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बुधवार, 28 जुलाई 2010

अधूरी वासना—(कहानी) लेखक--ओशो

  
(28 नवंबर 1953 के नव भारत (जबलपुर) में इस संपादकीय टिप्‍पणी के साथ यह कहानी पहली बार प्रकाशित हुई थी)
     ‘’ अधूरी वासना ’’ लेखक की रोमांटिक कहानी है।
     भारत के तत्‍व दर्शन में पुनर्जन्‍म का आधार इस जीवन की अधूरी छूटी वासनायें ही है। कहानी के लेखक नह ऐ अन्‍य जगह लिखा है कि ‘’ शरीर में वासनायें है पर वह शरीर के कारण नहीं है, वरन शरीर ही इन वासनाओं के कारण से है।
     अधूरी वासनायें जीवन के उस पास भी जाती है। और नया शरीर धारण करती है। जन्‍मों–पुनर्जन्‍मों का चक्र इन अधूरी छूटी वासना ओर का ही खेल है, लेखक की इस कहानी का विषय केंन्‍द्र यही है।
     23 अगस्‍त 1984 को पुन: नव भारत ने इस के साथ इस कहानी को प्रकाशित किया: संपादकीय टिप्‍पणी:-
     श्री रजनीश कुमार से आचार्य रजनीश और भगवान रजनीश तक का फासला तय करने वाले आचार्य रजनीश का जबलपुर से गहरा संबंध रहा है। अपनी चिंतन धारा और मान्‍यताओं के कारण भारत ही नहीं समूचे विश्‍व में चर्चित श्री रजनीश ने आज से लगभग 31 वर्ष पूर्व नव भारतको एक रोमांटिक कहानी प्रकाशनार्थ भेजी थी और वह जिस संपादकीय टिप्‍पणी के साथ प्रकाशित की गई थी, 28 नवंबर 1953 के नव भारत से लेकिर अक्षरशः: प्रकाशित कर रहे है।
    
      मैं पथ पर अकेला था, मेरा गीत था और दूर-दूर तक पहाड़ी पगडंडियों में चांदनी बिखरी सोई था। रातें ठंडी हो गई थी। और ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर बर्फ गिरने लगी थी एक माह की दे थी कि यहां भी बर्फ के गोले पड़ने लगेंगे, नदिया जमकर चाँदी की धारों में बदल जायेगी और काले पहाड़ों की चोटियों पर शुभ्र हिम ऐसे चमकने लगेगा, जैसे पहाड़ों ने अपने जूड़ों पर जुही के सफेद फूल बाँध लिये हो।
      मैं अपने आप में खोया-खोया आगे बढ़ता गया। कभी-कभी पक्षी रात में मौन को तोड़ता निकल जाता और सूनी वादियाँ उसके परों की फड़फड़ाहट में गूंज जाती। फिर रात का ठंडा मौन वैसे ही वापस घिर आता जैसे नदी की छाती पर गिरे पत्‍थर से कांपती लहरें फिर एक दूसरे में मिलकर मौन जो जाती।
      आधी रात का जवान चाँद चमक रहा था। और एक सफेद बादल का तनहा-सा टुकड़ा उसके पास-पास तैरता जा रहा था। मैंने सोचा, चाँद के साथ तो कोई है पर मैं बिलकुल ही अकेला हूं। और मैंने नजर उठाकर चारों तरफ फैली सुनसान वादियों को देखा और फिर अपनी 25 वर्ष की मानों उस जिंदगी पर नजर डाली जो आज मुझे एक लंबी सुनसान अंधेरी वादी के सिवाय और कुछ भी नहीं लगती है इससे मेरा मन उदास हो गया और मैंने बीच में अचानक ही टूट गये अपने गीत को फिर गुनगुनाना शुरू कर दिया।
      सफेद बदली देर तक चाँद को धेरे रही। और फिर अंत में उस पर छा गई और मेरे पथ पर एक क्षण को झीना सा अँधेरा उतर कर चाँदनी के सफेद रूप में घूलमिल गया।
      मेरी पगडंडी अब एक मोड़ पर आ गई थी। पहले थोड़ा-सा उतार था और फिर दूर तक एक लंबा चढ़ाव जो चिनार के वृक्षों में से होता पहाड़ के ऊपर तक घूमता चला गया था। इस चढ़ाव के ऊपर तक घूमता चला गया था। इस चढ़ाव के अंत में मेरा गांव था। जहां बूढ़ी मां मेरी बाट जो रही थी। उतार पर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। सामने की घाटी के उस पार शैल नदी की चौड़ी धारा चाँदनी की झिलमिलाहट में चमक रही थी। उस पर दूर एक सफेद धब्‍बे सा बजरा पानी पर डिगा था और उससे बांसुरी के मीठे स्‍वर थिरकते पहाड़ों से टकरा रहे थे।
      मैंने अपना गीत बंद कर दिया और बांसुरी को सुनने लगा। वादियों के सुन सान प्राण धीरे-धीरे उसके लहराते स्‍वरों से भर गये, मेरी आंखों में नींद की ख़ुमारी उतरने लगी और पहाड़ की रात एक मधुर से स्‍वप्‍न में बदल गई।
      पगडंडी का उतार अब पूरा होने को था। और मेरे गांव को जाती रहा सांप की सुनहरी कांचली-सी दूर तक चमकती दिख रही थी। बांसुरी के स्‍वर तीव्र हो गये थे और नाव धीमी गति से अब किनारे की तरफ आ रही थी। चाँद लहरों को चूम रहा था। और सफेद बदली का टुकड़ा बहुत पीछे किनारों के ऊंचे वृक्षों में उलझा-सा लगता था। मैं कंकड़ीली पगडंडी के उतार पर किसी स्‍वप्‍न में खोया सा उतरने लगा। मेरा रास्‍ता ऊपर जाता था। पर मेरे प्राणों के तार नीचे को बह रहे थे। मुझे लगा कि जैसे मुझे कोई नीचे खींच रहा है और मैं अपने कदमों को रोकने में असमर्थ हूं।
      बांसुरी के स्‍वर धीरे-धीरे तीव्र से तीव्र तर होते जा रहे थे। नदी करीब आती गई और किनारों के ऊंचे वृक्षों के बीच से नीचे उतरता गया। पगडंडी पर अब रेत ज्‍यादा बढ़ गई थी। और शैल का किनारा मुझसे ज्‍यादा दूर नहीं था। ठंडी हवाएँ लहरों को थपेड़े देती मुझे छूने लगीं। मेरी शाल का पल्‍ला पीछे-पीछे उड़ता और मेरी सांसों में बरफ का ठंडा पन उतरनें लगा। साँसे भीतर जाती तो ऐसा लगता जैसे प्राण में बरफ के लहराते फीते घँसते चले जा रहे हों।
      पगडंडी अंत में रेत में जाकर खो गई। मैं अब पहाड़ से नीचे उतर आया था।
      सफेद बगुलों के परों सा पाल ताने बजरा किनारे पर लगने को था। चाँद सिर पर आ गया था और मरे लंबी छाया सिमट कर मेरे पैरों में लिपट आई थी।
      बांसुरी अब और मधुरता से बज रही थी। और उसके स्‍वर मेरी सांसों में डूब रहे थे। मैं उनकी मधुरता में आगे बढ़ता गया और किनारे पर जाकर खड़ा हो गया। हिलती लहरों ने मेरा स्‍वागत सत्‍कार किया और किनारे पर बैठा कोई पक्षी उड़ता उस पर चला गया।
