ओम बोधि कम्यून और हथिया पिरामिड (देहरादून)
मार्ग की मधुर अनुभुतियां -भाग-01
जीवन में जो घटता
है वह हम पर नहीं घटना घटती है समय पर इस लिए उसका होना न होने का पता हमें घटते हुए
नहीं चलता। परंतु जरूरी नहीं है वह आपके लिए अशुभ ही हो। लेकिन सच यह है कि जब कुछ
भी घटता है हम उसे दुर्घटना ही मान लेते है।
परंतु सत्य में ऐसा होता नहीं है। समय के पार जब हम उसे देखते है तो वह आप के लिए अति उत्तम होता है।
ये अभी घटा एक का एक अनुभव आप को लिख रहा हूं। पिछले आठ साल से मोहनी बीमार चल रही है, इस लिए दोनों का साथ बाहर निकलना बहुत कम हो गया है। परंतु अचानक दो महीने से मोहनी स्वास्थ महसूस कर रही है। तब सोचा कुछ दिनों के लिए साथ निकले। सो हमने देहरादून ‘’ओम बोधिसत्व कम्यून’’ जाने का निर्णय लिया। वह आश्रम स्वामी नरेंद्र बोधिसत्व की उर्जा से लवरेज है। और हमारे लिए वह घर के समान था। हां एक बात और भी थी कि 30 नवम्बर को स्वामी नरेंद्र जी ने शरीर छोड़ा था, तब सोचा इससे सुंदर क्या होगा। सो हमने 24 तारीख की टिकट करा ली। तो हम बहुत हंसते खेलते। डेढ़ बजे के करीब आश्रम पहुंच गये। वहां खाने की तैयारी हो रही थी। मां दिव्या (जो मां मुक्ति की छोटी बहन है) गेट पर ही मिल गई। वह इस तरह से देख रही थी की हम कोई अजनबी है। हालांकि वह और उसका मित्र स्वामी कृष्णा वेदांत हमारे ओशोबा हाऊस आ चूकी है। ध्यान भी किया और साथ में खाना भी खाया। और आश्रम में तो हम कितनी ही बात मिले है। हम वहां करीब 1998 से जा रहे है।
स्वामी अनुपम जी
सामने ही खड़े थे,
जो वहां का कमरों और ध्यान आदि का कार्य भार सम्हालते है। सो उनसे
बात होने लगी इतनी देर में मां दिव्या आई और कहने लगी आप ने फोन नहीं किया,
मैंने कहां की हम तो आपके यहां बरसो से अथिति की तरह से ही आते हे। तब
उसने तपाक से कहा कि इस लिए आज आप को खाना नहीं मिलेगी। मुझे खाना न मिलने से कोई
परेशानी नहीं होती। वैसे भी रेल में अच्छा खासा नाश्ता मिल गया था। परंतु मोहनी को
तो दवाई भी लेनी थी। इस लिए कहां की मेरी कोई बात नहीं आप मोहनी जी को दो फुलके दे
दो क्योंकि उसे दवाई खानी है।
स्वामी अनुपम जी ने
मेरे साथ मेरा सामान उठाया और कमरे को खोल कर कहां की आप भी खाना खाने चलो। मैंने
कहां की मैं स्नान कर लेता हूं। वह चले गये मैंने गीजर औन कर दिया। और बैग से चोगा
आदि निकाल लिया। कुछ ही देर में अनुपम जी आये की स्वामी जी चलों एक बार आप को मां
मुक्ति ने बुलाया है। मुझे कुछ अजीब लगा। परंतु फिर मैंने बिना स्नान के चोगा ही
पहन लिया। मां मुक्ति दिव्या और स्वामी कृष्ण वेदांत जी बैठे हुए थे। मैन जा कर
उनके और कृष्ण वेदांत के चरण स्पर्श किए तब मां मुक्ति ने कहां की कुर्सी ले लो और
पास आ जाओ। मैंने मां दिव्या जो मां मुक्ति के पास झूले पर बैठी थी। को मजाक में
कहां की आप तो हर वक्त मां के संग रहती है मैं मां मुक्ति के पास बैठता हूं।
क्योंकि आज कल मां मुक्ति को कम सुनाई देता है। इस लिए उनसे बोलने के लिए तेज ही बोलना
होता है।
तब मां मुक्ति ने
कहां की स्वामी जी आप तो घर जैसे हो परंतु इस बार आप यहां नहीं रूक सकेंगे मुझे
कुछ अजीब लगा। कारण समझ नहीं आ रहा था। क्योंकि अनेक कमरे खाली पड़े थे। चलों नहीं
तो जिस कमरे की चाबी मुझे दि गई थी वह तो कम से कम खाली था। अब मैं क्या कह सकता
था। केवल विस्मय विमुग्ध सा केवल देखता ही रह गया।
क्योंकि स्वामी
नरेंद्र जी के समय से हम पूरा परिवार अनेकों बार यहां आ चूके हे। और स्वामी
नरेंद्र जी खूद दो तीन बार ओशोबा हाऊस आकर मिल चूके हे। वह बहुत ही प्रेम पूर्ण व्यवहार
वाले स्वामी थे। उनकी उर्जा कमाल की थी। वह मुझे बहुत चाहते थे। एक बार स्वामी नरेंद्र
जी अचानक ध्यान में चक्र आ कर गिर गये थे। उनके मुख से खून आ रहा था। उन्हें जल्दी
से अस्पताल में ले गये मैं और मेरे मित्र। ये बात करीब 2000 कि रही होगी। स्वामी जी
वहां करीब एक सप्ताह रहे। केवल मुझे ही वह अपने पास रखते थे, तब
मैंने उनके साथ पांच रातें अस्पताल में गुजारी थी। मेरे लिए वह गजब का अनुभव था। उसे
मैं आज भी नहीं भूल सकता। बुद्धत्व क्या होता है। उसके संग साथ रहने से कैसा लगता है।
आपकी पूरी चेतना का अचानक एक तूफान की तरह से बदल जाता है। आप अपने होने को अंदर जाकर
देख नहीं पा रहे होते हो। परंतु एक आनंद की उतुंग तरंगें आप को उड़ा लिए चली जा रही
होते है। सोचो उसे आज भी मैं उस अवस्था पर पहुंच नहीं पा रहा हूं। जहां अनजाने तोर
पर मुझे खड़ा कर दिया था। ओशो के संग साथ रहने वाले सन्यासियों की हालत आप समझ सकते
है। तब वो उनकी उर्जा में उड़ रहे थे। जिनके पंख उग आये वह तो बाद में उड़ चले बाकी
की हालत के बारे में कुछ कहां नहीं जा सकता
अब उन्हें जमीन पर चलना होता है। जो गगन में स्वछंद उड़ते थे। ये स्वामी जी का निर्देश
था की केवल आनंद ही रुकेगा मेरे साथ। समय कि मांग थी, क्योंकि
रात भर जाग कर दवाई आदि देना या रात को जूस , पानी या सोचा लय
तक ले जा सकूं।
आश्रम में भी उनका निजी
कमरा मेरे लिए पूर्ण रूप से हमेशा खुला होता था। उस एकांत में उनसे ध्यान की बहुत
गहराई मैंने महसूस की है। उन्होंने एक बार मुझे ओशो का तौलिया भी उपहार में दिया
था। और अपने दो चोगे। वह उर्जा से लवरेज आज भी हमारे पास है।
इस बार हमारा वहां
जाना वहां अचानक हुआ था। शायद स्वामी नरेंद्र जी ने ही अंदर से साहस दिया हो।
क्योंकि हम वहां 24 नवम्बर को पहुंचे है और स्वामी जी का निर्वाण दिवस 30 नवम्बर
है। सच कहूं मैं मां मुक्ति से ऐसे शब्दों जो उन्होंने कहे हे। ये किसी का घर नहीं
है। ये ओशो का आश्रम है। आप के पास ये स्थान है जरूर। लेकिन आप ध्यान करने वालों को
इस तरह से दुत्कार नहीं सकते। शायद ये लोग थक गये है चलते-चलते। लेकिन अगर कोई गलत
है तो आप उसे निर्देश दे कर मना कर सकते हो कि आप ये सब यहां नहीं कर सकते। परंतु ध्यान
करने वालों के लिए ये व्यवहार कुछ अजीब है। मैं तो इसे पहली बार महसूस कर रहा था। और
