तीसरी
विधि:
‘हे
शक्ति, प्रत्येक
आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान
में विलीन हो
रहा है।’
जो कुछ भी हम
देखते है
सीमित है, जो
कुछ भी हम
अनुभव करते है
सीमित है। सभी
आभास सीमित
है। लेकिन यदि
तुम जाग जाओ
तो हर सीमित
चीज असीम में
विलीन हो रही
है। आकाश की और
देखो। तुम
केवल उसका
सीमित भाग देख
पाओगे। इसलिए
नहीं कि आकाश
सीमित है,
बल्कि इसलिए
कि तुम्हारी
आंखें सीमित
है। तुम्हारा
अवधान सीमित
है। लेकिन यदि
तुम पहचान सको
कि यह सीमा
अवधान के कारण
है, आंखों के
कारण है, आकाश के
सीमित होने के
कारण नहीं है
तो फिर तुम
देखोगें कि
सीमाएं असीम
में विलीन हो
रही है। जो
कुछ भी हम
देखते है वह
हमारी दृष्टि
के कारण ही
सीमित हो जाता
है। वरना तो
अस्तित्व
असीम है। वरना
तो सब चीजें
एक दूसरे में
विलीन हो रही
है। हर चीज
अपनी सीमाएं
खो रही है। हर
क्षण लहरें
महासागर में
विलीन हो रही
है। और न किसी
को कोई अंत है, न
आदि। सभी कुछ
शेष सब कुछ भी
है।
सीमा हमारे
द्वारा
आरोपित की गई
है। यह हमारे कारण
है, क्योंकि
हम अनंत को
देख नहीं पाते,
इसलिए उसको
विभाजित कर
देते है। ऐसा
हमने हर चीज
के साथ किया
है। तुम अपने
घर के आस-पास
बाड़ लगा लेते
हो। और कहते
हो कि ‘यह
जमीन मेरी है,
और दूसरी और
किसी और की
जमीन है।’
लेकिन गहरे
में तुम्हारी
और तुम्हारे
पड़ोसी की
जमीन एक ही
है। वह बाड़
केवल तुम्हारे
ही कारण है।
जमीन बंटी हुई
नहीं है। पड़ोसी
और तुम बंटे
हुए हो
अपने-अपने मन
के कारण।
देश बंटे
हुए है तुम्हारे
मन के कारण।
कहीं भारत
समाप्त होता
है और पाकिस्तान
शुरू होता है।
लेकिन जहां अब
पाकिस्तान
है कुछ वर्ष
पहले वहां
भारत था। उस
समय भारत
पाकिस्तान
की आज की
सीमाओं तक
फैला हुआ था।
लेकिन अब पाकिस्तान
बंट गया, सीमा आ गई
लेकिन जमीन
वही है।
मैंने एक
कहानी सुनी है
जो तब घटी जब
भारत और
पाकिस्तान
में बंटवारा
हुआ। भारत और
पाकिस्तान
की सीमा पर ही
एक पागलखाना
था।
राजनीतिज्ञों
को कोई बहुत
चिंता नहीं थी
कि पागलखाना
कहां जाए।
भारत में कि
पाकिस्तान
में। लेकिन सुपरिनटैंडैंट
को चिंता थी।
तो उसने पूछा
कि पागलखाना
कहां रहेगा।
भारत में या
पाकिस्तान
में। दिल्ली
से किसी ने
उसे सूचना
भेजी कि वह
वहां रहने वाले
पागलों से ही
पूछ ले और
मतदान ले-ले
कि वे कहां
जाना चाहते
है।
सुपरिन्टेंड़ेंट
अकेला आदमी था
जो पागल नहीं
था और उसने
उनको समझाने
की कोशिश कि।
उसने सब
पागलों को
इकट्ठा किया
और उन्हें
कहां, ‘अब
यह तुम्हारे
ऊपर है, यदि
तुम पाकिस्तान
में जाना
चाहते हो तो
पाकिस्तान
में जा सकते
हो।’
लेकिन
पागलों ने
कहां, ‘हम
यही रहना
चाहते है। हम
कहीं भी नहीं
जाना चाहते।’
उसने उन्हें समझाने
की बहुत कोशिश
की। उसने कहां, ‘तुम
यहीं रहोगे।
उसकी चिंता मत
करो। तुम यहीं
रहोगे लेकिन
तुम जाना कहां
चाहते हो।’ वे
पागल बोले, ‘लोग
कहते है कि हम
पागल है, पर
तुम तो और भी
पागल लगते हो।
तुम कहते हो
कि तुम भी
यहीं रहोगे और
हम भी यहीं
रहेंगे। कहीं
जाने की चिता नहीं
है।’
सुपरिन्टेंड़ेंट
तो मुश्किल
में पड़ गया
कि इन्हें
पूरी बात किस
तरह समझाई
जाए। एक ही
उपाय था। उसने
एक दीवार खड़ी
कर दी और पागल
खाने के दो बराबर
हिस्सों में
बांट दिया। एक
हिस्सा
पाकिस्तान
हो गया एक
हिस्सा भारत
बन गया। और
कहते है कि कई
बार पाकिस्तान
वाले पागल
खाने के कुछ
पागल दीवार पर
चढ़ आते है।
और भारत वाले
पागल भी दीवार
कूद जाते है
और वे अभी भी
हैरान है कि
क्या हो गया
है। हम है उसी
जगह पर और तुम
पाकिस्तान
चले गए हो हम
भारत चले गए
है। और गया
कोई कहीं भी
नहीं।
वे पागल
समझ ही नहीं
सकते, वे कभी भी
नहीं समझ
पाएंगे, क्योंकि
दिल्ली और
कराची में और
भी बड़े पागल
है।
हम बांटते
चले जाते है।
जीवन अस्तित्व
बंटा हुआ नहीं
है। सभी
सीमाएं मनुष्य
की बनाई हुई
है। वे उपयोगी
है यदि तुम
उसके पीछे
पागल न हो जाओ
और यदि तुम्हें
पता हो कि वे
बस कामचलाऊ है,
मनुष्य की
बनाई हुई है।
मात्र
उपयोगिता के
लिए है; असली नहीं
है, यथार्थ
नहीं है, बस मान्यता
मात्र है, कि
वे उपयोगी तो
है, लेकिन
उसमें कोई सच्चाई
नहीं है।
‘हे
शक्ति,
प्रत्येक
आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान
में विलीन हो
रहा है।’
तो तुम जब
भी कुछ सीमित
देखो तो हमेशा
याद रखो कि
सीमा के पार
वह विलीन हो
रहा है, सीमा
तिरोहित हो
रही है। हमेशा
पार और पार देखो।
इसे तुम एक
ध्यान बना
सकते हो। किसी
वृक्ष के नीचे
बैठ जाओ और
देखो, और जो भी
तुम्हारी
दृष्टि में
आए, उसके पार
जाओ, पार जाओ, कहीं
भी रूको मत। बस
यह खोजों कि यह
वृक्ष कहां समाप्त
हो रहा है। यह वृक्ष
तुम्हारे बग़ीचे
में यह छोटा सा
वृक्ष पूरा अस्तित्व
अपने में समाहित
किए हुए है। हर
क्षण यह अस्तित्व
में विलीन हो रहा
है।
यदि कल सूर्य
न निकले तो यह वृक्ष
मर जाएगा। क्योंकि
इस वृक्ष का जीवन
सूर्य के जीवन
के साथ जुड़ा हुआ
है। उनके बीच दूरी
बड़ी है। सूर्य
की किरणें पृथ्वी
तक पहुंचने में
समय लगता है। दस
मिनट लगते है।
दस मिनट बहुत लंबा
समय है। क्योंकि
प्रकाश बहुत तेज
गति से चलता है।
प्रकाश एक सेकेंड
में एक लाख छियासी
हजार मील चलता
है। और सूर्य से
इस वृक्ष तक प्रकाश
पहुंचने में दस
मिनट लगते है।
दूरी बड़ी है, विशाल
है। लेकिन यदि
सूर्य न रहे तो
वृक्ष तत्क्षण
मर जायेगा। वे
दोनों एक साथ है।
वृक्ष हर क्षण
सूर्य में विलीन
हो रहा है। और सूर्य
हर क्षण वृक्ष
में विलीन हो रहा
है। हर क्षण सूर्य
वृक्ष में प्रवेश
कर रहा है। उसे
जीवंत कर रहा है।
दूसरी
बात, जो अभी विज्ञान
को ज्ञान नहीं
है, लेकिन धर्म
कहता है कि एक और
घटना घट रही है।
क्योंकि प्रति
संवेदन के बिना
जीवन में कुछ भी
नहीं रह सकता।
जीवन में सदा एक
प्रति संवेदन होता
है। और ऊर्जा बराबर
हो जाती है। वृक्ष
भी सूर्य को जीवन
दे रहा होगा। वे
एक ही है। फिर वृक्ष
समाप्त हो जाता
है सीमा समाप्त
हो जाती है।
जहां
भी तुम देखो, उसके
पार देखो, और
कहीं भी रूको मत।
देखते जाओ। देखते
जाओ, जब तक कि
तुम्हारा मन
न खो जाए। जब तक
तुम अपने सारे
सीमित आकार न खो
बैठो। अचानक तुम
प्रकाशमान हो
जाओगे।
पूरा
अस्तित्व एक
है, वह एकता ही लक्ष्य
है। और अचानक मन
आकार से सीमा से
परिधि से थक जाता
है। और जैसे-जैसे
तुम पार जाने के
प्रयत्न में लगे
रहते हो, पार
और पार जाते चले
जाते हो। मन छूट
जाता है। अचानक
मन गिर जाता है।
और तुम अस्तित्व
को विराट अद्वैत
की तरह देखते हो।
सब कुछ एक दूसरे
में समाहित हो
रहा है। सब कुछ
एक दूसरे में परिवर्तित
हो रहा है।
‘हे
शक्ति, प्रत्येक
आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान
में विलीन हो रहा
है।’
इसे
तुम एक ध्यान
बना ले सकते हो।
एक घंटे के लिए
बैठ जाओ और इसे
करके देखो। कहीं
कोई सीमा मत बनाओ।
जो भी सीमा हो उसके
पार खोजने का प्रयास
करो और चले जाओ।
जल्दी ही मन थक
जाता है। क्योंकि
मन असीम के साथ
नहीं चल सकता।
मन केवल सीमित
से ही जुड़ सकता
है। असीम के साथ
मन नहीं जुड़ सकता; मन
ऊब जाता है। थक
जाता है। कहता
है, ‘बहुत
हुआ,अब बस करो।’ लेकिन रूको
मत, चलते जाओ।
एक क्षण आएगा जब
मन पीछे छूट जाता
है। और केवल चेतना
ही बचती है। उस
क्षण में तुम्हें
अखंडता का अद्वैत
का ज्ञान होगा।
यही लक्ष्य है।
यह चेतना का सर्वोच्च
शिखर है। और मनुष्य
के मन के लिए यह
परम आनंद है, गहनत्म समाधि
है।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग—पांच,
प्रवचन-75
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें