कुल पेज दृश्य

बुधवार, 14 जुलाई 2010

परम संत--सहजो बाई—

 
अब तक मैं मुक्‍त पुरूषों पर ही बोला हूं। पहली बार एक मुक्‍त नारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान था। उन्‍हें में समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।
      अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए।
      जैसे सूरज की किरण तो सफेद है। पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टुट जाती है। टूटने से पहले एक थी। मिलने के बाद फिर एक हो जाएगी। बीच में जो बड़ा फासला है रंगों का वह भेद मिटना नहीं चाहिए। भेद सदा बड़ा बना रहे, यहीं उचित ओर ठीक है। बल्‍कि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल-लाल हो, हारा-हारा हो, तभी तो हरे वृक्षों में लाल फूल नजर आ सकेगें।
      प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर दोनों है। पुरूष और भीतर छीपी है। और स्‍त्री ओर स्‍त्री के भीतर छीपी है पुरूष। पुरूष का स्‍वभाव दूर दृष्‍टि है और औरत का स्‍वभाव निकट दृष्‍टि। सहजो के वचन बड़े नास्‍तिक के मालूम पड़ेंगे।
      ‘’राम तंजू पै गुरु न विसारू।‘’
      छोड़ सकती हूं परमात्‍मा को पर गुरू को नहीं छोड़ सकती हूं। मुझे कुछ अड़चन नहीं राम को त्‍याग सकती हूं। लेकिन गुरु को छोड़ना असंभव है। सहजो अकेली स्‍त्री नहीं है जिस पर मैं बोलूगा। पर शुरू आत उससे होती है। क्‍योंकि उसमें स्‍त्री बड़े परिशुद्ध रूप में प्रकट हुई है।
      सहजो को समझना है तो उसके वचनों में गहरे जाना होगा। उसके वचन टकसाल से निकले बिलकुल सीधे-साधे हे। सहजो कोई पंडित तो नहीं है। को ई कवित्रि तो नहीं है। वह छंदों से जीवन से मुक्‍त हे। हां बाँध ले तो उसका बड़ापन होगा। सहजो कोई आडम्बर नहीं करती। बात साफ-साफ कह दी है। कुछ छिपाया नहीं हे। और उस ढंग से कही है जो कभी नहीं कहीं गई। जब परमात्‍मा किसी में उतरता है तो हर बार नये ढंग से उतरता है। पुनरूक्‍ति परमात्‍मा को पसन्‍द नहीं है। इस लिए उधारी का तो कोई उपाय ही नहीं है।
      सहजो का एक-एक पद अनूठा है। शब्‍दों के बीच में खाली जगह को पढ़ना पड़ेगा। पंक्‍तियों के बीच में रिक्‍त स्‍थान को पढ़ना पड़ेगा। वो जो खाली जगह है वह पर्याप्त प्रणाम है। बुद्धत्‍व के वचनों का। लेकिन सहजो के वचनों में खाली जगह का तुम नहीं पढ़ सकोगे। उस के लिए तुम्‍हें अपने अन्‍दर की खाली जगह को पढ़ना आना चाहिए। जिस दिन कोई अपने भीतर की खाली जगह को पढ़ लेता है उसी दिन वह बहार के शब्‍दों की खाली जगह को पढ़ सकता है लिख सकता है।
      सहजो को ऐसा एक गुरु मिल गया जो अंदर से खाली हो गया था। उस के गुरु का नाम चरन दास था। पे बड़े सीधे-साधे आदमी थे। इतने सीधे-साधे की साधारण आदमी उन्‍हें पहचान भी नहीं सकता। वह यह जान ही नहीं सकता की मुझमें इनमें क्‍या भेद है। इतनी सरला और सादगी अभी तक किसी संत में नहीं उतरी। वरना तो जब परमात्‍मा उस में उतरता है। तब वह दूसरा ही हो जाता है। देखा न एक दुल्‍हन को शादी के दिन कैसा रूप चढ़ता है उसे आप लाखों में भी पहचान सकोगे की कोन दुल्‍हन है। एक ही बुद्धत्‍व जब उतरता है तब आदमी दूसरा ही हो जात है। पर चरन दास इतने सरल और सीधे थे की उनमें जरा भी भेद पकड़ न पाओगे। भेद तो पडा पर उसकी छाया बहार आप पकड़ नहीं सकते।
      बह बहुत सीधे थे। बिलकुल सामान्‍य थे। और ध्‍यान रखना सामान्‍य में ही तुम असमान्य की झलक पा लो तभी तुम बचाए जा सकते हो। तभी तुम जाना की कोई करीब भी है दूर भी है। जो कभी-कभी इतने करीब होता है कि तुम्‍हें संदेह होने लगता है कि इसमें ओर हममें भेद क्‍या हे। शायद यह भी तो नहीं डूब जायेगा। तब हम कहां बच पायेंगे।
      चरन दास बड़े सीधे-सरल आदमी थे। उन्‍होंने सहजो को बचाया। इस लिए सहजो उनके गीत गाए चली जा रही हे। वह कहती है हरि को भी त्‍यागना हो तो त्‍याग दूंगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अरे हमारे गुरु रहे हम हरि को फिर पा लेंगे। पर गुरु को त्याग ना हो तो न त्‍याग सकूंगी। क्‍योंकि हरि ने तो हमें मझधार में डाला, फेंक दिया डूबने के लिए और गुरु ने मझधार से बचाया। हरि ने तो माया में उलझा दिया था हमें और गुरु ने छुडाया है। फिर भला गुरु को कैसे त्‍याग सकती हूं।   
      चरन दास का तो किसी को पता ही नहीं चलता। उनकी तो खबर ही नहीं आती। वह कोई तराशे हीरे तो नहीं थे वह तो अनघड़ थे शुद्ध जैसे अभी-अभी खादन से निकले है, उसपर धुल धमास  सब जमा है। उन्‍हें कोन पहचान सकता था। यह तो सहजो की सहजता थी। उनकी पारखी आंखे थी। जो उन पर पड़ी और उनके रंग में रंग गई। और अपने गीतों में गुरु की महिमा गई। उनकी ही बाणी चरन दास की खबर देते है।
      चरन दास की दो शिष्‍यायें थी। एक थी सहजो बाई और दुसरी थी दया बाई। ये  चरन दास की दो आंखें है। जैसे किसी पाखी के दो पंख हो। इन दोनों ने चरण दास के गीत गाए है। तब लोगो को चरन दास की खबर लगी।
      इन दोनों के स्‍वर इतने एक है कह आप दोनों में भेद नहीं कर पाओगे। एक होंगे ही क्‍योंकि एक ही गुरु ने दोनों को बचाया है। एक ही गुरु की छाया दोनों पर पड़ी ही। एक ही गुरु का ह्रदय दोनों में धड़क रहा है। एक ही प्रेम की रस धारा दोनों में प्रवाहित हो रही है। उसी उर्जा ने जीवन नये आयाम दिये उस  बगिया को महकाया है। फूल खिला ये हे। भँवरों न गुंजान की है, रौनक दी ही।
      इस लिए दोनों एक ही प्राण की दो स्‍पंदन है। इस लिए जब में सहजो पर बोल रहा हूं तो इस प्रवचन माला का नाम दिया है—‘’बिन धन परत फुहार’’ ये शब्‍द दया बाई के है। जब दया पर मैं बोलूगा, तो जो श्रंखला का नाम रखा है उसमें शब्‍द सहजो के है—‘’जगत तरैया भोर की’’ जैसे सुबह का डुबता तार अब गया की तब गया। ऐसा ये जगत है। इसलिए दोनों के शब्‍द मैंने – सहजो बाई के लिए दया का शब्‍द उपयोग किया है, दया के लिए सहजो का करूंगा।

ओशो
बिन घन परत फुहार,
1से 10 अक्‍टूबर 1975,
श्री रजनीश आश्रम पूना।      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें