दूसरी विधि:
‘सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो।’
यह भी आंतरिक शक्ति पर, आंतरिक बल पर आधारित है। बड़ी बीज रूप विधि है। मानों कि तुम सर्वज्ञा हो, माना कि तुम सर्वशक्तिमान हो। मानो कि तुम सर्वव्यापी हो।
यह तुम कैसे मान सकते हो? यह असंभव है। तुम जानते हो कि तुम सर्वज्ञ नहीं हो, तुम अज्ञानी हो। तुम जानते हो कि तुम सर्वशक्तिमान नहीं हो। तुम बिलकुल अशक्ति और असहाय हो। तुम जानते हो कि तुम र्स्वव्यापी नहीं हो, तुम छोटी सी देह में सीमित हो। तो इस पर तुम कैसे विश्वास कर सकते हो।
और यदि भली भांति जानते हुए कि ऐसा नहीं है तुम इस पर विश्वास करोगे तो वह विश्वास निरर्थक होगा। अपने ही विपरीत तुम विश्वास नहीं कर सकते। किसी विश्वास को तुम जबरदस्ती थोप नहीं सकते हो। लेकिन वह व्यर्थ होगा, निरर्थक होगा। तुम जानते हो कि ऐसा नहीं है। कोई विश्वास तभी उपयोगी हो सकता है, जब तुम जानते हो कि ऐसा ही है।
यह समझना जरूरी है। कोई विश्वास तभी शक्तिशाली होता है। जब तुम जानते हो कि ऐसा ही है। सच या झूठ का सवाल नहीं है। अगर तुम जानते हो कि ऐसा ही है तो विश्वास सत्य हो जाता है। अगर तुम जानते हो कि ऐसा नहीं है तो सत्य भी विश्वास नहीं बन सकता। क्यों? कई चीजें समझनी पड़ेगी।
पहली बात तो, तुम जो भी हो वह तुम्हारा विश्वास है: तुम उस ढंग से विश्वास करते हो, उस ढंग में तुम्हारा पालन-पोषण हुआ है। उस ढंग में तुम्हें संस्कारित किया गया है। तो उसी में तुम विश्वास करते हो। और तुम्हारा विश्वास तुम्हें प्रभावित करता है। यह एक दुस्चक्र बन जाता है।
उदाहरण के लिए ऐसी जातियां हे जहां पुरूष स्त्री से कमजोर है, क्योंकि उन जातियों का विश्वास है कि स्त्री पुरूष से अधिक मजबूत हे। अधिक शक्तिशाली है। उनका विश्वास एक तथ्य बन गया है। उन जातियों में पुरूष कमजोर है और स्त्रीयां ताकतवर। स्त्रियां वे सब काम करती है जो साधारणतया दूसरे देशों पुरूष करते है। और पुरूष वह सब काम करते है जो दूसरे देशों में स्त्रियां करती है। इतना ही नहीं,उनकी शरीर भी कमजोर है, उनकी बनावट कमजोर है। वे यह मानने लगे है कि ऐसा ही है।
विश्वास ही स्थिति का सृजन करता है। विश्वास सृजनात्मक है।
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मन पदार्थ से ज्यादा शक्तिशाली हे। यदि मन सच में ही कुछ मान लेता है तो पदार्थ को उसका अनुसरण करना पड़ेगा। पदार्थ मन के विपरीत कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि पदार्थ तो जड़ है। तो असंभव भी घटता हे।
जीसस कहते है, ‘श्रद्धा पहाड़ों को भी हिला सकती है।’
श्रद्धा पहाड़ों को हिला सकती है। और यदि न हिला सके तो उसका अर्थ है कि तुम्हें श्रद्धा नहीं है—ऐसा नहीं कि श्रद्धा पहाड़ों को नहीं हिला सकती। तुम्हारी श्रद्धा पहाड़ों को नहीं हिला सकती, क्योंकि तुम्हें श्रद्धा ही नहीं है।
