा का
भाव रखते हो और उसका दमन करते हो तो जगत के विपरीत जा रहे हो और तुम उस ऊर्जा के उच्चतर परिणामों को जानने के लिए कभी योग्य न हो सकोगे।
और दमन से यह काम-ऊर्जा कुरूप हो जाती है। यही दुशचक है। पुरोहित-पुजारी, तथाकथित धार्मिक लोग, पोप-पादरी, शंकराचार्य और दूसरे लोग- सभी काम की निंदा किए जाते हैं। वे कहते हैं कि यह कुरूप चीज है। जब तुम इसका दमन करते हो, यह करूप हो जाती है इसलिए वे कहते हैं देखो! तुम जो कर रहे हो वह असुंदर है अप्रिय है और तुम भी जानते हो कि कुरूप है।
लेकिन यह जो काम है वह कुरूप नहीं, ये पादरी और पुरोहित हैं जिन्होंने उसे असुंदर बना दिया है। और एक बार जब उन्होंने उसे कुरूप बना दिया तो वे ठीक सिद्ध हो गए। और जब वे ठीक साबित हो गए तो तुम उसे ज्यादा से ज्यादा कुरूप बनाते चले जाते हो।
काम एक निर्दोष ऊर्जा है तुम में बहता जीवन, तुम में जीवंत अस्तित्व। उसे अपंग मत बनाओ। उसे ऊंचे शिखरों की ओर गतिमान होने दो काम को प्रेम बनने दो। इसमें अंतर क्या है? जब तुम्हारा चित्र में कामुकता है तो तुम दूसरे का शोषण करते हो। दूसरा सिर्फ इस्तेमाल करने का और फेंकने का साधन है। जब काम प्रेम बन जाता है दूसरा साधन नहीं है दूसरे का उपयोग नहीं किया जाता है। दूसरा वास्तव में दूसरा नहीं रह जाता। जब तुम प्रेम करते हो, प्रेम केंद्रित नहीं होता बल्कि दूसरा महत्वपूर्ण अनूठा हो जाता है। ऐसा नहीं है कि तुम उसका शोषण कर रहे हो--नहीं। इसके विपरीत, तुम दोनों एक गहरे अनुभव के सहयोगी हो शोषक और शोषित नहीं। तुम एक दूसरे को प्रेम के एक भिन्न जगत में गति करने के लिए सहयोग दे रहे हो।
काम शोषण नहीं है। प्रेम एक अलग प्रकार की दुनिया में एक साथ गति करना है। अगर यह गति क्षणिक नहीं है और अगर यह गति ध्यान बन जाती है अगर तुम स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो और प्रेमी और प्रेमिका विदा हो जाते है और वहां केवल प्रेम प्रवाहित होता है तब शिव कहते हैं ''शाश्वत जीवन तुम्हारा है।''

आज इतना ही 

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