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सोमवार, 12 जुलाई 2010

आर्य रेवत—(ऐतिहासिक कहानी)-कथा यात्रा--003

 
रेवत स्‍थविर सारि पुत्र को छोटा भाई था। राजगृह के पास एक छोटे से गांव का रहने वाला था। सारि पुत्र और मौद्गल्यायन स्‍थविर बचपन से ही संग साथ खेल और बड़े हुए। दोनों ने ही राजनीति ओर धर्म में  तक्ष शिला विश्‍वविद्यालय से शिक्षा प्राप्‍त की । और एक दिन घर परिवार छोड़ कर दोनों ही बुद्ध के अनुयाई हो गये। उस समय घर में बूढ़े माता-पिता, पत्‍नी दो बच्‍चे, दो बहने और छोटा रेवत था। इस बात की परिवार को दु:ख के साथ कही गर्व भी था की उनके सपूत ने बुद्ध को गुरु माना। पर परिवार की हालत बहुत बदतर होती चली गई। कई-कई बार तो खानें तक लाले पड़ जाते। जो परिवार गांव में कभी अमीरों में गिना जाता था। खुशहाल था। अब शरीर के साथ-साथ मकान भी जरजर हो गया था।
     
      रेवत जब बड़ा होने लगा तो उसे तक्ष शिला नहीं भेजा गया पढ़ने के लिए। एक तो तंग हाथ दूसरा सारि पुत्र का यूं अचानक घर से छोड़ जाना। घर को बहुत बड़ा सदमा दे गया। सारी आस उसी पर टीकी थी। की घर गृहथी को सम्हाले। और जो मां बाप ने सालों धन उस पर खर्च किया था उसकी भरपाई करेंगे। बहनों का शादी विवाहा करेंगे। छोटे भाई रेवत को पढ़ाते, पर सब बर्बाद हो गया। घर की हालत दीन हीन होई।
      रेवत जब बड़ा होने लगा। तो उसके मन में रह-रह कर यहीं विचार कौंधता की वह दीक्षित हो जाये।  पर घर की तरफ देखता, भाभी और बच्‍चों को देखता, मां-पिता को देखता तो मन मार कर रह जाता। पर आज तो न जाने उसके मन को क्‍या हो गया है। शादी करने जा रहा है। बरात ससुराल पहुंचने वाली है। उसे लगा अब तो हजारों रस्‍सियों में कैद कर दिया जायेंगे। या फिर भैया सारि पुत्र की तरह उसे भी सब छोड़ कर जाना होगा। और पीछे फिर वहीं कहानी दोहराई जायेगी। और वह रास्‍ते से ही घोड़ी से उतर कर जंगल में भाग गया। भागता ही रहा। कहां जाना है इसका भी कोई पता नहीं। दुल्हे के कपड़े पहने थे। इस लिए वह जंगल-जंगल भाग रहा था। रास्‍ते में उसे चार बोध भिक्षु मिल गये। एक पेड़ के नीचे, तालाब के किनारे उसने वह कपड़े उतरे एक मंदिर में रख दिये। और वहीं उन भिक्षुओं से दीक्षित हो गया। वो भिक्षु भी देखते रहे। उन्‍होंने उसका नाम भी नहीं पूछा।
      वह वहां से दुर निकल जाना चाहता था। ताकि उसे कोई पहचान न सके। वह अपने मा-बाप की आंखों का सामना नहीं करना चाहता था। नहीं देखना चाहता था उस भाभी का प्‍यारा मुख जिस का सब कुछ छिन गया था। फिर भी कैसे खुशी-खुशी घर का सब काम करती थी। उसे तो वह मां तुल्‍य प्‍यार करती थी। पर वह नहीं बंधना चाहता था शादी के बंधन में। गहरे जंगल में चलते-चलते वह खादर बन में निकल गया। धीरे-धीरे जंगल इतना गहरा हो गया कि वहां दो-तीन दिन चलने पर भी उसे किसी मनुष्‍य के दर्शन नहीं होते। जंगल कांटों से भरा था। बेहद बीहड़ था। जंगली जानवरों की दहाड़ दिन में भी सुनाई देती थी। लेकिन न जाने क्‍यों उसे क्‍यों डर नहीं लग रहा था। रात होने पर वह एक पेड़ पर चढ़ कर सो जाता। भूख लगने पर जंगली फल खा लेता। सात दिन और सात रातें चलने के बाद एक स्‍थान उसे ऐसा दिखाई दिया जैसे उसे वह बरसों से जानता है। आपको भी कभी-कभी किसी विशेष स्‍थान को देख कर ऐसा ही लगता होगा। पास ही बरसाती झरना था। वहां पर पेड़-पौधे भी कुछ अधिक व ऊंचे हो गये थे। दिन में भी वहां पर प्रकाश कम आता था। उस स्‍थान न मानों रेवत को अपनी और खींच ही लिया। उसने दिन भर मेहनत कर के। कुछ जंगली झाड़ियों इक्कठा कर के । एक बाड़ा बनाया। ताकि रात को जंगली जानवरों से उस की रक्षा हो सके। महीने दो महीने उस ने एक सुंदर रहने का स्‍थान बना लिया। घास फुस को इक्कठा कर के एक झोपड़ी बना ली। और पास ही एक बहुत ऊंची पहाड़ी थी जिस से बहकर वह झरना आता था। झरने के पानी को रोक कर उसने पेड़-पौधों की सिचाई के लिए पानी इक्कठा कर लिया। पास ही जो जंगली फुल गर्मी की वजह से बीच बन गये थे उसने वही जंगली फूलों के बीज आस पास बिखरने लगा। पानी मिलने की वजह से सब उग गये। चारों और पहले ही हरियाली थी अब उसमे फुल भी खिलनें लगे। धीरे-धीरे रेवत ने उस पहाड़ी को ही भांति-भांति के जंगली फूलों से लाद दिया। असल में तो कोई मुसाफिर वहां कभी आता नहीं था। पर कभी कभार कोई दो चार का झुंड आ निकलता तो उस जगह को देख कर मंत्र मुग्‍ध हो जाता। क्‍योंकि कोई आधा पोना मील पर एक दम सुखा जंगल है।
      और यहां एक दम हरियाली। पहाड़ी की चोटी पर बैठ कर जब रेवत देखता तब उसे लगता यह स्‍थान भगवान ने उसी के लिए बनाया है। मुसाफिर जब रेवत को देखते तब उन्‍हें अपनी आंखों पर विश्‍वास ही नहीं आता की एक निहत्‍था साधु इस भंयकर जंगल में अकेला रहता था। रेवत को जंगली फल खाकर जीने की आदत ही पड़ गई थी। पर वह अपने साथ जो चना चबेना लाये होते वह रेवत के चरणों में रख देते। रेवत केवल हंस देता। दुर जब गांव के लोगों को खबर लगी ,तब कुछ साहसी लोग रेवत को देखने आए। और साथ में कुछ चावल दाल, मीठा भी ले आये।
      रेवत को उस एकान्‍त में ध्‍यान गहराने लगा। पेड़-पौधों के बीच रहते उसे लगता की वह उसके दिल की धडकन को समझते है। उसे कभी-कभी किसी पेड़ को देख कर लगता की यह कितना उदास है। वह उस के पास बैठ जाता उसमें पानी उसके गले लगता। वहीं बैठ कर ध्‍यान करता। और उसकी उदासी कम हो जाती। वह जो बहुत बड़ा शीशम का वृक्ष था करीब 300-400 साल पुराना तो अवश्‍य ही होगा। वह उसी के पास बैठ कर ध्‍यान करता था। उसके कोमल पत्‍ते कितने मरमरी से लगते थे। वह लेट कर उसे घण्‍टों निहारता रहता। शीशम की टहनीया कैसे ज़मीं की और झुकी लहरित रहती है। जब उस में सफेद बारिक फुल आते तो वह इतने महक जाता की श्‍याम के बाद तो आपके नासापुट को इतना भर देता की स्‍वास भी लेने में आपको तकलीफ होती। एक रात वह उस के पास ध्‍यान में जब था उसे पता ही नहीं चला की कब श्याम हुई ओर कब रात हो गई। पुरी रात वह उसी वृक्ष के नीचे रहा जब सुबह सूरज ने लाली बिखेरी उस के अंदर का सूरज भी उदय हो गया। जहां अभी अंधकार भरा था वहाँ धीरे-धीरे लालिमा फैलने लग गई थी। सुरमई रोशनी से उसके अंदर का अंगन गमकने लगा था। आज जब आंखे खोल कर उसने उस पहाड़ी, घर, नदी-नालें, पेड़-पौधों को देखा तो लगा उसने इन्‍हें पहली बार देखा है। जंगल सुंदर था। एकान्‍त था, शांति थी। पर आज तो कुछ और ही हो गया। पेड़ पौधे इतने सुंदर हो गये मानों उन्‍हें सोने से नहला दिया हो। उनके टहनों का आकार-प्रकार, जमीन का ऊँचा नीचा पन, झाड़ियों की बनावट। पहाड़ी की ढलान। इतने रमणीक और वैभव शाली लग रहे थे। की कोई चित्रकार जब उन्‍हें देखता होगा तभी वह तुलिका उठा सकता होगा। काश उसके पास तुलिका होती। पर क्‍या वह उन रंगों को उतार पायेगा। एक-एक पेड़ पौधे का रंग हरा जरूर था। हरे मैं भी हजार हरे वह इतने रंग भरने के लिए कहा से बना ता। आसमान का नीलापन, कितनी शांत और अपूर्व लग रहा था। लाल सुनहरी बादल उस पर दौड़ते भागते मानों विशाल नीली झील में बच्चें ने झाग को छोड़ दिया हो। कभी आसमान रूक जाता कभी लगता आसमान रूक गया और ये पेड़ पौधे दौड़ रहे है। आज रेवत का जीवन बदल गया। उसके अंदर से अंधकार का लोप हो गया। वहां पर जो ध्‍यान का दीपक जल रहा था। वहां सुरमय प्रकाश की आभा फेल गई थी।
      सात वर्ष कब बीत गये इसका रेवत को पता ही नहीं चला। आज जब उसे पहाड़ी को खड़ा होकर देख रहा है, तब हजारों रंग के फुल खीलें है। पहाड़ी की बीच में पत्‍थरों की चट्टानें, पानी का झरना। बीच-बीच में कोई-कोई साहसी वृक्ष भी अपनी जड़ें जमाये  खड़ा था। कितना सुंदर ओर मनोहारी दृश्य लग रहा था। उसे लगा उसके भी भीतर इतने ही फूल खिल गये है। आज उस पहाड़ी को फूलों से रंगे देख कर उसके भी रंग पूर्ण हो गये है। वह अपनी पूरी शक्‍ति और लगन से साधना में लगा रहता था। उसके लिए पेड़ पौधों का पानी, खाद, उनका संग साथ। सब ध्‍यान बन गया था। वह जब तक थक नहीं जाता था। पुरी ताकत लगा कर काम में लगा रहता था। कभी-कभार कोई जंगली जानवर भी उसे दिखाई दे जाता था। वह भी उसे बड़ी अचरज भरी जरजर से झाड़ की ओट से देखने की कोशिश करता था। शायद उसके मन भी मनुष्‍य के प्रति थोड़ी बहुत जिज्ञासा होगी। उसे समझना चाहता होगा। सदियों से अपने पूर्वजों से मिले अंदरूनी ज्ञान से वह उसे तोलता होगा। शायद रेवत से उसका मिलान नहीं होता होगा। तब उसे लगता की वह तो हिंसक होता है। मार देता है। पर ये मनुष्‍य तो कुछ भिन्‍न है। पर आज सात साल से किसी भी जंगली जानवर न उस पर हमला नहीं किया। सांप खरगोश, बंदर और जंगली चिडिया तो वहां डेरा डाले ही रहते थे।
      जब रेवत खादर बन में आया था तब उसने सोचा थोड़ा ध्‍यान कर लूं। थोड़ा पात्र हो जाऊँ फिर भगवान के दर्शन करूंगा। अब वह अर्हत हो गया। तब बड़ी मुसीबत में पडा। अब तो भगवान के दर्शन उसे अपने ह्रदय में ही होते है। अब तो जहां भी देखू उसी और भगवान ही भगवान नजर आते है। अब कहां जान तब उसने भगवान के पास जाने का विचार ही त्‍याग दिया। आंखों से आंसू भी गिरते, पर वह चाह कर भी उसे झुठलाता नहीं पाया कि जिसे देखना था उसे देख लिया और अब क्‍या देखना। अब तो वह मेरे अंग संग ही हो गये। अब कोई दुरी नहीं रही। अब तो उनकी खुशबु मुझे चारों और धेरे रहती हे।
 जित देखू तित और सखी री
      सामने मेरे साँवरिया......
      जीवन भी कैसे विरोधाभासों से भरा है। हम जिस चीज के पीछे भागते है। वह हमारी पकड़ से बहार हो दस कदम दुर जा खड़ी हो जाती है। और जिस से हम मुंह फेर लेते है तो वह हमारे पीछे चल देती है। हमारी वासना भी हमारी परछाई की तरह से है।
·                *                 *
     
      रेवत के अर्हत की घटना को जब भगवान ने ध्यान में देखा। तब उन्‍होनें सारि पुत्र को बुला कर कहां की, पुत्र इस वर्षा वास के बाद हम खादर बन में चलेंगें। सारि पुत्र के मन में जिज्ञासा तो हुई पर प्रश्न नहीं पूछ पाये।
      तब भगवान ने कहां: पता है मेरा पुत्र रेवत अर्हत हो गया है। वह खादर बन में रहता है। रेवत को तो मानों विश्‍वास ही नहीं हो रहा था। कल का छोटा सा गोल मटोल, जिस के गाल जरा से धूप में जाने से लाल हो जाते। मानों किसी ने नकली रंग लंबा दिया हो। कैसा भोला दिखाता था रेवत, बचपन का एक-एक चित्र रेवत की आंखों के सामने गुजर गया। जब कोई साधु घर पर भिक्षा के लिए आ जाता तब वह आटे से भरा कटोरा ले उसकी झोल में डालते हुए कैसे अबोध-निर्मल हो पुछता और भी लेकर के आऊं। तब मां कैसे अंदर से आवाज देती की सार कोठा ही उठ कर दे दें। पिसैगा कौन? और जब रेवत कभी कोई शरारत करता तो मां बस एक जलती लकड़ी चूल्हे से निकाल भर लेती की रेवत तो चिड़ियाँ की भाति फुर्र से उड़ जाता। आग से वह बहुत डरता था। और आज इतना बड़ा हो गया है। की रेवत स्‍थविर हो गया है। कब संन्‍यास लिया मुझे तो पता ही नहीं चला। कैसा निर्बोध-भोली सुरत बना कर मेरे सामने आ जाता था और कहता था मुझे भी दीक्षित करें आप तो कितने लोगों को दीक्षा दे चुके है। और में हंस देता...अभी तो तूने बड़ा होना है। और सब भूल-बिसरे चित्र उसकी आंखों के सामने धूम गये। उसमें कुछ उदास करने वाले थे कुछ प्रसन्नता देने वाले थे। और सारि पुत्र हाथा जोड़कर भगवान के चरणों में सर टेक दिया। आपकी महिमा अपरंपार है। ये सब कैसे और क्‍यों हुआ....
      और भगवान केवल हंस दिये।
      पाँच सौ भिक्षुओं और कुछ स्‍थविर जिसमें आनंद, मौद्गल्यायन, सुभूति, सारिपुत्र, आदि भी भगवान के साथ चल दिये। श्रावस्‍ती के लोगों को भी ज्ञात हो गया की। खादर बन में उनके आर्य सारि पुत्र का छोटा भाई अर्हत हो गया है। और भगवान उन्‍हें लेने के लिए जा रहे है। अब लोग  के मन में जिज्ञासा उठी की देखे हमारे आर्य सारि पुत्र का छोटा भाई कैसा होगा। क्‍या वह भी इतना ही शांत ओर अक्रोधी होगा जैसे हमारे आर्य सारि पुत्र है।
      खदिर बन बहुत कष्ट कंटक और बीहड़ था। वहां के रास्‍तें ही कांटों भरे नहीं वह जीवन बहुत दुष्कर था। मीलों  तो पानी को नामों निशान नहीं था। और पेड़ पौधे इतने छोटे थे झाड़ीया ही समझो की आप उनके नीचे बैठ कर आराम भी नहीं कर सकते। और जंगली जानवरों की तो भरमार ही। गीदड़, भेड़िया, लक्‍कड़भग्‍गे, शेर, हाथी, हिरण, सांप बीछू की तो क्‍या बात करनी। रेवत ने ध्‍यान में भगवान को आते देखा तो उसकी खुशी का तो ठीकाना ही नहीं रहा। उसे तो उम्‍मीद भी नहीं थी भगवान यहां पर आयेंगे। अब उसे फिर हुई की भगवान कहां पर विराज गे। कहां सोयेंगे। उसी शीशम के पेड़ के आस पास उसने कुछ पत्‍थर रोड़े इक्कट्ठे कर के भगवान के लिए एक आसन बना दिया। मिटी और गोबर से उसे लीप दिया। कुटिया को थोड़ा ठीक कर दिया। पास के गांव के लोग जब मिलने और खानें को सीधा देने के लिए नियमित महीने दो महीने में वे आत ही रहते थे। तब रेवत ने उन लोगों को बताया कि हमारे आर्य भगवान पधारे रहे है। एक बार तो उन लोगों न रेवत का मुख देखा और यकीन नहीं हुआ की ऐसा कैसे हो सकता हे। इस बीहड़ में कैसे....     
