अध्याय—1—2
नासतो विद्यते
भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।।
और हे अर्जुन, असत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। इस प्रकार,
इन दोनों को हम तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।
क्या है सत्य, क्या है असत्य, उसके भेद को पहचान लेना ही ज्ञान है,
प्रज्ञा है। किसे कहें है और किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या
है स्वप्न और क्या है यथार्थ, इसके अंतर को समझ लेना ही
मुक्ति का मार्ग है। कृष्ण ने इस वचन में कहा है, जो है,
और सदा है, और जिसके न होने का कोई उपाय नहीं
है, जिसके न होने की कोई संभावना ही नहीं है, वही सत है, वही रियल है। जो है, लेकिन कभी नहीं था और कभी फिर नहीं हो सकता है, जिसके
न हो जाने की संभावना है, वही असत है, वही
अनरियल है।
यहां बहुत समझ लेने जैसी बात है।
साधारणतः असत, अनरियल हम उसे कहते हैं, जो
नहीं है। लेकिन जो नहीं है, उसे तो असत कहने का भी कोई अर्थ
नहीं है। जो नहीं है, उसे तो कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं
है। जो नहीं है, उसे इतना भी कहना कि वह नहीं है, गलत है, क्योंकि हम है शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।
जब हम कहते हैं नहीं है, तब भी हम है शब्द का प्रयोग कर रहे
हैं। जो नहीं है, उसके लिए नहीं है, कहना
भी गलत है। जो नहीं है, वह नहीं ही है, उसकी कोई बात ही अर्थहीन है।
इसलिए असत का अर्थ नान-एक्झिस्टेंट नहीं
होता है। असत का अर्थ होता है, जो नहीं है, फिर भी है; जो नहीं है, फिर भी
होने का भ्रम देता है; जो नहीं है, फिर
भी प्रतीत होता है कि है। रात स्वप्न देखा है, यह नहीं कह
सकते कि वह नहीं है। नहीं था, तो देखा कैसे? नहीं था, तो स्वप्न भी हो सके, यह संभव नहीं है। देखा है, जीया है, गुजरे हैं, लेकिन सुबह उठकर कहते हैं कि स्वप्न था।
यह सुबह उठकर जिसे स्वप्न कहते हैं, उसे बिलकुल नहीं, नान-एक्झिस्टेंट नहीं कहा जा सकता।
था तो जरूर। देखा है, गुजरे हैं। और ऐसा भी नहीं था कि जिसका
परिणाम न हुआ हो। जब रात स्वप्न में भयभीत हुए हैं, तो कंप
गए हैं। असली शरीर कंप गया है, प्राण कंप गए हैं, रोएं खड़े हो गए हैं। नींद भी टूट गई है स्वप्न से, तो
भी छाती धड़कती रही है। जागकर देख लिया है कि स्वप्न था, लेकिन
छाती धड़की जा रही है, हाथ-पैर कंपे जा रहे हैं।
यदि वह स्वप्न बिलकुल ही नहीं होता, तो उसका कोई भी परिणाम नहीं हो सकता था। था, लेकिन
उस अर्थ में नहीं था, जिस अर्थ में जागकर जो दिखाई पड़ता है,
वह है। उसे किस कोटि में रखें--न होने की, होने
की? उसे किस जगह रखें? था जरूर और फिर
भी नहीं है!
असत की जो कोटि है, असत की जो केटेगरी है, अनरियल की जो कोटि है,
वह अनस्तित्व की कोटि नहीं है। अनरियल, असत की
कोटि अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच की कोटि है। ऐसा सत, जो
सत मालूम पड़ता है, लेकिन नहीं है।
लेकिन हम यह कैसे जानेंगे? क्योंकि स्वप्न में तो पता नहीं पड़ता कि जो हम देख रहे हैं, वह नहीं है। स्वप्न में तो मालूम होता है, जो देख
रहे हैं, वह बिलकुल है। और ऐसा नहीं है कि पहली दफे स्वप्न
देखने में ऐसा मालूम पड़ता हो। जीवनभर स्वप्न देखकर भी और रोज सुबह जागकर भी,
जानकर कि नहीं था, आज रात फिर जब स्वप्न आएगा,
तब स्वप्न में पूरी तरह लगेगा कि है। लगता है पूरी तरह कि है;
भासता है पूरी तरह कि है; फिर भी सुबह जागकर
पाते हैं कि नहीं है।
यह जो एपिअरेंस है, भासना है, यह जो दिखाई पड़ना है, यह जो होने जैसा धोखा है, इसका नाम असत है। संसार को
जब असत कहा है, तो उसका यह अर्थ नहीं है कि संसार नहीं है।
उसका इतना ही अर्थ है कि चेतना की ऐसी अवस्था भी है, जब हम
जागने से भी जागते हैं। अभी हम स्वप्न से जागकर देखते हैं, तो
पाते हैं, स्वप्न नहीं है। लेकिन जब हम जागने से भी जागकर
देखते हैं, तो पाते हैं कि जिसे जागने में जाना था, वह भी नहीं है। जागने से भी जाग जाने का नाम समाधि है। जिसे अभी हम जागना
कह रहे हैं, जब इससे भी जागते हैं, तब
पता चलता है कि जो देखा था, वह भी नहीं है।
कृष्ण कह रहे हैं, जिसके आगे-पीछे न होना हो और बीच में होना हो, वह
असत है। जो एक समय था कि नहीं था और एक समय आता है कि नहीं हो जाता है, उसके बीच की जो घटना है, बीच की जो हैपनिंग है,
दो न होने के बीच जो होना है, उसका नाम असत है;
उसका नाम अनरियल है।
लेकिन जिसका न होना है ही नहीं, जिसके पीछे भी होना है, बीच में भी होना है, आगे भी होना है, जो तीनों तलों पर है ही; सोएं तो भी है, जागें तो भी है, जागकर भी जागें तो भी है; निद्रा में भी है, जागरण में भी है, समाधि में भी है; जो चेतना की हर स्थिति में ही है, उसका नाम सत है।
और ऐसा जो सत है, वह सदा है, सनातन है,
अनादि है, अनंत है।
जो ऐसे सत को पहचान लेते हैं, वे बीच में आने वाले असत के भंवर को, असत की लहरों
को देखकर न सुखी होते हैं, न दुखी होते हैं। क्योंकि वे
जानते हैं, जो क्षणभर पहले नहीं था, वह
क्षणभर बाद नहीं हो जाएगा। दोनों ओर न होने की खाई है, बीच
में होने का शिखर है। तो स्वप्न है। तो असत है। दोनों ओर होने का ही विस्तार है
अंतहीन, तो जो है, वह सत है।
कसौटी, कृष्ण कीमती कसौटी
हाथ में देते हैं, उससे सत की परख हो सकती है। सुख अभी है,
अभी क्षणभर पहले नहीं था, और अभी क्षणभर बाद
फिर नहीं हो जाता है। दुख अभी है, क्षणभर पहले नहीं था,
क्षणभर बाद नहीं हो जाता है। जीवन अभी है, कल
नहीं था, कल फिर नहीं हो जाता है। जो-जो चीजें बीच में होती
हैं और दोनों छोरों पर नहीं होती हैं, वे बीच में केवल होने
का धोखा ही दे पाती हैं। क्योंकि जो दोनों ओर नहीं है, वह
बीच में भी नहीं हो सकता है। सिर्फ भासता है, दिखाई पड़ता है,
एपीअर होता है।
जीवन की प्रत्येक चीज को इस कसौटी पर
कसा जा सकता है। अर्जुन से कृष्ण यही कह रहे हैं कि तू कसकर देख। जो अतीत में नहीं
था, जो भविष्य में नहीं होगा, उसके अभी होने के व्यामोह
में मत पड़। वह अभी भी वस्तुतः नहीं है; वह अभी भी सिर्फ
दिखाई पड़ रहा है; वह सिर्फ होने का धोखा दे रहा है। और तू
धोखे से जाग भी न पाएगा कि वह नहीं हो जाएगा। तू उस पर ध्यान दे, जो पहले भी था, जो अभी भी है और आगे भी होगा। हो
सकता है, वह तुझे दिखाई भी न पड़ रहा हो, लेकिन वही है। तू उसकी ही तलाश कर, तू उसकी ही खोज
कर।
जीवन में सत्य की खोज, असत्य की परख से शुरू होती है। टु नो दि फाल्स एज दि फाल्स, मिथ्या को जानना मिथ्या की भांति, असत को पहचान लेना
असत की भांति, सत्य की खोज का आधार है। सत्य को खोजने का और
कोई आधार भी नहीं है हमारे पास। हम कैसे खोजें कि सत क्या है? सत्य क्या है? हम ऐसे ही शुरू कर सकते हैं कि असत्य
क्या है।
कई बार बड़ी उलझन पैदा होती है।
क्योंकि कहा जा सकता है कि जब तक हमें सत्य पता न हो, तब तक हम कैसे जानेंगे कि असत्य क्या है! जब तक हमें सत्य पता न हो,
तब तक हम कैसे जानेंगे कि असत्य क्या है? सत्य
पता हो, तो ही असत्य को जान सकेंगे। और सत्य हमें पता नहीं
है।
लेकिन इससे उलटी बात भी कही जा सकती
है। और सोफिस्ट उलटी दलील भी देते रहे हैं। वे कहते हैं कि जब तक हमें यही पता
नहीं है कि असत्य क्या है, तो हम कैसे समझ लेंगे कि सत्य क्या है! यह चक्रीय
तर्क वैसा ही है, जैसे अंडे और मुर्गी का है। कौन पहले है?
अंडा पहले है या मुर्गी पहले है? कहें कि
मुर्गी पहले है तो मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि मुर्गी
बिना अंडे के नहीं हो सकेगी। कहें कि अंडा पहले है तो उतनी ही कठिनाई खड़ी हो जाती
है, क्योंकि अंडा बिना मुर्गी के रखे रखा नहीं जा सकेगा।
लेकिन कहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा, अन्यथा उस दुष्चक्र में,
उस विशियस सर्किल में कहीं कोई प्रारंभ नहीं है।
अगर ठीक से पहचानें, तो मुर्गी और अंडे दो नहीं हैं। इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है। अंडा,
हो रही मुर्गी है; मुर्गी, बन रहा अंडा है। वे दो नहीं हैं; वे एक ही प्रोसेस,
एक ही हिस्से के, एक ही लहर के दो भाग हैं। और
इसीलिए दुष्चक्र पैदा होता है कि कौन पहले! उनमें कोई भी पहले नहीं है। एक ही साथ
हैं, साइमलटेनियस हैं, युगपत हैं। अंडा
मुर्गी है, मुर्गी अंडा है।
यह सत और असत का भी करीब-करीब सवाल
ऐसा है। वह जिसको हम असत कहते हैं, उसका आधार भी सत है।
क्योंकि वह असत भी सत होकर ही भासता है; वह भी दिखाई पड़ता है।
एक रस्सी पड़ी है और अंधेरे में सांप दिखाई पड़ती है। सांप का दिखाई पड़ना बिलकुल ही
असत है। पास जाते हैं और पाते हैं कि सांप नहीं है, लेकिन
पाते हैं कि रस्सी है। वह रस्सी सांप जैसी भास सकी, पर रस्सी
थी भीतर। रस्सी का होना सत है। वह सांप एक क्षण को दिखाई पड़ा, फिर नहीं दिखाई पड़ा, वह असत था। पर वह भी, उसके आधार में भी सत था, सब्सटैंस में, कहीं गहरे में सत था। उस सत के ही आभास से, उस सत के
ही प्रतिफलन से वह असत भी भास सका है।
लहर के पीछे भी सागर है, मर्त्य के पीछे भी अमृत है, शरीर के पीछे भी आत्मा
है, पदार्थ के पीछे भी परमात्मा है। अगर पदार्थ भी भासता है,
तो परमात्मा के ही प्रतिफलन से, रिफ्लेक्शन से
भासता है, अन्यथा भास नहीं सकता।
आप एक नदी के किनारे खड़े हैं और नीचे
आपका प्रतिबिंब बनता है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब आप नहीं हैं; लेकिन वह प्रतिबिंब आपके बिना भी नहीं है। निश्चित ही वह प्रतिबिंब सत
नहीं है, पानी पर बनी केवल छवि है। लेकिन फिर भी वह
प्रतिबिंब जहां से आ रहा है, वहां सत है।
असत, सत की ही झलक है
क्षणभर को मिली। क्षणभर को सत ने जो आकृति ली, अगर हमने उस
आकृति को जोर से पकड़ लिया, तो हम असत को पकड़ लेते हैं। और अगर
हमने उस आकृति में से उसको पहचान लिया जो निराकार, निर्गुण,
उस क्षणभर आकृति में झलका था, तो हम सत को पकड़
लेते हैं।
लेकिन जहां हम खड़े हैं, वहां आकृतियों का जगत है। जहां हम खड़े हैं, वहां
प्रतिफलन ही दिखाई पड़ते हैं। हमारी आंखें इस तरह झुकी हैं कि नदी के तट पर कौन खड़ा
है, वह दिखाई नहीं पड़ता; नदी के जल में
जो प्रतिबिंब बन रहा है, वही दिखाई पड़ता है। हमें उससे ही
शुरू करना पड़ेगा; हमें असत से ही शुरू करना पड़ेगा। हम स्वप्न
में हैं, तो स्वप्न से ही शुरू करना पड़ेगा। अगर हम स्वप्न को
ठीक से पहचानते जाएं, तो स्वप्न तिरोहित होता चला जाएगा।
यह बड़े मजे की बात है, कभी प्रयोग करने जैसा अदभुत है। रोज रात को सोते समय स्मरण रखकर सोएं,
सोते-सोते एक ही स्मरण रखे रहें कि जब स्वप्न आए तब मुझे होश बना
रहे कि यह स्वप्न है। बहुत कठिन पड़ेगा, लेकिन संभव हो जाता
है। नींद लगती जाए, लगती जाए, और आप
स्मरण करते जाएं, करते जाएं कि जैसे ही स्वप्न आए, मैं जान पाऊं कि यह स्वप्न है। थोड़े ही दिन में यह संभव हो जाता है,
नींद में भी यह स्मृति प्रवेश कर जाती है। अचेतन में उतर जाती है।
और जैसे ही स्वप्न आता है, वैसे ही पता चलता है, यह स्वप्न है।
लेकिन एक बहुत मजे की घटना है। जैसे
ही पता चलता है, यह स्वप्न है, स्वप्न तत्काल
टूट जाता है--तत्काल, इधर पता चला कि यह स्वप्न है कि उधर
स्वप्न टूटा और बिखरा। स्वप्न को स्वप्न की भांति पहचान लेना, उसकी हत्या कर देनी है। वह तभी तक जी सकता है, जब तक
सत्य प्रतीत हो। उसके जीने का आधार उसके सत्य होने की प्रतीति में है।
इस प्रयोग को जरूर करना ही चाहिए।
इस प्रयोग के बाद कृष्ण का यह सूत्र
बहुत साफ समझ में आ जाएगा कि वे इतना जोर देकर क्यों कह रहे हैं कि अर्जुन, असत और सत के बीच की भेद-रेखा को जो पहचान लेता है, वह
ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। स्वप्न से ही शुरू करें रात के, फिर बाद में दिन के स्वप्न को भी जागकर देखें और वहां भी स्मरण रखें कि जो
है--दो नहीं के बीच में--वह स्वप्न है। और तब अचानक आप पाएंगे कि आपके भीतर कोई
रूपांतरित होता चला जा रहा है। और जहां कल मन पकड़ लेने का होता था, आज वहां मुट्ठी नहीं बंधती। कल जहां मन रोक लेने का होता था किसी स्थिति
को, आज वहां हंसकर गुजर जाने का मन होता है। क्योंकि जो
दोनों तरफ नहीं है, उसे पकड़ना, हवा को
मुट्ठी में बांधने जैसा है। जितने जोर से पकड़ो, उतने ही बाहर
हाथ के हो जाती है। मत पकड़ो तो बनी रहती है; पकड़ो तो खो जाती
है।
जैसे ही यह दिखाई पड़ गया कि दो नहीं
के बीच में जो है, है मालूम पड़ता है, वह स्वप्न है,
वैसे ही आपकी जिंदगी से असत की पकड़ गिरनी शुरू हो जाएगी; स्वप्न बिखरना शुरू हो जाएगा। तब जो शेष रह जाता है, दि रिमेनिंग, वह सत्य है। जिसको आप पूरी तरह जागकर
भी नहीं मिटा पाते, जिसको आप पूरी तरह स्मरण करके भी नहीं
मिटा पाते, जो आपके बावजूद शेष रह जाता है, वही सत्य है। वह शाश्वत है; उसका कोई आदि नहीं है,
कोई अंत नहीं है। कहना चाहिए, वह टाइमलेस है।
यह भी थोड़ा समझ लेने जैसा है।
असत हमेशा टाइम में होगा, समय में होगा। क्योंकि जो कल नहीं था, आज है,
और कल नहीं हो जाएगा, उसके समय के तीन विभाजन
हुए--अतीत, वर्तमान और भविष्य। लेकिन जो कल भी था, आज भी है, कल भी होगा, उसके
तीन विभाजन नहीं हो सकते। उसका कौन-सा अतीत है? उसका कौन-सा
वर्तमान है? उसका कौन-सा भविष्य है? वह
सिर्फ है। इसलिए सत्य के साथ टाइम सेंस नहीं है, समय की कोई
धारणा नहीं है। सत कालातीत है, समय के बाहर है। असत समय के
भीतर है।
जैसे मैंने कहा, आप नदी के तट पर खड़े हैं और आपका प्रतिफलन, रिफ्लेक्शन
नदी में बन रहा है। आप नदी के बाहर हो सकते हैं, लेकिन रिफ्लेक्शन
सदा नदी के भीतर ही बन सकता है। पानी का माध्यम जरूरी है। कोई भी माध्यम जो दर्पण
का काम कर सके, कोई भी माध्यम जो प्रतिफलन कर सके, वह जरूरी है। आपके होने के लिए, कोई प्रतिफलन करने
वाले माध्यम की जरूरत नहीं है। लेकिन आपका चित्र बन सके, उसके
लिए प्रतिफलन के माध्यम की जरूरत है।
टाइम, समय प्रतिफलन का
माध्यम है। किनारे पर सत खड़ा होता है, समय में असत पैदा होता
है। समय की धारा में, समय के दर्पण पर, टाइम मिरर पर जो प्रतिफलन बनता है, वह असत है। और
समय में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती। जैसे पानी में कोई भी चीज थिर नहीं हो सकती,
क्योंकि पानी अथिर है। इसलिए कितना ही थिर प्रतिबिंब हो, फिर भी कंपता रहेगा। पानी कंपन है।
ये जो कंपते हुए प्रतिबिंब हैं समय के
दर्पण पर बने हुए, कल थे, अभी हैं, कल नहीं होंगे। कल भी बड़ी बात है; बीते क्षण में थे,
नहीं थे, अगले क्षण में नहीं हो जाएंगे। ऐसा
जो क्षण-क्षण बदल रहा है, जो क्षणिक है, वह असत है। जो क्षण के पार है, जो सदा है, वही सत है। इसकी भेद-रेखा को जो पहचान लेता, कृष्ण
कहते हैं, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।
अविनाशि तु
तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य
न कश्चित्कर्तुमर्हति।। १७।।
इस न्याय के अनुसार नाशरहित तो उसको
जानो कि जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है, क्योंकि इस अविनाशी
का विनाश करने को कोई भी समर्थ नहीं है।
जिसने इस सारे जगत को व्याप्त किया है, वह सूक्ष्मतम अविनाशी है। लेकिन जिससे यह सारा जगत व्याप्त हुआ है,
वह वस्तु स्थूल है और विनाशवान है। इसे ऐसा समझें, एक कमरा है, खाली है, कुछ भी
सामान नहीं है। वह जो कमरे का खालीपन है, वह पूरा का पूरा
व्याप्त किए है कमरे को। उचित तो यही होगा कि जब कमरा नहीं था, तब भी वह खालीपन था। पीछे हमने दीवारें उठाकर उस खालीपन को चारों तरफ से
बंद किया है। कमरा नहीं था, तब भी वह खालीपन था। कमरा नहीं
होगा, तब भी वह खालीपन होगा। कमरा है, तब
भी वह खालीपन है। कमरा बना है, मिटेगा; कभी नहीं था, कभी नहीं हो जाएगा; पर वह जो खालीपन है, वह जो स्पेस है, वह जो अवकाश है, वह जो आकाश है--वह था, है, रहेगा।
उसके लिए था, है, इस तरह के शब्द उचित नहीं हैं। क्योंकि जो कभी
भी नहीं नहीं हुआ, उसके लिए है कहना ठीक नहीं है। है सिर्फ
उसी चीज के लिए कहना ठीक है, जो नहीं है भी हो सकती है।
वृक्ष है, कहना ठीक है; आदमी है,
कहना ठीक है; परमात्मा है, कहना ठीक नहीं है। परमात्मा के साथ यह कहना कि परमात्मा है, पुनरुक्ति है, रिपिटीशन है। परमात्मा का अर्थ ही है
कि जो है। उसको दोहराने की कोई जरूरत नहीं है कि परमात्मा है। इसका मतलब यह हुआ कि
जो है, वह है। कोई और मतलब नहीं हुआ। जो नहीं नहीं हो सकता,
उसके लिए है कहना बिलकुल बेमानी है।
इसीलिए बुद्ध जैसे परम आस्तिक ने, परमात्मा है, ऐसा शब्द कभी प्रयोग नहीं किया। नासमझ
समझे कि नास्तिक है यह आदमी। लेकिन बुद्ध को लगा कि यह तो बड़ी ही भूल भरी बात कहनी
है कि परमात्मा है। क्योंकि है सिर्फ उसी के लिए कहना चाहिए, जो नहीं है भी हो जाता है। आदमी है, ठीक है बात। उस
पर है हम लगा सकते हैं। है उस पर आई हुई घटना है, कल खो
जाएगी। लेकिन परमात्मा है, यह कहना ठीक नहीं है। गॉड इज़,
कहना ठीक नहीं है। क्योंकि गॉड का तो मतलब ही इज़नेस है। जो है ही,
उसके लिए है कहना, बड़ा कमजोर शब्द उपयोग करना
है; गलत शब्द उपयोग करना है; पुनरुक्ति
है।
खाली जगह है ही। कमरा नहीं था, तब भी थी। फिर कमरे में हम फर्नीचर ले आए, फिर कमरे
में हमने तस्वीरें लगा दीं, फिर कमरे में हम आकर बैठ गए।
कमरा पूरा सज गया, भर गया। अब इस कमरे में दो चीजें हैं। एक
तो वह खालीपन, जो सदा से था; और एक यह भरापन,
जो सदा से नहीं था। लेकिन बड़े मजे की बात है कि कमरे का खालीपन हमें
कभी दिखाई नहीं पड़ता; कमरे का भरापन दिखाई पड़ता है। कमरे में
वही दिखाई पड़ता है, जो भरा हुआ है। वह नहीं दिखाई पड़ता,
जो खाली है। किसी भी कमरे में आप प्रवेश करेंगे, तो वही दिखाई पड़ता है, जो वहां है। वह नहीं दिखाई
पड़ता, जो वहां सदा था। वह नहीं दिखाई पड़ता। वह अदृश्य भी है।
अगर खालीपन का भी पता चलता है, तो कहना चाहिए कि भरेपन के
रिफरेंस में पता चलता है।
यह कुर्सी रखी है, तो इसके आस-पास खाली जगह मालूम पड़ती है। इस कुर्सी के आस-पास खाली जगह
मालूम पड़ती है। खाली जगह के बीच में यह कुर्सी मालूम नहीं पड़ती। असलियत यही है कि
खालीपन के बीच में यह कुर्सी रखी है। कुर्सी हटाई जा सकती है, खालीपन हटाया नहीं जा सकता; भरा जा सकता है, हटाया नहीं जा सकता।
आप एक कमरे से कुर्सी बाहर निकाल ले
सकते हैं, क्योंकि कुर्सी कमरे के अस्तित्व का हिस्सा नहीं है।
लेकिन कमरे से खालीपन नहीं निकाल सकते। ज्यादा से ज्यादा कमरे में सामान भरकर
खालीपन को दबा सकते हैं। अगर कमरे में से सब चीजें निकाल ली जाएं, तो आप कहेंगे, यहां तो कुछ भी नहीं है। और अगर कमरे
से सब चीजें निकाल ली गई हों, तो आपको सिर्फ कमरे की दीवारें
दिखाई पड़ेंगी। अगर दीवारें भी निकाल ली जाएं, तो आप कहेंगे,
यहां कमरा ही नहीं है।
लेकिन दीवारें कमरा नहीं हैं। दीवारों
के बीच में जो खाली जगह है, वही कमरा है। अंग्रेजी का शब्द रूम बहुत अच्छा है।
रूम का मतलब होता है, खाली जगह। रूम का मतलब ही होता है,
खाली जगह। पर वह खाली जगह दिखाई भी नहीं पड़ती, खयाल में भी नहीं आती, क्योंकि खाली जगह का हमें
स्मरण ही नहीं है। असल में खाली जगह इतनी सदा से है कि उसे हमें देखने की जरूरत ही
नहीं पड़ी है।
ठीक ऐसे ही, यह जो विराट आकाश है, यह जो स्पेस है अनंत, यह जो खाली जगह है, यह जो एंपटीनेस है फैली हुई अनंत
तक, जिसका कोई ओर-छोर नहीं है, जो कहीं
शुरू नहीं होती और कहीं समाप्त नहीं होती।
आप ध्यान रखें, खाली चीज कभी भी शुरू और समाप्त नहीं हो सकती, सिर्फ
भरी चीज शुरू और समाप्त हो सकती है। खालीपन की कोई बिगनिंग और कोई एंड नहीं हो
सकता। कमरे के खालीपन की कौन-सी शुरुआत है और कौन-सा अंत है? हां, दीवार का होता है, सामान
का होता है, कमरे का नहीं होता। स्पेस की कोई सीमाएं नहीं
हैं, आकाश का अर्थ ही है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है। यह जो
असीम फैला हुआ है, यह सत है। और इस असीम के बीच में बहुत कुछ
उठता है, बनता है, निर्मित होता है,
बिखरता है, वह असत है।
वृक्ष बने, खालीपन थोड़ी देर के लिए हरा हुआ। फूल खिले, खालीपन
थोड़ी देर के लिए सुगंध से भरा। फिर फूल गिर गए, फिर वृक्ष
गिर गया; खालीपन फिर अपनी जगह है। और जब वृक्ष उठा था और फूल
खिले थे, तब भी खालीपन में कोई अंतर नहीं पड़ा था; वह वैसा ही था।
चीजें बनती हैं और मिटती हैं। जो बनता
है और मिटता है, वह स्थूल है, वह दिखाई पड़ता है।
जो नहीं बनता, नहीं मिटता, वह सूक्ष्म
है, वह अदृश्य है। सूक्ष्म कहना भी ठीक नहीं है। लेकिन
मजबूरी में कृष्ण ने सूक्ष्म का प्रयोग किया है। उचित नहीं है, लेकिन मजबूरी है। कोई और उपाय नहीं है। असल में जब हम कहते हैं सूक्ष्म,
तो हमारा मतलब यह होता है, स्थूल का ही कोई
हिस्सा। जब हम कहते हैं छोटा, तो मतलब होता है कि बड़े का ही
कोई हिस्सा। जब हम कहते हैं बहुत सूक्ष्म, तो हमारा मतलब
होता है कि बहुत कम स्थूल। बाकी मनुष्य की भाषा में सूक्ष्म भी स्थूल से ही जुड़ा
है। हम कितना ही कहें सूक्ष्मातिसूक्ष्म, तो भी स्थूल से ही
जुड़ा है। आदमी की भाषा द्वंद्व से बनी है। उसमें पेयर्स हैं, उसमें दो-दो चीजों के जोड़े हैं।
लेकिन कृष्ण जिसे सूक्ष्म कह रहे हैं, वह स्थूल का कोई हिस्सा नहीं है। कृष्ण सूक्ष्म कह रहे हैं उसे, जो स्थूल नहीं है। मजबूरी है। लेकिन उसके लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं है।
इसलिए निकटतम गलत शब्द जो हो सकता है, वह सूक्ष्म है। यानी
कम से कम गलत शब्द जो हो सकता है, वह सूक्ष्म है। उसके लिए
कोई शब्द नहीं है। कुछ भी हम कहें।
हमने जितने शब्द बनाए हैं, वे बड़े मजेदार हैं। हम उलटे से उलटा शब्द भी प्रयोग करें, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। वह उलटे से उलटा भी हमारे पुराने शब्द से ही
जुड़ा होता है। अगर हम कहें कि वह असीम है, तो भी हमें सीमा
से ही वह शब्द बनाना पड़ता है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि सीमा में
असीम का कोई भाव नहीं होता। लेकिन असीम में सीमा का भाव होता है। हम कितनी ही
कल्पना करें असीम की, हम ज्यादा से ज्यादा बहुत बड़ी सीमा की कल्पना करते
हैं। हम कितना ही सोचें, तो हमारा मतलब यही होता है कि सीमा
और आगे हटा दो, और आगे हटा दो, और आगे
हटा दो। लेकिन सीमा होगी ही नहीं, यह हमारा विचार नहीं सोच
पाता। वह इनकंसिवेबल है। उसकी कोई चिंतना नहीं हो सकती असीम की।
जब हम कहते हैं, कमरे में खालीपन है, तो उसका मतलब हमारे मन में यह
होता है कि कमरे में खालीपन भरा है। तो हम एंपटीनेस को भी वस्तु की तरह उपयोग करते
हैं, खालीपन भरा है। जैसे खालीपन कोई चीज है। जब कि खालीपन
का मतलब न भरा होना है, जहां कुछ भी नहीं है। लेकिन अगर हम
कुछ भी नहीं का भी प्रयोग करें, तो हम कुछ भी नहीं का भी
वस्तु की तरह प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी में शब्द है नथिंग, वह
बना है नो-थिंग से। नथिंग भी कहना हो--नहीं कुछ--तो भी थिंग, वस्तु उसमें लानी पड़ती है। बिना वस्तु के हम सोच ही नहीं सकते; बिना स्थूल के हम सोच ही नहीं सकते।
इसलिए कृष्ण के इस सूक्ष्म शब्द को
आदमी की मजबूरी समझें। इसका मतलब स्थूल का कोई अंश नहीं है, कोई बहुत सूक्ष्म स्थूल नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है, जो स्थूल नहीं ही है। और स्थूल क्या है? जो दिखाई
पड़ता है, वह स्थूल है। जो स्पर्श में आता है, वह स्थूल है। जो सुनाई पड़ता है, वह स्थूल है। असल
में जो इंद्रियों की पकड़ में आता है, वह स्थूल है।
ऐसा भी नहीं है कि आप कल बड़ी दूरबीन
बना लें, खुर्दबीन बना लें और उसकी पकड़ में आ जाए तो वह
सूक्ष्म हो जाएगा। नहीं, जो भी पकड़ में आ जाए, वह स्थूल है। क्योंकि दूरबीन कुछ नहीं करती, सिर्फ
आपकी आंख की इंद्रिय की शक्ति को बड़ा करती है। आपकी आंख ही जैसे और बड़ी आंख हो
जाती है। बड़े से बड़े यंत्र भी हम विकसित कर लें, तब भी जो
पकड़ में आएगा, वह स्थूल ही होगा। क्योंकि सब यंत्र हमारी
इंद्रियों के एक्सटेंशन हैं; वे हमारी इंद्रियों के लिए और
जोड़े गए हिस्से हैं।
एक आदमी आंख से चश्मा लगाकर देख रहा
है। तो जो उसे आंख से नहीं दिखाई पड़ता था, वह अब दिखाई पड़ रहा
है। लेकिन वह कोई सूक्ष्म चीज नहीं देख रहा है। वैज्ञानिक बड़ी दूर की चीजें देख
रहे हैं; बड़े दूर का, लेकिन वह भी
स्थूल है। जो भी दिखाई पड़ेगा, जो भी सुनाई पड़ेगा, जो भी स्पर्श में आ जाएगा, इंद्रियों की सीमा के
भीतर जो भी आ जाएगा, वह स्थूल है। सूक्ष्म का मतलब है,
जो मनुष्य की इंद्रियों की सीमा में नहीं आता है, नहीं आ सकता है, नहीं लाया जा सकता है। असल में
विचार भी जिसे नहीं पकड़ सकता, वही सूक्ष्म है।
अब वैज्ञानिक कहते हैं...कल तक वह
परमाणु सूक्ष्मतम था। अब परमाणु भी टूट गया, अब इलेक्ट्रान है,
न्यूट्रान है, प्रोटान है। अब वैज्ञानिक कहते
हैं कि वे सर्वाधिक सूक्ष्म हैं। क्योंकि अब वे दिखाई पड़ने के बाहर ही हो गए। अब
अनुमान का ही मामला है। लेकिन जो अनुमान में भी आता है, वह
भी सूक्ष्म नहीं है। क्योंकि अनुमान भी मनुष्य के विचार का हिस्सा है।
इसलिए वैज्ञानिक जिसे इलेक्ट्रान कह
रहे हैं, वह भी कृष्ण का सूक्ष्म नहीं है। इलेक्ट्रान के भी
पार, ठीक होगा कहना, आलवेज दि बियांड,
जहां तक आप पहुंच जाएंगे, उसके जो पार। वहां
भी पहुंच जाएंगे, तो उसके जो पार, दि
ट्रांसेंडेंटल; वह जो सदा अतिक्रमण कर जाता है, वही सूक्ष्म है। पार होना ही जिसका गुण है। आप जहां तक पकड़ पाते हैं,
जो उसके पार सदा शेष रह जाता है; सदा ही शेष
रह जाता है और रह जाएगा।
ठीक से समझ लेना उचित होगा। हमारे पास
दो शब्द हैं-- अज्ञात, अननोन; अज्ञेय, अननोएबल। साधारणतः जब हम सूक्ष्म को समझने जाते हैं, तो ऐसा लगता है, जो अज्ञात है, अननोन है। नहीं, कृष्ण उसे सूक्ष्म नहीं कह रहे हैं।
क्योंकि जो अननोन है, वह नोन बन सकता है; जो अज्ञात है, वह कल ज्ञात हो जाएगा। वह सूक्ष्म
नहीं है। जिसके ज्ञात होने की अनंत में भी कभी संभावना है, वह
सूक्ष्म नहीं है।
स्थूल ही ज्ञात हो सकता है। आज न हो, कल हो जाए। कल न हो, कभी हो जाए। लेकिन जो भी ज्ञात
हो सकता है, वह स्थूल है। जो ज्ञात हो ही नहीं सकता, जो सदा ही ज्ञान के बाहर छूट जाता है, जो सदा ही
जानने की पकड़ के बाहर रह जाता है, अननोएबल, अज्ञेय है। नहीं, जाना ही नहीं जा सकता जो, वही सूक्ष्म है। इसलिए सूक्ष्म का मतलब ऐसा नहीं है कि हमारे पास अच्छे
उपकरण होंगे तो हम उसे जान लेंगे।
लोग पूछते हैं कि क्या विज्ञान कभी
परमात्मा को जान पाएगा? जिसे भी विज्ञान जान लेगा, वह
परमात्मा नहीं होगा। क्योंकि परमात्मा से अर्थ ही है कि जो जानने की पकड़ में नहीं
आता। किसी दिन विज्ञान की प्रयोगशाला अगर परमात्मा को पकड़ लेगी, तो वह पदार्थ हो जाएगा। असल में जहां तक परमात्मा पकड़ में आता है, उसी का नाम पदार्थ है। और जहां परमात्मा पकड़ में नहीं आता, वहीं परमात्मा है।
सूक्ष्म का कृष्ण का अर्थ ठीक से खयाल
में ले लेना जरूरी है। क्योंकि जो सूक्ष्म है, वही सत है। जो पकड़
में आता है, वह असत होगा। वह आज होगा, कल
नहीं होगा। जो पकड़ में नहीं आता, वही सत है।
एक कमरे में हम जाएं, वहां फूल रखा है। फूल सुबह ठीक है, सांझ मुरझा
जाएगा। उसी फूल के नीचे शंकर जी की पिंडी रखी है, पत्थर रखा
है। वह सुबह भी था, सांझ भी होगा। लेकिन सौ वर्ष, दो सौ वर्ष, तीन सौ वर्ष, हजार
वर्ष--बिखर जाएगा। फूल एक दिन में बिखर गया। पत्थर था, हजारों
वर्ष में बिखरा। इससे अंतर नहीं पड़ता। कमरे में सिर्फ एक चीज है जो नहीं बिखरेगी,
वह कमरे का कमरापन है, रूमीनेस है। वह जो
खालीपन है, वह भर नहीं बिखरेगा। वही सूक्ष्म है, वही सत है। बाकी कमरे में जो भी है, वह सब बिखर
जाएगा।
मैंने एक ताओइस्ट चित्रकार की कहानी
पढ़ी है। मैंने पढ़ा है कि एक ताओ गुरु ने अपने शिष्यों को कहा कि तुम एक चित्र बना
लाओ। उन्होंने पूछा कि कोई थीम, कोई विषय दे दें। तो उसने कहा,
तुम एक चित्र बना लाओ कि गाय घास चर रही है। वे चित्र बनाकर ले आए।
सभी अच्छे-अच्छे चित्र बनाकर ले आए थे। लेकिन एक साधु जो चित्र बनाकर लाया था,
उसमें जरा चौंकने वाली बात थी। क्योंकि वह कोरा कागज ही ले आया था।
गुरु ने पूछा कि क्या बना नहीं पाए? उसने कहा कि नहीं, चित्र बना है, देखें। फिर गुरु ने उसके कागज की तरफ देखा, और
शिष्यों ने भी कागज की तरफ देखा; फिर सबने उसकी तरफ देखा और
पूछा कि गाय कहां है! तो उसने कहा, गाय घास चरकर जा चुकी है।
उन्होंने पूछा कि घास कहां है? तो उसने कहा कि घास गाय चर
गई। तो उन्होंने पूछा, इसमें फिर क्या बचा? तो उसने कहा, जो गाय के पहले भी था और घास के पहले
भी था, और गाय के बाद भी बचता है और घास के बाद भी बचता है,
वही मैं बना लाया हूं। लेकिन वे सब कहने लगे, यह
कोरा कागज है! पर उसने कहा कि यही बचता है--यह कोरापन।
कृष्ण इस कोरेपन को सूक्ष्म कह रहे
हैं। जो सब लहरों के उठ जाने, गिर जाने पर बच जाता है। और जो
सदा बच जाता है, वही सत है।
प्रश्न: भगवान
श्री, नथिंगनेस वर्सेस एवरीथिंगनेस में आप कभी आपके प्रवचन
में भागना और जागना जो प्रयोग करते हैं, तो मैं उससे भागूं
या जागूं, इससे उसको क्या मतलब है? इसमें
क्या एफर्ट का तत्व नहीं आता? और टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में
ईविल का क्या स्थान होता है?
शून्य, नथिंगनेस और सब कुछ,
एवरीथिंगनेस, एक ही चीज को कहने के दो ढंग हैं
दो ओर से--नकार से या विधेय से, निगेटिव से या पाजिटिव से।
जब हम कहते हैं शून्य, तो यह हमारा चुनाव है नकार का। जब हम
कहते हैं पूर्ण, तो यह हमारा चुनाव है विधेय का। लेकिन मजे
की बात है कि सिर्फ शून्य ही पूर्ण होता है और पूर्ण ही शून्य होता है। सिर्फ
शून्य ही पूर्ण होता है, क्योंकि शून्य के अपूर्ण होने का
कोई उपाय नहीं है। आप अधूरा शून्य नहीं खींच सकते। आप शून्य के दो हिस्से नहीं कर
सकते। आप शून्य में से कितना ही निकाल लें, तो भी शून्य में
कुछ कम नहीं होता। आप शून्य में कितना ही जोड़ दें, तो शून्य
में कुछ बढ़ता नहीं।
शून्य का मतलब ही यह है कि उससे
बाहर-भीतर कुछ नहीं निकाला जा सकता। पूर्ण का भी मतलब यही है। पूर्ण का मतलब ही यह
है कि जिसमें जोड़ने को कुछ नहीं बचा। क्योंकि पूर्ण के बाहर कुछ नहीं बच सकता। दि
टोटल, अब उसके बाहर कुछ बचा नहीं, जिसको
जोड़ें। जिसमें से कुछ निकालें तो कोई जगह नहीं बची, क्योंकि
टोटल के बाहर कोई जगह नहीं बच जाएगी, जिसमें निकाल लें।
शून्य से कुछ निकालें, तो पीछे शून्य ही बचता है। शून्य में
कुछ जोड़ें, तो उतना ही शून्य रहता है। पूर्ण से कुछ निकालने
का उपाय नहीं, पूर्ण में कुछ जोड़ने का उपाय नहीं। क्योंकि
पूर्ण में अगर कुछ जोड़ा जा सके, तो इसका मतलब है कि वह
अपूर्ण था पहले, अब उसमें कुछ जोड़ा जा सकता है।
शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो नाम
हैं। हमारे पास दो रास्ते हैं, जहां से हम नाम दे सकते हैं। या
तो हम नकार का उपयोग करें, या विधेय का उपयोग करें। सब कुछ
और कुछ भी नहीं, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। यह हमारा
चुनाव है कि हम कैसे इसे कहें। अगर यह खयाल में आ जाए, तो इस
जगत में उठे बहुत बड़े विवाद की बुनियादी आधारशिला गिर जाती है।
बुद्ध और शंकर के बीच कोई विवाद नहीं
है। सिर्फ नकार और विधेय के शब्दों के प्रयोग का फासला और भिन्नता है। बुद्ध
नकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, नहीं है, शून्य है, निर्वाण है। निर्वाण का मतलब, दीए का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ जाता है; बस,
ऐसे ही सब कुछ नहीं हो जाता है।
शंकर कहते हैं, सब है, ब्रह्म है, मोक्ष है,
ज्ञान है। सब विधेय शब्दों का प्रयोग करते हैं। और बड़े मजे की बात
यह है कि ये दोनों इशारे बिलकुल एक चीज की तरफ हैं। शंकर और बुद्ध से करीब दूसरे
आदमी खोजना मुश्किल है। लेकिन शंकर और बुद्ध के करीब ही इस मुल्क का सबसे बड़ा
विवाद खड़ा हुआ। हां और न के बीच कितना फासला मालूम पड़ता है! इससे ज्यादा उलटे शब्द
नहीं हो सकते। लेकिन पूर्ण हां और पूर्ण न के बीच कोई फासला नहीं है। लेकिन वह
हमें अनुभव हो जाए दो में से किसी एक का भी, तो ही दिखाई पड़
सकता है।
पूछा है कि मैं कहता हूं, भागें मत, जागें--समग्र के प्रति जागें। क्योंकि
भागने का मतलब ही यह है कि हमने समग्र में कुछ चुनाव कर लिया कि इसे छोड़ेंगे,
उसे पकड़ेंगे, तभी भागा जा सकता है। भागने का
मतलब है कि कुछ हम छोड़ेंगे और कुछ हम पकड़ेंगे। अगर पूरे को छोड़ें, तो भागकर कहां जाएंगे? अगर पूरे को स्वीकार करें,
तो भागकर कहां जाएंगे? अगर त्याग पूर्ण हो,
तो भागना नहीं हो सकता। भागेंगे कहां? जहां
भाग रहे हैं, पूर्ण में वह भी त्यागा जा चुका है। मक्का
भागेंगे? मदीना भागेंगे? काशी भागेंगे?
हरिद्वार भागेंगे? अगर त्याग पूर्ण है,
तो भागना असंभव है। अगर भोग भी पूर्ण है, तो
भागना असंभव है। भागने की कोई जरूरत नहीं है।
सब अधूरे का खेल है, सब आधे का खेल है। तो जो हाफ-हार्टेड, जो आधे हृदय
से भोग रहे हैं, उनको पकड़ने का उपाय है। जो आधे हृदय से
त्याग रहे हैं, उनको छोड़ने का उपाय है। लेकिन जो पूरे हृदय
से जी रहे हैं, उनको न भागने को कुछ है, न त्यागने को कुछ है। उनको तो सिर्फ जानने को ही कुछ है--जागने को ही।
प्रश्न भागने का नहीं है, प्रश्न जागने का है। प्रश्न देखने का है, दर्शन का
है। प्रश्न गहरे में झांकने का है। प्रश्न यह नहीं है कि पदार्थ से भाग जाओ,
क्योंकि कहीं भी भागोगे तो पदार्थ है। प्रश्न यह है कि पदार्थ में
गहरे झांको, ताकि परमात्मा दिखाई पड़े; तब
भागने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
आकृतियों से जो भागेगा, वह जाएगा कहां? दूसरी आकृतियों के पास पहुंच जाएगा।
स्थानों से भागेगा, दूसरे स्थानों में पहुंच जाएगा। मकानों
से भागेगा, दूसरे मकानों में पहुंच जाएगा। लोगों से भागेगा,
दूसरे लोगों में पहुंच जाएगा। भागकर जाएंगे कहां? जहां भी भागेंगे वहां संसार है। संसार से नहीं भागा जा सकता। हर जगह
पहुंचकर पता चलेगा, संसार है। फिर वहां से भी भागो, फिर वहां से भी भागो--भागते रहो।
अगर हम चांदत्तारों की रोशनी की गति
भी पा जाएं, तो भी संसार के बाहर न भाग सकेंगे। अभी तक कोई
चांदत्तारा नहीं भाग सका, अभी तक कोई रोशनी की किरण नहीं भाग
सकी संसार के बाहर। अनंत-अनंत यात्रा है रोशनी की किरणों की। लेकिन होगी संसार के
भीतर ही, भाग नहीं सकतीं। असल में जहां तक भाग सकते हैं,
वहां तक तो संसार होगा ही। नहीं तो भागेंगे कैसे? रास्ता कहां पाएंगे?
जाग सकते हैं। ज्ञानी जागता है, अज्ञानी भागता है। हां, अज्ञानी के भागने के दो ढंग
हैं। कभी वह स्त्री की तरफ भागता है, कभी स्त्री की तरफ से
भागता है। कभी धन की तरफ भागता है, कभी धन छोड़ने के लिए
भागता है। कभी मुंह करके भागता है संसार की तरफ, कभी पीठ
करके भागता है। न मुंह करके कभी संसार को उपलब्ध कर पाता है, न पीठ करके कभी संसार को छोड़ पाता है।
जो न पाया जा सकता है और न छोड़ा जा
सकता है, उसका नाम संसार है। सपने न पाए जा सकते हैं, न छोड़े जा सकते हैं। असत न पाया जा सकता है, न छोड़ा
जा सकता है। असत के प्रति केवल जागा जा सकता है, वन कैन बी
ओनली अवेयर। सपने के प्रति सिर्फ जागा जा सकता है। जो आदमी सपना छोड़कर भाग रहा है,
वह काफी गहरे सपने में अभी है। क्योंकि जिसको सपना छोड़कर भागना पड़
रहा है, उसे इतना तो पक्का है कि सपना सपना नहीं है। भागने
योग्य तो मालूम ही हो रहा है। इतना सच तो दिखाई पड़ता ही है।
कृष्ण को समझेंगे तो दिखाई पड़ेगा।
कृष्ण अर्जुन को भागने से ही बचाने की चेष्टा में संलग्न हैं। यह पूरी गीता भागने
वालों के खिलाफ है। यह पूरी गीता इस बात के खिलाफ है कि जो भागने वाले हैं, वे वही पागलपन को उलटी दिशा में कर रहे हैं, जो
पकड़ने वाले करते हैं। लेकिन सिर्फ पागलपन उलटा हो जाए, शीर्षासन
करने लगे, तो इससे पागलपन नहीं रह जाता, ऐसा नहीं है। कोई पागल शीर्षासन करके खड़ा हो जाए, तो
पागलपन मिट जाता है, ऐसा नहीं है।
भोगी त्यागी हो जाते हैं, संसारी संन्यासी हो जाते हैं, उलटे हो जाते हैं,
तो कोई अंतर नहीं पड़ता। हां, दिशा उलटी दिखाई
पड़ने लगती है, आदमी वही होता है। ढंग उलटे हो जाते हैं,
आदमी वही होता है।
कृष्ण गीता में एक बहुत ही अनूठी बात
कह रहे हैं। और वे यह कह रहे हैं कि संसारी और संन्यासी विपरीत नहीं हैं। एक-दूसरे
से उलटे नहीं हैं। संसार से भागकर कोई संन्यासी नहीं होता, संसार में जागकर कोई संन्यासी होता है। और जागना हो, तो यहीं जाग जाओ। कहीं भी भागो, इससे कोई अंतर नहीं
पड़ता। जागने के लिए कोई खास जगह नहीं है, कहीं भी जागा जा
सकता है। सपने मिटाने के लिए खास सपने देखने की जरूरत नहीं है, किसी भी सपने में जागा जा सकता है।
एक आदमी सपना देख रहा है चोर का, एक आदमी सपना देख रहा है साधु का। क्या साधु वाले सपने से जागना आसान है,
बजाय चोर वाले सपने के? दोनों सपने हैं। जागना
एक-सा ही है। कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु होने के सपने से जागने में भी यही करना
पड़ेगा कि जानना पड़ेगा, यह सपना है। और चोर के सपने से भी
जागने के लिए यही करना पड़ेगा कि जानना पड़ेगा कि यह सपना है। सपने को सपने की भांति
जानना ही जागना है। और सपने को सत्य की तरह जो मान लेता है, उसके
समाने दो विकल्प हैं। या तो सपने में डूबे, भोगे; या सपने से भागे और त्यागे।
गीता, भोग और त्याग दोनों
की अतियों को सपने के बीच मानेगी। जागना! और जागने के लिए ही वे कह रहे हैं कि तू
पहचान अर्जुन, क्या सत है, क्या असत
है! यह तू पहचान, तो यह पहचान, यह
रिकग्नीशन ही तेरा जागरण बन जाने वाला है।
प्रश्न: भगवान
श्री, आप यह तो कहेंगे न कि जागना भी भागने का शीर्षासन है?
इतना तो एफर्ट करना पड़ेगा!
नहीं, जागना भागने से जरा
भी संबंधित नहीं है। जागना भागने से संबंधित ही नहीं है। क्योंकि जागने में भागने
का कोई भी तत्व नहीं है, विपरीत तत्व भी नहीं है; दूसरी तरफ भागना भी नहीं है। जागने का मतलब ही है कि जो है, उसे हम देखने को तत्पर होते हैं।
धन है, इसके साथ भागने के दो
काम हो सकते हैं। एक काम हो सकता है कि इसे छाती से लगाकर पकड़कर बैठ जाएं; इसमें से एक पैसा न भाग जाए, इसका ध्यान रखें। दूसरा
हो सकता है कि इससे ऐसे भागें कि लौटकर न देखें।
मुझे कोई कह रहा था कि विनोबा के
सामने पैसा करो, तो दूसरी तरफ मुंह कर लेते हैं। पैसे से इतना डर! तो
पैसे में काफी ताकत मालूम पड़ती है। रामकृष्ण के पास अगर कोई पैसा रख दे, तो ऐसी छलांग लगाकर उचकते हैं कि सांप-बिच्छू आ गया। पैसे में सांप-बिच्छू?
तो सपना टूटा नहीं। सपने ने दूसरी शकल ली। पहले पैसा स्वर्ग मालूम
पड़ता था, अब नर्क मालूम पड़ने लगा। लेकिन पैसा कुछ है--यह
जारी है।
पैसा कुछ भी नहीं है। है तो लहर है--न
भागने योग्य, न पकड़ने योग्य। जागना बहुत और बात है। उसमें पैसे से
आंख बंद करने की जरूरत नहीं है, पैसे को छाती से पकड़ लेने की
जरूरत नहीं है। पैसा वहां है, आप यहां हैं। पैसे ने कभी आपको
नहीं पकड़ा, न पैसा कभी आपसे भागा। आपकी पैसे ने इतनी फिक्र
नहीं की, जितनी फिक्र आप पैसे की कर रहे हैं। पैसा कहीं
ज्यादा ज्ञानी मालूम पड़ता है। आप चले जाओ तो रोता नहीं है, आप
आ जाओ तो प्रसन्न नहीं होता। कहता नहीं, कि आइए, स्वागत है, बड़ा अच्छा हुआ।
जागने का अर्थ यह है, जहां हैं--कहीं न कहीं हैं, किसी न किसी सपने में
हैं; कोई आश्रम के सपने में होगा, कोई
दूकान के सपने में होगा--जहां हैं, किसी न किसी सपने में हैं,
वहां जागें। इस सपने को पहचानें कि यह सत्य है? इस बात की जिज्ञासा, इस बात की खोज कि जो मैं देख
रहा हूं, वह क्या है?
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा
हूं कि आप कहने लगें, यह सपना है। अगर आपको कहना पड़े कि यह
सपना है, तो जागना नहीं होगा, तब एफर्ट
होगा। अगर आपको कोशिश करनी पड़े कि यह सब सपना है, आपको अगर
कोशिश करके अपने को समझाना पड़े कि यह सब सपना है, तब तो समझ
लेना कि अभी आपको सपने का पता नहीं चला। सपने का पता अगर चल जाए, तो यह कहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती कि सब सपना है। सब सपना है, यह तो वही आदमी दोहराता है अपने मन में, जिसे अभी
सपने का कोई भी पता नहीं है।
एक सूफी फकीर को मेरे पास लाए थे। वह
मित्र जो लाए थे, कहने लगे कि उन फकीर को सब जगह परमात्मा ही परमात्मा
दिखाई पड़ता है। मैंने उनसे पूछा कि जगह भी दिखाई पड़ती है? परमात्मा
भी दिखाई पड़ता है? दोनों दिखाई पड़ते हैं? उन्होंने कहा, हां, उन्हें
कण-कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है। तो मैंने कहा, कण भी
दिखाई पड़ता है, कण में परमात्मा भी दिखाई पड़ता है? ऐसा? उन्होंने कहा, आप कैसी
बातें पूछते हैं? मैंने कहा, अगर
परमात्मा ही दिखाई पड़ता है, तो अब कण दिखाई नहीं पड़ना चाहिए।
और कण दिखाई पड़ता है, तो परमात्मा आरोपित होगा, इंपोज्ड होगा। कोशिश की गई होगी।
इसलिए जो आदमी कहता है कि कण-कण में
परमात्मा दिखाई पड़ता है, उसे दो चीजें दिखाई पड़ रही हैं, कण भी दिखाई पड़ रहा है, परमात्मा भी दिखाई पड़ रहा
है। ये दोनों चीजें एक साथ दिखाई नहीं पड़ सकतीं। इनमें से एक ही चीज एक बार दिखाई
पड़ सकती है। अगर परमात्मा दिखाई पड़ता है, तो कण दिखाई नहीं
पड़ता। क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त कण की कोई जगह नहीं रह जाती, जहां उसे देखें। और अगर कण दिखाई पड़ता है, तो
परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक कण दिखाई पड़ रहा है, तब तक परमात्मा दिखाई पड़ना मुश्किल है।
तो मैंने उनसे कहा, कोशिश की होगी, समझाया होगा अपने को, लिखा है किताबों में कि कण-कण में परमात्मा है। नहीं, उन्होंने कहा कि मुझे वर्षों से दिखाई पड़ता है। तो मैंने कहा, और वर्षों के पहले कोशिश की होगी। मैंने कहा, आप
रुकें। मेरे पास रुक जाएं और दो-चार दिन अब देखने की कोशिश न करें।
दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुझसे कहा कि
आपने मुझे भारी नुकसान पहुंचाया। मेरी तीस साल की साधना खराब कर दी। क्योंकि मैंने
रात से कोशिश नहीं की, तो मुझे वृक्ष फिर वृक्ष दिखाई पड़ने लगे। अब मुझे
परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता!
तो मैंने कहा, जिसको तीस साल देखकर भी, दो-चार घंटे देखने की कोशिश
न की जाए और खो जाता हो, तो आप वृक्षों के ऊपर अपना एक सपना
आरोपित कर रहे हैं। उसका परमात्मा से कोई लेना-देना नहीं है। कह रहे हैं कि वृक्ष
में परमात्मा है। समझाए जाएं, तो दिखाई पड़ने लगेगा।
लेकिन यह वह परमात्मा नहीं है, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं। आपको परमात्मा थोपना नहीं है जगत पर, आपको तो जगत के प्रति ही जाग जाना है। जागते से जगत खो जाता है और
परमात्मा शेष रह जाता है।
आपको सपने को समझाना नहीं है अपने को
कि यह झूठ है, यह झूठ है। नहीं, सपने को देख
लेना है ठीक से, क्या है? और जैसे ही
सपने को देख लिया जाता है कि क्या है, तो आप अचानक पाते हैं
कि सपना टूट गया और नहीं है। फिर जो शेष रह जाता है, वही
सत्य है।
प्रयास तो हमें असत्य के लिए करने
पड़ते हैं, सत्य के लिए नहीं करने पड़ते हैं। एफर्ट तो असत्य के
लिए करना पड़ता है, सत्य के लिए नहीं करना पड़ता। क्योंकि जो
सत्य मनुष्य के प्रयास से मिलता होगा, वह सत्य नहीं हो सकता।
जो सत्य मनुष्य के प्रयास के बिना ही मौजूद है, वही सत्य है।
सत्य आपको निर्मित नहीं करना है, वह आपका कंस्ट्रक्शन नहीं है कि आप उसका निर्माण करेंगे। सत्य तो है ही।
कृपा करके असत्य भर निर्माण न करें; जो है, वह दिखाई पड़ जाएगा।
मैं एक वृक्ष की शाखा को अपने हाथ से
खींच लेता हूं। फिर मैं राह चलते आपसे पूछता हूं कि इस वृक्ष की शाखा को मैंने
इसकी जगह से नीचे खींच लिया है, अब मैं इसे इसकी जगह वापस
पहुंचाना चाहता हूं, तो क्या करूं? तो
आप क्या कहेंगे मुझसे कि कुछ करिए! आप कहेंगे, कृपा करके
खींचिए भर मत; छोड़ दीजिए। शाखा अपनी जगह पहुंच जाएगी;
शाखा अपनी जगह थी ही; आपकी कृपा से ही अपनी
जगह से हट गई है।
परमात्मा में पहुंचने के लिए मनुष्य
को किसी एफर्ट और प्रयास की जरूरत नहीं है। परमात्मा को खोने के लिए उसने जो
प्रयास किया है, कृपा करके उतना प्रयास भर वह न करे, अपनी जगह पहुंच जाएगा।
स्वप्न हमारे निर्माण हैं। सत्य हमारा
निर्माण नहीं है।
इसलिए बुद्ध को जब ज्ञान हुआ और लोगों
ने बुद्ध से पूछा कि तुम्हें क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा,
मुझे कुछ मिला नहीं, सिर्फ मैंने कुछ खोया है।
तब तो वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, हम तो सोचते थे कि
आपको कुछ मिला है! बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो था ही,
उसे मैंने जाना है। हां, खोया जरूर कुछ। जो-जो
मैंने बनाया था, वह मुझे सब खो देना पड़ा। अज्ञान मैंने खोया
और ज्ञान मैंने पाया नहीं, क्योंकि ज्ञान था ही। जिस अज्ञान
को मैं जोर से पकड? था, उसकी वजह से
दिखाई नहीं पड़ रहा था। खोया जरूर, पाया कुछ भी नहीं। पाया
वही, जो पाया ही हुआ था, जो सदा से
मिला ही हुआ था।
ठीक से समझें तो सिर्फ जागकर देखने की
जरूरत है। आंख खोलकर, प्रज्ञा को पूरी तरह जगाकर, चेतना
को पूरे होश से अप्रमाद में लाकर देखने भर की जरूरत है कि क्या है! और जैसे ही हम
देखते हैं कि क्या है, उसमें जो नहीं है, वह गिर जाता है; जो है, वह शेष
रह जाता है।
अन्तवन्त इमे
देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य
तस्माद्युध्यस्व भारत।। १८।।
और, इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये शरीर नाशवान
कहे गए हैं। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन,
तू युद्ध कर।
अर्जुन को युद्ध बड़ा सत्य मालूम पड़
रहा है; देह बहुत सत्य मालूम पड़ रही है; मृत्यु बहुत सत्य मालूम पड़ रही है; उसकी अड़चन
स्वाभाविक है। उसकी अड़चन हमारी सबकी अड़चन है। जो हमें सत्य मालूम पड़ता है, वही उसे सत्य मालूम पड़ रहा है। कृष्ण उसे बड़ी दूसरी दुनिया की बातें कह
रहे हैं। वे कह रहे हैं कि यह देह, ये शरीरधारी लोग, यह दिखाई पड़ने वाला सारा जाल--यह स्वप्न है। तू इसकी फिक्र मत कर और लड़।
कृष्ण का लड़ने के लिए यह आह्वान
तथाकथित धार्मिक लोगों को, सो काल्ड रिलीजस लोगों को, सदा
ही कष्ट का कारण रहा है; समझ के बाहर रहा है। क्योंकि एक तरफ
समझाने वाले लोग हैं, जो कहते हैं, चींटी
पर पैर पड़ जाए तो बचाना, अहिंसा है। पानी छानकर पीना। दूसरी
तरफ यह कृष्ण है, जो कह रहा है कि लड़, क्योंकि
यहां न कोई मरता, न कोई मारा जाता। यह सब देह स्वप्न है।
अर्जुन साधारणतः ठीक कहता मालूम पड़ता
है। गांधी ने चाहा होता कि अर्जुन की बात कृष्ण मान लेते, अहिंसावादियों ने चाहा होता कि कृष्ण की बात न चलती, अर्जुन की चल जाती। लेकिन कृष्ण बड़ी अजीब बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं,
जो स्वप्न है, उसके लिए तू दुखी हो रहा है! जो
नहीं है, उसके लिए तू पीड़ित और परेशान हो रहा है! साधारण
नीति के बहुत पार चली गई बात।
इसलिए जब पहली बार गीता के अनुवाद
पश्चिम में पहुंचे, तो पश्चिम के नीतिविदों की छातियां कंप गईं। भरोसा न
हुआ कि कृष्ण और ऐसी बात कहेंगे। जिन्होंने सिर्फ पुरानी बाइबिल के टेन
कमांडमेंट्स पढ़े थे धर्म के नाम पर--जिन्होंने पढ़ा था चोरी मत कर, जिन्होंने पढ़ा था असत मत बोल, जिन्होंने पढ़ा था किसी
को दुख मत पहुंचा--उनके प्राण अगर कंप गए हों...। बड़ा शॉकिंग था कि कृष्ण कहते हैं
कि यह सब स्वप्न है; तू लड़!
तो पश्चिम के नीतिविदों को लगा कि
गीता जैसी किताब नैतिक नहीं है। या तो अनैतिक है या अतिनैतिक है। या तो इम्मारल है
या एमारल है। कम से कम मारल तो नहीं है। यह क्या बात है?
और ऐसा पश्चिम में ही लगा हो, ऐसा नहीं, जैन विचारकों ने कृष्ण को नर्क में डाल
दिया। जैन चिंतन को अनुभव हुआ कि यह आदमी क्या कह रहा है! मारने की खुली छूट! अगर
अर्जुन का वश चलता तो महाभारत शायद न होता। कृष्ण ने ही करवा दिया। तो अहिंसा की
धारा इस मुल्क में भी थी। उसने कृष्ण को नर्क में डालने की जरूरत महसूस की। इस
आदमी को नर्क में डाल ही देना चाहिए।
यह बड़ा मुद्दा है और बड़े विचार का है।
इसमें ध्यान रखना जरूरी है कि नीति धर्म नहीं है, नीति बहुत कामचलाऊ
व्यवस्था है। नीति बिलकुल सामाजिक घटना है। नीति स्वप्न के बीच व्यवस्था है।
स्वप्न में भी रास्तों पर चलना हो तो नियम बनाने पड़ेंगे। स्वप्न में भी जीना हो तो
व्यवस्थापन, डिसिप्लिन, शिष्ट-अनुशासन
बनाना पड़ेगा। नीति धर्म नहीं है, नीति बिलकुल सामाजिक
व्यवस्था है। इसलिए नीति रोज बदल सकती है; समाज बदलेगा और
नीति बदलेगी। कल जो ठीक था, वह आज गलत हो जाएगा। आज जो ठीक
है, वह कल गलत हो जाएगा। नीति भी असत का हिस्सा है।
इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म अनीति
है। जब नीति तक असत का हिस्सा है, तो अनीति तो असत का हिस्सा होगी
ही। धर्म नीति और अनीति को पार करता है। असल में धर्म संसार को पार करता है। तो
इसलिए कृष्ण की बात जिस तल से कही जा रही है, उस तल से बहुत
मुश्किल से समझी जा सकी है।
जैनों ने नर्क में डाल दिया, वह एक उपाय था, उनसे छुटकारा पाने का। गांधी ने पूरी
गीता को मेटाफर मान लिया। मान लिया कि यह हुई नहीं है घटना कभी, क्योंकि कृष्ण कहां युद्ध करवा सकते हैं! यह किसी असली युद्ध की बात नहीं
है, यह तो शुभ-अशुभ के बीच जो युद्ध चलता है, उसकी प्रतीक-कथा है, सिम्बालिक है। यह दूसरी तरकीब
थी--ज्यादा बली। लेकिन मतलब वही छुटकारा पाने का है। मतलब यह कि यह घटना कभी...।
कृष्ण युद्ध कैसे करवा सकते हैं!
कृष्ण कैसे कह सकते हैं कि युद्ध करो! नहीं, कृष्ण तो यह कह ही
नहीं सकते। इसलिए अब एक दूसरा उपाय है--होशियारी से कृष्ण से बच जाने का--और वह यह
है कि कहो कि मेटाफर है, सिंबल है, एक
कहानी है, प्रतीक-कथा है। यह घटना कभी घटी नहीं, ऐसा कोई युद्ध कहीं हुआ नहीं कि जिसमें युद्ध करवाया गया हो। ये सब तो
प्रतीक- पुरुष हैं--यह अर्जुन और यह दुर्योधन और ये सब--ये व्यक्ति नहीं हैं,
ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं हैं। यह तो सिर्फ एक पैरेबल है, एक प्रतीक-कथा है, जिसमें शुभ और अशुभ की लड़ाई हो
रही है। और अशुभ के खिलाफ लड़ने के लिए कृष्ण कह रहे हैं।
अब यह कृष्ण को एकदम विकृत करना है।
कृष्ण अशुभ के खिलाफ लड़ने को नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण को ठीक समझें, तो वे कह रहे हैं कि शुभ और अशुभ एक ही स्वप्न के हिस्से हैं, हिंसा और अहिंसा एक ही स्वप्न के हिस्से हैं। कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि
हिंसा ठीक है, कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि हिंसा और अहिंसा
अच्छे और बुरे आदमी के स्वप्न हैं। स्वप्न ही हैं। और पूरे स्वप्न को स्वप्न की
भांति जो जानता है, वह सत्य को उपलब्ध होता है। नीति का
अतिक्रमण करती है यह बात। अनैतिक नहीं है। अनीति का भी अतिक्रमण करती है यह बात।
इन अर्थों में कृष्ण का संदेश बहुत
कठिन हो जाता है समझना। चुनाव आसान पड़ता है--यह बुरा है, यह ठीक है। लेकिन ठीक और बुरा दोनों ही स्वप्न हैं, यहां
हमारे पैर डगमगा जाते हैं। लेकिन जो यहां पैर को थिर रख सके, वही गीता में आगे प्रवेश कर सकेगा।
इसलिए इस बात को बिलकुल ठीक से समझ
लेना कि कृष्ण न हिंसक हैं, न अहिंसक हैं। क्योंकि हिंसक की मान्यता है कि मैं
दूसरे को मार डालता हूं। और अहिंसक की मान्यता है कि मैं दूसरे को बचा रहा हूं। और
कृष्ण कहते हैं कि जो न मारा जा सकता, वह बचाया भी नहीं जा
सकता है। न तुम बचा सकते हो, न तुम मार सकते हो। जो है,
वह है। और जो नहीं है, वह नहीं है। तुम दोनों
एक-दूसरे से विपरीत स्वप्न देख रहे हो।
एक आदमी किसी की छाती में छुरा भोंक
देता है, तो सोचता है, मिटा डाला इसे। और
दूसरा आदमी उसकी छाती से छुरा निकाल कर मलहम-पट्टी करता है, और
सोचता है, बचा लिया इसे। इन दोनों ने सपने देखे विपरीत--एक
बुरे आदमी का सपना, एक अच्छे आदमी का सपना। और हम चाहेंगे कि
अगर सपना ही देखना है, तो अधिक लोग अच्छे आदमी का सपना
देखें।
लेकिन कृष्ण यह कह रहे हैं कि दोनों
सपने हैं। और एक और तल है देखने का, जहां बचाने वाला और
मारने वाला एक-सी ही भूल कर रहा है। वह भूल यही है कि जो है, उसे या तो मिटाया जा सकता है, या बचाया जा सकता है।
कृष्ण कह रहे हैं, जो नहीं है, वह नहीं
है; जो है, वह है। वे यह नहीं कह रहे
हैं कि बुरे आदमी का सपना देखें, वे यह कह रहे हैं कि दोनों
ही सपने हैं। और अगर देखना ही है, तो पूरे सपने को देखें,
ताकि जाग जाएं। अगर देखना ही है, तो
बुरे-अच्छे आदमी के सपनों में चुनाव न करें, पूरे सपने को ही
देखें और जाग जाएं।
यह जागरण की, अवेयरनेस की जो प्रक्रिया कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, वह अर्जुन की कैसे समझ में आएगी, बड़ी कठिनाई है।
क्योंकि अर्जुन बड़ी नीतिवादी बातें कर रहा है। और वह नैतिक सपना देखने को बड़ा
उत्सुक है। वह अनैतिक सपने से ऊबा हुआ मालूम पड़ता है। अब वह नैतिक सपना देखने को
उत्सुक है। और कृष्ण कहते हैं, सपने में ही चुनाव कर रहा है।
पूरे सपने के प्रति ही जाग जाना है।
एक सूत्र और पढ़ लें, फिर रात हम बात करेंगे।
य एनं वेत्ति
हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न
विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। १९।।
और, जो इस आत्मा को मारने
वाला समझता है, तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते हैं। क्योंकि, यह आत्मा न
मारता है और न मारा जाता है।
जो है, वह न मरता है और न
मारा जाता है। और जो है हमारे भीतर, उसका नाम आत्मा है। और
जो है हमारे बाहर, उसका नाम परमात्मा है। जो मारा जाता है और
जो मार सकता है, या जो अनुभव करता है कि मारा गया--हमारे
भीतर उसका नाम शरीर है, हमारे बाहर उसका नाम जगत है। जो अमृत
है, जो इम्मार्टल है, वही चेतना है। और
जो मर्त्य है, वही जड़ है। साथ ही, जो
मर्त्य है, वही लहर है, असत है;
और जो अमृत है, वही सागर है, सत है।
अर्जुन के मन में यही चिंता, दुविधा और पीड़ा है कि मैं कैसे मारने में संलग्न हो जाऊं! इससे तो बेहतर
है, मैं ही मर जाऊं। ये दोनों बातें एक साथ ही होंगी। जो
दूसरे को सोच सकता है मरने की भाषा में, वह अपने को भी मरने
की भाषा में सोच सकता है। जो सोच सकता है कि मृत्यु संभव है, वह स्वभावतः दुखी हो जाएगा। लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मृत्यु एक मात्र
असंभावना है--दि ओनली इंपासिबिलिटी। मृत्यु हो ही नहीं सकती। मृत्यु की असंभावना
है।
लेकिन जिंदगी जहां हम जीते हैं, वहां तो मृत्यु से ज्यादा निश्चित और कोई संभावना नहीं है। वहां सब चीजें
असंभव हो सकती हैं, मृत्यु भर सुनिश्चित रूप से संभव है। एक
बात तय है, वह है मृत्यु। और सब बातें तय नहीं हैं। और सब
बदलाहट हो सकती है। कोई दुखी होगा, कोई सुखी होगा। कोई
स्वस्थ होगा, कोई बीमार होगा। कोई सफल होगा, कोई असफल होगा। कोई दीन होगा, कोई सम्राट होगा। और
सब होगा, और सब विकल्प खुले हैं, एक
विकल्प बंद है। वह मृत्यु का विकल्प है, वह होगा ही। सम्राट
भी वहां पहुंचेगा, भिखारी भी वहां पहुंचेगा; सफल भी, असफल भी; स्वस्थ भी,
बीमार भी--सब वहां पहुंच जाएंगे। एक बात, जिस
जीवन में हम खड़े हैं, वहां तय है, वह
मृत्यु है।
और कृष्ण बिलकुल उलटी बात कह रहे हैं, वे यह कह रहे हैं कि एक बात भर सुनिश्चित है कि मृत्यु असंभावना है। न कभी
कोई मरा और न कभी कोई मर सकता है। मृत्यु अकेला भ्रम है। शायद इस मृत्यु के आस-पास
ही हमारे जीवन के सारे कोण निर्मित होते हैं। जो देखता है कि मृत्यु सत्य है,
उसके जीवन में शरीर से ज्यादा का अनुभव नहीं है।
यह बड़े मजे की बात है कि आपको मृत्यु
का कोई भी अनुभव नहीं है। आपने दूसरों को मरते देखा है, अपने को मरते कभी नहीं देखा है।
समझें कि एक व्यक्ति को हम विकसित
करें, जिसने मृत्यु न देखी हो, किसी
को मरते न देखा हो। कल्पना कर लें, एक व्यक्ति को हम इस तरह
बड़ा करते हैं, जिसने मृत्यु नहीं देखी। क्या यह आदमी कभी भी
सोच पाएगा कि मैं मर जाऊंगा? क्या इसके मन में कभी भी यह
कल्पना भी उठ सकती है कि मैं मर जाऊंगा?
असंभव है। मृत्यु इनफरेंस है, अनुमान है, दूसरे को मरते देखकर। और मजा यह है कि जब
दूसरा मरता है तो आप मृत्यु नहीं देख रहे, क्योंकि मृत्यु की
घटना आपके लिए सिर्फ इतनी है कि वह कल तक बोलता था, अब नहीं
बोलता; कल तक चलता था, अब नहीं चलता।
आप चलते हुए को, न चलते की अवस्था में गया हुआ देख रहे हैं।
बोलते हुए को, न बोलते की अवस्था में देख रहे हैं। धड़कते
हृदय को, न धड़कते हृदय की अवस्था में देख रहे हैं। लेकिन
क्या इतने से काफी है कि आप कहें, जो भीतर था, वह मर गया? क्या इतना पर्याप्त है? क्या इतना काफी है? मृत्यु की निष्पत्ति लेने को
क्या यह काफी हो गया? यह काफी नहीं है।
दक्षिण में एक योगी थे कुछ वर्षों
पहले, ब्रह्मयोगी। उन्होंने आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में,
और कलकत्ता और रंगून युनिवर्सिटी में--तीन जगह मरने का प्रयोग करके
दिखाया। वह बहुत कीमती प्रयोग था। वह दस मिनट के लिए मर जाते थे।
जब आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में उनका
प्रयोग हुआ तो डाक्टर्स मौजूद थे। और उन्होंने कहा कि इस दस मिनट में आप मेरी
जांच-पड़ताल करके लिख दें सर्टिफिकेट कि यह आदमी मर गया कि जिंदा है। फिर उनकी
श्वास खो गई। फिर उनकी नाड़ी बंद हो गई। फिर हृदय ने धड़कना बंद कर दिया। फिर खून की
चाल सब शांत हो गई। और दस डाक्टरों ने--आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के मेडिकल कालेज
के--सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर गया है। और मरने के सारे सिम्प्टम्स इस आदमी ने
पूरे कर दिए हैं। और दस आदमियों ने दस्तखत किए।
और वे ब्रह्मयोगी दस मिनट के बाद वापस
जिंदा हो गए। श्वास फिर चलने लगी, हृदय फिर धड़कने लगा, खून फिर बहने लगा, नाड़ी फिर वापस लौट आई। और
उन्होंने कहा, फिर सर्टिफिकेट लिखें कि इस आदमी के बाबत क्या
खयाल है! उन डाक्टरों ने कहा, हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए। आप
हम पर कोई अदालत में मुकदमा तो न चलाएंगे? क्योंकि मेडिकल
साइंस जो कह सकती थी, हमने कह दिया। तो ब्रह्मयोगी ने कहा,
मुझे यह भी लिखकर दें कि अब तक जितने लोगों को आपने मरने के
सर्टिफिकेट दिए हैं, वे संदिग्ध हो गए हैं।
असल में जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, वह जीवन का शरीर से सरक जाना है। जैसे कोई दीया अपनी किरणों को सिकोड़ ले
वापस, ऐसे जीवन का फैलाव वापस सिकुड़ जाता है, बीज में वापस लौट जाता है। फिर नई यात्रा पर निकल जाता है। लेकिन बाहर से
इस सिकुड़ने को हम मृत्यु समझ लेते हैं।
बटन दबा दी हमने, बिजली का बल्ब जलता था, किरणें समाप्त हो गईं। बल्ब
से अंधकार झरने लगा। क्या बिजली मर गई? सिर्फ अभिव्यक्ति खो
गई। सिर्फ मैनिफेस्टेशन बंद हो गया। फिर बटन दबाते हैं, फिर
किरणें बिजली की वापस बहने लगीं। क्या बिजली पुनरुज्जीवित हो गई? क्योंकि जो मरी नहीं थी, उसको पुनरुज्जीवित कहने का
कोई अर्थ नहीं है। बिजली पूरे समय वहीं थी, सिर्फ अभिव्यक्ति
खो गई थी।
जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह प्रकट का फिर पुनः अप्रकट हो जाना है। जिसे हम जन्म कहते हैं, वह अप्रकट का पुनः प्रकट हो जाना है।
कृष्ण कहते हैं, न ही शरीर को मारने से आत्मा मरती है, न ही शरीर को
बचाने से आत्मा बचती है। आत्मा न मरती है, न बचती है। असल
में जो मरने और बचने के पार है, वही आत्मा है, वही अस्तित्व है।
शेष सांझ हम बात
करेंगे।
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