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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

नालंदा विश्वनविद्यालय—भारत एक सनातन यात्रा

 बड़ा विश्‍वविद्यालय था, नालंदा। दस हजार विद्यार्थी थे। चीन और लंका और कंबोदिया और जापन और दूर-दूर से लोग, मध्‍य एशिया और इजिप्‍त, सब तरफ से विद्यार्थी आते थे। पैदल यात्रा थी। जो चल पड़ा,वह लोट कर भी आएगा घर वापस, इसका पक्‍का न था। लोग रो लेते अरे गांव के बाहर जाकर विदा कर आते कि गया यह आदमी, अब क्‍या लोटेगा, घने जंगल थे, पहाड़-पर्वत थे, भंयकर खाई या थी। डाकू थे। जंगली जानवर थे। और फिर जो गया है ऐसी खोज में वह कहीं लौटता है यह खोज ही ऐसी है।
      नालंदा जैसी जगह में, जहां ज्ञानी यों का वास था, वहां वर्षों लग जाते। जवान आते लोग और बूढे हो जाते। और जब तक गुरु कह न दे कि हां,पुरी हो गई बात....
      तीन विद्यार्थी आखिरी परीक्षा पार कर लिए थे। लेकिन गुरु जाने के लिए नहीं कह रहा था। आखिर एक दिन एक ने पूछा कि हम सुनते है कि आखिरी परीक्षा भी हमारी हो गयीं , लेकिन लगता है हुई नहीं, क्‍योंकि हत से जाने के लिए नहीं कहां गया। बीस वर्ष हो गए हमें आए, घर के लोग जीवित हैं या नहीं; जिनको पीछे छोड़ आए है। वे बचे भी या नहीं; मां-बाप बूढे है। अब हम जाएं अगर हमारी परीक्षा पूरी हो गयी हो।
      तो गुरु ने कहा, आज सांझ तुम जा सकते हो।
      लेकिन आखिरी परीक्षा शेष रह गयी थी। पर आखिरी परीक्षा ऐसी थी कि वह ली नहीं जा सकती थी; वह तो एक तरह की कसौटी थी, जिसमें से गुजरना पड़ता था।
      सांझ को तीनों विद्यार्थी विदा हुए। दूर नगर है, जहां रात जाकर टिकेंगे। सांझ होने लगी, सूरज ढल गया। एक झाड़ी के पास आए। गुरु झाड़ी में छिपा बैठा है। उसने झाड़ी के बाहर कांटे बिछा दिए है। छोटी-सी पगडंडी है। कांटे बिछे हुए है। एक विद्यार्थी पगडंडी से नीचे उतर कर, कांटों को पार करके आगे बढ़ गया। दूसरे विद्यार्थी ने छलांग लगा ली। तीसरा रूक गया और कांटों को बीन कर झाड़ी में डालने लगा।
      उन दो ने कहा,  यह क्‍या कर रहे हो, जल्‍दी ही रात हो जाएगी। दूर हमें जाना है; जंगल है, बीहड़ है, खतरा है। ये कांटे-वांटे बीनने में मत समय खराब करो।
      पर उस तीसरे विद्यार्थी ने कहा कि सूरज डूब गया है। रात होने के करीब है। हमारे बाद जो भी आएगा, उसे दिखाई नहीं देगा कि कांटे है रास्‍ते में। हम ही आखरी है इस पगडंडी पर आज की रात, जिनको कि दिखाई पड़ रहा है। बस, अब ढला सूरज,तब ढला। रात उतर रही है। इन्‍हें बीनना ही पड़ेगा। तुम चलो, में थोड़े पीछे हो लुंगा।
      और तभी वे चौके कि झाड़ी से गुरु बाहर आ गया उसने कहा,दो जो चले गए है। वापस लौट आएं। वह परीक्षा में असफल हो गए है। अभी उन्‍हें कुछ वर्ष और रूकना पड़ेगा। और तीसरा जो रूक गया हे। कांटे बीनने, वह उत्‍तीर्ण हो गया है। वह अब जा सकता हे।
      क्‍योंकि अंतिम परीक्षा शब्‍दों की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। अंतिम परीक्षा पांडित्‍य की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो करूणा की है।
      गुरु के चरणों में बैठकर लोग सीखते थे, वर्षो लग जाते थे। अजीब-अजीब परीक्षाएं थी। लेकिन खोज ही लेते थे उन चरणों को, जहां घूँघट उठ जाते हे।
      देर लगती थी, कठिनाई होती थी। लेकिन कठिनाई की भी अपनी खूबी है। कठिनाई भी निखारती है; भीतर की राख को अलग करके झाड़ देती है। कुडा-करकट को जला देती है।
--ओशो, (गीता दर्शन, भाग-8, अध्याय,18, प्रवचन-19)
      उपसंहार—
      शिक्षाऐं जो कहानी के माध्‍यमसे दी जाती थी। हम आज उससे क्‍यों प्रभावित नहीं होते। वो केवल किताबी बातें रह गई है। हमारे जीवन में अमल की वस्‍तु नहीं रही। क्‍योंकि जो कहानी हम आज पढ़ हरे है। वो हजारों साल पहले की हालात में कही गई है। हम इतने चाल बाज है सोचते है वो सतयुग, की बातें भला आज कैसे हो सकती है, और बचा ले जाते है, इस दृश्य से अपने आपको बिना, बदले बिना पीड़ा के....शब्‍द केवल शब्‍द रह जाते है वो जीवित नहीं हो पाते है।
      अगर हम जीवन के पथ पर जुड़ी छोटी बड़ी घटनाओं को देखे तो आज भी वो हमें प्रकृति का अभूतपूर्व करिश्मा कहिए वो कहीं आस पास जरूर दिखाई दे जाएगा मगर शर्त यह है कि हम उसे क्‍या दिखाना चाहते हे। पर हम बेहोश गुजर जाते है, उस घटनाओं के पास से वो हमें छू तक नहीं पाती, क्‍योंकि हम जाग्रति नहीं है एक नींद में जी रहे है। वो सारी घारनाएं हमें वो सब देखने नहीं देती, या फिर हम उसे देखने समझने और अवलोकन करने प्रखरता नहीं रखते,.....कोई एक बात तो सत्‍य है। इसे हम इंकार नहीं कर सकते है।
      मेरा गांव एक पहाड़ी पर बसा है। उस के आस पास तो खेती की जमीन है पर गांव एक ऊंची  पहाड़ी पर  क्‍या सोच समझ कर बसाया ये उन बसाने वालों की प्रस्‍थिति को जाने बिना अनुमान गलत ही होगा। बचपन में मैंने वहां एक ऐसा चरित्र देखा जो नियम से रास्‍ते के पत्थरों को जो ठोर बन जाते थे निकलता था। मेरे बाल मन पर वो चरित्र एक आदर्श बन कर अंकित हो गया। और वैसी अनेक घटनाएं ही मुझे आज इस  स्‍थान तक ले आई जहां में सही गुरु को पहचान सका, क्‍योंकि हम सही गुरू को पहचान नहीं सकते। मन से उसे चुनते है। जो हमें अच्‍छा लगता है। जिसकी बातें चिकनी चुपड़ी लालच भरी जीवन में आशीर्वाद से लदी हो। वो उस मन के किसी काम का नहीं, पत्‍थर जब तक छैनी से प्रेम नहीं करेगा तब तक उससे मूर्ति निर्मित नहीं हो सकती। वो चरित्र, क्‍यों छू गया...जो आज भी मुझे अलादीन किय रहता है। उस पर मैंने एक कहानी लिखी है जिसमें मैंने उस चरित्र को जीवित करने की कोशिश की है... जो मेरे ब्लाक पर कहानी  (शब्‍द मंजूषा)  ‘’भोला’’ http://shabdmanjusha.blogspot.com के नाम से है।
      दत्तात्रेय ने 24गुरू किये... कूता, वेश्‍या, आदि भी वो. सीख पाय,यानि सीखना हो तो प्रकृति हमें उचित अवसर देती ही रहती है।

मनसा आनंद मानस

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