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शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

धनंजाति ब्राह्मणी---नमा तस्‍य.....(कथा यात्रा)

 
बात राज गृह की है। वहां एक धनंजाति नाम की ब्रह्मणी रहती थी। मायके से उसका परिवार भगवान बुद्ध का अनुयायी था। पर विवाह के वाद जिस परिवार में औरत जाती है। वहीं उसका धर्म हो जाता है। इस लिए तो हमारे पंडित पुरोहित भी पत्‍नी के आगे एक शब्‍द लगा देते है, धर्म पत्‍नी। वह जब दीक्षित हुई तब ही वह श्रोतापति को उपलब्‍ध हो गई। श्रोतापति को अर्थ है कि वह कुछ गया नदी की धारा में   अब उसने अपने को छोड़ दिया आस्‍तित्‍व के बहाव में। वह उसी दिन से ही एक पाठ दोहराती थी। सदा नमो तस्‍य भगवतो अरहंतो सम्‍मासंबुद्धस्‍य दोहराती रहती थी।

      यह बुद्ध की एक प्रार्थना है। यह बुद्ध की अर्चना है। यह बुद्ध की एक उपासना का भाव है। नमस्‍कार हो उन भगवान को ; नमस्‍कार हो उन अर्हत को ; नमस्‍कार हो उन सम्यक रूप से संबोधी प्राप्‍त को।
      इस के लिए उसे कोई भी बहाना भर मिल जाये। छींक आये, डकार आये, कुछ भूल हो जाये, किसी ने अपमान किया हो। किसी को धन्‍यवाद देना हो। खांसी आ जाये। कुल मिला कर उसे ये मत्रं दोहराने का बहाना चाहिए।
      एक दिन उन के घर पर भौज था। बहुत लोग आए थे। पति का भाई उसके रिश्ते दार। काम की मारा मारी थी। अचानक उसका पेर फिसला और गिर गई। उसने आपने को सम्‍हाला और खड़ी हो वही भगवान की वंदना की: नमां तस्‍य भगवतो अरहंतो सम्‍मासंबुद्धस्‍य को।
      पास ही उसके पति को बड़ा भाई खड़ा था। वह लोग भारद्वाज थे। उसने जब इस मंत्र का उच्चारण करते सुना। तो उसका पांडित्य जाग गया। की ये उस मुंडे बुद्ध की वंदना कर रही है। इसे लाज नहीं आती। इतने बड़ों घर में जो सदियों पूजनीय रहा है। जहां ज्ञान के फूल खीलें है। जो आस पास के पंचासी गांव में पूजनीय है। उस परिवार की बहु उस श्रवण गोतम को नाम लेती है। जिसने हिंदू धर्म को भ्रष्ट करेने की मानों ठान ही ली हो। उसने उसे खूब खरी खोटी सुनाई, और डाटा की आज के बाद उस मुंडे का नाम भी ज़ुबान पन मत लाता। जहां कोई जरूरी भी नहीं है उस श्रवण गोतम की नाहक प्रशंसा करती है।  और फिर थोड़ा चुप रह कर सोच कर बोले: ले आज मैं तेरे उस श्रमण गौतम के शास्‍त्रार्थ करके उसे खतम ही कर देता हूं। वह अपने को समझता क्‍या है। ‘’ और वह क्रोध में अपने शास्‍त्र आदि उठा कर तभी भगवान के निवास की तरफ चल दिया।    
      यह सब सुनकर ब्रह्मणी हंसी, और बोली: नमो तस्‍य भगवतो अरहंतो सम्‍मासंबुद्धस्‍स। जाओ ब्राह्मण, शास्‍त्रार्थ करो। लेकिन यह जान लो वे साक्षात धर्म है, उनमें जीवित धर्म उतरा है। आपके पास ये किताबों का बोझ नहीं है। आप नाहक परेशान हो रहे है। क्‍यों वह तो खुद चलते फिरते धर्म है उनसे कैसे आप जीत सकते है आप मुर्दा पुस्‍तकों के ज्ञान से उस अंगारे से लड़ने जा रहे हो। ये शास्‍त्र तो बुझी आग की राख है थे कभी अंगारे। जब जीवित गुरु के मुख से निकले होगें। पर आब इनमें वो बात कहा। फिर भी तुम जाओ। उनके सामने जाने से कुछ लाभ ही होगा। सुर्य के सामने प्रकाश में जाने से ही फुल खिलता है। भगवान तुम्‍हारा भला करे।
      ब्राह्मण क्रोध में और अहंकार से भरा हुआ अपनी विजय की महत्‍वाकांक्षा में जलता हुआ भगवान बुद्ध के पास पहुंचा। वह ऐसे था, जैसे उसके पूरे शरीर में ज्‍वर उतर आया हो। आग के शोलों की तरह उसकी आंखे जल रही थी। शरीर में इतना उत्‍ताप था की उसकी बाणी से शब्द भी कंपित हो निकल रहे थे। जो रस्‍ते में उसे मिलता वह उसे ठीक से बता भी नहीं पा रहा था की वह कहा जा रहा है। और प्रत्‍येक पूछने वाला पाणी उसकी अग्नि में धी का काम कर रहा था। अगर वह घण्‍टा दो घण्‍टा इसी तरह से रहा तो उसका पूरा शरीर जल कर भस्म हो जायेगा। उसके शरीर से क्रोध की लपटे उठ रही थी। और उसके इस तरह से जाते देख कुछ लोग तो अपना काम भी छोड़ कर उसके साथ हो लिए कुछ तो उसे समझाने बुझाने लगे। की नाहक ये पता नहीं भगवान का क्‍या अपमान कर दे। पर वह किसी की कोई बात सुनने को तैयार ही नहीं  था।
      लेकिन जो हुआ वह भरोसे लायक नहीं था। उस की किसी को कल्‍पना भी नहीं थी। वह ब्रह्मण जंगली हाथी की तरह से इस तरह से भागा जा रहा था। की वह एक बड़े जंगल में उत्पात कर उसे विनिष्‍ट कर देगा। फिर  भगवान का आम्र बन तो सुकोमल पुष्प की तरह था। पर जैसे अंगारे को पानी में डाल दो तो क्षण में उसकी गर्मी का वाष्पीकरण हो जाता है। वह शीतल और शांत हो जाता है। इसी तरह से वह जब भगवान के समक्ष पहुंचा। एक दम शांत हो गया मानों शीतल प्रेम की वर्ष उस पर बरस गई हो। रास्‍ते भर लोग उसे रोकने की कोशिश करते रहे। वह नहीं रुका पर यह तो.... सब देखते ही रह गये। जलते सूरज की तपीस में जैसे वृक्ष सीतलता भर देता है। उसी तरह से उसके जलते में पर भगवान की करूण की वर्षा हो गई ओ वह भगवान की आखों को देखते ही उनके रूप को देखते ही, उस सुकोमत प्रेम प्रसाद को देख उनके चरणों में झुक गया।  कोघ तो बुझ गया और अंदर की जलन आंखु बन कर बहने लगी। आंखों से झर-झर आंसु बह रहे थे। प्रेम और पश्‍चाताप की सुधिकरण लिए। अब कहां विवाद कहां शास्‍त्रर्थ अब तो उससे हारने की कामना आकांशा पेदा होने लग गई।
      वह पल में रूपांतरित हुआ। उसने भगवान से कुछ प्रश्‍न पूछे विवाद के लिए नहीं। मुमुक्षा से। अर्चना से जिज्ञासा से कौतूहल से नहीं निवारण है। अब रास्‍ता साफ इस लिए हो रहा था कि कोई मुसाफिर उसी पीड़ा फिर से न भोगे। या में भी उस कष्‍ट से बच जाऊँ। भगवान न उसके एक-एक प्रश्न के उत्‍तर बड़े ही प्रेम से दिये। तत क्षण वह समाधान को पा, उसकी समाधि लग गई। वह भगवान का भिक्षु हो गया। वह कभी घर नहीं लोटा पहुच ही गया जब असली घर में तो बार उस को क्‍या लोटना। पा लिया जो पाना था। हो गया पूर्ण। घर से बुलावा आया। उसने कह भेजा की वह मेरी राह ने तके। मुझे मेरा ठोर-ठीकाना मिल गया। मिल गई वह करूणा जिसका जन्‍मों–जन्‍मों इंतजार था।
      ठीक-ठीक समाधि भी क्‍या है। हां गेर ठीक भी होती है समाधि। गैर-ठीक समाधि का अर्थ होता है। मूर्छित समाधि। एक तरह की निद्रा। एक तरह की सुषुप्‍ति। उसे असम्‍यक समाधि कहते है। यह एक प्रकार की जबरदस्‍ती है। तुमने सुना होगा ऐसे कई संन्‍यासी जमीन में महीने भर बैठा रह सकता है। वह करता क्‍या है। वह एक प्रकार से मूर्छित हो जाता है, कोमा में चला जाता है। वह अपनी सांस को अवरूद्ध करके अपनी चेतना को खो देता है। जितनी देर चेतना खोई रहेगी वह उतनी ही देर। जमीन के नीचे पडा रहेगा। यह जो असम्‍यक समाधि है, इसमें तीन काम हो सकते है। एक तो श्‍वास की प्रक्रिया, दूसरी: सम्‍मोहन, तीसरी: भीतर की घड़ी का उपयोग।
      यह बात जब उसके भाइयों को पता चली तो, उस ब्रह्मणी का पति क्रोध से लाल पीला होने लगा। की उसका भाई तो अब कभी घर नहीं आयेगा। उसने ब्रह्मणी को क्रोध में न जाने क्‍या–क्‍या कहां और अपने भाई का बदला लेने के श्रवण गौतम के को हरा कर अपने भाई को सही मार्ग पर लाने के लिए चल दिया। वह भी अपने भाई की तरह ही आक्रोश से भर, गाली गली गलौज करता हुआ चल दिया। उस जादुगर श्रवण गौतम की ढोल पोल मैं ही खोल सकता हूं। मैं तो यही सोच कर चुप रह जाता है। क्‍या मुहँ को लग्गू उस का अपना धंधा है करने दे। पर ये तो अति ही गई सँपेरे को ही सांप ने बाँध लिया। ऐसे धर्म प्रवर्तक तो न जाने कितने आये और चले गये। ये तो कुकर मुत्तो की भाति मौसमी है। वर्षा खत्‍म तो इन फुग्‍गों की हवा निकल जाती है। उसकी इस बात को सुन कर ब्रह्मणी अंदर ही अंदर बहुत प्रश्न हो रही थी। वह जानती थी ये उछल कुछ चंद घण्टे की है। मन रूपी बंदर कितना फुदकते है। और उसने फिर वहीं मंत्र दोहराया: सदा नमो तस्‍य भगवतो अरहंतो सम्‍मासंबुद्धस्‍स।
      अब वह रास्‍ते भर क्रोध में भर कर ने जाने क्‍या-क्‍या अनाप सनाप बकता हुआ भगवान जहां ठहरे थे। वेणु बन की और चला जा रहा था। लोग अभी पहली घटना से उभरे भी नहीं थे की एक और घटना घटने के लिए तैयार हो गई। लोगों की भिड़ फिर पीछे चल दि जिन्‍होंने सूना था की उसका भाई क्रोध में गया और भगवान के समक्ष तो ऐसा हो गया जैसे जलता कोयला अपनी तपसी पानी में जाते ही खो दे। अब ज्‍यादा लोग इक्कठा हो गये। वह भी उस घटना के साक्षी हो जाना चाहते थे । कि वह भी उस घटना को आगे प्रचार प्रसार कर सके अरे ये तो सब मेरी आंखों के सामन घटा था। पर यह घटना फिर दोहराई गई वह ब्रह्मणी का पति ही नहीं उसके दो छोटे भाई भी आये और दीक्षित हो गये।
      भिक्षु ये सब देख कर चमत्‍कृत थे। उन्‍हें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आ रहा था। वे आपस में बात कर रहे थे कि देखो आवसु हमारे गुरु की महिमा। उन का चमत्‍कार। ऐसे दुष्‍ट अहंकारी और क्रोधी व्‍यक्‍ति भी शांतचित्त हो सन्‍यस्‍त हो गए। और अपने को बड़े ब्रह्मण समझते थे। वह भी छोड़ दिया।
      भगवान ने यह जब सुना तो कहा: भिक्षुओं, भूल मत करो। उन्‍होंने ब्राह्मण धर्म नहीं छोड़ा है। वस्‍तुत: वह पहले जन्म से जिसे ब्रह्मण समझे रहे थे। वह असली नहीं था। बुद्धत्‍व, ब्रह्मण जन्‍म से नहीं होता, इसे अर्जित करना हो । पुरूषार्थ से ही प्रात होता। वह उन्होंने मान ही नहीं लिया। उसे छोड़ दिया। और अब वह मेरे पुत्र सही मायनों में ब्राह्मण हो गये। वस्‍तुत: यहि है असली ब्रह्मत्‍व जो उन्‍हें फलित हुआ है। तब भगवान ने ये गाथा ये कहीं:

      जिसने नध्‍दा, रस्‍सी, सांकल को काटकर खूँटे को भी उखाड़ फेंका है, उस बुद्ध पुरूष को मैं ब्राह्मण कहता हूं।
     जो बिना दूषित चित किए गाली, वध और बंधन को सह लेता है, क्षमा-बल ही जिसके बल को सेनापति है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।
     नमो तस्‍य भगवतो अरहंतो सम्‍मासंबुद्धस्‍स—जो भगवान हो गया है, जो अर्हत हो गया है, जो सम्‍यक संबोधी को प्राप्‍त हो गया है। वहीं ब्राह्मण है।
मनसा आनंद
    

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