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गुरुवार, 22 जुलाई 2010

विनोद खन्‍ना--2 (एक पहचान परदों के पार)

 
यह तो आपके अहंकार पर सब तरफ से सीधी चोट थी। उससे आपके अंदर क्रोध नहीं उठता होगा?
      मुझे बहुत मजा आ रहा था, विनोद ने उस स्‍थिति का जायका लेते हुए कहा। मैं इतना मस्‍ती में था कि मुझे ओशो के पास रहने का मौका मिल रहा है। मेरे मन की सारी उथल पुथल शांत हो गई थी। शायद इस फकीरी की ही मुझे तलाश थी। मैं खूब काम करता था ओर खूब ध्‍यान करता था। समाधि टैंक मुझे बहुत अच्‍छा लगता था। उसमें मां के गर्भ जैसी स्‍थिति बनाई जाती है। वहां पर मुझे अपने जन्‍म का अनुभव भी हुआ।
      आश्रम के इतने गहरे अनुभवों के बाद शूटिंग के लिए बंबई जाना भारी नहीं पड़ता था?
      नहीं। ओशो ने आश्रम का माहौल कुछ ऐसा बना रखा है कि यहां भरा पूरा संसार है। यह कोई उदास और शांत संन्‍यास नहीं है। यहां तो हर वक्‍त चहल-पहल और कुछ न कुछ उपद्रव होता ही रहता है। और कुछ नहीं हुआ तो वे ही कोई चक्‍कर चला देंगे, है न? तो मैं समझता हूं, ओशो का संन्‍यास उलटे संसार को और मजबूती से झेल सकता है। आश्रम के बाहर जाना-आना मेरे लिए कोई मुश्‍किल नहीं था।
      विनोद ने ओशो के संन्‍यास  का अनुभव का अनूठापन इत्र की तरह निचोड़ कर रख दिया। बात सच है, ओशो के बुद्ध क्षेत्र की आंधी में जो जी लिया उसने भँवर में साहिल को पा लिया।    
      रजनीश पुरम में आप रहे थे। उस अनुभव के बारे में आप क्‍या कहेंगे।
      रजनीश पुरम ओशो का बहुत बड़ा प्रयोग था। मनुष्‍य चेतना को विकसित करने की खातिर। वहां भी मुझे ओशो के बग़ीचे में ही काम दिया गया था। इतना काम करना पड़ता था कि बयान करना मुश्‍किल है। पूरा शहर बसाना था। ओशो के बग़ीचे में मोर थे, उनका सब कुछ मैं करता था। सफाई, पेड़-पौधे की देखभाल में मुझे बहुत मजा आता था। कभी ओशो मुझे अपने कमरे में बुलवा लेते थे। वो चाहते थे कि मैं बाकी अभिनेता ओर को वहां बूलाऊं। और यहां क्‍या हो रहा है और क्‍या मिल रहा है। उन्‍हें दिखाओं।
      खैर, रैंच के आखिरी साल माहौल  बदल गया। वहां हर व्‍यक्‍ति पर इतना गहरा काम हो रहा था। कि जिसके भीतर जो दबा पडा था वह उभर कर बहार आ रहा था। मेरा देखना यह है कि सद्गुरू के पास रहना हो तो अटूट भरोसा चाहिए। और विरोधाभास यह है कि तुम्‍हारा भरोसा जैसे-जैसे बढ़ता है तुम्‍हारी चेतना की गहरी पर्तें उघड़ने लगती है। वहीं मेरे साथ हुआ। रजनीश पुरम बिखरा उससे पहले मेरे अंदर बहुत से भय जाग गये थे। भय अपराध भाव।
      विनोद जिस निर्मलता से अपना ह्रदय खोल रहे थे वह घटना दो संन्‍यासियों के बीच ही घट सकती है। हम सभी एक ही रहा के हम सफर जो है। मन के अंधकार को उलीचने के लिए श्रद्धा की आधारशिला अति आवश्यक है।
      यह अपराध भाव किसी खास घटना को लेकर या एक सामान्‍य भाव की तरह था?