लोगों के साथ भी होता होगा। इस का मुझे जरा भी अनुमान नहीं था। और आप ऐसे कैसे मना
कर सकती है।
तब मैंने कहां की
एक दिन तो रूक जाने दो। मोहनी की हालत इतनी सहीं नहीं की अचानक 300 मील का सफर कर
के और सफर कर सकते। कल हम चले जायेंगे। तब उन्होंने जो बात कहीं वह बड़ी अजीब बात
थी। कि ‘जब कल ही जाना है तो आज ही चले जाओ।’
खेर पास बैठी
दिव्या को अपनी गलती महसूस हो रही थी वह बार-बार खाने के लिए कह रही थी की न जाने
मुझे उस समय क्या हो गया था मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। मैंने कहां की कोई बात
नहीं आप ह्रदय पर मत लो मोहनी ने तो खा लिया है। समझो मैंने खा लिया। तब पास बैठे
कृष्ण वेदांत जी ने कहां की आप कहां से है। मैंने कहां आप भुल गये। आप एक बार
हमारे ओशोबा हाऊस आये थे और तब आपने बांसुरी मांगी थी। ये बात करीब 2005-6 की है। साथ
ध्यान किया था।
हुआ ऐसे की उन
दिनों में करीब चार पांच साल से बांसुरी बजा नहीं पा रहा था। उन्होंने बांसुरी
मांगी मेरे पास बांसुरी को दो सेट थे जो मैंने खूद ही गुरुजी के साथ मिल कर बनाई
थी। तो कुछ ऐसी बांसुरी थी जो मेरे पास तीन या चार थी। मैं उन में एक या दो निकाल
कर दे रहा था। उन्होंने अचानक मुझे कहां की आप हट जाओ मैं खूद ही ले लेता हूं।
मेरी बांसुरी और वो ऐसा व्यवहार कर रहे थे की जैसे ये कोई दुकान हे। आप समझ सकते
है। एक बांसुरी को ट्यून करने में कितना समय लगता है। बारीक रेंक मार से घिसने में।
और मेरे लिए अनमोल थी। जिन्हें केवल में प्रेम वश हो कर उपहार में दे रहा था। अपना
ह्रदय चिर कर। और आप समझ क्या रहे है। ये कोई दुकान है।
उनके ये शब्द सुन कर
मुझे बहुत बुरा लगा, अचानक मैंने उनके हाथ से सारी बांसुरी जो वो उठा चूके थे छीन ली और कहां
की आप ये बांसुरी भी मुझे दो और आप कनॉट पैलेस ‘’मरक्युस मुयुजिक सेंटर या किसी दूसरी दुकान से जाकर खरीद
सकते हे। ये कोई खैरात खाना नहीं है। आप क्या समझते हे। आप को तो जरा भी तमीज नहीं
है।
सो मैंने एक बार
सामने बैठे स्वामी कृष्णा वेदांत जी को देखा, वह अनेक पुस्तकें लिख चूके
हे। सुंदर लिखते है। ओशो के बहुत करीब रहे है। मैंने कहां की आप एक बार आये थे ओशोबा
हाऊस और बांसुरी उठा रहे थे। तब मैंने आप को फफैड़ा था। अचानक उनकी मछली बहार आई।
अरे आप वो है। मैंने पहचान नहीं।
मैंने कहां की कोई
बात नहीं। मैंने आप को पहचान लिया है। और मैं मां मुक्ति को प्रणाम कर की अब ये
अंतिम है यहां आना अब हमारा एक ओशो के घर के दरवाजे सदा के लिए बंध हो गये।
तेरे कूचे से हम निकल, मगर
बहुत बे आबरू होकर।
शायद नरेंद्र जी की
चेतना भी ये सब देख रही होगी। अब क्या अच्छा है क्या खराब है ये तो मान नहीं जान सकता।
परंतु उस समय तो आगे कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा होता। देखो अब अगला करवा कहां चल कर
रूकता है।
(क्रमशः: अगले अंक
में)
मनसा मोहनी दसघरा
ओशोबा हाऊस

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें