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शनिवार, 2 मई 2020

शूून्य की किताब-(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-01

शुन्यता ही एकात्मा है-(प्रवचन-पहला)
Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब) ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
महापथ कठिन नहीं है--पहला प्रवचन
सूत्र:
महापथ उनके लिए कठिन नहीं है
जिनकी अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं।
जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते,
सब--कुछ सुस्पष्ट होता है और
कुछ भी छिपा नहीं रहता।
थोड़ा सा भेद और पृथ्वी और स्वर्ग में
अनंत दूरी हो जाती है।
अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो,
तो पक्ष या विपक्ष में राय मत बनाओ।
तुम्हारी पसंद और नापसंद
का संघर्ष ही मन का रोग है।

हम झेन गुरु के अ--मन के सुंदर संसार में प्रवेश करेंगे। सोसान तीसरे झेन गुरु हैं। उनके संबंध में कुछ अधिक ज्ञात नहीं है। यह ऐसा ही है जैसा होना चाहिए, क्योंकि इतिहास में केवल हिंसा का लेखा--जोखा होता है। इतिहास शांति का लेखा--जोखा नहीं रखता-- यह उसका अभिलेखन कर ही नहीं सकता। सभी लेखे--जोखे उपद्रवों के हैं। जब भी कोई वास्तव में मौन हो जाता है वह सभी अभिलेखों से विलुप्त हो जाता है वह हमारे पागलपन का हिस्सा नहीं रह जाता। इसलिए यह ऐसा ही है जैसा इसे होना चाहिए।

सोसान जीवन भर एक घुमक्कड़ भिक्षु रहा। वह कहीं टिका नहीं वह सदा घूमता रहा। वह एक नदी की तरह रहा, स्थिर तालाब की तरह नहीं। वह एक सतत गति था। बुद्ध के घुमक्कड़ों का यही अर्थ है वे बाह्य जगत में ही नहीं बल्कि आतरिक जगत में भी गृह--विहीन होने चाहिए क्योंकि जब भी तुम घर बनाते हो तुम उससे आसक्त हो जाते हो। उन्हें कहीं जड़ें नहीं जमानी चाहिए सिवाय इस समस्त जगत के उनका कोई घर नहीं है।
जब यह पता भी चल गया कि सोसान बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है तब भी उसने अपना पुराना भिक्षुक होने का ढंग जारी रखा। उसके बारे में कुछ विशेष नहीं था। वह एक साधारण आदमी था-- एक ताओ का व्यक्ति था।
मैं एक बात कहना चाहूंगा और तुम उसे अवश्य स्मरण रखना। झेन सम्मिश्रण है। और जिस तरह पौधों के सम्मिश्रण से और अधिक सुंदर फूल पैदा हो सकते हैं, और जीव--जगत में सम्मिश्रण से अधिक सुंदर बच्चे उत्पन्न होते हैं वैसा ही झेन के साथ भी हुआ है। झेन, बुद्ध और लाओंत्सु के विचारों का सम्मिलन है। वह अभूतपूर्व महामिलन है, बड़े से बड़ा जो कभी घट सकता है। इसीलिए झेन बुद्ध के विचारों से और लाओत्सु के विचारों से अधिक सुंदर है। वह उच्चतम शिखरों से विकसित फूल है और उन शिखरों का मिलन है। झेन न तो बौद्ध है, न ताओवादी है, लेकिन इसके भीतर दोनों समाहित हैं।
भारत धर्म के विषय में कुछ ज्यादा ही गंभीर है--भारत के मन पर अपने लंबे अतीत का भारी बोझ है और धर्म गंभीर हो गया है। लाओत्सु उपहास का पात्र बना रहा-- लाओत्सु एक वृद्ध मूर्ख के रूप में जाना जाता है। वह बिलकुल भी गंभीर नहीं है तुम्हें उससे अधिक गैर--गंभीर व्यक्ति नहीं मिल सकता।
फिर बुद्ध के विचारों का और लाओत्सु के विचारों का मिलन हुआ, भारत और चीन का मिलन हुआ और झेन का जन्म हुआ। और सोसान उस मूल--स्रोत के बिलकुल समीप है जिस समय झेन का जन्म हो रहा था। उसमें मूल समाहित है।
उसकी जीवनी की कोई भी अर्थवत्ता नहीं है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति संबुद्ध हो जाता है तो उसकी जीवनी नहीं होती। अब वह एक रूप--आकार नहीं रह जाता। इसलिएउसका जन्म कब हुआ कब उसकी मृत्यु हुई-- ये तथ्य असंगत हो जाते हैं। इसीलिए पूरब में हमने जीवनियों ऐतिहासिक तथ्यों की चिंता नहीं की। यहां ऐसा मोह कभी नहीं रहा। यह सनक अब पश्चिम से आई है, अब लोग असंगत बातों में अधिक रुचि रखते हैं। कब किसी सोसान का जन्म हुआ इससे क्या अंतर पड़ता है--इस वर्ष या उस वर्ष? कब उसकी मृत्यु हुई इस बात का क्या महत्व है?
सोसान महत्वपूर्ण है न कि उसका इस संसार में प्रवेश और शरीर न कि संसार से उसकी विदाई। आगमन और प्रस्थान महत्वपूर्ण नहीं है। उसका होना ही एकमात्र अर्थवत्ता है।
केवल यही शब्द हैं जो सोसान ने बोले। स्मरण रहे, वे शब्द नहीं हैं, क्योंकि वे उस मन से निकले हैं जो शब्दों के पार चला गया है। वे अनुमान नहीं हैं वे प्रामाणिक अनुभव हैं। वह जो भी कहता है उसे पता है।
वह कोई शब्दों का ज्ञाता नहीं है, वह प्रतिभावान व्यक्ति है। उसने रहस्य की गहराइयों में प्रवेश किया है और जो कुछ भी वह वहां से लाता है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। वह तुम्हें संपूर्ण रूप से पूरी तरह रूपांतरित कर सकता है। अगर तुम उसे सुनोगे तो सुनना ही रूपांतरण बन सकता है, क्योंकि वह जो भी कह रहा है वह शुद्धतम सोना है।
लेकिन तब यह कठिन भी है क्योंकि उसके और तुम्हारे बीच बहुत बहुत अधिक दूरी है तुम मन हो और वह अ--मन है। यद्यपि वह शब्दों का प्रयोग करता है परंतु वह मौन में कुछ कह रहा है अगर तुम मौन भी रहो तो भी तुम्हारे भीतर बकबक चलती रहती है।
ऐसा हुआ, मुल्ला नसरुद्दीन के विरुद्ध न्यायालय में एक मुकदमा था। न्यायालय कुछ अधिक प्रमाणित न कर सका। उस पर कई विवाह करने बहुत सी पत्नियां रखने का आरोप था। सभी को इस बात का पता था, लेकिन कोई प्रमाणित नहीं कर सका।
वकील ने नसरुद्दीन से कहा तुम केवल चुप रहना, बस इतना ही करना। अगर तुमने एक भी शब्द बोला तो फसोगे। इसलिए तुम सिर्फ चुप रहना बाकी सब मैं सम्हाल लूंगा।
मुल्ला नसरुद्दीन चुप रहा--भीतर ही भीतर उबल रहा था, अशांति में था वह, उसने कई बार बीच में टोकना चाहा, परंतु किसी प्रकार चुप रहा और अपने ऊपर नियंत्रण रखा। ऊपर से तो वह बुद्ध जैसा प्रतीत हो रहा था भीतर से विक्षिप्त था। न्यायालय उसके विरुद्ध कुछ भी प्रमाणित न कर सका। न्यायाधीश यद्यपि वह जानता था कि इस शहर में उसकी कई पत्नियां हैं लेकिन अगर कोई प्रमाण नहीं था तो न्यायाधीश क्या कर सकता था? इसलिए न्यायाधीश को उसे छोड़ देना पड़ा।
उसने कहा मुल्ला नसरुद्दीन तुम्हें रिहा किया जाता है। तुम घर जा सकते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन उलझन में पड़ गया और बोला: महानुभाव, कौन से घर? उसके कई घर थे क्योंकि शहर में उसकी कई पत्नियां थीं।
तुम्हारे मुंह से निकला एक ही शब्द तुम्हारे भीतरी मन को प्रकट कर देगा एक शब्द और तुम्हारा अस्तित्व प्रकट हो जाता है। एक शब्द की भी जरूरत नहीं केवल एक मुखमुद्रा ही तुम्हारे बकवासी मन को प्रकट कर देगी। अगर तुम चुप भी रहते हो, तो तुम्हारी चुप्पी तुम्हारे भीतर बैठे बकवासी बंदर के अतिरिक्त कुछ और प्रकट नहीं करेगी। जब कोई सोसान बोलता है वह किसी और ही तल से बोलता है। बोलने में उसका कोई रस नहीं है किसी को प्रभावित करने में उसकी कोई रुचि नहीं है वह तुम्हें किसी सिद्धांत, या दर्शनशास्त्र या वाद को मनवाना नहीं चाहता है। नहीं जब वह बोलता है उसका मौन खिलता है। जब वह बोलता है वह वही कह रहा है जो उसने जाना है और जिसे वह तुम्हारे साथ बांटना चाहता है। वह तुम्हें मनवाने के लिए नहीं है स्मरण रहे वह केवल तुम्हारे साथ बांटना है। और अगर तुम उसके एक शब्द को भी समझ सके तो तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर अत्यधिक मौन प्रकट हो रहा है।
केवल यहां सुनते हुए.. हम सोसान और उसके शब्दों की बात करेंगे। अगर तुम ध्यानपूर्वक सुनोगे तो अचानक तुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे भीतर एक मौन प्रकट हो रहा है। ये शब्द आणविक हैं वे ऊर्जा से भरे हैं। जब भी कोई व्यक्ति--जो बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया है, कुछ कहता है-- उसका शब्द बीज होता है और लाखों वर्षों तक वह
बीज बीज ही रहेगा और किसी हृदय की खोज करेगा।
अगर तुम तैयार हो मिट्टी बनने को तैयार हो तब ये शब्द सोसान के ये अत्यंत शक्तिशाली शब्द अब भी जीवित हैं ये बीज हैं अगर तुम इन्हें अनुमति दो तो वे तुम्हारे हृदय में प्रवेश कर जाएंगे और तुम इनके द्वारा बिलकुल दूसरे व्यक्ति हो जाओगे।
उन्हें मन से मत सुनना क्योंकि उनके अर्थ मन के नहीं है मन तो उन्हें समझने में बिलकुल असमर्थ है। वे मन से नहीं आते वे मन के द्वारा समझे भी नहीं जा सकते। वे अ--मन से आते हैं। वे केवल अ--मनी दशा में ही समझे जा सकते हैं।
इसलिए यहां सुनते हुए व्याख्या करने की कोशिश मत करना। शब्दों को नहीं, पंक्तियों के बीच के अंतराल को सुनना वह जो कहता है उसे मत सुनना उसके अभिप्राय को समझना-- वही महत्वपूर्ण है। अभिप्राय को सुगंध की भांति अपने चारों ओर छा जाने देना। वह चुपचाप तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाएगी तुम उसे ग्रहण कर लोगे। लेकिन व्याख्या मत करना। मत कहना उसका तात्पर्य यह है या वह है क्योंकि व्याख्या तुम्हारी होगी।
एक बार ऐसा हुआ मुल्ला नसरुद्दीन नशे में धुत सुबह--सवेरे घर लौट रहा था। जब वह कब्रिस्तान से गुजर रहा था तो उसकी नजर एक तख्ती पर पड़ी। उस पर बड़े--बड़े अक्षरों में लिखा था रखवाले के लिए घंटी बजाओ--उसने वही किया।
निश्चित ही, इतनी सुबह रखवाला बेचैन हो गया। वह लड़खड़ाता गुस्से में बाहर आया और जब उसने नसरुद्दीन को नशे में धुत देखा तो और भी क्रोधित हो उठा।
उसने पूछा क्यों? तुमने घंटी क्यों बजाई? तुमने मेरे लिए घंटी क्यों बजाई? क्या बात है? तुम्हें क्या चाहिए?
नसरुद्दीन ने एक क्षण के लिए शांति से उसकी ओर देखा और फिर तख्ती की ओर देखा और कहा मैं जानना चाहता हूं कि मुसीबत की इस घंटी को तुम खुद क्यों नहीं बजा सकते?
लिखा था रखवाले के लिए घंटी बजाओ, अब इसका क्या अर्थ लगाया जाएयह तुम पर निर्भर करता है।
व्याख्या मत करो-- सुनो। और जब तुम अर्थ निकालने लगते हो तब तुम सुन नहीं सकते क्योंकि चेतना एक साथ दो विरोधी बातें नहीं कर सकती। अगर तुम सोचना शुरू कर देते हो तो सुनना बंद हो जाता है। सिर्फ सुनो-- जैसे तुम संगीत सुनते हो--एक भिन्न प्रकार का सुनना, क्योंकि तुम कोई अर्थ नहीं निकालते। ध्वनियों में कोई अर्थ नहीं है।
यह भी संगीत है। यह सोसान संगीतकार है, दार्शनिक नहीं है। यह सोसान शब्द नहीं बोल रहा है वह उससे भी अधिक कुछ कह रहा है--शब्दों से कहीं ज्यादा। वे महत्वपूर्ण हैं परंतु उनमें कोई अर्थ नहीं है। वे संगीत की ध्वनियां हैं।
तुम जाकर किसी जलप्रपात के पास बैठते हो। तुम इसे सुनते हो, लेकिन क्या इसकी व्याख्या करते हो कि जलप्रपात क्या कहता है? वह कुछ भी नहीं कहता... लेकिन फिर भी कहता है। वह बहुत कुछ कहता है जो कहा नहीं जा सकता।
तुम जलप्रपात के समीप बैठ कर क्या करते हो? तुम सुनते हो, तुम शांत और मौन हो जाते हो, तुम उसे आत्मसात कर लेते हो तुम जलप्रपात को अपने भीतर गहरे में प्रवेश करने देते हो। तब भीतर सब शांत और मौन हो जाता है। तुम एक मंदिर हो जाते हो--अशांत तुम्हारे भीतर जलप्रपात के माध्यम से प्रवेश कर जाता है
तुम उस समय क्या करते हो जब तुम पक्षियों के गीतों को या वृक्षों से गुजरती हवाओं को या हवा से उड़ते सूखे पत्तों को सुनते हो? तुम क्या करते हो? तुम सिर्फ सुनते हो।
यह सोसान कोई दार्शनिक नहीं है, वह धर्मशास्त्री नहीं है, वह पुरोहित नहीं है। वह तुम्हें कोई विचार नहीं बेचना चाहता, उसका सिद्धांतों में कोई रस नहीं है। वह तुम्हें कुछ मनवाना नहीं चाहता, वह तो सिर्फ पुष्पित हो रहा है। वह एक जलप्रपात है या हवा है जो वृक्ष से गुजर रही है या वह सिर्फ पक्षियों का एक गीत है जिसका कोई अर्थ नहीं है लेकिन बहुत ही सार्थक है। तुम्हें उस सार्थकता को आत्मसात करना है तभी तुम समझ सकोगे। इसलिए सुनो, सोचो नहीं। और तब तुम्हारे भीतर बहुत कुछ घटने की संभावना है क्योंकि मैं तुमसे कहता हूं : यह व्यक्ति--यह सोसान जिसके संबंध में कुछ अधिक ज्ञात नहीं--वह सामर्थ्यवान व्यक्ति था, ऐसा व्यक्ति था जो जान चुका था। और जब वह कुछ कहता है तो वह इस ज्ञात जगत के लिए उस अज्ञात की खबर लाता है। उसके साथ भगवत्ता प्रवेश करती है, तुम्हारे मन के अंधकार में प्रकाश की एक किरण प्रवेश करती है।
इसके पहले कि हम उसके शब्दों में प्रवेश करें उन शब्दों की अर्थवत्ता को स्मरण कर लो उनके अर्थ को नहीं। संगीत, स्वर--माधुर्य महत्वपूर्ण है न कि अर्थ उसके ध्वनिरहित मन की ध्वनि उसका हृदय न कि उसके विचार। तुम्हें उसके होने को जलप्रपात को सुनना है।
कैसे सुना जाए? बस मौन हो जाओ। अपने मन को बीच में मत लाओ। सोचना शुरू मत कर दो, वह क्या कह रहा है? बिना किसी निर्णय के कि यह या वह बिना यह कहे कि क्या वह गलत कह रहा है या ठीक तुम उससे सहमत हो या नहीं बस सुनो। उसको तुम्हारी सहमति की चिंता नहीं है। तुम्हें भी उसकी चिंता लेने की जरूरत नहीं है। तुम बस सुनो और आह्वादित होओ। सोसान जैसे व्यक्तियों का आनंद उठाया जा सकता है, वे प्रकृति की अदभुत घटना हैं।
एक खूबसूरत चट्टान--तुम इसके साथ क्या करते हो? तुम इसका आनंद लेते हो। तुम स्पर्श करते हो इसके चारों तरफ घूमते हो उस पर जमी हुई काई को महसूस करते हो। आकाश में चलते बादलों के साथ तुम क्या करते हो? तुम धरती पर नाचते हो और उनकी ओर देखते हो या चुपचाप धरती पर लेट जाते हो और उनकी ओर देखते हो और उन्हें तिरने देते हो। और वे तुम्हें भर देते हैं। केवल बाहरी आकाश को ही नहीं धीरे--धीरे तुम जितने अधिक शांत और मौन होते जाते हो वे तुम्हारे अंतर-- आकाश को भी भर देते हैं। अचानक तुम वहां नहीं होते केवल बादल ही चल रहे होते हैं-- भीतर और बाहर। विभाजन मिट जाता है अब सीमाएं नहीं रहतीं। तुम आकाश हो गए और
आकाश तुम हो गया।
सोसान को एक प्राकृतिक घटना समझो। वह व्यक्ति नहीं है। वह परमात्मा है वह ताओं है, वह बुद्ध है।
इससे पहले कि हम उसकी महत्ता में प्रवेश करें कुछ बातें समझ लेनी हैं। उनसे तुम्हें सहायता मिलेगी।
मन एक रोग है। यह एक आधारभूत सत्य है जिसे पूरब ने खोजा है। पश्चिम का कहना है मन बीमार हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है। पाश्चात्य मनोविज्ञान इस पर आधारित है कि मन स्वस्थ या बीमार हो सकता है, लेकिन पूरब का कहना है कि मन जैसा यह है रोग है, यह स्वस्थ नहीं हो सकता। कोई मनोचिकित्सा उसकी मदद नहीं कर सकती है ज्यादा से ज्यादा तुम उसे सामान्य बीमार बना सकते हो।
इसलिए मन दो प्रकार से रुग्ण है सामान्य रूप से रुग्ण--उसका अर्थ है तुम्हें वही बीमारी है जो तुम्हारे आस--पास के लोगों को है। या असामान्य रूप से रुग्ण-- उसका अर्थ है कि तुम बिलकुल अलग हो। तुम्हारी बीमारी साधारण नहीं, अपवाद है। तुम्हारी बीमारी निजी है भीड़ वाली नहीं है यही एक मात्र अंतर है। सामान्य रूप से बीमार या असामान्य रूप से बीमार, लेकिन मन कभी स्वस्थ नहीं हो सकता, क्यों?
पूरब का कहना है कि मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अस्वस्थ ही रहेगा।
अंग्रेजी का यह शब्द 'हेल्थ' सुंदर है। यह उसी मूल से बनता है जिससे 'होल' शब्द बनता है। हेल्थ हीलिंग, होल होली--ये सभी उसी मूल से आते हैं।
मन कभी स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि वह कभी समग्र नहीं हो सकता है। मन
सदा विभाजित है, विभाजन उसका आधार है। अगर यह समग्र नहीं हो सकता, तो यह
स्वस्थ कैसे हो सकता है? अगर यह स्वस्थ नहीं हो सकता तो यह पवित्र कैसे हो सकता है? सभी मन अपवित्र हैं। पवित्र मन जैसा कुछ नहीं है। पवित्र व्यक्ति बिना मन के जीता है क्योंकि वह बिना विभाजन के जीता है।
मन ही रोग है। उस रोग का नाम क्या है?
अरिस्टोटल है उसका नाम या अगर तुम सच में ही चाहते हो कि यह एक रोग की भांति प्रतीत हो तो नया शब्द गढ़ सकते हो अरिस्टोटिलाइटिस। तब वह बिलकुल एक रोग की भांति प्रतीत होगा। अरिस्टोटल क्यों रोग है? क्योंकि अरिस्टोटल कहता है यह या वह, चुनो और चुनाव मन की प्रक्रिया है मन चुनाव रहित नहीं हो सकता।
चुनाव किया कि तुम जाल में फंसे क्योंकि जब भी तुम चुनाव करते हो तुम एक
के विरोध में दूसरे को चुनते हो। अगर तुम एक के पक्ष में हो, तो तुम निश्चित ही दूसरे के विरोध में होओगे; तुम केवल पक्ष में नहीं हो सकते, तुम केवल विरोध में नहीं हो सकते। जब पक्ष आता है, तो विरोध पीछे--पीछे छाया की भांति चला आता है। जब विरोध है, तो पक्ष वहां होगा ही, अप्रकट या प्रकट।
जब तुम चुनाव करते हो, तो तुम विभाजन कर लेते हो। तब तुम कहते हो, 'यह ठीक है, वह गलत है।' और जीवन एक इकाई है। अस्तित्व अखंड बना रहता है अस्तित्व एक गहन सामंजस्य बना रहता है। वह एकत्व है। अगर तुम कहते हो, 'यह सुंदर है और वह कुरूप है' मन बीच में आ गया, क्योंकि जीवन दोनों एक साथ है। और सुंदर कुरूप हो जाता है, और कुरूप निरंतर सुंदर होता रहता है। कोई विभाजन रेखा नहीं है, कोई जल--अवरोधी कक्ष वॉटर टाइट कंपार्टमेंट नहीं है। जीवन यहां से वहां बहता रहता है।
मन के निर्धारित कक्ष हैं। जड़ता मन का स्वभाव है और तरलता जीवन का स्वभाव है। इसलिए मन अटक जाता है वह हमेशा निश्चित है। इसमें एक ठोसपन है। और जीवन ठोस नहीं, तरल है लचीला है वह विपरीत की ओर बहता रहता है।
कुछ जो इस समय जीवित है अगले क्षण मृत हो जाता है। इस क्षण जो युवा था वह अगले क्षण बूढ़ा हो जाता है। जो आंखें सुंदर थीं वे अब वहां नहीं हैं, केवल खंडहर हैं। चेहरा गुलाब सा था, अब वहां कुछ नहीं है-- अतीत का भूत भी नहीं। सुंदर कुरूप हो जाता है जीवन मृत्यु हो जाता है, और मृत्यु नया जन्म लेती रहती है।
जीवन के साथ क्या करें? तुम चुनाव नहीं कर सकते। अगर तुम जीवन के साथ,
पूर्ण के साथ होना चाहते हो तो तुम्हें चुनावरहित होना पड़ेगा।
मन एक चुनाव है। अरिस्टोटल ने इसे अपने तर्क और दर्शनशास्त्र का आधार
बनाया। तुम सोसान से अरिस्टोटल जितना अधिक दूर कोई और व्यक्ति नहीं खोज सकते, क्योंकि सोसान कहता है. न यह न वह-- चुनो ही मत। सोसान कहता है? चुनावरहित हो जाओ। सोसान कहता है 'भेद मत करो।' जिस क्षण तुम भेद करते हो, जिस क्षण चुनाव आता है तुम विभक्त खंडित हो चुके होते हो आशिक बन जाते हो तुम बीमार हो गए तुम पूर्ण नहीं रहे।
स्मरण रहे, अगर तुम एक ईसाई से पूछते हो जिसका वास्तव में जीसस से कोई
नाता नहीं है जो मूल रूप से अरिस्टोटल से जुड़ा है--ईसाइयत जीसस आधारित कम
और अरिस्टोटल आधारित ज्यादा है। जीसस सोसान जैसे ही थे। वे कहते हैं, 'निर्णय मत करो तुम निर्णय मत लो।' वे कहते हैं, कोई चुनाव मत करो। मत कहो, यह अच्छा है और वह बुरा है। यह तुम्हारा मामला नहीं है। समग्र को फैसला करने दो। तुम निर्णायक मत बनो। लेकिन असलियत में ईसाइयत जीसस केंद्रित नहीं है। ईसाइयत के संस्थापक जीससवादी कम अरिस्टोटलवादी ज्यादा थे।
तुम सोसान या जीसस का चर्च नहीं बना सकते। अगर तुम चुनावरहित रहो तो
चर्च कैसे बना सकते हो? चर्च किसी के पक्ष में और किसी के विपक्ष में होगा; इसे ईश्वर के पक्ष में और शैतान के विरोध में होना ही पड़ेगा। और जीवन में ईश्वर और शैतान दो नहीं हैं, वे एक हैं। शैतान उसी ऊर्जा का एक चेहरा है और परमात्मा दूसरा चेहरा है--वे दो नहीं हैं।
कभी वह शैतान के रूप में और कभी वह परमात्मा के रूप में आता है। और अगर तुम गहरे जा सको और देखो, तो तुम पाओगे कि वे एक जैसे हैं। कभी वह चोर के रूप में और कभी साधु के रूप में आता है। कभी तुम उसे उन लोगों के बीच पाओगे जिनका आदर है और कभी उन लोगों में पाओगे जो निंदित हैं। वह गतिमान है वह एक गति है। और उसके लिए कोई किनारा पहुंच से दूर नहीं है कोई उसकी पहुंच से बाहर नहीं है, वह सब में गति करता है।
जीसस कोई भेद नहीं करते लेकिन ईसाइयत भेदभाव करती है। क्योंकि धर्म को
करना पड़ता है--धर्म को नैतिकता बनना पड़ता है। और एक बार जब धर्म नैतिकता बन जाता है तब वह धर्म नहीं रह जाता। धर्म बड़े से बड़ा साहस है जितना संभव हो सकता है। वह चुनाव--रहित होने का सबसे बड़ा साहस करता है क्योंकि मन कहता है चुनाव करो! मन कहता है कुछ तो कहो! यह बुरा है वह अच्छा है। यह सुंदर है वह कुरूप है। मैं इससे प्यार करता हूं मैं उससे घृणा करता हूं। मन कहता है चुनाव करो! मन का रस विभाजन में है। एक बार जब तुम विभाजन कर लेते हो, तो मन को चैन मिल जाता है। अगर तुम विभाजन नहीं करते अगर तुम कहते हो 'मैं कुछ भी नहीं कहूंगा मैं कुछ निर्णय न लूंगा मन को लगता है कि वह अब मरने के करीब है।
अरिस्टोटल कहता है अ--अ है और वह गैर--अ नहीं हो सकता--विपरीतताएं मिल नहीं सकतीं। सोसान कहता है विपरीतताएं हैं ही नहीं--वे तो पहले से ही मिल रही हैं वे सदा से ही मिलती रही हैं। यह मूलभूत सत्यों में से एक सत्य है जिसे जान लेना आवश्यक है कि विपरीत विरोधी नहीं है। यह तुम ही हो जो कहते हो कि वे विपरीत हैं अन्यथा वे विपरीत नहीं हैं। अस्तित्वगत रूप से देखो और तुम्हें ऐसा प्रतीत होगा कि वे एक ही ऊर्जा हैं।
तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो.. एक महिला मेरे पास आई और उसने कहा, 'मैं दस वर्षों से उस व्यक्ति के साथ विवाहित हूं और हमारा कभी झगड़ा नहीं हुआ। और अब अचानक क्या हो गया कि वह मुझे छोड़ कर चला गया है।'
अब वह सोचती है कि अगर वे कभी झगड़े नहीं तो इससे यही प्रकट होता है कि वे गहरे प्रेम में थे। यह मूर्खता है--परंतु यह अरिस्टोटल का ढंग है। महिला बिलकुल तर्कपूर्ण है।
उसने कहा दस वर्ष हम विवाहित रहे, हमारा कभी झगड़ा नहीं हुआ, हम कभी
एक--दूसरे पर क्रोधित नहीं हुए। वह कह रही है, हम इतने गहरे प्रेम मैं थे कि कभी किसी बात पर झगड़े नहीं। कोई भी क्षण असहमति का नहीं था। और अब क्या हुआ? अचानक वह मुझे छोड़ गया है। क्या वह पागल हो गया है? हमारा प्रेम इतना गहरा था। वह महिला गलत है।
अगर प्रेम गहरा है तो कुछ झगड़ा तो होगा ही। कभी तुम लड़ोगे। और लड़ाई-- झगड़े से प्रेम टूटेगा नहीं यह इसे समृद्ध करता है। अगर प्रेम है तो लड़ाई--झगड़े से पुष्ट होगा अगर प्रेम नहीं है तो तुम टूट जाते हो अलग हो जाते हो। दस वर्ष एक लंबा समय है-- मन की एक ही अवस्था में रुके रहने के लिए चौबीस घंटे भी एक लंबा समय है क्योंकि मन विपरीत की ओर गति करता है।
तुम किसी से प्रेम करते हो कभी तुम्हें गुस्सा भी आता है। सच में तुम्हें गुस्सा आता है क्योंकि तुम प्रेम करते हो। कभी तुम घृणा करते हो! कभी तुम अपने प्रेमी के लिए स्वयं को न्योछावर कर देना चाहोगे और कभी तुम प्रेमी की हत्या कर देना चाहोगे। और दोनों तुम ही हो।
अगर तुम दस वर्षों में कभी नहीं झगड़े तो इसका अर्थ है कि प्रेम था ही नहीं। इसका अर्थ है कि वह एक रिश्ता था ही नहीं। और तुम इतने भयभीत थे कि किसी प्रकार का क्रोध किसी प्रकार का झगड़ा कोई जरा सी बात सब खत्म कर देगी। तुम इतने भयभीत थे कि कभी झगड़े ही नहीं। तुम्हें यह कभी विश्वास नहीं हुआ कि प्रेम झगड़े से अधिक गहरा जा सकता था, झगड़ा क्षण भर के लिए होगा और झगड़े के बाद तुम एक--दूसरे की बांहों में और गहराई से समा जाओगे। नहीं तुम्हें ऐसा भरोसा नहीं था। इसलिए तुम ऐसा कर पाए कि कभी झगड़ा न हो। और इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं कि वह व्यक्ति छोड़ कर चला गया है। मैंने कहा 'मैं हैरान हूं कि वह दस साल तुम्हारे साथ रहा कैसे। क्यों?'
एक व्यक्ति मेरे पास आया और उसने कहा मेरे बेटे को कुछ हो गया है। मैं उसे बीस वर्षों से जानता हूं--वह हमेशा आज्ञाकारी था। ऐसा अच्छा लड़का आपको कहीं नहीं मिल सकता। उसने कभी आशा का उल्लंघन नहीं किया, वह कभी मेरे विरुद्ध नहीं गया। और अब अचानक हिप्पी हो गया है। अब अचानक वह मेरी सुनता ही नहीं है। वह मेरी तरफ ऐसे देखता है जैसे मैं उसका बाप ही न होऊं। वह मुझे इस तरह देखता है जैसे मैं कोई अजनबी हूं। और बीस वर्ष वह बहुत ही आज्ञाकारी था। मेरे बेटे को क्या हो गया है? कुछ नहीं हुआ है। यही अपेक्षित था क्योंकि यदि बेटा वास्तव में पिता से प्रेम करता है तो आशा का उल्लंघन भी कर सकता है उसे और किसकी अवज्ञा करनी
चाहिए? अगर बेटा सच में ही पिता से प्रेम करता है और उस पर विश्वास करता है कभी वह अवहेलना भी करता है-- क्योंकि वह जानता है कि रिश्ता इतना गहरा है कि आज्ञापालन न करने से टूट नहीं सकता। बल्कि इसके विपरीत वह और भी दृढ़ होगा। विपरीत समृद्ध करता है।
वास्तव में विपरीत विपरीत नहीं है। वह तो बस एक लय है समानता की लय
तुम आज्ञापालन करते हो और फिर आशा भंग करते हो-- यह एक लयबद्धता है। नहीं तो, तुम आशा पालन करते जाते हो करते जाते हो सब एकरस और मृत हो जाता है। एकरसता मृत्यु का स्वभाव है क्योंकि वहां विपरीत मौजूद नहीं होते।
जीवन सक्रिय जीवंत है। वहां विपरीत है वहां एक लयबद्धता है। तुम आगे जाते हो पीछे लौटते हो तुम प्रस्थान करते हो तुम पहुंच जाते हो तुम अवज्ञा करते हो फिर आज्ञापालन कर लेते हो तुम प्रेम करते हो और घृणा करते हो। यह जीवन है यह तर्क नहीं है। तर्क कहता है कि अगर तुम प्रेम करते हो तो तुम घृणा नहीं कर सकते! अगर तुम प्रेम करते हो तो तुम क्रोधित कैसे हो सकते हो? अगर तुम इस तरह प्रेम करते हो तो प्रेम में एकरसता आ जाएगी फिर वही स्वर। लेकिन तुम तनावग्रस्त हो जाओगे फिर विश्राम असंभव है।
तर्कशास्त्र रेखीय तथ्य में विश्वास करता है तुम एक ही रेखा में चलते हो। जीवन वर्तुलों में विश्वास करता है, वही रेखा ऊपर जाती है, नीचे आती है, एक वर्तुल बन जाता है। तुमने यिन और यांग का चीनी वर्तुल देखा होगा। जीवन ऐसा ही है विपरीतों का मिलन। यिन और यांग का वर्तुल आधा सफेद है और आधा काला है। सफेद में काला बिंदु है और काले में सफेद बिंदु है। सफेद काले की ओर और काला सफेद की ओर जा रहा है--यह एक वर्तुल है। स्त्री पुरुष में मिल रही है और पुरुष स्त्री में मिल रहा है. यही जीवन है। और अगर तुम बारीकी से देखो तो तुम इसे अपने भीतर देखोगे।
पुरुष दिन के चौबीस घंटे पुरुष नहीं होता, वह हो नहीं सकता--कभी-कभी वह स्त्री होता है। स्त्री दिन के चौबीस घंटे स्त्री नहीं होती--कभी वह पुरुष भी होती है। वे
विपरीत की ओर गति करते हैं। जब स्त्री क्रोधित होती है तो वह स्त्री नहीं रह जाती वह किसी भी पुरुष से अधिक आक्रामक हो जाती है और वह किसी पुरुष से कहीं अधिक खतरनाक हो जाती है क्योंकि उसका पुरुषत्व बिलकुल शुद्ध है जिसका कभी उपयोग नहीं हुआ। और जब वह इसका उपयोग करती है, इसमें ऐसी तीक्षाता होती है कि कोई पुरुष उसका मुकाबला नहीं कर सकता। यह उस मिट्टी की भांति है जिसका कई वर्षों से उपयोग नहीं हुआ; फिर तुम उसमें बीज डालते हो-- और भरपूर फसल होती है।
कभी-कभी कोई स्त्री पुरुष हो जाती है और जब ऐसा होता है तो कोई पुरुष उससे प्रतियोगिता नहीं कर सकता। तब वह बहुत ही खतरनाक होती है तब यही उचित है कि पुरुष झुक जाए। और यही तो सभी पुरुष करते हैं-- वे आज्ञाकारी बन जाते हैं वे समर्पण कर देते हैं क्योंकि पुरुष को तुरंत स्त्री बन जाना पड़ता है अन्यथा मुसीबत हो जाएगी। एक म्यान में दो तलवारें-- मुसीबत हो जाएगी। अगर स्त्री पुरुष हो गई है, उसने भूमिका बदल ली है पुरुष एकदम स्त्री बन जाता है। अब सबकुछ फिर से व्यवस्थित हो जाता है। फिर वर्तुल पूरा हो जाता है।
और जब भी पुरुष दब जाता है और समर्पण कर देता है उस समर्पण में जो शुद्धता होती है उसका मुकाबला कोई स्त्री नहीं कर सकती। क्योंकि साधारणतया उस खेल में वह कभी उस स्थिति में नहीं होता है। आमतौर पर वह डट कर सामना करता है। साधारणतया वह संकल्प है समर्पण नहीं। लेकिन जब वह समर्पण करता है, उसमें ऐसी निर्दोषता होती है जिसका मुकाबला स्त्री नहीं कर सकती। जब पुरुष प्रेम में हो, उसे देखो-- वह एक बच्चा हो जाता है।
लेकिन जीवन ऐसे ही चलता है। और अगर तुम इसे समझते हो, तो तुम जरा भी चिंतित नहीं होते। तब तुम जानते हो प्रेमी बिछुड़ गया है वह लौट कर आएगा; प्रेमिका नाराज है वह प्रेम करेगी। तब तुम धैर्य रखते हो। अरस्तू के साथ तुम धैर्य नहीं रख सकते हो, क्योंकि अगर प्रेमी छोड़ गया है तो वह रेखीय यात्रा पर निकल गया है वापसी नहीं हो सकती, यह वर्तुल नहीं है। लेकिन पूरब में हम वर्तुल में विश्वास रखते हैं, पश्चिम में वे रेखा में विश्वास करते हैं।
पाश्चात्य मन रेखीय है पूरब का मन वर्तुलाकार है। इसलिए पूरब में एक प्रेमी प्रतीक्षा कर सकता है। वह जानता है कि जो स्त्री अब छोड़ कर चली गई है वह लौट आएगी। वह रास्ते पर है वह निश्चित ही पछता रही है उसको पछतावा हो चुका है, वह आ ही रही है देर--सबेर वह दरवाजे पर दस्तक देगी। बस इंतजार करो....क्योंकि विपरीत सदा वहां है।
और जब कभी स्त्री गुस्से के बाद लौटती है, तब प्रेम फिर ताजा हो जाता है। अब वह पुनरावृत्ति नहीं है। क्रोध के अंतराल ने अतीत को मिटा दिया है। अब फिर वह एक युवती है, एक कुंआरी लड़की है। वह फिर प्रेम में पड़ जाती है-- सब--कुछ ताजा हो जाता है।
अगर तुम यह समझते हो तो तुम किसी बात के विरोध में नहीं होते। तुम्हें पता है कि क्रोध भी सुंदर है, छोटे--मोटे झगड़े जीवन को रंग देते हैं। और सब--कुछ समृद्धि में सहायक होता है। तब तुम स्वीकार करते हो, तब गहन स्वीकार में तुम धैर्यवान हो जाते हो, तब कोई अधीरता नहीं और कोई जल्दी नहीं। तब तुम प्रतीक्षा कर सकते हो और प्रार्थना कर सकते हो और आशा कर सकते हो और स्वप्न देख सकते हो।
वरना अगर जीवन रेखीय है-- जैसा कि अरस्तु सोचता है, या जैसे पश्चिमी विचारधारा ने अरस्तू से बर्ट्रेड रसल तक की यात्रा की है-- जैसा कि बर्ट्रेड रसल सोचता है, तब जीवन में बहुत अधैर्य है। कोई भी वापस लौटने वाला नहीं है तब तुम सदा कंपित, भयभीत हो और तुम दमनात्मक हो जाते हो। तब तुम एक स्त्री के साथ चाहे दस वर्ष रहो या दस जीवन रहो वह एक अजनबी के साथ ही रहना होगा। तुम स्वयं पर नियंत्रण कर रहे हो, वह अपने पर नियंत्रण रख रही है और कोई मिलन नहीं होता। जीवन तर्क नहीं है। तर्क एक अंश है--निस्संदेह बहुत ही स्पष्ट, वर्गीकृत कक्षीकृत विभाजित-- लेकिन जीवन अस्त--व्यस्त है। लेकिन क्या करें? यह ऐसा ही है। यह इतना वर्गीकृत, इतना स्पष्ट, इतना विभाजित नहीं है--यह अराजक है। लेकिन तर्क मृत है और जीवन सक्रिय है तो प्रश्न यह उठता है कि सुसंगति को चुनें या जीवन को चुनें।
अगर तुम संगति के पक्ष में बहुत अधिक हो तो तुम मृत हो जाओगे और--और मृत होते जाओगे क्योंकि संगति तभी संभव है जब तुम विरोधों को बिलकुल छोड़ दो। फिर तुम प्रेम करो और केवल प्रेम करो और केवल प्रेम करो और कभी क्रोध न करो कभी नफरत न करो कभी लड़ाई--झगड़ा न करो। तुम आज्ञापालन करो केवल आज्ञापालन-- कभी अवज्ञा न करो, कभी विद्रोह न करो कभी भटको नहीं। लेकिन तब सब बासी हो जाता है, तब संबंध विषाक्त हो जाता है-- तब यह तुमको मार डालता है।
सोसान तर्क के पक्ष में नहीं है वह जीवन के पक्ष में है। अब उसके शब्दों की सार्थकता को समझो

सोसान कहता है:
महापथ उनके लिए कठिन नहीं है जिनकी
अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं है।
जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते, सब--कुछ सुस्पष्ट होता है
और कुछ भी छिपा नहीं रहता।
थोडा सा भेद और पृथ्वी और स्वर्ग में अनंत दूरी हो जाती है।
अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो,
तो पक्ष या विपक्ष में राय मत बनाओ।
तुम्हारी पसंद और नापसंद का संघर्ष ही मन का रोग है।

ठीक नांगर की भांति ' सरल ही उचित है। ' महापथ कठिन नहीं है.. अगर यह कठिन प्रतीत होता है तो तुम ही हो जो इसे कठिन बनाते हो। महापथ सरल है। यह कैसे कठिन हो सकता है? पेड़ भी इसका अनुसरण करते हैं, नदी भी इसका अनुसरण करती है चट्टानें भी इसका अनुसरण करती हैं। यह कठिन कैसे हो सकता है? पक्षी भी इसमें उड़ते हैं और मछलियां भी इसमें तैरती हैं। यह कैसे कठिन हो सकता है? आदमी इसे मुश्किल बना देता है, मन इसे मुश्किल बनाता है-- और सरल को कठिन बनाने की युक्ति है चुनाव करना, विभेद करना।
प्रेम सरल है घृणा सरल है, लेकिन तुम चुनाव करते हो। तुम कहते हो, 'मैं सिर्फ प्रेम करूंगा, मैं घृणा नहीं करूंगा।' अब सब मुश्किल हो गया। अब तुम प्रेम भी नहीं कर सकते। श्वास भीतर लेना सरल है, श्वास बाहर छोड़ना सरल है। तुम चुनते हो। तुम कहते हो, ' मैं श्वास केवल भीतर लूंगा, मैं श्वास बाहर नहीं निकालूंगा। ' अब सब—कुछ मुश्किल हो गया।
मन कह सकता है 'श्वास बाहर क्यों निकालूं? श्वास जीवन है। 'सीधा गणित है, श्वास भीतर लेते रहो, बाहर मत निकालो और तुम अधिकाधिक जीवंत होते जाओगे। अधिकाधिक जीवन संगृहीत होता जाएगा। तुम जीवन के महाकोष बन जाओगे। केवल श्वास भीतर लो बाहर मत छोड़ो, क्योंकि बाहर छोड़ना मृत्यु है।
स्मरण रहे, पहली बात जो जन्म के समय बच्चे को करनी पड़ती है वह है श्वास को भीतर लेना। और मरते समय आखिरी बात जो मनुष्य को करनी पड़ती है वह है श्वास को बाहर छोड़ना। जीवन भीतर आती श्वास के साथ शुरू होता है और मृत्यु बाहर जाती श्वास के साथ शुरू होती है। हर पल जब तुम श्वास भीतर लेते हो तुम्हारा पुनर्जन्म होता है और हर पल जब तुम श्वास बाहर छोड़ते हो तुम मृत होते हो, क्योंकि श्वास जीवन है। इसीलिए हिंदुओं ने इसे प्राण कहा है। प्राण का अर्थ है जीवन। श्वास जीवन है।
सीधे तर्क सरल गणित के साथ कोई कठिनाई नहीं है, तुम इसे स्पष्ट रूप दे सकते हो ज्यादा से ज्यादा श्वास भीतर लो और बाहर मत निकालो तब तुम कभी नहीं मरोगे। अगर तुम श्वास बाहर निकालते हो, तो तुम्हें मरना ही पड़ेगा। और अगर तुम ऐसा ज्यादा करते हो तो तुम जल्दी मरोगे। यह गणित सीधा--सरल है... सरल प्रतीत होता है। तब तर्कशास्त्री को क्या करना चाहिए? एक तर्कशास्त्री केवल श्वास भीतर लेगा, कभी बाहर नहीं छोड़ेगा।
प्रेम श्वास को बाहर छोड़ना है और घृणा श्वास को भीतर लेना है।
फिर क्या करें? जीवन सरल है अगर तुम निर्णय नहीं लेते क्योंकि तब तुम जानते हो कि श्वास भीतर लेना और बाहर छोड़ना दो विरोधी बातें नहीं हैं वे एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं। और वे दोनों संघटित हिस्से हैं तुम उन्हें विभाजित नहीं कर सकते। और अगर तुम श्वास बाहर न छोड़ो. तर्कशास्त्र गलत है तुम जिंदा नहीं रहोगे, तुम जल्दी ही मर जाओगे।
कोशिश करो--केवल श्वास भीतर लो और बाहर मत छोड़ो। तुम समझ जाओगेतुम अत्यंत तनावग्रस्त हो जाओगे। तुम्हारे पूरे प्राण श्वास को बाहर छोड़ना चाहेंगे, क्योंकि यह तो मृत्यु बनने जा रहा है। अगर तुम चुनाव करते हो तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर तुम चुनाव नहीं करते तो सभी कुछ सरल हो जाएगा। सरल ही ठीक है।
अगर आदमी मुश्किल में है तो इसका कारण हैं बहुत सारे शिक्षक जिन्होंने उसके मन को विषाक्त कर दिया है जो उसे शिक्षा देते रहे हैं यह चुनो यह मत करो, वह करो। उनके करने और न करने की सूची ने तुम्हें मार डाला है। और वे तर्कसंगत प्रतीत होते हैं। अगर तुम उनके साथ तर्क करते हो तो वे जीत जाएंगे। तर्कशास्त्र उनकी सहायता करेगा देखो! यह बहुत सीधी सी बात है। अगर यह मृत्यु है, तो श्वास क्यों बाहर छोड़े और ऐसा केवल श्वास के साथ ही नहीं हुआ. या श्वास के साथ भी हुआ है। योग की ऐसी शाखाएं हैं जो कहती हैं कि तुम्हारे जीवन का हिसाब श्वासों के माध्यम से रखा जाता है, तुम्हारा जीवन वर्षों में नहीं श्वासों में गिना जाता है-- इसलिए श्वास धीमे से लो। अगर तुम एक मिनट में बारह श्वास लेते हो, तो तुम्हारी मृत्यु शीघ्र हो जाएगी; छह श्वास लो, या तीन तब तुम अधिक समय तक जीवित रहोगे।
कोई भी सफल नहीं हुआ है, लेकिन लोग प्रयत्न करते रहते हैं, धीमे-- धीमे श्वास लेते हैं। क्यों? क्योंकि अगर तुम धीरे-- धीरे श्वास लेते हो, श्वास कम से कम बाहर जाएगी, तो कम मृत्यु घटित होगी या तुम लंबा जीवन जी सकोगे। केवल एक बात होगी कि जीने का मजा समाप्त हो जाएगा। यह लंबा नहीं होगा, लेकिन यह लंबा प्रतीत हो सकता है।
कहते हैं कि विवाहित लोग अविवाहितों की अपेक्षा ज्यादा जीते हैं इसलिए किसी ने नसरुद्दीन से पूछा नसरुद्दीन! क्या यह सच है?
नसरुद्दीन ने कहा ऐसा लगता है। विवाहित व्यक्ति लंबा जीवन नहीं जीता, लेकिन ऐसा लगता है कि उसने लंबा जीवन जीया है। क्योंकि जब मुसीबतें अधिक हों तब समय लंबा प्रतीत होता है जब कोई विपत्ति न हो तो समय छोटा लगता है।
ये तथाकथित योगी जो कम से कम और धीमे-- धीमे श्वास लेते हैं वे सिर्फ जीवन की प्रक्रिया को मंद कर देते हैं। वे कम जीवंत हैं, बस इतना ही है। वे अधिक नहीं जीएंगे लेकिन कम जीवित होंगे। वे पूरी तरह जीवित नहीं हैं; उनका दीया पूरी तरह जल नहीं रहा है। उत्साह, उमंग नृत्य खो गया है। वे केवल अपने को घसीटते हैं, बस ऐसा ही है।
यही कामवासना के साथ हुआ है, क्योंकि लोग सोचते हैं कि काम के साथ मृत्यु प्रवेश करती है। और वे ठीक हैं क्योंकि काम--ऊर्जा जीवन को जन्म देती है-- इसलिए जितनी काम--ऊर्जा बाहर निकलती है, उतना ही जीवन बाहर निकल जाता है। तर्कसंगत बिलकुल अरस्तू का ढंग परंतु मूढ़तापूर्ण। तुम्हें तर्कशास्त्रियों से अधिक मूर्ख व्यक्ति नहीं मिलेंगे। यह तर्कयुक्त बात है कि जीवन--ऊर्जा काम सेक्स से मिलती है-- एक बच्चे का जन्म काम के कारण होता है-- काम जीवन का स्रोत है-- इसलिए इसे भीतर ही सम्हालो। इसे बाहर मत जाने दो, नहीं तो तुम मर जाओगे। इसलिए सारा संसार भयभीत हो गया है। लेकिन यह भी वही श्वास को भीतर ही रखने जैसी बात है और फिर पूरे प्राण इसे बाहर फेंक देना चाहते हैं। तुम्हारे तथाकथित ब्रह्मचारी जो काम--ऊर्जा को भीतर ही सम्हाले रखना चाहते हैं, वीर्य को भीतर ही रखना चाहते हैं उनका पूरा शरीर उसे बाहर फेंकना चाहता है। उनका पूरा जीवन कामुक हो जाता है-- उनका मन कामुक हो जाता है वे कामवासना के ही सपने देखते हैं वे कामवासना के बारे में ही सोचते हैं। वे कामग्रस्त हो जाते हैं-- क्योंकि वे कुछ ऐसा करने की चेष्टा कर रहे हैं जो तर्कसंगत तो है लेकिन जीवन के प्रति सच्चा नहीं है। और वे लंबा जीवन नहीं जीते वे जल्दी मर जाते हैं।
यह एक नई खोज नई शोध है कि आदमी लंबे समय तक जीता है, अगर वह अपने काम--जीवन को जितना संभव हो उतना लंबा कर ले। अगर व्यक्ति अस्सी वर्ष की आयु में भी काम-- भोग कर सकता हो, तो उसकी आयु बढ़ सकती है। क्यों? क्योंकि जितनी श्वास तुम बाहर निकाल सकते हो उतनी ही श्वास भीतर ले सकते हो। ठीक ऐसे ही.. अगर तुम्हें अधिक जीवन चाहिए तो अधिक श्वास बाहर निकालो, इस तरह तुम भीतर एक रिक्त स्थान बनाते हो और अधिक श्वास भीतर आती है। तुम भीतर आती श्वास के विषय में न सोचो। जितना संभव हो तुम केवल उतनी श्वास बाहर निकालो और तुम्हारा सारा अस्तित्व श्वास भीतर खींच लेगा। अधिक प्रेम करो-- वह श्वास का बाहर निकालना है-- और तुम्हारा शरीर पूरे ब्रह्मांड से ऊर्जा ग्रहण कर लेगा। तुम खालीपन निर्मित करते हो और ऊर्जा आती है।
जीवन की सभी प्रक्रियाओं में ऐसा ही होता है। तुम खाते हो लेकिन तुम कृपण हो जाते हो तुम्हें कब्ज हो जाता है। तर्क ठीक है, श्वास बाहर मत निकालो। कब्ज का अर्थ है श्वास भीतर लेने का चुनाव करना और श्वास बाहर निकालने के विरोध में होना। लगभग प्रत्येक सभ्य व्यक्ति को कब्ज है तुम सभ्यता को कब्ज के द्वारा माप सकते हो। जो देश जितना अधिक कब्ज का शिकार है, उतना ही अधिक सभ्य है, क्योंकि वह उतना ही अधिक तर्कसंगत है। श्वास बाहर क्यों निकालना? बस श्वास भीतर लेते जाओ। भोजन ऊर्जा है। बाहर क्यों फेंकना? तुम्हें पता हो या न हो लेकिन यह अवचेतन में तार्किक होना है, अरस्तू के ढंग से सोचना है।
लेकिन जीवन बाहर फेंकने और भीतर ग्रहण करने में एक संतुलन है। तुम केवल एक मार्ग हो। बांटो दो और तुम्हें और ज्यादा मिलेगा। कृपण बनो किसी को मत दो तो तुम्हें कम मिलेगा क्योंकि तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है।
याद रखो, और अपनी जीवन--प्रक्रियाओं को गौर से देखो। अगर तुम वास्तव में बुद्धत्व को समझने में रुचि रखते हो तो देना याद रखो ताकि तुम्हें और दिया जा सके जो कुछ भी हो...। श्वास बाहर अधिक छोड़ो। बांटने का देने का यही अर्थ है।
अपनी ऊर्जा को दूसरों को बांटना उपहार है, इसलिए तुम्हें और अधिक दिया जाता है। लेकिन मन कहता है... इसका अपना तर्क है और सोसान उस तर्क को रोग कहता है।

महापथ उनके लिए कठिन नहीं है
तुम उसे कठिन बनाते हो, तुम कठिन हो।
महापथ सहज है जिनकी अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं।

किसी को ज्यादा पसंद मत करो-- बस जीवन को गति करने दो। तुम जीवन से मत कहो, ' इस तरफ चलो, उत्तर की ओर जाओ या दक्षिण जाओ। ' तुम यह कहो ही मत, बस तुम जीवन के साथ बहो। तुम धारा के विरुद्ध लडो मत, तुम धारा के साथ एक हो जाओ...' उनके लिए जिनकी अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं। '
महापथ सरल है.. ' उनके लिए जिनकी अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं। 'और तुम्हारे पास प्राथमिकताएं हैं हर चीज के लिए। तुम हर बात में अपना मन बीच में ले आते हो। तुम कहते हो, ' मुझे अच्छा लगता है, मुझे अच्छा नहीं लगता। मुझे यह पसंद है, मुझे वह पसंद नहीं है। '

जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते

जब तुम्हारी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं जब 'पक्ष' और 'विपक्ष' की सारी वृत्तियां नहीं हैं प्रेम और घृणा दोनों नहीं हैं तुम्हें न तो कुछ पसंद है और न कुछ नापसंद है तुम सिर्फ सब--कुछ होने देते हो।

सब-कुछ सुस्पष्ट होता है और कुछ भी छिपा नहीं रहता।
      थोडा सा भेद, और पृथ्वी और स्वर्ग में अनंत दूरी हो जाती है।

लेकिन तुम्हारा मन कहेगा, ' अगर तुमने चुनाव नहीं किया, तो तुम पशु हो जाओगे। अगर तुम चुनाव नहीं करते, तो तुममें और एक वृक्ष में क्या अंतर रह जाएगा?' एक अंतर होगा, एक बहुत बड़ा अंतर लेकिन वह अंतर नहीं जो मन को बीच ले आता है, एक अंतर जो सजगता से आता है। वृक्ष चुनावरहित है, अचेतन है तुम चुनावरहित होओगे सचेतन। यही अर्थ है चुनावरहित सजगता का और यही सबसे बड़ा भेद है : तुम सजग होओगे कि तुम चुनाव नहीं कर रहे।
और यह सजगता, तुम्हें ऐसी गहनशांति देती है.. .तुम बुद्ध हो जाते हो तुम सोसान हो जाते हो, नागर हो जाते हो। एक वृक्ष नागर नहीं हो सकता। नागर एक वृक्ष की भांति है और उससे ज्यादा भी। वह वृक्ष के समान है जहां तक चुनाव का संबंध है, और वह वृक्ष से सर्वथा भिन्न है जहां तक चेतना का संबंध है। वह पूरी तरह होशपूर्ण है कि वह चुनाव नहीं कर रहा है।
जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते... प्रेम और घृणा दोनों ही तुम्हारी आखों पर रंग चढ़ा देते हैं और तुम स्पष्ट नहीं देख पाते। अगर तुम किसी से प्रेम करते हो, तो तुम उसमें वे चीजें देखने लगते हो जो हैं नहीं। कोई स्त्री इतनी सुंदर नहीं है जितना तुम तब सोचते हो जब तुम उसके प्रेम में होते हो क्योंकि तुम प्रक्षेपण करते हो। तुम्हारे मन में सपने वाली एक लड़की है और तुम सपनों वाली उसी लड़की को प्रक्षेपित करते हो। असली लड़की केवल एक पर्दे की भांति काम करती है।
इसीलिए देर--अबेर प्रत्येक प्रेम असफल हो जाता है, क्योंकि कोई लड़की कितनी
देर पर्दे का काम कर सकती है? वह वास्तविक व्यक्ति है। एक दिन वह बता देगी, वह कहेगी, ' मैं पर्दा नहीं हूं। ' वह कितनी देर तक तुम्हारे प्रक्षेपण के अनुरूप ठीक बैठ सकती है? देर--अबेर तुम्हें लगेगा कि वे एकरूप नहीं हैं। प्रारंभ में लड़की मान गई, प्रारंभ में तुम मान गए ' तुम उसके लिए एक प्रक्षेपण--पर्दा थे वह तुम्हारे लिए प्रक्षेपण--पर्दा थी।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही थी-- मैंने इसे सुन लिया-- वह कह रही थी, तुम मुझे अब उतना प्रेम नहीं करते जितना उस समय करते थे जब तुम प्रणय—निवेदन कर रहे थे।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा प्रिये, उन बातों पर अधिक ध्यान मत दो-- वे तो केवल
लुभावनी बातें थीं। मैं उसे भूल जाता हूं जो तुमने कहा था तुम उसे भूल जाओ जो मैंने
कहा था। आओ अब हम असली रूप में आ जाएं।
कोई भी तुम्हारे लिए सदा पर्दे का काम नहीं कर सकता क्योंकि वह कष्टदायक है। कैसे कोई तुम्हारे सपनों के साथ समायोजित हो सकता है? उसकी अपनी वास्तविकता है, और वास्तविकता अपना दावा करती है।
अगर तुम किसी से प्रेम करते हो, तो तुम उन चीजों का प्रक्षेपण कर लेते हो जो वहां नहीं हैं। अगर तुम किसी से घृणा करते हो तब भी तुम उन चीजों का प्रक्षेपण कर लेते हो जो वहां नहीं हैं। प्रेम में व्यक्ति भगवान हो जाता है, घृणा में व्यक्ति शैतान हो जाता है-- और व्यक्ति न तो भगवान है और न ही शैतान है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। ये शैतान और भगवान प्रक्षेपण हैं। अगर तुम प्रेम करते हो, तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते। अगर तुम घृणा करते हो, तुम स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते।
जब पसंद या नापसंद कुछ नहीं है, तुम्हारी आंखें साफ हैं, तुम्हारे पास एक स्पष्टता है। तब तुम दूसरे को वैसा ही देखते हो, जैसा वह है। और जब तुम्हारे पास चेतना की स्पष्टता है, तो सारा अस्तित्व अपनी वास्तविकता तुम्हारे सम्मुख प्रकट कर देता है। वही वास्तविकता परमात्मा है, वही वास्तविकता सत्य है।
इसका क्या अर्थ है? क्या सोसान जैसा व्यक्ति प्रेम नहीं करेगा? उसके प्रेम की
गुणवत्ता बिलकुल भिन्न होगी वह तुम्हारे प्रेम जैसा नहीं होगा। वह प्रेम करेगा लेकिन
उसका प्रेम चुनाव नहीं होगा। वह प्रेम करेगा, लेकिन उसका प्रेम प्रक्षेपण नहीं होगा। वह प्रेम करेगा, लेकिन उसका प्रेम अपने सपने के लिए नहीं होगा। वह यथार्थ को प्रेम करेगा। यथार्थ के प्रति प्रेम करुणा है।
वह इस तरह या उस तरह प्रक्षेपण नहीं करेगा। वह तुममें भगवान या शैतान नहीं देखेगा। वह सिर्फ तुम्हें देखेगा और वह बांटेगा क्योंकि उसके पास पर्याप्त है-- और जितना तुम बांटते हो उतना बढ़ता है। वह अपना आनंद तुम्हारे साथ बांटेगा।
जब तुम प्रेम करते हो, तुम उसे दूसरे पर प्रक्षेपित करते हो। तुम देने के लिए प्रेम नहीं करते-- तुम लेने के लिए प्रेम करते हो तुम शोषण के लिए प्रेम करते हो। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम उसे अपने अनुसार अपने विचारों के अनुसार बनाने का प्रयत्न शुरू कर देते हो। प्रत्येक पति ऐसा कर रहा है प्रत्येक पत्नी ऐसा कर रही है प्रत्येक मित्र ऐसा कर रहा है। वे एक--दूसरे को वास्तविक को बदलने की चेष्टा करते रहते हैं और वास्तविक को कभी बदला नहीं जा सकता-- तुम्हारे हाथ निराशा ही लगेगी।
वास्तविकता कभी बदली नहीं जा सकती केवल तुम्हारा सपना चूर--चूर हो जाएगा और तब तुम्हें पीड़ा होगी।
तुम वास्तविकता को सुनते ही नहीं। यहां तुम्हारे सपनों को साकार करने वाला कोई नहीं है। यहां सभी अपनी नियति को अपनी वास्तविकता को पूरा करने के लिए हैं।
सोसान जैसा व्यक्ति प्रेम करता है लेकिन उसका प्रेम शोषण नहीं है। वह प्रेम करता है क्योंकि उसके पास भरपूर प्रेम है उससे प्रेम छलक रहा है। वह किसी के ईद-- गिर्द सपने निर्मित नहीं कर रहा है। जो भी उसके रास्ते में आता है वह अपना प्रेम उससे बांटता है। उसका बांटना बेशर्त है वह तुमसे किसी बात की अपेक्षा नहीं रखता। अगर प्रेम अपेक्षा करता है तो निराशा होगी। अगर प्रेम आशा रखता है, तो अतृप्ति होगी। अगर प्रेम अपेक्षा करता है तो पीड़ा और विक्षिप्तता ही होगी।
नहीं सोसान कहता है ' न तो प्रेम करो न घृणा करो। तुम केवल दूसरे की
वास्तविकता को देखो। ' यही बुद्ध का प्रेम है दूसरे की वास्तविकता को देखना दूसरे को वैसा ही देखना जैसा वह है, केवल वास्तविकता को देखना-- प्रक्षेपण नहीं करना, सपना नहीं देखना, कोई छवि नहीं बनानी दूसरे को अपनी छवि के अनुसार ढालना नहीं है।

जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते, सब-- 
कुछ सुस्पष्ट होता है और कुछ भी छिपा नहीं रहता।

मन को प्रेम करना पड़ता है और घृणा करनी पड़ती है, और मन को निरंतर इन दोनों के साथ संघर्ष करना ही पड़ता है, अगर तुम प्रेम नहीं करते, घृणा नहीं करते तो तुम मन के पार चले जाते हो। तब कहां है मन? जब तुम्हारे भीतर चुनाव समाप्त हो जाता है तो मन भी विलीन हो जाता है। अगर तुम कहो भी, मैं शांत होना चाहता हूं, तुम कभी शांत नहीं होओगे क्योंकि यह तुम्हारी पसंद है। यही समस्या है।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं ' मैं शांत होना चाहता हूं, मुझे अब और तनाव नहीं चाहिए। ' मुझे उनके लिए अफसोस होता है-- क्योंकि वे जो कह रहे हैं वह मूर्खतापूर्ण है। अगर तुम्हें अब और तनाव नहीं चाहिए, तो तुम एक नया तनाव पैदा कर लोगे। अगर तुम शांति की बहुत अधिक चाहत रखते हो अगर तुम उसके पीछे ही पड़ जाते हो तो तुम्हारी शांति अपने में ही एक तनाव बन जाएगी। तुम इसके कारण और भी बेचैन हो जाओगे।
शांति क्या है? यह एक गहन समझ है-- उस घटना की समझ है कि अगर तुम चुनाव करते हो, तो तनावग्रस्त हो जाओगे। अगर तुम शांति भी चाहते हो, तो अशांत हो जाओगे।
इसे समझो, अनुभव करो-- जब भी तुम चुनाव करते हो तुम तनावपूर्ण हो जाते हो जब भी तुम चुनाव नहीं करते कोई तनाव नहीं होता, तुम विश्राम में होते हो। और जब तुम विश्राम में होते हो तुम्हारी आखों में एक स्पष्टता होती है उनमें सपनों और बादलों की भीड़ नहीं होती। मन में कोई विचार नहीं चलते तुम उनके पार देख सकते हो। और जब तुम सत्य को देख पाते हो तो मुक्त हो जाते हो। सत्य मुक्त करता है।

थोड़ा सा भेद, और पृथ्वी और स्वर्ग में अनंत हो जाती है।

'थोड़ा सा भेद जरा सा चुनाव और तुम विभाजित हो गए। तब तुम्हारे पास स्वर्ग और नरक हैं, और तुम उन दोनों के बीच कुचल दिए जाओगे।

अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो, तो पक्ष या विपक्ष में राय मत बिना राय के चलो नग्न बिना वस्त्रों के चलो सत्य के संबंध में बिना कोई राय बनाए; क्योंकि सत्य सभी विचारों और मतों को नापसंद करता है। अपने सारे तत्वज्ञान मत, सिद्धांत धर्मग्रंथों सबको छोड़ दो! सब कूड़ा--कचरा फेंक दो। तुम शांत हो जाओ, बिना चुनाव किए, तुम्हारी आंखें उसे देखने को--जो है-- तैयार ही हैं वे किसी प्रकार से तुम्हारी कुछ इच्छाओं की पूर्ति की आशा नहीं कर रही हैं। इच्छाओं को ढोओ मत। कहते हैं कि नरक का मार्ग इच्छाओं से पटा पड़ा है-- सद्--इच्छाओं आशाओं सपनों इंद्रधनुषों, आदर्शों से भरा पड़ा है। स्वर्ग का मार्ग बिलकुल खाली है।

महापथ उनके लिए कठिन नहीं है जिनकी अपनी कोई प्राथमिकताएं नहीं हैं।
जब प्रेम और घृणा दोनों नहीं होते
सब--कुछ सुस्पष्ट होता है और कुछ भी छिपा नहीं रहता।
थोडा सा भेद, और पृथ्वी और स्वर्ग में अनंत दूरी हो जाती है।
अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो, तो पक्ष या विपक्ष में राय मत बनाओ।
तुम्हारी पसंद और नापसंद का संघर्ष ही मन का रोग है।

सारे बोझ उतार दो! तुम जितना ऊंचे जाना चाहते हो उतना बोझ कम होना चाहिए। अगर तुम्हें हिमालय पर जाना हो तो स्वयं को सर्वथा निर्भार करना होगा। अंत में जब तुम गौरीशंकर एवरेस्ट पर पहुंचते हो तो तुम्हें सब--कुछ छोड़ देना पड़ता है। तुम्हें निपट नग्न हो जाना पड़ता है क्योंकि जितना ऊंचे तुम जाना चाहते हो उतना ही तुम्हें निर्भार होना पड़ता है। विचारों का तुम्हारे ऊपर बोझ है। वे पंख नहीं हैं वे पेपरवेट के समान हैं। बिना किसी राय के चुनावरहित ' अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो, तो पक्ष और विपक्ष में राय मत बनाओ। '
अगर तुम वास्तव में जानना चाहते हो कि सत्य क्या है, तो न तो आस्तिक बनो और न ही नास्तिक। मत कहो परमात्मा है, मत कहो परमात्मा नहीं है, क्योंकि जो भी तुम कहोगे वह तुम्हारी गहन इच्छा बन जाएगी। और तुम वही प्रक्षेपित कर लोगे जो तुम्हारी गहन इच्छा में छिपा है।
अगर तुम परमात्मा को कृष्ण की भांति-- बांसुरी ओंठों पर रखे-- इस रूप में देखना चाहते हो, तो किसी दिन तुम उसको देख लोगे-- इसलिए नहीं कि कृष्प वहां है, इसलिए कि तुम्हारे भीतर इच्छा का बीज था जिसे तुमने जगत के पर्दे पर प्रक्षेपित कर लिया है। अगर तुम जीसस को सूली पर चढ़े देखना चाहते हो, तो तुम देख लोगे।
जो भी तुम चाहते हो वह प्रक्षेपित हो जाएगा लेकिन वह सिर्फ सपनों का जगत है--तुम सत्य के निकट नहीं पहुंच रहे हो। भीतर निर्बीज हो जाओ कोई आग्रह नहीं, कोई पक्ष--विपक्ष में विचार नहीं कोई दर्शनशास्त्र नहीं। तुम सिर्फ वही देखते जाओ जो है। तुम कोई मन साथ मत लो। तुम मनरहित होकर जाओ।

अगर तुम सत्य को देखना चाहते हो, तो पक्ष या विपक्ष में राय मत बनाओ।
तुम्हारी पसंद और नापसंद का संघर्ष ही मन का रोग है।

यह है.. मन का रोग है पसंद और नापसंद, पक्ष और विपक्ष। मन क्यों विभाजित है? तुम एक क्यों नहीं हो सकते? तुम एक होना पसंद करते हो चाहते होलेकिन तुम विभाजनों, प्राथमिकताओं, पसंद और नापसंद को पानी देते रहते हो।
अभी कुछ समय पहले एक महिला आई और उसने कहा. मुझे आशीष दें, मैं आपका आशीर्वाद चाहती हूं।
लेकिन मैंने देखा कि वह बहुत घबड़ाई हुई है, चिंतित है, इसलिए मैंने पूछा? क्या बात है?
उसने कहा : मैं पहले ही किसी गुरु द्वारा दीक्षित हूं।
एक संघर्ष-- वह मेरे आशीष चाहती है, लेकिन मन कहता है कि मैं उसका गुरु नहीं हूं। उसका कोई दूसरा गुरु है तो क्या करे? मैंने उससे कहा कि तुम दोनों को छोड़ दो। यह उसके लिए सहज होगा अगर मैं उससे कहूं, ' पुराने को छोड़ दो। मुझे चुनो।' यह ज्यादा आसान होगा, क्योंकि तब मन अपना काम करता रह सकता है, लेकिन समस्या रहेगी। रोग का नाम बदल जाएगा किंतु बीमारी वैसी ही बनी रहेगी। फिर कहीं और, वही संदेह वही अनिश्चितता उठ खड़ी होगी।
लेकिन अगर मैं कहता हूं ' दोनों ही छोड़ दो, ' क्योंकि सदगुरु तक पहुंचने का यही एक मात्र रास्ता है, जब तुम इस या उस रास्ते का चुनाव नहीं करते हो तुम बस शून्य होकर आते हो। तुम बस बिना किसी आग्रह के आते हो जब तुम केवल खाली,
ग्रहणशील होकर आते हो केवल तभी तुम सदगुरु के पास आते हो। दूसरा कोई रास्ता नहीं है। और अगर सदगुरु सत्य के लिए द्वार बनने वाला है, तो ऐसा होगा ही, क्योंकि यही तैयारी है, यही दीक्षा है।
सदगुरु का काम तुम्हें मत रहित, मन रहित होने में सहायता देना है। अगर सदगुरु स्वयं तुम्हारा चुनाव बनता है, तो वह अवरोध बन जाएगा। तब तुमने फिर चुनाव कर लिया, फिर मन का उपयोग कर लिया। और जितना तुम मन का उपयोग करते हो उतना ही वह दृढ़ हो जाता है, उतना ही वह शक्तिशाली बन जाता है। उसका उपयोग मत करो। कठिन है क्योंकि तुम कहोगे हमारे प्रेम का क्या होगा? हमारी संपत्ति का क्या होगा? हमारे विश्वासों का क्या होगा? हमारे धर्म चर्च और मंदिर का क्या होगा? वे तुम्हारे बोझ हैं। उनसे मुक्त हो जाओ, उन्हें तुमसे मुक्त हो जाने दो। वे तुम्हें यहां बांधे हुए हैं, सत्य तुम्हें मुक्त करना चाहता है। मुक्त होकर ही तुम पहुंचते हो पंखों से तुम पहुंचते हो निर्भार होकर ही तुम वहां पहुंचते हो।
सोसान कहता है:

तुम्हारी पसंद और नापसंद का संघर्ष ही मन का रोग है।

कैसे इस पर काबू पाएं? क्या इस पर काबू पाने का कोई मार्ग है? नहीं कोई मार्ग नहीं है। केवल इसे समझने की आवश्यकता है। केवल इसकी वास्तविकता को देखना है। केवल आंखें बंद करके अपने जीवन को देखने की जरूरत है-- उसे देखो और तुम्हें
सोसान का सत्य अनुभव होगा। और जब सत्य की अनुभूति होती है, रोग छूट जाता है। उसके लिए कोई औषधि नहीं है, क्योंकि अगर तुम्हें औषधि दे दी जाए तो तुम औषधि को ही चाहने लगोगे। तब रोग तो भूल जाएगा, लेकिन औषधि की चाहत बनी रहेगी। तब औषधि रोग हो जाती है।
नहीं, सोसान तुम्हें कोई औषधि, कोई विधि नहीं देगा। वह तुम्हें कोई सुझाव नहीं देने वाला कि तुम्हें क्या करना चाहिए। वह बारंबार हजार बार इसी बात पर बल देने वाला है कि तुम इसे समझो कि किस तरह तुमने अपने चारों ओर झंझट खड़ी कर ली है कैसे तुम इतने दुख में हो। और किसी और ने इसे निर्मित नहीं किया है यह तुम्हारे मन का रोग है, पसंदगी और नापसंदगी का-- चुनाव का रोग है।
चुनाव मत करो। जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करो। तुम समस्त को देखो जीवन और मृत्यु को एक साथ, प्रेम और घृणा को एक साथ, सुख--दुख को एक साथ हर्ष और विषाद को, संताप और समाधि को एक साथ। अगर तुम दोनों को एक साथ देखते हो, तो फिर किसका चुनाव करना है? अगर तुम देखते हो कि वे एक ही हैं, फिर चुनाव कहां से प्रवेश कर सकता है? अगर तुम देख पाओ कि विषाद और कुछ नहीं आनंद है, आनंद और कुछ नहीं विषाद है अगर तुम देख सको कि सुख और कुछ नहीं दुख है प्रेम और कुछ नहीं घृणा है, घृणा और कुछ नहीं प्रेम है, फिर कहां से चुनाव करना? कैसे चुनाव करना? फिर चुनाव गिर जाता है।
तुम उसे नहीं छोड़ रहे हो। अगर तुम छोड़ते हो, तब वह चुनाव हो जाता है—यही विरोधाभास है। तुम्हें इसे छोड़ना नहीं है, क्योंकि अगर तुम छोड़ो, तो इसका यह अर्थ
होगा कि तुमने पक्ष और विपक्ष में चुनाव किया है। अब तुम्हारा चुनाव समग्र के लिए है। तुम समग्रता के पक्ष में हो, विभाजन के विरोध में हो, लेकिन रोग प्रविष्ट हो ही गया है। यह बहुत सूक्ष्म है।
तुम सिर्फ समझो, और यह समझ ही छोड़ना बन जाती है। तुम कभी छोड़ नहीं
सकते। तुम बस हंसो, और एक कप चाय मांग लो।

आज इतना ही।






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