(दसघरा की दस कहानियां)
भोला ये केवल एक नाम ही नहीं था। ये उस चलते-फिरते हाड़मांस के शरीर मैं उस व्यक्ति के व्यक्तित्व उसकी कोमलता, गरिमा, उसका माधुर्य उसके पोर-पोर से टपकता हुआ पाओगे। आप उसके सान्निध्य में एक अलग ही सुवास को महसूस करोगे। भोला की मनुष्यता, मानसिकता, महिमा या गरिमा उसके दैनिक छोटे बड़े कार्यों में देखी जा सकती थी। उसकी विशालता को मैंने उसके अंतिम चरण में एक बूढ़े होते वृक्ष के रूप में जाना था। उसका क्षीण होता शरीर भी बढ़ते उस अपूर्व सौन्दर्य को कम नहीं कर पर रहा था। परन्तु उसकी सुकोमलता व पारदर्शी स्फटिक गहरी झील में प्रतिबिम्बित दिख रही थे। उसके चेहरा जरूर झुरियां से भर गया था। परंतु अब भी उसमें एक सुकोमल ताजगी, एक जीवंतता साफ दिखाई देती थी। मानो एक विशाल वृक्ष का खुरदरापन और उबड़-खाबड़, रूखा पन भी अपने में एक अद्भुत आकर्षकता लिए हुए हो। जिस तरह से एक वृक्ष का सौन्दर्य केवल उसकी कोमलता ही नहीं बखानती और न जानी जा सकती है। उसकी पूर्णता उसके पल्लव-पल्लव से टपक कर, झूमती लता या इठलाते हुये पत्ते उसके रूप और आकर्षण की कहानी कह रहे थे।
रंग का साँवला, साधारण फूली नाक, परंतु मुंह के हिसाब से कान अधिक बड़े और लंबे थे। उसकी बोलती काली गहरी आँख, सफ़ेद कंधे तक लहराते केश, जो माथे के काफ़ी ऊपर तक काफी कम हो गए थे। उन्हें देख कर ऐसा लगता किसी हिमाच्छादित पर्वत के सौन्दर्य को पूर्णता देने के लिए ही ऐसा हुआ है। कई बार ऐसा भ्रम होता पर्वत की सुंदरता उसकी विशाल ऊंची चोटियों के कारण थी, या उसपर बिखरी शवेत धवलता के कारण गर्वित हो रही थी। कभी आप उसे खेतों में हल चलाते हुए, मंद्र लय से आगे चलते बैल, पीछे चलती बगुलों की कतार, उस समय आपको ऐसा लगेगा जैसे बादलों को कोई धरा पर संग साथ लिए चल रहा हो। और कभी रोंझ की छाँव मैं होंठों पर लगी मुरली से छिटकती तानें सारे वातावरण को मदहोश कर देती थी।
क्या पक्षी, क्या पशु, क्या मनुष्य और दूर क्षितिज पर चमकते चाँद तारे हो या सूर्य। सब उसकी बाँसुरी की तान सुन क्षण भर को अपना चलना ही भूल जाते थे। श्याम के समय, सूर्य तो मानो विदा ले रहा होता परन्तु उसकी किरणें दादा भोला की बांसुरी की तान सुन कर यही पेड़ पत्ते पर अटक-सिमट कर ठहर जाना चाहती थी। मानो वह दिन भर की थकान को बाँसुरी के सुरों में समेट कर अपने को ही ताज़ा नहीं कर रहा, पूरी प्रकृति को ही सहला-सुला रहा था। भोला दादा कि उन तानों को सुनने के लिए मानो क्षणिक समय की गति रूक गई हो। औरतें-बहुएं अपने सर के बोझ को भूल विमुग्ध सी, मुंह मैं पल्लू दबाए खड़ी की खड़ी रह जाती थी। गायें-भैंसे अपना चरना भूल कर ऐसे मूर्तिवत अवाक खड़ी हो जाती थी। मानो पल भर के लिए मुंह की घास को चबाना ही भूल गई हो। पक्षियों का चहकना, बहते पानी का कलरव, या हवा की गति कुछ देर के लिए विषमय, विमुग्ध हो ठहर जाती थी। उस समय मैंने देखा कैसे चारों और एक नीरव शान्ति गहरा जाती थी। जिससे फूल-पत्ते तक भी कुछ देर के लिए अपनी अठखेलियाँ करना भूल जाते थे।बचपन में जो छवि, मेरे बाल मन ने भोला दादा की देखी थी। वो मेरे अचेतन के गहरे में कहीं मूर्ति रूप बन बैठ गई थी। मेरी समझ बढ़ने के साथ-साथ वह रूप महान से महानतम होता चला गया था। उसकी गौरव-गरिमा, गर्वित इस विशालता नीले अंबर के तले इतना बड़ी हो गई थी, की चाह कर भी उस के अंतिम अदृश्य छोर को ना जान सका और न ही उसे छू सकता था। छोटा सा गाँव था हमारा, गिनती के उंगलियों पर गिने जाने वाले घर थे। गांव का रकबा बहुत बड़ा था इसलिए मनुष्य की कमी हमेशा खलती रहती थी। इतने थोड़े आदमियों से भला कोई काम चलता था। गांव के बुजुर्ग सोचते थे देखो भाई गाँव तो तभी पूर्ण होगा जब प्रत्येक जाती धर्म का इसकी शोभा बढ़ायेगा। दूर-दराज कहीं से भी किसी अन्य जाती धर्म का आ जाये बसने के तो उसका स्वागत होता था। उसे रहने के लिए घर की जगह, बोने जोतने के लिए खेते दिए जाते थे। पूरा गाँव उसके दुख-दर्द में हमेशा तैयार रहता था। आज भी हमारे गाँव दसघरा का पहला मकान नम्बर (डब्लू-जेड़-01) वह एक बाल्मीकी परिवार का है। आज आबादी की भीड़ ने अपनत्व और प्रेम को किसी कोने में धकेलती दिख रही थी। इसलिए ये बात एक अचरज भरी जरूर लगेगी। क्योंकि आज तो एक इंच जमीन के लिए भाई-भाई में बैर हो गया है। पहले कैसे प्रेम टपकता था, लोगों की आँखों और जबान से उसके ह्रदय से। जैसे महुआ से झरता रस अपने अतिशय को रोकना चाह कर भी नहीं रोक पा रहा हो। फूल खिलने के बाद क्या अपनी गंध को रोक-समेट सकता था। फैलना तो उसका स्वभाव है, ठीक ऐसे ही खिला हुआ मनुष्य कैसे रोके अपने प्रेम को। आज आप देखो गज भर लम्बे लटकते सपाट चेहरे। निर्जीव पथराई आंखें, सुकड़ा सिमटा जीवन एक सड़े हुए पोखर के समान हो गया है, इस मनुष्य का चित। नींद और तमस में चलते आदमी को देखो तो आप भयभीत हुये बिना नहीं रह सकोगे। कैसे आज का मनुष्य हर अपनी पराई वस्तु को पकड़ लेना चाहता है। गोया उसकी ये मुर्दा चाल लोगे के चार कंधों पर न चल रही है। अपने दो पैरो पर चलते देखा उत्सव आनंद उनमें कहीं दिखता ही नहीं। अपने सारे जीवन के दैनिक कार्य भी बड़ी सहजता से उसी तंद्रा में किए चले जाते है। ये भी एक चमत्कार है।
गाँव की जमीन सालों पहले अंग्रेजों ने अधिग्रहण कर ली थी। उस पर फायरिंग रेंज बनाने के बाद मीलों खाली जगह पड़ी रह गई थी। उसको बोने जोतने के लिये गाँव वालों को बटाई पर दे दिया जाता था। इस कारण सालों तक गाँव के लोगों को ये भान तक नहीं हुआ की हमारी जमीन नहीं रही। गोलियां चलती तब फौजी लाल झंडी लगा कर बैठे रहते परन्तु ये सब फर्ज अदायगी ही समझो। गोलियां चलती रहती बच्चे बेर खा रहे होते, जिसने खेतों में काम करना हो काम करता, न गोली से कोई डरता था, न गोली किसी को कोई नुकसान पहुँचाती थी। समतल जमीन के पास जो ऊंची पहाड़ी थी, उस पर गाँव बसा हुआ था। जहाँ तक नजर दौड़ाओगे सपाट मैदान, दूर दराज खेतों के किनारे उगते नीम, शीशम, पीपल के विशाल पेड़ ही नजर आयेंगे। उनकी छाँव मनुष्य और पशु पक्षियों आराम के लिए थे। खेती की जमीन के बीच से काट कर गुजरता गहरा बरसाती नाला था। जिसके दोनों किनारों पर खूब घनी डाब, शीशम और रोंझ के पेड़ उगे हुए थे। बरसात के दिनों में उसका उफान और वेग देख ह्रदय दहल जाता था। पूरी पहाड़ी ढलान के रिसाव का पानी उस नाले से होकर यमुना नदी में लीन होता था। अगर बरसात के समय आप नाले के उस पार के किनारे पर रह गये मजबूरन आपको घण्टों वही इन्तजार करना पड़ेगा। चरते जानवर भी जब उस पार रह जाते तो हिम्मत नहीं करते थे उसमें उतरने की आदमियों की क्या बिसात थी। आस पास उगी हुई नरम मुलायम घास-पात, झाड़-झंक्काड़ ही मिट्टी के कटाव को बचाये हुए थे। वरना तो अब तक कितनी खेती की जमीन को अपने कटाव के कारण निगल गया होता वह नाला। पहाड़ी पर खड़े हो कर खेतों के बीच से गुजरते नाले की आड़ी-तिरछी हरियाली की छोटी होती लकीर मन को मुग्ध कर देती थी। खेतों के उस छोर पर घने पेड़-पौधों का जंगल शुरू हो जाता था। वहीं गाँव की पुरानी खंडर नुमा टूटी-फूटी हवेली थी। जहां पहले गांव बसा था। वहीं मीठे पानी का एक कुआँ भी था। जो आज भी गांव के पीने के पानी का एकमात्र सहारा है। एक प्राचीन ज़र-ज़र बाँध की दीवार जिस पर अब जंगली पेड़ पौधों ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था। कभी खेतों की सिचाई के लिये बनवाया होगा उस बाँध के टूटे बिखरे पड़े वो खण्डहर ही इस गांव की विशालता की गवाही दे रहे थे। कितना सम्पन्न और खुशहाल रहा होगा ये गाँव जो बाँध तक बनाने में भी सक्षम था। दादा-भइयां जो गाँव के पूज्य ग्राम देवता थे, उनके लिए बना वहां एक मंदिर था। जो मंदिर ने कह कर अगर शिवालय कहे तो ज्यादा ठीक होगा। उसमें कोई मूर्ति स्थापित नहीं थी। आज भी अपनी भव्यता और शान को दर्शाता दिखाई दे रहा था। चारों तरफ़ उगे पेड़-पौधों के घने झुरमुट की छाँव, जंगली पक्षियों का चहचहाना वहाँ की शान्ति को और भी नीरव कर गहरा बना देती थी। न जाने किस आपदा-मुसीबत में गाँव वालों ने ये जगह छोड़ मीलों दूर पहाड़ी पर जा बसने का निर्णय लिया था। शायद जंगली जानवरों का भय या बाढ़ की मार रहीं होगी। गहरी खाई उबड़ खाबड़ पगडंडी, कटीली जंगली झाड़ी और सीधे खड़े चिकने पत्थर के कष्ट कारक रास्ते थे गाँव तक पहुँचने के लिये। ये कष्ट कंटक मार्ग अब सालों से लोगों का रोजाना आने-जाने के कारण साधारण से हो गए थे। आप इन रास्तों पर बच्चे, बूढ़े बड़े, औरतों और पशुओं के आदि को सरलता से चलता हुआ पाओगे। लेकिन जब किसी अंजान या कोई मेहमान आता तो यहीं रास्ते उसके लिये दुर्गम हो जाते थे। शायद गांव के लोगों इस सब के परिचित और आदि हो गए थे।
बरसाती पानी के बहाव से जब मिट्टी का कटाव होता, तब रास्ते बीच में नुकीले पत्थर निकल आते थे। आते-जाते बच्चे ही नहीं बड़े-बूढ़े भी उन से ठोकर खा उन्हें कोश-काश कर आगे बढ़ जाते थे। अगर नहीं बढ़ते केवल वह थे दादा भोला। सालों से उनका ये नियम था, घण्टों बैठ कर रास्ते का एक-एक पत्थर निकालते रहते थे। श्याम को खेत से लोटते हुये किस तन्मयता और लगन से वो ये काम करते हुए जब मैं उन्हें देखता तो अभिभूत हो निहारता रहता था। एक दिन में भी छुपा कर घर से एक छोटी सी हथौड़ी ले उनके साथ पत्थर निकालने लग गया था। परन्तु काम करते हुए मेरे मन में झिझक थी, एक लाज चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी। की कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। आते जाते लोगों की राम-राम चलती रहती दादा भोला के चेहरे पर ना कभी कोई शिकन न शिकायत। केवल एक उत्सव भाव झरता उनके गीतों की तान से। और हाथ अपना काम करते रहते थे। उस सहजता से, वो जब भी कोई काम कर रहे होते, हमेशा मधुर गीत-गाते गुनगुनाते रहते थे। पत्थर वो मुझे नहीं निकालने दे रहे थे। कहने लगे-‘’बेटा उँगली अभी कच्ची है, इसमें चोट लग जायेगी, तुम्हारी उंगलियां अभी कोमल है मुलायम है।‘’ उसके बाद मैं उनके निकाले पत्थर उठा-उठा कर रास्ते से हटाता रहता था। इतने छोटे बच्चे के मन में भी अहंकार था। जबकि अभी तो वो ना कुछ ही है, फिर दादा भोला के मन में ये अहंकार क्यों नहीं था। मेरे मन में यही विचार बार-बार चल रहा था। दादा भोला किस उत्सव, लगन, तन्मयता के भाव से आनन्द विभोर हो काम करते थे। सालों उलझी इस गुत्थी को मैं सुलझा पाया, जब मैंने बाबा बुलाकी राम (बुल्ला शाह) को पढ़ा और उनके बारे में जाना। उसकी मस्ती, गीत, आनन्द, बुल्ला शाह का ही बीज रूप भोला दादा में वक्ष बनने की तैयारी कर रहा था। उसका काम करना ऐसा लगता जैसे कोई कलाकार अपनी पूर्णता को पृथ्वी पर उकेर रहा हो। शायद यहीं प्रक्रिया प्रकृति आईना बन प्रतिध्वनि की तरह लोटती सी प्रतीत नहीं होती हम सभी के साथ। जो हमारी प्रतिध्वनि है हम पर नहीं लौट आता है। प्रकृति केवल कर्ता भाव लिए खड़ी रहती है, मूक, मुस्कराती हुई कितनी आनंद विभोर रहती है। ये सब मैंने उस बल वत मन ने दादा भोला के आस पास घटते देखा था।
पृथ्वी, जल, प्रकाश के सान्निध्य में एक पेड़ अपने को पूर्ण करता है। इठलाते पत्ते, मुसकुराते फूल, लद्दे फल, चहकते हुए पक्षी क्या इसकी पूर्ण होने के साक्षी नहीं थे। पूछो इन तत्वों से तो कैसे कंधे मिचका कर अवाक, विस्मय, अनजान भोले बालक की तरह कहेंगे भला हमने क्या किया है। हम तो मात्र केवल थे। यही है होने का भाव, पूरी सृष्टि में जहाँ तक आप देखेंगे, कण-कण में यही पूर्णता पाओगे। भोला दादा न किसी के हँसने की परवाह करते थे, और न किसी की शाबासी का, न ही किसी विरोध का इन्तजार करती है। यही मनुष्य की सबसे बड़ी पीड़ा है वो करता होना चाहता है। लेकिन वो है नहीं, नहीं ही वह कभी हो सकेगा। इस विशाल में उसका आस्तित्व ही कितना है, धूल के कण से भी ना कुछ मात्र। एक मूर्ति कैसे रचयिता हो सकती है, जबकि वो खूद ही एक रचना है, किसी अदृष्ट हाथों की।
मैं जब उनके संग-साथ होता तब मुझे लगता कि कुछ ज्यादा जीवित, अधिक प्राणवान हूँ, मेरे मन का जल स्तर कुछ ऊंचा हो जाता, जैसे भरे बर्तन में कोई होश का ढेला डाल दे, तब बर्तन को यकीन न आये कि कैसे वो किनारों तक भर कर छलक गया। मेरे मन में प्रश्नों की एक रेल दौड़ने लग जाती थी। कैसे एक बुद्ध पुरूष हमारे पूरी उम्र अर्थहीन प्रश्नों के उत्तर देते रहते है। शायद ये प्रश्न भी उन्हीं के सान्निध्य में उगते होंगे, बरसाती कुकुरमुत्ते की तरह। या उनकी स्तरीय चेतना का प्रभाव हो, जो हमारे गहरे तल तक के प्रश्नों को बहार निकाल देते है। ऊपर खड़े जैसे कोई कुएं में बाल्टी डाल डुबकियां लगाता हो। हम एक कंजूस कुएँ की तरह कूड़े-करकट को ही अपना सर्व सब समझ सम्हालते रहता है। फिर सड़ना तो उसकी नियति है ही।
मैं--’’दादा आप इन पत्थरों को क्यों निकालते रहते है। और तो कोई गांव का आदमी नहीं निकालता आपके साथ। कितने लोग आते जाते है। सब देखते रहते है। असुविधा ठोकर तो सब को लगती है। फिर आप ही......( और मेरे प्रश्न के पूरा होने से पहले ही दादा...बोल उठे)‘’
दादा- ‘’बेटा आते जाते को ठोकर लगती है, पशु के पैरो में ये नुकीले चुभ कर घाव देते है। बोझा लेकर आती बहू-बेटियों, को कितनी तकलीफ होती है। एक तो चढ़ाई ऊपर से अगर उन्हें ठोकर लग गई तो कितनी चोट लग जायेगी। फिर मैं भी तो बूढ़ा हूँ, मुझे भी तो ठोकर लग जाती है। जिस गांव के रास्ते जितने साफ-सुथरे होंगे, वहाँ आने वाले लोग जान जाएँगे कि यहाँ किस तरह के लोग रहते है। जैसे किसी औरत के पेर की फटी बिवाई ही उसके सूहड़-फूहड़ पन का राज खोल देती है। उनका चेहरा या और कार्य देखने-सुनने की जरूरत ही नहीं है।’’
मैं--’’दादा आपको झिझक नहीं आती, ये काम तो पूरे गांव का है। और ठोकर तो पूरे गाँव भर को लगती है। आप अकेले को ही थोड़ी ही लगती है? (मेरा चेहरा लाल हो गया गुस्से के)
दादा--’’अब तुमने कह दिया है अकेला नहीं निकालूंगा बस (मुस्कुराए कर) फिर अकेला मैं हूं भी नहीं देखो मेरा शेर मेरे साथ है। (उन्होंने शाबाशी से मेरे कंघों को थपथपाया) फिर कहने लगे-शायद उन लोगों के पास समय नहीं होगा, फिर जो काम आपको अच्छा लगे उस के लिए किसी का इन्तजार मत करो। न देर करो वरना उसे कभी कर नहीं पाओगे। फिर आप करता का भाव मन में रखेंगे तो वो काम हो गया। बस काम को करने का एक आनंद होना चाहिए। बस काम हो और तुम हो उसमें दूसरा कुछ भी बीच नहीं आये। तो समझो ये हो गई सबसे बड़ी पूजा। फिर तुम्हें किसी मंदिर जाने की जरूरत नहीं होगा। तुम खुद ही एक मंदिर बने होंगे। और देखा आपने जब हम कोई काम करते है तो एक थकान महसूस करते है। क्योंकि काम के पीछे एक लक्ष्य है और तुम करता। इससे वह कर्ता भाव आपकी जीवन धारा की लय को छिन्न-भिन्न कर देता है। और खेल भव उसमें एक ताजगी, जीवंतता तुम्हारे खालीपन को भर प्राणवान बना देगा। देखो ये संसार का विस्तार क्या कोई रच सकता हैं, इस रचना को कभी नहीं, जब तक खुद रचयिता ही रचना में एक न हो जाये। जब हम करता होते है तो हम दूर.....(और वो हँस पेड़) तू भी कैसा ज्ञानी बन हाँ-हूं कर रहा है और दादा भोला मुझे बच्चा समझ कर हंस दिये....।’’
मैंने कहां-‘’दादा ये सब आपकी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती है, आपकी वाणी मेरे अन्दर तक छू कर अंदर तक चली जाती है। फिर शब्दों को चाहे पकड़ न पाऊँ, इनका गूढ़ अर्थ मेरी समझ से परे हो पर इनमें कुछ ऐसा है। जो मुझे लगता है ये सब मैं जानता हूं।’’
दादा भोला की वाणी मुझे अन्दर तक तृप्त कर जाती थी। चाहे बुद्धि उसका विवेचन न कर पाये परन्तु ह्रदय उससे सराबोर हो जाता था। आदि काल में जब भाषा का विकास नहीं हुआ था, तब कैसे मनुष्य अपने भावों, विचारों, का आदान प्रदान करता रहा होगा। क्या आपने देखा जब आप आपने भावों को उड़ेलना चाहते हो तो शब्द सभी अधूरे नहीं रह जाते। उस समय शब्दों की थाह छोटी नहीं पड़ जाती है। आप जब सब कहे चुके होते हो तो आपको नहीं लगेगा, कि जो कहना चाहा वो तो अभी अन्दर ही कैसे छटपटा ही रह गया। और ये बेजान शब्द ही केवल निकलते रहे, जो आपके भाव को शब्दों में नहीं समेट पाये। एक बुद्ध पुरूष भी इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करता है, निर्जीव, प्राणहीन शब्द उसके अंतस की गहराई को छू के कैसे चेतन-अचेतन की दीवारों को धकेल कर तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाते है। उनके संग-साथ होना कैसे न होने जैसा हो जाता होगा। इस स्थूल शरीर का भी भार है हमारे होने में, कभी नितांत अकेले अंतस में पहली बार जब कोई जाता है। वह अपने शरीर को दूर क्षितिज के पार देख रहा होता है, और उसको अपने पूर्ण होने का अहसास भी साथ-साथ हो रहा होता है। तब पहली बार शरीर के बिना भी, कैसे खाली पन में गहरे उतरते हुए, बिना किसी बंधन के कैसा निर्भरता महसूस होती होगी उस साधक को। मानो आपको क्षण भर के लिए इस पृथ्वी ने अपने गुरुत्वाकर्षण से छोड़ दिया हो। वह एक मात्र अनुभव पहली बार इस काया की पकड़ उसकी भार तत्त्व का बोध तुम्हारी जीवन शैली अमूल परिवर्तन भर देता है।
दादा भोला के संग-साथ होना कैसे न होने जैसा लगता था। मेरे हम उम्र के बच्चे भी अब मुझे दादा भोला कह कर चिढ़ाते थे। मुझे अपने हम उम्र बच्चो की बातों में न तो कभी रुचिकर लगती थी, और न उनके साथ खेलना ही सुखद लगात था। वह उथला और छिछोरा स्तर हीन सा लगता था मुझे सब हमेशा। उनकी बातें मुझे बिना सर पैर कि कारण अकारण सी लगती थी। खेतों में जब काम नहीं होता जब भी दादा भोला जंगल में ही रहते और एक दो भैंसे, गाये या फिर बैल, चराते हुए ही दिखाई देते थे। इसके अलावा और भी कोई उन्हें गाय भैंसों को साथ चराने के लिए छोड़ जाता था। दादा जरा हमारी भैंस को भी देखना मैं अभी आती हूं कह कर चला जाता था। कोई भी बहती गंगा में हाथ धो लो वहां सब के लिए छूट थी। जब कोई कहता दादा ये भैंस उसकी है, ये गायें इसकी है, वो केवल मुसकुराते आँखों में एक भाव होता की मैं जताता हूं, कभी किसी को मना नहीं करते थे। जब गर्मी के मारे भैंसे तलाव में घुस जाती, परन्तु गायें या बैल पानी से बहुत बिदकते थे। वो चरते हुए आगे बढ़ जाते। तब दादा भोला को मेरी उपयोगिता का पता तब चलता था। कुछ देर तो वह पीपल के नीचे बांसुरी बजाते रहते जब ज्यादा देर हो जाती और लगता की गाए तो काफी दूर निकल गई होंगी। तब मुझे अंदर पानी में जाने के लिए कहते, कि मनसा इन भैंसों को बहार निकाल देना बेटा। मुझे तो बस पानी में घुसने का बहाना चाहिए था। तब मैं दादा भोला की भैंस के साथ अपनी भैंस को मलमल के खूब नहलाता था। हमारी भैंसे भी तो उन्हीं भैंसों के साथ चरने आ जाती थी। फिर वो किसी छाँव दार वृक्ष के तने की टेक लगा बाँसुरी बजाने लग जाते थे। एक चैन की मधुर बांसुरी....जैसे ना वो भैंस और न मैं समझ पाता था...परंतु मधुरता तो कानों में चली ही जाती थी। अब भैंस की मैं कह नहीं सकता उसके वो जाने या उसका राम......जब मैं उन भैंसों का मुँह पानी से रगड़ कर धोता कैसे लम्बी-लम्बी उससा छोड़ती थी। हवा के साथ पानी की महीन बुंदे कैसे मेरे मुँह को भिगो जाती थी। दूर बाँसुरी की मधुर तान के साथ भैंस कैसे गर्दन हिलाती मानो प्रत्येक सुरों का ही नहीं प्रत्येक राग बोध भी है, नाहक तुमने मुहावरा बनाया ’’भैंस के आगे बीन बजाना.....’’ बीन की बात ही मत करो हम तो बाँसुरी पर ही नहीं अटके कहो तो सितार के सुरों को बता दे, कौन, कण, मींड, मुरकी, गमक लगाई है तुमने। कौन सुर विवादी है जिससे बचना है, अब आप कौन राग बजा रहे हो। पर मैं देखता भैंस की अकल में बात आई या न आई परंतु वह मदमस्त हो पानी में झूमने लग जाती थी। मानो बांसुरी के सुर उस पर मस्त असर कर रहे थे। बांसुरी की तान तालाब की लहरों से टकरा कर, पूरे वातावरण को संगीत मय कर रही थी। क्या राग बजाते थे दादा भोला कभी बजाते मेघ मल्हार, जयजयवंती, या भगवान कृष्ण का प्रिय राग शायद वो केदार....... था। जिसे वह सबसे अधिक बजाते थे। शायद मुझे उस समय भी राग बागेश्रवरी ही अति पसंद था। जो मैं हमेशा उनसे सुनना चाहता था। परंतु वह केवल रात के समय ही बजाया जाता था। इस लिए उस राग को दादा भोला कम ही बजाते थे। और रागों का पक्का नहीं कहा सकता, शायद राग केदार – यमन की जरूर याद है। क्योंकि उसे मैंने दादा भोला की बांसुरी पर हजारों बार सुना था। और वह था भी भगवान कृष्ण का प्रिय राग केदार। जिसे बाद में हेमंत दा का केदार में भजन ’’ दर्शन दो धन श्याम नाथ मोरी अँखियाँ......’’की धुन रह-रह भोला दादा के सुरों की याद दिला जाती है। क्या प्रत्येक व्यक्ति का आपना एक राग नहीं होता है। जब पूर्ण लयबद्ध हो जाता है उसी को बुद्ध या परमात्मा का हम नाम दे देते है।
फागुन का मद मस्त माहौल सर्दी गर्मी की रस्साकसी से शरीर में एक मादकता के साथ उन्माद भर लाता है। आप फागुन की मादकता की छुअन नन्हे चमकदार पत्तों पर ही नहीं, पलाश और सेमल के फूलों तक पे महसूस कर सकते हो। औरत में तो फागुनी हवा ऐसे सिहर-सिहर कर हिलोरे मारने लग जाती थी। और वह उम्र के बंधनों के साथ सभी तट बन्द तोड़ देना चाहती है। श्याम का झुटपुटा होते न होते गाँव की औरतें चौपाल के बड़े चौक में इकट्ठी होने लग जाती थी। साठ से लेकर सात बरस कि औरतें लड़कियों में बस शरीर का ही भेद रह जाता था। वरना उनके अन्दर से छलक़ता बचपन, अल्हड़पन, अट्ठहास, हंसी मजाक उस छद्म अंधकार में सब विलीन हो एक हो जाता था। मैं देखता किसी साठ वर्ष की प्रौढ़ में भी उसका बालपन कैसे रौए-रेसे से रिस-रिस के बह रहा होता था। फिर न उसे पोती-पड़पोती का ही अहसास होता और न लड़कपन का। दोनों इस प्रकार समतुल्य हो जाते थे। उस सब का भेद जानने के लिए ध्यान से आपको उनका चेहरे देखने की जरूरत पड़ती। कि कौन सी दादी है और कौन पोती है। उनका आपस में एक दूसरे को छेड़ना हंसी ठिठोली करना एक दूसरे को छेड़ कर किलकारी मार-मार कर भागना अस्मरणीय था। अगर इस आनंद उत्सव में दादा भोला के बिना भी कोई महफिल मानो बिना सूर के साज, बिन तान के नाच हो सकता है कोई।, दादा भोला के आने से महफिल में शबाब ही नहीं फूलों में सुगन्ध भर जाती थी। दादा भोला का उन बाल यौवनाओं के बीच मदमस्त हो कर नाचना, ढोल मंजीरों के साथ ताली बजा के गाना इस लोक का दृश्य नहीं लगता था। सब बहु-बेटियाँ अपनी उम्र नाता, घूंघट को भूल इस नृत्य में विलीन हो जाती थी। कुछ ही देर में ऐसा शमा बँधता न नृत्य और नृत्यकार एक हो जाते थे। शायद यहीं है वो रस जो अतिशय होते-होते रास बन जाता है। हम तो रस को भी नहीं जानते फिर कहां रास की बात कर सकते है।
दादा भोला के इस तरह गाँव की बहु-बेटियों के साथ नाचना, घूंघट प्रथा, जहाँ बहु ससुर-जेठ के सामने बोलती तक नहीं घूँघट के अंदर साठ साल की औरत छुपी रहे रहती है। भोला के बाल मन को सब जानते थे। उसकी मस्ति हर पल हर जग बिखरी दिखती थी। मनुष्य की चेतना के उतंग आयामों को उन भोले-भाले देहाती से दिखने वालों गांव के लोगों ने जाना भी उसे समझा भी और जीया भी। शायद वह उनके अचेतन के अन्दर कहीं बीज रूप में छिपा हुआ होना चाहिए। दादा भोला को यूं गांव की बहु बेटियों के साथ नाचते दिख कर कोई बूरा नहीं मानता था। कुछ गाँव के बुर्जग केवल गर्दन मचका कर हंस देते और दादा भोला को पगला, या दीवाना की उपाधि दे आगे बढ़ जाते थे। न कोई बुरा मानता न नाराज होता था। आप अपने अंतस की गहराई से ही सामने वाले की गहराई को समझ सकते हो। और तो कोई पैमाना नहीं, क्या चरित्र है, क्या सोच हे आपकी, सौ बातों की एक बात ’’भेद तेरा कोई क्या पहचाने जो तुझे सा हो वो तुझे जाने...।’’ आज मनुष्य का मन कितना जटिल हो गया है। वो अनपढ़ सक दहखनक वाले लोग कितने सरल और महान थे। दादा भोला न जब अपनी घर गृहस्थी नहीं बसाई तो फिर वो एक परिवार की सीमा में कैसे समा सकता था। पूरा गाँव ही उसका घर परिवार बन गया था। इसलिए वह सब का था और सब उसके थे। सच कहूँ तो ऐसे इंसान के लिए देश क्या ये पृथ्वी भी छोटी पड़ जाती है। जब भी गाँव में कोई त्योहार होता तो सब नम्बर से दादा भोला को निमंत्रण करते थे। उस समय उस परिवार को कितना गर्व होता था अब दादा भोला हमारे घर भोजन करेगा। किसी की हारी बीमारी हो, खेत क्यारी का कोई काम, किसी का मकान गिर गया हो, भैंस, गाय चरानी हो दादा भोला बिन बुलाए हाजिर रहते थे। मुझे याद है वह दीपावली की रात जब दादा भोला हमारे घर भोजन करने आये थे। दादा भोला आयेंगे...मैं गीत गा-गा कर दिन भर आँगन में नाचता रहा था। मन कैसे फूला नहीं समा रहा था। दादा भोला हमारे घर आज आयेगा, यहाँ बैठेंगे, माँ क्या खाने को बनाएगी, मैंने अपनी माँ के सार दिन कान खा लिए। रात जब खाना खान के लिए दादा भोला आये तो माँ ऐसे खाना परोस रही थी मानो कोई भगवान को भोग लगा रहा हो। उनका किस तन्मयता और मधुर रस ले-ले कर खाते देखना मेरा सौभाग्य ही समझो कि मैं बाद में उन्हीं की नकल कर खाने लगा। जो आज मुझे होश और प्रेम की उतंग गहराइयों में लिए चला जा रहा है। साल में त्योहार-बार को छोड़ कर दादा भोला अपने छोटे भाई के घर ही खाना खाता था जिसके साथ वो रहता था।
उस दिन जेष्ठ की बुद्ध पूर्ण मासी थी। गाँव के लिए विशेष दिन होता, अब बुद्ध भगवान से क्या सम्बन्ध है, इस गांव का कोई नहीं जानता न ही समझने की कोशिश करता है। क्योंकि आस पास किसी गांव में बुद्ध पूर्णिमा नहीं मनाई जाती थी। केवल हमारा गांव ही इसे बड़ी धूम धाम से सदियों से मनाता चला आ रहा था। यह दिन विशेष उत्सव की तरह होता था। एक तो गाँव का वो शिवाला जिसमें कोई मूर्ति नहीं, दूसरा ये पूर्णिमा, जो भगवान बुद्ध के मानने वालों के लिए महोत्सव है, इसी दिन भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान और मृत्यु तीनों एक ही साथ घटे थे। उस दिन पूरा गाँव, एक गाँव न रह कर मेले, उत्सव में बदल जाता था। उस दिन प्रत्येक गाँव का पुरूष, स्त्री, बच्चे कहीं मीलों दूर से भी हो जरूर गाँव पहुँच जायेंगे। यानि गाँव की एक-एक संतान जो भी इस मिट्टी से कोई भी सम्बन्ध है उसका इस दिन यहाँ पर आप उसे देख सकते है। गांव की बहु-बेटियाँ, नए कपड़े पहन ऐसे छम-छम करती इठलाती चलती। जैसे किसी शादी विवाहा में भी क्या चलती होती होंगी। रंगी पोशाकें पहने जवान होती लड़कियां गलियों में भागती ऐसे लगती तितली या उड़ रही हो। माँ लाख शोर मचाती पूरियाँ सहज कर रख ली है ना, दादा भैया के प्रसाद का सब सामान परात में रख लिया, वहां से उत्तर आता हाँ, हूं, भर, पास पड़ोस की सहेलियाँ, भौजाइयों को अपने गहने कपड़े दिखाती इठलाती किलोल करती वह लड़कियां कैसा घर एक कोने से दूसरे कोने तक उत्सव भर रही होती थी। उनके माथे का टीका, गले की गलसरी, कोनों के कर्ण फूल... आज बहुएं भी शादी में मिले सारे गहने पहनती थी। यही तो औरतों के जीवन में दो चार दिन आते पहनने औढ़नें के वरना तो वहीं चक्की चूल्हा ही नहीं साँस लेने की फुर्सत देता। घर-घर पकवान बन रहे होते, गरीबों का कोई उत्सव मेला हो वो कैसे सुन्दर पकवान बनाते, सामर्थ्यवान व्रत, उपवास रखते है। अजीब विरोधाभास लगेगा, परन्तु यही है जीवन की जटिलता आप इसे देखो, इसकी नींव में गए नहीं की आप गये काम से। गाँव से दादा भैया की मढ़ी करीब दो कोस तो होगी ही। गहने, कपड़े, सर पर प्रसाद की परात, गीत गाती औरतों को मानो गर्मी से कोई लेना देना ही क्या था। मई मास की तपती रेत पर दौड़ते बच्चे पसीने से सराबोर हो रहे होते थे। उन काबूली कीकर और रौंझ का हरा रंग इस बरसती आग में भी आँखों में ही नहीं मन भी अंदर तक को शान्त कर जाता था। दादा भैया के पास बड़े-बड़े पीतल के कनाल भर कर ठंडा शरबत बनाया जाता था। मील भर की तपती आग के बाद बही अमृत तुल्य जीवन दायिनी लगता था। गुड़ और गुलगुलों का प्रसाद चढ़ाया जाता था दादा भैया पर। घर के बने भोजन का भोग चढ़ाया जाता। उसके बाद सब हंसते गाते घर की तरफ़ चल देते, अब घर बने पकवानों की खुशबु ही नहीं मुँह स्वाद के इन्तजार में पानी से भर-भर जाता था। बच्चो को लाख मना करो मत दौड़ो जब तक एक आधा बच्चा रेत में गिर कर धूलिया-धमाल न हो जाता तब तक चेन नहीं लेते थे। पसीने से सराबोर कपड़े पर जब बालू का महीन रेत, मुँह और कपड़ों पे लिपट जाता न कपड़े की पहचान न चेहरे की बच्चा न हो कोई भूत, देख लिया हो। उधर दूसरी और बच्चे मुँह छुपा कर हँसते लग जाते थे। अब कोन उठाये इस भूत को न उठाए तो चुप न हो। झाड़ पोंछ कर किसी तरह राजी किया जाता घर के पकवानों की याद दिलाई जाती तब कहीं शाही सवारी चलने को राजी होती थी।
दोपहर ढल गई थी, सूर्य का उफान कुछ कम होने लगा था। अचानक गांव में खबर आई दादा भोला को गोली लग गई। पूरा गाँव एक दम सन्न रह गया, अरे इससे पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ था। सालों से गोलियों में सब आते जाते है...काम करते है, चील वाले खाल के पार एक शीशम के पेड़ के नीचे बैठे दादा भोला बांसुरी बजा रहे थे। गोली आई और पेट के आर पार निकल गई थी। मैं जब वहां पहुंचा दादा भोला आदमियों से धीरे थे। सारे कपड़े और जमीन खून से सराबोर थी। मैं लोगों को हटा कर किसी तरह से अन्दर पहुँचा, पेट के आस पास किसी ने कपड़ा लपेट कर खून बन्द करने की कोशिश भी कर रखी थी। दादा भोला ने मुझे देख अपने पास बुलाया उनकी आँखों में जीवन निर्मल झील की तरह भर था। आज चालीस साल बाद भी वो आँखें मैं भूल नहीं पाया। चेहरे पर वहीं माधुर्य, टपकती हँसी, इतना शान्त की पीड़ा संताप की कोई लहर नहीं। शायद जीवन की झील आज अपनी पूर्णता पे अपने सौम्यता के उत्तुंग पर पहुँच स्फटिक दर्पण बन गई थी। उन्होंने अपने हाथ की बांसुरी मेरे हाथ में देते हुए बस इतना ही कहाँ ’’बजाना एक दिन बजेगी’’ सब लोग दादा भोला को एक बेल-गाड़ी में लाद कर अस्पताल ले जाना चाहते थे। दादा भोला ने हंसते हुए सब को मना कर दिया ’’अब मेरे पास समय नहीं है, आप लोग नाहक परेशान हो रहे है, अब मैं जाऊँगा, कोई भूल चूक हो गई हो अंजाने में माफ़ी कर देना। आपके गांव में जिस आनंद से मेरा जीवन बिता वह मेरा सौभाग्य ही था। कि आप जैसे प्यारे लोग मुझे मिले....जिन्होंने मुझे प्यार और सम्मान ही नहीं दिया मुझे समझा भी.....मुझे पिया भी।’’ मेरी और इशारा कर कहने लगे इस फूल को सम्हलना देखना एक दिन ये बहुत उतंग वृक्ष बनेगा। दूर दराज तक इसकी सुवास महेगी। यह गांव की मिटी का हीरा है। मेरी आंखों में झर-झर आंसू गिर रहे थे। भोला दादा ने अंतिम बिदाई के लिए दोनों हाथ जोड़ और अपनी आंखें बन्द कर ली मानो किसी गहरी नींद में सो गये। चारों और एक नीरव शांति पसर गई। मानो क्षण भर के लिए ये पृथ्वी रूक गई हो, और जमीन का गुरुत्वाकर्षण इतना सधन हो गया, सब कुछ देर लिए पत्थर हो गए, रोना हीलना सब जड़ वत हो गया सबका कुछ क्षणों के लिए। बस खुली रह गई सब की विषमय भरी आंखें जैसे वो पूछना चाहती हो कि एक पल में ये क्या हो गया.....
दादा भोला चले गए, परंतु इंतजार करते उन पेड़ पौधों, पहाड़ी रास्तों को, तालाबों, गाँव की गलियां, उन पशु पक्षियों से अब कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। सब जानते थे वह शरीर से तो चला गया परंतु हवाओं में यहां की मिट्टी में लोगे क्या पशु पक्षियों के ह्रदय में आज भी जीवित है। आज भी दादा भोला हंस हैं, इस पूरे गांव-खेड़े के है। जब भी इन रास्तों से गाँव के किसी प्राणी का आना जाना होता या इन पेड़ पौधों से सामना होता तो वह ड़ब-ड़बाई आँखों को छिपाए हुए अपना मुँह फेर लेते थे। जहां पर भोला दादा घंटो रास्ते के पत्थर निकाला करते थे। कैसे कहे ये बात की दादा भोला नहीं रहे......परंतु समय के साथ आदमी बदले, आज बच्चे जानते भी नहीं कोई दादा भोला नाम का प्राणी भी यहाँ पैदा हुआ था। प्रेम, श्रद्धा की सांस-सांस इस मिट्टी में जिया था। दादा भोला की वो बांसुरी आज भी उस शीशम, पीपल के पास बैठ कर जब मैं बजाता हूं तो लगता है हाथों पर पानी की कोई बूंद गिरी, आँख खोल जब ऊपर देखता हूं तो वो सजल नेत्रों से वह पीपल मुझसे पूछने की कोशिश कर रहा है। कि कहां है वो जो इसे जो बजाता था......और मैं निरुत्तर हो जाता हूं......और अपनी को लाख छुपाने और भुलाने की कोशिश करता हूं......क्या प्रकृति इतनी संवेदनशील है, कैसे निरुत्तर सा, अविचल, थिर, यादों को अपने अन्दर समेटे, सर्दी, गरमी, बरसात, में अड़ी खड़े पूर्णता से जीती रहती है। शायद मनुष्य ने अपनी जड़े प्रकृति से काट ली है, अब उसकी नियति केवल सूखने की है। वो विज्ञान के लहलहाते फलो, पत्तों रूपी सुविधा से अभी भूत है, वो इतना शायद नहीं जानता कि पत्तों को सींचने से वक्ष में जीवन लहलहाते नहीं, उन अदृश्य जड़ के अंधकार में कहीं जीवन छुपा होता है। जो हमें दिखाई नहीं देता तब सिंचने और न सिंचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
जब-जब बुल्लाशाह की काफिया को सुना, उनके जीवन को उन तरंगों, ध्वनियों, एक अटूट कड़ी की तरह बहते पाया, जिसका न आदि है न कोई अंत।
(यह कहानी जब में नौवीं कक्षा में सन 1971 पढ़ता था। तब लिखी थी जो मेरे स्कूल की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी)
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