ए बी
पी न्यूज का
प्रश्न—
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कार्यक्रम
के प्रारंभ
में ही कहा
गया कि कल ओशो
की पुण्य
तिथि है। खैर
आप ओशो की
देशना से
परिचित नहीं
है तो मान
लिया कि जिस
दिन ओशो ने
अपना शरीर छोड़ा
उसे आप पुण्य
तिथि कहते है।
जब सभी
तिथियां पुण्य
है तो यह
तिथित भी पुण्य
ही हे। आप इस
दिन ओशो का स्मरण
करना चाहते है,
जरूर कीजिए,
शुभ है।
अब कार्यक्रम
की बात करे:
कार्यक्रम
का शीर्षक था—ओशो
भगवान या आम
आदमी। जैसा कि
शीर्षक से ही
स्पष्ट है
कि वे ओशो को
भगवान के
दर्जे से उतार
कर एक आम आदमी
सिद्ध करना
चाहते है।
बड़े मजे की
बात है कि यही
तो ओशो भी
सिद्ध करते
रहे है। अब एक
आदमी पूरी प्रबलता
से कहता है कि
वह एक साधारण
मनुष्य है, और आप
उसे गलत सिद्ध
करने के लिए
कहते है कि नहीं-नहीं
तुम एक साधारण
मनुष्य हो।
वाह, क्या
प्रतिभा पूर्ण
बात कहीं।
इससे
केवल यही
सिद्ध होता है
एक बी पी न्यूज
के
रिपोर्टर्स
और ऐडिटर्स ने
न तो ओशो को
पढ़ा है और न
ही अपनी विशेष
रिपोर्ट
तैयार करने से
पहले इसे
जरूरी समझा कि
वे जानें ओशो
का जीवन दर्शन
क्या है। उन्होंने
जितनी भी
प्रश्न उठाए
उन सबके उत्तर
वे ओशो की
पुस्तकों से
ही पा सकते
थे। वे ओशो की
कथनी और करना का
भेद बता कर
ओशो को आम
आदमी सिद्ध
करने में जुटे
थे। और उनकी
कथनी क्या है, इसका
जरा भी बोध
नहीं। यह कोई
ईमान दार इन्वेस्टिगेटिव
जर्नलिज्म का
उदाहरण नहीं
हुआ।
किसी
भी विषय से
पूरी गहराई
शोध किए बिना
कोई रिपोर्ट
तैयार करके
लोगों को
सनसनी का मजा
देना केवल पीत
पत्रकारिता
कहलाता है।
जिसमें न कोई
प्रेरणा है। न
कोई निष्कर्ष।
इस रिपोर्ट का
आधार बनाया
गया एक पूर्व
संन्यासिन
शीला की पुस्तक
को, जिसमें
उन्होनें तथ्यों
को अपने
पुराने पड़
चुके चश्मे
से देखा है।
और या फिर वह
देखने की
कोशिश की है
जो वह हमेशा
देखना चाहती
थी। लेकिन कभी
देखने को मिला
नहीं।
ओशो
जब अमरीका गए
तो उनके गिर्द
एक ऐसे शहर का निर्माण
शुरू हुआ जो
उनके जीवन
दर्शन के नये
मनुष्य की
जन्म भूमि
होने को था।
नया मनुष्य—जो
अतीत की
वर्जनाओं और
संस्कारों
से मुक्त हो
अपनी पूरी
महिमा को
प्राप्त हो, जो अध्यात्म
और संसार को
एक कर दे। और
पूरब-पश्चिम,
काले-गोरे, स्त्री-पुरूष,
साधारण-विशिष्ट
के हर भेद के
पार हो। 126 वर्ग
मील में फैला
हुआ वह शहर
केवल तीन वर्ष
में बनकर ऐसा
हो गया कि वह विश्व
के सुंदर से
सुंदर भी उसके
सामने शरमा
जाये। ऐसा
इतिहास में
पहला और अंतिम
बार हुआ है।
इसी
दौर में शीला
ओशो की सचिव
थी। ओशो की
सचिव होने का
अर्थ था कि
जिसे ओशो की
अंतर्दृष्टि
को प्रायोगिक
रूप देने की
पूरी बेशर्त
जिम्मेदारी
सौंप दी गई
हो। शीला एक
कर्मठ और
जुझारू महिला
थी। उस समय
ओशो के कार्य
के प्रति उनकी
निष्ठा में
भी कोई संदेह
नहीं किया जा
सकता। लेकिन
ओशो के सान्निध्य
में उनके
प्रेमियों के
अपूर्व
प्रयास से जब ऐतिहासिक
आश्चर्य के
रूप में वह
शहर आकार लेने
लगा तो धीरे-धीरे
शीला के साथ
वही होने लगा
जैसा एक किंवदंती
कहती है। किंवदंती
है कि जगन्नाथ
यात्रा में जब
जगन्नाथ का
रथ निकला तो
लाखों लोग
गाजे बाजे से
उनका स्वागत
कर रहे थे, फूल बरस
रहे थे। लोग
धरती पर लोट
रहे थे। उसी रथ
के आगे-आगे एक
कुत्ता भी जा
रहा था। उस
कुत्ते को
लगा की सार स्वागत
उसी का हो रहा
है।
कुत्ते
का उदाहरण
देने में शीला
के अपमान को
कोई आशय नहीं
है। किवदंतियो
में कुत्ता
कहा गया है तो
कहना पडा। हम
सब साधारण
मनुष्य है
अपनी सब कमज़ोरियों
के साथ। जब तक
हम निर्मन
नहीं जाते तब
तक हमारा मन
कोई भी खेल-खेल
सकता है।
इसमें किसी की
निंदा करने की
कोई जरूरत
नहीं है। बस
इन खेलों को
देखकर हम अपने
स्वयं के मन
की संभावनाओं
को समझ लें
उतना ही बहुत
हे।
अपनी
उस मनःस्थिति
में शिला अपनी
स्वय-निर्मित
प्रतिमा को
सजाती रही।
ओशो ने ऐसा होने
दिया। जब
प्रतिमा पूरी
हो गई। तो ओशो
ने अचानक एक
झेर प्रहार
किया। ओशो ने
कहा कि अब वह उनकी
सचिव नहीं
होगी। यह ओशो
का तरीका था।
लोगों पर काम
करने का। वे लोगों
के अहंकार को
पूरा पनपने
देते है और
ठीक समय पर वे
उस गुब्बारे
में पिन चूभो
देते है। व्यक्ति
की क्षमता हो तो
वह क्षण उसके
जीवन में
क्रांति का
क्षण बन सकता
है। ऐसा ओशो
ने बहुत लोगो
के साथ किया।
जो लोग उस
प्रहार को झेल
गए, वह
अहोभाव से भर
गए। उन्होंने
अपने जीवन में
रूपांतरण को
आमंत्रित कर
लिया। शीला इस
प्रहार को
नहीं झेल पाई।
उनके जीवन में
कभी चह प्रहार
काम कर जाए
ऐसी ही कामना
है।
लेकिन
शीला कम्यून
छोड़कर चली गई
और तीस साल
बीत चुकने के
बाद भी समय के
उस तीन साल के
कैप्सूल में
बंद हे। उस
कैप्सूल में
उनका मन अभी
भी मायाजाल
बुनता चला
जाता है। उनकी
यह किताब भी—जिसे
ए बी पी न्यूज
ने अपनी
रिपोर्ट का
आधार बनाया है—उसी
इंद्रजाल का
हिस्सा है।
ए
बी पी न्यूज
ने बताया है
कि ओशो रॉल्स
रॉयस कारों के
पीछे पागल थे।
वे रोज शीला
से एक नई रॉल्स
रॉयस कार की
मांग करते थे।
शाला के
अनुसार उन्होंने
जब इस मांग को
पूरा करने में
अपनी असमर्थता
जताई तो ओशो
ने उन्हें
पचास लोगों की
एक लिस्ट दी
जिन्हें एक
मीटिंग के लिए
बुलाया जाए।
शीला कहती है
कि वह लिस्ट
देखते ही उनका
दिल बैठ गया।
क्योंकि वह
धनवान लोगों
की लिस्ट थी।
जो रॉल्स
रॉयस खरीद कर
दे सकते थे।
शीला के
अनुसार वह मीटिंग
ओशो इसलिए
बुलाना चाहते थे
कि वह उन
लोगों से
कारों की मांग
कर सकें। ए बी
पी न्यूज ने
इस घटना से
ओशो को एक
चालाक बिजनेस
मैन बताते हुए
कहा है कि जिन
लोगों ने
कारें खरीद कर
ओशो को दी ऐसे 21
लोगों को उन्होंने
संबुद्ध
घोषित कर
दिया।
अब यह
बड़ी मजेदार
बात है कि जिन 21
लोगों की बात की
जा रही है।
उनमें से
अधिकांश कार
तो क्या
साईकिल का एक
हैंडल भी
खरीदकर नहीं
दे सकते थे—आनंद
मैत्रेय,
अगेह भारती,
मनीषा,
सरिता,
योग प्रताप,
योग चिन्मय,
नरेंद्र बोधिसत्व.....।
और यह पूरी
प्रक्रिया
ओशो की एक
युक्ति थी
लोगों पर काम
करने की। एक
सप्ताह बाद
ही ओशो ने
अपने प्रवचन
में कहा कि यह
एक मजाक था जो
बहुत से लोगों
पर काम कर
गया।
रही बात
96 रॉल्स रॉयस
की, तो
इस पर ओशो ने
बहुत बार
चर्चा की है
कि उस समय कार
से अभिभूत
अमरीका को
सबसे महंगी
कार का सबसे
बड़ा जखीरा
दिखा कर वह
जगा रहे थे।
अपनी उपस्थिति
के प्रति जैसे
उन्होंने
काम-कुंठित
भारत को काम
की चर्चा करके
झकझोर दिया
था। अपनी उपस्थिति
के प्रति क्यों?क्योंकि
उनकी उपस्थिति
के प्रति लोग
जागें तो उनका
संदेश सुनें।
उनका संदेश—अखंड
मनुष्यता का,
पलायन नहीं
जीवन का,
साधारण से
असाधारण को
खोज लेने का।
ओर यही कारों
का जखीरा—जो
ओशो की निजी
संपति नहीं था—कारण
बना कि अमरीकी
बैंक रजनीश
पुरम के
निर्माण के
लिए बड़े-बड़े
ऋण देने को
तत्पर थे। और
रजनीश पुरम
में ओशो की
उपस्थिति
केवल एक अतिथि
की तरह थी।
उनके नाम से
शहर के नाम के
सिवाय उनका और
कुछ भी नहीं
था। वह शहर
मनुष्यता को
दी गई एक नयी
परिकल्पना थी
कि भविष्य का
जगत कैसा हो।
हर कार,
हर धनराशि,हर
ऋण मनुष्यता
को दिए गए उस
स्वप्न को
समर्पित था।
ए बी पी
न्यूज का
कहना है कि
ओशो को कीमती
घड़ियों और
हीरों का बहुत
शौक था जिससे
कि संन्यासी
दूर भागते है।
यह कहकर उन्होंने
सिद्ध करना
चाहा है कि
संन्यासी
होकर भी हीरों
को शौक रखना
उन्हें आम
आदमी बनाता
है। लेकिन
पहली बात तो
यह है कि ओशो
स्वयं को सन्यासी
कहते ही नहीं
थे। वे तो
मुक्त पुरूष
है जिन्हें
संन्यास या
संसार का कोई
नियम नह बाँधता।
न ही उनका
जीवनदर्शन ही
किसी चीज से
भागने को कहता
है। वे उद्गाता
है नव सन्यास
के-जो बाह्म
और आंतरिक
समृद्धि को
पूरा का पूरा
अंगीकार करता
है। तो जब वे
कीमती घड़ियाँ
और हीरे पहने
लोगों को मौन
में ले चलते है
तो अपने संदेश
को ही
चरितार्थ
करते है। उसका
प्रायोगिक
रूप दिखाते
है।
और वैसे
ओशो को दी हुई
हर घड़ी किसी
ने किसी को
उपहार में दे
दी जाती थी।
और रही बात
हीरों की तो
उनमें से
अधिकांश उनके
लोगों द्वारा
प्रेम से तराशे
हुए रंगीन
कांच थे।
लेकिन वे
रंगीन कांच हीरों
की आभा दे
जाते थे। और
साथ ही यह
संदेश मनुष्य
भीतर से बुद्ध
और बाहर से
वैभव को जीने
वाला ज़ोरबा
हो। ओशो ने
अपना जीवन
दर्शन स्वयं
बनकर दिखाया।
फिर ए
बी पी न्यूज
को उद्धदित
करते हुए बात
करती है
महिलाओं के
साथ ओशो के
प्रेम
प्रसंगों की।
विशेषकर ओशो
के निजी
परिचारिका
विवेक के साथ
उनके संबंधों
की। वहां शीला
की स्त्रैण
ईर्ष्या का
इंद्रजाल
शुरू हाता है।
अपनी ही पुस्तक
में उन्होंने
लिख है कि
उनकी कामना थी
ओशो से
शारीरिक
संबंध बनाने
की। उनकी इसी
कामना का चश्मा
बहुत कुछ दिखा
रहा है। रही
भावना जा की
जैसी, प्रभु
मूरत देखी तिस
तैसी।
और वैसे
भी यदि ओशो के
किसी से
शारीरिक
संबंध हों भी
तो इसमें
पाखंड कहां से
आ गया। वे तो काम
के विरोध में ही
नहीं है। काम दमन
के विरोध में तो
वे सदा आगाह करते
रहे है। नया मनोविज्ञान
भी उनका दमन अनेक
तलों पर हमें रूग्ण
करता है। यह तो
ओशो के जीवन दर्शन
के समर्थन में
जाता है। और यदि
ओशो के शारीरिक
संबंध किसी के
साथ न हों,
तो भी यह उनके जीवन
दर्शन के समर्थन
में जाता है। वे
काम के पार के जगत
की भी बात करते
है—संभोग से समाधि
की और।
अब ए बी पी
न्यूज के रिपोर्टस
का होम वर्क देखिए।
स्क्रीन पर ओशो
की पुस्तक दिखाते
है जिसका शीर्षक
है: ‘संभोग
से समाधि की और’
और रिपोर्टर बताता
है ‘संभोग
से समाधि तक।’
यहां कथनी
और करनी में अंतर
कौन कर रहा है?
और रही बात
ओशो को आम आदमी
सिद्ध करने की
तो आप रहने दीजिए
वह काम ओशो स्वयं
ही कर रहे है।
हां,एक
फर्क है। जब ओशो
स्वयं को साधारण
मनुष्य कहते है
तो वे अपने ऊंचे
शिखरों के साथ
खड़े हुए यह आश्वासन
दे रहे है कि वे
जब साधारण मनुष्य
होते हुए यहां
पहुंच सकते है।
तो कोई भी पहुंच
सकता है। उनका
साधारण मनुष्य
होने में मनुष्यता
के निम्नतम तल
पर खड़े व्यक्ति
को भी भगवता का
आश्वासन है। और
जब आप उन्हें
साधारण मनुष्य
की देह में भगवता
के अनुभव को नकार
रहे है। अपनी ही
संभावनाओं के इतने
शत्रु क्यों
है?
और रही बात
ओशो के गौरी
शंकर को हीन सिद्ध
करने की,
तो एक पंक्ति
है तो रामचरित
मानस से तुलसी
दास ने लक्ष्मण
के मुख से कहलाई
है—इहां कुम्हड़
बतियां नहीं कोई,
जे तरजनी देखत
मर जाहिं।
स्वामी संजय
भारती
संपादकीय—‘यस ओशो’
फरवरी 2013
(विशेष—अभी
मुझे पिछले वर्ष
जबलपुर,
गाड़रवाड़ा ओशो
के गांव जाने का
मोका मिला,
स्वामी अगेह भारती
जी से एक चमत्कारी
मुलाकात हो गई।
और मुलाकात भी
पूरी रात की। मैं
यहां से सोच कर
गया कि स्वामी
जी के पास सतना
जरूर जाऊँगा। असल
मैं मुझे कुछ गलत
फहमी हो गई थी लेखनी
के संबंध में जो
कविता स्वामी
योग प्रीतम की
थी उसे में अगेह
भारती की समझा।
मेरे जाने से पहले
स्वामी जी ने
मानों मेरे ह्रदय
की पुकार सुनी
और खुद चलकर........
अकारण ही
वह गाड़रवाड़ा
आ गये। लीला आश्रम
में...पूरी रात ओशो
का रस रंग बहता
रहा। बार-बात में
हम दोनों रो-रो
जाते। एक बात पूरी
हुई नहीं की फिर
रोना। कितना सुखद
था वह मिलन यादों
के बीच में जो प्रेम
की आंसू धारा,
के रूप में बहता
ओशो का प्रेम एक
गंगा स्नान करा
गया। इसी बीच जो
बात मैं यहां कहना
चाहता हूं....वह इस
लेख के संबंधित
है। अगेह भारती
जी अभी जीवत है,
आप उनके पूछ सकते
है। उन्होंने
कहा ओशो ने हमे
इतना दिया। इतना
दिया कि हमारी
झोली में समा नहीं
पा रहा। हम पूरा
परिवार रजनीश पुरम
जब गये तो ओशो जी
समझ गये कि हमारे
पास पैसे की तंगी
होगी। और सच मैं
थी भी किस तरह से
हम जुगाड़ कर अमेरिका
गये हम ही जानते
है। एक रेलवे का
सरकारी मुलाजिम।
किस तरह से घर को
चलता है आप जानते
ही है। ओशो जी ने
मुझे बुला कर 25,0000
हजार डालर। खर्च
के रूप में दिये।
गुरु की महिमा
अपार है। और मैं
अभागा उन्हे जीवन
में कभी एक गुलाब
का फूल भी भेट नहीं
कर सकता। और वह
फफक कर रो दिये।
और यहां शीला कहती
है अगेह भरती जी
ने रॉल्स रायस
भेट दी। वह तो शायद
आज भी रॉल्स रायस
के खरीदने का सपना
भी नहीं देख सकते।)
स्वामी आनंद
प्रसाद मनसा
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