विषय-त्याग
नहीं--
रस-विसर्जन
मार्ग है—
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
५६।।
तथा
दुखों की
प्राप्ति में उद्वेगरहित
है मन जिसका
और सुखों की
प्राप्ति में
दूर हो गई है
स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो
गए हैं--राग, भय और क्रोध
जिसके, ऐसा
मुनि
स्थिर-बुद्धि
कहा जाता है।
समाधिस्थ
कौन है? स्थितधी कौन है? कौन
है जिसकी
प्रज्ञा थिर
हुई? कौन
है जो चंचल
चित्त के पार
हुआ? अर्जुन
ने उसके लक्षण
पूछे हैं।
कृष्ण इस सूत्र
में कह रहे
हैं, दुख
आने पर जो
उद्विग्न
नहीं होता...।
दुख
आने पर कौन
उद्विग्न
नहीं होता है? दुख आने पर
सिर्फ वही
उद्विग्न
नहीं होता, जिसने सुख
की कोई स्पृहा
न की हो, जिसने
सुख चाहा न
हो। जिसने सुख
चाहा हो, वह
दुख आने पर
उद्विग्न
होगा ही। जो
चाहा हो और न
मिले, तो
उद्विग्नता
होगी ही। सुख
की चाह जहां
है, वहां
दुख की पीड़ा
भी होगी ही।
जिसे सुख के
फूल चाहिए, उसे दुख के
कांटों के लिए
तैयार होना ही
पड़ता है।
इसलिए
पहली बात कहते
हैं, दुख आने
पर जो
उद्विग्न
नहीं होता। और
दूसरी बात
कहते हैं, सुख
की जिसे
स्पृहा नहीं
है, सुख की
जिसे
आकांक्षा
नहीं है।
ये एक ही
सिक्के
के दो पहलू
हैं। सुख की
आकांक्षा है, तो दुख की
उद्विग्नता
होगी। सुख की
आकांक्षा नहीं
है, तो दुख
असमर्थ है फिर
उद्विग्न
करने में।
दुख को
तो कोई भी
नहीं चाहता है, दुख आता है।
सुख को सभी
चाहते हैं।
इसलिए दुख को
आने का एक ही
रास्ता है, सुख की आड़
में; और तो
कोई रास्ता भी
नहीं है। दुख
को तो कोई बुलाता
नहीं, निमंत्रण
नहीं देता।
दुख को तो कोई
कहता नहीं कि आओ। दुख का
अतिथि द्वार
पर आए, तो
कोई भी द्वार
बंद कर लेता
है। दुख का तो
कोई स्वागत
नहीं करता।
फिर भी दुख
आता तो है। तो
दुख कहां से
आता है?
दुख, सुख की आड़
में आता है; वही है
मार्ग। अगर
बहुत ठीक से समझें, तो
दुख सुख की ही
छाया है। और
भी गहरे में समझें, तो
जो ऊपर से सुख
दिखाई पड़ता है,
वह भीतर से
दुख सिद्ध
होता है। कहें
कि सुख केवल
दिखावा है, दुख स्थिति
है।
जैसे
एक आदमी मछली
मार रहा है
नदी के किनारे
बैठकर, तो कांटे
में आटा लगा
लेता है। आटे
को लटका देता
है पानी में।
कोई मछली
कांटे को पकड़ने
को न आएगी।
कोई मछली
क्यों कांटे
को पकड़ेगी?
लेकिन आटे
को तो कोई भी
मछली पकड़ना
चाहती है।
मछली सदा आटा
ही पकड़ती
है, लेकिन आटे के पकड़े
जाने में मछली
कांटे में पकड़ी
जाती है। आटा
धोखा सिद्ध
होता है, आवरण
सिद्ध होता है;
कांटा भीतर
का सत्य सिद्ध
होता है।
सुख आटे से
ज्यादा नहीं
है। हर सुख के आटे में
दुख का कांटा
है। और सुख भी
तभी तक मालूम
पड़ता है, जब
तक आटा दूर है
और मछली के
मुंह में नहीं
है--तभी तक!
मुंह में आते
ही तो कांटा
मालूम पड़ना शुरू
हो जाता है।
तो सुख
सिर्फ दिखाई
पड़ता है, मिलता
सदा दुख है।
और जिसने सुख
चाहा हो, उसे
दुख मिल जाए, वह उद्विग्न
न हो! तो फिर
उद्विग्न और
कौन होगा? जिसने
सुख मांगा हो
और दुख आ जाए, जिसने जीवन
मांगा हो और
मृत्यु आ जाए,
जिसने
सिंहासन मांगे
हों और सूली आ
जाए--वह
उद्विग्न
नहीं होगा? उद्विग्न
होगा ही।
अपेक्षा के
प्रतिकूल उद्विग्नता
निर्मित होती
है।
और भी
एक बात समझ
लेने जैसी है
कि असल में जो
सुख मांग रहा
है, वह भी
उद्विग्नता
मांग रहा है।
शायद इसका कभी
खयाल न किया
हो। खयाल तो
हम जीवन में
किसी चीज का
नहीं करते। आंख
बंद करके जीते
हैं। अन्यथा
कृष्ण को कहने
की जरूरत न रह
जाए। हमें ही
दिखाई पड़ सकता
है।
सुख भी
एक
उद्विग्नता
है। सुख भी एक
उत्तेजना है।
हां, प्रीतिकर
उत्तेजना है।
है तो आंदोलन
ही, मन थिर
नहीं होता सुख
में भी, कंपता
है। इसलिए कभी
अगर बड़ा सुख
मिल जाए, तो
दुख से भी
बदतर सिद्ध हो
सकता है। कभी
आटा भी बहुत आ
जाए मछली के
मुंह में, तो
कांटे तक नहीं
पहुंचती;
आटा ही मार
डालता है, कांटे
तक पहुंचने की
जरूरत नहीं रह
जाती।
एक
आदमी को लाटरी
मिल जाती है
और हृदय की
गति एकदम से
बंद हो जाती
है। लाख
रुपया! हृदय
चले भी तो
कैसे चले!
इतने जोर से
चल नहीं सकता, जितने जोर
से लाख रुपये
के सुख में
चलना चाहिए।
इतने जोर से
नहीं चल सकता
है, इसलिए
बंद हो जाता
है। बड़ी
उत्तेजना की
जरूरत थी।
हृदय नहीं
चाहिए था, लोहे
का फेफड़ा
चाहिए था, तो
लाख रुपये की
उत्तेजना में
भी धड?कता
रहता। लाख
रुपये अचानक
मिल जाएं, तो
सुख भी भारी
पड़ जाता है।
खयाल
में ले लेना
जरूरी है कि
सुख भी
उत्तेजना है; उसकी भी मात्राएं
हैं। कुछ मात्राओं
को हम सह पाते
हैं। आमतौर से
सुख की मात्रा
किसी को मारती
नहीं, क्योंकि
मात्रा से
ज्यादा सुख
आमतौर से उतरता
नहीं।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
मात्रा से
ज्यादा दुख
आदमी को नहीं
मार पाता, लेकिन
मात्रा से
ज्यादा सुख
मार डालता है।
दुख को सहना
बहुत आसान है,
सुख को सहना
बहुत मुश्किल
है। सुख मिलता
नहीं है, इसलिए
हमें पता नहीं
है। दुख को
सहना बहुत आसान
है, सुख को
सहना बहुत
मुश्किल है।
क्यों? क्योंकि
दुख के बाहर
सुख की सदा
आशा बनी रहती
है। उस उत्तेजना
के बाहर
निकलने की आशा
बनी रहती है।
उसे सहा
जा सकता है।
सुख के
बाहर कोई आशा
नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प हुए, बंद हुए।
मिलता नहीं है,
यह बात
दूसरी है। आप
जो चाहते हैं,
वह तत्काल
मिल जाए, तो
आपके हृदय की
गति वहीं बंद
हो जाएगी।
क्योंकि सुख
में ओपनिंग
नहीं है, दुख
में ओपनिंग
है। दुख में
द्वार है, आगे
सुख की आशा है,
जिससे जी
सकते हैं। सुख
अगर पूरा मिल
जाए, तो
आगे फिर कोई
आशा नहीं है, जीने का उपाय
नहीं रह जाता।
सुख भी एक
गहरी उत्तेजना
है।
मैंने
सुना है, एक
आदमी को लाटरी
मिल गई है।
उसकी पत्नी
बहुत चिंतित
और परेशान है,
घबड़ा गई है।
उस आदमी के
हाथ में कभी
सौ रुपये नहीं
आए, इकट्ठे
पांच लाख
रुपये! पास
में चर्च
है। वह पादरी
के पास गई है
और उसने
प्रार्थना की,
पांच लाख की
लाटरी
मिल गई है, पति
दफ्तर से
लौटते होंगे।
क्लर्क हैं, सौ रुपये से
ज्यादा कभी
देखे नहीं हैं
हाथ में, पांच
लाख! उन्हें
किसी तरह इस
सुख से बचाओ।
कहीं कुछ हानि
न हो जाए!
पादरी
ने कहा, घबड़ाओ मत, एकदम
से सुख पड़े तो
खतरा हो सकता
है, इंस्टालमेंट में पड़े तो
खतरा नहीं हो
सकता। हम आते
हैं; हम
खंड-खंड सुख
देने का
इंतजाम करते
हैं।
पादरी
बुद्धिमान था; आ गया, बैठ
गया। पति घर
लौटा। पादरी
ने सोचा, पांच
लाख इकट्ठा
कहना ठीक नहीं,
पचास हजार
से शुरू करो।
तो उसने पति
को कहा कि सुना
तुमने, पचास
हजार लाटरी
में मिले हैं!
फिर आंखों की
तरफ देखा कि
इतना पचा जाए
तो फिर और
पचास हजार की
बात करूं!
लेकिन उस आदमी
ने कहा, सच!
अगर पचास हजार
मुझे मिले हैं,
यह सच है, तो पच्चीस
हजार चर्च
को दान देता
हूं। पादरी का
हार्ट-फेल
हो गया।
पच्चीस हजार!
पांच पैसे कोई
चर्च को
देता नहीं था।
सुख का
आघात अगर
आकस्मिक हो, तीव्र हो, तो जीवनधारा
तक टूट सकती है।
तार टूट सकते
हैं।
सुख भी
उत्तेजना
है--प्रीतिकर।
अपने आप में
तो सिर्फ
उत्तेजना है।
हमारे मनोभाव
में प्रीतिकर
है, क्योंकि
हमने उसे चाहा
है। इसलिए एक
और बात ध्यान
में रख लेनी
जरूरी है कि
सब सुख कनवर्टिबल
हैं, दुख
बन सकते हैं।
और सब दुख सुख
बन सकते हैं।
कुल सवाल इतना
है कि चाह है।
चाह का फर्क
हो जाना चाहिए।
एक
आदमी पहली दफा
शराब पीता है, तो प्रीतिकर
नहीं होता
स्वाद। स्वाद
तिक्त ही होता
है, अप्रीतिकर
ही होता है।
इसलिए टेस्ट
डेवलप
करना होता है।
शराब पीने
वाले को स्वाद
विकसित करना
पड़ता है।
फिर-फिर पीता
है--मित्रों
की शान में, लोगों की
तारीफ में, कि मैं कोई
कमजोर तो नहीं
हूं--पीता है, अभ्यास हो
जाता है। फिर
वह तिक्त
स्वाद भी प्रीतिकर
लगने लगता है।
सिगरेट
कोई पहली दफा
पीता है, तो
खांसी ही आती
है, तकलीफ
ही होती है।
फिर सिगरेट
के साथ जुड़ी
है अकड़, सिगरेट के साथ जुड़ा
है अहंकार, सिगरेट के साथ शान
के प्रतीक
जुड़े हैं। उस
शान के लिए आदमी
उस दुख को
झेलता है और
अभ्यासी हो
जाता है। फिर
वह सिगरेट
का गंदा
स्वाद--धुएं
में कोई और
अच्छा स्वाद
हो भी नहीं
सकता--प्रीतिकर
लगने लगता है,
सुख हो जाता
है। दुख का भी
अभ्यास सुख
बना सकता है।
और सुख के
अभ्यास से भी
दुख निकल आता
है।
आए हैं
आप मेरे पास, मैंने गले
आपको लगा लिया;
बहुत
प्रीतिकर लगा
है क्षणभर
को। लेकिन मिनिट
होने लगा, अब
आप घबड़ा रहे
हैं। दो मिनिट
होने लगे, अब
आप छूटना
चाहते हैं।
तीन मिनिट
हो गए, अब
आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट
हो गए, अब
आप घबड़ाते
हैं कि कहीं
मैं पागल तो
नहीं हूं!
पांच मिनिट
हो गए, अब
आप पुलिस वाले
को चिल्लाते
हैं!
यह हुआ
क्या? पहले
क्षण में कह
रहे थे, हृदय
से मिलकर बड़ा
आनंद मिला है।
पांच मिनिट
में आनंद खो
गया! अगर मिला
था, तो
पांच मिनिट
में हजार गुना
हो जाना चाहिए
था। जब एक सेकेंड
में इतना मिला,
तो दूसरे
में और ज्यादा,
तीसरे में
और ज्यादा।
नहीं, वह
पहले सेकेंड
में भी मिला
नहीं था, सिर्फ
सोचा गया था।
दूसरे सेकेंड
में समझ बढ़ी, तीसरे में
समझ और
बढ़ी--पाया कि
कुछ भी नहीं
है। जिन हाथों
को हम हाथों
में लेने को
तरसते हैं, थोड़ी देर
में सिवाय
पसीने के उनसे
कुछ भी नहीं
निकलता है।
सब सुख
की उत्तेजनाएं
परिचित होने
पर दुख हो
जाती हैं; सब दुख की उत्तेजनाएं
परिचित होने
पर सुख बन
सकती हैं। सुख
और दुख कनवर्टिबल
हैं, एक-दूसरे
में बदल सकते
हैं। इसलिए
बहुत गहरे में
दोनों एक ही
हैं, दो नहीं
हैं। क्योंकि
बदलाहट
उन्हीं में हो
सकती है, जो
एक ही हों।
सिर्फ हमारे
मनोभाव में
फर्क पड़ता है,
चीज वही है,
उसमें कोई
अंतर नहीं
पड़ता है।
इसलिए
कृष्ण ने दो
सूत्र कहे।
पहला कि दुख
में जो
उद्विग्न न हो, दुख में जो अनुद्विग्नमना
हो; दूसरा--सुख
की जिसे स्पृहा
न हो, जो
सुख की
आकांक्षा और
मांग किए न
बैठा हो। तीसरी
बात--क्रोध, भय जिसमें न
हों।
यहां
एक बात बहुत
ठीक से ध्यान
में ले लें, क्योंकि
उसके ध्यान
में न होने से
सारे मुल्क में
बड़ी नासमझी
है। कृष्ण कह
रहे हैं कि
जिसमें क्रोध
और भय न हों, वह समाधिस्थ
है। वे यह
नहीं कह रहे
हैं कि जो
क्रोध और भय
को छोड़ दे, वह
समाधिस्थ हो
जाता है--वे यह
नहीं कह रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं, जो
समाधिस्थ है,
उसमें
क्रोध और भय
नहीं पाए जाते
हैं। इन दोनों
बातों में
गहरा फर्क है।
क्रोध और भय
जो छोड़ दे, वह
समाधिस्थ हो
जाता है--ऐसा
वे नहीं कह
रहे हैं। जो
समाधिस्थ हो
जाता है, उसका
क्रोध और भय
छूट जाता
है--ऐसा वे कह
रहे हैं।
आप कहेंगे, इसमें क्या
फर्क पड़ता है?
ये दोनों एक
ही बात हैं।
ये
दोनों एक बात
नहीं हैं। ये
बहुत फासले पर
हैं, विपरीत
बातें हैं।
जिस आदमी ने
सोचा कि क्रोध
और भय छोड़ने
से समाधि मिल
जाती है, वह
क्रोध और भय
को छोड़ने में
ही लगा रहेगा,
समाधि को
कभी नहीं पा
सकता। और जिस
आदमी ने सोचा
कि क्रोध और
भय को छोड़ने
से समाधि मिल
जाती है, वह
क्रोध और भय
से लड़ेगा।
और क्रोध से लड़कर आदमी
क्रोध के बाहर
नहीं होता। भय
से लड़कर
आदमी भय के
बाहर नहीं होता।
भय से लड़कर
आदमी और
सूक्ष्म भयों
में उतर जाता
है। क्रोध से लड़कर आदमी
और सूक्ष्म
तलों पर
क्रोधी हो
जाता है।
मैंने
एक कहानी सुनी
है। मैंने
सुना है कि एक आदमी
की ख्याति हो
गई कि उसने
क्रोध पर विजय
पा ली है।
उसका एक मित्र
उसके परीक्षण
के लिए गया।
सुबह थी, सर्दी
थी अभी, लेकिन
सूरज उग
आया था। शायद
साधु चार बजे
रात से उठ आया
होगा। आग
जलाकर आग
तापता था। फिर
आग भी बुझ
गई थी, फिर
राख ही रह गई
थी। अब भी
साधु बैठा था।
मित्र आया, उसने पास
आकर नमस्कार
किया और कहा
कि थोड़ी-बहुत
आग बची या
नहीं? साधु
ने कहा, नहीं;
देखते नहीं,
अंधे हो? कोई आग नहीं
है, राख ही
राख है। वह
आदमी हंसा।
उसने कहा कि
नहीं बाबा जी,
थोड़ी-बहुत
तो बची ही
होगी; राख
के नीचे दबी
होगी। साधु ने
कहा, आदमी
कैसे हो? मैं
कहता हूं, नहीं
है आग। उस
आदमी ने कहा, जरा कुरेदकर
तो देखें, शायद
कहीं कोई
चिनगारी पड़ी
ही हो! साधु का
हाथ अपने
चिमटे पर चला
गया। उसने कहा,
तू आदमी है
कि जानवर? मैं
कहता हूं, नहीं
है कोई आग। उस
आदमी ने कहा, बाबा जी, अब
तो चिनगारी ही
नहीं, लपट
बन गई है।
वह जिस
आग की बात कर
रहा है, वह
क्रोध है। वह
जिस राख की
बात कर रहा है,
वह ऊपर का
दमन है। एक
छोटी-सी चर्चा,
पता नहीं उस
राख में आग थी
या नहीं, लेकिन
साधु में काफी
आग थी, वह
निकल आई।
जरा-सी चोट और
वह निकल आई।
उस आदमी ने
कहा, मैंने
भी यही सुना
था कि राख ही
राख बची है, आग नहीं बची
है। यही देखने
आया था। लेकिन
आग काफी बची
है। राख ऊपर
का ही धोखा है,
भीतर आग है।
क्रोध
से जो लड़ेगा, वह ज्यादा
से ज्यादा
क्रोध को भीतर
दबाने
में समर्थ हो
सकता है। भय
से जो लड़ेगा,
वह ज्यादा
से ज्यादा
निर्भय होने
में समर्थ हो
सकता है, अभय
होने में
नहीं। निर्भय
का इतना ही
मतलब है कि भय
को भीतर दबा
दिया है। भय
आता भी है तो
कोई फिक्र नहीं;
हम डटे
ही रहते हैं।
अभय का मतलब
बहुत और है।
अभय का मतलब
है, भय का
अभाव। निर्भय
का अर्थ, भय
के बावजूद भी डटे रहने
की हिम्मत।
अभय का मतलब, फियरलेसनेस। निर्भय का
मतलब, ब्रेवरी। बड़े से बड़ा
बहादुर आदमी
भी भयभीत होता
है, अभय
नहीं होता।
अभय होने का
मतलब, भय
है ही नहीं; निर्भय होने
का भी उपाय
नहीं है। भय
बचा ही नहीं
है।
जो
आदमी लक्षण
को...लक्षण हैं
ये। ये कृष्ण
लक्षण गिना
रहे हैं; काजेज नहीं, कांसिक्वेंसेज गिना रहे
हैं। ये कारण
नहीं गिना रहे
हैं, लक्षण
गिना रहे हैं
कि अगर क्रोध
न हो, अगर
भय न हो, तो
ऐसा आदमी स्थितधी
है।
लेकिन
हम आमतौर से
उलटा कर लेते
हैं। हम कह सकते
हैं कि एक
आदमी का शरीर
अगर गरम न हो, तो उस आदमी
को बुखार नहीं
है। ठीक, इसमें
कोई अड़चन नहीं
मालूम पड़ती
है। एक आदमी का
शरीर गरम न हो,
तो उसे
बुखार नहीं
है। लेकिन एक
आदमी का शरीर गरम
हो, तो
उसके शरीर को ठंडा
करने से बुखार
नहीं जाता; पानी डालने
से बुखार नहीं
जाता। बुखार
अगर पानी
डालकर मिटाने
की कोशिश की, तो बीमारी
के जाने की
उम्मीद कम, बीमार के
जाने की
उम्मीद
ज्यादा है।
नहीं, शरीर पर
बुखार जब
देखता है
चिकित्सक, टेंपरेचर देखता है, तो यह जानने
के लिए देखता
है कि बीमारी
कितनी है भीतर,
जिससे इतना
उत्ताप बाहर
है। उत्ताप
सिर्फ लक्षण
है। उत्ताप
बीमारी नहीं
है। शरीर कहीं
भीतर गहन
संघर्ष में
पड़ा है, उस
संघर्ष के
कारण उत्तप्त
हो गया है।
शरीर के सेल, शरीर के
कोष्ठ कहीं लड़
रहे हैं भीतर दुश्मनों
की तरह। कहीं
भीतर कोई लड़ाई
जारी है। कोई कीटाणु
भीतर घुस गए
हैं, जो
शरीर के कीटाणुओं
से लड़ रहे
हैं। शरीर के
रक्षक और शरीर
के शत्रुओं
के बीच कहीं
गहरा संघर्ष
है। उस संघर्ष
की वजह से
सारा शरीर
उत्तप्त हो
गया है।
उत्तप्त होना
सिर्फ लक्षणा
है, सिम्पटम है, बीमारी
नहीं है। और
अगर गरम होने
को ही कोई
बीमारी समझ ले,
तो ठंडा
करना इलाज है।
तो पानी
डालें। बुखार
तो नहीं, बीमार
चला जाएगा।
नहीं, इतना ही समझें
कि बुखार है, तो भीतर
बीमारी है। अब
बीमारी को अलग
करें। और
बीमारी अलग
हुई, यह तब
जानें, जब
शरीर पर बुखार
न रह जाए। तो
चिकित्सक
कहता है, जब
शरीर पर गरमी
नहीं है तब
आदमी स्वस्थ
है। लेकिन
शरीर पर गरमी घटाने का
उपाय
स्वास्थ्य की
विधि नहीं है।
कृष्ण
जब कह रहे हैं
कि भय नहीं रह
जाता, क्रोध
नहीं रह जाता,
तो समझना कि
क्रोध और भय टेंपरेचर
हैं। जो बीमार
आदमी के, डिजीज्ड माइंड
के, भीतर
जिसका मन आपस
में लड़ रहा है,
कलह से भरा
है--कलहग्रस्त
मन में क्रोध
का बुखार होता
है। कलहग्रस्त
मन में कमजोरी
आ जाती है।
स्वयं से लड़कर
आदमी टूट जाता
है, अपनी
शक्ति को खोता
है और इसलिए
भयभीत हो जाता
है। क्रोध और
भय, स्वयं
जब आदमी मन
में संघर्ष
में पड़ा होता
है, तब लक्षणाएं
हैं। वे खबर
देती हैं कि
आदमी भीतर
बीमार है, चित्त
रुग्ण है। बस,
इतनी ही
खबर। और जब
क्रोध और भय
नहीं होते, तब खबर
मिलती है कि
भीतर चित्त
स्वस्थ है।
चित्त का
स्वास्थ्य
समाधि है, अंतर-स्वास्थ्य
समाधि है।
इस भेद
को इसलिए आपसे
कहना चाहा कि
आप क्रोध और
भय से मत लड़ने
लग जाना।
क्रोध और भय
को देखना, जानना, पहचानना।
उनकी पहचान से
पता चलेगा कि
भीतर समाधि
नहीं है। फिर
समाधि लाने के
उपाय अलग ही हैं।
समाधि लाने के
उपाय करना।
समाधि आ जाएगी,
तो क्रोध और
भय चले
जाएंगे। टेंपरेचर
कहेगा कि
नहीं, थर्मामीटर
बताएगा
कि नहीं। जब
क्रोध और भय
मालूम न पड़ें,
तब समझना कि
समाधि फलित
हुई है।
लेकिन
हम इससे उलटा
कर लेते हैं, क्रोध और भय
को दबा लेते
हैं। दबाने
से एक खतरा
है। वह खतरा
यह है कि
समाधि तो भीतर
फलित नहीं
होती, दबे हुए क्रोध
और भय के कारण
हमें पता भी
नहीं चलता कि
भीतर समाधि
नहीं है। हम लक्षणों
में धोखा दे
लेते हैं।
मैंने गुरजिएफ
का नाम बीच
में लिया था।
और मैंने कहा
कि गुरजिएफ
के कोई पास
आता, तो वह
शराब पिलाता।
वह न केवल
शराब पिलाता,
बल्कि जब
कोई आदमी
साधना के लिए
उसके पास आता,
तो वह
अजीब-अजीब तरह
के टेंपटेशन
पैदा करता। वह
अजीब सिचुएशंस,
स्थितियां पैदा करता।
वह एक आदमी को
इस हालत में
ला देता कि
उसको पता ही न
चले कि उसको
क्रोध दिलाया
जा रहा है, उसका
पूरा क्रोध जगवा
देता। वह ऐसी
हालत पैदा कर
देता कि वह
आदमी बिलकुल
पागल होकर
क्रुद्ध हो
जाए। और जब वह
पूरे क्रोध
में आ जाता, तब वह उस
आदमी को कहता
कि जरा जागकर
देख कि कितना
क्रोध है तेरे
भीतर! जब तू
आया था तब
इतना क्रोध
नहीं था।
लेकिन तू यह
मत समझना कि
यह क्रोध अभी
आ गया है। यह
था तब भी, लेकिन
भीतर दबा था, अब प्रकट
हुआ है। इसे
पहचान ले, क्योंकि
यही लक्षण है।
हमें
पता ही नहीं
चलता कि हमारे
भीतर कितना
दबा है। आमतौर
से हम समझते
हैं कि
कभी-कभी कोई
हमें क्रोधित
करवा देता है।
यह बड़ी झूठी
समझ है। कोई
दुनिया में
किसी को
क्रोधित नहीं
करवा सकता, जब तक कि
भीतर क्रोध
मौजूद न हो।
दूसरे लोग तो केवल
निमित्त बन
सकते हैं, खूंटियां बन सकते हैं;
कोट आपका ही
टंगता है,
कोट खूंटी
का नहीं होता।
आपके पास कोट
होता है, तो
आप टांग देते
हैं। आप यह
नहीं कह सकते
कि इस खूंटी
ने कोट टंगवा
लिया। कोट तो
था ही--चाहे
हाथ पर टांगते,
चाहे सांकल
पर टांगते,
चाहे खीली
पर टांगते,
चाहे कंधे
पर टांगते--कहीं
न कहीं टांगते।
कोट तो था ही
आपके पास; खूंटी
ने सिर्फ
रास्ता दिया,
आपका कोट
टांग लिया।
खूंटी
जिम्मेवार
नहीं है, जिम्मेवार
आप ही हैं।
खूंटी सिर्फ
निमित्त है।
एक
आदमी मुझे
गाली देता है।
आग भड़क उठती है, क्रोध आ
जाता है। तो
मैं कहता हूं,
इस आदमी ने
क्रोध पैदा
करवा दिया। यह
आदमी क्रोध
पैदा करवा सकता
है? तो मैं
आदमी हूं कि
मशीन हूं, कि
इसने बटन दबाई
और क्रोध पैदा
हो गया।
नहीं, क्रोध मेरे
भीतर उबल
रहा है; यह
आदमी सिर्फ
निमित्त है।
और ऐसा मत
कहिए कि यह
आदमी मुझको
खोज रहा है।
असलियत तो यह
है कि मैं इस
आदमी को खोज
रहा हूं। अगर
यह न मिले, तो
मैं मुसीबत में
पड़ जाऊंगा। यह
मिल जाता है, तो मैं
हल्का हो जाता
हूं, अनबर्डन्ड हो जाता हूं,
बोझ उतर
जाता है।
जैसे
एक कुएं में
हम बालटी
डालते हैं।
फिर बालटी में
पानी भरकर आ
जाता है।
लेकिन कुएं
में पानी तो
होना चाहिए न!
बालटी खाली
कुएं से पानी नहीं
ला सकती, सूखे कुएं से पानी
नहीं ला सकती।
खड़खड़ाकर
लौट आएगी। कह
देगी, नहीं
है। दूसरे
आदमी की गाली
ज्यादा से
ज्यादा बालटी
बन सकती है
मेरे भीतर।
लेकिन क्रोध
वहां होना
चाहिए, तब
उस बालटी में
भरकर बाहर आ
जाएगा।
सब भरा
है भीतर।
दबा-दबाकर
बैठे हैं।
बहुत कागजी
दबाव है, बड़ा
दबाव नहीं है।
जरा खरोंच दो,
अभी उभर
पड़ेगा।
लेकिन उसे
देखना जरूरी
है।
तो
कृष्ण की इस
बात से यह मत
समझ लेना कि
क्रोध को दबा
लिया, भय को
दबा लिया, तो
निश्चिंत हो
गए, समाधिस्थ
हो गए, स्थितधी हो गए! इतना
सस्ता मामला
नहीं है। दबाने
की बजाय क्रोध
को उभारकर
ही देखना। और
जब कोई गाली
दे, तो
अपने भीतर
देखना, कितना
उभरता है! और
जब कोई गाली
दे, तो उसे
धन्यवाद देना
कि तेरी बड़ी
कृपा! तू अगर बालटी
न लाता, तो
अपने कुएं की
खबर ही न
मिलती। ऐसा
कभी-कभी बालटी
ले आना।
कबीर
ने कहा है, निंदक नियरे
राखिए, आंगन कुटी छवाय। साधुओं
से कबीर ने
कहा है कि साधुओ!
अपने निंदक को
आंगन-कुटी छवाकर
अपने पड़ोस में
ही बसा लो, कि
जैसे ही तुम
बाहर निकलो,
वह बालटी
डाल दे और
तुम्हारे
भीतर जो पड़ा
है, वह
तुम्हें
दिखाई पड़ जाए।
क्योंकि उसे
तुम देख लो, उसे तुम
पहचान लो, तो
तुम्हें अपनी
असली स्थिति
का बोध हो। और
जिसे अपनी
असली स्थिति
का बोध नहीं
है, वह
अपनी परम
स्थिति को कभी
प्राप्त नहीं
हो सकता है।
जो अपनी
वास्तविक, यथार्थ
स्थिति को
जानता है आज
के क्षण में, वह अपनी परम
स्थिति को, परम स्वभाव
को भी उपलब्ध
करने की
यात्रा पर निकल
सकता है।
क्रोध
और भय इंगित
हैं, सूचक हैं,
सिंबालिक हैं, सिंप्टमैटिक हैं। उनसे डायग्नोसिस
कर लेना। उनसे
अपना निदान कर
लेना कि ये
हैं, तो
मेरे भीतर
समाधि नहीं
है। लेकिन इनको
दबाकर मत सोच
लेना कि इनको
दबाने से
समाधि हो जाती
है। नहीं, समाधि
आएगी तो ये
नहीं हो
जाएंगे। इनके दबाने से
समाधि फलित
नहीं होगी।
इसलिए
कृष्ण ने बहुत
ठीक सूत्र कहे, दुख
उद्विग्न न
करे, सुख
की आकांक्षा न
हो, क्रोध
उत्तप्त न करे,
भय कंपाए
नहीं, तो
जानना अर्जुन
कि ऐसा
व्यक्ति
समाधिस्थ है।
प्रश्न:
भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ
के गुण-लक्षण
कहते हुए आपने
यह तो विशदता
की कि उसकी सेंसिटिविटी
ब्लंट
नहीं होती। तो
स्थितप्रज्ञ
मनुष्य सुख
में विगतस्पृह
रहेगा और दुख
में अनुद्विग्नमन
रहेगा। तो
इसमें एक बाधा
पड़ जाती है।
अगर वह सुख को
सुख की भांति
और कष्ट को
कष्ट की भांति
न ले, तो
उसकी संवेदना
को ह्यूमन,
मानवीय
कैसे कहें? स्थितप्रज्ञ
होना क्या सुपर
ह्यूमन फिनामिनन
है?
जिसकी
प्रज्ञा जागी, थिर हुई, अकंप
हुई, क्या
उसे कष्ट का
पता नहीं
चलेगा?
अब
यहां एक नया
शब्द बीच में
आया है, जो
अभी चर्चा में
नहीं था। सुख
था, दुख था,
कष्ट नहीं
था। इनके
फासले को
समझना जरूरी
होगा।
कष्ट
तथ्य है, दुख
व्याख्या है।
पैर में कांटा
चुभता है, तो
चुभन तथ्य है,
फैक्ट है, स्थितप्रज्ञ
को भी होगी।
स्थितप्रज्ञ
मर नहीं गया
है कि पैर में
कांटा चुभे
तो पता नहीं
चले। पता
चलेगा। शायद
आपसे ज्यादा
पता चलेगा।
क्योंकि उसकी
प्रज्ञा
ज्यादा शांत
है, ज्यादा
संवेदनशील
है। उसकी
अनुभूति की
क्षमता आपसे
गहरी और घनी
है। उसका बोध,
उसकी सेंसिटिविटी
आपसे प्रगाढ़
है, अनंत
गुना प्रगाढ़
है। शायद आपको
जो कांटा चुभा
है, इस तरह
कभी पता ही
नहीं चला होगा,
जैसा उसको
पता चलेगा।
क्योंकि पता
चलना ध्यान की
क्षमता पर
निर्भर होता
है।
एक
युवक खेल रहा
है हाकी
मैदान में।
पैर पर चोट लग
गई है हाकी
की। खून बह
रहा है अंगूठे
से। नाखून टूट
गया है। उसे
कुछ पता नहीं
है। सारे
देखने वाले
देख रहे हैं
कि पैर से खून
टपक रहा है।
वह दौड़ रहा है, और खून की बिंदुओं
की कतार बन
जाती है। फिर
खेल खत्म हुआ
और वह पैर पकड़कर
बैठ गया है।
और वह कह रहा
है कि कब यह
चोट लग गई? मुझे
कुछ पता नहीं
है! क्या हुआ? चोट लगी और
पता नहीं चला!
असल
में जब चोट
लगी, तब उसकी अटेंशन
कहीं और थी, ध्यान कहीं
और था। और
ध्यान के बिना
पता नहीं चल
सकता। अंगूठे
तक पहुंचने के
लिए ध्यान उसके
पास था ही
नहीं। ध्यान एंगेज्ड
था, आकुपाइड था, पूरा
का पूरा
संलग्न था खेल
में। अभी
ध्यान के पास
सुविधा न थी
कि अंगूठे तक
जाए। तो
अंगूठा पड़ा
रहा, चिल्लाता
रहा कि चोट
लगी है, चोट
लगी है। लेकिन
कहीं कोई
सुनवाई न थी।
सुनने वाला
मौजूद नहीं
था। सुनने
वाला उस
यात्रा पर
जाने को राजी
नहीं था, जहां
अंगूठा है।
सुनने वाला
अभी कहीं और
था, व्यस्त
था। फिर खेल
बंद हुआ; व्यस्तता
समाप्त हुई।
सुनने वाला, ध्यान, अटेंशन
वापस आया। अब
फुर्सत थी। वह
पैर की तरफ भी
गया। वहां पता
चला कि खून बह
रहा है, चोट
लग गई है, दर्द
है।
तो
स्थितप्रज्ञ
की प्रज्ञा तो
पूरे समय अव्यस्त
है, अनआकुपाइड है। जिस
व्यक्ति का
चित्त बिलकुल
शांत है, उसकी
चेतना हमेशा
अव्यस्त है।
उसकी चेतना कहीं
भी उलझी
नहीं है, सदा
अपने में है।
तो उसके पैर
में अगर कांटा
गड़ेगा, तो अनंत
गुना अनुभव
उसे होगा, जितना
हमें होता है।
कष्ट तथ्य है,
वह जानेगा
कि पैर में
कष्ट है।
लेकिन पैर में
कष्ट उसका, मुझमें दुख है, ऐसी
व्याख्या
नहीं बनेगा।
पैर का कष्ट
एक घटना
है--बाहर, दूर,
अलग।
ध्यान
रहे, कष्ट और
हमारे बीच सदा
फासला है, दुख
और हमारे बीच
फासला नहीं
है। जब हम
कष्ट से आइडेंटिफाइड
होते हैं, जब
कष्ट ही मैं
हो जाता हूं, तब कष्ट दुख बनता है। वह
कहेगा, पैर में चोट
है, पैर
में कांटा गड़
रहा है। वह
उपाय करेगा कि
कांटे को निकाले;
पैर के लिए
इंतजाम करे।
लेकिन इससे
उद्विग्न नहीं
है।
अब यह
भी बड़े मजे की
बात है कि अगर
पैर में कष्ट है, तो उद्विग्न
होने से कम
नहीं होगा।
जितना उद्विग्न
आदमी होगा, उतना कम करने
के उपाय कम कर
सकेगा। जितना
अनुद्विग्न आदमी
होगा, उतने
शीघ्र उपाय कर
सकेगा।
मैं एक
गांव में ठहरा
था। मेरे पड़ोस
के मकान में
आग लग गई। एक
बहुत मजेदार
दृश्य देखने
को मिला। तीन
मंजिल मकान
है। पूरे मकान
पर टीन ही टीन छाए
हुए हैं।
दूसरे मंजिल
पर आग लगी। बीड़ी
के पत्ते रखे
हुए हैं। मकान
मालिक इतना
उद्विग्न हो
गया कि वह
तीसरी मंजिल
पर चढ़ गया, जहां उसकी
टंकी है पानी
की। और उसने
टंकी से बालटियां
लेकर पानी
फेंकना शुरू
कर दिया तीसरी
मंजिल से।
सारा मकान टीन
से छाया हुआ
है। टीन
आग की तरह लाल
तप रहे हैं।
वह पानी उन टीनों
पर गिरे और वह
पानी जाकर
नीचे खड़े
लोगों पर गिरे,
जो घर से
बच्चों को
निकाल रहे हैं,
सामान
निकाल रहे
हैं। जिस पर
वह पानी गिर
जाए, वही चीखकर भागे
कि मार डाला!
फिर कोई उसके
पास आने को
तैयार न हुआ।
भीड़
खड़ी है, सारे
लोग नीचे से
चिल्ला रहे
हैं, तुम
यह क्या पागलपन
कर रहे हो!
पानी डालना
बंद करो, नहीं
तो तुम्हारे
बच्चे अंदर मर
जाएंगे। तुम्हारे
घर से एक चीज न निकाली जा सकेगी।
लेकिन वह आदमी
बस इतना ही
चिल्ला रहा है,
बचाओ! आग लग गई! बचाओ!
आग लग गई! और
पानी डालता
चला जा रहा
है।
उस
आदमी ने--आग ने
नहीं--उस पूरे
मकान को जलवा
दिया।
क्योंकि एक
आदमी भी बुझाने
की स्थिति में
भीतर नहीं जा
सका। एक बच्चा
भी मरा, आग
से नहीं, उसके
पानी से। उस
तक पहुंचने का
भी कोई उपाय न रहा
कि कैसे उस तक
कोई चढ़कर
जाए! उसका
पानी इतने जोर
से आता था कि
कौन वहां चढ़कर
जाए! बांसों
से लोगों ने
दूसरे मकानों
पर चढ़कर
उस पर चोट की
कि भाई साहब!
यह क्या कर
रहे हो? वह
बांस को ऐसा
अलग कर दे और
कहे कि बचाओ!
आग लगी है! और
पानी डालता
रहा।
यह
उद्विग्न
चित्त
आत्मघाती हो
जाता है। अनुद्विग्न
चित्त, जो
उचित है, वह
करता है। कष्ट
हो सिर्फ, दुख
न हो, तो
उद्विग्न
नहीं होते आप,
सिर्फ कष्ट
के बोध से भरे
होते हैं। दुख
मानसिक
व्याख्या है,
कष्ट तथ्य
है। ठीक ऐसे
ही अकष्ट
तथ्य है, सुख
मानसिक
व्याख्या है।
स्थितप्रज्ञ
कष्ट और अकष्ट
को भलीभांति
जानता है।
कांटों पर लिटाइए, तो उसे पता
चलता है कि
कांटे हैं; और गद्दी पर बिठाइए, तो उसे पता
चलता है कि
गद्दी है।
लेकिन गद्दी
पर बैठने की वह
आकांक्षा
नहीं बांध
लेता, गद्दी
पर बैठकर
वह पागल नहीं
हो जाता, गद्दी
से वह एक नहीं
हो जाता।
गद्दी सुख
नहीं बनती,
मानसिक
व्याख्या
नहीं बनती,
एक भौतिक
तथ्य होती है।
कांटे भी एक
भौतिक तथ्य
होते हैं।
स्थितधी
अनुभव में, अनुभूति में,
तथ्यों के जानने
में पूरी तरह
संवेदनशील
होता है। लेकिन
व्याख्या जो
हम करते हैं, वह नहीं
करता है।
मृत्यु उसकी
भी आती है। हम
दुखी होते हैं,
वह दुखी
नहीं होता। वह
मृत्यु को
देखता है कि मृत्यु
आती है। बुढ़ापा
उसका भी आता
है। ऐसा नहीं
कि उसे पता नहीं
चलता कि अब बुढ़ापा
आ गया। लेकिन
वह बुढ़ापे
को देखता है
कि जीवन का एक
तथ्य है और
आता है। वह
जवानी को जाते
देखता, बुढ़ापे को आते
देखता। बुढ़ापे
के कष्ट होंगे,
शरीर
जीर्ण-जर्जर
होगा। लेकिन
शरीर होगा, स्थितधी को ऐसा नहीं
लगता कि मैं
हो रहा हूं।
लेकिन जब हम
बूढ़े होते हैं,
तो ऐसा नहीं
लगता कि शरीर
बूढ़ा हो रहा
है, ऐसा
लगता है कि
मैं बूढ़ा हो
रहा हूं।
हमारे
प्रत्येक
तथ्य में
हमारा मैं
तत्काल समाविष्ट
हो जाता है।
जीवन का कोई
तथ्य हमारे मैं
की व्याख्या
के बाहर नहीं
छूटता। हम
प्रत्येक
तथ्य को
तत्काल
व्याख्या, इंटरप्रिटेशन बना लेते
हैं।
स्थितप्रज्ञ
की कोई
व्याख्या नहीं
है। वह अ को अ
कहता है, ब
को ब कहता है।
वह कहीं भी
अपने को जोड़
नहीं लेता है।
और चूंकि जोड़ता
नहीं, इसलिए
सदा बाहर खड़े
होकर हंस सकता
है।
मैंने
सुना है, इपिक्टेटस यूनान में, जिसको कृष्ण
समाधिस्थ
कहें, ऐसा
एक व्यक्ति
हुआ। वह कहता
था, मुझे
मार डालो
तो भी मैं हंसता
रहूंगा, मुझे
काट डालो
तो भी मैं हंसता
रहूंगा।
सम्राट ने उसे
पकड़ बुलाया और
कहा कि छोड़ो
ये बातें। हम
बातें नहीं
मानते, हम
कृत्य मानते
हैं। दो
पहलवान बुलवाए,
जंजीरें बांधकर इपिक्टेटस
को डाल दिया
और कहा कि
इसका एक पैर उखाड़ो। उन
पहलवानों ने
उसका एक पैर उखाड़ने के
लिए पैर मोड़ा।
इपिक्टेटस
ने कहा कि
बिलकुल ठीक, जरा और। अभी
तुम जितना कर
रहे हो, इससे
सिर्फ कष्ट हो
रहा है, पैर
टूटेगा
नहीं। जरा और,
बस जरा और
कि टूट जाएगा!
सम्राट
ने कहा, तू
पागल तो नहीं
है! अपने ही पैर
को तोड़ने की
तरकीब बता रहा
है! इपिक्टेटस
ने कहा कि
मुझे ज्यादा
ठीक से पता चल
रहा है, उन
बेचारों को
क्या पता
चलेगा! दूसरे
का पैर मरोड़
रहे हैं। मैं
इधर भीतर जान
रहा हूं कि
तकलीफ बढ़ती जा
रही है, तकलीफ
बढ़ती जा रही
है, बढ़ती
जा रही है। अब
ठीक वह जगह है,
जहां हड्डी
टूट जाएगी। पर
सम्राट ने कहा,
तेरा पैर हम
तोड़ रहे हैं!
इपिक्टेटस
ने कहा कि अगर
मुझे तोड़ रहे
होते, तो
बात और होती।
मेरे पैर को
ही तोड़ रहे
हैं न? तो
मेरे पैर को
आप नहीं तोड़ेंगे,
तो कल मौत
तोड़ देगी। और
आप तो सिर्फ
पैर ही तोड़ रहे
हैं, फुटकर,
मौत होलसेल
तोड़ देगी, सभी
कुछ टूट
जाएगा। एक पैर
तोड़ रहे हैं, दूसरा तो
बचा है। इपिक्टेटस
से हम भीतर कह
रहे हैं कि देखो
बेटे, एक
ही टूट रहा है,
अभी दूसरा
बचा है। अभी
तुम इसको ही तुड़वा दो
ठीक से।
फिर यह
भी हम अनुभव
कर रहे
हैं--उसने
कहा--कि जितनी
देर लगेगी
टूटने
में, उतनी देर
कष्ट होगा।
तुम्हारा
प्रयोग भी न
हो पाएगा, हमारा
प्रयोग भी न
हो पाएगा। आज
मौका आ गया है।
कहा हमने सदा
है कि कोई तोड़
डाले हमें, तो कुछ न
होगा। आज
देखने का अवसर
तुमने जुटा दिया।
तुम भी देख लोगे,
हम भी देख
लेंगे कि कष्ट
दुख बनता
है या नहीं बनता
है।
कष्ट-अकष्ट अलग
बात है, सुख
और दुख बिलकुल
अलग बात है।
सुख और दुख
मनुष्य की
व्याख्या है।
इसलिए जब आप
पूछ रहे हैं कि
क्या ऐसा आदमी
सुपर ह्यूमन
हो जाएगा?
निश्चित
ही। सुपर ह्यूमन इन
अर्थों में
नहीं कि उसे
कांटे नहीं चुभेंगे।
इन अर्थों में
भी अतिमानवीय
नहीं कि उसे
बीमारी होगी, तो पीड़ा
नहीं होगी। अतिमानवीय
इन अर्थों में
नहीं कि मौत
आएगी, बुढ़ापा आएगा, तो
वह बूढ़ा नहीं
होगा। नहीं, अतिमानवीय इन अर्थों
में कि वह
व्याख्या जो
मनुष्य की करने
की आदत है, नहीं
करेगा। वह
मनुष्य की
व्याख्या
करने की आदत
के बाहर होगा।
इन अर्थों में
वह अतिमानव
है, सुपरमैन है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य
शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति
न द्वेष्टि
तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
५७।।
यदा
संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव
सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
५८।।
और जो
पुरुष
सर्वत्र स्नेहरहित
हुआ उस-उस शुभ
तथा अशुभ वस्तुओं
को प्राप्त
होकर न
प्रसन्न होता
है और न द्वेष
करता है, उसकी
प्रज्ञा
स्थिर है।
और
कछुआ अपने
अंगों को जैसे
समेट लेता है, वैसे ही यह
पुरुष जब सब
ओर से अपनी
इंद्रियों को
इंद्रियों के
विषयों से
समेट लेता है,
तब उसकी
प्रज्ञा
स्थिर होती
है।
हर्ष
में, विषाद
में, अनुकूल
में, प्रतिकूल
में भेद नहीं।
लेकिन यह अभेद
कब फलित होगा?
कृष्ण कहते
हैं, जैसे
कछुआ अपने
अंगों को कभी
भी भीतर सिकोड़
लेता है, जैसे
कछुआ अपने
अंगों को सिकोड़ना
जानता है, ऐसा
ही समाधिस्थ
पुरुष विषयों
से अपनी इंद्रियों
को सिकोड़ना
जानता है।
थोड़ी
नाजुक बात है, थोड़ी
डेलिकेट बात
है।
यहां
इंद्रियों को सिकोड़ना...योग
की दृष्टि में
इंद्रियों के
दो रूप हैं। एक
इंद्रिय का वह
रूप जो हमें
बाहर से दिखाई
पड़ता है, कहें
इंद्रिय का
शरीर। एक
इंद्रिय का वह
रूप जो हमें
दिखाई नहीं
पड़ता है, लेकिन
इंद्रिय का
प्राण है, कहें
इंद्रिय का
प्राण या
आत्मा
इंद्रिय की।
एक
मेरी आंख है। इंस्ट्रूमेंट
है आंख का। इस
आंख के संबंध
में चिकित्सक
आंख का सब कुछ
बता सकता है।
आंख को
काट-पीट करके, सर्जरी करके,
एक-एक
रग-रेशे की
खबर ले आ सकता
है। लेकिन यह
सिर्फ आंख
शरीर है आंख
का। वस्तुतः
यह इंद्रिय
नहीं है।
सिर्फ इंद्रिय
की बाह्य
रूप-आकृति है।
इंद्रिय तो और
है। इस आंख के
पीछे देखने की
जो वासना है, देखने की जो
आकांक्षा है,
वह इंद्रिय
है, वह
प्राण है।
उसका किसी
चिकित्सक को
आंख के काटने-पीटने से
कुछ पता नहीं
चल सकता।
प्रत्येक
इंद्रिय का
शरीर है और
प्रत्येक
इंद्रिय का
प्राण है। आंख
सिर्फ देखने
का काम ही
नहीं करती, देखने की
आकांक्षा, देखने
का रस भी उसके
पीछे छिपा है।
देखने की वासना
भी उसके पीछे हिलोरें
लेती है। वही
वासना असली
इंद्रिय है।
कृष्ण
को समझने के
लिए समस्त
इंद्रियों के
इन दो हिस्सों
को समझ लेना
जरूरी है।
अन्यथा आदमी
आंख फोड़ने
लग जाए। इंद्रियां
सिकोड़ने
का क्या
मतलब--आंख फोड़
लें? इंद्रियां सिकोड़ने
का क्या
मतलब--कान फोड़
लें? इंद्रियां सिकोड़ने
का क्या
मतलब--जीभ काट
डालें? और
आप सोचते हों
कि नहीं, ऐसा
तो कोई भी
नहीं समझता, तो गलत
सोचते हैं।
जमीन
पर अधिक लोगों
ने ऐसा ही
सोचा है। ऐसा
ही सोचा है।
ऐसे साधु हुए
हैं, जिन्होंने आंखें फोड़ी
हैं। ऐसे साधु
हुए हैं, जिन्होंने कान फोड़े
हैं। ऐसे साधु
हुए हैं, जिन्होंने पैर काट
डाले हैं। ऐसे
साधु हुए हैं,
जिन्होंने जननेंद्रियां
काट डाली हैं।
मध्ययुग में योरोप में
एक बहुत बड़ा ईसाइयों
का संप्रदाय
था, जिसने
लाखों लोगों
की जननेंद्रियां
कटवा डालीं।
स्त्रियों के
स्तन कटवा
डाले; पुरुषों
की जननेंद्रियां
कटवा डालीं।
लेकिन
क्या आंख के
फूट जाने से
देखने की
वासना फूट
जाती है? क्या
जननेंद्रिय
के कट जाने से
काम की वासना
कट जाती है? तब तो सभी
बूढ़े कामवासना
के बाहर हो
जाएं!
नहीं, इंद्रिय कट
जाने से सिर्फ
अभिव्यक्ति
का माध्यम कट
जाता है। और
अभिव्यक्त
होने की जो
प्रबल वासना
थी भीतर, वह
और विक्षिप्त
होकर दौड़ने
लगती है।
मार्ग न मिलने
से वह और पागल
हो जाती है, द्वार न
मिलने से और
विक्षिप्त हो
जाती है। हां,
दूसरों को
पता चलना बंद
हो जाता है।
वह वासना प्रेत
बन जाती है, उसके पास
शरीर नहीं रह
जाता।
कृष्ण
जिस इंद्रिय
को सिकोड़ने
की बात कर रहे
हैं, और कछुए
से जो उदाहरण
दे रहे हैं; कछुए के उदाहरण
को बहुत मत
खींच लेना।
गीता पर टीका
लिखने वालों
ने बहुत खींचा
है। आदमी कछुआ
नहीं है। कोई
उदाहरण पूरे
नहीं होते। सब
उदाहरण सिर्फ
सूचक होते
हैं--जस्ट
ए इंडिकेशन--एक
इशारा, जिससे
बात समझ में आ
जाए, बस।
जैसे कछुआ
अपनी
इंद्रियों को सिकोड़
लेता है, ऐसा
ही
स्थितप्रज्ञ,
वे जो भीतर
की रस इंद्रियां
हैं, उन्हें
सिकोड़
लेता है।
लेकिन रस
इंद्रियों का
जो बाह्य-शरीर
है, उसे सिकोड़ने
का कोई मतलब
नहीं है। उसे सिकोड़ने
का मतलब तो
सिर्फ मरना
है। और उसे
काटकर भीतर का
रस नहीं कटता।
हां, भीतर
का रस कट जाए, तो वह
इंद्रिय
शुद्ध इंस्ट्रूमेंट
रह जाती
है--वासना का
नहीं, सिर्फ
व्यवहार का।
आंख तब
देखती है बिना
देखने की
वासना के। तब
जो आंख के
सामने आ जाता
है, वह देखा
जाता है।
लेकिन तब आंख
कुछ आंख के
सामने आ जाए, इसकी
आकांक्षा से
पीड़ित नहीं
होती है। तब
जो भोजन सामने
आ जाता है, वह
कर लिया जाता
है। तब जीभ उस
भोजन को करने
में सहयोग
देती है, लार
छोड़ती
है। लेकिन जो
भोजन सामने
नहीं है, जीभ
फिर उसके लिए
लार नहीं
टपकाती है।
फिर जो कान
में पड़ जाता
है, वह सुन
लिया जाता है।
लेकिन फिर कान
तड़पते
नहीं हैं किसी
को सुनने के
लिए। नहीं, तब इंद्रियां
सिर्फ
व्यवहार के
माध्यम रह
जाती हैं।
ध्यान
रहे, जब इंद्रियां
व्यवहार के
माध्यम रहती
हैं, तब वे
केवल बाहर से सेंस डेटा
इकट्ठा करती
हैं, बस।
जब इंद्रियां
सिर्फ
व्यवहार का
माध्यम होती
हैं, तो
बाहर के जगत
से तथ्यों
की सूचना भीतर
देती हैं। और
जब इंद्रियां
वासना के
माध्यम बनती
हैं, तब वासनाओं
को बाहर ले
जाकर विषयों
से जोड़ने
के उपयोग में
लाई जाती हैं।
ये
दोनों अलग-अलग
फंक्शन
हैं, ये दोनों
अलग-अलग काम
हैं। यह तो
आंख का काम है कि
वह बताए
कि सामने दरख्त
है। यह आंख का
काम है कि वह बताए कि
सामने पत्थर
है। यह आंख का
काम है कि वह
खबर दे कि
सामने क्या
है। लेकिन जब
आंख वासना से
भरती है, तो
बहुत मजेदार
है।
तुलसीदास भागे हैं
पत्नी को
खोजने। उस
वक्त उनकी आंख
फंक्शनल
नहीं है, उस
वक्त सांप को
वे रस्सी समझ
लेते हैं। आंख
अपना फंक्शन
नहीं कर पा
रही है। वासना
इतनी तीव्र है,
रस्सी को ही
देखना चाहती
है। इसलिए
सांप को भी
रस्सी देख
लेती है।
रस्सी ही
चाहती है उस
वक्त, एक
क्षण चैन नहीं
है। सामने के
दरवाजे से
जाएंगे, उचित
नहीं; अभी
पत्नी को आए
देर भी नहीं
हुई, वे
पीछे-पीछे ही
चले आए हैं।
नदी
पार करते हैं, तो एक मुरदे
की लाश को लकड़ी
समझकर सहारा
लेकर नदी पार
कर जाते हैं।
आंख अपना फंक्शनल
काम नहीं कर
पा रही है।
आंख जो करने
के लिए बनी है,
वह नहीं कर
पा रही है कि
लाश है। न, मन
कह रहा है, कहां
लाश! मन को लाश
से कोई
लेना-देना
नहीं है। मन
को पहुंचना है
उस पार। उस
पार भी नहीं
पहुंचना है, वह जो पत्नी
चली गई है, उस
तक पहुंचना
है। अब मन
बिलकुल आंखों
का उपयोग नहीं
कर रहा है।
आंखें बिलकुल
अंधी हो गई
हैं। लाश का
सहारा लेकर, लकड़ी समझकर, पार
हो जाते हैं।
सांप को पकड़कर
छत पर चढ़ जाते
हैं।
अब
यहां अगर हम
ठीक से समझें, तो आंख का जो
व्यवहार है, जिसके लिए
आंख है, वह
नहीं हो रहा
है। बल्कि आंख
के पीछे जो वासना
है, वह
वासना आंख पर
हावी है। आंख
वासना से आब्सेस्ड
है। वासनाग्रस्त
आंख अंधी हो
जाती है। वह
वही देखती है,
जो देखना
चाहती है; वह
नहीं देखती, जो है।
कृष्ण
जब कहते हैं, कछुए की तरह
इंद्रियों को सिकोड़
लेता है स्थितधी,
तो मतलब यह
नहीं है कि
आंखें फोड़
लेता है, कि
आंखें बंद कर
लेता है। मतलब
इतना ही है कि
आंखों से
सिर्फ आंखों
का ही काम
लेता है।
सिर्फ देखता
ही है आंखों
से; वही
देखता है, जो
है। कानों से
वही सुनता है,
जो है।
हाथों से वही
छूता है, जो
है। विषयों पर
वासना को
आरोपित नहीं
करता। विषयों
पर वासना के
सपनों के भवन
नहीं बनाता।
विषयों को आपूरित
नहीं कर देता।
सुना
है मैंने कि मजनू को
उसके गांव के
राजा ने
बुलाया और कहा, तू बिलकुल
पागल है, साधारण-सी
स्त्री है लैला।
शायद
आपको भी खयाल
न हो, क्योंकि मजनू इतना लैला-लैला चिल्लाया
है कि ऐसा
खयाल पैदा हो
गया है कि लैला
कोई बहुत
सुंदर स्त्री
रही होगी। लैला
बहुत साधारण
स्त्री है।
सम्राट
ने बुलाकर कहा
कि तू पागल
है। बहुत साधारण-सी
स्त्री है, उसके पीछे
तू दीवाना है?
उससे अच्छी
स्त्रियां
मैं तुझे बुलाए
देता हूं; कोई
भी चुन
ले। सम्राट ने
नगर की बारह सुंदरतम लड़कियों
को लाकर खड़ा
कर दिया। मजनू
पर उसे दया आ
गई।
मजनू हंसने
लगा। उसने कहा
कि कहां लैला
और कहां ये
स्त्रियां!
आपका दिमाग तो
ठीक है? लैला के चरणों
में भी तो ये
कोई नहीं बैठ
सकतीं! सम्राट
ने कहा, दिमाग
मेरा ठीक है
कि तेरा ठीक
है! मजनू
ने कहा, कुछ
भी हो, दिमाग
से लेना-देना
क्या है!
लेकिन एक बात
आपसे कहे देता
हूं, अब
दोबारा यह बात
मत उठाना।
क्योंकि लैला
के सौंदर्य को
देखने के लिए मजनू की
आंख चाहिए।
मजनू
के पास कौन-सी
आंख है? कोई
और तरह की आंख
है? आंख तो
ऐसी ही है, जैसी
मेरी है, आपकी
है, उस
राजा के पास
थी। आंख तो
जैसी सब की है
वैसी उसकी भी
है। लेकिन आंख
वासनाग्रस्त
है। आंख आंख
का काम नहीं
कर रही है, पीछे
जो आंख की
वासना की
इंद्रिय है, वह हावी है।
आंख वही देख
रही है, जो
वासना दिखाना
चाह रही है।
इस
भीतर की
अंतर-इंद्रिय
को सिकोड़
लेने की बात
है--
अंतर-इंद्रिय
को, दिस इनर इंस्ट्रूमेंट,
यह जो भीतर
है हमारे।
इस
फासले को ठीक
से हमें समझ
लेना चाहिए।
जब हाथ से मैं
जमीन छूता हूं, तब मेरा हाथ
क्या वही काम
करता है! जब
हाथ से मैं
पत्थर छूता
हूं, तब भी
वही करता है!
जब हाथ से मैं
किसी उसको छूता
हूं जिसको मैं
छूना चाहता
हूं, तब
हाथ वही काम
करता है?
नहीं, हाथ के काम
में फर्क पड़
गया है। जब
मैं जमीन को छूता
हूं, तो
सिर्फ छूता
हूं। कोई
वासना नहीं है
वह, सिर्फ
स्पर्श है, एक भौतिक
घटना है, एक
मानसिक आरोपण
नहीं। लेकिन
जब मैं किसी
को प्रेम करता
हूं और उसके
हाथ को छूता
हूं, तब
सिर्फ भौतिक
घटना है?
नहीं, तब एक
मानसिक घटना
भी है। हाथ
सिर्फ छू ही
नहीं रहा है, हाथ कुछ और
भी कर रहा है।
हाथ कोई सपना
भी देख रहा
है। हाथ किसी ड्रीम में
उतर रहा है।
हाथ अपने
स्पर्श करने
के ही अकेले
काम को नहीं
कर रहा है, स्पर्श
के आस-पास
काव्य भी बुन
रहा है, कविता
भी गढ़ रहा
है।
वह
भीतरी, वह
जो भीतरी हाथ
है, जो यह
कर रहा है, इस
भीतरी हाथ के सिकोड़
लेने की बात
कृष्ण कह रहे
हैं--कि स्थितधी
अंतर-इंद्रियों
को ऐसे ही सिकोड़
लेता है, जैसे
कछुआ बहिर-इंद्रियों
को सिकोड़
लेता है।
लेकिन
आदमी को बहिर-इंद्रियां
सिकोड़नी
नहीं हैं। बहिर-इंद्रियां
परमात्मा की
बड़ी से बड़ी
देन हैं। उनके
कारण ही जगत
का विराट हम
तक उतरता है, उनके द्वार
से ही हम
परिचित होते
हैं प्रकाश से।
उनके द्वार से
ही आकाश से, उनके द्वार
से ही फूलों
से, उनके
द्वार से ही
मनुष्य के
सौंदर्य से, उनके द्वार
से ही जगत में
जो भी है, उससे
हम परिचित होते
हैं।
नहीं, इंद्रियां तो द्वार
हैं। लेकिन इन
द्वार से
सिर्फ जो बाहर
है, वह
भीतर जाए, तब
तक ये द्वार
विक्षिप्त
नहीं हैं। और
जब भीतर का मन
इन द्वार से
बाहर जाकर
हमले करने
लगता है, और
चीजों पर
आरोपित होने
लगता है, और
आग्रह
निर्मित करने
लगता है, और
कल्पनाएं
सजाने लगता है,
और सपने
निर्माण करने
लगता है, तब,
तब हम एक
जाल में खो
जाते हैं, जो
जाल बाहर की
इंद्रियों का
नहीं है, अंतर-इंद्रियों
का है।
अंतर-इंद्रियों
को सिकोड़
लेता है स्थितधी।
कैसे सिकोड़
लेता होगा? क्योंकि बहिर-इंद्रियों
को सिकोड़ना
तो बहुत आसान
समझ में आता
है। यह हाथ
फैला है, इसको
सिकोड़
लिया। इसके
लिए कोई
स्थितप्रज्ञ
होने की जरूरत
नहीं है। कछुआ
स्थितप्रज्ञ
नहीं है, नहीं
तो सभी आदमी कछुए हो
जाएं और
स्थितप्रज्ञ
हो जाएं।
लेकिन
बहुत लोगों ने
कछुआ बनने की
कोशिश की है।
कई साधु, संन्यासी,
साधक, त्यागी,
योगी, कछुआ
बनने की कोशिश
में लगे रहे
हैं कि कैसे
इंद्रियों को सिकोड़
लें। कछुआ
बनने से कोई
हल नहीं है।
कछुआ तो सिर्फ
एक प्रतीक था,
और अच्छा
प्रतीक था।
शायद कृष्ण
जिस दुनिया में
थे, इससे
अच्छा प्रतीक
और कोई मिल
नहीं सकता था।
आज भी नहीं
है। आज भी हम
खोजें कोई
दूसरा सब्स्टीटयूट,
तो बहुत
मुश्किल है।
कछुआ बिलकुल
ठीक से बात कह
जाता है--ऐसा
कुछ, भीतर
के जगत में।
लेकिन वह भीतर
के जगत में होगा
कैसे?
बाहर
की इंद्रियां
सिकोड़ना
बहुत आसान है।
आंखें फोड़
लेना कितना
आसान है, लेकिन
देखने का रस
छोड़ना कितना
कठिन है! सच तो यह
है कि आंखें फोड़ लो, तभी
पहली दफा पता
चलता है कि
देखने का रस
कितना है! रात
आंख तो बंद हो
जाती है, लेकिन
सपने तो बंद
नहीं होते। और
दिनभर जो
नहीं देखा, वह भी रात
में दिखाई
पड़ता है। आंख फोड़ लेंगे,
तो क्या
होगा? इतना
ही होगा कि
सपने चौबीस
घंटे चलने लगेंगे।
और क्या होगा?
सपनों
पर बहुत
खोजबीन हुई
है। जब आप रात
सपना देखते
हैं, तो अब तो
बाहर से भी
पता चल जाता
है कि आप सपना
देख रहे हैं
कि नहीं। अब
तो यंत्र बन
गए हैं, जो
आपकी आंखों पर
लगा दिए जाते
हैं रात में, और रातभर
अंकित करते
रहते हैं कि
इस आदमी ने कब
सपना देखा, कब नहीं देखा।
क्योंकि जब आप
सपना देखते
हैं, तब
बंद आंख में
भी आंख तेजी
से चलने लगती
है। बंद आंख
है, देखने
को कुछ नहीं
है वहां, लेकिन
आंख तेजी से
चलने लगती है।
उसके मूवमेंट्स
रैपिड हो
जाते हैं।
इतनी तेजी से
आंख चलने लगती
है, जैसे
सच में वह देख
रही है अब।
तो वह
उसकी आंख की
गति ऊपर से
पकड़ ली जाती
है, वह ग्राफ
बन जाता है कि
आंख कब कितनी
तेजी से चली।
रात में कितनी
बार आपने सपने
देखे, वह
सब ग्राफ
बता देता है।
अब तो
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
समझ में आ रहा
है कि किस तरह
का सपना देखा! ग्राफ से
वह भी पता
चलने लगा है।
क्योंकि जब आप
सेक्सुअल
सपना देखते
हैं, जब आप
कामुक सपना
देखते हैं--और
सौ में से कम
से कम पचास
सपने कामुक
होते हैं सभी
के, साधारणतः
सभी के; जो
असाधारण हैं,
उनके जरा और
ज्यादा परसेंटेज
में होते हैं;
पचास
प्रतिशत
कामुक
सपने--तब तो
आंख ही नहीं, जननेंद्रिय
भी तत्काल
प्रभावित हो
जाती है। उस
पर भी मशीन
लगाई जा सकती
है, वह भी
खबर कर देती
है ग्राफ
पर।
अब कोई
भी नहीं है, आप बिलकुल
अकेले हैं
अपने सपने
में। न कोई
विषय है, न
कोई स्त्री है,
न कोई पुरुष
है, न कोई
भोजन है--कुछ
भी नहीं है।
निपट अकेले
हैं, सब इंद्रियां
बंद हैं। फिर
यह भीतर कौन
गति कर रहा है?
ये अंतर-इंद्रियां
हैं, जो
भीतर गति कर
रही हैं। और इनकी
भीतरी गति के
कारण इनकी
बहिर-इंद्रिय
भी प्रभावित
हो जाती है।
काट डालें पूरे
आदमी को, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ेगा।
पता नहीं
चलेगा बस, सब
भीतर-भीतर
धुआं होकर
घूमने लगेगा।
अक्सर सज्जन आदमियों
के भीतर सब
धुआं हो जाता
है, भीतर
घूमने लगता
है। बुरे आदमी
जो बाहर कर
लेते हैं, अच्छे
आदमी भीतर
करते रहते
हैं। धर्म की
दृष्टि से कोई
भी फर्क नहीं
है।
इन
भीतर की
इंद्रियों को
कैसे सिकोड़ेंगे? एक छोटा-सा
सूत्र, फिर
हम दूसरा
श्लोक लें।
बहुत छोटा-सा
सूत्र है भीतर
की इंद्रियों
को सिकोड़ने
का।
एक दिन
बुद्ध बैठे
हैं ऐसे ही
किसी सांझ; बहुत लोग
उन्हें सुनने
आ गए हैं। एक
आदमी सामने ही
बैठा हुआ पैर
का अंगूठा
हिला रहा है।
बुद्ध ने
बोलते बीच में
उस आदमी से
कहा कि क्यों
भाई, यह
पैर का अंगूठा
क्यों हिलाते
हो? वह
आदमी भी चौंका,
और लोग भी चौंके, कि
कहां बात चलती
थी, कहां
उस आदमी के
पैर का
अंगूठा! बुद्ध
ने कहा, यह
पैर का अंगूठा
क्यों हिल रहा
है? उस
आदमी का
तत्काल
अंगूठा रुक
गया। उस आदमी
ने कहा, आप
भी कैसी
बातें देख
लेते हैं! छोड़िए
भी। बुद्ध ने
कहा, नहीं,
छोडूंगा नहीं। जानना
ही चाहता हूं,
अंगूठा
क्यों हिलता
था? तुम्हारे
इतने सवालों
के जवाब मैंने
दिए, आज
पहली दफे
मैंने सवाल
पूछा है; मुझे
उत्तर दो। उस
आदमी ने कहा, अब आप पूछते
हैं, तो
मुश्किल में
डालते हैं। सच
बात यह है कि
मुझे पता ही
नहीं था कि
पैर का अंगूठा
हिल रहा है; और जैसे ही
पता चला, रुक
गया। तो बुद्ध
ने कहा, जो
अंतर-कंपन हैं,
वे पता चलते
ही रुक जाते
हैं।
अंतर-कंपन जो
हैं, वे
पता चलते ही
रुक जाते हैं।
तो
भीतर की
इंद्रियों को सिकोड़ना
नहीं पड़ता, सिर्फ इसका
पता चलना कि
भीतर इंद्रिय
है और गति कर
रही है, इसका
बोध ही उनका सिकुड़ना
हो जाता है--दि
वेरी अवेयरनेस।
जैसे ही पता
चला कि यह
भीतर काम की
वासना उठी, कुछ करें मत,
सिर्फ
देखें। आंख
बंद कर लें और
देखें, यह
भीतर काम की
वासना उठी। यह
काम की वासना
चली
जननेंद्रिय
के केंद्रों
की तरफ--सिर्फ
देखें। दो सेकेंड
से ज्यादा
नहीं, और
आप अचानक
पाएंगे, सिकुड़
गई। यह क्रोध
उठा, चला
यह बाहर की
इंद्रियों को पकड़ने।
सिर्फ देखें;
आंख बंद कर
लें और देखें;
और आप
पाएंगे, वापस
लौट गया। यह
किसी को देखने
की इच्छा जगी
और आंख तड़पी।
देखें, चली
भीतर की
इंद्रिय बाहर
की इंद्रिय को
पकड़ने।
देखें--सिर्फ
देखें--और आप
पाएंगे कि
वापस लौट गई।
भीतर
की इंद्रियां
इतनी संकोचशील
हैं कि जरा-सी
भी चेतना नहीं
सह पातीं।
उनके लिए
अचेतना जरूरी
माध्यम
है--मूर्च्छा।
इसलिए जो अपने
भीतर की
इंद्रियों के
प्रति जागने
लगता है, उसकी
भीतर की इंद्रियां
सिकुड़ने
लगती हैं, अपने
आप सिकुड़ने
लगती हैं।
बाहर की इंद्रियां
बाहर पड़ी रह
जाती हैं, भीतर
की इंद्रियां
सिकुड़कर
अंदर चली जाती
हैं। ऐसी
स्थिति
व्यक्ति की समाधिस्थ
स्थिति बन
जाती है।
विषया विनिवर्तन्ते
निराहारस्य
देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य
परं दृष्ट्वा
निवर्तते।।
५९।।
यद्यपि
इंद्रियों
द्वारा विषयों
को न ग्रहण
करने वाले देहाभिमानी
तपस्वी पुरुष
के भी विषय तो
निवृत्त हो
जाते हैं, परंतु रस
निवृत्त नहीं
होता। परंतु
इस पुरुष का
रस भी
परमात्मा को
साक्षात करके
निवृत्त हो
जाता है।
देहाभिमानी
तपस्वी के...।
तपस्वी
और देहाभिमानी? असल में देहाभिमान
दो तरह का हो
सकता है--भोगी
का, तपस्वी
का। लेकिन
दोनों की
स्थिति देहाभिमान
की है, बाडी ओरिएंटेशन
की है।
क्योंकि भोगी
भी मानता है
कि जो करूंगा
वह शरीर से, और तपस्वी
भी मानता है
कि जो करूंगा
वह शरीर से।
भोगी भी मानता
है कि शरीर ही
द्वार है सुख
का, त्यागी
भी मानता है कि
शरीर ही द्वार
है सुख का।
सुख की धारणाएं
उनकी अलग हैं।
भोगी शरीर से
ही विषयों तक
पहुंचने की
कोशिश करता है,
त्यागी
शरीर से ही
विषयों से छूटने
की कोशिश करता
है। लेकिन
शरीर ओरिएंटेशन
है, शरीर
ही आधार है
दोनों का। और
दोनों बड़े देहाभिमानी
हैं, बाडी-सेंट्रिक हैं, शरीर-केंद्रित
हैं। दोनों की
दृष्टि
शारीरिक है।
इस
तथ्य को पहले समझें, फिर दूसरा
हिस्सा खयाल
में लाया जा
सकता है। दोनों
की स्थिति
शारीरिक है।
एक आदमी सोचता
है, शरीर
से इंद्रियों
को तृप्त कर
लें। सारा जगत
सोचता है।
मुझसे
कोई पूछता था
कि चार्वाक का
कोई संप्रदाय
क्यों न बना? उसके
शास्त्र
क्यों न बचे? उसके मंदिर
क्यों न
निर्मित हुए?
उसका कोई
पंथ, उसका
कोई संप्रदाय
क्यों नहीं है?
तो
मैंने उस आदमी
को कहा कि
शायद तुम
सोचते हो कि
उसके पास
अनुयायी कम
हैं इसलिए, तो गलत
सोचते हो। असल
में संप्रदाय
सिर्फ माइनर
ग्रुप्स
के बनते
हैं; मेजर ग्रुप का
संप्रदाय
नहीं बनता।
जो अल्पमतीय
होते हैं, उनका
संप्रदाय बनता
है; जो बहुमतीय
होते हैं, वे
बिना
संप्रदाय के
जीते हैं।
बहुमत को संप्रदाय
बनाने की
जरूरत नहीं
होती। बहुमत
को संप्रदाय
बनाने की क्या
जरूरत है? अल्पमत
संप्रदाय
बनाता है।
करोड़ आदमी हैं,
दस आदमी एक
मत के होंगे, तो संप्रदाय
बनाएंगे, बाकी
क्यों
बनाएंगे? चार्वाक
का संप्रदाय
इसीलिए नहीं
बना कि सारी
पृथ्वी
चार्वाक की
है। सब
चार्वाक हैं,
नाम कुछ भी
रखे हों।
इसलिए
चार्वाक शब्द
बड़ा अच्छा है, वह बना है
चारु-वाक से, जो वचन सभी
को प्रिय लगते
हैं। चार्वाक
का मतलब, जो
बातें सभी को
प्रीतिकर
हैं। चार्वाक
का एक दूसरा
नाम है, लोकायत।
लोकायत का
मतलब है, लोक
को मान्य, जो
सबको मान्य
है। बड़ी अजीब
बात है। जो
सबको मान्य है,
ऐसा विचार
लोकायत है। जो
सबको
प्रीतिकर है,
मधुर है, ऐसा विचार
चार्वाक है। नहीं,
कोई मंदिर
नहीं, कोई
संप्रदाय
नहीं बना, क्योंकि
सभी उसके साथ
हैं।
क्या, चार्वाक
कहता क्या है?
वह कहता यह
है कि सब सुख एंद्रिक
हैं। इंद्रिय
के अतिरिक्त
कोई सुख नहीं
है। सुख यानी एंद्रिक
होना। सुख
चाहिए तो
इंद्रिय से ही
मिलेगा।
हां, वह
कहता है, यह
बात सच है कि
दुख भी
इंद्रिय से
मिलते हैं। यह
बिलकुल ठीक ही
है, जहां
से सुख मिलेगा,
वहीं से दुख
भी मिलेगा।
लेकिन वह कहता
है, कोई भी
पागल भूसे के
कारण गेहूं
को नहीं फेंक
देता। कोई भी
पागल कांटों
के कारण फूल
को नहीं छोड़
देता। तो दुख
के कारण सुख को
छोड़ने की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
बुद्धिमान
दुख को कम
करता और सुख
को बढ़ाता चला
जाता है।
लेकिन सब सुख एंद्रिक
हैं।
क्या
इस बात पर
आपको कभी भी
शक हुआ है कि
सब सुख एंद्रिक
हैं? अगर शक
नहीं हुआ, तो
कृष्ण को
समझना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। हम सब
का भी भरोसा
यही है कि सब
सुख एंद्रिक
हैं। हमने कोई
सुख जाना भी
नहीं है, जो
इंद्रिय के
बाहर जाना हो।
स्वाद जाना है,
संगीत जाना
है, दृश्य
देखे हैं, गंध
सूंघी है,
सौंदर्य
देखा है--जो भी,
वह सब
इंद्रियों से
देखा है। वह
सब एंद्रिक
हैं। इंद्रिय
के अतिरिक्त
हमने और कुछ
जाना नहीं है।
हम इंद्रियों
के अनुभव का
ही जोड़ हैं।
इसीलिए
तो हमें आत्मा
का कोई पता
नहीं चलता। क्योंकि
इंद्रिय का
अनुभव ही
जिसकी सारी
संपदा है, वह शरीर के
ऊपर किसी भी
तत्व को नहीं
जान सकता है।
यह तो हमारी
स्थिति है। यह
हमारी देहाभिमानी
भोगी की
स्थिति है।
फिर
अगर कभी कोई देहाभिमानी
भोगी देह को
भोगते-भोगते
ऊब जाता है...।
हर चीज को
भोगते-भोगते
ऊब आ जाती है।
सभी चीजों से
चित्त ऊब जाता
है। अगर
स्वर्ग में भी
बिठा
दिया जाए आपको, तो ऊब
जाएगा। ऐसा मत
सोचना कि
स्वर्ग में
बैठे हुए लोग
जम्हाई नहीं
लेते, लेते
हैं। वहां भी
ऊब जाएंगे।
बर्ट्रेंड रसेल ने तो
कहीं मजाक में
कहा है कि मैं
स्वर्ग से बहुत
डरता हूं।
सबसे बड़ा डर
यह है कि इटरनल
है स्वर्ग; फिर वहां से
लौटना नहीं
है। उसने कहा,
इससे बहुत
डर लगता है।
दूसरा, उसने
कहा कि वहां
सुख ही सुख है,
सुख ही सुख
है, तो फिर
ऊब नहीं
जाएंगे सुख से?
मिठास भी उबा देती है;
बीच-बीच में
नमकीन की
जरूरत पड़ जाती
है। सुख भी उबा
देता है; बीच-बीच
में दुख की भी
जरूरत पड़ जाती
है। सब एकरसता
मोनोटोनस
हो जाती है और उबा देती
है। कितना ही
सुंदर संगीत
हो, बजता
रहे, बजता
रहे, तो
फिर सिर्फ
नींद ही ला
सकता है, और
कुछ नहीं कर
सकता।
तो देहाभिमानी
भोगी ऊब जाता
है, इंद्रियों
के सुखों से
ऊब जाता है, तो वह
इंद्रियों की
शत्रुता करने
लगता है। वह देहाभिमानी
भोगी की जगह देहाभिमानी
त्यागी बन
जाता है। फिर
जिस-जिस
इंद्रिय से उसने
सुख पाया है, उस-उस
इंद्रिय को
सताता है। और
कहता है, अब
इससे विपरीत
चलकर सुख पा
लेंगे। लेकिन
मानता है
इंद्रिय को ही
आधार अब भी।
तो
कृष्ण कहते
हैं, ऐसा
व्यक्ति
ज्यादा से
ज्यादा
विषयों को छोड़
सकता है, लेकिन
रस से मुक्त
नहीं होता। अब
आंख फोड़ डालेंगे, तो दिखाई पड़ने
वाले आब्जेक्ट
से तो मुक्त
हो ही जाएंगे।
जब दिखाई ही
नहीं पड़ेगा,
तो दिखाई पड़ने वाला
विषय तो खो ही
जाएगा। जब कान
ही न होंगे, तो वीणा तो
खो ही जाएगी, सुनाई पड़ने
वाला विषय तो
खो ही जाएगा।
लेकिन क्या रस
खो जाएगा?
रस, विषय से अलग
बात है। विषय
बाहर है, रस
भीतर है, इंद्रियां बीच में
हैं। इंद्रियां
सेतु हैं; ब्रिजेज हैं; रस
और विषय के
बीच में बना
हुआ सेतु हैं।
रस को ले जाती
हैं विषय तक, विषय को
लाती हैं रस
तक। इंद्रियां
बीच के द्वार,
मार्ग, पैसेज
हैं। इंद्रिय
तोड़ दें; तो
ठीक है, विषय
से रस का
संबंध टूट
जाएगा। लेकिन
रस तो नहीं
टूट जाएगा। रस
भीतर निर्मित
रह जाएगा--अपनी
जगह तड़पता,
अपनी जगह
कूदता, विषयों
की मांग करता,
लेकिन
विषयों तक
पहुंचने में
असमर्थ, इंपोटेंट;
क्लीव हो
जाएगा रस।
पुंसत्व खो
देगा, द्वार
खो देगा, मार्ग
खो देगा, विक्षिप्त
हो जाएगा, लेकिन
भीतर घूमने लगेगा। अब
वह रस भीतर
कल्पना के
विषय निर्मित
करेगा।
क्योंकि जब
वास्तविक
विषय नहीं
मिलते, जब एक्चुअल आब्जेक्ट्स
नहीं मिलते, तब चित्त
कल्पित विषय
निर्मित करना
शुरू कर देता
है।
दिनभर
उपवास करके
देखें, तो
रात सपने में
पता चल जाता
है, कि दिनभर
किया उपवास तो
रातभर
सपने में भोजन
करना पड़ता है।
रस भीतर विषय
निर्मित करने
लगता है। वह
कहता है, कोई
फिक्र नहीं।
बाहर नहीं
मिला, भीतर
कर लेते हैं।
असल
में, रस इतना
प्रबल है कि
अगर विषय न
हों, तो वह
काल्पनिक
विषयों को
निर्मित कर
लेता है। सेतु
टूट जाए, तो
भीतर ही विषय
बना लेता है; आटो इरोटिक हो
जाता है।
दूसरे की
जरूरत ही नहीं
रह जाती, वह
आत्ममैथुन
में रत हो
जाता है। अपने
ही रस को अपना
ही विषय बनाकर
भीतर ही जीने
लगता है। पागल,
विक्षिप्त,
न्यूरोटिक हो जाता है।
कृष्ण
जो कह रहे हैं
कि विषय तो
टूट जाएंगे, छूट जाएंगे देहाभिमानी
त्यागी के, लेकिन रस
नहीं छूटेंगे।
और असली सवाल
विषयों का
नहीं है, असली
सवाल रसों का
है। असली सवाल
इसका नहीं है
कि बाहर कोई
बड़ा मकान है; असली सवाल
इसका है कि
मेरे भीतर बड़े
मकान की चाह
है। असली सवाल
यह नहीं है कि
बाहर सौंदर्य है;
असली सवाल
यह है कि मेरे
भीतर सौंदर्य
की मालकियत
की आकांक्षा
है। असली सवाल
यह नहीं है कि
बाहर फूल है; असली सवाल
यह है कि मेरे
हाथ में फूल
को तोड़ने की
हिंसा है।
असली सवाल फूल
नहीं है, रहे
फूल; अगर
मेरे हाथ में
तोड़ने की
हिंसा नहीं है,
तो मैं निकल
जाऊंगा फूल के
पास से। फूल
कभी कहता नहीं
कि आओ, तोड़ो। फूल
बुलाता नहीं,
फूल
निमंत्रण
नहीं देता, मैं ही जाता
हूं।
रस!
कीमती क्या है, विषय या रस? अगर विषय
कीमती है, तो
तपश्चर्या
बहुत मैटीरियल
होगी, शारीरिक
होगी, फिजिकल होगी। और
अगर रस, तो
फिर तपश्चर्या
मनोवैज्ञानिक
होगी; फिर तपश्चर्या
आंतरिक होगी।
और मैंने जैसा
कहा कि कृष्ण
गहरे
मनोवैज्ञानिक
हैं, इसलिए
साधक के इस
मामले में भी
वह जो फिजिकल,
वह जो भौतिक
साधक है, उसकी
गहरी व्यंगना
और गहरी मजाक
कर रहे हैं।
वे यह कह रहे
हैं कि उसके
विषय छूट जाते
हैं, रस
नहीं छूटता।
और देहाभिमानी
कहकर
जितनी कड़ी
आलोचना हो
सकती है, उतनी
उन्होंने कर
दी है। देहाभिमानी
तपस्वी! अब देहाभिमानी
और तपस्वी
कहते हैं!
नहीं, देह को
मानने वाला
तपस्वी...।
उसको भी
तपस्वी कह रहे
हैं, क्योंकि
तपश्चर्या
तो बहुत करता
है--व्यर्थ
करता है, करता
बहुत है। असफल
होता है, चेष्टा
बहुत करता है।
श्रम में कमी
नहीं है, दिशा
गलत है। रस
भीतर रह
जाएंगे। और
अगर सारे विषय
बाहर से छोड़
दिए जाएं और
सारे रस भीतर
रह जाएं, तो
इससे सिर्फ साइकोसिस,
विक्षिप्तता
पैदा होती है,
विमुक्तता पैदा नहीं
होती।
समाधिस्थ
व्यक्ति के
विषय नहीं, रस छूट जाते
हैं। और जिस
दिन रस छूटते
हैं, उस
दिन विषय विषय
नहीं रह जाते।
क्योंकि वे
विषय इसीलिए
मालूम पड़ते
थे कि रस उनको
विषय बनाते
थे। जिस दिन
रस छूट जाते
हैं, उस
दिन विषय वस्तुएं
रह जाते हैं, विषय नहीं--थिंग्स।
क्योंकि उनसे
अब कोई रस का
संबंध नहीं रह
जाता।
समाधिस्थ
व्यक्ति रसों
के विसर्जन
में उत्सुक है, विषयों के
त्याग में
नहीं। त्याग
हो जाता है, यह दूसरी
बात है। लेकिन
असली सवाल
आंतरिक रसों
के विसर्जन का
है। इसलिए यह लक्षण
भी वे गिनाते
हैं कि
समाधिस्थ
व्यक्ति रसों
से मुक्त हो
जाता है, विषयों
की उसे जरा भी
चिंता नहीं
है।
यह
ध्यान में ले
लेना जरूरी है, क्योंकि यही
कृष्ण के ऊपर
बड़े से बड़ा
आक्षेप रहा
है। क्योंकि
कृष्ण को
आम्र-कुंजों
में नाचते
देखकर बड़ी
कठिनाई पड़ेगी देहाभिमानी
तपस्वी को, कि यह क्या
हो रहा है!
उसकी पीड़ा का
अंत न रहेगा।
उसका वश चले
तो वह पुलिस
में रिपोर्ट
लिखाने भागेगा।
यह क्या हो
रहा है? ये
कृष्ण और नाच
रहे हैं? कृष्ण
को समझ पाना
उसे मुश्किल
हो जाएगा। उसके
खयाल में भी
नहीं आ सकता
कि किसी
व्यक्ति के रस
अगर भीतर
सिकुड़ गए हों,
तो बाहर के
विषयों से कोई
भी सेतु नहीं बनता।
सेतु बनाने
वाला ही खो
गया है। तब न
कोई भागना है,
न कोई चाहना
है।
इसलिए
कृष्ण के जीवन
में अदभुत
घटनाएं घटती हैं।
जिस वृंदावन
में वे नाचे
हैं, उस
वृंदावन को जब
छोड़कर
चले गए हैं, तो लौटकर
भी नहीं देखा
है। वासनाग्रस्त
चित्त होता, तो छोड़कर
जाना बहुत
मुश्किल
पड़ता। वासनाग्रस्त
चित्त होता, तो स्मृतियां
बड़ी पीड़ा देतीं।
वासनाग्रस्त
चित्त होता, तो लौट-लौटकर
वृंदावन मन को
घेरता, सपनों
में आता।
नहीं, वृंदावन
जैसे था ही
नहीं--गया।
जैसे पृथ्वी
के नक्शे
पर अब नहीं
है। जिन्होंने
वृंदावन में
उनके आस-पास
नृत्य करके
उनको प्रेम
किया था, उनकी
पीड़ा का अंत
नहीं है। वहां
रस भी रहा होगा।
इसलिए उनका मन
तो वृंदावन और
द्वारिका के बीच
ब्रिज
बनाने की
चेष्टा में
लगा ही है, सेतु
बनाना ही चाहता
है। लेकिन
कृष्ण को? कृष्ण
को जैसे कोई
बात ही नहीं
है, सब
समाप्त हो
गया। जहां थे,
वहां थे।
जहां नहीं हैं,
वहां नहीं
हैं। वृंदावन
नहीं है। वह नक्शे से
गिर गया। रस न
हो भीतर, तो
ही यह संभव
है। रस भीतर
हो, तो यह
कतई संभव नहीं
है।
खूबी
है यह कि
जितना रस, वासना से
भरा हुआ
व्यक्ति हो, उतना विषय
के निकट होने
पर पीड़ित नहीं
होता, जितना
दूर होने पर
पीड़ित होता
है। जिसे हम
चाहते हैं, वह पास रहे, तो उसकी याद
नहीं आती है।
जिसे हम चाहते
हैं, वह
दूर हो, तभी
उसकी याद आती
है। जिसे हम
चाहते हैं, वह पास हो, तब तो भूलना
बहुत आसान है।
जिसे हम चाहते
हैं, जब वह
पास न हो, तब
भूलना बहुत
कठिन है।
लेकिन
कृष्ण उलटे
हैं। जो पास
है, उसे वे
पूरी तरह याद
रखते हैं। हम,
जो पास है, उसे बिलकुल
भूल जाते हैं;
जो दूर है, उसे पूरी
तरह याद रखते
हैं। कृष्ण, जो पास है, उसे पूरी
तरह याद रखते
हैं। वह उनकी
चेतना में
पूरा का पूरा
है। उसी से तो भ्रम
पैदा होता है।
उसी से तो
प्रत्येक को
लगता है कि
इतनी अटेंशन
मुझे दी, इतना
ध्यान मेरी
तरफ दिया; फिर
मुझे इस तरह
भूल गए, तो
बड़ी
गैर-वफादारी
है।
उसे
पता नहीं है
कि कृष्ण जहां
हैं, वहीं
उनका पूरा
ध्यान है। वे
जहां हैं, वहां
पूरे हैं; उनकी
उपस्थिति
पूरी है।
पत्थर को भी
देखते हैं, तो पूरे
ध्यान से
देखते हैं।
पत्थर भूल में
नहीं पड़ता, यह बात
दूसरी है।
लेकिन आदमी को
देख लेते हैं,
तो भूल में
पड़ जाता है।
स्त्री को देख
लेते हैं, तो
और भी भूल में
पड़ जाती है।
फिर वह तड़पती
है, रोती है, चिल्लाती
है। उसे पता
नहीं है कि
कृष्ण गए, तो
गए। वहां भीतर
कोई सेतु नहीं
बनता, वहां
भीतर कोई रस
नहीं है।
इस
तथ्य को न
समझे जाने से
कृष्ण के
संबंध में भारी
भूल हुई है।
जिस स्थितधी
की वे बात कर
रहे हैं, वैसी
थिरता चेतना
की स्वयं
उनमें पूरी
तरह फलित हुई
है।
यततो ह्यपि कौन्तेय
पुरुषस्य
विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि
हरन्ति प्रसभं
मनः।। ६०।।
और हे
अर्जुन, इसलिए
यत्न करते हुए
बुद्धिमान
पुरुष के भी मन
को यह प्रमथन
स्वभाव वाली इंद्रियां
बलात्कार
से हर लेती
हैं।
तानि सर्वाणि संयम्य
युक्त आसीत
मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि
तस्य
प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
६१।।
इसलिए
मनुष्य को
चाहिए कि उन
संपूर्ण
इंद्रियों को
वश में करके
समाहित चित्त
हुआ, मेरे
परायण स्थित होवे।
क्योंकि, जिस
पुरुष के इंद्रियां
वश में होती
हैं,
उसकी
ही प्रज्ञा
स्थिर होती
है।
एक
चेतावनी कृष्ण
देते हैं, वह यह कि इंद्रियां
भी व्यक्ति को
खींचती हैं
विषयों की ओर।
इस बात को
थोड़ा गहरे में
समझना आवश्यक
है। इंद्रियां
भी व्यक्ति को
खींचती हैं
विषयों की ओर।
साधक को भी इंद्रियां
गिरा देती
हैं।
इंद्रियां
कैसे गिराएंगी? क्या
इंद्रियों के
पास अपनी कोई
व्यक्ति की
आत्मा से अलग
शक्ति है? क्या
इंद्रियों के
पास अपनी कोई
अलग ऊर्जा है?
क्या इंद्रियां
इतनी बलवान
हैं स्वतंत्र
रूप से कि
व्यक्ति की
आत्मा को गिराएंगी?
नहीं, इस कारण
नहीं।
इंद्रियों के
पास कोई भी
शक्ति नहीं
है। इंद्रियां
व्यक्ति से
स्वतंत्र अस्तित्ववान
भी नहीं हैं।
लेकिन फिर भी इंद्रियां
गिरा सकती हैं,
गिराने का
कारण बहुत
दूसरा है।
वह
दूसरा यह है
कि इंद्रियां
मैकेनिकल
हैबिट्स
हैं, यांत्रिक
आदतें हैं। और
आपने
जन्मों-जन्मों
में जिस
इंद्रिय की जो
आदत बनाई है, जो कंडीशनिंग
की है उसकी, जब आप बदलते
हैं तो उसे
कुछ भी पता
नहीं होता कि
आप बदल गए
हैं। वह अपनी
पुरानी आदत को
दोहराए
चली जाती है। इंद्रियां
यंत्र हैं, उन्हें कुछ
पता नहीं
होता।
आपने
एक ग्रामोफोन
पर रिकार्ड चढ़ा दिया।
रिकार्ड गाए
चला जा रहा
है। आधा गीत
हो गया, अब
आपका मन
बिलकुल सुनने
को नहीं है, लेकिन रिकार्ड
गाए चला
जा रहा है। अब
रिकार्ड को
कोई भी पता
नहीं है कि अब
आपका मन सुनने
का नहीं है।
रिकार्ड को
पता हो भी
नहीं सकता।
रिकार्ड तो
सिर्फ यंत्र
की तरह चल रहा
है। लेकिन उठकर
आप रिकार्ड को
बंद कर देते
हैं, क्योंकि
रिकार्ड को
कभी आपने अपना
हिस्सा नहीं
समझा।
इंद्रियों
के यंत्र के
साथ एक दूसरी
आइडेंटिटी है
कि आप
इंद्रियों को
अपना ही समझते
हैं। इसलिए इंद्रियां
जब चलती चली
जाती हैं, तो अपना ही
समझने के कारण
आप भी उनके
पीछे चल पड़ते
हैं। आप उनको
यंत्र की तरह
बंद नहीं कर
पाते।
अब एक
आदमी है; उसे
सिगरेट
पीने की यांत्रिक
आदत पड़ गई है, या शराब
पीने की। कसम
खाता है, नहीं
पीऊंगा।
निर्णय करता
है, नहीं पीऊंगा।
लेकिन उसकी
इंद्रियों को
कोई पता नहीं;
उनके पास बिल्ट-इन-प्रोसेस
हो गई है। तीस
साल से वह पी
रहा है, चालीस
साल से वह पी
रहा है।
इंद्रियों का
एक नियमित
ढांचा हो गया
है कि हर आधे
घंटे में सिगरेट
चाहिए। हर आधे
घंटे पर यंत्र
की घंटी बज
जाती है, सिगरेट लाओ। तो
आदमी कहता है,
तलब! तलब लग
गई है। तलब
वगैरह क्या लगेगी! वह
कहता है, सिगरेट
पुकारती है। सिगरेट
क्या पुकारेगी!
नहीं, चालीस-पचास
वर्ष का
यांत्रिक जाल
है इंद्रियों
का। हर आधे
घंटे पर सिगरेट
मिलती रही है,
इंद्रियों
के पास
व्यवस्था हो
गई है। उनके
पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम
है। उनके पास
चौबीस घंटे की
योजना है कि
जब आधा घंटा
हो जाए, तब
आपको खबर कर
दें कि अब सिगरेट
चाहिए। पूरा
शरीर! और
इंद्रियों के
साथ पूरा शरीर
है।
तो जब सिगरेट
चाहिए, तब
शरीर के अनेक
अंगों से यह
खबर आएगी कि सिगरेट
चाहिए। होंठ
कुछ पकड़ने
को आतुर हो
जाएंगे, फेफड़े
कुछ खींचने को
आतुर हो
जाएंगे, खून
निकोटिन
लेने के लिए
प्यासा हो
जाएगा, नाक
कुछ छोड़ने को
आतुर हो
जाएगी। मन
किसी चीज में
व्यस्त होने
को आतुर हो
जाएगा। यह इकहरी
घटना नहीं है,
कांप्लेक्स है, इसमें
पूरा शरीर
संयुक्त है।
और पूरा शरीर
इंतजार करने लगेगा कि लाओ। सब
तरफ से दबाव पड़ने लगेगा
कि लाओ।
चालीस-पचास
साल का दबाव
है। और आपने
जो निर्णय
लिया है सिगरेट
न पीने का, वह सिर्फ
चेतन मन से
लिया है। और
यह दबाव चालीस
साल का अचेतन
मन के गहरे
कोनों तक
पहुंच गया है।
इसकी बड़ी ताकत
है। और मन
जल्दी बदलने
को राजी नहीं
होता, क्योंकि
अगर मन जल्दी
बदलने को राजी
हो, पूरा
मन, तो
आदमी जिंदा
नहीं रह सकता।
इसलिए मन को
बहुत आर्थोडाक्सी
दिखलानी
पड़ती है। मन
को पूरी कोशिश
करनी पड़ती है
कि जो चीज चालीस
साल सीखी
है, वह एक सेकेंड
में छोड़ोगे!
तब तो जिंदगी
बहुत मुश्किल
में पड़ जाए।
एक
आदमी चालीस
साल एक स्त्री
को प्रेम करता
रहा, जरा-सा
गुस्सा आता है,
कहता है, छोड़ देंगे!
लेकिन कोई छोड़ता-वोड़ता
नहीं, क्योंकि
वह चालीस साल
जो पकड़ा
है, उसका
वजन ज्यादा
है। और अगर ऐसा
छोड़ना होने
लगे, तो
जिंदगी एकदम
अस्तव्यस्त
हो जाए। इसलिए
मन कहता है, जिसको चालीस
साल पकड़ा
है, कम से
कम चालीस साल छोड़ो।
फिर मन
के भी संकल्प
के क्षण हैं
और संकल्पहीनता
के क्षण हैं।
मन कभी एक ही
स्थिति में
नहीं होता।
कभी वह संकल्प
के शिखर पर
होता है, तब
ऐसा लगता है
कि दुनिया की
कोई ताकत नहीं
रोक सकती। कभी
वह विषाद के गङ्ढे में
होता है, तब
ऐसा लगता है, कोई जरा-सा
धक्का दे
जाएगा तो मर
जाऊंगा।
तो जब
वह संकल्प के
शिखर पर होता
है, तब वह
कहता है, ठीक
है, छोड़
देंगे। घंटेभर
बाद जब विषाद
में उतर जाता
है, वह
कहता है, क्या
छोड़ना है!
कैसे छोड़ सकते
हैं! नहीं छूट
सकती है, अपने
वश की बात
नहीं है। इस
जन्म में नहीं
हो सकता है।
यह कहता जाता
है भीतर, हाथ
तब तक सिगरेट
को खोल लेते
हैं, हाथ
तब तक मुंह
में लगा देते
हैं, दूसरा
हाथ माचिस जला
देता है। जब
तक वह भीतर यह
सोच ही रहा है,
नहीं हो
सकता, तब
तक शरीर पीना
ही शुरू कर
देता है। तब
वह जागकर
देखता है, क्या
हो गया यह? यह
तो फिर सिगरेट
पी ली? नहीं,
यह नहीं हो
सकता है! तब
निर्णय पक्का
हो जाता है कि
यह हो ही नहीं
सकता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं कि इंद्रियां
खींच-खींचकर
गिरा देती हैं
साधक को।
इंद्रियां
क्या गिराएंगी!
साधक का ही
अतीत में
इंद्रियों को
दिया गया बल, साधक का ही
इंद्रियों को
दिया गया
अभ्यास, साधक
की ही
इंद्रियों को
दी गई कंडीशनिंग,
संस्कार...।
और
संस्कार बड़ी
प्रबल चीज है।
हम सब संस्कार
से जीते हैं।
हम चेतना से
नहीं जीते, हम जीते
संस्कार से
हैं। संस्कार
बड़ी प्रबल चीज
है। इतनी
प्रबल चीज है
कि जब संस्कार
की सारी स्थिति
भी चली जाती
है, अकेला
संस्कार रह
जाता है, तो
अकेला
संस्कार भी
काम करता रहता
है।
मैंने
सुना है, विलियम जेम्स
एक बहुत बड़ा
मनोवैज्ञानिक
अमेरिका
में हुआ। वह
संस्कार पर बड़ा
काम कर रहा
था। असल में
जो
मनोविज्ञान
संस्कार पर
काम नहीं करता,
वह
मनोविज्ञान
बन ही नहीं
सकता।
क्योंकि बहुत
गहरी पकड़ तो
मनुष्य की कंडीशनिंग
की है। सारी
पकड़ तो वहां
है, जहां
आदमी जकड़ा
हुआ है; जहां
अवश, हेल्पलेस हो जाता है।
तो वह कंडीशनिंग
पर काम कर रहा
है। वह एक दिन
होटल में बैठा
हुआ है, एक
मित्र से बात
कर रहा है। और
उसने कहा कि
इतना अजीब जाल
है संस्कार का
मनुष्य का कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं
है।
तभी
उसने देखा कि
सामने पहले
महायुद्ध का रिटायर
हुआ मिलिट्री
का एक कैप्टन
चला जा रहा
है। अंडों की
एक टोकरी लिए
हुए है। उसे सूझा कि
ठीक उदाहरण
है। विलियम
जेम्स ने
होटल के भीतर
से चिल्लाकर
जोर से कहा, अटेंशन। वह मिलिट्री
का आदमी अंडे
छोड़कर अटेंशन
खड़ा हो गया।
सारे अंडे
जमीन पर गिर
पड़े। रिटायर
हुए भी वर्षों
हो गए उसे।
लेकिन अटेंशन
ने बिलकुल
बंदूक के ट्रिगर
की तरह काम
किया। गोली चल
गई।
वह
आदमी बहुत
नाराज हुआ कि
तुम किस तरह
के आदमी हो, यह कोई मजाक
है? सारे अंडे फूट
गए! लेकिन विलियम
जेम्स ने
कहा, तुमसे किसने कहा
कि तुम अटेंशन
हो जाओ। हमें अटेंशन
कहने का हक
है। तुमसे
ही कहा, यह
तुमने कैसे
समझा? और तुमसे भी
कहा, तो
तुम्हें होने
की मजबूरी
किसने कही कि
तुम हो जाओ! उस
आदमी ने कहा, यह सवाल
कहां है, यह
कोई सोचने की
बात है! ये पैर
वर्षों तक अटेंशन
सुने हैं
और अटेंशन
हुए हैं।
इसमें कोई गैप
ही नहीं है
बीच में। उधर अटेंशन, इधर अटेंशन
घटित होता है।
करीब-करीब, वह जो कृष्ण
कह रहे हैं, वह एक बहुत
मनोवैज्ञानिक
सत्य है, कि
आदमी की इंद्रियां,
उसकी कंडीशनिंग--
और एक जन्म की
नहीं, अनेक
जन्मों की।
हमने वही-वही,
वही-वही
किया है। हम
वही-वही करते
रहे हैं। हम उसी
जाल में घूमते
रहे हैं। हम
रोज एनफोर्समेंट
कर रहे हैं।
हमने जो किया
है, उसको
हम रोज बल दे
रहे हैं। और
फिर जब हम
निर्णय लेते
हैं कभी, तो
हम इसका कोई
खयाल ही नहीं
करते कि जिन
इंद्रियों के
खिलाफ हम
निर्णय ले रहे
हैं, उनका
बल कितना है!
उसकी कोई तौल
नहीं करते कभी।
बिना तौले
निर्णय ले
लेते हैं। फिर
पराजय के
सिवाय हाथ में
कुछ भी नहीं
लगता।
तो जो
साधक सीधा
इंद्रियों को
बदलने में लग
जाएगा और
जल्दी निर्णय
लेगा, वह खतरे में पड़ेगा ही। इंद्रियां
उसे रोज-रोज पटकेंगी।
उसकी ही इंद्रियां।
मजा तो यही है,
किसी और की
हों, तो भी
कोई बात है।
अपनी ही इंद्रियां!
लेकिन फिर
क्या रास्ता
है? क्योंकि
कंडीशनिंग
तो बहुत
पुरानी है।
संस्कार बहुत
पुराने हैं, जन्मों-जन्मों
के हैं। अनंत
जन्मों के
हैं। सब इतना
सख्ती से
मजबूत हो गया
है कि जैसे एक
लोहे की जैकेट
हमारे चारों
तरफ कसी हो, जिसमें से
हिलना-डुलना
भी संभव नहीं
है। लोहा है
चारों तरफ
आदतों का।
कैसे होगा?
तब तक
न होगा, जब
तक हम इंद्रियों
को बिलकुल
ध्यान में ही
न लें और निर्णय
अलग किए चले
जाएं, उनका
ध्यान ही न
लें। इसकी
फिक्र ही न
करें कि चालीस
साल मैंने सिगरेट
पी, और
निर्णय ले लें
एक क्षण में
कि अब सिगरेट
नहीं पीऊंगा,
तो कभी नहीं
होगा। एक क्षण
के निर्णय
चालीस साल की
आदतों के
मुकाबले नहीं टिकने
वाले। क्षण का
निर्णय
क्षणिक है।
टूट जाएगा। इंद्रियां
पटक देंगी
वापस उसी जगह।
फिर क्या करना
होगा?
असल
में जिन
इंद्रियों के
साथ हमने जो
किया है, उनको
अनकंडीशंड
करना होता है।
उनको संस्कारमुक्त
करना होता है।
जिनकी हमने कंडीशनिंग
की है, जब
उनको संस्कारित
किया है, तो
उनको
गैर-संस्कारित
करना होता है।
और गैर-संस्कारित
इंद्रियां
सहयोगी हो
जाती हैं।
क्योंकि
इंद्रियों को
कोई मतलब नहीं
है कि आप सिगरेट
पीओ, कि
शराब पीओ।
कोई मतलब नहीं
है। सिगरेट
पीने जैसी
दूसरी अच्छी चीजें भी इंद्रियां
वैसे ही पकड़
लेती हैं।
एक
आदमी रोज भजन
करता है, प्रार्थना
करता है सुबह।
एक दिन नहीं
करता है, तो
दिनभर
तकलीफ मालूम
पड़ती है। इससे
यह मत समझ
लेना आप कि यह
तकलीफ कुछ
इसलिए मालूम
पड़ रही है कि
प्रार्थना
में उनको बड़ा
आनंद मिल रहा
था। क्योंकि
जिसको
प्रार्थना
में आनंद मिल
गया, उसके
तो चौबीस घंटे
आनंद से भर
जाते हैं।
जिसको एक बार भी
प्रार्थना
में आनंद मिल
गया, उसकी
तो बात ही और
है।
लेकिन
आमतौर से तो
प्रार्थना न
करने से दुख
मिलता है, करने से
आनंद नहीं
मिलता। यह बड़े
मजे की बात है,
न करने से
दुख मिलता है।
वह दुख हैबिचुअल
है, वह
वैसा ही है जैसा
सिगरेट
का। उसमें कोई
बहुत फर्क
नहीं है। रोज
करते हैं, रोज
आदतें कहती
हैं, करो।
नहीं किया, तो जगह खाली
छूट जाती है। दिनभर वह
खाली जगह भीतर
ठक-ठक करती
रहती है कि आज
प्रार्थना
नहीं की! फिर
काम किया--आज
प्रार्थना नहीं
की! अब बड़ी
मुश्किल हो
गई। सिगरेट
भी हो तो अभी
जला लो और पी
लो। अब सुबह
तो कल आएगी।
अनकंडीशनिंग!
जैसे-जैसे
बांधा है, वैसे-वैसे
खोलना भी पड़ता
है। जैसे-जैसे
आदत बनाई है, वैसे-वैसे
आदत बिखरानी
भी पड़ती है।
इंद्रियों को
निर्मित किया
है, उनको
अनिर्मित भी
करना होता है।
इस
अनिर्मित
करने के लिए
कृष्ण एक बहुत
अदभुत सुझाव
देते हैं। वे
इस सूत्र में कहते
हैं कि जो
ज्ञानी पुरुष
है, वह सारा
बोझ अपने ही
ऊपर नहीं ले
लेता।
असल
में ज्ञानी
पुरुष, ठीक
से समझो, तो बोझ अपने
ऊपर लेता ही
नहीं। वह बोझ
बहुत कुछ तो
परमात्मा पर
छोड़ देता है।
सच तो यह है कि
वह पूरा ही
बोझ परमात्मा
पर छोड़ देता
है। और जो
पुरानी आदतें
हमला करती हैं,
उनको वह
पिछले कर्मों
का फल मानकर
साक्षीभाव
से झेलता है।
उनसे कोई दुख
भी नहीं लेता।
कहता है कि
ठीक। कल मैंने
किया था, इसलिए
ऐसा हुआ।
बुद्ध
एक गांव से
निकलते। कुछ
लोग गाली
देते। वे हंसकर
आगे बढ़ जाते।
फिर कोई
भिक्षु उनसे
पूछता, उन्होंने
गाली दी, आपने
उत्तर नहीं
दिए? बुद्ध
कहते, कभी
मैंने उनको
गाली दी होंगी,
वे उत्तर दे
गए हैं। अब और
आगे का
सिलसिला क्या
जारी रखना!
जरूर मैंने
उन्हें कभी
गाली दी होंगी,
नहीं तो वे
क्यों कष्ट
करते? अकारण
तो कुछ भी
घटित नहीं होता
है। कभी मैंने
गाली दी होंगी,
उत्तर बाकी
रह गया था, अब
वे उत्तर दे
गए हैं। अब
मैं उनको फिर
गाली दूं, फिर
आगे का
सिलसिला होता
है। सौदा पट
गया। लेन-देन
हो गया। अब
मैं खुश हूं।
अब आगे उनसे
कुछ लेना-देना
न रहा। अब मैं
आगे चलता हूं।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा व्यक्ति,
जो हमले
होते हैं, उन
हमलों को अतीत
कर्मों की
शृंखला मानता
है। और उनको साक्षीभाव
से और शांतभाव
से झेल लेता
है। और जो
संघर्ष है, समाधिस्थ
होने की जो
यात्रा है, उसमें वह
परमात्मा को,
प्रभु को, जीवनत्तत्व को, जीवन-ऊर्जा
को सहयोगी
बनाता है। वह
इतना नहीं कहता
कि मैं ही लड़
लूंगा, मैं
ही कर लूंगा।
कभी इस
तत्व को
थोड़ा-सा समझ
लें और प्रयोग
करके देखें। सिगरेट
मैं पीता हूं, तो मैं
सोचता हूं, मैं ही सिगरेट
छोडूंगा।
लेकिन मेरा सिगरेट
पीने वाला
पचास साल
पुराना है और
मेरा सिगरेट
छोड़ने वाला
मैं एक क्षण
का है। तो
मेरा सिगरेट
छोड़ने वाला
मैं हार
जाएगा। लेकिन
मैं कहता हूं,
सिगरेट पीने वाला
पचास साल
पुराना है, इंद्रियों
की आदत मजबूत
है, हमला
बार-बार होगा;
आज का एक
क्षण का मैं
तो बहुत कमजोर
हूं--मैं परमात्मा
पर छोड़ता
हूं, तू ही
मुझे सिगरेट
पीना छुड़ा
दे।
यह भी
अहंकार नहीं
लेता हूं कि
मैं छोडूंगा।
क्योंकि जो यह
अहंकार लेगा
कि मैं छोडूंगा, तो वह
अहंकार कहां
जाएगा जिसने
पचास साल कहा
है कि मैं
पीता हूं। उस
अहंकार के
मुकाबले यह छोड़ने
वाला अहंकार
छोटा पड़ेगा
और हारेगा।
इस छोड़ने वाले
अहंकार को
परमात्मा के
चरणों में
रखना जरूरी
है। इसे कह
देना जरूरी है
कि तू सम्हाल।
सिगरेट
मैंने पी, अब
छोड़ना चाहता
हूं। लेकिन
अकेला बहुत
कमजोर हूं। तू
साथ देना। जब
मैं सिगरेट
पीऊं, तब
तू साथ देना।
और जब सिगरेट
पीने का वापस
जोर आए, तब
यह मत सोचना
कि अब क्या
करूं और क्या
न करूं! तब
बजाय सिगरेट
के
पक्ष-विपक्ष में
सोचने के
परमात्मा के
समर्पण की तरफ
ध्यान देना।
ध्यान देना कि
अब वह सिगरेट
फिर पुकार रही
है, अब तू सम्हाल! और
जैसे ही
परमात्मा का
स्मरण और
समर्पण का स्मरण,
जैसे ही
विराट के
प्रति समर्पण
का स्मरण, कि
ऊर्जा इतनी हो
जाती है, अनंत
की ऊर्जा हो
जाती है, कि
पचास साल क्या
पचास जन्मों
की आदत भी
कमजोर हो जाती
है। टूट जाती
है।
एक
छोटी-सी घटना, उससे आपको
स्मरण आ जाए।
कोई उन्नीस सौ
दस में एक
वैज्ञानिकों
का
अन्वेषक-मंडल
उत्तरी ध्रुव
पर यात्रा पर
गया। उत्तरी धु्रव में
तीन महीने तक
वे लोग फंस
गए बर्फ में
और लौट न सके।
भोजन चुक
गया। बड़ी
मुश्किल थी, बड़ी कठिनाई
थी।
लेकिन
सबसे बड़ी
कठिनाई तब हुई, जब सिगरेट
चुक गई।
लोग कम रोटी
लेने को राजी
थे, लेकिन
कम सिगरेट
लेने को राजी
नहीं थे। लोग
कम पानी पीने
को राजी थे, लेकिन कम सिगरेट
लेने को राजी
नहीं थे।
लेकिन कोई
उपाय न था। नावें
फंसी थीं
बर्फ में। और
तीन महीने से
पहले निकलने की
संभावना न थी।
और तीन महीने
सब चलाना था।
नहीं माने। तो
भोजन तो किसी
तरह चला
थोड़ा-थोड़ा देकर,
लेकिन सिगरेट
सबसे पहले चुक
गई। क्योंकि
कोई सिगरेट
कम करने को
राजी न था।
फिर एक
बड़ा खतरा आया।
और वह खतरा यह
आया कि लोगों
ने नावों की रस्सियां
काट-काटकर सिगरेट
बनाकर पीना
शुरू कर दिया।
तब तो जो जहाज
का कप्तान था, उसने कहा कि
तुम क्या कर
रहे हो यह? अगर
नावों की रस्सियां
कट गईं, तो फिर तीन
महीने के बाद
भी छुटकारा
नहीं है। क्योंकि
फिर ये नावें चलेंगी
कैसे? पर
लोगों ने कहा
कि तीन महीना!
तीन महीने के
बाद छुटकारा
होगा कि नहीं
होगा, यह
कुछ भी पक्का
नहीं है। सिगरेट
अभी चाहिए। और
हम बिना सिगरेट
के तीन महीने बचेंगे, यह कहां
पक्का है? और
तीन महीने तड़पना
और रस्सियां
बंधी हैं पास
में जिनको पीया
जा सकता है। सिगरेट तो
नहीं होतीं,
लेकिन फिर
भी धुआं तो
निकाला ही जा
सकता है। तो
नहीं, असंभव
है। बहुत
समझाया, तो
रात चोरी से रस्सियां कटने लगीं।
फिर जब
वह नाव लौटी, तो उसके
कप्तान ने जो
वक्तव्य दिया,
उसने कहा कि
सबसे कठिन
कठिनाई जो तीन
महीने में आई,
वह यह थी कि
लोग सिगरेट
की जगह रस्सियां
पी गए, कपड़े
जलाकर पी गए, किताबें
जलाकर पी गए।
जो भी मिला, उसको पीते
चले गए।
एक
आदमी अखबार
में पढ़
रहा था। एक स्टुअर्ट
पैरी नाम का
आदमी अखबार
में यह पढ़
रहा था। पढ़कर
उसे खयाल आया--
वह भी चेन स्मोकर
था, जब पढ़
रहा था, तब सिगरेट पी
ही रहा था--उसे
खयाल आया कि
मेरी भी यही
हालत होती
क्या? क्या
मैं भी रस्सी
पी जाता? उसने
कहा कि नहीं, मैं कैसे
रस्सी पी सकता
था? आप भी कहेंगे कि
मैं कैसे
रस्सी पी सकता
था? पर
उसने कहा कि
वहां भी
तीस-चालीस लोग
थे, कोई
हिम्मत न जुटा
पाया, सबने
पी! क्या मैं
भी पी जाता!
उसकी
आधी जली हुई सिगरेट
थी। उसने ऐश-टे्र पर
नीचे रख दी और
उसने कहा कि
परमात्मा, अब तू सम्हाल।
अब यह सिगरेट
आधी रखी है
नीचे। और अब
मैं इसे उसी
दिन उठाऊंगा,
जिस दिन
मेरा तुझ पर
भरोसा खो जाए।
और जब मैं इसे
उठाने लगूं,
तो मेरी तो
कोई ताकत नहीं
है, क्योंकि
मैं अपने को
अच्छी तरह
जानता हूं, कि मैं तो एक सिगरेट से
दूसरी सिगरेट
जलाता हूं।
मैं अपने को भलीभांति
जानता हूं, जैसा मैं आज
तक रहा हूं, मैं भलीभांति
जानता हूं कि
यह सिगरेट
नीचे नहीं रह
सकती, मैं
इसे उठा ही
लूंगा। मैं
अपनी कमजोरी
से परिचित
हूं। मेरे
भीतर मुझे कोई
सुरक्षा का
उपाय नहीं है।
मेरे भीतर
मेरे परिचय
में मेरे पास
कोई संकल्प
नहीं है जो
मैं सिगरेट
से बच सकूं।
लेकिन मेरे मन
को पीड़ा भी
बहुत है। और
मैं यह भी
नहीं सोच पा
सकता कि इतना
कमजोर, इतना
दीन हूं कि सिगरेट
भी नहीं छोड़ सकूंगा, तो फिर मैं
और क्या छोड़
सकता हूं। मैं
तेरे ऊपर छोड़ता
हूं। अब तू ही
खयाल रखना। जब
तू ही साथ छोड़
देगा, तो
ही सिगरेट
उठाऊंगा।
हां! उठाने के
पहले एक दफे
तेरी तरफ आंख
उठा लूंगा!
फिर
तीस साल बीत
गए। उस आदमी
ने उन्नीस सौ
चालीस में
वक्तव्य दिया
है कि तीस साल
बीत गए--सिगरेट
आधी वहीं रखी
है। जब भी
उठाने का स्टुअर्ट
पैरी का मन
होता है, तभी
ऊपर की तरफ
देखता हूं कि
क्या इरादे
हैं? सिगरेट वहां रह
जाती है, पैरी
यहां रह जाते
हैं। तीस साल
हो गए, अभी
उठाई नहीं। और
अब तीस साल
काफी वक्त है,
स्टुअर्ट पैरी ने कहा,
अब मैं कह
सकता हूं कि
जो भरोसा, जो
ट्रस्ट मैंने
परमात्मा पर
किया था, वह
पूरा हुआ है।
तो
कृष्ण अर्जुन
से कह रहे हैं
कि
स्थितप्रज्ञ
छोड़ देता है।
उस गहरी साधना
में लगा
व्यक्ति, संयम
की उस यात्रा
पर निकला
व्यक्ति अपने
पर ही भरोसा
नहीं रख लेता,
वह परम तत्व
पर भी छोड़
देता है, समर्पण
कर देता है।
वह समर्पण ही
असंयम के क्षणों
में, कमजोरी
के क्षणों में
सहारा बनता
है। वह हेल्पलेसनेस
ही, वह
निरुपाय दशा
ही--यह जान
लेना कि मैं
कमजोर हूं--बड़ी
शक्ति सिद्ध
होती है। और
यह मानते रहना
कि मैं बड़ा
शक्तिशाली
हूं, बड़ी
कमजोरी सिद्ध
होती है।
इंद्रियां
गिरा देती हैं
उस संयमी को, जो अहंकारी
भी है। इंद्रियां
नहीं गिरा पातीं
उस संयमी को, जो अहंकारी
नहीं है, विनम्र
है। जो अपनी कमजोरियों
को स्वीकार
करता है। जो
उनको दबाता
नहीं, जो
उनको झुठलाता
नहीं, लेकिन
जो परमात्मा
के हाथों में
उनको भी समर्पित
कर देता है।
ऐसा संयमी
व्यक्ति
धीरे-धीरे रसों
से, इंद्रियों
के दबाव से, अतीत के किए
गए संस्कारों
के प्रभाव से,
आदतों से, यांत्रिकता से--सभी से
मुक्त हो जाता
है। और तभी
स्थितप्रज्ञ
की स्थिति में
आगमन शुरू
होता है। तभी
वह स्वयं में
थिर हो पाता
है।
आज
इतना ही। शेष
कल सुबह।
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