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मंगलवार, 13 जुलाई 2010

विशाखा--श्‍वसुर की गुरू माता--(कथा यात्रा-004)

विशाखा-श्वसुर की गुरू माता-(एस धम्मो सनंतनो)
विशाखा एक अति धनी परिवार में पैदा हुई थी। उस का पुरा परिवार भगवान बुद्ध से प्रभावित था। उसके पिता धनंजय और माता का नाम सुमना था। उसके पिता भगवान बुद्ध के अटूट भक्तों में से एक थे। वह बचपन से ही अपने माता पिता के साथ धर्म श्रवण को जाती थी। कहते है वह सात साल की थी,तब ही श्रोतापत्ती के फल को उपलब्‍ध हो गई थी। श्रोतापत्‍ती का अर्थ है ध्‍यान की धारा में बह जाना। अपने को छोड़ देना उस आस्तित्व के हाथों। और अपने में डूब जाना। मनुष्‍य जब ही अध्‍यात्‍म की यात्रा पर चल सकता है जब वह श्रोता पन्न को उपल्‍बध हो जाये। ये मनुष्‍य के जीवन के अति महत्‍व पूर्ण पड़ाव है। मनुष्‍य के शरीर को सात चक्रों में विभाजित किया जाये तो यह तीसर मणिपूर चक्र होता है। पहल दो चक्रों तक प्रकृति अपना काम करती है। उत्पत्ति और भय और क्रोध। जो जीवन के अभिन्‍न अंग हे। मणि पुर जिसे हिन्‍दुओं ने उसे सचमुच बहुत ही सुंदर नाम दिया है। वह सच में मणि है। जो मनुष्‍य के अंदर का भाग्‍य खोल देती हे। वह बंध होता है। बिना गुरु के सहयोग के वह कभी नहीं खुलता। पर जिस का खुल गया वह समाज की नजरों में आपको पागल सा लगेंगे। आप कहोगे ये तो उसका दीवाना हो गया। बावरा हो गया।

      बहुत छोटी उम्र में ही श्रोतापत्ती फल को उपलब्‍ध हो गई विशाखा जब जवान हुई तब श्रावस्‍ती निवासी मिगार श्रेष्ठि के पुत्र पुत्रवर्धन से उसका विवाहा हो गया। भगवान का दिया घर में वह सब था जो इस संसार में जो चाहिए, वहीं था। पर एक चीज जो उसे खलती थी। भगवान की कमी वह वहां नहीं थी। अब श्रावस्‍ती में रहकर भी कोई भगवान से अनछुआ रह जाए यह भी एक चमत्‍कार है। कपिलवस्‍तु की रहने वाली विशाख ने श्रावस्‍ती में विवाहा इस लिए किया था की वहाँ भगवान के दर्शन तो करने को मिल ही जायेंगे। ये कथा जो आप पढ़ रहे है, इनमें बार-बार एक बात आती है। भगवान श्रावस्‍ती में विहरते थे। अपने जीवन के चालीस वर्षा वास में से भगवान ने 25 से भी अधिक श्रावस्‍ती में गुज़ारे। पर घर का माहौल न तो बुद्ध विरोधी था, न उनके अनुयायी जैसा ही था। पति और श्‍वसुर पुजा पाठ करते। और धन कमाते। कभी संध को दान न देते न कभी संध को भोजन आदि का भोग लगते। कोई कुआँ बावड़ी नहीं बनवाई। कोई धर्मशाला नहीं बनवाई। यानि अपनी कमाई में से शुभ कार्य के नाम पर वह पाई भी खर्च नहीं करते थे।
      एक दिन की बात है। विशाखा अपने श्‍वसुर को भोजन परोस रही थी। इतनी देर में एक बोध भिक्षु भिक्षा टन करता हुआ अंदर आ गया। सही समय और मौके का इंतजार करती विशाखा इस समय को चुकना नहीं चाहती थी। उसने बोध भिक्षु को कहा की भिक्षु और कोई घर देखो मेरे श्‍वसुर तो बासी खा रहे है। ये बात उसने इतने जोर से कही थी की उसके श्‍वसुर के कानों तक पहुच जाये।
      इतनी बात सुन कर उसके श्‍वसुर मिगार तिल मिला गये। और क्रोध में उसको बहुत भला बुरा कहा की तू हमारे, कुल बधू हो कर हमारी बदनामी कराती है। और घर आये भिक्षु को बिना भिक्षा दिये वापस कर देती है। यह हमारी मर्यादा के खिलाफ है। वह इतना नाराज हुआ की उसने विशाख के माता पिता और पंचायत को भी इक्कठा कर लिया की मेरी पुत्र वधु मेरे कुल का अनादर करती है। उसने मेरे ही सामने मेरा ही अपमान किया। एक बोध भिक्षु को घर से यह कह कर वापस कर दिया की मेरे श्‍वसुर बासी खा रहे है। आप पंचों यह फेसला करो और जो भी हरजाना आप मुझ पर डालेंगे में देने को तैयार हुं। मैं अपनी पुत्र वधू से तलाक चाहता हुं, इसके माता पिता भी यही है। और वह रोने लगा। उसका रोना देख कर पंचायत ने विशाखा से पूछा बेटा तुम सुशील हो सुसभ्‍य हो, उचे कुल की हो क्‍या यहीं मर्यादा से समाज चल सकेगा। जो अपने श्‍वसुर की सेवा तो दुर उसका मान भी नहीं कर सकती। जब आप जैसी पढ़ी और अच्‍छे आचरण नहीं करेगी तो किसी दूसरों से हम क्‍या उपेक्षा कर सकते है। क्‍या तुमने ऐसा कहां था। कि मेरा श्‍वसुर तो बासी खा रहे है।
      विशाखा ने हाथ जोड़ कर कहा की पंच तो भगवान तुल्‍य होता है। मैं कुछ भी झूठ नहीं बोलूगीं। मैंने ऐसा कहां पर क्‍यों कहा वह भी आप से कहे देती हूँ। हमारे घर में सब है जो आदमी को चाहिए, धन दौलत, जेवर, गहने, सुख सुविधा क्‍या नहीं है। पर इस के बदले हमारे श्‍वसुर कभी कोई दान, दक्षिणा, कोई मंदिर, कुआँ बावड़ी , कभी भोज आदि कुछ नहीं करते। तो फिर ये मिला कहां से किसी जन्‍म की कोई कमाई होगी जिसे इस जन्‍म में उपयोग कर रहे है। कुछ बोया होगा किसी जन्‍म में। जिसे इस जन्‍म में काट रहे होगें। वरना तो इस जन्‍म में तो ऐसा कुछ किया नहीं है। जिसके बदले ये सुख वैभव भोग रहे है। तब मैंने क्‍या गलत कहा मैने भिक्षु से इतना ही कहा की मेरे श्‍वसुर बासी खा रहे है। तब आप लोग ही बताये की में कहां पर गलत हूं, मैने क्‍या गलत बोला।
      विशाखा की यह बात सुन कर पंचायत ने उसकी भूरी -भूरी प्रशंसा की और मिगार को कहा की तुम्‍हारी सम्पति पर बहु का भी कुछ हक या नहीं  अगर है तो उसे उस में से कुछ अपने धर्म के हिसाब से खर्च करने की आज्ञा आपको अभी देनी चाहिए। आपकी बहु आपका अपमान नहीं कर रही थी आपको चेता रहा थी। इतनी बात सुन मिगार की आंखों में पानी आ गया। उसने खड़े हो कर कहां आज से विशाख मेरी बहु बाद में है मेरी गुरु माता है। और इसे पूरा अधिकार है अपने हिसाब से जो धन चाहे खर्च करे। और अगले दिन ही भगवान को और पूरे संध को भोज के लिए निमंत्रित किया।
      भोजन के उपरांत भगवान ने उपदेश सुन कर मिगार ने दीक्षा ले ली। और बार में वह भगवान का प्रिय शिष्‍य गिना जाने लगा। विशाख ने श्रावस्‍ती में एक विहार का निर्माण कराया कहते है उस समय उस में 20 करोड़ स्‍वर्ण मुद्रा ये लगी। जो 10 हजार भिक्षुओं के रहने का पाँच मंजिला विहार था। जिस के अवशेष आज भी श्रावस्‍ती में देखे जा सकते है।
      विशाखा भगवान की उन प्रमुख उपासिका में से एक थी जो भगवान के जीते जी बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो गई थी। अभी आपने रेवत की कथा में पढ़ा था। विशाखा उन से पुछती है आर्य रेवत का निवास स्‍थान  कैसा था। श्रावस्‍ती नगरी विशाखा की उन बोध भिक्खुणियों में से एक थी जिसने कभी घर नहीं छोड़ा। और संसार में ही सुख वैभव में जी और ध्‍यान को उपल्‍बध हो गई। विशाखा भगवान की विरोध भाषा उपासिका में से एक थी।  भगवान की कथाओं में विशाखा का , कुमार जैत का, और अनाथ पीड़क का कितनी बार नाम आता है। भगवान की नजरों में इन का बहुत सम्‍मान था। इन्‍होंने लुटाया भी बहुत जो धन इन के पास था, पर मिला भी बहुत है उसके बदले। परम भाग्‍य शाली थी विशाखा। श्रावस्‍ती कितनी भाग्‍य शाली रही होगी ऐसे हीरों को अपनी गोद में जन्‍म दे कर।
मनसा आनंद ‘’’मानस’’’ 

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