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गुरुवार, 10 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—106 (ओशो)

पहली विधि:
हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।
     हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।
      वास्‍तव में ऐसा ही है, पर ऐसा लगता नहीं। अपनी चेतना को तुम अपनी चेतना ही समझते हो। और दूसरों की चेतना को तुम कभी अनुभव नहीं करते। अधिक से अधिक तुम यही सोचते हो कि दूसरे भी चेतन है। ऐसा तुम इसीलिए सोचते हो क्‍योंकि जब तुम चेतन हो तो तुम्‍हारे ही जैसे दूसरे प्राणी भी चेतन होने चाहिए। यह एक तार्किक निष्कर्ष है; तुम्‍हें लगता नहीं कि वे चेतन है। यह ऐसे ही है जैसे जब तुम्‍हें सिर में दर्द होता है तो तुम्‍हें उसका पता चलता है, तुम्‍हें उसका अनुभव होता है। लेकिन यदि किसी दूसरे के सिर में दर्द है तो तुम केवल सोचते हो, दूसरे के सिर-दर्द को तुम अनुभव नहीं कर सकते। तुम केवल सोचते हो कि वह जो कह रहा है सच ही होना चाहिए। और उसे तुम्‍हारे सिर-दर्द जैसा ही कुछ हो रहा होगा। लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर सकते।

      अनुभव केवल तभी आ सकता है जब तुम दूसरों कि चेतना के प्रति भी जागरूक हो जाओ, अन्‍यथा यह केवल तार्किक निष्‍पति मात्र ही रहेगी। तुम विश्‍वास करते हो, भरोसा करते हो कि दूसरे ईमानदारी से कुछ कह रहे है; और वे जो कह रहे है यह भरोसा करने योग्‍य है, क्‍योंकि तुम्‍हें भी ऐसे ही अनुभव होते है।
      तार्किकों की एक धारा है जो कहती है कि दूसरे के बारे में कुछ भी जानना असंभव है। अधिक से अधिक माना जा सकता है, पर निश्‍चित रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता। यह तुम कैसे जान सकते हो कि दूसरे को भी तुम्‍हारे जैसी ही पीड़ा हो रही है। कि दूसरों को तुम्‍हारे ही जैसे दुःख है? दूसरें सामने है पर हम उनमें प्रवेश नहीं कर सकते, हम बस उनकी परिधि को छू सकते है। उनकी अंतस चेतना अनजानी रहती है। हम अपने में ही बंद रहते है।
      हमारे चारों और का संसार अनुभवगत नहीं है। बस माना हुआ है। तर्क से, विचार से मन तो कहता है कि ऐसा है, पर ह्रदय इसे छू नहीं पाता। यही कारण है कि हम दूसरों से ऐसा व्‍यवहार करते है जैसे वे व्‍यक्‍ति न हो वस्‍तुएं हो। लोगों के साथ हमारे संबंध भी ऐसे होते है। जैसे वस्‍तुओं के साथ होते है। पति अपनी पत्‍नी से ऐसा व्‍यवहार करता है जैसे वह कोई वस्‍तु हो: वह उसका मालिक है। पत्‍नी भी पति की इसी तरह मालिक होती है। जैसे वह कोई वस्‍तु हो। यदि हम दूसरों से व्‍यक्‍तियों की तरह व्‍यवहार करते तो हम उन पर मालकियत न जमाते, क्‍योंकि मालकियत केवल वस्‍तुओं पर ही की जा सकती है।
      व्‍यक्‍ति का अर्थ है स्‍वतंत्रता। व्‍यक्‍ति पर मालकियत नहीं की जा सकती। यदि तुम उन पर मालकियत करने का प्रयास करोगे। तो उन्‍हें मार डालोगे। वे वस्‍तु हो जाएंगे। वास्‍तव में दूसरों से हमारे संबंध कभी भी मैं-तुम वाले नहीं होते। गहरे में वह बस—मैं-यह (यह यानी वस्‍तु) वाले होते है। दूसरा तो बस एक वस्‍तु होता है जिसका शोषण करना है। जिसका उपयोग करना है। यही कारण है कि प्रेम असंभव होता जा रहा है। क्‍योंकि प्रेम का अर्थ है दूसरे को व्‍यक्‍ति समझना, एक चेतन-प्राणी, एक स्‍वतंत्रता समझना, अपने जितना ही मूल्‍यवान समझना।
      यदि तुम ऐसे व्‍यवहार करते हो जैसे सब लोग वस्‍तु है तो तुम केंद्र हो जाते हो और दूसरे उपयोग की जाने वाली वस्‍तुएं हो जाती है। संबंध केवल उपयोगिता पर निर्भर हो जाता है। वस्‍तुओं का अपने आप में कोई मूल्‍य नहीं होता; उनका मूल्‍य यही है कि तुम उनका उपयोग कर सकते हो, वे तुम्‍हारे लिए है। तुम अपने घर से संबंधित हो सकते हो; घर तुम्‍हारे लिए है। वह एक उपयोगिता है। कार तुम्‍हारे लिए है। लेकिन पत्‍नी तुम्‍हारे लिए नहीं है। न पति तुम्‍हारे लिए है। पति अपने लिए है और पत्‍नी अपने लिए है।
      एक व्‍यक्‍ति अपने लिए ही होता है। यही व्‍यक्‍ति होने का अर्थ है। और यदि तुम व्‍यक्‍ति को व्‍यक्‍ति ही रहने देते हो। और उन्‍हें वस्‍तु न बनाओ। धीरे-धीरे तुम उसे महसूस करना शुरू कर देते हो। अन्‍यथा तुम महसूस नहीं कर सकते। तुम्‍हारा संबंध बस धारणागत, बौद्धिक, मन से मन का, मस्‍तिष्‍क से मस्‍तिष्‍क का ही रहेगा। कभी ह्रदय से ह्रदय का नहीं हो पाएगा।
      यह विधि कहती है, हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।
      यह भी वही बात है। लेकिन पहले दूसरा तुम्‍हारे लिए एक व्‍यक्‍ति की तरह होना चाहिए। वह स्‍वयं के लिए होना चाहिए। किसी शोषण या उपयोग के लिए नही, किसी साधन की तरह नहीं, उसे स्‍वयं में एक साध्‍य की तरह होना चाहिए। पहले वह व्‍यक्‍ति होना चाहिए; वह तुम होना चाहिए, तुम्‍हारे जितना ही मूल्‍यवान। केवल तभी वह विधि उपयोग की जा सकती है।
      हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।
      पहले अनुभव करो कि दूसरा भी चेतन है, तब यह हो सकता है कि तुम महसूस करो कि दूसरे में भी वही चेतना है जो तुममें है। वास्‍तव में दूसरा खो जाता है। और तुम्‍हारे तथा उसके बीच चैतन्‍य लहराता है। तुम चेतना की एक धारा के दो ध्रुव बन जाते है।
      गहन प्रेम में ऐसा होता है कि दो व्‍यक्‍ति दो नहीं रहते। दोनों के बीच कुछ बहने लगता है और वे दोनों दो ध्रुव बन जाते है। दोनों के बीच में कुछ आंदोलित होने लगता है। जब यह बहाव घटित होता है तो तुम आनंद से भर उठते हो। यदि प्रेम आनंद देता है तो इसी कारण; दो व्‍यक्‍ति केवल एक क्षण के लिए अपने अहंकार खो देते है। दूसरा खो जाता है और बस एक क्षण के लिए अद्वैत अंतस में उतर जाता है। यदि ऐसा होता है तो अहो भाव है, सौभाग्‍य है, तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए। केवल एक क्षण ओर वही क्षण तुम्‍हें रूपांतरित कर देता है।
      यह विधि कहती है कि यह प्रयोग तुम सबके साथ कर सकते हो, प्रेम में तुम एक व्‍यक्‍ति के साथ हो सकते हो परंतु ध्‍यान में सबके साथ हो सकते हो। जो भी तुम्‍हारे पास आए उसमे डूब जाओ और अनुभव करो कि तुम दो जीवन नहीं हो। बस एक प्रवाहित जीवन हो। केवल गेस्‍टाल्‍ट बदलने की बात है। एक बार तुम जान जाओ कि कैसे यह होता है। एक बार तुम प्रयोग कर लो तो बहुत आसान है। शुरू-शुरू में यह असंभव लगता है। क्‍योंकि हम अपने अहंकार से बहुत जुड़े हुए है। अहंकार को छोड़ना और प्रवाह में बहना कठिन है। तो अच्‍छा होगा कि पहले तुम किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम भयभीत नहीं हो।
      तुम वृक्ष से ज्‍यादा भयभीत नहीं होओगे। इसलिए वहां से शुरू करना सरल रहेगा। किसी वृक्ष के पास बैठकर महसूस करो कि तुम उसके साथ एक हो गए हो। कि तुम्‍हारे भीतर एक प्रवाह, एक संप्रेषण हो रहा है। तुम तिरोहित हो रहे हो। किसी बहती हुई नदी के किनारे बैठ जाओ और प्रवाह को अनुभव करो, महसूस करो कि तुम और नदी एक हो गए हो। आकाश के नीचे लेटकर महसूस करो कि तुम और आकाश एक हो गए हो। शुरू-शुरू में तो यह कल्‍पना मात्र होगा लेकिन धीर-धीरे तुम्‍हें लगने लगेगा कि तुम कल्‍पना के माध्‍यम से वास्‍तविकता को छूने लगे हो।
      और फिर व्‍यक्‍तियों के साथ प्रयोग करो। शुरू में तो यह कठिन होगा। क्‍योंकि भय लगेगा। क्‍योंकि तुम वस्‍तु बनते रहे हो। तुम भयभीत हो कि यदि तुम किसी को इतने पास आने दोगे तो वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा। यही भय है तो कोई भी इतनी घनिष्‍ठता नहीं होने देता। एक अंतराल हमेशा बनाए रखना चाहता है। बहुत अधिक निकटता खतरनाक है। क्‍योंकि दूसरा तुमको वस्‍तु बना ले सकता है, वह तुम पर मालकियत करने की कोशिश कर सकता है। वह डर है तुम दूसरों को वस्‍तु बनना चाहता, कोई भी किसी का साधन बनना नहीं चाहता। कोई भी नहीं चाहता, कोई भी नहीं चाहता कि कोई उसका उपयोग करे। किसी का साधन बन जाना स्‍वयं में मूल्‍यवान न रहना। सबसे निकृष्‍ट घटना है। लेकिन हर कोई प्रयास कर रहा है। इसी कारण इतना गहन भय है कि इस विधि को व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू करना कठिन होगा।
      तो किसी नदी के साथ, किसी पहाड़ी के साथ, तारों के साथ, आकाश के साथ, वृक्षों के साथ शुरू करो। एक बार तुम जान जाओ कि जब तुम वृक्ष के साथ एक हो जाते हो तो क्‍या होता है। एक बार तुम जान जाओ कि नदी के साथ जब तुम एक हो जाते हो तो कितना आनंद उतरता है। कैसे बिना कुछ खोए तुम पूरे अस्‍तित्‍व को पा लेते हो—तब तुम इसे व्‍यक्‍तियों के साथ शुरू कर सकते हो।
      और यदि एक वृक्ष के साथ, एक नदी के साथ इतना आनंद आता है तो तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते कि एक व्‍यक्‍ति के साथ कितना अधिक आनंद आएगा। क्‍योंकि मनुष्‍य उच्‍चतर घटना है, अधिक विकसित चेतना है। एक व्‍यक्‍ति के साथ तुम अनुभव के उच्‍चतर शिखरों पर पहुंच सकते हो। यदि तुम एक पत्‍थर के साथ भी आनंदित हो सकते हो तो एक मनुष्‍य के साथ परम आनंदित हो सकते हो।
      लेकिन किसी ऐसी चीज से शुरू करो जिससे तुम अधिक भयभीत नहीं हो, या यदि कोई व्‍यक्‍ति है जिसे तुम प्रेम करते हो—कोई मित्र है, कोई प्रियसी, कोई प्रेमी—जिससे तुम भयभीत नहीं  हो। जिसके साथ तुम्‍हें यह भय न हो कि वह तुम्‍हें वस्‍तु बना लेगा और जिसमें तुम अपने को मिटा सको—यदि तुम्‍हारे पास ऐसा कोई है तो यह विधि करके देखो। स्‍वयं को होश पूर्वक उसमें मिटा दो।
      जब तुम होश पूर्वक स्‍वयं को किसी में मिटा देते हो वह भी स्‍वयं को तुममें मिटा देगा; जब तुम खुले होते हो और दूसरे में बहते हो तो दूसरा भी तुममें बहने लगता है और एक गहन मिलन, एक संवाद घटित होता है। दो ऊर्जाऐं एक दूसरे में समाहित हो जाती है। उस स्‍थिति में कोई अहंकार, कोई व्‍यक्‍ति नहीं बचता,बस चेतना बचती है। और यदि यह एक व्‍यक्‍ति के साथ संभव है तो यह पूरे ब्रह्मांड के साथ संभव है। जिसे संतों ने परमानंद कहा है। समाधि कहा है, वह पुरूष ओर प्रकृति के बीच गहन प्रेम की घटना है।
      हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍याग कर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।
      हम सदा अपने से मतलब रखते है। जब हम प्रेम में भी होते है तो अपने में ही उत्‍सुक होते है। यही कारण है कि प्रेम  एक विषाद बन जाता है। प्रेम स्‍वर्ग बन सकता है। लेकिन नर्क बन जाता है। क्‍योंकि प्रेमी भी अपने ही स्‍वार्थों में लगे होते है। दूसरे को इसलिए प्रेम किया जाता है क्‍योंकि वह तुम्‍हें सुख देता है। क्‍योंकि उसके साथ तुम्‍हें अच्‍छा लगता है। लेकिन दूसरे को तुमने ऐसे प्रेम नहीं किया। वह अपने आप में ही मूल्‍यवान हो। मूल्‍य तुम्‍हारी प्रसन्‍नता से आता है। एक तरह से तुम परितुष्‍ट होते हो। संतुष्‍ट होते हो। इसलिए दूसरा महत्‍वपूर्ण है। यह भी दूसरे का उपयोग करना ही है।
      आत्‍मचिंता का अर्थ है कि दूसरे का शोषण। और धार्मिक चेतना केवल तभी उतर सकती है जब स्‍वयं की चिंता खो जाए। क्‍योंकि तब तुम अ-शोषक हो जाते हो। अस्‍तित्‍व के साथ तुम्‍हारा संबंध शोषण का नहीं रहता। बल्‍कि बांटने का, आनंद का रह जाता है। न तुम किसी का उपयोग कर रहे हो, न कोई तुम्‍हारा उपयोग कर रहा हे। बस होने का उत्‍सव रह जाता है।
      लेकिन इस आत्‍मचिंता को दूर करना है—और वह बहुत गहरे में जमी हुई है। यह इतनी गहरी है कि तुम्‍हें उसका पता नहीं है। एक उपनिषद में कहा गया है कि पति अपनी पत्‍नी को पत्‍नी नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करता है। और मां अपने बेटे को बेटे के लिए नहीं, बल्‍कि अपने लिए प्रेम करती है। स्‍वार्थ की जड़ें इतनी गहरी है कि तुम जो भी करते हो अपने ही लिए करते हो। इसका अर्थ है कि तुम सदा अहंकार का ही पोषण कर रहे हो। तुम सदा अहंकार को, एक झूठे केंद्र को पोषित कर रहे हो। जो कि तुम्‍हारे और अस्‍तित्‍व के बीच बाधा बन गया है।
      स्‍वयं की चिंता छोड़ दो। यदि कभी कुछ क्षण के लिए भी तुम स्‍वयं की चिंता छोड़ सको और दूसरे से, दूसरे के अस्‍तित्‍व से जुड़ सको तो तुम एक भिन्‍न वास्‍तविकता में, एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर जाओगे। इसीलिए सेवा, प्रेम, करूणा पर इतना बल दिया जाता है। क्‍योंकि करूणा, प्रेम, सेवा का अर्थ है दूसरे से संबंध, अपने से नहीं।
       लेकिन देखो, मनुष्‍य का मन इतना चालाक है कि उसने सेवा, करूणा और प्रेम को भी स्‍वार्थ में बदल दिया है। ईसाई मिशनरी सेवा करता है और अपनी सेवाओं में ईमानदार होता है। वास्‍तव में कोई और इतनी गहनता और लगन से सेवा नहीं कर सकता जितना कि एक ईसाई मिशनरी। कोई हिंदू, कोई मुसलमान ऐसा नहीं  कर सकता। क्‍योंकि जीसस ने सेवा पर बहुत बल दिया है। एक ईसाई मिशनरी गरीबों की, बीमारों की, रोगियों कि सेवा कर रहा है। लेकिन गहरे में उसे अपने से ही मतलब है। उन लोगों से कोई लेना देना नहीं है। यह सेवा बस स्‍वर्ग पहुंचने का एक उपाय है। उसे उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। बस अपने स्‍वार्थ से मतलब है। सेवा से श्रेष्‍ठ जीवन पा सकता है। इसलिए वह सेवा कर रहा है। लेकिन वह मूल बात ही चूक जाता है। क्‍योंकि सेवा का अभिप्राय है दूसरे को महत्‍व देना, दूसरा केंद्र है और तुम परिधि बन गए।
      कभी ऐसा करके देखो। किसी को केंद्र बना लो। फिर उसका सुख तुम्‍हारा सुख हो जाता है। उसका दुःख तुम्‍हारा दुःख हो जाता है। जो भी होता है। उसको होता है लेकिन तुम तक प्रवाहित होता है। वह केंद्र है। यदि एक बार बस एक बार भी तुम अनुभव कर सको कि कोई और तुम्‍हारा केंद्र है। और तुम उसकी परिधि बन गए हो, तो तुम एक भिन्‍न अस्‍तित्‍व में अनुभव के एक भिन्‍न आयाम में प्रवेश कर गए। क्‍योंकि उस क्षण तुम एक गहन आनंद अनुभव करोगे। जो पहले कभी नहीं जाना होगा। पहले कभी महसूस न किया होगा। तुम स्‍वर्ग में प्रवेश कर गए।
            ऐसा क्‍यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्‍योंकि अहंकार दुःख का मूल है। यदि तुम उसे भूल सको, उसे मिटा सको तो सभी दुःख उसी के साथ मिट जाते है।
      हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।
      वृक्ष बन जाओ, नदी बन जाओ, पति बन जाओ। बच्‍चा बन जाओ। मां बन जाओ, मित्र बन जाओ—इसका जीवन के हर क्षण में अभ्‍यास किया जा सकता है। लेकिन शुरू में यह कठिन होगा। तो कम से कम इसे एक घंटा रोज करो। उस एक घंटे में तुम्‍हारे करीब से जो भी गूजरें, वही बन जाओ। तुम सोचोगे कि यह कैसे हो सकता है। इसे जानने का और कोई उपाय नहीं है। तुम्‍हें करके ही देखना पड़ेगा।
      किसी वृक्ष के साथ बैठो और महसूस करो कि तुम वृक्ष बन गए हो। और जब हवा चलती है तो और पूरा वृक्ष डोलता है, झूमता है, तो उस कंपन को अपने भीतर महसूस करो। जब सूरज उगता है और पूरा वृक्ष जीवंत हो जाता है, तो उस जीवंतता को अपने भीतर महसूस करो। जब वर्षा होती है और पूरा वृक्ष संतुष्‍ट और तृप्‍त हो जाता है, एक लंबी प्‍यास, एक लंबी प्रतीक्षा समाप्‍त हो जाती है। और वृक्ष परितृप्‍त हो जाता है, तो वृक्ष के साथ तृप्‍त और संतुष्‍ट अनुभव करो। और जब तुम वृक्ष के सूक्ष्‍म भाव-भंगिमाओं के प्रति सजग हो जाओगे।
      तुम उस वृक्ष को अभी तक कई वर्षों से देखते रहे हो, पर तुम उसके भावों को नहीं जान पाए। कभी वह प्रसन्‍न होता है; कभी दुःखी होता है; कभी उदास, संतप्‍त, चिंतित, व्‍यथित होता है; कभी बहुत आनंदित और अहोभाव से भरा होता है, उसके भाव होते है। वृक्ष जीवंत है और महसूस करता है। और यदि तुम उसके साथ एक हो जाओ तो तुम भी वे अनुभव ले सकते हो। तब तुम अनुभव कर पाओगे कि वृक्ष जवान है या बूढ़ा। वृक्ष अपने जीवन से संतुष्‍ट है या नहीं। वृक्ष अस्‍तित्‍व के साथ प्रेम में है या नहीं। या कि विरूद्ध है, विपरीत है। क्रोधित है; वृक्ष हिंसक है या उसमे गहन करूणा है। जैसे तुम हर क्षण बदल रह हो वैसे ही वृक्ष भी हर क्षण बदल रहा है। यदि तुम उसके साथ गहन आत्‍मीयता अनुभव कर सको, जिसे समानुभूति कहते है....।