      ऐसा कह सकते है ये भाव बादल की तरह मेरे दिल पर छाए रहते थे। जैसे कोई काली छाया आती थी वैसे वे अचानक मुझे घेर लेते थे। उस समय मैं बहुत असहाय हो जाता था। मैं घंटो रोता रहता था। एक तरफ मैं इसे साक्षी भाव से देखता भी था। लेकिन इस संवेग पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं होता था। मैं मेरे ही मन के किसी अज्ञात लोक में प्रवेश कर गया था। वह क्‍या है, कहां से आता है। मुझे कुछ पता नहीं चल रहा था।
      यदि आप इस गहराई में उतर गए थे तो फिर फिल्‍मों में वापस क्‍यों चले गए? मैंने बिबूचन में पड़ कर पूछा।   
      विनोद जी के पास इसकी बहुत स्‍पष्‍टता नहीं थी। उन्‍होंने स्‍वयं को टटोलते हुए कहा, एक तो मैं इस स्‍थिति से पूरी तरह गुजरना चाहता था, बिलकुल अकेले। फिर मुझे बच्‍चों का ख्‍याल हुआ कि मेरा उनके प्रति कोई कर्तव्‍य है। मैंने फिल्‍मों में वापस जाने की सोची। स्‍वयं ओशो कर रहे थे। जब मनाली में ओशो से पूछने गया तो उन्‍होने कहा, तुम वापस उसी दुनिया में जा सकोगे? मैंने कहा: जा सकूंगा।
      इधर मैं एक बात बता दूँ कि ओशो से मैं इस कदर जुड़ा हुआ था कि वे मेरे सर्वस्व थे। मेरी हालत बिलकुल छोटे बच्‍चे की थी। ओशो ने कहा, तुम पूना जाकर वहां का आश्रम संभाल लो। और एशिया का पूरा काम तुम देखो। मैंने कहा,मैं इसके लिए योग्‍य नहीं हूं। ने तो मुझे राजनीति की समझ है न प्रशासन की। ओशो बोले, वह सब तुम सीख जाओगे। मैंने ओशो से कहा,मैं सोचकर आपको जवाब देता हूं। और मैं बंबई चला आया।
      अब मन की इस विडंबना को क्‍या कहे? उसने कुरू को इनकार कर खुद के लिए ओ बड़ी खाई खोद ली। इस इनकार की कीमत विनोद को चुकानी पड़ी।
      बंबई आने के बाद मेरी ग्‍लानि में एक बात और जुड़ गई, मैंने ओशो को मन क्‍यों किया। मुझे एक फिल्‍म गई,मैं शूटिंग पर जाने लगा। वहाँ अजीब घटना घटती। जब तक मैं कैमरे के सामने होता, मैं बिलकुल अच्‍छी हालत में होता। जैसे ही मेकअप रूम में जाता रौना फूट पड़ता। मेरा अचेतन मेरे उपर हावी हो जाता। एक तरफ मैं केंद्र पर स्‍थित होता था सारा तूफान चलता रहता था। किसी भी वक्‍त किसी भी जगह मेरा रोना फूट पड़ता था। दिमाग भंयकर उलझन में था लेकिन दिल में भरोसा था कि मैंने ठीक  किया है। उसी दौरान पत्रकारों ने सारी अफवाहें फैलाई कि मैंने ओशो को छोड़ दिया, मैं विक्षिप्‍त हो गया। संन्‍यासी भी कहने लगे कि मैं नाटक कर रहा हूं। आखिर अभिनेता जो हूं। ओशो के पास रहना भी मेरा नाटक था, यह भी नाटक है। जब संन्‍यासी मेरे पर छींटाकशी करने लगे तो पहले तो मुझे बड़ी चोट लगी लेकिन फिर मैंने सोचा कि इन्‍होंने इस तल का अनुभव नहीं किया होगा। तो वे कैसे समझेंगे? कुछ लोग मुझे मनश्चिकित्सक के पास जाने की सलाह देने लगे। लेकिन जिस के अंदर ओशो बसे हुए है वह किसी वैद्य के पास क्‍यों जाये? हर पल ओशो मेरे साथ थे। मेरे भीतर उनसे बिछुड़ने का कोई भाव ही नहीं था। इसीलिए बाहर से मैं उनसे दूर रह सका।  
      आदमी के अचेतन कक्ष में जन्‍मों-जन्‍मों का भंडार है। आमतौर से लोग इस बीहड़ में प्रवेश नहीं करते। यह तो किसी दिलेर का ही काम है। इस अज्ञात लोक से गुजरने के बाद विनोद के ध्‍यान की जड़ें इतनी मजबूती से जम चुकी है कि उनके पास बैठकर मुझे लग रहा था किसी विशाल दरख़्त के साये में बैठी हूं। जिसके सारे नकाब उतर चुके हो ऐसा कोई गुमनाम चेहरा—जो सिर्फ ‘’ है ‘’। जैसे झरना है, पहाड़ है, आकाश है। बस होना मात्र और कुछ नहीं। आदमी को पूर्ण और प्रगाढ़ और सरल और सहज बना देता है।
      विनोद जी के साथ मैं भी उस गुफा में हो आई थी। खुली हवा में सांस लेकर मैंने पूछा: फिर इस स्‍थिति से आप बाहर कैसे आए ?
      उन्‍होंने चुटकी बजाकर कहा: बस यूं ही। एक सुबह वह सारा गायब हो गया। उसके बाद  
फिर कोई भाव आवेग लौटकर नहीं आया। फिर तो मन के अंदर एक सन्‍नाटा छा गया जैसे प्रकृति में भयंकर आंधी तूफान के बाद होता है। सब कुछ धुल गया। बादल बरसे, बिजली चमकी, बड़े-बड़े पेड़ उखड गये, और दूसरे ही क्षण ऐसी धूलि हुई खामोशी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। उस खामोशी में बहुत उर्जा पैदा हुई, वह घड़ी ऐसी थी की मैं एकदम सड़क पर आ गया था। न परिवार, न संग, न दोस्‍तों का साथ। आश्रम और संन्‍यासियों से भी मैं टुट चुका था। बिलकुल अकेला। लेकिन अंदर कोई अडिग केंद्र था जहां ओशो का सहारा था और था गहन मौन।     
      उसके बाद मेरी पहली फिल्‍म प्रदर्शित हुई। इंसाफ। यह फिल्‍म सुपरहिट हुई। मेरे दर्शक अभी तक मेरा इंतजार कर रहे थे। मुझे भूले नहीं थे। फिर तो एक के बाद एक फिल्‍म मिलीं और डेढ़ साल में मैंने नया घर खरीदा जो कि पहले  घर से ज्‍यादा शानदार था। मेरा जितना लुट गया था उससे दस गुणा लौटकर आया। यह ओशो का कायदा है। और जब जो मेरे दोस्‍त है उनमें से नब्‍बे प्रतिशत लोग। ओशो के प्रवचनों में ध्‍यान विधियों में उत्‍सुक हो गए है। मेरे भीतर जो बदलाहट हुई है उससे उन्‍हें लगता है कि ओशो की बातों में कुछ दम है।
      जिस दिन ओशो ने शरीर छोड़ा उस दिन आप कहां थे? यह आघात आपने कैसे झेला?
      उस श्‍याम को मैं घर पर ही था। मुझे ओशो की बड़ी याद आ रही थी। सो मैंने उनकी एक किताब उठा ली और पढ़ने लगा। यह वे क्षण थे जब उन्‍होंने देह छोड़ी। मेरी बेचैनी कम नहीं हो रही थी इसलिए मैं कुछ देर के लिए बहार गया। घर आया तो पूना से फोन आ चुका का। पहले तो मुझे बड़ा सदमा लगा, फिर मैं अपने कमरे में गया, ध्‍यान संगीत का टेप चलाया। बड़ी देर तक मैं नाचता रहा और रोता रहा। दोनों चीजें एक साथ हो रही थी।
      जैसे ही उन यादों के गुलाब ताजा हुए, उन कांटों ने भी सर उठा लिया। बोलते-बोलते विनोद जी रूक गये। हमने कुछ पल आंसुओं के नाम चढ़ा दिये।
      मैंने देखा, इस नए विनोद के ऊपर आंसुओं की बहुत अधिक पकड़ नहीं थी। कुछ ही क्षणों में वे प्रकृतिस्‍थ हो गए। उनकी भाव दशा की घुप-छांव को देखते हुए मैंने पूछा: इतने गहरे ध्‍यान से गुजरने के बाद अब आप अभिनय करते है तो उसमें कौन सा बुनियादी फर्क पाते है।
      विनोद ने सहज मन से कहा: अब मेरा साक्षी इतना प्रखर हो गया है कि मैं कुछ भी करू,मेरी सजगता खोती नहीं। अब अभिनय सिर्फ फिल्‍मों तक ही सीमित नहीं है। वह पूरे जीवन पर फैल गया है। मेरा जीवन ही मुझे पूरा का पूरा अभिनय जैसा ही लगता है। तो मैं कह सकता हूं की अभिनेता तो आसानी से ध्‍यान में उतर सकता है। वह इतनी बार रोल बदलता है चेहरे बदलता है कि उसके लिए उसका ओरिजिनल फेस मूल चेहरा खोजना कोई मुश्‍किल काम नहीं। थोड़ी ही समझ की जरूरत है।
      ओशो भी कहते है कि फिल्‍म जगत के लोगों में ? बहुत संभावना है और वे लोग मेरी बात को ज्‍यादा समझेंगे। क्‍या आप भी ऐसा मानते और महसूस करते है?
      बिलकुल, विनोद जी ने बहुत दृढ़ता से कहा, मैं तो मानता हूं कि फिल्‍म जगत के कई लोग ध्‍यानी हैं ही। फर्क इतना है कि उन्‍हें यह बात पता नहीं है। कैमरे की पैनी आँख के सामने खड़े होना कोई खेल नहीं है। वह आदमी की आँख से बेहद शक्‍ति शाली है। आपकी छोटी से छोटी हरकत को  बड़ी करके दिखा सकता हे। कैमरे के सामने आपको बहुत होश पूर्णहोना पड़ता है। उसी होश को ध्‍यान से जोड़ दो गेस्ट लोक बदल जायेगा।
      फिर ओशो की स्‍मृति में भीगे हुए स्‍वर में विनोद बोले, ‘’ देखो, होश ऐसा तत्‍व है जो हर किसी चीज की क्‍वालिटी बदल देता है। एक ही चोट जब गुरु करता है तो हम उसे डिवाइस कहते है, कोई साधारण आदमी करता है तो हम उसे बदला कहते है। तो होश से पूरी बात बदल जाती है। हमारे फिल्‍मी लोग बड़े प्‍यो हैं, संवेदनशील है, क्रिएटिव हैं, वे ध्‍यान में बड़ी जल्‍दी छलांग लगा सकते है।
      यदि विनोद खन्‍ना जैसे और संन्‍यासी सितारे फिल्‍म जगत में पैदा हुए तो सुरा, सुंदरी और धन की चमक-दमक में चुँधियाती ये फिल्‍मी नगरी। आज उस विराट बुलंदियों और आर्दशों को छू रही होती जिससे सारा समाज, और आधुनिक मानव के आदर्श हीरो कुछ और नया कर रहे होते। और इस वैभव के बीच ध्‍यान की अपूर्व शांति उसे महान बना देती। उनकी अंदर और बहार का जीवन देखने जैसा होता।
      विनोद जी को ओशो ने जो झेन गुरु का उदाहरण दिया था। वह निष्‍प्रयोजन नहीं था। संन्‍यास और संसार के परिपक्‍व संतुलित समन्‍वय से बने हुए वर्तमान विनोद को देखकर मुझे लगा, कितनी आग से गुजर कर यह रसायन सिद्ध हुआ। सच विनोद ने जो किया कोई करोड़ो में एक कर सकता है। इतने नाम शौहरत को छोड़-छाड़ कर एक अज्ञात जीवन ही नहीं बदनामी और पीड़ा भी सहनी पड़ी। इस दुनियां में धन भी आसानी से छोड़ा जा सकता है। पर नाम और यश की जिस ऊँचाई से विनोद जी ने छलांग लगाई है। वह विरल है। आज उन्‍हें गहरी ध्‍यान की सुरम्‍य घाटियों का अनुभव भी आह्लादित किये रहता है। जितनी ऊँचाई उतनी ही गहराई। पेड़ जितनों उपर जायेगा। जड़ें उतनी गहरी तो होनी ही चाहिए। इसे कोई विरला ही बुझ सकता है।

विनोद खन्‍ना (स्‍वामी विनोद भारती)
मां अमृत साधना
ओशो टाइम्‍स इंटरनेशनल, अप्रैल—1994,

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