पहली
विधि:
अपने
निष्क्रिय
रूप को त्वचा
की दीवारों का
एक रिक्त
कक्ष मानो—सर्वथा
रिक्त।
अपने निष्क्रिय
रूप को त्वचा
की दीवारों का
एक रिक्त
कक्ष मानो—लेकिन
भीतर सब कुछ
रिक्त हो। यह
सुंदरतम
विधियों में
से एक है।
किसी भी ध्यानपूर्ण
मुद्रा में,
अकेले, शांत होकर
बैठ जाओ। तुम्हारी
रीढ़ की हड्डी
सीधी रहे और
पूरा शरीर विश्रांत,
जैसे कि सारा
शरीर रीढ़ की
हड्डी पर टंगा
हो। फिर अपनी
आंखें बंद कर
लो। कुछ क्षण
के लिए
विश्रांत, से
विश्रांत
अनुभव करते
चले जाओ।
लयवद्ध होने
के लिए कुछ
क्षण ऐसा करो।
और फिर अचानक
अनुभव करो कि
तुम्हारा
शरीर त्वचा
की दीवारें
मात्र है और
भीतर कुछ भी
नहीं है। घर
खाली है, भीतर कोई
नहीं है। एक
बार तुम
विचारों को
गुजरते हुए देखोंगे,
विचारों के मेघों
को विचरते
पाओगे। लेकिन
ऐसा मत सोचो
कि वे तुम्हारे
है। तुम हो ही
नहीं। बस ऐसा
सोचो कि वे रिक्त
आकाश में घूम
हुए आधारहीन
मेध है, वे
तुम्हारे
नहीं है। वे
किसी के भी
नहीं है। उनकी
कोई जड़ नहीं
है।
वास्तव
में ऐसा ही है:
विचार केवल
आकाश में धूमते
मेघों के समान
है। न तो उनकी
कोई जड़ें है, न
आकाश से उनका
कोई संबंध है।
वे बस आकाश
में इधर से
उधर धूमते
रहते है। वे
आते है और चले
जाते है। और
आकाश अस्पर्शित,
अप्रभावित
बना रहता है।
अनुभव करो कि
तुम्हारा
शरीर लय, पुराने
सहयोग के कारण
विचार आते
रहेंगे। लेकिन
इतना ही सोचो
कि वे आकाश
में धूमते
हुए आधारहीन
मेध है। वे
तुम्हारे
नहीं है, वे किसी के
भी नहीं है।
भीतर कोई भी
नहीं है जिससे
वे संबंधित
हों, तुम तो रिक्त
हो।
यह कठिन
होगा, लेकिन केवल
पुरानी आदतों
के कारण कठिन
होगा। तुम्हारा
मन किसी विचार
को पकड़कर
उससे जुड़ना
चाहते है।
उसके साथ बहना,
उसका आनंद
लेना, उसमें रमना
चाहेगा।
थोड़ा रूको।
कहो कि न तो यहां
बहने के लिए
कोई है, न लड़ने के
लिए कोई है, इस
विचार के साथ
कुछ भी करने
के लिए कोई
नहीं है।
कुछ ही
दिनों में, या
कुछ हफ्तों
में, विचार कम हो
जाएंगे। वे
कम-से कम होते
जाएंगे। बादल छंटने
लगेंगे, या यदि वे आंएके भी
तो बीच-बीच
में मेध-रहित
आकाश के बड़े
अंतराल होंगे
जब कोई विचार
न होगा। एक
विचार गुजर
जाएगा, फिर कुछ समय
के लिए दूसरा
विचार नहीं
आएगा। फिर
दूसरा विचार
आयेगा और
अंतराल होगा।
उन अंतरालों
में ही तुम
पहली बार जानोगे
कि रिक्तता
क्या है। और
उसकी एक झलक
ही तुम्हें
इतने गहन आनंद
से भर जाएगी
कि तुम कल्पना
भी नहीं सकर
सकते।
असल में,
इसके बारे में
एक भी कहना
असंभव है, क्योंकि
भाषा में जो
भी कहा जाएगा
वह तुम्हारी
और इशारा
करेगा और तुम
हो ही नहीं।
यदि में कहूं
कि तुम सुख से
भर जाओगे तो
यह बेतुकी बात
होगी। तुम तो
होगे ही नहीं।
तो मैं कैसे
कह सकता हूं
कि तुम सूख से
भी जाओगे?
सुख होगा।
तुम्हारी त्वचा
की चार दीवारी
में आनंद का
स्पंदन
होगा। लेकिन
तुम नहीं
होओगे? एक गहन मौन
तुम पर उतर
आयेगा। क्योंकि
यदि तुम ही नहीं
हो तो कोई भी
अशांति पैदा
नहीं कर सकता।
तुम सदा
यही सोचते हो
कि कोई और
तुम्हें
अशांत कर रहा
है। सड़क से
गुजरते हुए
ट्रैफिक की
आवाज, चारों और
खेलते हुए बच्चे,
रसोईघर में
काम करती हुई
पत्नी—हर कोई
तुम्हें
अशांत कर रहा
है।
कोई तुम्हें
अशांत नहीं कर
रहा है, तुम ही
अशांति के
कारण हो। क्योंकि
तुम हो इसलिए
कुछ भी तुम्हें
अशांत कर सकता
है। यदि तुम
नहीं हो तो
अशांति आएगी और
तुम्हारी
रिक्तता को
बिना छुए गुजर
जाएगी। तुम
ऐसे हो कि सब कुछ
बहुत जल्दी
तुम्हें छू
जाता है। एक
घाव जैसे हो;
कुछ भी तुम्हें
तत्क्षण चोट
पहुंचा जाता
है।
मैंने एक
वैज्ञानिक
कहानी सुनी
है। तीसरे विश्वयुद्ध
के बाद ऐसा
हुआ कि सब मर
गए, अब पृथ्वी
पर कोई भी
नहीं था बस
वृक्ष और
पहाड़ियां ही
बची थी। एक
बड़े वृक्ष ने
सोचा कि चलो
खूब शोर करूं।
जैसा कि वह
पहले किया
करता था। वह
एक बड़ी चट्टान
पर गिर पडा जो
भी किया जा
सकता था उसने
सब किया।
लेकिन कोई शोर
नहीं हुआ। क्योंकि
शोर के लिए
तुम्हारे
कानों की
जरूरत होती
है। आवाज के
लिए तुम्हारे
कानों की
जरूरत है। यदि
तुम नहीं हो
तो आवाज पैदा
नहीं की जा
सकती है। यह
असंभव है।
मैं यहां
बोल रहा हूं।
यदि कोई न हो
तो मैं बोलता
रह सकता हूं।
लेकिन आवाज
पैदा नहीं
होगी। लेकिन
मैं आवाज पैदा
कर सकता हूं
क्योंकि मैं
स्वयं तो उसे
सुन ही सकता
है। यदि सुनने
के लिए कोई भी
न हो ता आवाज
पैदा नहीं की
जा सकती। क्योंकि
आवाज तुम्हारे
कानों की
प्रतिक्रिया
है।
यदि पृथ्वी
पर कोई भी न हो
तो सूरज उग
सकता है।
लेकिन प्रकाश
नहीं होगा। यह
बात अजीब लगती
है। हम ऐसा सोच
भी नहीं सकते
क्योंकि हम
तो सदा ही
सोचते है कि
सूरज उगेगा और
प्रकाश हो
जाएगा। लेकिन
तुम्हारी
आंखें चाहिए,
तुम्हारी
आंखों के बिना
सूरज प्रकाश
पैदा नहीं कर
सकता। वह उगता
रह सकता है।
लेकिन सब व्यर्थ
होगा। क्योंकि
उसकी किरणें
रिक्तता से
ही गुजरेंगी।
कोई भी नहीं
होगा। जो
प्रतिक्रिया
कर सके और कह
सके कि यह
प्रकाश है।
प्रकाश
तुम्हारी
आंखों के कारण
है। तुम
प्रतिक्रिया
करते हो। ध्वनि
तुम्हारे
कानों के कारण
है। तुम
प्रतिक्रिया
करते हो। तुम
क्या सोचते
हो, किसी बगीचे
में एक गुलाब
का फूल खिला है,
लेकिन यदि उधर
से कोई भी न गुजरे
तो क्या
उसमें सुगंध
होगी। अकेला
गुलाब ही
सुगंध पैदा
नहीं कर सकता।
तुम और तुम्हारी
नाक जरूरी है।
कोई होना
चाहिए जो
प्रतिक्रिया
कर सके और कह
सके कि यह
सुगंध है, यह
गुलाब है।
चाहे गुलाब
कितनी ही
कोशिश करे,
बिना किसी नाक
के वह गुलाब न
होगा।
तो अशांति
वास्तव में
सड़क पर नहीं
है। वह तुम्हारे
अहंकार में
है। तुम्हारा
अहंकार
प्रतिक्रिया
करता है। यह
तुम्हारी व्याख्या
है। कभी किसी
दूसरी स्थिति
में तुम उसका
आनंद भी ले
सकते हो। तब
वह अशांति
नहीं होगी।
किसी दूसरे
मनोभव में तुम
उसका आनंद
लोगे और तब
तुम कहोगे, ‘कितना
सुंदर, क्या
संगीत है।’
लेकिन किसी
उदासी के क्षण
में संगीत भी अशांति
बन जाएगा।
लेकिन यदि तु नहीं हो, बस
एक स्पेस है, एक
रिक्तता है, तब
न तो अशांति
हो सकती है न
संगीत। सब कुछ
बस तुमसे होकर
गुजर जाएगा,बिलकुल
अनजाना, क्योंकि
अब कोई घाव
नहीं है। जो
प्रतिक्रिया
करे, भीतर
कोई नहीं है।
जो प्रत्युत्तर
दे; किसी
अहंकार का
निर्माण भी
नहीं होगा।
इसी को बुद्ध
निर्वाण कहते
है।
और
यह विधि तुम्हारी
सहायता कर
सकती है।
अपने
निष्क्रिय
रूप को त्वचा
की दीवारों का
एक रिक्त
कक्ष मानो—सर्वथा
रिक्त।
किसी
भी निष्क्रिय
अवस्था में
बैठ जाओ, कुछ
भी न करो क्योंकि
जब भी तुम कुछ
करते हो तो
कर्ता बीच में
आ जाता है।
वास्तव में
कोई कर्ता
नहीं है। केवल
क्रिया के
कारण ही तुम
समझते हो कि
कर्ता है।
बुद्ध को समझ
पाना इसीलिए
कठिन है। केवल
भाषा के कारण
ही समस्याएं
खड़ी हुई है।
हम
कहते है कि व्यक्ति
चल रहा है।
यदि हम इस
वाक्य का
विश्लेषण
करें तो इसका
अर्थ हुआ कि
कोई है जो चल
रहा है। लेकिन
बुद्ध कहते है
कि कोई चल
नहीं रहा,बस
चलने की
क्रिया हो रही
है। तुम हंस
रहे हो। भाषा
के कारण ऐसा
लगता है कि
जैसे कोई है
जो हंस रहा
है। बुद्ध
कहते है कि
हंसी तो हो
रही है। लेकिन
भीतर कोई नहीं
है जो हंस रहा
है।
जब
तुम हंसते हो,
इसे स्मरण
करो और खोजा
कि कौन हंसता
है। तुम कभी
किसी को न
पाओगे। बस
हंसी मात्र है, उसके पीछे
कोई हंसने
वाला नहीं है।
जब तुम उदास
हो तो भीतर
कोई नहीं है
जो उदास है, बस उदासी
है। उसको
देखो। बस
उदासी है। यह
एक प्रक्रिया
है: हंसी,सुख, दुःख;
इनके पीछे कोई
मौजूद नहीं
है।
केवल
भाषा के कारण
ही हम द्वैत
में सोचते है।
यदि कुछ होता
है तो हम कहते
है कि कोई
होना चाहिए
जिसने किया,कोई
कर्ता होना
चाहिए। हम
क्रिया को
अकेले नहीं
सोच सकते है।
लेकिन क्या
कभी तुमने
कर्ता को देखा
है। क्या
तुमने उसे कभी
देखा है जो
हंसता है।
बुद्ध
कहते है कि
जीवन है, जीवन
की प्रक्रिया