विश्वास की घटना पर बड़ी शोध चली है। और विज्ञान बहुत से अविश्वसनीय निष्कर्षों पर पहुंच रहा हे। धर्म ने तो सदा से ही उन्हें माना है। लेकिन विज्ञान भी अंतत: उन्हीं निष्कर्षों पर पहुंच रहा है। और उन निष्कर्षों पर उसे पहुंचना ही होगा, क्योंकि बहुत सी घटनाओं पर पहली बार खोज हो रही है।
जैसे, तुमने प्लैसिबो दवाइयों के बारे में सुना होगा। सैकड़ों ‘पैथियां’ संसार में चलती है—एलोपैथी, आयुर्वेदिक, युनानी, होम्योपैथी, नेचरोपैथी—सैकड़ों। और सभी का दावा है कि वे रोग को ठीक कर सकते है। और वह ठीक करते भी है। उनके दावे गलत नहीं है। यह बड़ी अद्भुत बात है—उनके निदान अलग-अलग है, उनके विचार अलग-अलग हे। एक ही रोग है और उसके सैकड़ों निदान है और सैकड़ों उपचार है, और हर उपचार काम देता है। वि यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि वास्तव में उपचार काम करता है या फिर रोगी का विश्वास काम करता है। और यह संभव है।
कई देशों में, कई विश्वविद्यालयों में, कई अस्पतालों में बहुत ढंगों से वे काम कर रह है। वे रोगी को पानी या कुछ और दे देते है। और रोगी यह मानता है कि उसे दवा दी गई हे। और केवल रोगी ही नहीं डाक्टर भी यह मानता है, क्योंकि उसे भी पता नहीं है। अगर डाक्टर को पता हो कि यह दवा है या नहीं तो उसका प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि दवा से ज्यादा वह रोगी को विश्वास देता है।
तो जब तुम बड़े डाक्टर के पास जाते हो और ज्यादा पैसे देते हो तो जल्दी ठीक हो जाते हो। यह प्रश्न विश्वास का है। डाक्टर अगर तुम्हें चार पैसे की,सिर्फ चार पैसे की दवाई दे तो तुम्हें पूरा विश्वास होता हे। कि उसके कुछ होने वाला नहीं है। इतनी बड़ी बीमारी वाला इतना बड़ा रोग चार पैसे से कैसे ठीक हो सकता है। असंभव, इसके लिए विश्वास पैदा नहीं किया जा सकता। तो हर डाक्टर को अपने आस-पास विश्वास का एक वातावरण बनाना पड़ता है। वह वातावरण सहयोगी होता है।
तो अगर डाक्टर को पता हो कि वह जो दे रहा है वह सिर्फ पानी ही है तो वह भरोसे के साथ आश्वासन नही दे पाएगा। उसके चेहरे से पता चल जायेगा। उसके हाथों से पता चल जायेगा। उसके पूरे आचार-व्यवहार से पता चल जायेगा। और रोगी का अचेतन उससे प्रभावित होगा। डाक्टर का विश्वास जरूरी है। वह जितना आश्वस्त होगा उतना ही अच्छा है। क्योंकि उसका विश्वास संक्रामक होता है।
अब वे कहते है कि तुम कुछ दवा उपयोग करो तीस प्रतिशत रोगी तो करीब-करीब तत्क्षण ठीक हो जाएंगे। कुछ भी उपयोग करो। एलोपैथी, नेचरोपैथी, होम्योपैथी, या कोई भी पैथी—कुछ भी उपयोग करो, तीस प्रतिशत रोगी तत्क्षण ठीक हो जाएंगे।
वे तीस प्रतिशत विश्वास करने वाले लोग है। यही अनुपात हर जगह है। अगर मैं तुम्हारी और देखू तो तुममें से तीस प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो तत्क्षण रूपांतरित हो जाएंगे। एक बार विश्वास उनमें बैठ जाए तो वह उसी समय काम करना शुरू कर देता है। तीस प्रतिशत मनुष्यता को बिना किसी कठिनाई के तत्क्षण चेतना के नए तलों पर रूपांतरित किया जा सकता है। बदला जा सकता है। सवाल सिर्फ इतना है कि उनमें विश्वास कैसे जगाया जाये। एक बार विश्वास जग जाए तो कुछ भी उन्हें नहीं रोग सकता। हो सकता है कि तुम भी उन सौभाग्यशालियों में से, उन तीस प्रतिशत में से ही होओ। लेकिन मनुष्यता के साथ एक बड़ा दुर्भाग्य घटा है। और वह यह कि तीस प्रतिशत लोग निंदित हो गए है। समाज, शिक्षा,संस्कृति, सब उनकी निंदा करते है। उनको मूर्ख समझा जाता है।
नहीं, वे बड़ी संभावना वाले लोग है। उनके पास एक बड़ी ताकत है। लेकिन वे निंदित है। और थोथे बुद्धिजीवियों की प्रशंसा होती है। क्योंकि वे भाषा, शब्दों और तर्क के साथ खेल सकते है। इसलिए उनकी प्रशंसा की जाती है। वास्तव में वे नापुंसग है। अंतस के वास्तविक जगत में वे कुछ नहीं कर सकते। वे बस अपना दिमाग चला सकते हे। लेकिन युनिवर्सिटी उनके पास है। न्यूज मीडिया उनके पास है। एक तरह से वे लोग मालिक है। और निंदा करने में वे कुशल है। वे किसी भी चीज की निंदा कर सकते है। और मनुष्यता का यह तीस प्रतिशत हिस्सा जिसमें संभावना है, वे लोग जो विश्वास कर सकते है और रूपांतरित हो सकते है, वे शब्दों में इतने कुशल नहीं होते—वे हो भी नहीं सकते। वे तर्क नहीं कर सकते,विवाद नहीं कर सकते। इसी कारण तो वह विश्वास कर सकते है।
लेकिन क्योंकि वे स्वयं के लिए तर्क नहीं दे सकते इसलिए वे खुद ही आत्म-निंदक बन गए है। वे सोचते है कि उनमें कुछ गलत है। अगर तुम विश्वास कर सको तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साथ कुछ गलत है; अगर तुम संदेह कर सको तो तुम सोचते हो कि तुम महान हो। लेकिन संदेह की कोई ताकत नहीं है। संदेह के द्वारा कभी भी कोई अंतरतम तक, परम आनंद तक नहीं पहुंच सकता।
अगर तुम विश्वास कर सकते हो तो यह सूत्र तुम्हारे लिए उपयोगी होगा।
‘सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानों।’
तुम वह हो ही, इसलिए तुम्हारे मान लेने मात्र से वह सब जो तुम्हें छिपाए हुए है, वह सब जो तुम्हें ढँके हुए है, तत्क्षण गिर जाएगा।
लेकिन उन तीस प्रतिशत के लिए भी यह कठिन होगा। क्योंकि वे भी वही सब मानने के लिए संस्कारित है जो कि सच में नहीं है। उन्हें भी संदेह के लिए संस्कारित किया गया है। उनका भी शिक्षण संदेह का है; और वे अपनी सीमाएं जानते है, तो वे कैसे विश्वास कर सकते है? या, फिर अगर वे यह मान लेते है तो लोग उन्हें पागल समझेंगे। अगर तुम कहो कि तुम मानते हो कि तुम्हारे भीतर सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, दिव्य है, तो लोग तुम्हारी और आश्चर्य से देखेंगे और सोचेंगे। कि तुम पागल हो गए हो। जब तक तुम पागल ही न होओ। यह सब कैसे मान सकते हो?
लेकिन कुछ करके देखो। प्रारंभ से शुरू करो। इस घटना का थोड़ा स्वाद लो, फिर विश्वास पीछे-पीछे चला आएगा। अगर यह विधि तुम करना चाहो तो फिर पहले यह करो। अपनी आंखें बंद कर लो और भाव करो कि तुम्हारा कोई शरीर नहीं है। भाव करो कि जैसे मिट गया है, खो गया है। तब तुम अपनी सर्वव्यापकता का अनुभव कर सकते हो।
शरीर के साथ तो यह भाव कठिन है। इसी कारण कई परंपराएं कहती है कि तुम शरीर नहीं हो, क्योंकि शरीर के साथ सीमा आ जाती है। तुम शरीर नहीं हो यह अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि सच में तुम शरीर नहीं हो। यह केवल एक संस्कार है, यह केवल एक विचार है जो तुम्हारे मन पर थोप दिया गया है। तुम्हारे मन में यह विचार डाल दिया गया है कि तुम शरीर हो। बहुत सी घटनाएं है जो इस बात को स्पष्ट करती है। सीलोन में बौद्ध भिक्षु आग पर चलते है। भारत में भी चलते है, लेकिन सीलोन की घटना अद्भुत है। वे घंटों आग पर चलते है। और जलते नहीं है।
कुछ वर्ष पहले ऐसा हुआ की एक ईसाई मिशनरी या फायर-वॉक देखने गया। यह वे पूर्णिमा की उस रात करते है जब बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए। क्योंकि उनका कहना है कि उस रात जगत को पता चला कि शरीर कुछ भी नहीं है। पदार्थ कुछ भी नहीं है। कि अंतरात्मा सर्वव्यापक है और आग उसे जला नहीं सकती।
लेकिन जिन भिक्षुओं को आग पर चलना होता है वे उससे पहले एक वर्ष तक प्राणायाम और उपवास द्वारा अपने शरीर को शुद्ध करते हे। और अपने मन को शुद्ध करने के लिए खाली करने के लिए वे ध्यान करते है। कि वे शरीर नहीं है। एक वर्ष वे लगातार तैयारी करते है। एक वर्ष तक पचास-साठ भिक्षुओं का समूह यह भाव करता रहता है, कि वे अपने शरीरों में नहीं है।
एक वर्ष लंबा समय है। हर क्षण केवल एक ही बात सोचते हुए कि वे अपने शरीरों में नहीं है। लगातार एक ही बात दोहराते हुए कि शरीर एक भ्रम है। वे ऐसा ही मानने लगते है। तब भी उन्हें आग पर चलने के लिए वाद्य नहीं किया जाता। उन्हें आग के पास लाया जाता है। और जो भी सोचता है कि वह नहीं जलेगा, वह आग में कूद पड़ता है। कुछ संदेह करते रह जाते है झिझकते है। उन्हें आग में नहीं कूदने दिया जाता;क्योंकि यह सवाल आग के जलाने या जलने का नहीं है। यह उनके संदेह का सवाल है। अगर वे जरा सा भी झिझकते है तो उन्हें रोक दिया जाता है। तो साठ लोग तैयार किए जाते है। और कभी बीस, कभी तीस लोग आग में कूदते है। और बिना जले घंटो-घंटों उसमें नाचते रहते है।
उन्नीस सौ पचास में एक ईसाई मिशनरी यह देखने के लिए आया था। वह बड़ा चकित हुआ। लेकिन उसने सोचा कि यदि बुद्ध में भरोसा करने से यह चमत्कार हो सकता है तो जीसस में भरोसा करने से क्यों नहीं हो सकता। तो वह कुछ देर सोचता रहा। थोड़ा झिझका, लेकिन फिर इस विचार के साथ कि यदि बुद्ध मदद करते है तो जीसस भी करेंगे। वह आग में कूद गया। वह जल गया बुरी तरह जल गया; छ: महीने के लिए उसे अस्पताल में भरती करवाना पडा। और वह इस घटना को समझ ही नहीं पाया।
यह जीसस या बुद्ध में विश्वास का सवाल नहीं था। यह किसी में विश्वास का सवाल नह था। यह विश्वास मात्र का सवाल था। और यह विश्वास गहन होना चाहिए। जब तक सह तुम्हारे प्राणों के केंद्र पर न पहुंच जाए वह काम नहीं करेगा।
वह ईसाई मिशनरी, सम्मोहन व उससे जुड़ी घटनाओं का अध्ययन करने के लिए और यह जानने के लिए कि फायर-वॉकिंग के समय क्या होता है। वापस इंग्लैंड गया। फिर उन्होंने दो भिक्षुओं को प्रदर्शन के लिए ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी बुलवाया। वे आग पर भी चले। इस प्रयोग को कई बार दोहराया गया। फिर उन दो भिक्षुओं को देखा कि एक प्रोफेसर उनकी और देख रहा है। और वह इतना गहरा डूब कर देख रहा है कि उनकी आंखों में और उसके चेहरे पर एक मस्ती थी। वे दोनों भिक्षु उस प्रोफेसर के पास गए और उससे बोले, ‘तुम भी हमारे साथ आ सकते हो।’ तत्क्षण वह दौड़ता हुआ उनके साथ गया। आग में कूदा और उसे कुछ भी नहीं हुआ। वह बिलकुल नहीं जला।
वह ईसाई मिशनरी भी मौजूद था और भली भांति जानता था कि वह प्रोफेसर तर्क का प्रोफेसर था। जिसका काम ही संदेह करना है। जिसका व्यवसाय ही संदेह पर टिका है। तो वह उस आदमी से बोला, यह क्या। तुमने तो चमत्कार कर दिया। मैं यह नहीं कर सका जब कि मैं श्रद्धालु व्यक्ति हुं। प्रोफेसर बोला, ‘उस क्षण में मैं श्रद्धालु था। यह घटना इतनी वास्तविक थी, इतने आश्चर्यजनक रूप से वास्तविक थी कि उसने मुझे वशी भूत कर लिया। यह इतना स्पष्ट था कि शरीर कुछ भी नहीं है। और मन सब कुछ है। और उन भिक्षुओं के साथ मेरी ऐसी तारतम्यता बैठ गई कि जिस क्षण उन्होंने मुझे आमंत्रित किया तो मुझे जरा भी झिझक नहीं हुई। आग पर चलना इतना आसान था जैसे आग हो ही नहीं।’
उसमें उस क्षण कोई झिझक नहीं थी। कोई संदेह नहीं था—यहीं है कुंजी।
तो पहले इस प्रयोग को करके देखो। कुछ दिन के लिए आंखें बंद करके बैठो और बस यही सोचो कि तुम शरीर नहीं हो। केवल सोचो ही नहीं बल्कि भाव भी करो कि तुम शरीर नहीं हो। और अगर तुम आंखें बंद करके बैठो तो एक दूरी निर्मित हो जाती है। तुम्हारा शरीर दूर हो जाता है। तुम भीतर की और सरक जाते हो। एक दूरी बन गई। जल्दी ही तुम यह महसूस कर सकते हो कि तुम शरीर नहीं हो।
अगर तुम्हें स्पष्ट अनुभव हो कि तुम शरीर नहीं हो तो तुम मान सकते हो कि तुम सर्वव्यापक हो, सर्वशक्तिमान हो, सर्वज्ञा हो। इस सर्वशक्तिमान का यह सर्वज्ञता का तथाकथित जानकारी से कोई लेना देना नहीं है। यह एक अनुभव है। एक अनुभव का विस्फोट है—कि तुम जानते हो।
यह समझ लेने जैसा है, खासकर पश्चिम में,क्योंकि जब भी तुम कहते हो कि तुम जानते हो, वे कहेंगे, ‘क्या?’ तुम क्या जानते हो? जानकारी किसी चीज की होनी चाहिए। कुछ होना चाहिए जिसे तुम जानते हो। और अगर सवाल कुछ जानने का है तो तुम सर्वज्ञ नहीं हो सकते, क्योंकि जानने के लिए फिर अनंत तथ्य है। उन अर्थों में तो कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता।
यही कारण है कि जब जैन कहते है कि महावीर सर्वज्ञ थे। तो पश्चिम में वे हंसते है। वे हंसते है। क्योंकि यदि महावीर सर्वज्ञ थे तो उन्हें जरूर यह सब पता होगा जो विज्ञान अब खोज रहा है। और भविष्य में खोजेगा। लेकिन ऐसा लगता नहीं। वह ऐसी कई चीजें कहते है जो विज्ञान के विपरीत है। जो सत्य नहीं हो सकती। तो तथ्य गत नहीं है। उनकी जानकारी यदि सर्वव्यापक है तो उसमे कोई गलती नहीं होनी चाहिए। लेकिन उसमें गलतियां है।
ईसाई मानते है कि जीसस सर्वज्ञ है। लेकिन आधुनिक मन हंसेगा। क्योंकि वह सर्वज्ञ नहीं थे—संसार के तथ्यों को जानने के अर्थ में वह सर्वज्ञ नहीं थे। वह नहीं जानते थे कि पृथ्वी गोल है—वह नहीं जानते थे। वह तो यही मानते थे कि पृथ्वी चपटी है। सह नहीं जानते थे कि पृथ्वी लाखों वर्षों से अस्तित्व में है। वह तो यही मानते थे कि परमात्मा ने पृथ्वी को उनसे केवल चार हजार वर्ष पहले निर्मित किया है। जहां तक तथ्यों का, विषयगत तथ्यों का संबंध है, वह सर्वज्ञ नहीं थे।
लेकिन यह शब्द ‘सर्वज्ञ’ बिलकुल भिन्न है। जब पूरब के ऋषि ‘सर्वज्ञ’ कहते है तो उनका अर्थ तथ्यों को जानने से नहीं है—उनका अर्थ है परिपूर्ण चेतन, परिपूर्ण जाग्रत, पूर्णत: अंतरस्थ, पूर्णत: संबुद्ध। तथ्यात्मक जानकारी से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। उनका रस जानने की विशुद्ध घटना में है—जानकरी में नहीं, जानने की गुणवत्ता में।
जब हम कहते है कि बुद्ध ज्ञानी है। तो हमारा अर्थ यह नहीं होता कि वे सब भी जानते है जो आईस्टीन जानता है। यह तो वे नहीं जानते। लेकिन फिर भी वे ज्ञानी है। वे अपनी अंतस चेतना को जानते है। और अंतस चेतना सर्वव्यापी है। तथाता का वह भाव सर्वव्यापी है। और उस जानने में फिर कुछ भी जानने को नहीं बचता—असली बता यह है। अब कुछ जानने की उत्सुकता नहीं रहती है। सब प्रश्न गिर जाते है। ऐसा नहीं कि सब उत्तर मिल गये। सब प्रश्न गिर जाते है। अब पूछने के लिए कोई प्रश्न न रहा। सारी उत्सुकता जाती रही है। सर्वज्ञता है। सर्वज्ञा का यही अर्थ है। यह आत्मगत जागरण है।
यह तुम कर सकते हो। लेकिन अगर तुम अपनी खोपड़ी में और जानकारी इकट्ठी करते चले जाओ। तो फिर यह नहीं होगा। तुम जन्मों-जन्मों तक जानकारी इकट्ठी करते चले जा सकते है। तुम बहुत कुछ जान लोगे। लेकिन सर्व को नहीं जानोंगे। सर्व तो अनंत है; वह इस प्रकार नहीं जाना जा सकता। विज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा। वह कभी पूरा नहीं हो सकता। वह असंभव है। यह अकल्पनीय है कि विज्ञान कभी पूरा हो जाएगा। वास्तव में, जितना अधिक विज्ञान जानता जाता है। उतना ही पाता है कि जानने को अभी बहुत शेष है।
तो यह सर्वज्ञता जागरण का एक आंतरिक गुण है। ध्यान करो,और अपने विचारों को गिरा दो। जब तुममें कोई विचार नहीं होंगे। तब तुम महसूस करोगे। कि यह सर्वज्ञता क्या है, यह सब जान लेना क्या है। जब कोई विचार नहीं होते तो चेतना शुद्ध हो जाती है। विशुद्ध हो जाती है। उस विशुद्ध चेतना में तुम्हें कोई समस्या नहीं रहती। सब प्रश्न गिर गये। तुम स्वयं को जानते हो, अपनी आत्मा को जानते हो। और जब तुमने अपनी आत्मा को जान लिया तो सब जान लिया। क्योंकि तुम्हारी आत्मा हर किसी की आत्मा का केंद्र है। वास्तव में तुम्हारी आत्मा ही सबकी आत्मा है। तुम्हारा केंद्र पूरे जगत का केंद्र है। इन्हीं अर्थों में उपनिषदों ने अहं ब्रह्मास्मिः की घोषणा की है कि ‘मैं ब्रह्म हूं,मैं पूर्ण हूं।’ एक बार तुमने अपनी आत्मा की यह छोटी सी घटना जान ली तो तुमने अनंत को जान लिया। तुम बिलकुल सागर की बूंद जैसे हो: अगर एक बूंद को भी जान लिया तो पूरे सागर के राज खुल गए।
‘सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी मानो।’
लेकिन यह मानना भरोसे से ही आएगा। यह तुम अपने साथ विवाद करके नहीं मान सकते। तुम किसी तर्क से अपने आप को नहीं समझा सकते। ऐसे भावों के लिए ऐसे भावों के स्त्रोत के लिए तुम्हें अपने भीतर गहरी खुदाई करनी होगी।
यह ‘मानना’ शब्द बड़ा अर्थपूर्ण है। इसका यह अर्थ नहीं है। कि तुमने कुछ स्वीकार कर लिया है। क्योंकि स्वीकार कर लेना तो बड़ी तर्कसंगत बात है। तुम्हारे सोच-विचार किया, तुमने उसके लिए तर्क किए, तुम्हारे पास प्रमाण है उसके लिए। मानने का अर्थ है कि तुम्हें उस चीज के प्रति कोई संदेह नहीं है—ऐसा नह कि कोई प्रमाण है तुम्हारे पास। स्वीकार करने का अर्थ है कि तुम्हारे पास प्रमाण है: तुम सिद्ध कर सकते हो। तर्क दे सकते हो। तुम कह सकते हो कि ‘यह ऐसा ही है।’ तुम उसके लिए तर्कसंगत प्रमाण दे सकते हो। मानने का अर्थ है कि तुम्हें कोई संदेह ही नहीं है। तुम उसके लिए विवाद नहीं कर सकते, तर्क नहीं दे सकते,तुम से अगर पूछा जाए तो तुम हार जाओगे। लेकिन तुम्हारे पास एक भीतरी आधार है। तुम जानते हो कि ऐसा ही है। यह एक अनुभव है, कोई बौद्धिक तर्क नहीं।
लेकिन याद रखो कि ऐसी विधियां तभी काम दे सकती है। जब तुम अपने भावों के साथ काम करो, बुद्धि के साथ नहीं। तो ऐसा कई बार हुआ है कि बड़े अज्ञानी लोग—अनपढ़ और असंस्कृत—मानवीय चेतना की ऊँचाइयों पर पहुंच जाते है और जो बड़े सुसंस्कृत है, शिक्षित है, बौद्धिक है और तर्क में कुशल है, वे चूक जाते हो।
जीसस केवल एक बढ़ई थे। फ्रेडरिक नीत्शे ने कहीं लिखा है कि पूरे नए टेस्टामेंट में केवल एक आदमी था। जिसकी सच में कोई कीमत थी। जो सुसंस्कृत था। शिक्षित था, दर्शनशास्त्र का जानकार था, बुद्धिमान था—वह आदमी था पाइलेट, रोमन गवर्नर, जिसने जीसस से सूली पर चढ़ाने की आज्ञा जारी की थी। वास्तव में वह सबसे ज्यादा सुसंस्कृत आदमी था—गवर्नर जनरल,वाइसरॉय। और वह जानता था कि दर्शनशास्त्र क्या है। अंतिम क्षण में जब जीसस सूली पर चढ़ाये जाने को थे। तो उसने पूछा था, ‘सत्य क्या है?’ यह बड़ा दार्शनिक प्रश्न था। जीसस चुप रहे—इसलिए नहीं कि यह प्रश्न जवाब देने जैसा नहीं था। पाइलेट अकेला व्यक्ति था जो गहरे दर्शन को समझ सकता था—जीसस चुप रहे, क्योंकि वे सिर्फ ऐसे लोगों से बोल सकते थे जो अनुभव कर सके। सोच-विचार किसी काम का न था। सह एक दार्शनिक प्रश्न पूर रहा था। अच्छा होता यदि यह प्रश्न उसने किसी यूनिवर्सिटी, किसी अकादमी में पूछा होता। लेकिन जीसस से कोई दार्शनिक प्रश्न पूछना अर्थहीन था। वे चुप रहे क्योंकि उत्तर देना व्यर्थ था। कोई संवाद संभव नहीं था।
लेकिन नीत्शे,जो स्वयं एक तार्किक व्यक्ति था, जीसस की आलोचना करता है। उसने कहा है कि वे अशिक्षित थे। असंस्कृत थे, दर्शनशास्त्र में कुशल नहीं थे—और वे उत्तर नहीं दे पाए इसलिए चुप रहे गए।
पाईलेट ने बड़ा प्यारा प्रश्न पूछा। यदि उसने यह प्रश्न नीत्शे से पूछा होता, तो नीत्शे वर्षों तक इस पर बोलता चला जाता। ‘सत्य क्या है?’ यह एक प्रश्न ही वर्षों तक बोलने और चर्चा करने के लिए पर्याप्त है। पूरा दर्शनशास्त्र इसी बात का विस्तार है। सत्य क्या है। एक प्रश्न और सारे दार्शनिक इसी में जुटे हुए है।
नीत्शे की आलोचना तर्क द्वारा की गई आलोचना है, तर्क द्वारा की गई निंदा है। तर्क ने सदा ही भाव के आयाम की आलोचना की है। क्योंकि भाव बड़ा अस्पष्ट है, रहस्यमय है। वह है और फिर भी तुम उसके बारे में कुछ नहीं कह सकते। भाव या तो तुम्हारे पास है, या नहीं है—उसके संबंध में तुम कुछ भी नहीं कर सकते, न ही कोई चर्चा कर सकत है।
तुम्हारे भी कई विश्वास है, लेकिन वे विश्वास स्वीकार कर ली गई धारणाएं भर है; वे विश्वास नहीं है। क्योंकि तुम्हें उनके प्रति संदेह है। तुमने उन संदेहों को अपने तर्कों से कुचल डाला है। लेकिन वे अभी भी जिंदा है। तुम उनके ऊपर बैठे हुए हो, लेकिन वे वहीं के वहीं है। तुम उनसे लड़ते रहते हो, लेकिन वे अभी मरे नहीं है। वे मर नहीं सकते। यही कारण है कि तुम्हारा जीवन भले ही एक हिंदू का जीवन हो, या मुसलमान का, या ईसाई का, या जैन का, लेकिन वह एक धारणा ही है। श्रद्धा तुम्हें नहीं है।
मैं तुम्हें एक कहानी कहता हूं। जीसस ने अपने शिष्यों को कहा कि वे नाव से उस झील के दूसरे किनारे चले जाएं जहां वे सब ठहरे हुए थे। और वे बोले,’मैं बाद में आऊँगा।’ वे लोग चले गये। और दूसरे किनारे की और जा रहे थे तो बड़ा तेज तूफान आया। उथल-पुथल मच गई और लोग भय के मारे घबरा गये। नाव थपेड़े खा रही थी और वे सब रो रहे थे, चीखने-पुकारने लगे, चिल्लाने लगे। ‘जीसस हमें बचाओ।’
वह किनारा जहां जीसस खड़े थे काफी दूर था। लेकिन जीसस आए। कहते है कि वे पानी पर दौड़ते हुए आये। और पहली बात उन्होंने शिष्यों को यह कहीं कि, ‘कम भरोसे के लोगो, क्यों रोते हो।’ क्या तुम्हें भरोसा नहीं है?’ वे तो भयभीत थे। जीसस बोले, ‘अगर तुम्हें भरोसा है तो नाव से उतरो और चलकर मेरी और आओ।’ वह पानी पर खड़े हुए थे। शिष्यों ने अपनी आंखों से देखा कि वे पानी पर खड़े है। लेकिन फिर भी यह मानना कठिन था। जरूर अपने मन में उन्होंने सोचा होगा कि ये कोई चाल है। या हो सकता है कोई भ्रम है। या यह जीसस ही न हो। शायद यह शैतान है जो उन्हें कोई प्रलोभन दे रहा है। तो वे एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। कि कौन चलकर जाएगा।
फिर एक शिष्य नाव से उतर कर चला। और सच में वह चल पाया। वह तो अपनी आंखों पर विश्वास न कर सका। वह पानी पर चल रहा था। जब वह जीसस के करीब आया तो बोला, ‘कैसे? यह कैसे हो गया?’ तत्क्षण पूरा चमत्कार खो गया। ‘कैसे?’—और वह डूबने लगा। जीसस ने उसे बाहर निकाला और बोले, ‘कम भरोसे के आदमी,तू यह कैसे का सवाल क्यों पूछता है।’
लेकिन बुद्धि ‘क्यों?’ और ‘कैसे?’ पूछती है। बुद्धि पूछती है। बुद्धि प्रश्न उठाती है। भरोसा है सब प्रश्नों को गिरा देना। अगर तुम सब प्रश्नों को गिरा सको और भरोसा कर सको तो यह विधि तुम्हारे लिए चमत्कार है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
प्रवचन-73
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