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गुरुवार, 10 जनवरी 2013

03--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

बाँझ -कहानी

(दसघरा की दस कहानियां)

घर क्‍या था, एक भुतिया बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्‍चों की किलकारीयों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक पाणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम पर इस समय उस मकान में एक बूढ़ी अम्‍मा ही थी। कितने चाव से उस हवेली को उसके ताऊ ने बनवाया था। उसकी ऊंची अट्टालिकाएं, जाली दार मेहराब। बरांडा जो मकान की शोभा के साथ बरसात को कमरों में झाँकने भी नहीं देता था। उस बरामदे के मुहाने पर चारों और करीने से खड़े पाये प्रहरी जैसे दिखाई देते थे। वे पाये उसकी रक्षा ही नहीं करते थे अपितु कैसे उसकी शोभा और मजबूती ही बढ़ा रहे थे। बल्कि वे उसके चारों और प्रहरी से खड़े अति सुंदर लगते थे। किलेनुमा उसकी शानदार नक्काशी, शीशम और दार का बना लकड़ी के दरवाजे। जिसमें पीतल की कील, कुंडे, कड़े, और सांकल लगी थी। उस बड़े मुख्य गेट का तो बस क्या कहना वो तो उस हवेली के सर का ताज ही था। जब पचास साल पहले उसे खीमूं खाती बना रहा था तब, कैसे आस पास के दस गांव के लोग उसे देखने के लिए आए थे।

खीमूं खाती महीनों उस दरवाजे पर काम करता रहा, उस पर नक्काशी निकालता रहा फूल फूम्‍मन बनाता रहा। लाल शीशम की लकड़ी के बने वो दरवाजे, उस पर काम करते-करते खीमूं खाती के हाथ रह जाते थे। थक कर वह एक लम्‍बी सांस लेता और फिर रंदा चलाने लग जाता था। आराम करने के बहाने जब वह थक जाता तो कहता: ‘’देखना चौधरी अगर सौ साल तक भी इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। ये लकड़ी नहीं है यह तो लोहा है, तूने भी किस जन्‍म का बेर मुझ से निकला है। इसे छिलते-छिलते तो मैं बूढ़ा ही जाऊँगा। और हां श्‍याम को दो सेर दूध और पाव भर घी जरूर ले कर जाऊँगा। वरना तो कल की नागा ही समझो।

बदन टूट जाता है। तब लक्षमण ताऊ हंस कर कह देते क्‍यों ना तुझे वह रूंढ़ी खार की झोंटी (भैंस) इनाम में दे दूंगा। पर तू दरवाजा ऐसा बनाना की दस गांव में भी देखने को नहीं मिलना चाहिए। और हुआ भी सच-मच ऐसा ही। जैसा खीमूं खाती ने कहा था: कि शायद न आप होंगे और न मैं परन्‍तु ये दरवाजा ऐसे ही खड़ा शान से आपके घर की रखवाली के साथ-साथ शोभा भी बढ़ता रहेगा।‘’ सच ही कहां था इतने सालों से रंग रोगन न करने पर भी दरवाजा उतना ही मजबूत था। चाहे उसमें बरसात के कारण पपड़ी बन रंग उतर गया हो। उस रंग रोगन की जगह काले-काले धब्बों ने अपनी पैठ बिठा ली थी। परन्‍तु क्‍या मजाल है वो अपनी मजबूती में टस से मस्स हुआ हो। मकान के बीचों बीच बड़ा सा खुला आंगन था। जिसमें अमरूद, अनार, चीकू, नींबू, के पेड़ बड़े करीने से बोए गये थे। आज न इन पेड़ो की देख-भाल करने वाला कोई प्राणी है, और न इनके फल खाने बाला बच्चा। अड़ोस पड़ोस के बच्‍चे ही इन पर हाथ साफ करते है। फिर भी ये मूक पौधे आज भी फलों से यूँ लद जाते है, मानो किसी मेहमान की आवभगत के लिए सज संवर रहे हो। बिना नागा अपना प्रत्‍येक काम इतनी सहजता और तरकीब से करते रहते है। मानो कोई उन को निर्देश दे कर भी भला क्‍या करवाएगा।

प्रकृति भी किस नियम कायदे से सहज और सजग चलती रहती है। वृक्ष बसन्‍त से पहले अपने पत्‍ते उसी तरह से झाड़ देते है, और फिर फूल और पत्‍तियों से नये हो जाते है। इतने सालों में यहां क्‍या कुछ नहीं बदल गया था। परंतु प्रकृति के लिए जैसे कुछ बदला ही नहीं था। नए नवेले पत्तों से नहाए ये पेड़ कैसे गर्वित खड़े हो इधर-उधर उस बच्‍चे की भांति‍ देखते है। जिसे किसी ने अभी-अभी नए कपड़े पहने है और खुशी में आनन्द विभोर हो वो कहना चाह कर भी समझ नहीं पा रहा की क्‍या कहे, कैसे बताए इस खुशी को। फिर फलों से लद कर के पक्षियों आमंत्रित कर रहे होते है। हजारों पक्षी उनकी गोद में आ बैठते थे। और जैसे ही फल खत्‍म हो जाते तो सब पक्षी नदारद हो जाते थे। पर इस बात की उन्‍हें कोई चिंता नहीं थी। वह अपना काम करीने से सालों निर्विघ्न किए जा रहे थे। और आगे भी ऐसे ही करते रहेंगे। परंतु एक मनुष्‍य ही ऐसा प्राणी है जो बिना क्‍यो-कैसे के कुछ करना नहीं चाहता। ये क्‍यों ही अपने को उसे भँवर जाल में फँसाए है। यही उसके मन का भोजन है। यही मानव का दूख भी है और उसका विकास भी।

इतने बड़े घर में प्राणी के नाम पर एक मात्र बूढ़ी अम्मां ही उस हवेली नुमा महल अकेली रहती थी। शायद दो-दो दिन तक तो बेचारा चूल्हा भी जलने के लिए बाट जोहता रहता था। कि कब इसमें आग जले और गर्मी आए। एक जान कितना पसारा फैलाए, हिलती हुई गर्दन, धुँधली आंखें, झुकी कमर अगर डंडे का सहारा न होता तो शायद सर घुटने के ही लग गया होता। वैसे अम्मां कोई अनाथ थोड़े ही है, एक लड़का जो फौज में बहुत बड़ा अफसर था। उसके एक पोता एक पाती, एक कहने के नाम पर बहु भी थी। इस संसार में चार प्राणी कोई कम तो नहीं होते। परन्‍तु जब पास एक भी न हो तो ये होना भी कोई होना होता है। कहने को तो ये कहा जाता है कि घर छोड़ अम्मां बेटे-बहु के पास जाना ही नहीं चाहती है। राम जाने सत्य क्या है, परंतु एक बात तो सत्य है, इस आधुनिकता के इस युग में अम्मां उनके रोब रुतबे में कहीं फिट नहीं बैठती थी। गांव के लोग तो यही देखते आये थे। बहु के लक्षण तो शादी के चार दिन बाद सारा गांव जान गया था। परंतु अब कौन किसी के फटे में पैर डाले भाई घोर कलियुग आ गया है। आपने जरा किसी के अहंकार के तारों को छेड़ा नहीं कौन सा तांडव राग आपको सुनना पड़े। शायद आपको थाने तक भी घसीट दिया जाये। सो इससे गांव के सभी लोग जानते हुए भी अंजान बन गए थे। इस सब बातों से ऐसा दिखता है कि आज का आदमी जरूर समझदार हुआ है। या उसका अहंकार आड़े आ गया है, वो पुराने जमाने के लोगों की तरह मुँह फट नहीं रह गया है। मानो आपने काने को काना कह दिया नहीं की काने की आँख में उँगली मार दी। भलाई इसी में है सब तमाशा कान दबोचे देखते रहो। तभी सब आपको समझदार कहेंगे। वरना तो आज के जमाने में आप पागल कहलाये जाओगे।

सर्दी के दिनों में अम्‍मा का चूल्हा जब जलता तीन काम एक साथ करता था। पहला पतीली में एक मुट्ठी चावल-दाल डाल दिए जाते और वह उसे खिचड़ी का रूप दे देता था। दूसरा चिलम में दो अंगारे डाल हुक़्क़े की गुड़-गड़ाहट के साथ खासी को भी जैसे गर्मी मिल जाती थी। जो अम्मा की खांसी भभक कर एक तार चलने लगती तो आपको लगता की अब अम्मा का दम निकला तब निकला। परंतु सालों से ऐसा ही होता आया है वह खांसी अम्मा का दम क्या खाकर निकालेगी। एक तार स्वर लहरी की तरह से अविरल चलती ही जाती थी। खांसी का वो लय इस तरह से चलती थी मानो खांसी ने हो गई कोई कठिन राग बन गया है। विचित्र है ये मनुष्य की देह भी। इस समझना अति कठिन है। अगर दूर से आप अम्मा को यूं खांसते देखोगे तो आपको लगेगा की अब निकले अम्‍मा के प्राण कि तब निकले न जाने कहां अटके रह जाते थे अम्मा के प्राण। परंतु ये तो साधारण सी बात था अम्मा के लिए। जब उसे कोई कहता अम्मा नाहक क्यों तम्बाकू पीती हो जब इतनी खांसी है तुम्हें। अम्‍मा इस सब क्रियाकलापों हंस कर यूं कहती अरे पागल इस सब को तु क्या समझेगा भला, इस खांसी से तो मुझे मालूम होता रहता है की अम्मा अभी जीवित है। नहीं तो सारा दिन घर में श्मशान सी शान्‍ति छाई रहती है। ये खांसी खरहा भी आदमी को आपने अकेले पन में कैसा साथी सा महसूस होता रहता रे पागल। और तीसरा काम यहीं जलती आग शरीर की हँड़ियों को गर्म भी कर देती थी। हुए न एक पंत तीन काज, बरना तो रात के समय पैर बर्फ की तरह ठंडे पड़े रहते थे लिहाफ में अम्मा के। चाहे लाख रगड़े पेर से पेर पूरी रात वह बर्फ ही बने रहते थे। इस सब में पूरी रात गुजर जाती अब चाहे इसे आप निंद कहो या ठिठुरन ये आपकी मर्जी है। 80 वर्ष की अम्मां किशनो प्यारी अब एक हड्डियों का पिंजर मात्र बन कर रह गई थी।

अम्मा के शरीर पर नाम मात्र को ही चर्बी रह गई थी। अब इन हँड़ियों के किस कोने कतरे में प्राण अटके है, देखने वाले भी ये सब देख कर दंग रह जाते थे। बेचारी सुखी हुई सहजन की फली भी शर्मा जाये इस अम्‍मा किशनो प्यारी को देख कर। शायद प्राण निकलने के लिए भी अन्दर के प्राणों को सहयोग चाहिए होता होंगे, वरना जर्जर शरीर और जर्जर होता चला जाता है, कितनी लम्‍बी प्रक्रिया से प्राण निकलने की। जवान शरीर के प्राण बड़ी जल्‍दी और आसानी निकल जाते है। और आपने देखा बुजुर्ग और कमजोर शरीर तिल-तिल कर के ही मरता है।

अम्माँ किशनो प्यारी पीछे भी भरे पूरे घर से ही आई थी। वहां अपने मायके में भी इस विशाल हवेली नुमा घर में ठाठ से रहती थी। और इस घर में भी किसी बात की कोई कमी नहीं रही। परंतु अम्मा की सास जब तक जीवित रही किसी की भी एक नहीं चलने दी। आँख से अंधी होने पर ही आपके पद चापो से पहचान लेती थी कौन आया है। जरा किसी काम को देर हुई नहीं की पास रख उनकी लाठी और जबान आपना काम करने से नहीं चूकती थी। बैठक के बरामदे में उसकी खाट बिछी रही थी। बड़ी ही हेठी था भूरो दादी परंतु दिल की उतनी ही नरम थी। पहले गुस्सा करती परंतु पल भर में ही बहु किशनो प्यारी को लाड़ दुलार करने लग जाती थी। परंतु दुःख के दिनों ने उसे ऐसा कर दिया था वरना तो दिल की हीरा और तन की बज्जर काया थी उसकी। बहुत अच्छी थी थोड़े दिन में ही अम्मा अपनी सास का मिज़ाज समझ गई और फिर तो केवल अपनी बहूं के गीत गाते नहीं थकती था। मेरी बहु तो ऐसी-मेरी बहुत वैसी। और ये सच ही था अम्मा किशनो ने अपनी सास की बहुत सेवा की। अंतिम समय तक। अपने हाथ से नहलाती। कपड़े धोती सर पर देसी घी की मालिश करती थी।

जैसा जीवन आज भूरो दादी जी रही थी, उस जमाने में गांव के गिने चुने लोग ही इस तरह का जीवन जी पाते थे। घर के आंगन में दो भैंसे, दो बेल, तीस बीघा की क्यारी जिसमें खाने से भी ज्‍यादा हो जाता था। भगवान ने तीन औलाद दी जिसमें से एक चन्‍द्र प्रकाश ही जीवित बचा था। अम्मां की सास ने भी उसे समझाया बेटी कोई बात नहीं। दस कपूत निकलने से बेहतर है, एक सपूत निकल जाये जो भगवान को मंजूर अब क्‍या लिखा है, माथे के भीतर अगर मानव ये जान पाए तो उसे बदल ही न ले। छोटा परिवार था, जेठ लक्षमण ताऊ, पति वीर सिंह, लड़का चन्‍द्र प्रकाश और अम्मां। बड़े भाई लक्षमण ताऊ जब 14-15 वर्ष के थे, जब पिता, रामनाथ की अचानक मृत्‍यु हो गई थी। सादा जमाना लोग एक दूसरे पर भरोसा करते थे। प्रेम करते थे और दूख दर्द में मदद भी करते थे। एक पड़ोसी ने पंचायत करवा कर कह दिया की राम नाथ से मैंने 300 रूपये लेने है। सो पंचायत बेचारी क्या करती वह तो अंधी और लाचार होती है। उस 300/- का कर्ज घर पर बंधा एक बैल, दो बछड़े, तीन गायें और एक भैंस को खोल कर उस पड़ोसी को सौंप दिए गये।

सास भूरो भरी जवानी में ही विधवा हो गई थी। पहाड़ सा दूख उस पर टूट पड़ा था। परंतु वह नहीं डरी, उसके पहाड़ से बज्जर शरीर ने जी तोड़ मेहनत की। उस दूख का सामना किया कभी नहीं हारी भूरो दादी। जब वह अंगन से सब पशुओं को खोल कर ले जा रहा था। भूरो दादी आपने दोनों बच्‍चों को आंचल में छिपायें टुकुर-टुकुर उस बकरी की तरह से निहारती रही, जिसे काटने के लिए कसाई उसकी तरफ आ रहा हो। एक बेबस लाचार, अबला सी कुछ कर नहीं पाई पंचायत के सामने और उसके छोटे-छोटे बच्‍चों के मुंह से दूध भी छिन लिया गया था। लोगों ने इतना भी नहीं पूछा की भले आदमी न तेरे पास कोई लिखा पढ़ी का कागज है और मरने से पहले किसी को तुमने बताया भी नहीं की तुझे राम नाथ से पैसे लेने थे। बस जबान ही सत्य और पत्थर की लकीर होती थी। परंतु इतने सब के बाद भी भूरो दादी फिर भी नहीं हारी, बड़े जीवट की स्त्री थी। सास भूरा आपने बच्‍चों को पालने के लिए खुद हल चलाया करती थी। खेत में इस तरह से काम करते देख सब दांतों तले उँगली दबा कर देखते रह जाते थे। औरतें भी घूंघट की ओट में खुसर-फुसर करती रहती कि देखो उस रांड को सांड की तरह से काम कर रही है। इस किस्से को गांव का बड़ा बूढ़ा सब जानते ही नहीं कहते रहते थे। आज भी आप उन पुराने लोगों के मुख पर ये किस्सा पाओगे। एक बार जब दादा राम नाथ जीवित थे। तो कुछ नौजवान चौपाल के चौक पर मुगदर उठाने की कोशिश कर रहे थे। सास भूरो पानी की दोघड (दो मटके) सर पर लिए आ रही थी। कहते है तनिक रूक कर पल्ले से मूंह निकाल कर बच्‍चों से कहने लगी, क्‍या मन भर का (40 किलो) का मुगदर भी तुम जवान नहीं उठा पा रहे हो। भरी जवानी में अब तुम्हारा ये हाल है तो कहां के तुम जवान होओगे। तब एक नौजवान ने कहां ताई तुम उठा सकती हो इसे...। सब नौ जवान उसे मुगदर को बड़ी ही मुश्किल से उठ रहा थे। ये बात जब भूरो दादी की बात उन जवानों ने सूनी तो शायद उनके मन को ठेस लगी होगी। कहते है तब सास भूरो दादी आगे बढ़ी और उस मुगदर को एक हाथ से उसे उठ लिया और पानी के भरे मटके भी सर पर से नहीं उतारे थे। सब के मुख खुले के खुले रह गये। अचरज से बस देख रहे थे। अरे ये क्या हो गया। ये एक कथा बन गई गांव के लिए। कहते है उस दिन के बाद से वो मुगदर किसी मर्द ने नहीं उठाया वहीं चौपाल के कोने में उसे मिट्टी में दबा दिया। वह पत्थर जमीन में गड़ा हुआ अपनी सत्यता की गवाही देता दिखता है। आज भी ताई भूरो की प्रशंसा के ये किस्से गीत बन कर गाए जाते है गांव की गली-गली में।

उस घटना को आज भी पूरा गांव गर्व से कहता नहीं थकता। लाख दु:ख उस भूरो दादी ने सहे सब दुखों को अपने सीने में समा लिया और पति के मरने के बाद जहर का घूँट पी लिया था। कि अब क्‍या किया जा सकता है। अब किसी तरह से इन बच्‍चों को बड़ा तो करना ही था। ले लेने दो जो ले जाता है, ये पड़ोसी जब इतना गिर ही गया तो इसके मूंह क्या लगना। इसने हाथ पर गंगा जल रख कर कसम खा ली तो ये सत्य ही कह रहा होगा। जो हमारी किस्मत में बदा है उसे हमसे कोई नहीं छिन सकता है। बेचारी मन ही मन केवल सुबक कर रह गई। वरना तो पड़ोसी कि क्‍या मजाल थी कि बेल की तरफ एक उँगली भी कर दे। उसने सोचा जो जबान देने वाला ही चला गया तो अब क्‍या अपनी जबान को खोलनी। और अगर मनुष्‍य धन जीवित है, तो सभी धन फिर से आ जायेगा। वो दिन बहुत कष्‍ट भरे गुज़रे, पर वक्‍त तो किसी को भी नहीं छोड़ता आज वहीं भूरो ताई हुक्‍के की चिलम भी जब उस हाथ से उठाती है तो हाथ कांप जाते है। दो साल बिस्‍तरे में पड़ी रही घर और खेत को देखने वाले अब तो उसके दो-दो शेर बेटे हो गए थे। अब उसे अपने तन की परवाह नहीं थी। वो समय चला गया आज घर धन धान्य से भरा है। परंतु इस सब के लिए भूरो दादी ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। शरीर को गला दिया काम में उसे इन बच्चों के लिए। परंतु कभी कोई शिकायत परमात्मा से नहीं की।

करीब पंद्रह-बीस साल भर बाद तक भूरो दादी जिंदा रही। अपने बच्चों को अपने पेरो पर खड़ा कर दिया। उसने उस शरीर से अति मेहनत मशक्कत की दिन रात नहीं देखती थी। लाख समझाने पर भी इन्‍हीं सब दुखों के कारण बड़े भाई लक्षमण ताऊ ने शादी नहीं की थी। किसी तरह दुख सुख पा कर दोनों भाई जवान हुए। फिर एक दिन छोटे भाई मनोहर लाल की एक अच्‍छी लड़की देख कर शादी की बात पक्‍की कर दी, छोटे भाई मनोहर लाल ने लाख ज़िद्द की मैं शादी नहीं करना चाहता। पहले आप शादी करो पर लक्षमण ताऊ ने उसकी एक नहीं सुनी। बड़े भाई के प्‍यार के आगे मनोहर लाल को ही झुकना पड़ा और घर में लक्ष्मी नहीं सुलक्ष्‍मी बन कर आई किशनो प्यारी। जेठ के सामने आज तक कभी ऊँची आवाज में नहीं बोली, ससुर से भी ज्यादा सम्‍मान दिया किशनो प्यारी ने। पूरा गांव कहता था सुने खेत में जैसे धान बो दिया ऐसी बहु आई है रामनाथ के घर पर। घर बसा दिया, कितनी सुलक्षणी और मधुर भाषीय थी बहु किशनो प्यारी। बस वो अंतिम दिन बेचारी भूरो दादी के स्वर्ग तुल्य गुजरे। परंतु उसके मन में एक मलाल था कि लक्ष्मण ताऊ ने शादी नहीं की। कर लेता तो उसका भी घर भर जाता ।

परंतु बहु किशनो प्यारे के व्यवहार को देख कर भूरो दादी समझ गई थी की घर की लक्ष्मी इस राम-लखन की जोड़ी को अलग नहीं होने देगी। इस सब को देख कर अंधी भूरो दादी अति खुशी थी बड़ा बेटा लक्षमण ताऊ छोटे भाई को पिता समान प्रेम करता है। कैसे चेन से स्वांस निकली थी। आस पास खड़े लोग देख रहे थे। भूरो दादी की मृत्यु पर पूरा गांव रो रहा था। उस दिन किसी के घर भी चूल्हा भी नहीं जला था। दोनों भाई इतने प्रेम प्‍यार से रहते थे, मजाल क्‍या उस घर से कभी किसी ने अपशब्‍द सुने हो, राम-लक्ष्‍मण की जोड़ी थी दोनों भाइयों की। बड़ा भाई लक्ष्मण खेत क्यारी देखता, छोटा भाई दस क्लास पढ़ कर दिल्ली पुलिस में सरकारी नौकरी लग गया था। दोनो भाई दिन रात मेहनत मशक्कत करते, खूब ठाठ से रहने लगे थे। बस यहीं एक मलाल था आज मां भी जिंदा होती तो अपने भरे पूरे घर को देख उसे शान्ति मिल जाती। चलो जो सूख पांच दस साल अंतिम के दिनों में दादी भूरो देख लिया था वह बहु किशनो के ही कारण था। इसलिए दोनों भाई किशनो प्यारी का मन-मन बहुत आदर सम्मान करते थे।

शादी के पांच साल बाद घर में चन्‍द्र प्रकाश पैदा हुआ। चन्‍द्र प्रकाश को बड़े लाड़ प्‍यार से पाला था। मुंह से मांगने से पहले उसकी हर जरूरत पूरी हो जाती थी। चन्‍द्र प्रकाश के बाद एक लड़की हुई जो दो महीने में ही गुजर गई थी। उस के दो साल बाद एक लड़का सूरत हुआ जो आंखों से अंधा हो गया था। वह भी दो साल बाद ही मर गया। रह गई काणें जैसी एक आँख चंद्र प्रकाश। लक्षमण ताऊ के तो मानो प्राण ही बन्द थे, चन्‍द्र प्रकाश में। हल चलाते उसे कैसे पीठ पर बैठाए रहता लक्षमण ताऊ चन्द्र प्रकाश को। सब हंसते तुझे बोझ नहीं लगता इसे सारा दिन पीठ पे बैठाए रहता है। कहते इतना लाड़ मत कर एक दिन इसका सर सातवें आसमान पर होगा। फिर इसे ये जमीन पर चलते फिरते आदमी नजर नहीं आयेंगे। परन्‍तु मोह ने किसी की एक न सुनने दी। खेलकूद के साथ पढ़ाई-लिखाई में चन्‍द्र प्रकाश तीव्र बुद्धि था।

दिल्‍ली के हिन्दू कॉलिज से स्नातक की उपाधि ले, फौज में कमिशन मिल गया। फौज में भरती भी हो गया बिना किसी को बतलाए। लक्षमण ताऊ ने उसकी एक भी बात का कभी विरोध किया था। पर वो नहीं चाहते थे कि बेटा उनसे दूर जाये। परन्‍तु अब करते भी क्‍या चंद्र प्रकाश के दिमाग में जो ज़िद्द हो गई वो उसने पूरी करनी थी। लाख गांव के लोगों ने समझाया कि क्यों नाहक इतनी दूर नौकरी करने के लिए जा रहे हो। यही शहर में कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी साथ में मात पिता की सेवा भी करते रहना। परंतु चंद्र प्रकास ने किसी को कुछ समझता था और न ही उसने किसी की बात पर कान दिये। अब ताऊ लक्ष्मण को लगा रहा था कि गांव के लोग ठीक कहते थे। बेटा आसमान में उड़ने लगेगा तब उसे आप जमीन पर नहीं उतर सकोगे। पर अब क्‍या किया जा सकता था बात हाथ से बहुत दूर निकल गई थी। इकलौता लड़का घर से इतनी दूर जा रहा है, इतना पढ़ लिख कर यहां दिल्‍ली में नौकरियों की क्‍या कमी थी। क्यों वो भी फौज की नौकरी करने के लिए घर परिवार से इतना दूर। परन्‍तु तीनों प्राणी मन मार कर रह गये। और चन्‍द्र प्रकाश कि ज़िद्द के आगे सबने हथियार डाल दिए थे। सोचा जब लड़का वहां जाकर खुश है, तो हम इसकी जिन्दगी में नाहक रोड़ा क्‍यों बने। इसे खुश देख कर ही हम खुश हो लेंगे। परंतु इस महानता की और चंद्र प्रकास ने एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा। कि सब घर के लोग उसके लिए क्या त्याग कर रहा थे।

आस पास के बीस गांव में भी किसी का लड़का फौज में ऑफिसर नहीं हुआ था। सो एक साधारण सी पुलिस की नौकरी करने वाले व्यक्ति के लिए बहुत गर्व की बात थी। आज दोनों भाइयों ने मानो गंगा स्‍नान किया, लगा आज जीवन की तपीस में एक सितल हवा का झोंका आ गया। रात दोनों भाइयों को खुशी के मारे नींद भी नहीं आई। देर रात को जब मनोहर लाल घर आया तो भाई लक्षमण ताऊ को जागता देख, बड़े अचरज में भर कर कहा, सारा दिन खेत क्यारी में खटने पर इतनी देर तक जगना उसकी बढ़ती उम्र के लिए ठीक नहीं था। उसे शक हुआ कहीं भाई कि तबीयत तो खरब नहीं हो गई है कहीं।

‘’भाई लक्षमण कितनी देर होगी, तुम इतनी रात तक सोये क्यों नहीं। तुम्हारी तबीयत तो ठीक है, और उसके माथे पर हाथ रख कर बुखार को देखने लगे।‘’

लक्षमण ताऊ--‘’मेरी तबीयत को क्या हो रहा है, पर आज चन्द्र प्रकास चला गया घर कितना सूना हो गया है अंदर जाऊं तो खान ने दौड़ें है, चंद्र प्रकाश की मां का क्या हाल वह तो किसी को बताती भी नहीं। फिर दूसरी तरफ एक ग्लानि एक पीड़ा एक पश्चाताप अंदर-अंदर खाये जा रहा है। ये हमने क्या किया। तुमने लाख समझाया परंतु मेरी ही मति मारी गई थी। मेरे ही लाड़ प्यार ने उसे बिगाड़ दिया। सच आप बच्चे को पालों पोसो उसे धूप छांव सहने दो तब ही वह एक ऐसा वृक्ष बनेगा जो रहा गिरो को अपनी छांव में विश्राम दे सके। चलो जो परमात्मा को मंजूर है,हमने तो सब अच्छा किया थ। वो जाने उसका राम और लक्ष्मण ताऊ ने एक गहरी स्वांस ली।‘’

इस तरह से दोनों भाई अपने दूख सूख की प्रत्येक बात एक दूसरे को कहते और उस दूख सूख को आपस में बांटते भी थे। परंतु इस में किसी का कोई कसूर नहीं था, हमने तो अपना फर्ज पूरा किया आगे की राम जाने। परंतु ये मोह जो आज दर्द दे रहा है। जिसके बारे में पहले जरा मुझे पता नहीं था। जीवन में सब देख लिया और इससे ज्‍यादा और क्या खुशी होगी। खेर एक तरफ से दोनों भाइयों खुशी है और दूसरी तरफ दूख भी था बेटे के इतनी दूर चला गया।

ये बात आज बड़े भाई के मुख से सून कर मनोहर लाल को बहुत अच्‍छा लगा। नहीं तो पेट काट-काट कर चन्‍द्र प्रकाश की पढ़ाई ही पूरी नहीं होती थी। अपनी तो लाख जरूरत यूं ही पड़ी रह जाती थी। मनोहर लाल ने अपने भाई से कहा की अब हमारे दुख के दिन फिर गए है। भाई, भगवान न तुम्हारी तपस्‍या पूरी कर दी। परंतु यह फौज की नौकरी मुझे अच्छी नहीं लगती। न जाने वहां पर जाने के बाद बच्चे को क्या हो जाता है। वह प्रेम प्रीत न गांव खेड़े के प्रति रहती न परिवार के प्रति। केवल अपने ही बच्चों में इस तरह से रम जाता है। न जाने क्यों एक प्रकार की अकड़ आ जाती ही है अंग्रेजों वाली। उसके लिए तमाम रिश्ते नाते ये संसार सब खत्म हो जाता है। तब ताऊ लक्षमण ने कहा की वह राठघने गांव का एक लड़के बाली बात तुमने सुनी हे। सारे गांव में उसकी थू-थू हो रही है। वह भी फौज में एक अफसर था अपने दोनों भाइयों के हिस्से की जमीन सब खा गया। पिता के मरने के बाद दोनों छोटे भाई आज कोर्ट कचहरी के चक्कर लग रहे है। किस तरह का जमाना आता जा रहा है। सब बदल गया एक पैसा ही महान होता जा रहा है। रात काफी हो गई थी इसलिए छोटे भाई ने ताऊ लक्ष्मण को कहा तुम इस बात को इतना दिल से मत लगाओ। ये तुम्हारी सेहत के लिए ठीक नहीं है। मैं जानता हूं तेरा मोह उस में बहुत अधिक है। परंतु अब वह बड़ा हो गया है। तेरे कंघे पर बैठने लायक नहीं तेरे कंधे से उंचा हो गया है। ले तू सो जाओ रात बहुत अधिक घनी हो गई है।

देख असमान पर हिरणी (सप्त ऋषि मंडल) भी शिखर में पहुंच गई है। दोनों भाइयों की जिन्दगी में नया परिवर्तन आया था। जिसकी उन्होंने पहले कल्पना भी नहीं कि थी। क्‍या मनुष्‍य जो जीवन में सोचता है वह होता है। वो तो एक कृति‍ है पर के बस में एक गहरे रहस्‍य की तरह जो बीज अंधेरे में कल उसी का दबाया हुआ तो था। परन्‍तु बीज में क्‍या उसके वृक्ष होने, उसपर पक्षियों का चहकना, उस पर खिले, फूलों-फलों का कोई भान भी होता है। जिसे मनुष्‍य भविष्‍य में झांक कर देख सके। वो तो मात्र एक कृति है, कर्ता तो कृति के परे है, प्रकृति में जो होगा कल उसकी परछाई का भी अगर किसी को थोड़ी झलक भी मिल जाती है, वह ज्योतिष का विज्ञान बन हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाता है। कोई बेजान दारू वाला.... पर ये सब एक अनुमान मात्र है परछाई से बने चित्रों में तुम्‍हें क्‍या नजर आ रहा है। ये सत्‍य नहीं है।

फौज में अफसर भरती होने पर चन्‍द्र प्रकाश के रिसते भी बड़े-बड़े घरों से आने लगे थे। लाखों में एक हीरा लड़का बो भी जाट जमादारों में सोने पर सुहागा वाली बात ही समझों। बात टाली भी कितनी जाती, आखिर शादी तो करनी ही थी। न-न करते भी पास झटिकरा गांव के ठेकेदार सरूप किसन की लड़की के साथ शादी की हां कर दी। लड़की गोरी, चिट्ठी पढ़ी लिखी भी हाई स्‍कूल पास थी। चन्‍द्र प्रकाश जब छुट्टियों में घर आया तो लड़की को दिखा कर उसकी हां भरने पर सगाई की बात भी पूरी कर दी। गर्मियों में शादी हुई अपनी औकात से अधिक दोनों भाइयों ने शादी खुब चाव से की, मानो किसी राज घराने की लड़की लें आयें। दहेज में वो भी सब सामान लेकर आई जो गांव के लोगों ने देख भी नहीं था। टी. वी., फ्रीज, मशीन, कूलर, डबल बेड, अलमारी, और मोटर साइकिल और कपड़े लत्ते की तो दो संदूक भरी थी। टेलीविज़न जब श्‍याम को चलाया गया तो पूरा गांव आँगन में समा भी नहीं पा रहा था। पहली बार गांव वालों ने टेलीविज़न को देखा था। वह भी स्वेत श्याम ही था। गांव के लोग आज भी नहीं भूले की पहली फिल्म उन्होंने कौन सी देखी थी। तीसरी कसम’ – सजनवा बैरी हो गए हमार।ये गांव वालों के लिए अचरज और नई सौगात ही समझो।

इतने भरा पूरे लोगों से आँगन देख कर माँ किशनो प्यारी को तो मानो क्‍या मिल गया चारपाई, पीढ़े, कुर्सी, जो दहेज में सोफा सेट आया था वो भी आने बाले आगंतुक के लिए बिछा दिया आँगन में। जो घर का दरवाजा सारा दिन ढ़ोर-ड़गरों के लिए बन्द रहता था, अब खुली चौपाल हो गया था। पर अंदर कही एक खुशी थी। हमारे आँगन कोई आया....वो दिन बहुत प्रेम पूर्ण थे। आज तो आपके पास कोई प्रिय मित्र भी आ जाये तो आप बगलें झांकने लगते है। आदमी का प्रेम और मन संकुचित होता जा रहा है। इसलिए आज का मनुष्‍य तनाव और घुटन में एक कैदी की भांति अपने को महसूस कर रहा है। अपनी आजादी के चारों और उसने खुद ही मैं की बाड़ खड़ी कर ली है। परन्‍तु लड़के और बहु को ये भीड़ जरा भी नहीं सुहाई, सोफा वगहरा सब अपने कमरों में रखवा दिये और मां को हिदायत दे दी गई ये बहुत महंगे है, ऐसे रखने से खराब हो जाएंगे। मां समझ गई आने बाले दिन अब भारी होने बालें है। अपनी खुशीया अपने तक ही सीमित रखी जाए तो ही भलाई है। आज का आदमी आपा पौखी हो गया है।

साल भर बाद जब गोना हुआ तब बड़े घर की लड़की के लक्षण मां ने पहले ही दिन से ही देख लिये थे। मां किशनो प्यारी समझ गई थी बहु का कोई सुख उसके भाग्‍य में नहीं है। फिर भी उसने कभी लड़के से या किसी से कोई शिकायत नहीं की। बहु घर का गोबर पानी, झाड़ू बुहारी, कोई काम नहीं करती थी। देर तक सोते से ही उठती, अब भला कोई नौ बजे तब तक घर का काम किसी का इंतजार करेगा। तब तक तो पचास काम मां किशनो प्यारी कर चुकी होती थी। अब मां के हाथ की बनी सब्‍जी भाजी भी उन लोगों को अच्‍छी नहीं लगने लगी थी। इतने सालों से जिन हाथों की सब्‍जी भाजी घी दूध चंद्र प्रकाश खाता आया आज वह बेस्वाद हो गई थी। जिन हाथों से उसे पाल पोस कर इतना बड़ा अफसर बना दिया आज वह हाथ चूल्हा चक्की और गोबर के कारण बिवाई फटे और गंदे हो गये थे। और चंद्र प्रकाश को चूल्हा के सामने काम करने के कारण बहु के तन धूएँ की बदबू आती है। और गोबर पानी से उसके हाथ फट जायेगे। फिर भला बहु को चूल्हे चक्की की आदत कौन डाले। ये तो वहीं बात हो गई की बेचारे साँप के मूंह में छछूंदर। किसी तरह महीना गुजारना भरी हो गया। अब जब लड़का छुट्टी में घर आता जब ही बहु घर आती, पीछे से यहां क्‍या काम था। जब आपको किसी से प्रेम ही नहीं हो तो आप नाहक क्यों शरीर को कष्ट दो। ये बहुत से नैतिक सिद्धांत थे। सो मां किशनो प्यारी सास तो बनी गई परंतु बहु का सुख न लिखा था नसीब में। जीवन जिस लकीर पर पहले चल रहा था, वैसे ही चलता रहा।

1971 का पाकिस्तान के साथ भीषण युद्ध हुआ, लड़का पूंछ में पोस्टिंग था, खबरें आ रही थी वही पर सबसे भयंकर युद्ध चल रहा था। पूरे घर के क्या पूरे गांव के प्राण अधर में लटके रहते थे। कई-कई दिन तो चूल्हा भी नहीं जलता था। पूरे गांव का भी यहीं हाल था चन्‍द्र प्रकाश कोई मनोहर लाल का ही लड़का नहीं था पूरे गांव का था। सब रेडियों के कान लगाये पल-पल की खबरें सुनते रहते थे। पूरे गांव में मातम छाया रहता था। ब्लैक आउट के कारण रात के समय ऐसा अँधेरा हो जाता था। बेचारे कुत्तों को भी भौंकने के लिए परछाई नहीं दिखाई देती थी। फिक्र के मारे न किसी को भूख लगती न ही किसी को नींद आती थी। हर समय दो चार लोग बैठक में, और चार-पाँच औरत घर में मदद के लिए आपने काम छोड़, लगी रहती था। कैसा प्रेम थी उन पहले के लोगों में, अब वो सब न जाने कहा खो गया है। कैसा भाव विहीन हो गया आज का मनुष्‍य, क्‍या कारण हो सकता है इस सब का। क्‍या ज्‍यादा सुविधा या स्वयं अपने पर निर्भर होने के कारण ऐसा नहीं हो रहा। पहले मनुष्‍य को एक दूसरे की जरूरत ज्यादा होती थी। पैसे और श्रम से भी खेतों में घरों में किसी और क्रिया काज में। आज साधन के साथ घन भी बड़ गया है। आज बेटा बाप पर निर्भर नहीं रहता पहले कि तरह, इसलिए आदमी का अहंकार भी बढ़ता जा रहा है। मनुष्‍य अपने होने को दिखाने के लिए कि मैं भी कुछ हूं। कोई कीड़ा मकोड़ा तो नहीं...एक सुखी शान जिसे कोई देखता भी नहीं शायद। पर उसकी मजबूरी है। जब तुम अंदर से नीरस और सूखे हो बिना प्रेम के, तब तुम आपने को बहार से भ्रम पैदा करना चाहते है। एक दिखावे की तरह। सारा गांव रात दिन यहीं दुआएं माँगता की भगवान चन्‍द्र प्रकाश की रक्षा करना मानो चन्‍द्र प्रकाश किशनो प्यारी के बेटा न हो सारे गांव का ही बेटा था। कितनी जल्‍दी समय बदल गया है। आज वो बातें करें तो लोग हंसते है। किस सतयुग की बात कर रहे हो बाबा तुम। दुनियां चाँद पर चला गई पता है तुमको....कुछ या नहीं।

राम-राम करके किसी तरह युद्ध समाप्‍त हुआ, इधर लड़के के युद्ध में सही सलामती की खबर आई और दूसरी खुशी घर में पोते ने जन्‍म लिया। लड़का मायके में ही हुआ था। क्‍योंकि वहां पर अधिक साधन सुविधा थी। घर और गांव ने तो जो ख़ुशियाँ मनानी वो मनाई, गांव भर में मिठाई बटवाई गई थी। परंतु कुआँ पूजन की परम्परा के निभाने की बारी आई अब उसे कैसे मनाए। कुआँ पूजन के लिए बहु को यहां आना चाहिए परंतु बहु ने तो साफ आने से मना कर दिया था। कि ये बस ढोंग-ढकोसले हमें नहीं पड़ना चाहती और न ही उन्हें ये सब करने है। न आज कुओं की जरूरत है और न ही मैंने उस से पानी ही खिंचना। परंतु गांव खेड़े की भी तो एक शान एक मांग होती है। परंतु बहु ने तो कैसा टका सा जवाब दे दिया। सारे गांव वालों के दिलों को कैसी ठेस पहुंची, मानो चन्द्र प्रकाश की बहु ने नहीं उनकी कही बहु ने ये बात कहीं है। गांव में पहली बार काना फूंसी हुई की ये कैसी पढ़ाई जो अपने रिति-रिवाज को भी नहीं मानते। जो काम जहां है वही शोभा देता है। किसी ने किसी के सामने कुछ नहीं कहां। चन्‍द्र प्रकाश आया गांव भर के लोग युद्ध के बारे मैं पूछने लगे, चन्‍द्र प्रकाश ने बताया, दादा भइया की दुआ से ही बच कर आया हूं, वरना मेरे पास मैं ही बहुत बम्ब बार्डमैन्‍ट हुई, मैं एक गहरी खाई में बेहोश हो कर गिर गया था। पुरी 6 सिख बटालियन के एक तिहाई जवान वहां पर शहीद हो गये थे। गांव ने कहा उस परमात्मा ने तो गांव खेड़े ने लाज रख‍ ली राम..राम...बहुत टेक रखा तूने दादा भैया। ताऊ लक्षमण ने बेटे को बहु के कुआं पूजन की बात की लेकिन चन्‍द्र प्रकाश हां-हूं में जवाब दे कर टाल मटोल कर गया। की ताऊ आप भी क्या पचड़े को लेकर बैठ गए। ये सब पुराने जमाने की बात है। आप जरा गांव से बहार निकल कर तो देखो। दुनियां कहा से कहां पहुंच गई है। बेचारा लक्षमण ताऊ अपना सा मूंह ले कर रह गया। बेटा हम तो कुएं के मेंढक है हम कहां जा सकते है बहार। चलो जैसे राम की मर्जी।

समय गुजरता चला गया, तीन साल बाद एक लड़की ने चन्‍द्र प्रकाश के घर जन्‍म लिया। इस बार तो बहु चन्‍द्र प्रकाश के ही साथ ही थी। लक्षमण ताऊ के लिए टिकट भेजा की पोती को देखने के लिए आ जाओ। लक्षमण ताऊ न लाख मान किया कि मुझे रास्तों का भी पता नहीं है, भाई मनोहर लाल चला जाएगा। अब भला सरकारी नौकरी में अचानक छूटी मिलनी भी तो अति कठिन थी। फिर मनोहर लाल जाना भी नहीं चाहता था कि अच्छा है बड़ा भाई घर से दूर कुछ तो जाकर देखे। फिर भी अगर लक्ष्मण ताऊ का ही टिकट आया था और उसे ही जाना चाहिए। भाई मनोहर लाल ने कहा की मैं तो सरकारी काम से लाख यहां से वहां चला जाता हूं। तुने तो दिल्ली से बहार कभी कुछ देखा भी नहीं है अभी तक। फिर भले मानुष तुम्हारे लिए ही तो टिकट भेज कर बुला या है। और पवित्र हिमालय के इतने नजदीक से दर्शन करेगा तेरा सौभाग्य है न मत कर परमात्मा नाराज होगा। आखिर लक्षमण ताऊ को जाना ही पड़ा, हिमालय के इतने नजदीक से पहली बार दर्शन किए उस की उंचाई और उस के सौंदर्य को देख ताऊ हतप्रभ रह गया था। दूर उतंग चोटियों पर ठहरी बर्फ कितनी सुंदर लग रही थी। लक्षमण ताऊ ने ‘’योल’’ (धर्मशाला) में चन्‍द्र की पोस्टिंग थी। वहाँ ज्वाला मां के दर्शन किए, दलाई लाँबा का मंदिर देखा मकडोल गंज, लक्षमण ताऊ ने जब वहां की सुन्‍दर जगहों का वर्णन गांव में आकर किया तो सारे गांव के लोगों कि आंखें फटी की फटी रह गर्इ। सच तुम पुण्य आत्मा हो लक्षमण ताऊ बड़े भाग पाये जो हिमालय के चरणों में सर टेक आये। मानो लक्ष्मण ताऊ कोई तीरथ कर लोटे थे।

लोग जिज्ञासा से पूछते कैसा लगता है हिमालय पास से जिसपर पांचों पांडव चढ़ते हुए स्‍वर्ग चले गए थे। धन्‍य है लक्ष्मण ताऊ तू उस पुण्य भूमि पे हो कर आया है। ये सब तेरे पुण्य प्रताप का फल है, जो चन्‍द्र प्रकाश से सपूत ने तुम्‍हारे खानदान में जन्‍म लिया। वहां से आकर लक्षमण ताऊ कई दिन उदास रहा। फिर एक दिन न जाने क्या सोच कर अपने हिस्‍से की जमीन कोर्ट में जाकर पोते के नाम करा दी। घर में तो उसने हिस्‍सा पहले ही छोड़ दिया था। लेकिन जब से ताऊ चन्‍द्र प्रकाश के पास से होकर आय है, उदास रहने लगा था। मनोहर लाल ने लाख पूछा डाक्टर वेद को दिखाया पर वहां कोई बीमारी पकड़ में नहीं आ रही थी। जीव वैष्णव मनुष्य में प्राणों से भी अधिक महत्व पूर्ण होती है। इसे परमात्मा ने प्रत्येक प्राणी एक अपूर्व भेट दी है। जब किसी मनुष्‍य की जीने कि इच्छा ही खत्‍म हो जाए तो फिर कोई दवा दारू काम नहीं करती। मानो लक्ष्मण ताऊ ने तो अपना मुख सी लिया था। कई महीने तक चारपाई पर रहने के बाद अचानक एक दिन लक्ष्मण ताऊ के प्राण निकल गए। मरने से दो दिन पहले लक्षमण ताऊ ने अपने छोटे भाई मनोहर लाल को सारे जमीन के कागज सौंप दिये थे। उनकी आंखों में आंसू थे। कागज देते हुए कहने लगा, पोते के नाम कर दी जमीन, चन्द्र प्रकाश को दे देना। और आँखों में पानी भर फफक पड़े। भरे गले से कहने लगे चंद्र प्रकाश की मां का ख्याल रखना और तू किसी बात को दिल पर मत लेना जीवन तो यूं ही खाक में मिला दिया -‘’हमारी तपस्‍या में जरूर कोई कमी रह गई होगी भाई। हमने तो आम का पेड़ समझ कर जिसको बोया था सिंचा था वह तो कीकर का पेड़ निकला। सोचा था इस आम की छांव में न जाने कितने लोगों को सीतलता मिलेगी। कितने ही प्राणी इसका मीठा फल खा कर आनंद विभोर होगे। परंतु ये तो कीकर का पेड़ सिवाय कांटों और कड़वी फलियों के क्या दे सकता है। चलों खेर...और उन्होंने एक गहरी स्वांस ली। तू अपना ख्‍याल रखना। वरना मैं वहां स्वर्ग में बाबू को क्‍या मुँह दिखलाऊंगा। और हां चंद्र प्रकाश की मां को भी ख्याल रखना।‘’ और लक्षमण ताऊ ने शरीर त्याग दिया। मनोहर लाल को यह बात कुछ अटपटी जरूर लगी की पोते के नाम की क्या जरूरत थी सब कुछ तो उसका ही था। तब लगा जरूर चन्द्र प्रकाश ने जमीन पैसे का जिक्र लक्ष्मण को किया होगा।

मनोहर लाल ने बेटे को तार किया तू छुट्टी लेकर घर आज जाओ तेरा ताऊ गुजर गया है। अपना भरा पूरा घर है, लक्ष्मण ताऊ कोई बे औलाद थोड़े ही मरा है। तू मेरा बेटा कम उसका ज्यादा है। पूरे दसघरा गांव का ही नहीं पाँच गांव का काज (भोज) करना है। चंद्र प्रकाश मरे मन से तो आया, वह भी अकेला न बेटे को ही न बहु को साथ नहीं लाया। पूछने पर बताया की उनके तो स्कूल की नाग हो जायेगी। अब तक उसके कर्म को पूरे गांव ने पहचान लिया था। अगर किसी ने नहीं पहचाना था तो लक्ष्मण ताऊ थे। अब शायद वह पहचान कर भी नहीं पहचान सकेंगे। या किसी को कह सकेंगे। वह इतनी दूर चले गए है। चंद्र प्रकास ने आकर भरी पंचायत में कह दिया ये सब बे पढ़े लिखें लोगों की बातें है। मरने के बाद जब शरीर ही नहीं रहा तो नाहक भोज के नाम पर पैसा बरबाद करना कोई समझदारी थोड़ा ही है। पैसा कोई इतनी आसानी से कमाया नहीं जाता पैसा कमाने के लिए मैं इतनी दूर जंगलों में यू ही नहीं पड़ा रहता हूं। हर समय मौत के साये में हम भूखे प्यासे जीते है। इस तरह के फिजूल खर्च मैं नहीं कर सकता। टका सा जवाब सून कर सार गांव दंग रह गया। इस बात की किसी को भी उम्‍मीद नहीं थी। गांव के लोगों की आंखें फटी की फटी रह गई कि कम से कम पढ लिख कर आदमी को अपने संस्कारों को ऐसे दकियानूसी कह कर नहीं ठुकरा देना चाहिए। तुम्हें ये फालतू लगते है परंतु दूसरे की संवेदना का तो ख्याल होना चाहिए। ये कोई शोभा दायक बात नहीं थी। कोई और बहाना बना सकता था। नहीं तो अपने मां बाप की खुशी के लिए हां ही कर देता तो उसका क्‍या चला जाता। मां बाप भी तो बच्‍चों की खुशी के लिए अपने सीने पर लाख पत्‍थर रख लेते है। जो उन्हें नहीं जँचता वह भी बच्चे के लिए करते है। ये बात सही नहीं है ये अहंकार की बातें है...अरे अहंकार रावण का नहीं रहा। तौबा... तोबा.. कुछ तो बातें सोच और सिद्धांत, और नैतिकता के परे की होती है। जो किसी के लिए प्रेम ह्रदय से की जाती है। दिमाग से जीवन का हिसाब किताब नहीं लगाना चाहिए। हिसाब किताब तो वस्तुओं का लगाया जा सकता है। भला भावना संवेदना के लिए भी ऐसा हिसाब किताब ये तो बनिया गिरी के भी पार की बात हो गई। कभी-कभी दूसरों की खुशी के लिए भी.... कुछ करने की आदत डालनी चाहिए। पर चन्‍द्र प्रकाश ने किसी की नहीं सूनी। लोगों ने लाख उसे समझाया। ऊंच नीच की बात की परंतु वह टस से मस्स नहीं हुआ।

आज भाई की मौत का इतना गम नहीं हुआ, मनोहर लाल को जितना बेटे की बातों ने पूरे गांव के सामने पानी-पानी कर दिया। अरे पैसे की बात करता है। उसने हजारों लाखों कमाये मेरे लिए या तेरे लिए उसने तो कभी नहीं कहां की मैं क्यों कमाऊ मेरी कोन सी संतान रोती है। कंधे पर बिठा कर तपती दुपहरी में हल चलता था। भाई मनोहर लाल कुछ नहीं बोला। उसे लगा की इस मुर्ख से बात ही क्यों की। क्‍यों पूछा उसने उस भरी पंचायत में? इससे अब उससे हाथ भी बंध गये है जिससे वह अब अपने भाई का काज भी नहीं कर सकेगा। परन्‍तु उसे उम्‍मीद नहीं थी चन्‍द्र प्रकाश से कि वो ताऊ के लिए ऐसा सोचेगा। परन्‍तु सब आस धरी की धरी रह गई। एक महीने तक अपने भाई के फूलों को सम्हाल कर रखा की चन्‍द्र प्रकाश के हाथ से गंगा में प्रवाहित कराऊंगा। चिता को तो वह अग्नि न दे पाया क्‍योंकि वह दूर था। कम से कम फूल तो चन्‍द्र प्रकाश के हाथों प्रवाहित हो ही जाते जिससे मरने बालें की आत्मा को थोड़ी राहत मिल जाती। कि मैं बेऔलाद नहीं मरा। लोग औलाद होने किस लिए क्‍या-क्‍या मन्नत नहीं मांगते है। इसी लिए ना कि भगवान बुढ़ापे में सहारा देगा, मेरे वंश को चलाएगा, मेरी मरी हुई मिट्टी को गंगा में प्रवाहित करेगा। पर आज वह अंदर तक जम गया, क्‍या यहीं जीवन है। जिस पर अपना कोई अधिकार नहीं, या हम खुद अपनी डोर दूसरों के हाथों में थमा कर मूक खड़े हो जाते है। किसी पशु वत...आज उसे अपनी सोच और करनी पर गर्व नहीं एक ग्लानि महसूस हो रही थी। कि न अपने लिए कभी जीया न कभी अपना पेट भर खाया। इस चन्‍द्र प्रकाश के लिए भाई और उसने सब दाव पर लगा दिया था। जैसे जीवन न हो कोई जुआ बन गया हो। और अब इनकी बारी आई तो इन्‍हें पता चल गया की पैसा पेड़ो पर नहीं लगता। उसे कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी होती है। जैसे हमारे तो बाप दादा खजाने भर-भर कर छोड़ गए थे। और देखो इसने एक पल में सारे गांव के सामने यू टका सा जवाब दे दिया।

उस दिन के बाद से मनोहर लाल ने लड़के से बात करना ही छोड़ दिया। जो उसके भाई लक्ष्मण ताऊ का सम्‍मान नहीं कर सकता वह मेरा क्‍या करेगा। दोनों पति-पत्‍नी गांव में कहीं भी आने जाने से हिचकिचाने लगे। एक प्रकार से आपस में भी अनबोले होकर भी एक दूसरे को सब कुछ कह देते थे। लाख समझाने पर भी कभी वैसे चाव से रोटी नहीं खाई मनोहर लाल ने, किशनो प्यारी देखती रहती, जब से ताऊ गुजरा है मानो घर में सब होने पर भी कुछ खाली-खाली पन सा महसूस हो रहा था। जैसे वो ही इस घर का वट वृक्ष था। उसके बिना अब घर में रहने से उन दोनों प्राणियों का दम घुटता था। एक टीस उठती रहती थी, उनके दिलों में। पर कोई एक दूसरे को शिकायत नहीं करता था। देखते ही देखते मनोहर लाल की बज्र काया भी मुरझाने लग गई और वो भी एक दिन चारपाई पर पड़ गया। साल भर के अन्दर ही दूसरा भाई भी चल बसा। अम्‍मा जब इन बातों को याद करती तो ये बात इतनी पुरानी लगती थी। की इनकी धुल-धमास हटाने के लिए भी अम्‍मा को युगों पीछे जाने जैसा लगता था। लगता किसी और लोक और शरीर पर से ये सब गुजार था। क्या ये सब बातें इसी जीवन की है उसे खुद ही अपने पर यकीन ही नहीं आता था। पर मन कही भूल पता है, दर्द को तुम लाख भुलाओ चाहे लाख छिपाओ वह बार-बार मौके बेमौके झांक ही पड़ता है। तुम्ही बंध ह्रदय की खिड़की से भी। घटनाएं आपकी आँखों के सामने ही वो दिन में सपने के समान देखने लग जाते है। मानव की यहीं पीड़ा संताप एक त्रिरादसी उसके ह्रदय में प्रेम के उस आयाम को छूती है। जहां प्रेम भी एक पूजा एक तपस्या का रूप ले लता है। उसके प्रेम में वासना नहीं होती एक पवित्रता गहराने लग जाती है। तब वह प्रेम पूजा बन जाता है।

इतने सालों से अम्‍मा अकेली रहते हुए ऐसे हो गई है, जैसे दीमक खाई लकड़ी जो न तो कुछ बनाने के काम की और न ही जलाने के काम की, वह जलेगी कम धुआं अधिक देगी। आज जीवन की संध्‍या पर पहुंच कर इस भुतहा घर में बैठ कर उस उन स्वर्णिम दिनों को याद करती है। कि कैसे किलकारी मारता चंद्र प्रकाश उसकी गोद से निकल कर दूर आँगन में भाग जाता था। हाथ में लाख काम होने पर भी उसे बार-बार पकड़ना पड़ता था। कैसे दिन पाखी की भाती आता और पल में उड़ जाते थे। मानो अभी तो पलक ही झपकी थी की दिन खत्म हो गया। आज दिन कैसे युगों लम्बे हो गए है। वो सब क्या इसी देह पर से ही गुजरा था यकीन नहीं आता था। वो जो हम सफर थे जो उस समय के गवाह थे। वो भी तो अब नहीं रहे थे, फिर कौन आकर यकीन दिलाए की हां अम्मा तुम जो सोचती हो वह सही है। या मात्र एक छाया थी जो आज भी उसकी गवाह थी......। मन का संतुलन भी अम्मा का कुछ-कुछ बिगड़ गया था। ये मन भी क्‍या है, सहने को इतने बोझ को सह लेता है, नहीं तो क्षण में पागल हो जाता है। अब तो अम्मा की बातें बिना सर पैर की होती थी। कभी कोई पड़ोसन आकर अम्‍मा का हाल चाल पूछती तो अम्‍मा की आधी बातें उसकी समझ में आती आधी सर से गुजर जाती थी। क्‍योंकि वो कल की बहु बेटी, उसने कितना अम्‍मा के जीवन को देखा जो सूना वो भी आधा-अधूरा, ही तो था। दिल चीर कर तो आज तक गांव तो क्या अम्मा ने घर दीवारों को भी नहीं दिखाया था। फिर कौन उस दर्द को उस पीड़ा को देख समझ सकता था।

अम्‍मा अपने पेट के ऊपर हाथ लगा उस आने वाली आगंतुक से पूछती बेटी तू किसकी बहु है, कितने बच्चे हे तेरे, फिर अशीष देती, ‘सदा सुहागन रहो दूधों नहाओ पूतों फलों।‘ पर बेटी देख में तो बांझ रहा गई भगवान ने तेरी तो गोद भर दी ये फूल से बच्चे बूढापे में तेरी सेवा करेंगे। तु बड़े भाग वाली है। बहुत ही अच्‍छे कर्म लेकर आई है तु। परंतु देख इस नास पीटे पेट ने एक पत्थर भी नहीं जना।

पड़ोसन अचरज से कहती--‘नहीं अम्‍मा आपके भी एक बेटा दिया है भगवान......उसे लम्बी उम्र दे भगवान। आप ऐसा क्यों अशुभ बोल बालती हो। वो भूल सुधारने की कोशिश‍ करती। पर शायद अम्‍मा को वो शब्‍द न ही सुनाई भी देते थे और न ही वह समझती थी कि वह क्या कह रही थी। परंतु जो अम्मा कहना चाहती वह शब्दों के पार की भाषा थी। अम्मा अब किसी कि सुनती नहीं केवल कहती थी। नहीं वो सब समय के पार है......आज तुम देखती हो, मेरा कोई नहीं है। क्‍या संतान इसी दिन के लिए पैदा की जाती है। तुझे भ्रम है मेरा कोई संतान नहीं है। तूने गलत सुना होगा। मैं बांझ हूं...अभागी हू....पापिन हूं...कलंकिनी हूं..... और आंसुओं की झड़ी पड़े चेहरे पर नीर की धार बहने लग जाती थी।

‘चारों और निरभ्रम फैली शान्ति इस मुक क्रंदन से सुनाती रहती थी। ठीक वैसी ही श्मशान की फैल शांति जो अम्‍मा के चेहरे पर भी दिखाई दे रही थी। वो केवल अछूती सी देखती जरूर थी पर कही दूर खड़ी होकर देखती सी प्रतीत होती थी। शायद उस निर्दोष शांति का भी साहस नहीं होता अम्‍मा के पास जाने का। उसे सहलाने का न जाने क्यों वह साहस नहीं कर पा रही थी। मानो आकाश में आने वाले तूफान से पहले की वो शान्त थी। आगे के मंज़र के उस दृश्य को झेलने की तैयारी कर रहा थी। अम्मा जब वो बाते सोचती है तो कैसे कलेजा मुंह को आ जाता था। क्‍या बुरा किया था किसी का हमने, एक दिन सुख का नहीं देखा, हजारों में एक औलाद पैदा कि (ऐसा लोग कहते थे), फिर भी क्‍यों मन और आत्मा का सुख न पा सकी, क्‍या यहीं प्रकृति है, या एक बेबसी एक परबसता, लाचारी एक बंधन या अन्‍याय। हमारे घर में तो सात पीढी तक भी ऐसा बीज नहीं था। किस जन्‍म में मुझसे कोई भूल हुई परमात्मा। और उसकी बूढी आंखें जल से भर-भर आती थी..... पर आंसू नहीं बहते थे। बूढी अम्‍मा की आँखों से इतना नीर बह चूका था। चाहा कर भी उन सुखी आँखें में जल जम सा गया था। केवल एक पीड़ा उठती थी किसी सुलगते धुएं की तरह से। वह अपने कलेजे को यूं दबा कर बैठ जाती मानो इस सोच विचार के साथ उसका कलेजा भी बहार आ जाएगा। अगर वो अपने पोपले मूंह में कपड़ा ठुस कर उस न रोकती। ऐसा लगता जैसे अन्दर कोई तीखी चीज चीरती चली गई हो, एक असहज वेदना, एक घुटन, एक लाचारी, एक बेबसी... पर अब वह सो जाना चाहती है, एक गहरी नींद में, जहां कोई उसे अपने होने का अहसास भी न
दिलाए ..... ...।

कब तक ढोए जाए इन सांसों के बोझ को, जब तक कि चिता पर न जाया जाये.... काश वो जीने का बोझ ढोने कि बजाय मारना सिख लेती। अपने लिए जीना आपने होने का सार जान लेती, तो कितना जीवन धन्‍य हो जाता....अम्‍मा ने एक गहरी सांस ले और लिहाफ में मूंह ढक कर आंखें बंद कर ली। यही सोचते हुए कि ये उसकी आखिरी रात होगी, पर ये क्रम सालों से यू ही चल रहा था। वो अंतिम रात कभी नहीं आई थी अब तक। जिसका वह सालों से इंतजार कर रही थी। मानो मृत्‍यु ने भी अम्‍मा से मुख मोड़ लिए था या उसे भूल ही गई थी।

बार-बार अम्‍मा यही रटन लगती रहती चेतन अचेतन से कि काश...कितना अच्‍छा होता मैं बांझ रह जाती, कम से कम एक भ्रम तो बना ही रह जाता कि मेरा कोई नहीं है। एक आस की लकीर भी नहीं होती जिस पर कुछ लिखा जा सके.......और वो फफक पड़ती। वो सारे दर्द फोड़े फफोले बन, उसका वो मवाद अब आंसू बन कर बहते नहीं मृत झील की तरह खड़े रहते थे। कौन देखने बाला है उन आंसुओं को, दूर क्षितिज पर के वो तारे, वो मंदाकिनीय, वो नक्षत्र, या वो शून्य आकाश, सब मूक मौन केवल अनछुए से देख सकते थे। अम्मा की इस वेदना को। शून्य अंधकार में झुरियां पड़े उसके चेहरे पर सूखे आंसू भी उबड़-खाबड़ चेहरे पर रेगिस्तान की तरह पड़ी लकीरों में सिमट कर
रह जाते थे।

अम्‍मा को हर रात अपनी आखिरी साध का इंतजार रहता......कब आयेगी वो मृत्यु। देखो कब पुरी होती है अम्मा की वो अधूरी साध।

 

बस इतना ही।

 

 


 

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