      नाव मेरे पास ही आकर रूक गई। लहरें उसके आगमन से हिलीं और एक-दूसरे पर दौड़ती चली गई। बांसुरी के स्‍वर तीव्र से तीव्र तर होते चले गये। और अंत में एकाएक ऐसे टूट गये जैसे कोई चीनी का बर्तन अचानक पत्‍थर पर गिरकर बिखर गया हो। उनकी प्रतिध्‍वनि पहाड़ों में गूँजी और फिर नाव में कोई जो से मीठी हंसी हंसने लगी। उसकी मीठी हंसी में उसी बांसुरी के सुरों से ज्‍यादा मिठास थी। मेरे रोएं-रोएं में कंपन की लहर दौड़ गई। और मेरे दिल की धड़कनों पर उसकी ध्वनि टूटे गजरे के फूलों सी बिखरती चली गई।
      दो क्षण नितांत खामोशी में बीते और मुझे मेरे दिल की धड़कनों की आवाज स्‍पष्‍ट सुनाई देती रही। फिर कोई बाहर आया और चाँद की रोशनी अचानक दोगुनी हो उठी। मैं एक टक उसे देखता ही रह गया। वह फिर हंसने लगी अरे मेरे दिल के कमल थर-थर होने लगे। वह कौन थी? मैं नहीं जानता था पर मुझे लगा जैसे हम युग-युग के जाने-पहचाने मुसाफिर है। और मेरे सपनों को छूने वाली जादूगरनी मेरे सामने खड़ी है।
      उसकी भँवरे सी काली-काली पुतलियों पर चांद प्रतिबिंबित हो रहा था। ओर उसके चाँदनी से गोरे गालों पर बालों की एक काली लट हवा में झूल रही थी। वह एक क्षण चुपचाप मुझे देखती रही और फिर धीरे बोली नाव पर आ जाओ। उसकी आवाज में फूलों की खुशबू और सुबह की ताजगी थी। मैं एक क्षण ठिठका और पागल की तरह किसी अनजानी कशिश में बंधा नाव पर चढ़ गया। नाव मेरे चढ़ने से धीमे से डोलने लगी जैसे सुबह की दक्षिणी हवा में नयी-नयी फूल की पंखुरी डोलती है। लहरें जोर से हिलने लगीं और शैल के आँचल पर सोया चाँद का प्रतिबिंब टूक-टूक होकर बिखर गया।   
      उसने अपने गोरे शरीर पर आसमानी रंग की पतली सी साड़ी पहनी थी। और लंबे-लंबे काले बालों को खुला छोड़ रखा था। पतली साड़ी से उसके शरीर का रूप ऐसे छन-छन कर बाहर आ रहा था जैसे पतली मलमल की तहों में किसी ने चाँदनी की रूपहली रोशनी छुपा दी हो। मैं उसे देखता रहा, देखता रहा, और देखता ही रह गया। वह पीछे लौटी और पर्दा उठाकर बड़ी मधुर आवज में बोली—‘’भीतर आ जाओ’’
      मुझमें उसके आदेश को इनकार करने की सामर्थ्‍य बिलकुल नहीं थी। वह भीतर गई तो मैं भी उसके पीछे ही पर्दा उठाकर भीतर हो गया। उसके अपने कोमल हाथों में मेरे हाथ को ले लिया और लौटकर मरी आंखों में झांकने लगी। उसके उभरे उरोज मेरी छाती को छू रहे थे। मेरे प्राणों को तार-तार  कांपने लगा और मेरी आंखों के सामने से सब कुछ मिटाता एक शुन्‍य बिखरता चला गया। उसने धीमे से मुझे अपनी बांहों में भर लिया और मेरे होठों पर अपने मधुमय ओंठ लगा दिए।
      मेरा अंतर उसके ह्रदय की धड़कनों के स्‍पर्श में नए-नए स्‍पर्श से भर गया और उसके आलिंगन के नशे में मेरी चेतना धुल मिलकर एक हो गई।
      सुबह मेरी चेतना लौटी। मैं ठंडी रेत में पडा था और पहाड़ों के पीछे से सुबह का सूरज धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा था। मैंने अपने चारों तरफ देखा। कहीं भी कोई नहीं था। बस दूर एक मछुए का झोंपड़ा विचारमग्‍न किसी एकाकी दार्शनिक-सा घास में सिर उठाए खड़ा था।
      मैं उठा और झोंपड़े की तरफ चल पडा। मेरा अंग-अंग शिथिलता से बोझिल था और रात की घटनाओं की स्‍मृति मेरी आंखों में घूम रही थी।
      बूढ़े मछुए से मैंने रात की सारी बातें कहीं। वह गंभीर हो गया और बोला, तुम खुशकिस्‍मत हो जा अब भी जिंदा हो। इस घाटी को जितनी जल्‍दी हो सके छोड़ दो। जिसके आलिंगन में तुम रात भर रहे हो वह कोई जीवित व्‍यक्‍ति नही, ऐ वेश्‍या मृतात्मा है जिसकी वासना अधूरी छूट गई।
--ओशो

1 टिप्पणी:

  1. मानस जी मैंने इस कहानी को अपने ब्लॉग http://alochana.blogspot.com/ पर सहेजा है.. आपने ओशो की हर रचना को बड़े करीने से सहेजा है.. आपको साधुवाद!!

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