तीसरी
विधि:
‘यह
चेतना ही
प्रत्येक की
मार्ग दर्शक
सत्ता है, यही
हो रहो।’
पहली बात, मार्गदर्शक
तुम्हारे
भीतर है, पर तुम उसका
उपयोग नहीं
करते। और इतने
समय से, इतने जन्मों
से तुमने उसका
उपयोग नहीं
किया है। कि
तुम्हें पता
ही नहीं है कि
तुम्हारे
भीतर कोई विवेक
भी है। मैं
कास्तानेद
की पुस्तक
पढ़ रहा था।
उसका गुरु डान
जुआन उसे एक
सुंदर सा
प्रयोग करने
के लिए देता
है। यह
प्राचीनतम
प्रयोगों में
से एक है।
एक अंधेरी
रात में, पहाड़ी
रास्ते पर
कास्तानेद
का गुरु कहता
है, तू भीतरी
मार्गदर्शक
पर भरोसा करके
दौड़ना शुरू
कर दे। यह
खतरनाक था। यह
खतरनाक था।
पहाड़ी रास्ता
था। अंजान था।
वृक्षों
झाड़ियों से
भरा था।
खाइयां भी थी।
वह कहीं भी
गिर सकता था। वहां
तो दिन में भी
संभल-संभलकर
चलना पड़ता था।
और यह तो
अंधेरी रात
थी। उसे कुछ
सुझाई नहीं पड़ता
था। और उसका
गुरू बोला, चल मत
दौड़।
उसे तो
भरोसा ही न
आया। यह तो
आत्महत्या
करने जैसा हो
गया। वह डर
गया। लेकिन
गुरु दौड़ा।
वह बिलकुल वन्य
प्राणी की तरह
दौड़ता हुआ
गया और वापस आ
गया। और कास्तानेद
को समझ नहीं
आया कि वह
कैसे दौड़ रहा
था। और न केवल
वह दौड़ रहा
था। बल्कि हर
बार दौड़ता
हुआ वह सीधी
उसी के पास
आता जैसे कि
वह देख सकता
हो। फिर
धीरे-धीरे
कास्तानेद
ने साहस
जुटाया। जब यह
बूढ़ा आदमी
दौड़ सकता है
तो वह क्यों
नहीं दौड़
सकता। उसने
कोशिश की, और
धीरे-धीरे उसे
लगा कि कोई
आंतरिक
प्रकाश उठा
रहा है। फिर
वह दौड़ने
लगा।
तुम केवल
तभी होते हो
जब तुम सोचना
बंद कर देते
हो। जिस क्षण
तुम सोचना बंद
करते हो। अंतस
घटित होता है।
यदि तुम न
सोचो तो सब
ठीक है। यह
ऐसे ही है
जैसे कोई भीतर
मार्ग दर्शक
कार्य कर रहा
है। तुम्हारी
बुद्धि ने
तुम्हें
भटकाया है। और
सबसे बड़ा
भटकाव यह है
कि तुम
अंतर्विवेक
पर भरोसा नहीं
कर सकते।
तो पहले
तुम्हें
अपनी बुद्धि
को राज़ी करना
पड़ेगा। यदि तुम्हारा
विवेक कहता भी
है कि आगे
बढ़ो तो तुम्हें
अपनी बुद्धि
को राज़ी करना
पड़ता है। और
तब तुम अवसर
चूक जाते हो।
क्योंकि कई
क्षण होते है, या
तो तुम उनका
उपयोग कर ले
सकते हो, या उन्हें
चूक जाओगे।
बुद्धि समय
लगाती है। और
जब तक तुम
सोचते हो,
विचार करते हो, तब
तक अवसर हाथ
से निकल जाता
है। जीवन तुम्हारे
लिए इंतजार
नहीं करेगा।
तुम्हें तत्क्षण
जीना होता है।
तुम्हें
योद्धा बनना
पड़ता है।
जैसे झेन में
कहते है—क्योंकि
जब तुम रणभूमि
में तलवार
लेकर लड़ रहे
हो तो तुम
सोचते नहीं,
तुम्हें
बिना सोचे
विचारे लड़ना
होता है।
झेन गुरूओं
न तलवार का ध्यान
की विधि की
तरह उपयोग
किया है। और
जापान में
कहते है कि
यदि दो झेन
गुरु, दो ध्यानस्थ।
व्यक्ति
तलवारों से
युद्ध कर रहे
हों तो परिणाम
कभी निकल ही
नहीं सकता। न
कोई हारेगा। न
कोई जीतेगा।
क्योंकि
दोनों ही
विचार नहीं कर
रहे। तलवारें
उनके हाथों
में नहीं है।
उनके
अंतर्विवेक,
विचारवान
भीतरी मार्ग
दर्शक के
हाथों में है।
और इससे पहले
कि दूसरा
आक्रमण करे,विवेक
जान लेता है
और
प्रतिरक्षा
कर लेता है।
तुम उसके बारे
में सोच नहीं
सकते क्योंकि
समय ही नहीं
है। दूसरा
तुम्हारा
ह्रद का
निशाना बना
रहा है। एक ही
क्षण में
तलवार तुम्हारे
ह्रदय में घुस
जाएगी। इस
विषय में
सोचने का समय
ही नहीं है।
कि क्या करना
है। जैसे ही
उसके मन में
यह विचार उठता है
कि ह्रदय में
तलवार धुसा
दो। उसी समय
तुममें विचार
उठना चाहिए कि
बचो। उसी क्षण
बिना किसी
विलंब के—केवल
तभी तुम बच
सकते हो। बरना
तो तुम समाप्त
हो जाओगे।
तो
वे तलवार बाजी
को ध्यान की
तरह सिखते है
और कहते है, ‘हर क्षण
अंतर्विवेक
से जीओं,
सोचो मत। अंतस
जो चाहे उसे
करने दो। मन
के द्वारा हस्तक्षेप
मत करो।’
यह
बहुत कठिन है,
क्योंकि हम
तो अपने मन से
ही इतने
प्रशिक्षित
है। हमारे स्कूल
हमारे कालेज, हमारे विश्वविद्यालय,हमारी संस्कृति, सभ्यता,सभी हमारे
मस्तिष्क
को भरते है।
हमारा अपने
अंतर्विवेक
से संबंध टूट
गया है। सब उस
अंतर्विवेक
के साथ ही
पैदा होते है।
लेकिन उसे काम
नहीं करने
दिया जाता। वह
करीब-करीब
अपंग हो जाता
है। पर उसे पुनर्जीवित
किया जा सकता
है। यह सूत्र
इसी
अंतर्विवेक
के लिए है।
‘यह
चेतना ही
प्रत्येक की
मार्गदर्शक
सत्ता है,
यही हो रहो।’
खोपड़ी
से मत सोचो।
सच में तो,
सोचो ही मत।
बस बढ़ा। कुछ
परिस्थितियों
में इसे करके
देखो। यह कठिन
होगा, क्योंकि
सोचने की
पुरानी आदत
होगी। तुम्हें
सजग रहना
पड़ेगा कि
सोचना नहीं
है। बस भीतर
से महसूस करना
है कि मन में
क्या आ रहा
है। कई बार
तुम उलझन में
पड़ सकते हो कि
यह अंतर्विवेक
से उठ रहा है।
या मन की सतह
से आ रहा है।
लेकिन जल्दी
ही तुम्हें
अंतर पता लगना
शुरू हो
जाएगा।
जब
भी कुछ तुम्हारे
भीतर से आता
है तो वह तुम्हारी
नाभि से ऊपर
की और उठता
है। तुम उसके
प्रवाह, उसकी
उष्णता को
नाभि से ऊपर
उठते हुए
अनुभव कर सकते
हो। जब भी
तुम्हारा मन
सोचता है तो
वह ऊपर-ऊपर
होता है। सिर
में होता है
और फिर नीचे
उतरता है।
तुम्हारा मन
सोचता है तो
वह ऊपर-ऊपर
होता है,
सिर में होता
है। और फिर
नीचे उतरता
है। यदि तुम्हारा
मन कुछ सोचता
है तो उसे
नीचे धक्का
देना पड़ता
है। यदि तुम्हारा
अंतर्विवेक
कोई निर्णय
लेता है तो
तुम्हारे
भीतर कुछ उठता
है। वह तुम्हारे
अंतरतम से
तुम्हारे मन
की और आता है।
मन उसे ग्रहण
करता है। पर
वह निर्णय मन
का नहीं होता।
वह पार से आता
है। और यही
कारण है कि मन
उससे डरता है।
बुद्धि उस पर
भरोसा नहीं कर
सकती। क्योंकि
वह गहरे से
आता है—बिना
किसी तर्क के
बिना किसी
प्रमाण के बस
उभर आता है।
तो
किन्हीं
परिस्थितियों
में इसे करके
देखो। उदाहरण
के लिए, तुम
जंगल में रास्ता
भटक गए हो तो
इसे करके
देखो। सोचो मत
बस, अपने
आँख बंद कर लो, बैठ जाओ। ध्यान
में चले जाओ।
और सोचो मत।
क्योंकि वह
व्यर्थ है; तुम सोच
कैसे सकते हो? तुम कुछ
जानते ही नहीं
हो। लेकिन
सोचने की ऐसी
आदत पड़ गई है
कि तुम तब भी
सोचते चले
जाते हो। जब
सोचने से कुछ
भी नहीं हो
सकता है। सोचा
तो उसी के
बारे में जा
सकता है,
जो तुम पहले
से जानते हो, तुम जंगल
में रास्ता
खो गए हो,
तुम्हारे
पास कोई नक्शा
नहीं है,
कोई मौजूद
नहीं है जिससे
तुम पूछ लो।
अब तुम क्या
सोच सकते हो।
लेकिन तुम तब
भी कुछ न कुछ
सोचोगे। वह
सोचना बस
चिंता करना ही
होगा। सोचना नहीं
होगा। और
जितनी तुम
चिंता करोगे
उतना ही अंतर्विवेक
कम काम कर
पाएगा।
तो
चिंता छोड़ो,
किसी वृक्ष के
नीचे बैठ जाओ
और विचारों को
विदा हो जाने
दो। बस
प्रतीक्षा
करो, सोचो
मत। कोई समस्या
मत खड़ी करो, बस
प्रतीक्षा
करो। और जब
तुम्हें लगे
कि निर्विचार
का क्षण आ गया
है, तब
खड़े हो जाओ
और चलने लगो।
जहां भी तुम्हारा
शरीर जाए उसे
जाने दो। तुम
बस साक्षी बने
रहो। कोई हस्तक्षेप
मत करो। खोया
हुआ रास्ता
बड़ी सरलता से
पाया जा सकता
है, लेकिन
एकमात्र शर्त
है कि मन के
द्वारा हस्तक्षेप
न हो।
ऐसा
कई बार अनजाने
में हुआ है।
महान
वैज्ञानिक
कहते है कि जब
भी कोई बड़ी
खोज हुई है मन
के द्वारा
नहीं हुई ,
सदा अंतःप्रज्ञा
के ही कारण
हुई है।
मैडम
क्यूरी गणित
की एक समस्या
को सुलझाने
में लगी हुई
थी। जो कुछ भी
संभव था, उसने
सब किया। फिर
वह ऊब गई। कई
दिन से, हफ्तों
से वह उस पर कार्य
कर रही थी। और
कुछ हल नहीं
निकल रहा था।
वह पागल हुई
जा रही थी। हल
का कोई उपाय
ही नजर नहीं आ
रहा था। फिर
एक रात थक कर
वह लेट गई और
सो गई। और रात
को सपने में उसका
उत्तर एकदम
उभर आया वह
उससे इतनी
जुड़ी हुई थी
कि उसका सपना
टूट गया,
वह जाग गई।
उसी क्षण उसने
उत्तर लिख
दिया। क्योंकि
सपने में यह
तो आया नहीं
था कि करना
कैसे है,
बस उत्तर
सामने आ गया।
उसने एक कागज
पर उत्तर लिख
दिया और फिर
सो गई।
सुबह
वह हैरान हुई;
उत्तर
बिलकुल ठीक था, पर वह जानती
नहीं थी कि
उसे निकाला
कैसे गया था।
कोई
प्रक्रिया, कोई तरीका
नहीं दिया हुआ
था। फिर उसने
प्रक्रिया
खोजने की
कोशिश की। अब
वह आसान बात
थी क्योंकि
उत्तर हाथ
में था। और उत्तर
लेकिर पीछे
बढ़ना सरल था।
इस सपने के
कारण उसने नोबल
पुरस्कार
जीता। लेकिन
वह सदा ही
हैरान रही कि
यह हुआ कैसे।
जब
तुम्हारा मन
थक जाता है,
और आगे नहीं
बढ़ सकता,
तो वह थक कर
रूक जाता है; थकनें के उस
क्षण में
अंतर्विवेक
इशारे दे सकता
है। हल दे
सकता है। कुंजियों
दे सकता है।
जिस व्यक्ति
को मनुष्य की
कोशिश की
आंतरिक
संरचना की खोज
के लिए नोबल
पुरस्कार
मिला, उसने
भी उसकी
संरचना को एक
सपने में
देखा। उसने
मानवीय
कोशिका की
पूरी आंतरिक
संरचना को सपने
में देखा और
सुबह उठकर
उसकी पिक्चर
बना दी। उसे
खुद भी भरोसा
नहीं था कि यह
ठीक है, तो
उसे कई वर्षों
तक उस पर काम
करना पडा। कई
वर्ष उस पर
काम करने के
बाद वह इस
निष्कर्ष पर
पहुंचा कि
सपना सच्चा
था।
मैडम
क्यूरी के
साथ ऐसा हुआ
कि जब उसे अंतःप्रज्ञा
की इस
प्रक्रिया का
पता चला तो
उसने निश्चय
कर लिया कि वह
प्रयोग करके
देखेगी। एक
बार एक समस्या
आ गई जिसे वह
हल करना चाहती
थी। तो उसने
सोचा, ‘इसके
लिए क्यों व्यर्थ
ही चिंता करूं, और श्रम
करूं? बस
सो जाती हूं।’ वह मजे से सो
गई, पर कोई
हल नहीं आया।
तो वह थोड़ी
परेशान हुई। कई
बार उसने
कोशिश की,जब
भी कोई समस्या
आती तो वह सो
जाती। लेकिन
कोई हल न
निकलता। पहले
बुद्धि को
पूरी तरह से
थकाना होता है, तभी हल आता
है। खोपड़ी को
पूरी तरह से
थका देना होता
है। नहीं तो
वह स्वप्न
में भी चलती
रहती है।
तो
अब वैज्ञानिक
कहते है कि
सभी बड़ी
खोजें अंतःप्रज्ञा
से आती है। बौद्धिक
नहीं होती।
भीतर
मार्गदर्शक
का यही अर्थ
है।
‘यह
चेतना ही
प्रत्येक की
मार्गदर्शक
सत्ता है,
यहीं हो रहो।’
मस्तिष्क
को छोड़ दो और
इस
अंत:प्रज्ञा
में उतर जाओ।
पुराने शास्त्र
कहते है कि
बाह्म गुरु
केवल तुम्हें
भीतर के गुरु
से मिलवा ने
में मदद कर
सकता है। बस
इतना ही। एक
बार बाह्म
गुरु तुम्हें
भीतरी गुरू से
मिलवा दे तो
उसका काम
समाप्त हो
जाता है।
गुरु
के द्वारा तुम
सत्य तक नहीं
पहुंच सकते;
गुरु के द्वार
तुम बस भीतर
के गुरु तक
पहुंच सकते
हो। और तब वह
भीतर का गुरु
तुम्हें सत्य
तक ले जाएगा।
बाह्म गुरु तो
बस एक
प्रतिनिधि है, एक विकल्प
है। उसने अपना
भीतरी मार्ग
दर्शक खोज
लिया है और वह
तुम्हारे
मार्ग दर्शक
को देख सकता
है, क्योंकि
वे दोनों एक
ही तल पर है; एक ही लय में
एक ही आयाम
में है। यदि
मैंने अपना
अंतर्विवेक
खोज लिया है
तो मैं तुममें
झांक कर तुम्हारे
अंतर्विवेक
को महसूस कर
सकता हूं। और
यदि में वास्तव
में तुम्हारा
पथ प्रदर्शक
हूं तो मेरा
सारा सहयोग
तुम्हें
तुम्हारे
अंतर्विवेक
तक पहुंचाने
के लिए होगा।
एक
बार तुम्हारा
अपने
अंतर्विवेक से
संबंध बन जाए
तो मेरी कोई
जरूरत नहीं
है। अब तुम
अकेले चल सकते
हो। तो गुरु
बस इतना ही कर
सकता है। कि वह
तुम्हें
खोपड़ी से
नाभि पर ढकेल
दे, तुम्हारी
तार्किक
बुद्धि से
तुम्हें आस्थावान
मार्गदर्शक
की और धक्का
दे दे। और ऐसा
केवल मनुष्यों
में नहीं है, ऐसा
पशु-पक्षियों, वृक्षों, सबके साथ
होता है। सब
में अंत:प्रज्ञा
होती है। और
अब तो कई नहीं
बातें पता चली
है जो बहुत
रहस्यमय है।
बहुत
सी घटनाएं है।
उदाहरण के लिए
एक मादा मछली
अंडे देते ही
मर जाती है।
पिता अंडों को
सेता है। और
फिर वह भी मर
जाता है। अंडे
बिना माता-पिता
के रहते है।
वे परिपक्व
हो जाते है।
नई मछलियाँ
पैदा हो जाती
है। ये मछलियाँ
अपने
माता-पिता के
बारे में कुछ
भी नहीं जानती।
उन्हें नहीं
पता होता कि
वे कहां से आई
थी। लेकिन ये मछलियाँ
समुद्र के
किसी भी हिस्से
में हों, वे
अंडे देने उसी
जगह पहुंच
जाएंगी जहां
उनके माता
पिता अंडे
देने आए थे।
वे स्त्रोत पर
लौट जाएंगी।
ऐसा बार-बार
होता रहा है।
और जब भी उन्हें
अंडे देने
होंगे वे इसी
किनारे पर लौट
आएँगी,
अंडे देंगी और
मर जाएंगी।
तो
मां बाप और
बच्चों के
बीच कोई
संपर्क नहीं
है। पर किसी
तरह बच्चे
जानते है कि
उन्हें कहां
जाना है, और वे
कभी चूकते
नहीं। और तुम
उन्हें भटका
नहीं सकते ऐसा
करने की कोशिश
की गई है।
लेकिन तुम उन्हें
भटका नहीं
सकते वे स्त्रोत
पर लौट ही
जाएंगे। कोई
अंतर्प्रेरणा
काम कर रही
है।
सोवियत
रूस में बिल्लियों,
चूहों और छोटे
जानवरों के
साथ प्रयोग
करते रह है। एक
बिल्ली को
उसके बच्चे
से अलग कर
लिया गया और
बच्चों को
समुद्र में
गहरे ले जाया
गया; उसे
पता नहीं लग
सकता था कि
उसके साथ क्या
हो रहा है। हर
तरह के
वैज्ञानिक
यंत्र बिल्ली
के साथ लगा
दिए गये। ताकि
यह पता चल सके
कि बिल्ली के
मन में और
ह्रदय में क्या
चल रहा है।
फिर उसके बच्चे
को मारा गया।
गहरे समुद्र
में—एक दम से
मां को पता चल
गया। उसका रक्तचाप
बदल गया। वह
चिंतित हो गई, उसके दिल की
धड़कन बढ़ गई—जैसे
ही बच्चे को
मारा गया। और
वैज्ञानिक
यंत्रों ने
बताया कि उसे
बड़ी पीड़ा
हुई। फिर कुछ
समय बाद सब
सामान्य हो
गया। फिर
दूसरा बच्चा
मारा गया,फिर
परिर्वतन
हुआ। और तीसरे
बच्चे के साथ
भी ऐसा ही
हुआ। हर बार
बिलकुल उसी समय
ही ऐसा हुआ।
क्या हो रहा
था।
अब
रूसी
वैज्ञानिक
कहते है कि
मां के पास एक
अंतर्प्रेरणा
होती है।
अनुभूति का एक
अंत केंद्र
होता है। और
वह बच्चों के
साथ जुड़ा
होता है, चाहे
वे कहीं भी
हों। और वह
तत्क्षण एक
टेलीपैथिक
संवेदना
अनुभव करती
है। मनुष्य
में मां इतना
अनुभव कर
सकती। यह बड़ी
हैरानी की बात
है; मनुष्य
को अधिक अनुभव
करना चाहिए क्योंकि
वह अधिक
विकसित है।
लेकिन वह नहीं
कर पाती क्योंकि
मस्तिष्क
ने सब कुछ
अपने हाथों
में ले लिया
है और सारे आंतरिक
केंद्र अपंग
पड़ गए है।
‘या
चेतना ही
प्रत्येक की मार्गदर्शक
सत्ता है,
यहीं हो रहो।’
जब
भी तुम किसी परिस्थिति
में बहुत परेशान
होओ और तुम्हें
पता न चले कि उसमें
से कैसे निकलना
है तो सोचों मत,
बस गहरे निर्विचार
में चले जाओ और
अपने अंतर्विवेक
को अपना मार्गदर्शन
करने दो। शुरू-शुरू
में तो तुम्हें
भय लगेगा। असुरक्षा
महसूस होगी। पर
जल्दी ही जब तुम
हर बार ही ठीक निष्कर्ष
पर पहुंचोगे, जब तुम हर ठीक
द्वार पर पहुंच
जाओगे, तुममें
साहस आ जाएगा और
तुम भरोसा करने
लगोगे।
यदि
यह भरोसा आता है
तो उसे ही मैं श्रद्धा
कहता हूं। यह वास्तव
में आध्यात्मिक
श्रद्धा है, अंतर्विवेक
में श्रद्धा। बुद्धि
तुम्हारे अहंकार
का हिस्सा है।
वह तो अपने आप पर
ही भरोसा है। जिस
क्षण तुम अपने
में गहरे उतरते
हो, तुम ब्रह्मांड
की आत्मा में
पहुंच जाते हो।
तुम्हारी अंत:प्रज्ञा
परम विवेक का अंश
है। जब तुम अपना
ही अनुसरण करते
हो तो सब कुछ उलझा
देते हो और तुम्हें
पता नहीं चलता
कि तुम क्या
कर रहे हो। तुम
अपने को बहुत ज्ञानी
समझ सकते हो पर
हो नहीं।
ज्ञान
तो ह्रदय से आता
है, बुद्धि से नहीं।
ज्ञान तुम्हारी
आत्मा के अंतरतम
से उठता है। मस्तिष्क
से नहीं। अपनी
खोपड़ी को अलग
हटा कर रख दो और
आत्मा का अनुसरण
करो, चाहे वह
जहां भी ले जाए।
अगर वह खतरे में
भी ले जाए तो खतरे
में जाओ क्योंकि
वही तुम्हारे
लिए और तुम्हारे
विकास के लिए मार्ग
होगा। खतरे से
तुम विकसित होओगे
और पकोगे। यदि
अंतर्विवेक तुम्हें
मृत्यु की और
भी ले कर जाये तो
उसके पीछे जाओ।
क्योंकि वहीं
तुम्हारा मार्ग
होगा। उसका अनुसरण
करो,उसमें श्रद्धा
करो और उस पर चल
पड़ो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-77
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंThank You Bhagwan ... I Love you <3
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