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मंगलवार, 22 जनवरी 2013

05--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

पोकर-कहानी

(दसघरा की दस कहानियां )

बढ़ी अम्माँ बैल गाड़ियों की लीक के किनारे बैठी हुई, को दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो। उसका शरीर एक दम थिर था, वह बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए। कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डुले, बिना अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह बैठी सामने वाले मार्ग की और निहारती रहती थी। उसकी आंखों में, उसके चेहरे की झुर्रियां में, दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितांत अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। वह वहां बैठ कर दूर उन धुँधली आँखों से जाने क्या देखती रहती थी। मानों उसे कुछ दिखाई देता था या नहीं कहा नहीं जा सकता। परंतु उसके देखने मात्र से ऐसा लगता मानो क्षितिज का पोर-पोर निहार रही हो। अचानक दूर कहीं पर जब कोई आहट होती या किन्हीं बेलों के पैरो से उड़ती धूल उसे दिखाई दे जाती तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर रख अपनी मुद्रा बदल लेती थी। तब अपने आप को सहज समेट कर तैयार हो जाती था। मानों वह आ रहा है जिसकी राह तक रही थी, वो आने वाला है। न ही कोई आने वाला था न ही आ रहा था। परंतु उसकी ये कोशिश सालो से बेकार जा रही थी। क्‍योंकि अब अम्‍मा की आँखें इतनी कमजोर ओर धुँधली हो गई थी, दूर का तो आप छोड़ो शायद वह पास का भी नहीं देख पाती होगी। वह अंदर और बाहर से एक समान हो गई थी। मानो कोई जीवित आदमी किसी मूर्ति का रूप ले कर यहां विराजमान हो गया है। वह मूर्ति अपनी जैसे अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए, आने वाले किसी कलाकार की राह तक रही हो।

मौसम कोई भी हो अम्मा की थिरता में कोई परिवर्तन नहीं आता था। खाल के किनारे-किनारे दूर तक फैला सफ़ेद काँस जैसे अम्मा के बालों का विस्तार था। आस पास के पत्थर मिट्टी के टिब्बे मानो उसके रूखे चेहरे की प्रतिछवि रूप लिए थे। दूर तक पतली होती रास्ते की लीक उस अंतहीन कोने में जाकर कैसे पूर्ण सी लगती थी। पास का वह तालाब जिसका पानी अब सूख कर डबरा भर रह गया था वह भी ऐसा लग रहा था, वह भी जैसे अम्माँ की आँखों में उतरे मोतियाबिंद की ही कहानी कह रहा था। आस पास की पूरी प्रकृति ने मानो अम्मा प्रतिरूप उसका दर्द खूद ही अपने ऊपर ओढ लिया हो। वहां आस पास के पेड़-पौधे भी अम्मा की ही तरह उदास मायूस दिख रहे थे। दूर अंबर की लालिमा भी अंधकार में विलीन हो जाना चाहती थी। उसे भी शायद लगता हो कि अब ये सब उसे नहीं देखना। देखते हैं उसकी धुँधली आस कब तक उसके इस हिलते हाथ की धुँधली परछाई उसका साथ देती है। शरीर के तो उसके प्रत्येक अंगों ने उसका साथ छोड़ दिया था। अम्मा निहारती तो मार्ग को परंतु उन निष्प्राण आंखें से क्या कोई देख या निहार सकता है। वह मात्र एक मन को तसल्ली एक भ्रम जो ह्रदय की उस आस को जगाए हुए था।

अम्माँ का नाम राम प्यारी था। कब वह कितनी राम की प्यारी होगी ये शायद नाम रखने वाला भी नहीं जानता होगा। पति कार्तिक मास सन् प्राणों की बलि ली। 1898 से 1918 तक भारत में प्लेग की बीमारी के कारण करीब एक करोड़ महाकाल का ग्रास बन गया था। उस समय पोकर केवल तीन साल और छ: महीने का ही था। हाय वो दिन याद कर पूरे गांव को भय के मारे रंग सफेद हो जाता है। चारों तरफ़ फैला मौत का हाहाकार, जहाँ देखो वहीं मौत की विभीषिका भयंकर तांडव कर रही थी। क्या मनुष्य, क्या पशु सब एक समान उसके मूंह मैं समा रहे थे। पूरा गाँव मसान बन गया था। अब इस विभीषिका में रोंए भी तो कोई कितना रोंए। जब मनुष्य को रोना चुक जाता है तो विस्फटित दृष्टि में बचती है वाचहीनता, एक ठहरा ठंडा पन, प्रलाप एक सूनापन जो बहुत भयावह लगता है। हम दर्द को तो रो सकते है परंतु पीड़ा में तो दर्द बज्र मुक बन जाता है। मानो वह मनुष्य में से नहीं एक पत्थर से हो कर गुजर रहा हो। जीवित बचे सब प्राणी जंगल में पड़ी उस टूटी-फूटी हवेली की शरण में चले गये थे। पहले ही गाँव में कितने लोग थे, मात्रा गिने-चुने चाहो तो आप उन्‍हें उंगलियों पर गिन सकते हो। और अब उस पर ये मौत का तांडव।

अब तो भगवान जिसे बचाना चाहता है वहीं बच सकता है। जहाँ देखो वहीं मुर्दा की दुर्गन्ध और सड़ांध फैली हुई थी। पशु ही नहीं मनुष्य भी सड़ रहे थे। अधजली लाशों को गीदड़, कौए, गिद्ध नोंच-नोंच कर इधर उधर बिखेर रहे थे। खाने के नाम पर गांव में कुछ भी नहीं बचा था। काबुली कीकर, झाड़ के पत्तों को कूट-कूट कर लोग खा रहे थे। पीने को एक-एक बूंद पानी को तरस गये थे। एक तो गाँव की खेती का रकबा इतना बड़ा फिर इस पर यह महामारी, कौन बोए जोते ये उन बचे गिने चुने आदमियों की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। अगर कोई हिम्‍मत भी करें तो आदमी कहां से आये। आकाल के साथ-साथ गांव में आदमियों को भी आकाल पड़ गया था। सो इस साल पूरी की पूरी जमीन परती-पड़ी रह गई थी।

मौत की विभीषिका से जो जीवन सुख गया था। समय पाकर, उस पर फिर से जीवन की बेल फलने-फूलने की तैयार करने लग गई थी। जिस तरह से परती पड़े उन खेतों में भी चाहे अनचाहे पौधों ने फिर से उगना शुरू कर दिया है। विकास ही प्रकृति का नियम है, वह और किसी बात को नहीं जानती। गाँव के टूटे-फूटे झोंपड़ियों या उजाड़ पड़ उन सूने घरों से अब धुआँ की लकीरें निकलने लगी थी। श्याम के छद्म होते अंधेरे में वह लकीर कैसे लंबी चादर सी फैलती हुई दिखाई दे रही थी। जैसे वो कह रही है अभी यहां जीवन बचा है। ये सृष्टि का नियम है यहां कुछ मिटता नहीं। बल्कि मिटाया ही इसलिए जाता है ताकि नये का सर्जन किया जा सके। दूर खाली पड़े उन खेत खलिहानों में अब गाय, भैंसों के झुंड चरते नजर आने लगे थे। गांव के जो दस पाँच बच्चे जीवित बचे थे वे तालाब के पानी में छपाके मार-मार के खेल रहे थे। वह अपने नंगे पैर कोमल रेत पर घुल उड़ाते दौड़ते सबके मन को मोह रहे थे। कैसे मिट्टी भी अपने ऊपर जीवन की छाप के लिए तरसती है। उसे कैसे अपने में एक मां का प्रेम स्नेह प्राप्त हो रहा होता होगा। जैसे बच्चा मां की छाती से दूध पीता हुआ गोल-गोल घूम उसके ऊपर खेलते-खेलते ही दूध पी रहा होता है। मानो प्रकृति बच्‍चों के इस क्रिया कलापो से गाँव में नये जीवन का संचार भरने की कोशिश कर रही थी।

गांव का कोई भी परिवार पूर्ण नहीं बचा था। किसी परिवार में कोई पुरूष बचा, किसी में कोई एक बच्चा, किसी-किसी में कोई भी नहीं नहीं बचा पूरा परिवार जड़ मूल से समाप्त हो गया था। पहले ही गांव में मुट्ठी भर लोग थे, अब तो गाँव सिकुड़ कर और भी छोटा हो गया था। लेकिन अब इस महामारी के प्रकोप से सामने किया भी क्या जा सकता था। जो लोग बच गए थे, आपस में सब लोगों ने कई-कई परिवारों को मिला कर एक परिवार बना लिया था। दु:ख और पीड़ की इस घड़ी में हमें एक दूसरे के कितने नजदीक आ जाते है। क्‍या ये मनुष्‍य का स्‍वभाव है या पूरी प्रकृति का। आज हम एक दूसरे से जितना दूर होते जा रहे इसका सबसे बड़ा कारण कही हमारे सुख वैभव में तो नहीं छिपा। गांव उजड़ा टूटा जरूर पर अब सब मिल-जुल रिसते नातों की चार दीवारी को तोड़ एक हो गये थे। सबका दुख एक था सब के घर एक थे। कोई किसी भी घर में रह कर प्‍यार और दुलार पा सकता था। मानो पूरा गांव एक परिवार एक घर बन कर रह गया था। वैसे तो ये गांव एक ही व्यक्ति की संतति है, पूर्वज कहते आये है कि एक भाई यहां रह गया था। जिसका नाम मामन था। उस सब से ये गांव बसा था। और दूसरा भाई आगे नांगल गांव चलता गया। क्योंकि दिल्ली के आस पास दो ही गांव है 'तुसीड़' गौत्र के। लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था, सब आपस में खेती मिल कर करने लगे थे जितनी बोई जोती जा सकती थी। जमीन के खसरा गिरदावर-पटवारी जाने या उनके कागजी पुर्ज़े। या फिर कोई गाँव का बचा बूढ़ा बड़ा बूढ़ा दादा भगवाना या पंडित मोती जैसा, जो अपनी कांपती उँगली के इशारे से माथे पर हाथ रख दूर दराज उन खेतों की देखते हुए कहते –' कि वो धम्मपाल में 25 बीघा की ये लार राम नाथ की हैं।पर इस और किसी का ध्‍यान नहीं जाता था। न ही उसकी जरूरत थी न ही आज उसे कोई सम्हाल सकता था।

भलाई इसी में थी की आप उसका हिसाब किताब किताबों तक ही रखो। जब कोई पराया ही नहीं है तो अपने का भेद भी खत्‍म हो जाता है। दौड़ते बच्चे, सूखी लड़की आरणे चुनती औरतें, या झाड़ियों में थूथन घुसा कर घास चरती गाए-भैंसे, भी आपने खेल कूद में मस्त बच्चे सब अपने में लीन रहते थे। दादा भगवाना या पंडित मोती की इस बात की तरफ़ कोई ध्यान ही नहीं जाता था। जब जरूरत होगी तब देखा जायेगा। तेज गर्मी में झुलसे पेड़-पौधे, तपती मिट्टी, आसमान मैं बादलों को देख कैसे क्षण भर के लिए अपनी जलन को भूल उन्हें निहारने लग जाती थी। उसकी वो तपीस स्नेह-स्नेह अंबर तक पहुंच कर ही तो बादलों को यहां तक ले ही आयेगी एक दिन। और फिर बारिश का पहला दौंगड़ा होता है, कैसी मोहक सुगंध पूरे वातावरण अपने में घेर लेती है। प्यासी पड़ी धरा पर बारिश की बूंदे गिरी नहीं तो कैसे चश से चूस कर कैसे उसे अपने में समेट कर आत्म सात कर जाती है।

बरसात से पहले कैसे धूल के गुबार हवा के संग साथ रूप-आकार बनाते इधर-उधर दौड़ रहे होते है। परंतु आसमान में बादलों को देख कैसे आश्चर्य और प्रसन्नता का फैला भाव समेटे झाड़-झक्कड़ों में विलीन हो जाते थे। चार बूँद पड़ी नहीं कि पूरी प्रकृति इठलाती झूमती सी गाने लग जाती है। सूखे धूप में सख्त हुई पेड़ के तनों पर भी कैसे महीन कोमल पत्ते नाचने, खिल-खिलाने लग जाते हैं, यही है जीवन और जीवन की तरुणाई। गांव की आधे से अधिक जमीन अब भी परती-पड़ी रह गई थी। परंतु उसका कुछ किया भी नहीं जा सकता तब उस विषय को सोचने से भी क्या लाभ।

माँ के आँचल की छाँव, गाँव भर का लाड़-दुलार पाकरपोकरका बचपन कब तरुणाई में बदल गया था। ये कैसे और कब हुआ इस का मानो किसी को पता ही नहीं चला। कल तक मिट्टी पानी में खेलता पोकर आज युवा अवस्था की दहली पर पेर रख रहा था। इतने साल मानो पंख लगा कर उड़ गये। गाँव के बच्चे तब तक छोटे है तब तक ही वह गाँव की शोभा हैं। जब तक वो बच्चे हैं, तब तक गांव-खेड़ा उनकी इस बाल-लीलाओं का साक्षी रहता है। फिर उसे भय सताने लग जाता था की अब ये जवान हुआ तब हम नितांत अकेले रह जायेगें। जैसे ही बच्चे जवान हुए नहीं उसके बाद तो वह फिर मानो मेहमान है। उसमें क्या लड़का और क्या लड़की। लड़कियां शादी कर पराये गांव चली जाती थी। और नौजवानों को अंग्रेज लोग आ कर उन्हें फौज में भरती कर लेते थे। पास ही बसी दिल्ली छावनी, जो गाँव के ऊपर नंगी तलवार बन कर लटकी थी। जैसे ही गांव का कोई लड़का जवान होता अंग्रेजों के कारिंदे आ जातेराजपूताना राय फलमें भरती करने के लिए आ जाते।

अब भाग कर जाओगे भी तो कहां छटपटाते पंछी की तरह पिंजरा ही उसकी नियति बन गया था। परन्तु ये बात सोलह आने सच थी, अँग्रेजों के राज में बेरोजगारी नहीं थी। ईमानदारी और न्याय के कसीदे जो पढ़े जाते थे, शायद वो सच होता होगा। अब गांव के लोग कहां बेचारे न्याय पालिका के द्वारा तक जा सकते थे। उनकी दौड़ तो अधिक से अधिक दरोगा ही तक सीमित होती थी। अब गाँव की खेती बाडी की फिक्र तो गोरे अँग्रेजों को थी ही नहीं। उन्हें इससे लेना देना भी क्या था। अगर सब जवान फौज या पुलिस में भरती हो जायेगें तो इन खेतों मैं हल बाखर कौन चलाएगा बीज कौन छिटकेगा।

इतना बड़ा जमीन का रकबा, यू हर साल परती पड़ा रह जाता है। परंतु जब से दिल्ली को अंग्रेजों ने राजधानी बनाया है। या दिल्ली छावनी बनी है। तब से आस पास के पचासों गांव की स्वतंत्र तो छिनी ही गई थी। साथ-साथ उनका जीना भी दुश्वार कर रखा है। अंधा रोये अपनी आंखें खोए। किस के सामने रोए किस से फरियाद करें कौन सुनने वाला था। देश के नेता देखने में तो देश को आजाद करना चाहतें थे। परंतु पीछे से वह सब एक जैसे ही लगते थे। बस रंग और नाम का फर्क था। वो गोरे अंग्रेज ये काले अंग्रेज। अरे भले मानुस कम से कम इतना तो समझ लो की जब हमें अंग्रेजों से आजादी लेनी है तो ये सुनहरा मोका है। जैसे सुभाष चंद्र बोस जी कर रह है। अब अँग्रेज़ घिरे हुए है चारों और से। पूरी दुनियां पर राज करने वाले अब सुकड़ते सिमटते जा रहे है। और बेचारे गांधी बाबा अपना आंदोलन भी वापस ले रहे है। दूसरी बात गांव-गांव जा कर वहां के युवाओं को अंग्रेजों की सहायता के लिए फौज में भरती करा रहे। बाबा गांधी जी की इन खतरनाक चालों को गांव के गरीब लोग न समझ लिया और उसका विरोध भी किया। परंतु गांधी बाबा कि तो धारणा थी कि वो जो कह रहे थे वही सत्य है। कितनी दिनों तक कोई गांव बचता अपने लालो को इन अंग्रेजों के हाथों से। जाये भी तो कहां जाये। जैसे इस दिन के लिए पाल पोस कर बड़ा किया था अपने ह्रदय के टुकड़ों को। कि जाओ बेटा अंग्रेजों के लिए सीने पर गोली खाओ और एक तगमा जीत कर लाओ। युवाओं को फौज या पुलिस में भरती तो किया जा रहा था।

परंतु ह्रदय के अंदर उनके एक बगावत थी। एक काम स्वेच्छा से किया जाए दूसरा जोर जबरदस्ती दोनों में जमीन आसमान का भेद था। दूसरी और लोग देश प्रेम के कारण सुभाष चंद्र बोस के प्रति सर कटवाने के लिए तैयार हो रहे थे। देश प्रेम की आग फैल रही थी। एक दूसरे के देखा देखी। अंग्रेजों को तो अपने राज की पड़ी थी। जिस पर जर्मन, जापानियों ने हमला बोल दिया था। रंगुन तक खदेड़ते आ गये थे, लगता था कि अब अंग्रेज चूहे दानी के अन्दर घिर कर मारेंगे। अंग्रेजों को 1857 के बाद पहली बार राज खतरे मैं नजर आ रहा था। केवल भारत से ही नहीं पूरे विश्व में जहां-जहां उनका सूर्य चमकता था। हिटलर के साथ भारत के सपूत सुभाष चंद्र बोस ने लोगों के ज़ख़्मों को हरा कर दिया। आज उनका खून जोर मार रहा था। उनके ह्रदय में आजादी का बिगुल बज चूका था। उसके दीवाने मस्ताने चारों और जहां देखो गाते –‘’फिरते थे की सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’। एक नई लहर हिलोरे ले रही थी। सुभाष जी के उस नारे के साथ ‘’तुम मुझे खून दो मैं तुम्‍हें आजादी दूंगा।‘’ और हजारों लाखों मां अपने सुपूतों को अपने लाड़लों को अंग्रेजों की चाकरी में मरने से अच्छा था देश के लिए मरो। उनका प्रेम उनका दूलार अपने नोनिहालों को देश के लिए शहीद होने को जोश भर रही थी।

राम प्यारी का एक मात्र बेटा कैसे बेरोजगार रह सकता था। अच्छा भला वह दिल्ली पुलिस में भरती हो गया था। लेकिन जिस दिन दिल्ली पुलिस से भाग कर आया तभी माँ का दिल आशंकित हो गया था। ये जो भी हुआ है ठीक नहीं हुआ। इस के पीछे कुछ और ही रहस्य है। माँ ने और गाँव के बूढ़े बुजुर्गों ने लाख समझाया, बेटा अब जो तुमने किया  वह ठीक नहीं है। कितने कष्टों से तो इस गांव ने तुझे पाला है। परंतु जवान खून का जोश बूढ़े ठंडे खून की बात कहाँ सुनने वाला था। कल आज और कल भी यहीं चिर सत्य था। और सदा सत्य रहेगा। पोकर, मनोहर लाल, दीप चन्द और बुद्धि कुम्हार को राज पूतना का सिपाही सालार बना कर, ट्रेनिंग के लिए आगरा छावनी भेज दिया। गांव में गिने चुने तो जवान थे वह भी चले गये देश निकाले पर। पूरे गांव का दिल बैठ गया। परंतु आंखों में तो आंसू नहीं थे, उस दिल के दर्द का क्या किया जा सकता था। ट्रेनिंग के तीन महीने बाद तीनों 15 दिनों की छुट्टियों में जब चारों गांव के दुलारे घर आये। सब का रंग रूप ही बदला हुआ था। पोकर को देख राम प्यारी को लगा, शायद समय थोड़ी देर थमा ही नहीं, 20 वर्ष पीछे भी खिसक गया हैं। पोकर अपने पिता के रंग ही नहीं कद काठी पर भी हू-व-हू गया था। नई-नई कोमल दूब की तरह उगी मूँछें, कैसे मरोड़ रखी थी, ठीक अपने पिता की तरह। माँ ने तीन बार जमीन की तरफ़ थू..थू..थू.. किया, कहीं उसकी ही नजर ना लग जाये। आँखों से दो आंसू ढुलके नहीं, भरे खड़े रह गये शान्त झील की तरह। छोटा सा हमारा गांव नाम भी दसघराक्या खूब सोच कर रखा था बुर्जग ने यह नाम। अब दस-घरों के लिए कितनी गलियाँ चाहिये मात्र केवल दो। गांव के जौहड़ पर या चौपाल में बैठे बुजुर्ग लोग हो, या रामतला के पीपल तले या दादा भैया के कुएँ पर पानी भरती औरतों के बीच इन्हीं चारों जवानों की चर्चा होती रहती थी। कैसे गबरू जवान हैं, एक से एक रूप गुणों की खान जहाँ भी जायेंगे, गाँव का नाम रोशन करेंगे। रामायण के चारों भाइयों से तुलना कर खूब आशीष दी जाती थी। बुद्धि कुम्हार का रंग श्याम वर्ण था, इसलिए उसे राम भगवानकी पदवी मिलनी अनिवार्य थी। गाँव की सालों पुरानी, सोई दबी खुशी इन चारों को देख कर उठी खड़ी ही नहीं हुई थी। अपितु उसका पोर-पोर पात-पात आनंद से झूम रहा था।