      पर वो लोग समझ गये कि बात में जरूर कुछ सच्‍चाई है इस लिए अगले दिन से 10-15 लोग आकर रेवत के रहने स्‍थान को थोड़ा और बड़ा करने लगें की ज्‍यादा भिक्षु आ रहे तो रहने सोने को तो जगह जरूर चाहिए। धीरे-धीरे वहां की शांत और मौन गहराने लगा। जब भगवान रेवत के निवास स्‍थल के पास आने को हुए तब भिक्षुओं ने देखा तो देखते ही रह गये। इतनी छटा, इतनी हरियाली। अभी तक तो पूरे जंगल में केवल झाड़-झंकाड़ ही थे। यहां के वृक्ष इतने ऊंचे, और विशाल है जैसे हम हिमालय की तराई में आ गये हो। शीशम नीम, चीड़, के वृक्षों की भरमार थी। अभी कुछ देवदार के वृक्ष भी रेवत ने रोपे थे। देव दार का वृक्ष कम से कम पाँच हजार फीट की उच्‍चाई पर जाकर प्रसन्‍न होता है। इस लिए वह देव है। आप हिमालय पर जाओगे तो वहां जैसे-जैसे उँचाई बढ़ेगी। नीम,पीपल, शीशम जो आम वृक्ष है वहां से नदारद हो जायेंगे। बस एक वृक्ष बचेगा। चीड़ वह भी एक खास उच्‍चाई के बाद अपना आसन देवदार को दे देगा। दोनों का साथ बहुत कर दुरी तक साथ रहेगा। पर जैसे-जैसे उँचाई बढ़ेगी। केवल मात्र एक वृक्ष अपना सीना तान कर खड़ा होगा। वह है ‘’देव दार’’
      चारों और खीलें जंगली फूलों की छटा, हजारों की तादाद में जंगली पक्षी, कोयल, मैना, चिड़िया, तोते,….का कलरव गान। सामने ऐ पहाड़ जो फूलों से लदा था। इतनी सुंदर जगह अभी तके तो किसी भिक्षु ने नहीं देखी थी। स्‍वर्ग भी उसकी आभा को देख कर शर्मा जाए। पेड़ो की सीतल छांव में धड़ी-दो धड़ी में मीलों की थकावट खतम हो गई भिक्षुओं की। भगवान वहाँ एक माह रहे। और जब वहां से विदा होने लगे तब । उन्होंने रेवत को भी चलने के लिए कहां। बेटा रेवत तुम्‍हें चलना है। रेवत इस से पहले कुछ बोले वहां जो ग्रामिण लोग आये थे वह हाथ जोड़ कर रोने लगे। भगवान आप आये आहों भाग्‍य पर हमारे रेवत को तो यही रहने दो। ये पक्षी, ये पेड़, ये पहाड़,और हम अनाथ हो जायेंगे।
      भगवान हंसे और कहां मेरा रेवत फूल बन कर बीज बनने जा रहा था। उसे अपनी सुवास तो बिखरेनी ही है। ओर भी नये पौधे अंकुरित करने है। रेवत स्‍थविर हो गया है। पर एक बात जो वहां दुःख दाई धटी वह यह थी जिस वृक्ष के नीचे भगवान का आसन था। जिस वृक्ष के नीचे रेवत ध्यान करता था वह शीशम का वृक्ष उदास हो गया। और दूसरे दिन सुख गया। अचानक ऐसा परिर्वतन। देख कर भिक्षुओं के मन में जिज्ञासा उठी। भगवान ये क्या हुआ। तब भगवान ने कहा ये वृक्ष प्रज्ञावान हो गया था। अब रेवत यहां से जा रहा है, इसे पता चल गया। तो इसने संथारा कर लिया है। यह स्‍वय ही मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गया हे। यह मुक्‍त हो गया है, इस चोले से इसका मन विकसित हो गया है। यह पीड़ा, खुशी, आनंद को महसूस करने लग गया है। अब यह मनुष्‍य बन गया । यह प्रकृति का विकास क्रम का नियम है। हम सब इसी विकास क्रम से मनुष्‍य बन कर आये है लाखों करोड़ो वर्षो का ये परिणाम हे।  
      रेवत ने वह स्‍थान छोड़ने से पहले सब स्‍थानों को एक-एक बार नमन किया। पेड़ पौधों के गले लगा। पहाड़ पर घण्टों बैठा रहा। वह न चहा कर भी भगवान को इनकार नहीं कर सका। शायद इसी में उस की भलाई है जो भगवान देख रहे है। उसका सामर्थ्य नहीं है यह सब देखने का। इसी लिए तो गुरु की महिमा हे। यही तो समर्पण है। की आपके मन में प्रश्न उठता है या नहीं। लोग खड़े हो रेवत को विदा कर के रो रहे थे। शायद पक्षी भी, जंगली जानवर भी, पेड़ पौधे भी, पर सब मौन थे, किसी के पास शब्‍द नहीं थे मनुष्‍य के पास तो आंसू भी थे पर पहाड़ों और वृक्षों के पास तो ये भी नहीं, वह केवल निरीह भाव से देख रहे थे। वह शीशम का वृक्ष जो उस स्‍थान का सबसे बड़ा ओर बूढा वृक्ष था शायद उसी के वंश के हजारों शीशम आस पा फैले हुए थे। मृत खड़ा निहार रहा था। आपने देख, पेड़ पौधे मरने के बाद भी अपना सौंदर्य नहीं खोते। उनका सुखा खड़ा ढाँचा भी आपकी आंखों बेबस कर देगा अपनी और देखने के लिए ।
      कुछ मील चलने के बाद दो भिक्षुओं की तेल की फोंफी और उपाहन वहीं पर छुट गया था। वह भगवान से उसे लाने की आज्ञा मांगने के लिए आये तब पचास और भिक्षुओं ने भगवान से आज्ञा मांगी की हम आर्य रेवत के निवास स्‍थान पर कुछ माह रह कर ध्‍यान करना चाहते हे। आर्य रेवत का निवास स्‍थल इतना सौम्य-रमणीक था । की उसे देखने से मन ही नहीं भर रहा था। एक माह में उस सौन्दर्य को वह निहार नहीं पाये। उन्‍हें ध्‍यान के साथ वह सौन्दर्य भी खींच रहा था।
      जब वह भिक्षु वास मार्ग पर चल रह थे तब उन्‍हें लगा हम कहीं मार्ग तो नहीं भटक गये है। जाते में तो यह स्‍थान इतना कष्‍ट कारक नहीं था। अब तो जहां देखो वही शूल-ही-शूल है। उबड़ खाबड़ रास्‍ते। न कहीं छांव, जंगली जानवरों का दिन में दहाड़ना सुनाई दे रहा था। वह तो डर गये की घड़ी भर पहले ही तो हम यहाँ से गूजरें थे। तब तो ये रास्‍तें फूलों से भरे लग रहे थे। कितने रम्‍य सुन्दर थे। और रेवत का निवास स्‍थल तो एक दम से बदला हुआ ही दिखाई दे रहा था। जिस आसन पर अभी भगवान बैठे थे वह तो ऐसा कुरूप और भद्दा था कि उस पर तो कोई भिखारी भी न बैठे। और जिस कुटिया में आर्य रेवत रहते थे पहले ता उसका सौन्दर्य उनकी आंखों को चुंदियाँ रहा था। और अब तो वह खंडर मालूम हो रही हे। फूलों के रंग भी गायब हो गये है। वह मन बना कर आये थे वहां निवास करने का पर वहां रूकने का उन का साहस ही नहीं हुआ। वे आपस में बात करने लगे की। इतने खतरनाक जंगल में हमारे आर्य रेवत कैसे रहते होगें। वो भी अकेले। और वो लोग वापस आ गये श्रावस्‍ती की और। यह एक प्रकार से ध्‍यान की विधि थी भगवान की। अब वे पचास भिक्षु जो अपनी आंखों से देख कर आये थे। उन के मन में आर्य रेवत को जो मान सम्‍मान, दुस्साहस बना, रेवत उन से कुछ अलग हट गया, उन के मन में रेवत के प्रति कुछ सम्‍मान, श्रद्धा का भाव जगा। अब वह रेवत के आधीन कर दिये जाएँगे। रेवत उनके स्‍थविर बना दिये जाएंगे।
      श्रावस्‍ती लौटने पर उन्‍हें महा उपासिका विशाखा मिगार ने उन्‍हें बुलाया और पूछा भिक्षुओं हमारे आर्य रेवत का निवास स्‍थल कैसा था। उन के तो माथे पर पसीने की बुंदे दिखाई देने लगी। सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। की कौन बोले। सब की आंखों में भय था। मानो किसी दुःख स्‍वन के विषय में पूछ लिया हो। आर्य रेवत का निवास स्‍थान तो इतना खतरनाक था आप बस पूँछों ही मत। खंडहर ही खंडहर थे, उसे निवास स्‍थान कहना ही गलत था। जंगल तो हमने बहुत देखे पर खादर बन जिस में आर्य रेवत रहते थे। ऐसा भंयकर जंगल कभी नहीं देखा। आदमी दिन में भी खो जाए। रहा ही नहीं मिले, ऐसे उबड़-खाबड़ रास्‍ते, कांटे ही कांटे, और भंयकर जंगली जानवरों की दहाड़ आपकी छाती बंद कर दे। हम तो बस बच कर ही  आ गए यहीं बहुत है हमारे आर्य रेवत वहां पर कैसे रहते है यहीं  सोच कर डर लगाता है।
      और फिर विशाखा ने और भिक्षुओं से पूछा: तब उन्‍होंने कहा: हमारे आर्य रेवत का स्‍थान स्‍वर्ग से भी सुंदर था। मानों ऋद्धि सिद्धि से बनाया गया है। चारों तरफ ऊंचे विशाल वृक्षों की छाव, दूर तक फैली हरियाली। आप वहां के जंगली फूलों को देख लो तो आपकी बगिया फीकी लगे। महल भी सुंदर हमने देखें है पर आर्य रेवत निवास स्‍थान के आगे वह कुछ भी नहीं। देवताओं को भी डाह होती होगी। इस पृथ्‍वी पर आर्य रेवत से सुंदर और मनोरम , शांत और प्रगाढ़ चारों फैली हुई जैसी जगह और दुसरी नहीं। ऐसा सन्नाटा की आप अपने अंदर के संगीत को पल में सुन लो पक्षियों का कलरव गान। मानों सो-सो सितार बज रहे हो। बहुत ही सुन्‍दर स्‍थान था आर्य रेवत का।
      विरोधाभासी विपरीत व्यिक्तत्व से विशाखा अचरज में पड़ गई। एक ही स्‍थान इन लोगों ने देखा है या दोनों भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थान का वर्णन कर रहे हे। कोई स्‍वर्ग जैसा कोर्इ नर्क जैसा। असली बात क्‍या है?
      भगवान हंसे और बोले: उपासी के, जब तक रेवत वहां पर वास करता था। वह स्‍वर्ग था। और जैसे ही वह वहां से हटा वह नर्क तुल्‍य हो गया। जैसे दिया हटा लो तो अंधकार हो जाता है। आर्य रेवत का निवास स्‍थान भी रेवत के हटते ही अपने असली रूप में प्रकट हो गया। आप जब एक जगह को मेरे साथ देखते है तो वह जगह वह ही नहीं रहती जो में भी मेरी उर्जा भी उस में समाहित हो जाती है। और वही जगह जब आप अकेला देखे तो केवल वह जगह हे। उस में और कुछ नहीं। मेरा बेटा रेवत अर्हत हो गया है। ब्राह्मण हो गया है। उस ने ब्राह्म को जान लिया हे।
      इस लोक और परलोक और परलोक के विषय में उसकी कोई आशा नहीं रह गई। जो निराशय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।  

      जिसे आलय—तृष्‍णा—नहीं है। जो जानकर वीत संदेह हो गया है, और जिसने डुबकर अमृत पर निर्वाण को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।

      जिसने यहां पुण्‍य और पाप दोनों की आसक्‍ति को छोड़ दिया है, जो विगत शोक, निर्मल, और शुद्ध है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।

      मनसा आनंद ‘’मानस’’

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