      समानुभूति का अर्थ है तुम किसी के साथ इतनी सहानुभूति से भर जाओ। कि उसके साथ ही हो जाओ। वृक्ष के भाव तुम्‍हारे भाव हो जाएं। और यदि वह गहरे से गहरा होता चला जाए तो तुम वृक्ष से बात भी कर सकते हो। एक बार तुम्‍हें उसकी भाव दशाओं का पता लगना शुरू हो जाए तो तुम उसकी भाषा समझना शुरू कर सकते हो। और वृक्ष अपने मन की बातें तुम्‍हें बताने लगेगा। अपने सुख-अपने दुख, वह तुम्‍हारे साथ बांटने लगेगा।
      और यह पूरे जगत के साथ हो सकता है।  
      हर रोज कम से कम एक घंटे के लिए किसी भी चीज के साथ समानुभूति में चले जाओ। शुरू में तो तुम्‍हें लगेगा तुम पागल हो रहे हो। तुम सोचोगे, मैं किस तरह की मूर्खता कर रहा हूं?’ तुम चारों और देखोगें और महसूस करोगे कि यदि कोई देख ले या किसी को पता लग जाए तो वह सोचेगा कि तुम पागल हो गए हो। लेकिन केवल शुरू में ही ऐसा होगा। एक बार समानुभूति के इस जगत में तुम प्रवेश कर जाओ तो सारा संसार तुम्‍हें पागल नजर आयेगा। वे लोग बेकार में ही इतना चूक रहे है। क्‍योंकि वे बंद है। वे जीवन को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देते। और जीवन तुममें केवल तभी प्रवेश कर सकता है जब कई-कई मार्गों से, कई-कई आयामों से तुम जीवन में प्रवेश करो। कम से कम एक घंटा हर रोज समानुभूति को साधो।
      प्रांरभ में हर धर्म की प्रार्थना का यही अर्थ था। प्रार्थना का अर्थ था ब्रह्मांड के साथ होना, ब्रह्मांड के साथ गहन संवाद में होना। प्रार्थना का अर्थ है पूर्णता। कभी तुम परमात्‍मा से नाराज हो सकते हो। कभी धन्‍यवाद दे सकते हो, पर एक बात पक्‍की है कि तुम संवाद में हो। परमात्‍मा केवल एक बौद्धिक धारणा नहीं रही। एक गहन और घनिष्‍ठ संबंध हो गया। प्रार्थना का यही अर्थ है।
      लेकिन हमारी प्रार्थनाएं सड़ गल गई है। क्‍योंकि हमें तो यह भी नहीं पता कि प्राणियों से कैसे जुड़े। तुम किसी प्राणी से नहीं जुड़ सकते। तुम्‍हारे लिए यह असंभव है। यदि तुम किसी वृक्ष से नहीं जुड़ सकते तो पूरे अस्‍तित्‍व के साथ कैसे जुड़ सकते हो। और यदि एक वृक्ष से बात नहीं कर सकते, तुम्‍हें पागलपन लगता है। तो परमात्‍मा से बात करना और भी ज्‍यादा पागलपन लगेगा।
      मन की प्रार्थना पूर्ण दशा के लिए हर रोज एक घंटा अलग से निकाल लो और अपनी प्रार्थना को शब्‍दिक मत बनाओ। उसमे भाव भरो। खोपड़ी से बोलने की बजाय अनुभव करो। जाओ और वृक्ष को छुओ। उसे गले लगाओ। चूमो; अपनी आंखें बंद कर लो और वृक्ष के साथ ऐसे हो जाओ जैसे तुम अपनी प्रेमिका के साथ हो। उसे महसूस करो। और शीध्र ही तुम्‍हें एक गहन बोध होगा कि अपने आप को छोड़ कर दूसरा बन जाने का क्‍या अर्थ है।
      हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।

 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
प्रवचन-77

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