गांव के प्रत्येक प्राणी के चेहरे पर मानो सालो बाद वह एक खुशी की लहर दिखाई दी थी। चौपाल में हुक्का पीते बुजुर्ग में यहीं चर्चा होती थी कि कैसे मनोहर ने 10 की 10 गोलियां लाल निशाने पर मारी पास खड़े अंग्रेज अफसर ने वैरी-गुड़ की शाबाशी के साथ 10/- रूपये और एक रमकी बोतल वो भी घोड़ा छाप इनाम में, साथ ही दी थी। ऊपर से न जाने क्या होता है वहमार्क्स मैनकी उपाधि भी दे दी थी। चलो कुछ भी हो गांव के ऊपर से अब जाकर ये महामारी का प्रकोप हटता दिखाई दिया था। परन्तु हाए बेचारेमार्क्स मैनकी ये खुशी ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह पाई। तब उन चुनें हुओं में मनोहर का भी नाम तो होना ही था। क्योंकि दस की दस गोली एक दम से सही निशाने पर मारना कोई बच्चों को खेल तो नहीं होता। सो उन्हें ट्रेनिंग के लिए खास ओ टी एस मद्रास (चेन्नई) भेज दिया गया। तब न जाने मार्क्स मैंन को क्या साँप सूंघ गया, जब चुने हुये प्रतियोगियों के साथ उसे अपना कमाल दिखाना तो हाए किसी जालिम की नजर लग गई। परन्‍तु एक भी गोली तारगेट को छू तक नहीं पाई। सारी हवा में ही हवा हो गई। सब की आंखें फटी की फटी रह गई। अरे ये क्या भले आदमी लाल बिंदी पर न मारो कम से निशाने पर तो गोली छू जाये। और मार्क्स मैन का बुना हुआ सपना पल भर में सब चकना चूर हो गया।

कुछ ही दिनों में फौज में भरती होने बाद पोकर को एक बेचैनी सी महसूस होने लगी थी। फौज की जिन्दगी एक आजाद जेल की तरह से उसे लगने लगी थी। जिसकी न दिखने वाली चार-दीवारी के आर पार तुम आ जा तो सकते हो, परन्तु उसे तोड़ कर तुम स्वछंद नहीं हो सकते। एक आदर्श और पक्की कैद। वहाँ उसे एक घुटन, एक छटपटाहट सी महसूस होने लगी थी। इस तड़प के कारण अंधेरे में दबा बगावत का बीज न जाने कब अंकुरण हो फूट पड़ा। कब उसमें पत्ते निकले कब शाखा-प्रशाखाएं आई और देखते ही देखते एक दिन वो विशाल वृक्ष बन गया। अब आप उसे काट कर भी खत्‍म नहीं कर सकते, जितना कटिंग करोगे उसमें उतनी अधिक शाखाएं निकलने लगेगी। यार दोस्तों ने लाख समझाया ऐसा मत करो अभी समय नहीं आया हे। हमारे मन में भी जोश हिलोरे मार रहा है, देश की आजादी लिए। परन्तु पोकर ने उनकी एक न सुनी, और उनको कहां की तुम भी चलो। देश पर मर मिटने का सुनहरा मोका है। ये आखिरी मोका है। देश बुला रहा है। मत चूको। देखा नहीं आपने सुभाष जी क्या कह रहे है। तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।

राज राइफल कंपनी का मुखिया कंपनी कमांडर होता है और यह या तो लेफ्टिनेंट या फिर मेजर रेंक का ऑफिसर होता है। एक राइफल कंपनी में तीन पलटन होती हैं और एक पलटन में 120 जवान होते हैं। एक अंधेरी रात में पोकर अपने तीस और बहादुर साथियों को लेकर फरार हो गया। उनकी सलाह तो थी की पूरी न सही कम से कम आधी पलटन तो साथ चले। परंतु कुछ साथी एन वक्त पर घबरा गए। सुबह जब सी ओ को पता चला तो वह घबरा गया। उसने अंग्रेज अफसर को पास बुलाया और पुछा की ये सब क्या हो रहा है। तुम्हारी पलटन में ये किस तरह की बगावत हो रही है। तुम अपनी डयूटी पर सही काम नहीं कर रहे हो, या तो उन बिलाड़ी इडियटों को पकड़ो या गोली मारो, नहीं तो तुम्हारा कोर्ट मार्शल पक्का है। परंतु वह भी बेचारा बैचेन और घबराया हुआ था। कुछ दिनों से उसे खबर तो मिल रही थी की कुछ नौजवान आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे। परंतु इतने बड़े कदम की किसी ने कल्पना नहीं की थी। सब सुभाष चंद्र बोस की तारीफ करते थे। की वही सच्चा देश भगत है हम तो कुतो से भी बदतर जीवन जी रहे है। ये भी कोई जीवन है जो हम जी रहे है। दो रोटी के लिए अपने ही भाइयों पर गोली चलाओ। उसे इसमें बगावत की बू नजर आई तो थी परंतु उसने इसे हलके में ले लिया। यही उसकी भूल थी। आज कल परेड करते सिपाहियों की आँखों में भी बगावत की चिंगारी नजर आने लगी थी। चिंगारी घर में आग लगाएँ इससे पहले उसे दबा देना ही अक्ल मंदी होती है। ये अंग्रेज अफसर अच्छी तरह से जानते थे। लेकिन अब तो धुआं ही नहीं आग लग चुकी थी। इसे तो बुझाना ही होगा नहीं तो ये एक दिन पूरे अंग्रेज हुकूमत को जला कर खाक कर देगी।

6 जुलाई, 1943 को नेता जी सुभाष चंद बोस ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का ऐलान किया था। दो जुलाई को इसका गठन शुरू हो गया था। नेता जी के बॉड़ी गार्ड कर्नल निजामुद्दीन ने बताया कि चार जुलाई से 11 जुलाई तक भारतीयों के साथ एन आर आई यों ने भी नेताजी सप्ताह मनाया था। रंगून के जुबली हाल में भारतीयों के साथ बर्मा, सिंगापुर और रंगून के एन आर आई यों ने नेता जी को तराजू में बिठाकर 26 बोरे सोने ,चांदी ,हीरे, जवाहरात और पैसों से तौल दिया था। ऐसा उन्होंने आजाद हिंद फौज के फंड के लिए किया था।

कर्नल निजामुद्दीन ने बताया कि आजाद हिंद फौज के गठन के साथ ही नेता जी ने आजादी का बिगुल पूरे भारत में फूंक दिया था। ज्यादा से ज्यादा लोगों को रंगून के जुबली हाल में इकट्ठा होने को कहा गया। नेताजी को तराजू में तौलने के बाद उन्होंने खुद सोने,चांदी, हीरे और पैसों से भरे बोरों को कोषागार में रखा था। इसके साथ ही सबने देश की आजादी के लिए कुछ भी करने की शपथ भी ली थी। उन्होंने सबको संबोधित करते हुए 'करो सब न्योछावर, बनो सब फकीर' का नारा दिया। इस नारे के बाद रंगून में आजाद हिंद फ़ौज के बैंक में 20 करोड़ रुपए एक दिन में जमा हो गए थे। देश ही नहीं देश के बहार से भी देश भक्ति नौजवान नेता जी के लिए आपने प्राणों की आहुति देने के तत्पर हो रहे थे। एक पोकर ही नहीं न जाने कितने पोकर आपने प्राणों की परवाह न करते हुए इस यग में आहूति देने को तत्पर थे।

कुछ सिपाहियों को साथ ले अंग्रेज अफसर पोकर और उसके साथियों को पकड़ने के लिए निकल पड़ा। उधर पोकर और उसके साथियों के लिए अनजान जगह, अंधेरी रातें, आसाम के घने जंगल और उस से उन्हें दिशा का कोई ज्ञान नहीं था। परन्तु अंदर एक जोश एक जज्बा उनको साहस और सहारा दिये हुये था। एक लगन कि हमें रंगुन पहुँचना हैं, आजाद हिंद फौज से जाकर मिलना है। यही लगन उन्हें खिचते लिए चली जा रही थी। सुभाष बाबू ने खून माँगा है, अब जिनकी रगो में खून होगा वही तो देंगे, या देने का जोश अन्दर से धक्के मरेगा। रातों-रात, छुपते-छूपाते, चाँद-तारों से दिशा का अन्दाज़ लगाते, साँप, जंगली जानवरों का भय अलग। भूखे प्यासे चलते आज उन्हें तीस दिन हो गये थे। परन्तु मंजिल है कि साँप सीढ़ी का खेल बन गई थी। जो आने का नाम ही नहीं ले रही थी। मयामार जहां से वो चले थे वहां से रंगून करीब चार सो मील होगा। वह सोच रहे थे इतने दिनों हमें पहुंच ही जाना चाहिए। परंतु वहां के जंगल बहुत विकट थे। उनके पास एक पुराना नक्शा था। जो उनकी कुछ-कुछ मदद कर रहा था। जब किसी गाँव के पास कोई गड़रिया या खेतों में काम करता किसान उन्हें जंगल में छुपा देख लेता, तो मुंह पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा करके समझाना पड़ता। भाषा की समस्या अलग थी, परन्तु भला हो इस फौजी ड्रेस का जो उन्हें चोर-डाकू समझने से बचाए हुए थी। आजादी की लहर घर-घर, गाँव-गाँव, देश के कोने-कोने में पहुँच चुकी थी। जब कोई जगा हो तो आप उसके घर में सेंध नहीं लगा सकते। जहां भी वह जाते गाँव के साहसी लोग तो उनके लिए खाना लेकर भी आ जाते थे। इस सब से उनका जोश और अधिक बढ़ जाता था। कि हम गलत नहीं हैं, देश हमारे साथ है। और सच ही ऐसा था। प्रत्येक युवक जिससे ह्रदय में प्रेम और संकल्प था देश के प्रति वह मर मिटने को तैयार था। अपने-अपने तरीके से सब आजादी मांग रहे थे।

झाड़ियों में लेटे पोकर ने आसमान की तरफ़ देखा, तेज़ प्रकाश में आंखें बन्द नहीं हुई मानो प्रकाश उनके अन्दर सिमट कर बैठ गया हो। एक हलकी सी चुभन के साथ अन्दर तक शीतलता उतरती चली गयी। ऐसा वो छुटपन से ही करता आया था, गाये-भैंसों को चराते, या यू ही कभी-कभी एकांत अकेले लेटे-लेटे आसमान की तरफ़ निहारता रहता था। न देखना भी कैसा देखने जैसा लगता है। किसी भी पूर्णता को अगर आप देखना चाहते हो तो यही अपूर्णता काम आती है। कैसे गोल-गोल छल्लों का समूह नीले आसमान में पिरोया सा लगता था। आपकी आंखें तो थिर रहती है परंतु अनके महीन चितके धीरे-धीरे चलने लग जाते थे। माँ कहती थी यही है प्राण-उर्जा जो हमें जीवन देती हैं। प्रकृति के कण-कण में, समय और स्थान के अनंत छोर तक होने पर भी हम उसे सीधे ग्रहण नहीं कर सकते। जैसे ही आप अतीत की यादों में गहरे जाओगे आंखें उसे मार्ग देने के लिए दो बूँद आँसू छलका देगी। मानो वो किनारे सिमट, सिकुड़ कर उसका आदर सत्कार दे रही हो। गाँव की गलियाँ, घर का आँगन, दूर तक बिना जोते बोए गंजे हुये खेतों में चरते जानवर सभी एक क्षण में चित्र की भाँति आँखों के सामने घूमने लगे।

खलिहान में पेड़ गेहूँ के ढेर, गाहटा चलाते हुए बैल के पीछे चलना, बैलों के मुंह पर लगा छींका, हाथ में साँटा, मई की तेज गर्मी, सूर्य की तपिश कम होने पर भी हवा अभी भी गर्म थी। बैल दिन भर की थकान के साथ आराम की उम्मीद में पीछे मुड़ -मुड़ के देख रहे थे। शायद ये आज का आखिरी चक्र हो, फिर मौज से जुगाली करते हुये मुंह से खूब झाग बना-बना कर गिराएंगे। एक अल्हड़ बच्चे की तरह जो टूथपेस्ट से मुँह में झाग बना के गिरा रहा हो। लम्बे पैर करके लेटे-लेटे, चैन की लम्बी-लम्बी उसांस छोड़ेंगे। इतनी देर में तीन घोड़े आकर रुके, बैलों के कान खड़े हो गए, मानो कह रहे हो ये क्या आफत आ गई। गोरे अंग्रेज के साथ दो मेम घूमने के लिए आई थी। एक गोरी मेम घोड़े से नीचे उतरी और पोकर को काम करते हुए, बड़े गौर से देखने लगी। कैसे दूर से ही सुगंध का झोंका पोकर के पास आया, गोरी मुलायम चमड़ी, उस पर पके अमरूद की तरह लाल-लाल चितके उसकी सुन्दरता का ह्रास कर रहे थे। आंखें नीली एकदम सफटिक, नीले आसमान की तरह जिस पर बादल का एक चितका तक न हो। पोकर को लगा वो गहाटा चलाना चाहती है। बेलों की रस्सी और साँटा गोरी मेम की तरफ़ बढ़ा दिया, उसने कुतूहल वश मुस्कुरा कर पकड़ लिया। एक चक्कर लगाने के बाद बेलों को कुछ अजीब सा लगा, वो चिर परिचित ध्वनि का न निकलना, न वो पदचाप, न वो स्‍पर्श, सब बदला सा लगा। बेलों ने अचानक पीछे मुड़ कर देखा, एक अनजान चेहरा देख वो डर गये। अचानक बेलों के जोर से भागने से गोरी मेम झटका खा कर गिर गई, उसके हाथों से खून निकल आया। पोकर ने दौड़ कर उसे उठाया, वह थर-थर काँप रहीं थी। पोकर ने सोचा अब खैर नहीं, गोरी मेम फिर भी बच्चे के समान मुस्कुरा रही थी। अंग्रेज घोड़े से उतरा, और रूमाल से उसका खून साफ़ करने लगा, या आल-राइट, इतना सब होने पर भी वह कोई क्रोध नहीं कर रहे थे। पोकर पहली बार किसी अंग्रेज को इतने नजदीक से देखा था। और वो लोग पल के पल में ओ० के० थेंक्यु कहते हुए घोड़े पर बैठकर क्षण भर में घुल उड़ाते, आँखों से ओझल हो गये। पोकर मूर्तिवत, आवक खड़ा देखता रह गया। ये लोग इतने बुरे, वहशी, पाशविक नहीं लगे है, जितना इनके बार में बताया जा रहा था। खेर अब पोकर को दूख तो जरूर हो रहा था की नाहक उसकी वजह से ही उस महिला अंग्रेज को चोट लगी थी। जितना पोकर सोचता था, उतना ही वह उलझन में फंसता चला जाता। यहाँ बटालियन में भी सब अंग्रेज एक समान नहीं होते कुछ तो बहुत प्रेम पूर्ण होते है कुछ तो आपको देखते ही भड़क जाते है। मानो किसी सांड ने लाला रंग का कपड़ा देख लिया हो। यह पोकर ने पहली बार उन्हें देख कर उसने महसूस किया था।

पोकर और उनके साथी जानते थे, अंग्रेज उनका पीछा कर रहे होगे, कम से कम आराम करके ज्यादा से ज्यादा दूर निकल जाना चाहते थे। पहाड़ी इलाका था। छोटे-छोटे दस पांच घरों के गांव थे। अधिकतर वहां के लोग बहुत सरल थे। सादा जीवन अपने में सच ही सादगी समेटे रहता है। शायद ये आधुनिक शिक्षा मनुष्य के मन का विकास तो शायद नहीं करती परंतु उसे चतुर और चालाक अवश्य बना देती है। वैसे पोकर और उसके साथी गांव देहात से बचते बचाता ही चल रहे थे। कभी साथ लाया राशन से कुछ दाल खिचड़ी बना लेते या। किसी जंगली फल के सहारे से अपने भूख को शांत करते परंतु जिस गांव के पास विश्राम वह करते वहां के दो चार लोग भोजन और दूध उन्हें दे जाते थे। परंतु पोकर और उसके साथी जानते थे की इस सब से अंग्रेज लोग विषुवध क्रोधित हो उठेंगे नाहक बेचारों को अत्याचार झेलना होगा। इसलिए पोकर और उसके साथी रात के अंधेरे में ही सफर करते थे। उजाले से पहले किसी गहरे नाले या घने पेड़ो के झुरमुट में विश्राम करते थे।

परन्तु होनी को कोन टाल सकता है। सूर्य अभी निकला भी नहीं था, हल्का-हल्का झुटपुटा, भोर का तारा पूर्ण यौवन पर था, दूर कोई पपीहा विरह के गीत गा कर अभी-अभी चुप हुआ था। लेकिन झींगुर अभी भी अपनी लम्बी तान लगाये जा रहे था। अचानक तीतरों का एक झुंड की..की.. किि करके भयभीत होकर फुर्र..र्र..र्र....से उड़ा। खतरा भाँप सभी पोकर के साथी सतर्क हो नाले में पीछे की तरफ़ सरकने लगे। नाला गहरा था, उस पर फैली घनी झाड़ियाँ, जिससे नीचे सूर्य की रोशनी भी नहीं आ पाती थी। पीछे सरकते हुये वह नाले के उस छोर तक पहुंच गये, परन्तु आगे बहुत बड़ा तालाब था। एक सपाट मैदान। जहां अगर वह निकले तो देख लिए जाते। झाड़ियां थी परंतु छोटी-छोटी। इसलिए उन्होंने दो-दो चार-चार के ग्रुप में बाहर निकलने का फैसला किया। जैसे-जैसे साथी आगे जा रहे थे पीछे से एक और चार का झुंड बाहर निकल कर जंगल में विलीन हो जाता था। परंतु वह 300 मीटर का जो सपाट मैदान था खतरनाक था। बस एक ही बचाव का मार्ग थे वह तालाब जिसके चारों और पेड़ पौधे उगे थे। और उसके आस पास मिट्टी की ऊंची मुंडेर बने हुए थे।

आखिर बचे चार पोकर और उसके साथी। इतनी देर में उन्हें पेरो की आहट और जूते की चरमराहट अपने पास आती नजर आई। तब पोकर और उसके साथ समझ गए अब हमें यहीं रूक कर इंतजार करना होगा। उनके पास से जवानों के चलने की आवाज आ रही थी। घास जो उनके जूतों से दब कर कराह रही थी। वही पोकर और उसके साथ को मानो कह रही हो सावधान कोई आ रहा है। वह आवाज पास से होती हुई आगे बढ़ रही थी। कैसी होनी अनहोनी है यह, अपने ही भाई जिनके साथ वह दिन रात लड़ते झगड़ते थे। साथ खाते थे। आज वही उन्हें मारने के लिए आमने सामने थे। भारत की गुलामी बड़ी अजीब थी। चंद मुट्ठी भर अंग्रेज एक बनिया के रूप में आये और यहां आकर वह सैनिक बन गए। अथवा वह सैनिक नहीं थे। वह भगोड़े लुटेरे थे जिन्हें अंग्रेजों ने देश निकाला दे रखा था। बाद में बन गई एक लुटेरों की ईस्ट इंडिया कम्पनी। वाह क्या बात है। वाह रे बुद्धि वादियों तुमने कैसा चमत्कार किया। मुट्ठी भर अंग्रेजों ने एक ही नारा दिया की फूट डालों राज करो, दूसरा जातिय विभाजन भी उन्हीं की देन है। देश में इससे पहले कोई विभाजन नहीं था। वर्ण विभाजन था।

खून भी इस देश के नौजवानों का ताकत भी यही की पैसा भी यहीं की और बना लिया गुलाम। गजब का दिमाग था इन अंग्रेजों का। अब अगर हम मैदान की और बढ़े तो हम तो मारे ही जायेगें साथ ही हमारे साथी लोग भी ज्यादा दूर नहीं गए है अभी। तब वह चारों वहीं दम साध कर बैठ गए। नाला बहुत गहरा था। इसलिए चारों ने एक दूसरे की आँखों में देखा और शहादत के लिए तैयार हो गए। लेकिन वह आवाज को सून रहे थे। वह आवाज उनसे दूर होती जा रही थी। शायद अंग्रेज मेजर ने उन्हें वहां देख नहीं पाया था। परंतु उन चारों ने एक दूसरे की और देखा की अब क्या किया जा सकता है। वह अगर दम साध कर लेटे रहते तो अंग्रेज आगे निकल जाते और वह चारों बच सकते थे। सारे सिपाही लगभग मैदान पार कर जंगल की और चले जा रहे थे। कुछ पीछे चले आ रहे थे। तब पोकर ने कहां यारों मरना तो है ही क्यों न आज ही वह दिन आ जाये। कम से कम अपने साथी तो बच जायेगे। अगर हम इन अंग्रेजों को यही उलझा ले तो हमारे साथी काफी दूर निकल सकते है। और शायद वह बच कर अपनी मंजिल तक भी पहुंच जाये। चारों ने एक दूसरे की आंखों में देखा। और कहां की पोकर तू ठीक कहता है। और चारों ने अंतिम बिदाई की तैयारी से पहले एक दूसरे के गले लगाया।

दूख भी हो रहा था की हम अपने ही भारतीय भाइयों पर गाली चला रहे थे। दोनों तरफ़ से गोलियां चलने लगी, एक तरफ़ 120-130 जवान और दूसरी तरफ़ गिनती के चार मतवाले, फिर भी चारों जी जान से लड़ते रहे। परंतु वह खुले में थे और पोकर हर एक गहरे अंधेरे नाले में इस तरह वह जवान पहले अपनी जान बचाने के लिए इधर उधर भोगे। आधे आगे जो निकल गए थे उनकी जान को अधिक खतरा था पोकर हर से। वह निशान पर थे परंतु कुछ जवान पीछे भी रह गए थे। और उन्हीं के साथ वह अंग्रेज आफिसर था। पोकर ने कहां यार हम अपने ही भाइयों को मार रहे है। कैसा पाप कर रहे है। समझ नहीं आ रहा। वह अंग्रेज का बच्चा चूहे की तरह पीछे दुबक गया होगा। एक-एक ने तीन-तीन, चार-चार को घायल कर दिया था। अधिक तर वह इस तरह से गोली मार रहे थे की कोई जवान मरे ना। काफी युद्ध भंयकर होता जा रहा था। अब उन पर दोनों और से गोलियां चल रही थी। अंग्रेज इस बात से परेशान था की अचानक ये सब क्या हो क्या गया। उसे उम्मीद नहीं थी की उस पर पहले गोलियों से हमला होगा। वह तो हमला करने की तैयार कर के आया था। पोकर की एक गोली अंग्रेज अफसर के कंघे में लगी, वो छठ-पटा कर अपने कंघे को पकड़ कर बैठ गया। पोकर के तीनों साथी शहीद हो गये थे। उसकी गोलियां भी खत्म हो रही थी। पोकर अकेले ही उन से टक्कर लेता रहा। एक गोली पोकर कान को चीरती हुई निकल गई। कान से खून टपकने लगा था। एक बार पोकर ने उसे दबाया और फिर से गोलियां चलाने लगा। उसकी ही नहीं उसके साथियों की बंदूकों की गोलियां भी समाप्त हो चूकि थी। लेकिन वह किसी कीमत पर जीवित अंग्रेजों के हाथ नहीं आना चाहता था। कोई चारा ना देख पोकर गोलियां चलाता रहा और पेड़ों का सहारा ले बाहर निकल आया। सामने ही बहुत बड़ा तालाब था। उसके पास अब गोलियां भी खत्म हो गई थे। उस साहसी पोकर ने सोचा एक ही रास्ता है तालाब में कूद कर दूसरे किनारे तक निकला जा सकता है। और वह तालाब में कूद गया, वैसे वह एक अच्छा तैराक था। परन्तु तैराक बेचारा क्या करें जब चारों तरफ़ से अंधा धुंध गोलियों चल रही हो।

अंग्रेज जोर-जोर चीख-चीख कर कह आदेश दे रहा था, कील-हिम, कील-हिम...दि....स.... मैन...फायर....फायर। पोकर अपने गांव के तालाब को एक गुप्पची में ही उसे पार कर जाता था। उसे अपनी तैराकी पर बहुत नाज था। वह श्वास को भी बहुत देर तक रोक सकता था। पानी के नीचे पोकर तैरता हुआ जा रहा था। ऊपर से देखने पर वह तालाब शांत था। परंतु पोकर नीचे-नीचे चला जा रहा था। परंतु अब गोलियां चारों और से आ रही थी। कैसे पास से होकर गोली जब गुजरती तो कैसी छू की ध्वनि करती। मानो कोई लोहे की गर्म छड़ को पानी में भिगो रहा हो। पोकर के एक पेर पर आकर गोली लगी। कुछ क्षण के लिए पोकर रुका खून का फव्वारा निकलने लगा था वहां से। उसके बाद दो, तीन... चार गोलियां शरीर को छलनी कर गई, और पोकर का चलना रूक गया। पूरे शरीर से फटे हुए गुब्बारे की तरह से खून निकल रहा था। पल में ही उसका वह शरीर निष्क्रिय निश्चेष्ट सा हो गया एक बेजान, पड़ी शिला की तरह होता जा रहा था। वह धीर-धीरे पानी में गहरे और डूब रहा था। खून का निकलना जारी था। स्वांस तो उसने पहले ही बंद कर ली थी। अब तो मात्र उसकी बंद होती आंखों भी अपने ही खून को उस जल में मिलते हुए देख रहा था।

खून अब ऊपर आकर तालाब पर भी धीरे-धीरे फैल रहा था। जिससे पता चल चूका था की उन की गोलियों ने अपना काम कर दिया था। परंतु फिर भी गोलियां चल रही थी। और देखते ही देखते पोकर का शरीर तालाब की तलहटी में जाकर विश्राम की स्थिति में सो गया। खून निकल कर तालाब की लहरों को रंग रहा था। खून के साथ पोकर ऊपर नहीं आया, वह एक पत्थर को पकड़, मंद होती स्वांस, डूबती चेतना और छिटकते प्राणों के प्रवाह में बह गया। धीरे-धीरे पोकर के खून और सूर्य की फैली लाली ने पूरे तालाब को लाल रंग दिया था। क्षितिज पर भी सूर्य की लालिमा फैली थी। एक और जीवन उग रहा था दूसरी और एक जीवन डूब रहा था। परंतु रंग दोनों का एक समान था। शायद उनका लक्ष्य भी एक समान था। अपने प्राण दे वह दूसरों को जीवन दे रहे थे। अब ये भ्रम हो रहा था ये लाली तालाब में फैले खून की परछाई है या उगते सूर्य के लाल रंग की। उधर लाल होते अंबर को बादल अपने में समेटना चाहते थे। और आखिर कार उनकी मेहनत रंग लाई, बादल भी चारों तरफ़ से सिमट कर शायद सूरज को ढक लिया था। परंतु कितनी देर के लिए। वह फिर बाहर निकलेगा। या हो सकता है प्रकृति खूद ये बादलों का विस्तार किया हो ताकि ये नजारा वो देख न सके। ठीक उसी समय पृथ्वी ने अपनी गोद में समेट लिया पोकर को। एक छोटा परंतु सुंदर सा दीपक चमका परंतु शायद वह जानता था उसकी थाह कितनी है। इस विराट काली रात से लड़ने के लिए, परंतु उसने साहास दिखाया। फिर भी वह एक जुगनू की तरह भभक कर जला और बूझ गया।

उस माँ को कैसे कोई भरोसा दिलाए, ये शायद प्रकृति भी नहीं जानती थी। वह अपनी आस को किस विश्वास के सहारे जिंदा रखे थी। वह सब जानती थी परंतु उसका ह्रदय सब जानते हुए भी मन मानने को तैयार नहीं था। की अब उसका पोकर नहीं रहा। शायद वो बिखर गया हवा वो मैं, धूल के कण-कण मैं, बरसात की इन नन्हीं-नन्हीं बौछारों मैं, चाँद-तारों की छिटकती रोशनी में, दूर धुधले होते उस धूल के किसी गुबार में। या फिर कैसे एक माँ यकीन करें उसका पोकर मिट सकता है। शायद इस गहरे सत्य को माँ का अंतस जान गया था। दीप चन्द के पैर में घूसे छर्रे के कारण उसका पैर अंगद का बन गया था। दीप चन्द उसका साथी था। परंतु वह उन 36 साथियों में था जो एक-एक कर के आगे निकल गए थे। वह जानता था पोकर और उसके साथियों ने अपने प्राणों की जरा भी परवाह नहीं की। क्योंकि वो वहां छिपे है ये सैनिक देख ही नहीं पाये थे। वह तो आगे बढ़ गए थे। अगर वह पीछे से फायरिंग न करते तो वह आराम से बच सकते थे। परंतु उन्होंने खुद के प्राण दे दिये उन आगे बढ़े उन साथियों के लिए। ये बात दादा दीप चंद बताते-बताते उनकी भी आंखें भर आती थी। इस कहानी के बाद बच्चे बड़े अचरज से कपड़ा हटा कर उसके अंगद मोटे हुए पैर को देखते थे। यहीं उसकी बहादुरी का तमग़ा था। बुद्धि कुम्हार आज भी लोगों को कहता फिरता है, कि नेता सुभाष अभी मरे नहीं है, उन्हें काशी-मथुरा में देखा गया हैं। बच्चे उसकी बात सुन कर गर्दन हिला देते हैं, शायद गोली टाफी के लालच मैं। मार्कस मैनअब दिल्ली पुलिस मैं पहाड़ का माहाल कहलाता हैं।

मोती पंडित साँझ संध्या कर के घर आते हुए, अम्माँ राम प्यारी का हाथ पकड़ कर गांव की तरफ़ चल देता है। कोई एक दूसरे से बात नहीं करते। ये लगभग रोज का एक नियम था। दोनों अनबोले से एक दूसरे का दर्द छिपाए गांव की और चलते  रहते थे। अम्मा ने इसका कोई विरोध नहीं किया, ये उसकी सर्दी, गर्मी, बरसात बारह महीने की प्रतिक्रिया थी। रोज श्‍याम होने से पहले आ कर इसी पत्‍थर पर बैठ कर राह के उस अंतिम छोर तक देखती रहती थी। जहां उन बूढ़ी आँखों की पकड़ भी नहीं थी। एक आस एक इन्तजार उस जर्जर हुए शरीर को ढोए चली जा रहीं थी। देश आजाद हो गया, 15 अगस्त को नेहरू ने लाल किले पर तिरंगा झंडा फहरा दिया, तोपों की आवाज़ से जामा-मस्जिद के गुम्बद पर बैठे कबूतर डर के मारे फुर. र्र...र्र... से उड़ गये थे। परन्तु पास खड़े लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। 26 जनवरी की ठंडी-मीठी धूप में इंडिया गेट पर सीधे चढ़ते जहाज तिरंगा बना कर छिटक गये। तिरंगे के रंग अब धुँधले पड़, धुआँ मात्र रह गया था।

लेकिन राम प्यारी आज भी उस राह पर बैठी आसमान की तरफ़ मुंह उठाये बादलों के आकारों में, दूर बनती धूल में, डूबते सूर्य की छद्म होती छवियों में वह अपने पोकर को ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहीं थी। शायद इसी इन्तजार में बैठे-बैठे एक दिन खुद भी मिट्टी बन जायेगी! तभी शायद दोनों मिट्टी एक दूसरे में मिल कर एक हो जायेगी। मां की ममता के ह्रदय को केवल वही मिट्टी जान सकती है। उसके अंदर क्या घट रहा है। हम बहार से केवल एक अनुमान भर लगा सकते है।

श्‍याम गहराने लगी थी, आसमान पर शुक्र तारा सूर्य के जाते ही पूर्ण वेग से चमकने लगा था। अम्‍मा ने एक बार आसमान की तरफ देखा, आसमान पर हल्की लालिमा लिये बादल आसमान पर छितरे पड़े थे। मानो वह भी अब भी घर जाते सूर्य से कुछ कहना चाहते हो, लेकिन अम्‍मा के पास फैली शांति के कारण वो मौन इंतजार में बस खड़े रह गये थे। उसके पास भी शब्‍द कहां थे कहीं दूर नीरवता में निःशब्द विलीन हो गए थे। शुक्र तारे की चमक जो सूर्य के जाते ही, पूर्ण आसमान पर अपना प्रभुत्‍व फैला रही थी। अब बादलों की ओट में छुप गया था। आसमान रंग हिन काला होता जा रहा था......न कोई तारा चमक रहा था। न कोई जुगनू।

जिस आजादी की चमक के हमने सपने देखे थे। वो कालिमा बन कर अपना राज कर रही थी। आज चारों और लुट खसोट पैसे की मारा मारी मची थी। न कोई आदर्श न संस्कार। बस जिसके हाथ में अधिकार है वह भूखे भेड़ियां की तरह इस देश को नोचे जा रहा था। वैसे सालों की गुलामी के बाद ये तो सब होना ही था। ये आजादी नहीं थी एक अराजकता थी। देश पर मर मिटने वाले उन करोड़ों पोकर-के बलिदान की कहानी थी। बहुत लम्बी तपस्या के पार से मिली थी या यूं कहो की छिनी थी हमने आजादी। परंतु क्या हम इसका सदउपयोग करपाये। नहीं। केवल मतलब परस्त आज मलाई खा रहे है। वीर सपूतों ने अपना काम कर दिया। वह एक दिन रंग लायेगा।

फिर अगर बेचारी अम्‍मा के जीवन में कोई प्रकाश नहीं फैला हो तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। कितने भगत सिंह---राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, महावीर प्रसाद को उन माँ ने बलिदान कर दिए थे इस धरा इस आजादी के नाम। पर आज उनके जीवन में कहीं कोई प्रकाश नहीं दिखाई दे रहा था। प्रकाश क्या प्रकाश की एक आस भी नहीं....वहां पर बैठी अम्मा न अंदर ही प्रकाश खोज पा रही थी न बहार। अम्‍मा ने एक गहरी सांस ली और मोती पंडित का हाथ पकड़ कर घर की और चल दी। उन बोझिल कदमों से जिसका न आदि है न अंत..........एक शांत और डर हीन अनंत पथ पर। की कल शायद उसका पोकर जरूर ही आयेगा।

लेकिन सब जानते थे की वो दिन कभी नहीं आयेगा।

 

(भारत माता की जय..........इति )

 

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