है, लेकिन
भीतर कोई भी
नहीं है जो
जीवंत है। और
फिर मृत्यु
होती है।
लेकिन कोई
मरता नहीं है।
बुद्ध के लिए
तुम बंटे हुए
नहीं हो। भाषा
द्वौत
निर्मित करती
है। मैं बोल
रहा हूं। ऐसा
लगता है कि
मैं कोई हूं
जो बोल रहा
है। लेकिन
बुद्ध कहते है
कि केवल बोलना
हो रहा है।
बोलने वाला
कोई नहीं है।
यह एक प्रक्रिया
है। जो किसी
से संबंधित
नहीं है।
लेकिन
हमारे लिए यह
कठिन है। क्योंकि
हमारा मन
द्वैत में
गहरा जमा हुआ
है। हम जब भी
किसी क्रिया
की बात सोचते
है तो हम भीतर किसी
कर्ता के बारे
में सोचते है।
यही कारण है
कि ध्यान के
लिए कोई शांत,
निष्क्रिय
मुद्रा अच्छी
है क्योंकि
तब तुम खालीपन
में अधिक
सरलता से उतर
सकते हो।
बुद्ध
कहते है, ‘ध्यान
करो मत, ध्यान
में होओ।’
अंतर
बड़ा है। मैं
दोहराता हूं,
बुद्ध कहते है, ध्यान करो
मत, ध्यान
में होओ।‘
क्योंकि यदि
तुम ध्यान
करते हो तो
कर्ता बीच में
आ गया। तुम
यही सोचते
रहोगे कि तुम
ध्यान कर रहे
हो। तब ध्यान
एक कृत्य बन
गया। बुद्ध
कहते है,
ध्यान में
होओ। इसका
अर्थ है पूरी
तरह निष्क्रिय
हो जाओ। कुछ
भी मत करो। मत
सोचो कि कहीं कोई
कर्ता है।
इसीलिए
कई बार जब
कर्ता क्रिया
में खो जाता
है तो तुम अचानक
सुख कर एक स्फुरण
अनुभव करते
हो। ऐसा
इसीलिए होता
है क्योंकि
तुम क्रिया
में खो गए।
नृत्य में
ऐसा एक क्षण
आता है जब
नृत्य रह
जाता है। और
नर्तक खो जाता
है। तब तत्क्षण
एक आशीर्वादा
एक सौंदर्य एक
आनंद बरस उठता
है। नर्तक एक
अज्ञात आनंद
से भर जाता
है। वहां क्या
हुआ। केवल
क्रिया ही रह
गई और कर्ता
विलीन हो गया।
युद्ध
भूमि में
सैनिक कई बार
बड़े गहन आनंद
को उपलब्ध हो
जाते है। यह
सोच पाना भी
कठिन है क्योंकि
वे मृत्यु के
इतने निकट
होते है कि
किसी भी क्षण
वे मर सकते
है। शुरू-शुरू
में तो वह
भयभीत हो जाते
है, भय से
कांपते है,
लेकिन तुम
रोज-रोज
लगातार
कांपते और
भयभीत नहीं
रहा सकते।
धीरे-धीरे आदत
पड़ जाती है।
मनुष्य मृत्यु
को स्वीकार
कर लेता है, तब भय समाप्त
हो जाता है।
और
जब मृत्यु
इतनी करीब हो
और जरा सी चूक
से मृत्यु
घटित हो सकती
है तो कर्ता
भूल जाता है
और केवल कर्म
रह जाता है।
केवल क्रिया
रह जाती है।
और वे क्रिया
में इतने गहरे
डूब जाते है
कि वे सतत याद
नहीं रख सकते
कि ‘मैं हूं’।
और ‘मैं
हूं’ तो
परेशानी खड़ी
करेगा। तुम
चूक जाओगे तुम
क्रिया में
पूरे नहीं हो
पाओगे। और
जीवन दांव पर
लगा है। इसलिए
तुम द्वैत को
नहीं ढो सकते।
कृत्य समग्र
हो जाता है।
और जब भी कृत्य
समग्र होता है
तो अचानक तुम
पाते हो कि
तुम इतने
आनंदित हो
जितने तुम
पहले कभी भी न
थे।
योद्धाओं
ने आनंद के
इतने गहरे
झरनों का अनुभव
किया है जितना
कि साधारण
जीवन तुम्हें
कभी नहीं दे
सकता। शायद
यही कारण हो
कि युद्ध इतने
आकर्षित करते
है। और शायद
यही कारण हो
कि क्षत्रिय
ब्राह्मणों
से अधिक मोक्ष
को उपलब्ध
हुए है। क्योंकि
ब्राह्मण
हमेशा सोचते
ही रहते है,
बौद्धिक
ऊहापोह में
उलझे रहते है।
जैनों के चौबीस
तीर्थकर राम, कृष्ण,
बुद्ध, सभी
क्षत्रिय
योद्धा थे।
उन्होंने
उच्चतम शिखर
को छुआ है।
किसी
दुकानदार को
कभी इतने ऊंचे
शिखर छूते नहीं
सूना होगा। वह
इतनी सुरक्षा
में जीता है
कि वह द्वैत
में जी सकता
है। वह जो भी
करता है कभी
पूरा-पूरा
नहीं होता।
लाभ कोई समग्र
कृत्य नहीं
हो सकता तुम
उसका आनंद ले
सकते हो,
लेकिन वह कोई
जीवन मृत्यु
का सवाल नहीं
हो सकता। तुम
उसके साथ खेल
सकते हो।
लेकिन कुछ भी
दांव पर नहीं
लगा है। वह एक
खेल है।
दुकानदारी एक
खेल ही है। धन
का खेल है।
खेल कोई बहुत
खतरनाक बात
नहीं है।
इसलिए दुकानदार
सदा कुनकुना
रहता है। एक
जुआरी भी
दुकानदार से
अधिक आनंद को
उपलब्ध हो
सकता है। क्योंकि
जुआरी खतरे
में उतरता है।
उसके पास जो कुछ
है वह दांव पर
लगा देता है।
पूरे दांव के
उस क्षण में
कर्ता खो जाता
है।
शायद
यही कारण है
कि जुए में
इतना आकर्षण
है, युद्ध में
इतना आकर्षण
है। जहां तक
मैं समझता हूं,जो भी कुछ
आकर्षण है
कहीं उसके
पीछे कुछ आनंद
भी छिपा होगा।
कहीं अज्ञात
का कोई इशारा
छिपा होगा।
कहीं जीवन के
गहन रहस्य की
झलक छिपी
होगी। अन्यथा
कुछ भी आकर्षण
नहीं हो सकता।
निष्क्रियता.....ओर
ध्यान में
तुम जो मुद्रा
लो वह शांत
होना चाहिए।
भारत में हमने
सबसे निष्क्रिय
आसन, सबसे शांत
मुद्रा
विकसित की है।
सिद्धासन। और
इसका सौंदर्य
यह है कि
सिद्धासन की
मुद्रा में
जिसमें बुद्ध
बैठे है। शरीर
गहनतम
निष्क्रियता
की अवस्था
में होता है।
लेट कर भी तुम
इतने क्रिया
शून्य नहीं
होते। सोते
समय भी तुम्हारी
मुद्रा निष्क्रिय
नहीं होती,
क्रियाशील
होती है।
सिद्धासन
इतना शांत क्यों
होता है? कई
कारण है। इस
मुद्रा में
शरीर की
विद्युत ऊर्जा
एक वर्तुल में
घूमती है। शरीर
का एक
विद्युतीय
वर्तुल होता
है: जब वर्तुल
पूरा हो जाता
है तो ऊर्जा
शरीर में चक्राकर
घूमने लगती
है। बाहर नहीं
निकलती। अब यह
वैज्ञानिक
रूप से सिद्ध
तथ्य है कि
कई मुद्राओं
में तुम्हारे
शरीर से ऊर्जा
बाहर निकलती
रहती है। जब शरीर
ऊर्जा को बाहर
फेंकता है तो
उसे लगातार ऊर्जा
पैदा करना
पड़ती है। वह
सक्रिय रहता
है। शरीर
तंत्र को
लगातार कार्य
करना पड़ता है
क्योंकि तुम
ऊर्जा फेंक रह
हो। जब ऊर्जा
शरीर तंत्र से
बाहर निकल रहा
है तो उसे
पूरा करने के
लिए भीतर से
शरीर को
सक्रिय होना
पड़ता है। तो सबसे
शांत मुद्रा
वह होगी जब
कोई ऊर्जा
बाहर नहीं
निकल रही हो।
अब
पाश्चात्य
देशों में,
विशेषकर इंग्लैंड
में वे
रोगियों का
इलाज उनके
शरीर के
विद्युतीय
वर्तुल बनाकर
करने लगे है।
कई अस्पतालों
में इन
विधियों का
उपयोग होता
है। और वे
बहुत सहयोगी
है। व्यक्ति
फर्श पर तारों
के एक जाल में
लेट जाता है।
तारों का वह
जाल बस उसके
शरी की
विद्युत का एक
वर्तुल बनाने
के लिए होता
है। बस आधा
घंटा ही
पर्याप्त है—और
वह इतना
विश्रांत,इतना
ऊर्जा से भरा
हुआ, इतना
शक्तिशाली
अनुभव करेगा
कि वह विश्वास
भी नहीं कर
पाएगा। कि जब
वह आया तो
इतना कमजोर
था।
सभी
पुरानी सभ्यताओं
में लोग रात
को एक विशेष
दिशा में सोते
थे। ताकि
ऊर्जा बाहर न
बहे। क्योंकि
पृथ्वी में
एक चुंबकीय
शक्ति है। उस
चुंबकीय शक्ति
का उपयोग करने
के लिए तुम्हें
एक विशेष दिशा
में लेटना
पड़ेगा। तब
पृथ्वी की
शक्ति सारी
रात तुम्हें
चुंबकत्व में
रखेगी। यदि
तुम इससे
विपरीत लेटे
हुए हो तो वह
शक्ति तुमसे
संघर्ष में
रहेगी और तुम्हारी
ऊर्जा नष्ट
होगी।
कई
लोग सुबह बड़ा
तनाव, बड़ी
कमजोरी अनुभव
करते है। ऐसा
होना नहीं चाहिए, क्योंकि
नींद तुम्हें
तरो-ताजा करने
के लिए,
तुम्हें
अधिक ऊर्जा
देने के लिए
है। लेकिन कई
लोग है जो रात
सोते समय
ऊर्जा से भरे
होते है। पर सुबह
वे लाश की तरह
होते है। इससे
कई कारण हो
सकते है,
पर यह भी
उनमें से एक
कारण हो सकता
है। वे गलत दिशा
में सोए है।
यदि वे पृथ्वी
के चुंबकत्व
के विपरीत
लेटे हुए है
तो वे
बुझा-बुझा
महसूस
करेंगे।
तो
अब वैज्ञानिक
कहते है कि
शरीर का अपना
एक विद्युत
यंत्र है और
ऐसे आसन हो
सकते है
जिनमें ऊर्जा
संरक्षित हो।
और उन्होंने
सिद्धासन में
बैठे हुए कई
योगियों का अध्यन
किया है। उस
अवस्था में
शरीर न्यूनतम
ऊर्जा बाहर
फेंकता हे।
ऊर्जा
संरक्षित
रहती है। जब
ऊर्जा
संरक्षित
होती है तो
आंतरिक यंत्रो
को कार्य नहीं
करना पड़ता।
किसी क्रिया
की कोई जरूरत
ही नहीं रहती।
इसलिए शरीर
अक्रिय होता
है। इस अक्रियता
में तुम
सक्रिय अवस्था
में अधिक रिक्त
हो सकते हो।
इस
सिद्धासन की मुद्रा
में तुम्हारी
रीढ़ की हड्डी
और पूरा शरीर
सीधा होता है।
अब कई अध्ययन
हुए है। जब
तुम्हारा
शरीर पूरी तरह
सीधा होता है
तो तुम पृथ्वी
के गुरूत्वाकर्षण
से न्यूनतम
प्रभावित
होते हो। यही
कारण है कि जब
तुम किसी
असुविधाजनक
मुद्रा में
बैठते हो—जिसे
तुम
असुविधाजनक
कहते हो—वह
असुविधाजनक
इसीलिए होती
है क्योंकि
तुम्हारा
शरीर अधिक
गुरूत्वाकर्षण
से प्रभावित
हो रहा है।
यदि तुम सीधे बैठे
हुए हो तो
गुरूत्वाकर्षण
न्यूनतम
प्रभावी होता
है। क्योंकि
वह मात्र तुम्हारी
रीढ़ को खींच
सकता है। और
कुछ भी नहीं।
इसीलिए
तो खड़े रहकर
सोना कठिन है।
शीर्षासन में,
सिर के बल
खड़े होकर
सोना तो लगभग
असंभव ही हे।
सोने के लिए
तुम्हें
लेटना पड़ता
है। क्यों? क्योंकि
तब धरती का
खिंचाव तुम पर
अधिकतम होता
है। और अधिकतम
खिंचाव तुम्हें
अचेतन कर देता
है। न्यूनतम
खिंचाव तुम्हें
जगाता है।
अधिकतम
खिंचाव अचेतन
कर देता है।
सोने के लिए
तुम्हें
लेटना पड़ता
है। ताकि पृथ्वी
का गुरूत्वाकर्षण
तुम्हारे
सारे शरीर को
छुए और उसकी
प्रत्येक
कोशिश को
खींचे। तब तुम
अचेतन हो जाते
हो।
पशु
मनुष्य से
अधिक अचेतन होते
है। क्योंकि
वे सीधे खड़े
नहीं हो सकते।
विकासवादी, इवोल्यूशनिस्ट
कहते है कि
मनुष्य
इसीलिए
विकसित हो सका
क्योंकि वह
दो पांवों
पर सीधा खड़ा
हो सका।
गुरूत्वाकर्षण
का खिंचाव कम
होने के कारण
वह थोड़ा अधिक
चैतन्य हो
गया।
सिद्धासन
में गुरूत्वाकर्षण
शक्ति न्यूनतम
होती है। शरीर
निष्क्रिय
और
क्रिया-रहित
होता है। भीतर
से बंद होता
है। स्वयं
में एक संसार
बन जाता है। न
कुछ बाहर जाता
है, न कुछ भीतर
आता है। आंखें
बंद है। हाथ जुड़े
हुए है, पाँव
जुड़े हुए है—ऊर्जा
वर्तुल में गति
करती है। और जब
भी ऊर्जा वर्तुल
में गति करती है।
वह एक आंतरिक लय
एक आंतरिक संगीत
निर्मित करती है।
जितना तुम उस संगीत
को सुनते हो, उतने ही तुम विश्रांत
अनुभव करते हो।
‘अपने
निष्क्रय रूप
को त्वचा की दीवारों
का एक रिक्त कक्ष
मानो—बिलकुल जैसे
कोई खाली कमरा
होता है—सर्वथा
रिक्त।’
उस
रिक्तता में गिरते
जाओ। एक क्षण आएगा
जब तुम अनुभवकरोगे
कि सब कुछ समाप्त
हो गया। कि अब
कोई भी नहीं बचा।
घर खाली है, घर
का स्वामी मिट
गया, तिरोहित
हो गया। उस अंतराल
में जब तुम नहीं
होओगे तो परमात्मा
प्रकट होगा। जब
तुम नहीं होते, परमात्मा होता
है। जब तुम नहीं
होते, आनंद
होता है। इसलिए
मिटने का प्रयास
करो। भीतर से मिटने
का प्रयास करो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-79
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें