कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

सरहा की गुरु एक तीरंदाज स्‍त्री--(कथा यात्रा-006)

 
सरहा महाराष्‍ट्र के विदर्भ प्रांत में पैदा हुआ। सम्राट महा पाल के दरबार में एक विद्वान ब्राह्मण था। सरहा उस ब्राह्मण का पुत्र था। सम्राट अपनी पुत्री का विवाह सरहा के साथ करने को तैयार था। लेकिन सरहा संन्‍यास लेना चाहता था। वह श्री विमल कीर्ति नामक बौद्ध भिक्षु का शिष्‍य बना।  
      श्री विमल कीर्ति ने सबसे पहली बात जो सरहा से कही वह थी:  सारा पांडित्‍य छोड़ दो। वेदों को भूल जाओ।
      वर्ष बीतते चले गए और सरहा बहुत बड़ा ध्‍यानी बन गया। एक बार ध्‍यान में बैठे-बैठे उसने एक दृश्‍य देखा की बाजार में एक स्‍त्री है जो उसकी असली गुरु बनने वाली हे। श्री विमल कीर्ति ने उसे मार्ग दिखा दिया था लेकिन असली मार्गदर्शन एक स्‍त्री से होने वाला हे।    
      सरहा ने श्री विमल कीर्ति से कहा: आपने मेरी तख्‍ती साफ कर दी, अब मेरे काम का शेष आधा हिस्‍सा करने के लिए में तैयार हूं। विमल कीर्ति हंस पडा और उसने अपने आशीष सरहा को दिए।
      जैसी स्‍त्री सरहा ने ध्‍यान में देखी थी, ठीक वैसी ही स्‍त्री उसे बाजार में दिखाई दी। वह तीर बना रही थी। वह तीरंदाज थी। निम्‍न जाति  की थी। सरहा जैसा उच्‍च वर्ण ब्राह्मण जो राज दरबार में रहा हो, एक तीरंदाज स्‍त्री के पास जाए वह गहरा प्रतीक है। जो विद्वान है उसे प्राणवान के पास के पास जाना ही चाहिए। जो नकली है उसे असली के पास जाना चाहिए।     
      सरहा ने उस स्‍त्री को देखा—युवा स्‍त्री को देखा—युवा स्‍त्री थी, जीवंत, जीवन से लहलहाती हुई। तीर को छील रही थी। ओर उसमें पूरी तरह डूब गई थी। उसकी शख्‍सियत में सरहा को कुछ असाधारण बात महसूस हुई। वह अपने काम में बिलकुल खोई हुई थी। उसकी एक-एक गतिविधियाँ इतनी होश पूर्ण थी की सरहा उसे देखता ही रह गया।     
      सरहा उसे खड़ा बड़े प्रेम से देखता रहा। जैसे ही तीर बन कर तैयार हुआ। वह स्‍त्री एक आँख बंद कर के दूसरी आँख खोल कर किसी अदृश्‍य लक्ष्‍य को देख रही थी।
      और अचानक कुछ घट गया। किसी अंजान शक्‍ति ने उसे खिचना शुरू कर दिया। उसे लगने लगा उसके अंदर कुछ हो रहा है। को तार अजाने उसे खींच रहे है। कोई उसे चेता रहा है। और उसने उसके उस कृत्‍य को अपना अध्‍यात्‍मिक संकेत माना। वहन तो दाएं देख रही थी न बाएं देख रही थी। सरहा ने कितनी ही बाद सुना था। पढ़ा था। दूसरों के साथ तर्क किए थे। मध्‍य में होना ही सम्‍यक है। अब पहली बार उसने इसे वास्‍तव में घटते देखा था। और वह स्‍त्री इस कृत्‍य में इस तरह डूब गई थी, कि वह उस कृत्‍य में इतनी समग्र थी। और इतनी सजग थी। मानों बुद्ध की देशना सामने चिरर्थात हो रही है। किसी कृत्य में समग्र होना क्‍या होता है। यह कोई किताबी ज्ञान नहीं थी। यह जीवंत आंखों के सामने घट रहा था। जि कृत्‍य में तुम समग्र हो तभी उस के कृत्‍य के पार तुम हो सकते है। मुक्‍त हो सकते हो। कृत्‍य में डूबे हो और होश की डोरी को भी संभाले हुए हो। यही तो फर्क है कोई भी क्रिया तुम्हें ध्‍यान दे सकती है।    
      उस स्‍त्री का सौंदर्य उसकी आभा इस लिए थी क्‍योंकि वह उस काम में समग्र से परिपूर्णता से डूबी हुई थी। पहली बार उसकी समझ में आया की पूर्णतया डूबना होगा और होश को संभालना क्‍या होता है। जिसे बुद्ध ध्‍यान कहते थे। ध्‍यान कोई ऐसा नहीं है कि तुम किसी खास जगह बैठो और मंत्र जाप करो। यहाँ कि चर्च और मंदिर और मस्‍जिद जाओ। ध्‍यान रोज की जिंदगी में ही होता है। हो सकता है। तुम्‍हारे प्रत्‍येक कृत्‍य ध्यान बन सकते है। पैसा कमाते, दुकान चलाते। गाड़ी चलते, पैदल चलते, खाते, नहाते, हंसते, किसी उत्‍सव में आनंदित होते हुए। तुम उस कृत्य को ध्यान बना सकते है। कोई खिलाड़ी खेल रहा है या कोई नृत्‍यकार नृत्‍य कर रहा है अगर उसके साथ होश को जोड़ ले तो वही खेल ध्‍यान बन गये। पर यह बारीक तार कोई एक करोड़ बार समझाने से भी समझ सके तो वह बुद्धिमान माना जायेगा।      
      उस तीरंदाज स्‍त्री के मार्गदर्शन में सरहा तांत्रिक बना। गुरू और शिष्‍य आत्‍मा के मीत होते है। सरहा को उसकी आत्‍मा का मीत मिल गया। उनके बीच अपरिसीम प्रेम था। गहन प्रेम था जो कि धरती पर कम ही घटता है। उसने सरहा को तंत्र की शिक्षा दी।
      सर्वप्रथम सरहा को सभी वेदों और शास्‍त्रों को त्‍यागना पडा। ज्ञान को तिलांजलि देनी पड़ी। अब उसने ध्‍यान भी छोड़ दिया। अब गीत गाना ही उसके लिए ध्‍यान था। नाचना ही उसके लिए ध्‍यान था।
      सरहा और वह तीरंदाज स्‍त्री एक मरघट पर रहने लगे। मरघट पर रहना ओर उत्‍सव मनाना। जहां मौत के सिवाय और कुछ भी नहीं है, अगर तुम वहां मस्‍ती से जी सको तो तुम्‍हें वस्‍तुत: आनंद का स्‍त्रोत मिल गया।
      सरहा के अंतस में क्रीड़ा प्रविष्‍ट हो गई। और उसके माध्‍यम से सत्‍य धर्म का जन्‍म हुआ।

ओशो
‘’ दि तंत्रा एक्‍सापिरियंस ‘’
(अंग्रेजी पुस्‍तक से) प्रवचन-1,
    

1 टिप्पणी: