काम, द्वंद्व और
शास्त्र
से--निष्काम, निर्द्वंद्व
और स्वानुभव
की ओर—
यामिमां पुष्पितां
वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः
पार्थ नान्यदस्तीति
वादिनः।।
४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा
जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं
प्रति।। ४३।।
हे
अर्जुन, जो सकामी
पुरुष केवल फल
श्रुति में
प्रीति रखने
वाले, स्वर्ग
को ही परम
श्रेष्ठ
मानने वाले, इससे बढ़कर
कुछ नहीं
है--ऐसे कहने
वाले हैं, वे
अविवेकीजन
जन्मरूप
कर्मफल को
देने वाली और
भोग तथा
ऐश्वर्य की प्राप्ति
के लिए
बहुत-सी
क्रियाओं के विस्तार
वाली इस
प्रकार की जिस
दिखाऊ
शोभायुक्त
वाणी को कहते
हैं।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।
४४।।
उस
वाणी द्वारा
हरे हुए चित्त
वाले, तथा
भोग और
ऐश्वर्य में
आसक्ति वाले,
उन पुरुषों
के अंतःकरण
में
निश्चयात्मक
बुद्धि नहीं
होती है।
कर्मयोग
की बात करते
हुए कृष्ण ने
अर्जुन को कहा
है कि वे सारे
लोग, जो सुख, कामना, विषय
और वासना से
उत्प्रेरित
हैं, जो
स्वर्ग से ऊपर
जगत में कुछ
भी नहीं देख
पाते हैं, जिनका
धार्मिक
चिंतन, मनन
और अध्ययन भी
विषय-प्रेरित
ही होता है, जो संसार
में तो सुख की
मांग करते ही
हैं, जो
परलोक में भी
सुख की ही
मांग किए चले
जाते हैं, जिनके
परलोक की
दृष्टि भी
वासना का ही
विस्तार है, ऐसे व्यक्ति
निष्काम-कर्म
की गहराई को
समझने में
असमर्थ हैं।
कर्मयोग
को अगर एक
संक्षिप्त से
गणित के सूत्र
में कहें, तो कहना
होगा, कर्म
- कामना =
कर्मयोग।
जहां कर्म से
कामना ऋण कर
दी जाती है, तब जो शेष रह
जाता है, वही
कर्मयोग है।
लेकिन कामना
को शेष करने
का अर्थ केवल
सांसारिक
कामना को शेष
कर देना नहीं है,
कामना
मात्र को शेष
कर देना है।
इस बात को थोड़ा
गहरे में समझ
लेना जरूरी
है।
संसार
की कामना को
शेष कर देना
बहुत कठिन
नहीं है, कामना
मात्र को शेष
करना असली तपश्चर्या
है। संसार की
कामना तो शेष
की जा सकती
है। अगर परलोक
की कामना का
प्रलोभन दिया
जाए, तो
संसार की
कामना छोड़ने
में कोई भी
कठिनाई नहीं
है। अगर किसी
से कहा जाए, इस पृथ्वी
पर धन छोड़ो,
क्योंकि
परलोक में, यहां जो
थोड़ा छोड़ता
है, बहुत
पाता है। तो
उस थोड़े को
छोड़ना बहुत
कठिन नहीं है।
वह बार्गेन
है, वह
सौदा है। हम
सभी छोड़ते
हैं, पाने
के लिए हम सभी छोड़ते
हैं। पाने के
लिए कुछ भी छोड़ा
जा सकता है।
लेकिन
पाने के लिए
जो छोड़ना है, वह निष्काम नहीं
है। वह पाना
चाहे परलोक
में हो, वह
पाना चाहे
भविष्य में हो,
वह पाना
चाहे धर्म के सिक्कों
में हो, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता है।
पाने की
आकांक्षा को
आधार बनाकर जो
छोड़ना है, वही
कामना है, वही
कामग्रस्त
चित्त है।
वैसा चित्त
कर्मयोग को
उपलब्ध नहीं
होता।
यहां
कहा जाए
पृथ्वी पर
स्त्रियों को
छोड़ दो, क्योंकि
स्वर्ग में अप्सराएं
उपलब्ध हैं, यहां कहा
जाए पृथ्वी पर
शराब छोड़ दो, क्योंकि
बहिश्त में
शराब के चश्मे
बह रहे हैं, तो इस छोड़ने
में कोई भी
छोड़ना नहीं
है। यह केवल
कामना को नए
रूप में, नए
लोक में, नए
आयाम में पुनः
पकड़ लेना है।
यह प्रलोभन ही
है।
इसलिए
जो व्यक्ति भी, कहीं भी, किसी
भी रूप में
पाने की
आकांक्षा से
कुछ करता है, वह कर्मयोग
को उपलब्ध
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
कर्मयोग का
मौलिक आधार, कामनारहित,
फल की
कामनारहित
कर्म है। कठिन
है बहुत। क्योंकि
साधारणतः हम
सोचेंगे कि
फिर कर्म होगा
ही कैसे? हम
तो कर्म करते
ही इसलिए हैं
कि कुछ पाने
को है, कोई
लक्ष्य, कोई
फल। हम तो
चलते ही इसलिए
हैं कि कहीं
पहुंचने को
है। हम तो
श्वास भी
इसीलिए लेते
हैं कि पीछे
कुछ होने को
है। अगर पता
चले कि नहीं, आगे की कोई
कामना नहीं, तब तो फिर हम हिलेंगे
भी नहीं, करेंगे
भी नहीं। कर्म
होगा कैसे?
गीता
के संबंध में
और कृष्ण के
संदेश के
संबंध में जिन
लोगों ने भी
चिंतन किया है, उनके लिए जो
बड़े से बड़ा
मनोवैज्ञानिक
सवाल है, उलझाव
है, वह यही
है कि कृष्ण
कहते हैं, कर्म
वासनारहित,
कामनारहित!
तो कर्म होगा
कैसे? क्योंकि
कर्म का मोटिवेशन,
कर्म की
प्रेरणा कहां
से उत्पन्न
होती है? कर्म
की प्रेरणा तो
कामना से ही
उत्पन्न होती है।
कुछ हम चाहते
हैं, इसलिए
कुछ हम करते
हैं। चाह पहले,
करना पीछे।
विषय पहले, कर्म पीछे।
आकांक्षा
पहले, फिर
छाया की तरह
हमारा कर्म
आता है। अगर हम
छोड़ दें चाहना,
डिजायर,
इच्छा, विषय,
तो कर्म
आएगा कैसे? मोटिवेशन नहीं होगा।
अगर हम
पश्चिम के
मनोविज्ञान
से भी पूछें--जो
कि मोटिवेशन
पर बहुत काम
कर रहा
है--कर्म की
प्रेरणा क्या
है? तो
पश्चिम के
पूरे
मनोवैज्ञानिक
एक स्वर से कहते
हैं कि बिना
कामना के कर्म
नहीं हो सकता
है।
कृष्ण
का
मनोविज्ञान
आधुनिक
मनोविज्ञान
से बिलकुल
उलटी बात कह
रहा है। वे यह
कह रहे हैं कि
कर्म जब तक
कामना से बंधा
है, तब तक
सिवाय दुख और
अंधकार के
कहीं भी नहीं
ले जाता है।
जिस दिन कर्म
कामना से
मुक्त होता है--परलोक
की कामना से
भी, स्वर्ग
की कामना से
भी--जिस दिन
कर्म शुद्ध
होता है, प्योर एक्ट हो
जाता है, जिसमें
कोई चाह की
जरा भी
अशुद्धि नहीं
होती, उस
दिन ही कर्म
निष्काम है और
योग बन जाता
है।
और
वैसा कर्म
स्वयं में
मुक्ति है।
वैसे कर्म के
लिए किसी
मोक्ष की आगे
कोई जरूरत
नहीं है। वैसे
कर्म का कोई
मोक्ष भविष्य
में नहीं है।
वैसा कर्म अभी
और यहीं, हियर एंड नाउ
मुक्ति है।
वैसा कर्म
मुक्ति है।
वैसे कर्म का
मुक्ति फल
नहीं है, वैसे
कर्म की निजता
ही मुक्ति है।
इसे
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है, क्योंकि आगे
बार-बार, उसके
इर्द-गिर्द
बात घूमेगी।
और कृष्ण के
संदेश की
बुनियाद में
वह बात छिपी
है। क्या कर्म
हो सकता है
बिना कामना के?
क्या बिना
चाह के हम कुछ
कर सकते हैं? तो फिर
प्रेरणा कहां
से उपलब्ध
होगी? वह
स्रोत कहां से
आएगा, वह
शक्ति कहां से
आएगी, जो
हमें खींचे
और कर्म में
संयुक्त करे?
जिस
जगत में हम
जीते हैं और
जिस कर्मों के
जाल से हम अब
तक परिचित रहे
हैं, उसमें
शायद ही एकाध
ऐसा कर्म हो
जो अनमोटिवेटेड
हो--शायद ही।
अगर कभी ऐसा
कोई कर्म भी
दिखाई पड़ता हो,
जो अनमोटिवेटेड
मालूम होता है,
जिसमें आगे
कोई मोटिव,
जिसमें आगे
कोई पाने की
आकांक्षा
नहीं होती, उसमें भी
थोड़ा भीतर खोजेंगे,
तो मिल
जाएगी।
रास्ते
पर आप चल रहे
हैं। आपके आगे
कोई है, उसका
छाता गिर गया।
आप उठाकर
दे देते हैं--अनमोटिवेटेड।
उठाते वक्त आप
यह भी नहीं
सोचते कि क्या
फल, क्या
उपलब्धि, क्या
मिलेगा? नहीं, यह
सोच नहीं
होता। छाता
गिरा, आपने
उठाया, दे
दिया। दिखाई
पड़ता है, अनमोटिवेटेड है।
क्योंकि न घर
से सोचकर
चले थे कि
किसी का छाता गिरेगा, तो उठाएंगे।
छाता गिरा, उसके एक
क्षण पहले तक
छाता उठाने की
कोई भी योजना
मन में न थी।
छाता गिरने और
छाता उठाने के
बीच भी कोई
चाह दिखाई
नहीं पड़ती है।
लेकिन
फिर भी, मनोविज्ञान
कहेगा, अनकांशस मोटिवेशन
है। अगर छाता
देने के बाद
वह आदमी
धन्यवाद न दे,
तो दुख
होगा। छाता
दबा ले और चल
पड़े, तो आप चौकन्ने
से खड़े रह
जाएंगे कि
कैसा आदमी है,
धन्यवाद भी
नहीं! अगर
पीछे इतना भी
स्मरण आता है
कि कैसा आदमी
है, धन्यवाद
भी नहीं! तो मोटिवेशन
हो गया। सचेतन
नहीं था, आपने
सोचा नहीं था,
लेकिन मन के
किसी गहरे तल
पर छिपा था।
अब पीछे से हम
कह सकते हैं
कि धन्यवाद
पाने के लिए
छाता उठाया? आप कहेंगे,
नहीं, धन्यवाद
का तो कोई
विचार ही न था;
यह तो पीछे
पता चला।
लेकिन
जो नहीं था, वह पीछे भी
पता नहीं चल
सकता है। जो
बीज में न छिपा
हो, वह
प्रकट भी नहीं
हो सकता है।
जो अव्यक्त न
रहा हो, वह
व्यक्त भी
नहीं हो सकता
है। कहीं छिपा
था, किसी अनकांशस, किसी अचेतन
के तल पर दबा
था, राह
देखता था।
नहीं, सचेतन
कोई कामना
नहीं थी, लेकिन
अचेतन कामना
थी।
जीवन
में ऐसे कुछ
क्षण हमें
मालूम पड़ते
हैं, जहां लगता
है, अनमोटिवेटेड,
निष्काम
कोई कृत्य
घटित हो गया
है। लेकिन उसे
भी पीछे से लौटकर
देखें, तो
लगता है, कामना
कहीं छिपी थी।
इसलिए पश्चिम
का मनोविज्ञान
कहेगा कि
चाहे दिखाई
पड़े और चाहे न
दिखाई पड़े, जहां भी
कर्म है, वहां
कामना है; इतना
ही फर्क हो
सकता है कि वह चेतन
है या अचेतन
है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, ऐसा कर्म
हो सकता है, जहां कामना
नहीं हो। यह
वक्तव्य बहुत
महत्वपूर्ण
है। इसे समझने
के लिए दो-चार
ओर से हम यात्रा
करेंगे। एक
छोटी-सी कहानी
से आपको कहना चाहूंगा।
क्योंकि जो
हमारी जिंदगी
में परिचित
नहीं है, उसे
हमें किसी और
की जिंदगी में
झांकना पड़े।
और हमारी जिंदगी
ही इति नहीं
है। हमें किसी
और जिंदगी में
झांकना पड़े, देखना पड़े
कि क्या यह
संभव है? इज़ इट
पासिबल? पहले तो यही
देख लें कि
क्या यह संभव
है? अगर
संभावना
दिखाई पड़े, तो शायद कल
सत्य भी हो
सकती है।
अकबर
एक दिन तानसेन
को कहा है, तुम्हारे
संगीत को
सुनता हूं, तो मन में
ऐसा खयाल उठता
है कि तुम
जैसा बजाने
वाला शायद ही
पृथ्वी पर हो!
आगे भी कभी
होगा, यह
भी भरोसा नहीं
आता। क्योंकि
इससे ऊंचाई और
क्या हो सकेगी,
इसकी धारणा
भी नहीं बनती
है। तुम शिखर
हो। लेकिन कल
रात जब
तुम्हें विदा
किया था, सोने
गया था, तो
मुझे खयाल आया,
हो सकता है,
तुमने भी
किसी से सीखा
हो, कोई
तुम्हारा
गुरु हो। तो
मैं आज तुमसे
पूछता हूं कि
तुम्हारा कोई
गुरु है? तुमने
किसी से सीखा
है?
तो तानसेन
ने कहा, मैं
कुछ भी नहीं
हूं गुरु के
सामने; जिससे
सीखा है, उसके
चरणों की धूल
भी नहीं हूं।
इसलिए वह खयाल
मन से छोड़ दें।
शिखर! भूमि पर
भी नहीं हूं।
लेकिन आपने मुझे
ही जाना है, इसलिए आपको
शिखर मालूम
पड़ता हूं। ऊंट
जब पहाड़ के
करीब आता है, तब उसे पता
चलता है, अन्यथा
वह पहाड़ होता
ही है। पर, तानसेन
ने कहा कि मैं
गुरु के चरणों
में बैठा हूं;
मैं कुछ भी
नहीं हूं। कभी
उनके चरणों
में बैठने की
योग्यता भी हो
जाए, तो समझूंगा
बहुत कुछ पा
लिया।
तो अकबर
ने कहा, तुम्हारे
गुरु जीवित
हों तो
तत्क्षण, अभी
और आज उन्हें
ले आओ, मैं
सुनना चाहूंगा।
पर तानसेन
ने कहा, यही
कठिनाई है।
जीवित वे हैं,
लेकिन उन्हें
लाया नहीं जा
सकता।
अकबर
ने कहा, जो
भी भेंट करनी
हो, तैयारी
है। जो भी! जो
भी इच्छा हो, देंगे। तुम
जो कहो, वही देंगे। तानसेन ने
कहा, वही
कठिनाई है, क्योंकि
उन्हें कुछ
लेने को राजी
नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि वह
कुछ लेने का
प्रश्न ही नहीं
है। अकबर
ने कहा, कुछ
लेने का
प्रश्न नहीं
है! तो क्या
उपाय किया जाए?
तानसेन ने कहा, कोई
उपाय नहीं, आपको ही
चलना पड़े। तो
उन्होंने कहा,
मैं अभी
चलने को तैयार
हूं। तानसेन
ने कहा, अभी
चलने से तो
कोई सार नहीं
है। क्योंकि
कहने से वे बजाएंगे,
ऐसा नहीं
है। जब वे
बजाते हैं, तब कोई सुन
ले, बात और
है। तो मैं
पता लगाता हूं
कि वे कब बजाते
हैं। तब हम
चलेंगे।
पता
चला--हरिदास
फकीर उसके
गुरु थे, यमुना
के किनारे
रहते थे--पता
चला, रात
तीन बजे उठकर
वे बजाते हैं,
नाचते हैं।
तो शायद ही
दुनिया के
किसी अकबर
की हैसियत के
सम्राट ने तीन
बजे रात चोरी से
किसी
संगीतज्ञ को
सुना हो। अकबर
और तानसेन
चोरी से झोपड़ी
के बाहर ठंडी
रात में छिपकर
बैठे रहे।
पूरे समय अकबर
की आंखों से
आंसू बहते
रहे। एक शब्द बोला
नहीं।
संगीत
बंद हुआ। वापस
होने लगे।
सुबह फूटने लगी।
राह में भी तानसेन
से अकबर बोला
नहीं। महल के
द्वार पर तानसेन
से इतना ही
कहा, अब तक
सोचता था कि
तुम जैसा कोई
भी नहीं बजा
सकता। अब
सोचता हूं कि
तुम हो कहां!
लेकिन क्या बात
है? तुम
अपने गुरु
जैसा क्यों
नहीं बजा सकते
हो?
तानसेन
ने कहा, बात
तो बहुत साफ
है। मैं कुछ
पाने के लिए
बजाता हूं, और मेरे
गुरु ने कुछ
पा लिया है, इसलिए बजाते
हैं। मेरे बजाने
के आगे कुछ
लक्ष्य है, जो मुझे
मिले, उसमें
मेरे प्राण
हैं। इसलिए बजाने में
मेरे प्राण
पूरे कभी नहीं
हो सकते। बजाने
में मैं सदा
अधूरा हूं, अंश हूं।
अगर बिना बजाए
भी मुझे वह
मिल जाए जो बजाने
से मिलता है, तो बजाने
को फेंककर
उसे पा लूंगा।
बजाना मेरे
लिए साधन है, साध्य नहीं
है। साध्य
कहीं और
है--भविष्य
में, धन
में, यश
में, प्रतिष्ठा
में--साध्य
कहीं और है, संगीत सिर्फ
साधन है। साधन
कभी आत्मा
नहीं बन पाती;
साध्य में
ही आत्मा अटकी
होती है। अगर
साध्य बिना
साधन के मिल
जाए, तो
साधन को छोड़
दूं अभी।
लेकिन नहीं
मिलता साधन के
बिना, इसलिए
साधन को
खींचता हूं।
लेकिन दृष्टि
और प्राण और
आकांक्षा और
सब घूमता है
साध्य के निकट।
लेकिन जिनको
आप सुनकर
आ रहे हैं, संगीत
उनके लिए कुछ
पाने का साधन
नहीं है। आगे
कुछ भी नहीं
है, जिसे
पाने को वे
बजा रहे हैं।
बल्कि पीछे
कुछ है, जिससे
उनका संगीत
फूट रहा है और
बज रहा है। कुछ
पा लिया है, कुछ भर गया
है, वह बह
रहा है। कोई
अनुभूति, कोई
सत्य, कोई
परमात्मा
प्राणों में
भर गया है। अब
वह बह रहा है, ओवर फ्लोइंग
है।
अकबर
बार-बार पूछने
लगा, किसलिए? किसलिए?
स्वभावतः, हम भी पूछते
हैं, किसलिए?
पर तानसेन
ने कहा, नदियां किसलिए बह
रही हैं? फूल
किसलिए खिल
रहे हैं? सूर्य
किसलिए निकल
रहा है?
किसलिए, मनुष्य की
बुद्धि ने
पैदा किया है।
सारा जगत ओवर
फ्लोइंग
है, आदमी
को छोड़कर।
सारा जगत आगे
के लिए नहीं
जी रहा है, सारा
जगत भीतर से
जी रहा है। फूल
खिल रहा है, खिलने में ही आनंद
है। सूर्य
निकल रहा है, निकलने में
ही आनंद है।
हवाएं बह रही
हैं, बहने
में ही आनंद
है। आकाश है, होने में ही
आनंद है। आनंद
आगे नहीं, अभी
है, यहीं
है।
और जो
हो रहा है, वह भीतर की
ऊर्जा से
अकारण बहाव
है--अनमोटिवेटेड
एक्ट।
जिस पर कि
कृष्ण का सारा
कर्मयोग खड़ा
होगा। वह जीवन
को भविष्य की
तरफ से पकड़ना
नहीं, वह
जीवन को
आकांक्षा की
तरफ से खींचना
नहीं, वरन
व्यक्ति के
भीतर छिपा जो
अव्यक्त है, उसकी ओवर
फ्लोइंग,
उसका ऊपर से
बह जाना है।
कृत्य, जिस
दिन आपके
जीवन-ऊर्जा की
ओवर फ्लोइंग
है, ऊपर से
बह जाना है, उस दिन
निष्काम है।
और जब तक
भविष्य के लिए
किसी कारण से
बहना है, तब
तक सकाम है।
सकाम कर्म योग
नहीं है, निष्काम
कर्म योग है।
इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है कि वह
कामना भविष्य
की, स्वर्ग
की, मोक्ष
की, परमात्मा
की--इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। अगर एक
व्यक्ति
मंदिर में भजन
गा रहा है,
और इस भजन
में भी इतनी
कामना है कि
ईश्वर को पा लूं, तो
यह भजन व्यर्थ
हो गया, यह
भजन योग न
रहा। ईश्वर को
पाने की कामना
भी कामना ही
है। और कामना
से कभी ईश्वर
पाया नहीं जाता।
ईश्वर तो निष्कामना
में उपलब्ध
है। अगर भजन
में इतनी भी
कामना है कि
ईश्वर को पा लूं, तो
भजन व्यर्थ
हुआ। अगर
प्रार्थना
में इतनी भी
मांग है कि
तेरे दर्शन हो
जाएं, तो
प्रार्थना
व्यर्थ हो गई।
लेकिन
प्रार्थना अनमोटिवेटेड
है; नहीं
किसी को पाने
के लिए, वरन
भीतर के भाव
से जन्मी है
और अपने में
पूरी है, अपने
में पूरी है--आगे
कुछ द्वार
नहीं खोज रही
है--तो
प्रार्थना है।
और उसी क्षण
में
प्रार्थना
सफल है, जिस
क्षण
प्रार्थना
निष्काम है।
प्रत्येक कर्म
प्रार्थना बन
जाता है, अगर
निष्काम बन
जाए। और
प्रत्येक
प्रार्थना बंधन
बन जाती है, अगर सकाम बन
जाए।
लेकिन
हम जैसे दुकान
चलाते हैं, वैसे ही
पूजा भी करते
हैं। दुकान भी
मोटिवेटेड
होती है, पूजा
भी। दुकान में
भी कुछ पाने
को होता है, पूजा में
भी। पाप भी
करते हैं, तो
भी कुछ पाने
को करते हैं।
पुण्य भी करते
हैं, तो
कुछ पाने को
करते हैं। और
कृष्ण कह रहे
हैं कि पाने
के लिए करना
ही अधर्म है।
पाने की
आकांक्षा के
बिना जो कृत्य
का फूल खिलता
है--दि फ्लावरिंग
आफ दि
प्योर एक्ट--शुद्ध
कर्म जब खिलता
है बिना किसी
कारण के...।
इस
संबंध में इमेनुअल
कांट का
नाम लेना
जरूरी है। जर्मनी
में कांट
ने करीब-करीब
कृष्ण से
मिलती-जुलती
बात कही है।
उसने कहा कि
अगर कर्तव्य में
जरा-सी भी
आकांक्षा है, तो कर्तव्य
पाप हो गया।
जरा-सी भी!
कर्तव्य तभी
कर्तव्य है, जब बिलकुल
शुद्ध है, उसमें
कोई आकांक्षा
नहीं है।
यह
हमें कठिन पड़ेगा।
क्योंकि
हमारी जिंदगी
में ऐसा कोई
कर्म नहीं है, जिससे हमारी
पहचान हो, जिससे
हम समझ पाएं।
लेकिन ऐसे
कर्म के लिए
द्वार खोले
जा सकते हैं।
मैंने
कहा, रास्ते
पर एक आदमी है,
उसका छाता
गिर गया है।
आप छाता उठाएं,
दे दें, और
छाता उठाकर
देते समय भीतर
देखते रहें कि
कोई मांग तो
नहीं उठती
है! सिर्फ
देखते रहें।
छाता उठाकर
दें और अपने
रास्ते पर चल
पड़ें और भीतर
देखते रहें कि
कोई मांग तो
नहीं उठती
धन्यवाद की
भी! उठेगी;
लेकिन
देखते रहें, दो-चार
कृत्यों में
देखते रहें और
अचानक पाएंगे,
क्या
पागलपन है!
गिर जाएगी।
दिन
में जो आदमी
एक कृत्य भी अनमोटिवेटेड
कर ले, वह
कृष्ण की गीता
को समझ पा
सकता है। एक
कृत्य भी
चौबीस घंटे
में अनमोटिवेटेड
कर ले, जिसमें
कि कुछ न हो, चेतन-अचेतन
कोई मांग न
हो--बस किया और
हट गए और चले
गए--तो कृष्ण
की गीता को, और कृष्ण के
कर्मयोग को
समझने का
मार्ग खुल जाएगा।
रोज गीता न पढ़ें,
चलेगा।
लेकिन एक
कृत्य चौबीस
घंटे में ऐसा
खिल जाए, जिसमें
हमारी कोई भी
कामना नहीं है;
बस, जिसमें
करना ही
पर्याप्त है
और हम बाहर हो
गए और चल पड़े।
कठिन
नहीं है। अगर
थोड़ी खोज-बीन
करें, तो
बहुत कठिन
नहीं है।
छोटी-छोटी, छोटी-छोटी घटनाओं
में उसकी झलक
मिल सकती है।
और यह
जो कृष्ण
अर्जुन से कह
रहे हैं, वह
पूरा का पूरा
प्रयोगात्मक
है। होगा ही।
यह कोई
गुरुकुल में बैठकर, किसी
वृक्ष के तले,
किसी आश्रम
में हुई चर्चा
नहीं है। यह
युद्ध के स्थल
पर, जहां
सघन कर्म
प्रतीक्षा कर
रहा है, वहां
हुई चर्चा है।
यह चर्चा किसी
शांत वट-वृक्ष
के नीचे बैठकर
कोई
तत्व-चर्चा
नहीं है, यह
कोरी
तत्व-चर्चा
नहीं है। यह
सघन कर्म के
बीच, ठीक
युद्ध के क्षण
में--युद्ध से
ज्यादा सघन कृत्य
और क्या
होगा--वहां
हुई यह चर्चा
है। और अर्जुन
से कृष्ण कह
रहे हैं कि
अगर स्वर्ग तक
की भी कामना
मन में
है--किसी भी
विषय की--तो सब
व्यर्थ हो
जाता है।
कर्मयोग
का सार, कर्म
ऋण कामना है।
काम से कामना
गई...।
हमने
तो काम शब्द
ही रखा हुआ है
कर्म के लिए।
क्योंकि काम
कामना से ही बनता है।
हम तो कहते
हैं, काम वही
है, जो
कामना से चलता
है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, काम से
अगर कामना घट
जाए तो
कर्मयोग। तो
फिर साधारण
कर्म नहीं रह
जाता है वह, योग बन जाता
है। और योग बन
जाए, तो न
पाप है, न
पुण्य है; न
बंधन है, न
मुक्ति
है--दोनों के
बाहर है
व्यक्ति।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो
भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो
निर्योगक्षेम
आत्मवान्।।
४५।।
हे
अर्जुन, सब
वेद तीनों
गुणों के
कार्य रूप
संसार को विषय
करने वाले, अर्थात
प्रकाश करने
वाले हैं,
इसलिए
तू असंसारी, अर्थात निष्कामी
और सुख-दुःखादि
द्वंद्वों से
रहित, नित्य
वस्तु में
स्थित तथा
योगक्षेम को
न
चाहने वाला और
आत्मवान
हो।
राग और
द्वेष से
मुक्त, द्वंद्व
से रहित और
शून्य। राग और
द्वेष से मुक्त,
दो में से
एक पर होना सदा
आसान है। राग
में होना आसान
है, विराग
में भी होना
आसान है।
विराग द्वेष
है। धन को पकड़ना
आसान है, धन
को त्यागना
आसान है। पकड़ना
राग है, त्यागना
द्वेष है। राग
और द्वेष
दोनों से मुक्त
हो जाओ, शून्य
हो जाओ, रिक्त
हो जाओ, तो
जिसे महावीर
ने वीतरागता
कहा है, उसे
उपलब्ध होता
है व्यक्ति।
द्वंद्व
में चुनाव
आसान है, चुनावरहित होना कठिन
है। च्वाइस
आसान है, च्वाइसलेसनेस कठिन है।
कहें मन को कि
इसे चुनते हैं,
तो मन कहता
है--ठीक। कहें
मन को, इसके
विपरीत चुनते
हैं, तो भी
मन कहता
है--ठीक। चुनो
जरूर! क्योंकि
जहां तक चुनाव
है, वहां
तक मन जी सकता
है। चुनाव कोई
भी हो, इससे
फर्क नहीं
पड़ता--घर चुनो,
जंगल चुनो;
मित्रता चुनो, शत्रुता
चुनो; धन
चुनो, धन-विरोध
चुनो; कुछ
भी चुनो, प्रेम चुनो,
घृणा चुनो;
क्रोध चुनो,
क्षमा चुनो;
कुछ भी चुनो--च्वाइस हो,
तो मन जीता
है। लेकिन कुछ
भी मत चुनो,
तो मन
तत्काल--तत्काल--गिर
जाता है। मन
के आधार गिर
जाते हैं। च्वाइस
मन का आधार है,
चुनाव मन का
प्राण है।
इसलिए
जब तक चुनाव
चलता है जीवन
में, तब तक आप
कितना ही
चुनाव बदलते
रहें, इससे
बहुत फर्क
नहीं पड़ता है।
संसार छोड़ें,
मोक्ष
चुनें; पदार्थ
छोड़ें, परमात्मा
चुनें; पाप
छोड़ें, पुण्य
चुनें--कुछ भी
चुनें। यह
सवाल नहीं है
कि आप क्या
चुनते हैं, सवाल गहरे
में यह है कि
क्या आप चुनते
हैं? अगर
चुनते हैं, अगर च्वाइस
है, तो
द्वंद्व
रहेगा।
क्योंकि किसी
को छोड़ते
हैं और किसी
को चुनते हैं।
यह भी
समझ लेना
जरूरी है कि
जिसे छोड़ते
हैं, उसे पूरा
कभी नहीं छोड़
पा सकते हैं।
क्योंकि जिसे
छोड़ना पड़ता है,
उसकी मन में
गहरी पकड़ होती
है। नहीं तो
छोड़ना क्यों पड़ेगा? अगर
एक आदमी के मन
में धन की कोई
पकड़ न हो, तो
वह धन का
त्याग कैसे
करेगा? त्याग
के लिए पकड़
अनिवार्य है।
अगर एक आदमी
की कामवासना
में, सेक्स
में रुचि न हो,
लगाव न हो, आकर्षण न हो,
तो वह
ब्रह्मचर्य
कैसे चुनेगा?
और जिसमें
आकर्षण है, लगाव है, उसके
खिलाफ हम चुन
रहे हैं, तो
ज्यादा से
ज्यादा हम दमन
कर सकते हैं, सप्रेशन कर सकते
हैं। और कुछ
होने वाला
नहीं है; दब
जाएगा। जिसे
हमने इनकार
किया, वह
हमारे अचेतन
में उतर
जाएगा। और
जिसे हमने
स्वीकार किया,
वह हमारा
चेतन बन
जाएगा।
हमारा
मन, जिसे
अस्वीकार
करता है, उसे
अंधेरे में ढकेल देता
है। हमारे
सबके मन के
गोडाउन हैं।
घर में जो चीज
बेकार हो जाती
है, उसे हम कबाड़खाने
में डाल देते
हैं। ऐसे ही
चेतन मन जिसे
इनकार कर देता
है, उसे
अचेतन में डाल
देता है। जिसे
स्वीकार कर लेता
है, उसे
चेतन में ले
आता है। चेतन
मन हमारा बैठकखाना
है।
लेकिन
किसी भी आदमी
का घर बैठकखाने
में नहीं
होता। बैठकखानों
में सिर्फ
मेहमानों का
स्वागत किया
जाता है, उसमें
कोई रहता
नहीं। असली घर
बैठकखाने
के बाद शुरू
होता है। बैठकखाना
घर का हिस्सा
नहीं है, तो
भी चलेगा। कह
सकते हैं कि बैठकखाना
घर का हिस्सा
नहीं है।
क्योंकि घर
वाले बैठकखाने
में नहीं रहते,
बैठकखाने में सिर्फ अतिथियों
का स्वागत
होता है। बैठकखाना
सिर्फ फेस
है, बैठकखाना सिर्फ एक
चेहरा है, दिखावा
है घर का, असली
घर नहीं है। बैठकखाना
एक डिसेप्शन
है, एक
धोखा है, जिसमें
बाहर से आए
लोगों को धोखा
दिया जाता है
कि यह है
हमारा घर।
हालांकि
उसमें कोई
रहता नहीं, न उसमें कोई
सोता, न
उसमें कोई
खाता, न
उसमें कोई
पीता। उसमें
कोई नहीं रहता,
वह घर है ही
नहीं। वह सिर्फ
घर का धोखा
है। बैठकखाने
के बाद घर
शुरू होता है।
चेतन
मन हमारा, जगत के दिखावे
के लिए बैठकखाना
है। उससे हम
दूसरों से
मिलते-जुलते
हैं। लेकिन
उसके गहरे में
हमारा असली
जीवन शुरू
होता है। जब
भी हम चुनाव
करते हैं, तो
चुनाव से कोई
चीज मिटती
नहीं। चुनाव
से सिर्फ बैठकखाने
की चीजें
घर के भीतर
चली जाती हैं।
चुनाव से, सिर्फ
जिसे हम चुनते
हैं, उसे बैठकखाने
में लगा देते
हैं। वह हमारा
डेकोरेशन
है।
इसलिए दिनभर जो
आदमी धन को
इनकार करता है, कहता है कि
नहीं, मैं
त्याग को चुना
हूं, रात
सपने में धन
को इकट्ठा
करता है। जो दिनभर कामवासना
से लड़ता
है, रात
सपने में कामवासना
से घिर
जाता है। जो दिनभर
उपवास करता है,
रात राजमहलों
में
निमंत्रित हो
जाता है भोजन
के लिए।
सपने
में एसर्ट
करता है वह जो
भीतर छिपा है।
वह कहता है, बहुत हो गया दिनभर अब
चुनाव, अब
हम प्रतीक्षा
कर रहे हैं दिनभर
से भीतर, अब
हमसे भी मिलो।
वह जाता नहीं
है, वह
सिर्फ दबा
रहता है।
और एक
मजे की बात है
कि जो भीतर
दबा है, वह
शक्ति-संपन्न
होता जाता है।
और जो बैठकखाने
में है, वह
धीरे-धीरे
निर्बल होता
जाता है। और
जल्दी ही वह
वक्त आ जाता
है कि जिसे
हमने दबाया है,
वह अपनी उदघोषणा
करता है; विस्फोट
होता है। वह
निकल पड़ता है
बाहर।
अच्छे
से अच्छे आदमी
को, जिसकी
जिंदगी
बिलकुल बढ़िया,
सुंदर, स्मूथ, समतल
भूमि पर चलती
है, उसे भी
शराब पिला दें,
तो पता
चलेगा, उसके
भीतर
क्या-क्या
छिपा है! सब
निकलने लगेगा।
शराब किसी
आदमी में कुछ
पैदा नहीं
करती। शराब
सिर्फ बैठकखाने
और घर का
फासला तोड़
देती है, दरवाजा
खोल देती है।
अभी
पश्चिम में एक
फकीर था गुरजिएफ।
उसके पास जो
भी साधक आता, तो पंद्रह
दिन तो उसको
शराब में
डुबाता। कैसा पागल
आदमी होगा? नहीं, समझदार
था। क्योंकि
वह यह कहता है
कि जब तक मैं
उसे न देख लूं,
जिसे तुमने
दबाया है, तब
तक मैं
तुम्हारे साथ
कुछ भी काम
नहीं कर सकता।
क्योंकि तुम
क्या कह रहे
हो, वह
भरोसे का नहीं
है। तुम्हारे
भीतर क्या पड़ा
है, वही
जान लेना
जरूरी है।
तो
एकदम शराब
पिलाता
पंद्रह दिन; इतना डुबा
देता शराब
में। फिर उस
आदमी का असली
चेहरा खोजता कि
भीतर कौन-कौन
छिपा है, किस-किस
को दबाया है!
तुम्हारी च्वाइस
ने क्या-क्या
किया है, इसे
जानना जरूरी
है, तभी
रूपांतरण हो
सकता है।
कई लोग
तो भाग जाते
कि हम यह
बरदाश्त नहीं
कर सकते।
लेकिन गुरजिएफ
कहता कि
पंद्रह दिन तो
जब तक मैं
तुम्हें शराब
में न डुबा लूं, जब तक मैं
तुम्हारे
भीतरी घर में
न झांक लूं
कि तुमने
क्या-क्या दबा
रखा है, तब
तक मैं तुमसे
बात भी नहीं
करूंगा।
क्योंकि तुम
जो कहते हो, उसको सुनकर
अगर मैं
तुम्हारे साथ
मेहनत करूं, तो मेहनत
व्यर्थ चली
जाएगी।
क्योंकि तुम
जो कहते हो, पक्का नहीं
है कि तुम वही
हो, भीतर
तुम कुछ और हो
सकते हो। और
अंतिम
निष्कर्ष पर,
तुम्हारे
जो भीतर पड़ा
है, वही
निर्णायक है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, चुनना
मत। क्योंकि
चुनाव किया कि
भीतर गया वह; जिसे तुमने छोड़ा, दबाया,
वह अंदर
गया। और जिसे
तुमने उभारा
और स्वीकारा,
वह ऊपर आया।
बस, इससे
ज्यादा फर्क
नहीं पड़ेगा।
द्वंद्व बना
ही रहेगा। और
द्वंद्व क्या
है? कांफ्लिक्ट क्या है?
द्वंद्व
एक ही है, चेतन
और अचेतन का
द्वंद्व है।
आपने कसम ली
है, क्रोध
नहीं करेंगे।
कसम आपकी चेतन
मन में, कांशस माइंड
में रहेगी।
और क्रोध की ताकतें
अचेतन मन में रहेंगी।
कल कोई गाली
देगा, अचेतन
मन कहेगा,
करो क्रोध!
और चेतन मन कहेगा,
कसम खाई है
कि क्रोध नहीं
करना है। और
द्वंद्व खड़ा
होगा। लड़ोगे
भीतर।
और
ध्यान रहे, जब भी लड़ाई
होगी, तो
अचेतन जीतेगा।
इमरजेंसी
में हमेशा
अचेतन जीतेगा।
बेकाम समय में
चेतन जीतता
हुआ दिखाई पड़ेगा,
काम के समय
में अचेतन जीतेगा।
क्यों? क्योंकि
मनोविज्ञान
की अधिकतम
खोजें इस नतीजे
पर पहुंची हैं
कि चेतन मन
हमारे मन का
एक हिस्सा है।
अगर हम मन के
दस हिस्से
करें, तो
एक हिस्सा
चेतन और नौ
हिस्सा अचेतन
है। नौगुनी
ताकत है उसकी।
तो वह
जो नौगुनी
ताकत वाला मन
है, वह
प्रतीक्षा करता
है कि कोई
हर्जा नहीं।
सुबह जब गीता
का पाठ करते
हो तब कोई
फिक्र नहीं, कसम खाओ
कि क्रोध नहीं
करेंगे।
मंदिर जब जाते
हो, तब कोई
फिक्र नहीं, मंदिर कोई
जिंदगी है! कहो
कि क्रोध नहीं
करेंगे। देख
लेंगे दुकान
पर! देख लेंगे
घर में! जब
मौका आएगा
असली, तब
एकदम चेतन हट
जाता है और
अचेतन हमला
बोल देता है।
इसीलिए
तो हम कहते
हैं, क्रोध
करने के बाद
आदमी कहता है
कि पता नहीं कैसे
मैंने क्रोध
कर लिया! मेरे
बावजूद--इंस्पाइट
आफ मी--मेरे
बावजूद क्रोध
हो गया। लेकिन
आपके बावजूद
क्रोध कैसे हो
सकता है? निश्चित
ही, आपने
अपने ही किसी
गहरे हिस्से
को इतना दबाया
है कि उसको आप
दूसरा समझने
लगे हैं, कि
वह और है। वह
हमला बोल देता
है। जब वक्त
आता है, वह
हमला बोल देता
है।
यह जो
द्वंद्व है, यह जो कांफ्लिक्ट
है, यही
मनुष्य का नरक
है। द्वंद्व
नरक है। कांफ्लिक्ट
के अतिरिक्त
और कोई नरक
नहीं है। और
हम इसको बढ़ाए
चले जाते हैं।
जितना हम
चुनते जाते
हैं, बढ़ाए चले जाते
हैं।
तो
कृष्ण इस
सूत्र में
कहते हैं, राग और
द्वेष
से--द्वंद्व
से, कांफ्लिक्ट से--जो बाहर
हो जाता है, जो चुनाव के
बाहर हो जाता
है, वही
जीवन के परम
सत्य को जान
पाता है। और
जो द्वंद्व के
भीतर घिरा
रहता है, वह
सिर्फ जीवन के
नरक को ही जान
पाता है।
इस
द्वंद्व-अतीत वीतरागता
में ही
निष्काम कर्म
का फूल खिल
सकता है। या निष्काम
कर्म की
भूमिका हो, तो यह द्वंद्वरहित,
राग-द्वेषरहित,
यह
शून्य-चेतना
फलित हो सकती
है।
चेतना
जब शून्य होती
है, तभी
शुद्ध होती है।
यह शून्य का
कृष्ण का
कहना! चेतना
जब शून्य होती
है, तभी
शुद्ध होती है;
जब शुद्ध
होती है, तब
शून्य ही होती
है।
करीब-करीब
ऐसा समझें
कि एक दर्पण
है। दर्पण कब शुद्धतम
होता है? जब
दर्पण में कुछ
भी नहीं
प्रतिफलित
होता, जब
दर्पण में कोई
तस्वीर नहीं बनती। जब
तक दर्पण में
तस्वीर बनती
है, तब तक
कुछ फारेन,
कुछ
विजातीय
दर्पण पर छाया
रहता है। जब
तक दर्पण पर
कोई तस्वीर बनती है, तब तक दर्पण
सिर्फ दर्पण
नहीं होता, कुछ और भी
होता है। एक
तस्वीर
निकलती है, दूसरी बन
जाती है।
दूसरी निकलती
है, तीसरी
बन जाती है।
दर्पण पर कुछ
बहता रहता है।
लेकिन जब कोई
तस्वीर नहीं बनती, जब
दर्पण सिर्फ
दर्पण ही होता
है, तब
शून्य होता
है।
चेतना
सिर्फ दर्पण
है। जब तक उस
पर कोई तस्वीर
बनती
रहती है--कभी
राग की, कभी
विराग की; कभी
मित्रता की, कभी शत्रुता
की; कभी
बाएं की, कभी
दाएं की--कोई न
कोई तस्वीर बनती रहती
है, तो
चेतना अशुद्ध
होती है।
लेकिन अगर कोई
तस्वीर नहीं बनती, चेतना
द्वंद्व के
बाहर, चुनाव
के बाहर होती
है, तो
शून्य हो जाती
है। शून्य
चेतना में
क्या बनता
है? जब
दर्पण शून्य
होता है, तब
दर्पण ही रह
जाता है। जब
चेतना शून्य
होती है, तो
सिर्फ चैतन्य
ही रह जाती
है।
वह जो
चैतन्य की
शून्य
प्रतीति है, वही ब्रह्म
का अनुभव है।
वह जो शुद्ध
चैतन्य की
अनुभूति है, वही मुक्ति
का अनुभव है।
शून्य और
ब्रह्म, एक
ही अनुभव के
दो छोर हैं।
इधर शून्य हुए,
उधर ब्रह्म
हुए। इधर
दर्पण पर
तस्वीरें बननी
बंद हुईं
कि उधर भीतर
से ब्रह्म का
उदय हुआ।
ब्रह्म के दर्पण
पर तस्वीरों
का जमाव ही
संसार है।
हम असल
में दर्पण की
तरह व्यवहार
ही नहीं करते।
हम तो कैमरे
की फिल्म की
तरह व्यवहार
करते हैं। कैमरे
की फिल्म
प्रतिबिंब को
ऐसा पकड़ लेती
है कि छोड़ती
ही नहीं। फिल्म
मिट जाती है, तस्वीर ही
हो जाती है।
अगर हम
कोई ऐसा कैमरा
बना सकें, बना सकते
हैं, जिसमें
कि एक तस्वीर
के ऊपर दूसरी
और दूसरी के
ऊपर तीसरी ली
जा सके; एक
फिल्म पर अगर
हजार
तस्वीरें, लाख
तस्वीरें ली
जा सकें, तो
जो स्थिति उस
फिल्म की होगी,
वैसी
स्थिति हमारे
चित्त की है।
तस्वीरों पर
तस्वीरें, तस्वीरों
पर तस्वीरें
इकट्ठी हो
जाती हैं। कनफ्यूजन
के सिवाय कुछ
नहीं शेष
रहता। कोई शकल
पहचान में भी
नहीं आती है
कि किसकी
तस्वीर है।
कुछ पता भी
नहीं चलता कि
क्या है। एक नाइटमेयरिश,
एक
दुख-स्वप्न
जैसा चित्त हो
जाता है।
दर्पण तो
फिर भी बेहतर
है। एक तस्वीर
बनती है, मिट जाती है,
तब दूसरी बनती है।
हमारा चित्त
ऐसा दर्पण है,
जो
तस्वीरों को पकड़ता ही
चला जाता है; इकट्ठा करता
चला जाता है; तस्वीरें ही
तस्वीरें रह
जाती हैं।
उर्दू
के किसी कवि
की एक पंक्ति
है, जिसमें
उसने कहा है
कि मरने के
बाद घर से बस
कुछ तस्वीरें
ही निकली
हैं। मरने के
बाद हमारे घर
से भी कुछ
तस्वीरों के
सिवाय निकलने
को कुछ और
नहीं है। जिंदगीभर
तस्वीरों के
संग्रह के
अतिरिक्त
हमारा कोई और
कृत्य नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, शून्य, निर्द्वंद्व
चित्त...। छोड़ो
तस्वीरों को,
जानो दर्पण
को। मत करो
चुनाव, क्योंकि
चुनाव किया कि
पकड़ा। पकड़ो ही मत,
नो क्लिंगिंग।
रह जाओ वही, जो हो। उस
शून्य क्षण
में जो जाना
जाता है, वही
जीवन का परम
सत्य है, परम
ज्ञान है।
प्रश्न:
भगवान श्री, इस श्लोक
में यह र्वात्तिक
मिला, बहुत
यथार्थ है।
मगर एक
मुश्किल पड़ जाती
है कि त्रैगुण्यविषया
वेदा।
इसमें गीता
सर्व वेद पर
आक्षेप करती
है कि वे त्रैगुण्य
विषय से युक्त
हैं! और दूसरा,
उत्तरार्ध
में निर्योगक्षेम
आत्मवान,
तो आत्मवान
होना न होना
एक आंतरिक भाव
है, तो
श्रीकृष्ण
उसको
योगक्षेम
प्रवृत्ति की
बाह्य घटना से
क्यों जोड़ते
हुए दिखते हैं?
मात्र आत्मवान
होने से
योगक्षेम की
समस्या हल हो सकेगी?
कृष्ण
कहते हैं, समस्त वेद
सगुण से, तीन
गुणों से भरे
हैं, निर्गुण
नहीं हैं।
शब्द निर्गुण
नहीं हो सकता;
वेद ही नहीं,
कृष्ण का
शब्द भी
निर्गुण नहीं
हो सकता। और
जब वे कहते
हैं समस्त वेद,
तो उसका
मतलब है समस्त
शास्त्र, उसका
मतलब है समस्त
वचन, उसका
मतलब है समस्त
ज्ञान, जो
कहा गया, वह
कभी भी तीन
गुणों के बाहर
नहीं हो सकता।
इसे
ऐसा समझें
कि जो भी
अभिव्यक्त है, वह गुण के
बाहर नहीं हो
सकता। सिर्फ
अव्यक्त, अनभिव्यक्त,
अनमैनिफेस्टेड निर्गुण हो
सकता है, व्यक्त
तो सदा ही
सगुण होगा।
असल में
व्यक्त होने
के लिए गुण का
सहारा लेना
पड़ता है।
व्यक्त होने
के लिए गुण की
रूपरेखा लेनी
पड़ती है।
व्यक्त होने
के लिए गुण का
माध्यम चुनना
पड़ता है। जैसे
ही कुछ व्यक्त
होगा कि गुण
की सीमा में
प्रवेश कर
जाएगा।
वेद का
अर्थ है, व्यक्त
ज्ञान; वेद
का अर्थ है, शब्द में
सत्य। जब सत्य
को शब्द में
रखेंगे, तब
सत्य की
असीमता शेष न
रह जाएगी, वह
सीमित हो
जाएगा। कितना
ही बड़ा शब्द
हो, तो भी
सत्य को पूरा
न घेर पाएगा, क्योंकि
सत्य को पूरा
घेरा नहीं जा
सकता। कितनी
ही बड़ी
प्रतिमा हो, तो भी परमात्मा
को पूरा न घेर
पाएगी, क्योंकि
परमात्मा को
पूरा घेरा
नहीं जा सकता।
सब
शब्द, सब
व्यक्त सीमा
बनाते हैं।
गुणों की सीमा
बनाते हैं।
गुण से ही
व्यक्त होगा।
एक बीज में वृक्ष
निर्गुण हो
सकता है, निराकार
हो सकता है।
है, अभी
कोई आकार नहीं
है। लेकिन जब
बीज फूटेगा
और प्रकट होगा,
तो वृक्ष
आकार ले लेगा।
तो
जहां वे कह
रहे हैं वेद
के संबंध में, वह समस्त
वक्तव्य के
संबंध में कही
गई बात है।
उसमें गीता भी
समाहित हो गई
है। तो ऐसा
नहीं है कि
गीता वेद की
कोई उपेक्षा
कर रही है।
वेद में भी
ऐसे वचन हैं, जो कहेंगे,
शब्द से उसे
नहीं कहा जा
सकता।
समस्त
शास्त्रों की
गहरी से गहरी
कठिनाई यही है
कि शास्त्र
उसी को कहने
की चेष्टा में
संलग्न हैं, जो नहीं कहा
जा सकता है।
शास्त्र उसी
को बताने में
संलग्न हैं, जिसे बताने
के लिए कोई
उपाय नहीं है।
शास्त्र उसी
दिशा में
इंगित कर रहे
हैं, जो अदिशा
है, जो
दिशा नहीं है,
नो-डायमेंशन है।
अगर
मुझे वृक्ष
बताना हो, तो मैं
इशारा कर दूं
कि वह रहा।
अगर मुझे तारा
बताना हो, तो
बता दूं कि वह
रहा। लेकिन
अगर मुझे
परमात्मा
बताना हो, तो
अंगुली से
नहीं बताया जा
सकता, मुट्ठी
बांधकर
बताना पड़ेगा
और कहना पड़ेगा,
यह रहा।
क्योंकि
अंगुली तो समव्हेयर,
कहीं बताएगी;
और जो एवरीव्हेयर
है, उसे
अंगुली से
नहीं बताया जा
सकता। अंगुली
से बताने में
भूल हो जाने
वाली है, क्योंकि
अंगुली तो
कहीं इशारा
करती है उसको,
बाकी जगह भी
तो वही है।
नानक
गए मक्का। सो
गए रात।
पुजारी बहुत
नाराज हुए।
नानक को पकड़ा
और कहा कि बड़े मूढ़ मालूम पड़ते हो!
पवित्र मंदिर
की तरफ, परमात्मा
की तरफ पैर
करके सोते हो?
तो नानक ने
कहा कि मैं
बड़ी मुसीबत
में था; मैं
भी बहुत सोचा,
कोई उपाय
नहीं मिला। तुम्हीं
को मैं
स्वतंत्रता
देता हूं, तुम
मेरे पैर उस
तरफ कर दो, जहां
परमात्मा न हो।
वे
पुजारी
मुश्किल में
पड़े होंगे।
पुजारी हमेशा
नानक जैसे
आदमी से मिल
जाए, तो
मुश्किल में
पड़ता है।
क्योंकि
पुजारी को धर्म
का कोई पता
नहीं होता।
पुजारी को
धर्म का कोई
पता ही नहीं
होता। उसे
मंदिर का पता
होता है।
मंदिर की सीमा
है।
मुश्किल
में डाल दिया।
वही सवाल है
नानक का। नानक
कहते हैं, मेरे पैर उस
तरफ कर दो, जहां
परमात्मा न हो,
मैं राजी।
कहां
करें पैर? कहीं भी
करेंगे, परमात्मा
तो होगा।
मंदिर नहीं
होगा, काबा
नहीं होगा, परमात्मा तो
होगा। तो फिर
काबा में जो
परमात्मा है,
वह उसी
परमात्मा से
समतुल नहीं हो
सकता, जो
सब जगह है।
तो
काबा का
परमात्मा
सगुण हो
जाएगा। मंदिर
का परमात्मा
सगुण हो
जाएगा। शब्द
का परमात्मा सगुण
हो जाएगा।
शास्त्र का
परमात्मा
सगुण हो जाएगा।
बोला, कहा, प्रकट
हुआ कि सगुण
हुआ। कृष्ण जो
बोल रहे हैं, वह भी सगुण
हो जाता है; बोलते ही
सगुण हो जाता
है।
वेद की
निंदा नहीं है
वह, वेद की
सीमा का
निर्देश है।
शब्द की निंदा
नहीं है वह, शब्द की
सीमा का
निर्देश है।
वचन की निंदा
नहीं है वह, वचन की सीमा
का निर्देश
है। और वह
निर्देश करना
जरूरी है।
लेकिन कितना
ही निर्देश
करो, आदमी
बहरा है। अगर
कृष्ण की बात
सुन ले कि वेद
में जो है, वह
सब त्रिगुण
के भीतर है, तो वह कहेगा,
छोड़ो वेद को, गीता
को पकड़ो।
क्योंकि वेद
में तो
निर्गुण
निराकार नहीं
है, छोड़ो! छोटा हो गया
वेद, गीता
को पकड़ो।
लेकिन
समझ ही नहीं
पाया वह। अगर
कृष्ण कहीं देखते
होंगे, तो
वे हंसते
होंगे कि
तुमने फिर
दूसरा वेद बना
लिया। यह सवाल
वेद का नहीं
है, यह
सवाल व्यक्त
की सीमा का
है।
और
दूसरी बात पूछी
है कि अगर आत्मस्थिति
को सीधा ही
स्वीकार कर
लिया जाए, तो उसे
योगक्षेम से
क्यों जोड़ते
हैं?
जोड़ते
नहीं हैं, जुड़ी है। सिर्फ
कहते हैं। जोड़ते
नहीं हैं, जुड़ी
है। जैसे एक
दीया जले, तो
दीया तो अपने
में ही जलता
है। अगर
आस-पास कोई चीज
न हो दिखाई पड़ने
को, तो भी
जलता है। दीए
का जलना, दीए का
प्रकाश से
भरना, किन्हीं प्रकाशित
चीजों पर
निर्भर नहीं
होता। लेकिन दीया
जलता है, तो
चीजें
प्रकाशित
होती हैं। जो
भी आस-पास
होगा, वह
प्रकाशित
होगा।
और बड़े
मजे की बात है
कि आपने कभी
भी प्रकाश
नहीं देखा है
अब तक, सिर्फ
प्रकाशित चीजें
देखी हैं।
प्रकाश नहीं
देखा है किसी
ने भी आज तक, सिर्फ
प्रकाशित चीजें
देखी हैं।
प्रकाशित
चीजों की वजह
से आप अनुमान
करते हैं कि
प्रकाश है। आप
सोचेंगे कि
मैं क्या बात
कह रहा हूं! हम
सब ने प्रकाश
देखा है। फिर
से सोचना, प्रकाश
कभी किसी ने
देखा ही नहीं।
यह
वृक्ष दिखता
है सूरज की
रोशनी में
चमकता हुआ, इसलिए आप
कहते हैं, सूरज
की रोशनी है।
फिर अंधेरा आ
जाता है और वृक्ष
नहीं दिखता है;
आप कहते हैं,
रोशनी गई।
लेकिन आपने
रोशनी नहीं
देखी है। देखें
आकाश की तरफ, चीजें दिखाई पड़ेंगी,
रोशनी कहीं
दिखाई नहीं
पड़ेगी। जहां
भी है, जो
भी दिखाई पड़
रहा है, वह
प्रकाशित है,
प्रकाश
नहीं।
कृष्ण
के कहने का
कारण है। वे
कहते हैं, जब कोई
शून्य आत्मस्थिति
को उपलब्ध
होता है, तो
योगक्षेम
फलित होते
हैं। आपको
योगक्षेम ही दिखाई
पड़ेंगे।
आपको आत्मस्थिति
दिखाई नहीं
पड़ेगी। उस आत्मस्थिति
के पास जो
घटना घटती है
योगक्षेम की,
वही दिखाई
पड़ेगी। जब कोई
व्यक्ति आनंद
को उपलब्ध
होता है, तो
आपको उसके
भीतर की
स्थिति दिखाई
नहीं पड़ेगी; उसके चारों
तरफ सब आनंद
से भर जाएगा, वही दिखाई पड़ेगा। जब
कोई भीतर
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है, तो
आपको उसके
ज्ञान की
स्थिति दिखाई
नहीं पड़ेगी, लेकिन उसके
चारों तरफ
ज्ञान की
घटनाएं घटने
लगेंगी, वही आपको
दिखाई पड़ेगा।
भीतर तो शुद्ध
अस्तित्व ही
रह जाएगा
आत्मा का, लेकिन
योगक्षेम
उसके कांसिक्वेंसेस
होंगे।
जैसे
दीया जलेगा, और चीजें
चमकने लगेंगी।
चीजें न
हों तो भी
दीया जल सकता
है, लेकिन
तब आपको दिखाई
नहीं पड़ सकता
है। अर्जुन आत्मवान
होगा, यह
उसकी भीतरी
घटना है।
अर्जुन का आत्मवान
होना, चारों
तरफ योगक्षेम
के फूल खिला
देगा; यह
उसकी बाहरी
घटना है।
इसलिए वे
दोनों का स्मरण
करते हैं। और
हम कैसे पहचानेंगे
जो बाहर खड़े
हैं? वे आत्मवान
को नहीं पहचानेंगे,
योगक्षेम
को पहचानेंगे।
मोहम्मद
के बाबत कहा
जाता है कि मोहम्मद
जहां भी चलते, तो उनके ऊपर
आकाश में एक
बदली चलती साथ,
छाया करती
हुई। कठिन
मालूम पड़ती है
बात। मोहम्मद
जहां भी जाएं,
तो उनके ऊपर
एक बदली चले
और छाया करे!
लेकिन आदमी के
पास शब्द
कमजोर हैं, इसलिए जो
चीज गद्य में
नहीं कही जा
सकती, उसे
हम पद्य में
कहते हैं।
पद्य हमारे
गद्य की
असमर्थता है।
जब प्रोज़
में नहीं कह
पाते, तो पोएट्री
निर्मित करते
हैं। और जीवन
में जो-जो
गहरा है, वह
गद्य में नहीं
कहा जा सकता, इसलिए जीवन
का सब गहरा
पद्य में, पोएट्री में कहा
जाता है।
यह पोएटिक
एक्सप्रेशन
है किसी
अनुभूति का, मोहम्मद जहां भी
जाते, वहां
छाया पहुंच
जाती। मोहम्मद
जहां भी जाते,
वहां आस-पास
के लोगों को
ऐसा लगता जैसे
रेगिस्तान, मरुस्थल के
आदमी को लगेगा
कि जैसे ऊपर
कोई बादल आ
गया हो और सब
छाया हो गई
हो। मोहम्मद
जहां होते, वहां
योगक्षेम
फलित होता।
महावीर
के बाबत कहा
गया है कि
महावीर अगर
रास्ते से
चलते, तो
कांटे अगर
सीधे पड़े होते,
तो उलटे हो
जाते। कोई
कांटा फिक्र
नहीं करेगा; संभावना कम
दिखाई पड़ती
है।
लेकिन जिन्होंने
यह लिखा है, उन्होंने
कुछ अनुभव
किया है।
महावीर के
आस-पास सीधे
कांटे भी उलटे
हो
जाएं--कांटे
नहीं, पर कांटापन।
जिंदगी में
बहुत कांटे
हैं, बहुत
तरह के कांटे
हैं। रास्तों
पर बहुत कांटे
हैं। और
महावीर के पास
जो लोग आए हों,
उन्हें
अचानक लगा हो
कि अब तक जो
कांटे सीधे चुभ रहे थे,
वे एकदम
उलटे हो गए, नहीं चुभ
रहे हैं; योगक्षेम
फलित हुआ हो, तो कविता
कैसे कहे? आदमी
कैसे कहे? आदमी
कहता है कि
ऐसा हो जाता
है। लेकिन भूल
होती है हमें।
हमें तो यही
दिखाई पड़ता
है। हम महावीर
को पहचानेंगे
भी कैसे कि वे
महावीर हैं? हम कैसे पहचानेंगे
कि बुद्ध बुद्ध
हैं?
तो
बुद्ध के लिए
हमने कहानियां
गढ़ी हैं
कि बुद्ध जिस
गांव से
निकलते हैं, वहां केशर
की वर्षा हो
जाती है। हो
नहीं सकती, उस केशर की
नहीं, जो
बाजार में
बिकती है।
लेकिन जिन
लोगों के गांव
से बुद्ध गुजरे
हैं, उनको
जरूर केशर की
सुगंध जैसा, केशर
जैसा--उनके
पास जो कीमती
से कीमती शब्द
रहा
होगा--उसकी
प्रतीति हुई,
उसका एहसास
हुआ है। कुछ
बरसा है उस
गांव में जरूर।
और आदमी की
भाषा में कोई
और शब्द नहीं
होगा, तो
कहा है, केशर
बरस गई है।
जब
भीतर जीवन
प्रकाशित
होता है, तो
बाहर भी
प्रकाश की
किरणें लोगों
को छूती हैं।
वे जब लोगों
को छूती हैं, तो योगक्षेम
फलित होता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं और ठीक
कहते हैं।
कहना चाहिए।
कहना जरूरी
है। क्योंकि
एक व्यक्ति के
जीवन में भी
जब आत्मा की
घटना घटती है, तो उसके
प्रकाश का
वर्तुल
दूर-दूर लोक-लोकांतर
तक फैल जाता
है। और एक
व्यक्ति के
भीतर भी जो
स्वर बजता है
आत्मा का, तो
उसकी
स्वरलहरी
दूसरों के
प्राणों को भी
झंकार से भर
जाती है। और
एक व्यक्ति के
जीवन में जब
आनंद फलित
होता है, तो
दूसरों के
जीवन में भी
आनंद के फूल
थोड़े-से जरूर
बरस जाते हैं।
इसलिए
अर्जुन को तो
कहते हैं, तू आत्मवान
हो जाएगा, शक्ति-संपन्न
हो जाएगा।
लेकिन जब
शक्ति-संपन्न
होगा कोई, भीतर
आत्मवान
होगा कोई, तो
इसे एक और
दूसरी तरफ से
देखने की
कोशिश करें।
जब कोई
व्यक्ति आत्महीन
होता है, जब
कोई व्यक्ति
अपनी आत्मा को
खो देता है, तो कभी आपने
खयाल किया है
कि उसके
आस-पास दुख, पीड़ा का
जन्म होना
शुरू हो जाता
है! जब कोई एक व्यक्ति
अपनी आत्मा को
खोता है, तो
अपने आस-पास
दुख का एक
वर्तुल पैदा
कर लेता है!
निर्भर करेगा
कि कितनी उसने
आत्मा खोई है।
अगर एक
हिटलर
जैसा आदमी
पृथ्वी पर
पैदा हो, तो
विराट दुख का
वर्तुल चारों
ओर फलित होता है।
योगक्षेम का
पता ही नहीं
चलता, सब
खो जाता है।
उससे उलटा
घटित होने
लगता है। अकल्याण
और अमंगल
चारों ओर फैल
जाता है। फैलेगा।
चंगेज
खां जैसा आदमी
पैदा होता है,
तो जहां से
गुजर जाता है,
वहां केशर
नहीं बरसती,
सिर्फ खून!
सिर्फ खून ही
बहता है।
बुरे
आदमियों को हम
भलीभांति
पहचानते हैं।
उनके आस-पास
जो घटनाएं
घटती हैं, उन्हें भी
पहचानते हैं।
स्वभावतः, बुरे
आदमी के
आस-पास जो
घटना घटती है,
वह बहुत मैटीरियल
होती है, बहुत
भौतिक होती है,
दिखाई पड़ती
है।
चंगेज
खां निकले
आपके गांव से, तो मुश्किल
है कि आप न देख पाएं।
क्योंकि
घटनाएं बहुत
भौतिक, मैटीरियल घटेंगी।
चंगेज
खां जिस गांव
से निकलता, उस गांव के
सारे बच्चों
को कटवा
डालता। भालों
पर बच्चों के
सिर लगवा
देता। और जब चंगेज खां
से किसी ने
पूछा कि तुम
क्या कर रहे
हो? दस-दस
हजार बच्चे
भालों पर लटके
हैं! तो चंगेज
खां ने हंसकर
कहा कि लोगों
को पता होना
चाहिए कि चंगेज
खां निकल रहा
है।
बुद्ध
भी निकलते हैं
किसी गांव से, कृष्ण भी
निकलते हैं
किसी गांव से,
जीसस भी निकलते
हैं किसी गांव
से--घटनाएं इम्मैटीरियल
घटती हैं, घटनाएं
मैटीरियल
नहीं होतीं।
इसलिए जिनके
पास थोड़ी
संवेदनशील
चेतना है, वे
ही पकड़ पाते
हैं। जिनके
पास थोड़ा
संवेदन से भरा
हुआ मन है, जो
रिस्पांसिव
हैं, वे ही
पकड़ पाते हैं।
उसमें
जो पकड़ में
आता है, उसको
कृष्ण कह रहे
हैं
योगक्षेम। वे
जो पकड़ पाते
हैं, उनको
पता लगता है, सब बदल गया।
हवा और हो गई, आकाश और हो
गया, सब और
हो गया। यह जो
सब और हो जाने
का अनुभव है, इस अनुभव को
कृष्ण कह रहे
हैं
योगक्षेम।
उसे स्मरण
दिलाना उचित
है।
एक बात
और खयाल में
ले लेनी
जरूरी है कि
वे कह रहे हैं, तू
शक्ति-संपन्न
हो जाएगा।
असल
में मनुष्य तब
तक
शक्ति-संपन्न
होता ही नहीं, जब तक स्वयं
होता है, तब
तक वह
शक्ति-विपन्न
ही होता है।
असल में स्वयं
होना, अहंकार-केंद्रित
होना, दीन
होने की
रामबाण
व्यवस्था है।
जितना मैं अहंकार
से भरा हूं, जितना मैं
हूं, उतना
ही मैं दीन
हूं। जितना
मेरा अहंकार
छूटता और मैं आत्मवान
होता हूं, जितना
ही मैं मिटता,
उतना ही मैं
सर्व से एक
होता हूं। तब
शक्ति मेरी
नहीं, ब्रह्म
की हो जाती
है। तब मेरे
हाथ मुझसे
नहीं चलते, ब्रह्म से
चलते हैं। तब
मेरी वाणी
मुझसे नहीं बोलती,
ब्रह्म से
बोलती है। तब
मेरा
उठना-बैठना
मेरा नहीं, उसका ही हो
जाता है।
स्वभावतः, उससे बड़ी और
शक्ति-संपन्नता
क्या होगी? जिस दिन
व्यक्ति अपने
को समर्पित कर
देता सर्व के
लिए, उस
दिन सर्व की
सारी शक्ति
उसकी अपनी हो
जाती है। उस
दिन होता है
वह
शक्ति-संपन्न।
शक्ति
यहां पावर
का प्रतीक
नहीं है।
शक्ति उन
अर्थों में
नहीं, जैसे
किसी पद पर
पहुंचकर कोई
आदमी
शक्तिशाली हो
जाता है; कि
कोई आदमी कल
तक सड़क पर था, फिर
मिनिस्टर हो
गया, तो
शक्तिशाली हो
गया। यह शक्ति
व्यक्ति में नहीं
होती, यह
शक्ति पद में
होती है। इसको
कुर्सी से
नीचे उतारो,
यह फिर
विपन्न हो
जाता है। यह
शक्ति इसमें
होती ही नहीं,
यह इसके
कुर्सी पर
बैठने से होती
है।
कभी सर्कस में, कार्निवाल में आपने इलेक्ट्रिक
चेयर
देखी हो, कुर्सी
जो इलेक्ट्रिफाइड
होती है। उस
पर एक लड़की या
लड़के को बिठा
रखते हैं। वह
लड़का भी इलेक्ट्रिफाइड
हो जाता है।
फिर उस लड़के
को छुएं, तो शॉक लगता
है। वह लड़के
का शॉक नहीं
है, कुर्सी
का शॉक है।
लड़के को
कुर्सी से
बाहर उतारें,
गया। मोरारजी
भाई कुर्सी पर
और मोरारजी
भाई कुर्सी के
बाहर। इलेक्ट्रिफाइड
चेयर! सर्कस
है! मगर वह जो
कुर्सी पर
बैठा हुआ लड़का
या लड़की है, जब आपको शॉक
लगता है, तो
उसकी शान
देखें। वह
समझता है कि
शायद मैं शॉक
मार रहा हूं।
कुर्सी के शॉक
हैं। लेकिन आइडेंटिफाइड
हो जाता है आदमी।
पावर
नहीं मतलब है
कृष्ण की
शक्ति का।
कृष्ण की शक्ति
का मतलब है, एनर्जी,
ऊर्जा; जो
पद से नहीं
आती। असल में
जो पद-मात्र
छोड़ने से आती
है।
अहंकार
पद को खोजता
है। जो अहंकार
को ही छोड़ देता
है, उसके सब
पद खो जाते
हैं। उसके पास
कोई पद नहीं रह
जाता। वह
शून्य हो जाता
है। उस शून्य
में विराट
गूंजने लगता
है। उस शून्य
में विराट उतर
आता है। उस
शून्य में विराट
के लिए द्वार
मिल जाता है।
तब वह एनर्जी
है, पावर नहीं। तब वह
ऊर्जा है, शक्ति
है, उधार
नहीं है। तब
वह व्यक्ति
मिटा और अव्यक्ति
हो गया। तब
व्यक्ति नहीं
है, परमात्मा
है। और ऐसी
स्थिति से
वापस लौटना
नहीं होता।
ध्यान
रखें, पावर से वापस
लौटना होता
है। पद से
वापस लौटना
होता है, धन
से वापस लौटना
होता है। जो
शक्ति भी किसी
कारण से मिलती
है और अहंकार
की खोज से
मिलती है, उससे
लौटना होता
है। लेकिन जो
शक्ति अहंकार
को खोकर
मिलती है, वह
प्वाइंट आफ नो रिटर्न है,
उससे वापस
लौटना नहीं
होता है।
इसलिए
एक बार
व्यक्ति
परमात्मा की
शक्ति को जान
लेता है, एक
हो जाता है, वह सदा के
लिए
शक्ति-संपन्न
हो जाता है।
शायद यह कहना
ठीक नहीं है
कि
शक्ति-संपन्न
हो जाता है, उचित यही
होगा कहना कि
वह शक्ति-संपन्नता
हो जाता है।
शक्ति-संपन्न
हो जाता है, तो ऐसा खयाल बनता है कि
वह भी बचता
है। नहीं, यह
कहना ठीक नहीं
है कि वह
शक्ति-संपन्न
हो जाता है, यही कहना
ठीक है कि वह
शक्ति हो जाता
है। और ऐसी
शक्ति अगर पद
की है, धन
की है, तो
योगक्षेम
फलित नहीं
होंगे। ऐसी
शक्ति अगर
परमात्मा की
है, तो
योगक्षेम
फलित होंगे।
इसलिए
भी योगक्षेम
की बात कर लेनी
उचित है।
क्योंकि ऐसी शक्तियां
भी हैं, जिनसे योगक्षेम
से उलटा फलित
होता है।
पावर-पालिटिक्स
है सारी
दुनिया में।
जब भी कोई
आदमी पोलिटिकली
पावरफुल
होने की
यात्रा करता
है, तो
योगक्षेम
फलित नहीं
होता है। उससे
उलटा ही फलित
होता है।
अमंगल ही फलित
होता है। दुख
ही फलित होता
है।
तो
शक्ति का यह
स्मरण रहे, भेद खयाल
में रहे, शक्ति
का अर्थ पावर
नहीं, एनर्जी। शक्ति का
अर्थ अहंकार
की खोज नहीं, अहंकार का
विसर्जन। तो
निश्चित ही
योगक्षेम फलित
होता है।
यावानर्थ उदपाने
सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य
विजानतः।।
४६।।
क्योंकि
मनुष्य का, सब ओर से
परिपूर्ण
जलाशय के
प्राप्त होने
पर, छोटे
जलाशय में
जितना
प्रयोजन रहता
है, अच्छी
प्रकार
ब्रह्म को
जानने वाले
ब्राह्मण का
भी सब वेदों
में उतना ही
प्रयोजन रहता
है।
कृष्ण
कह रहे हैं कि
जैसे
छोटे-छोटे नदीत्तालाब
हैं, कुएं-पोखर
हैं, झरने
हैं, इन
झरनों में
नहाने से जो
आनंद होता है,
जो शुचिता
मिलती है, ऐसी
शुचिता तो
सागर में
नहाने से मिल
ही जाती है
अनेक गुना
होकर। शब्दों
के पोखर में, शास्त्रों
के पोखर में
जो मिलता है, उससे अनेक
गुना ज्ञान के
सागर में मिल
ही जाता है।
वेद में जो मिलेगा--संहिता
में, शास्त्र
में, शब्द
में--वह
ज्ञानी को
ज्ञान में तो
अनंत गुना
होकर मिल ही
जाता है।
इसमें
दो बातें
ध्यान रखने
जैसी हैं। एक
तो यह कि जो
सीमा में
मिलता है, वह असीम में
मिल ही जाता
है। इसलिए
असीम के लिए
सीमित को
छोड़ने में भय
की कोई भी
आवश्यकता
नहीं है। अगर
ज्ञान के लिए
वेद को छोड़ना
हो, तो कोई
चिंता की बात
नहीं है। सत्य
के लिए शब्द
को छोड़ना हो, तो कोई
चिंता की बात
नहीं है।
अनुभव के लिए
शास्त्र को
छोड़ना हो, तो
कोई चिंता की
बात नहीं
है--पहली बात।
क्योंकि जो
मिलता है यहां,
उससे अनंत
गुना वहां मिल
ही जाता है।
दूसरी
बात, सागर में
जो मिलता है, ज्ञान में
जो मिलता है, असीम में जो
मिलता है, उस
असीम में
मिलने वाले को
सीमित के लिए
छोड़ना बहुत
खतरनाक है।
अपने घर के
कुएं के लिए
सागर को छोड़ना
बहुत खतरनाक
है। माना कि
घर का कुआं है,
अपना है, बचपन से
जाना, परिचित
है, फिर भी
कुआं है। घरों
में कुएं से
ज्यादा सागर
हो भी नहीं
सकते। सागरों
तक जाना हो तो
घरों को छोड़ना
पड़ता है। घरों
में कुएं ही
हो सकते हैं।
हम
सबके
अपने-अपने घर
हैं, अपने-अपने
वेद हैं, अपने-
अपने शास्त्र
हैं, अपने-अपने
धर्म हैं, अपने-अपने
संप्रदाय हैं,
अपने-अपने
मोहग्रस्त
शब्द हैं। हम
सबके अपने-अपने--कोई
मुसलमान है, कोई हिंदू
है, कोई
ईसाई है--सबके
अपने वेद हैं।
कोई इस मूर्ति
का पूजक, कोई
उस मूर्ति का
पूजक; कोई
इस मंत्र का
भक्त, कोई
उस मंत्र का
भक्त है। सबके
अपने-अपने
कुएं हैं।
कृष्ण
यहां कह रहे
हैं, इनके लिए
सागर को छोड़ना
खतरनाक है।
हां, इससे
उलटा, वाइस-वरसा हो सकता है।
सागर के लिए इनको
छोड़ने में कोई
भी हर्ज नहीं
है। क्योंकि
जो इनमें मिलेगा,
वह अनंत
गुना होकर
सागर में मिल
ही जाता है।
इसलिए
वह व्यक्ति
अभागा है, जो अपने घर
के कुएं के
लिए--बाइबिल,
कुरान, वेद,
गीता...गीता
भी! गीता का
कृष्ण ने
उल्लेख नहीं किया,
कैसे करते!
क्योंकि जो वे
कह रहे थे, वही
गीता बनने
वाला था। गीता
तब तक थी
नहीं। मैं
उल्लेख करता
हूं, गीता
भी! जो इनमें
मिलता है, इससे
अनंत गुना
होकर ज्ञान
में मिल ही
जाता है।
इसलिए जो इनके
कारण ज्ञान के
लिए रुकावट
बनाए, इनके
पक्ष में
ज्ञान को छोड़े,
वह अभागा
है। लेकिन जो
ज्ञान के लिए
इन सबको छोड़
दे, वह
सौभाग्यशाली
है। क्योंकि
जो इनमें मिलेगा,
वह ज्ञान
में मिल ही
जाने वाला है।
लेकिन क्या
मतलब है? ज्ञान
का और वेद का, ज्ञान का और
शास्त्र का
फासला क्या है?
भेद क्या है?
गहरा
फासला है। जो
जानते हैं, उन्हें बहुत
स्पष्ट दिखाई पड?ता
है। जो नहीं
जानते हैं, उन्हें
दिखाई पड़ना
बहुत मुश्किल
हो जाता है। क्योंकि
किन्हीं
भी दो चीजों
का फासला
जानने के लिए
दोनों चीजों
को जानना
जरूरी है। जो
एक ही चीज को
जानता है, दूसरे
को जानता ही
नहीं, फासला
कैसे निर्मित
करे? कैसे
तय करे?
हम
शास्त्र को ही
जानते हैं, इसलिए हम जो
फासले
निर्मित करते
हैं, ज्यादा
से ज्यादा दो
शास्त्रों के
बीच करते हैं।
हम कहते हैं, कुरान कि बाइबिल,
वेद कि गीता,
कि महावीर
कि बुद्ध, कि
जीसस कि जरथुस्त्र।
हम जो फासले
तय करते हैं, वे फासले
ज्ञान और
शास्त्र के
बीच नहीं होते,
शास्त्र और
शास्त्र के
बीच होते हैं।
क्योंकि हम
शास्त्रों को
जानते हैं।
असली फासला
शास्त्र और
शास्त्र के
बीच नहीं है, असली फासला
शास्त्रों और
ज्ञान के बीच
है। उस दिशा में
थोड़ी-सी सूचक
बातें खयाल ले
लेनी
चाहिए।
ज्ञान
वह है, जो
कभी भी, कभी
भी अनुभव के
बिना नहीं
होता है।
ज्ञान यानी
अनुभव, और
अनुभव तो सदा
अपना ही होता
है, दूसरे
का नहीं होता।
अनुभव यानी
अपना। शास्त्र
भी अनुभव है, लेकिन दूसरे
का। शास्त्र
भी ज्ञान है, लेकिन दूसरे
का। ज्ञान भी
ज्ञान है, लेकिन
अपना।
मैं
अपनी आंख से
देख रहा हूं, यह ज्ञान
है। मैं अंधा
हूं, आप
देखते हैं और
मुझे कहते हैं,
यह शास्त्र
है। नहीं कि
आप गलत कहते
हैं। ऐसा नहीं
कि आप गलत ही
कहते हैं।
लेकिन आप कहते
हैं, आप
देखते हैं। आप
जो आंख से
करते हैं, वह
मैं कान से कर
रहा हूं। फर्क
पड़ने
वाला है। कान
आंख का काम
नहीं कर सकता।
इसलिए
शास्त्र के जो
पुराने नाम
हैं, वे बहुत
बढ़िया हैं।
श्रुति, सुना
हुआ--देखा हुआ
नहीं। स्मृति,
सुना हुआ, स्मरण किया
हुआ, याद
किया हुआ, मेमोराइज्ड--जाना हुआ
नहीं। सब
शास्त्र
श्रुति और
स्मृति हैं।
किसी ने जाना
और कहा। हमने
जाना नहीं और सुना।
जो उसकी आंख
से हुआ, वह
हमारे कान से
हुआ। शास्त्र
कान से आते
हैं, सत्य
आंख से आता
है। सत्य
दर्शन है, शास्त्र
श्रुति हैं।
दूसरे
का अनुभव, कुछ भी उपाय
करूं मैं, मेरा
अनुभव नहीं
है। हां, दूसरे
का अनुभव
उपयोगी हो
सकता है। इसी
अर्थ में
उपयोगी हो
सकता है--इस
अर्थ में नहीं
कि मैं उस पर
भरोसा का लूं,
विश्वास कर लूं, अंधश्रद्धालु हो जाऊं; इस
अर्थ में तो
दुरुपयोग ही
हो जाएगा; हिन्ड्रेंस बनेगा, बाधा
बनेगा--इस
अर्थ में उपयोगी
हो सकता है कि
दूसरे ने जो
जाना है, उसे
जानने की
संभावना का
द्वार मेरे
लिए भी खुलता
है। जो दूसरे
को हो सका है, वह मेरे लिए
भी हो सकता है,
इसका
आश्वासन
मिलता है। जो
दूसरे के लिए
हो सका, वह
क्यों मेरे
लिए नहीं हो
सकेगा, इसकी
प्रेरणा। जो
दूसरे के लिए
हो सका, वह
मेरे भीतर
छिपी हुई
प्यास को जगाने
का कारण हो
सकता है।
लेकिन बस इतना
ही। जानना तो
मुझे ही पड़ेगा।
जानना मुझे ही
पड़ेगा, जीना मुझे
ही पड़ेगा,
उस सागरत्तट
तक मुझे ही
पहुंचना पड़ेगा।
एक और
मजे की बात है
कि घर में जो
कुएं हैं, वे बनाए हुए
होते हैं, सागर
बनाया हुआ
नहीं होता।
आपके पिता ने
बनाया होगा घर
का कुआं, उनके
पिता ने बनाया
होगा, किसी
ने बनाया
होगा। जिसने
बनाया होगा, उसे एक सीक्रेट
का पता है, उसे
एक राज का पता
है कि कहीं से
भी जमीन को तोड़ो,
सागर मिल
जाता है। कुआं
है क्या? जस्ट ए
होल, सिर्फ
एक छेद है। आप
यह मत समझना
कि पानी कुआं
है। पानी तो
सागर ही है, कुआं तो
सिर्फ उस सागर
में झांकने
का आपके आंगन
में उपाय है।
सागर तो है ही
नीचे फैला
हुआ। वही है।
जहां भी जल है,
वहीं सागर
है। हां, आपके
आंगन में एक
छेद खोद लेते
हैं आप। कुएं
से पानी नहीं
खोदते, कुएं
से सिर्फ मिट्टी
अलग करते हैं,
परत तोड़
देते हैं, एक
छेद हो जाता
है; अपने
ही घर में
सागर को झांकने
का उपाय हो
जाता है।
लेकिन
कुआं बनाया
हुआ है। और
अगर कुआं इसकी
खबर लाए--रिमेंबरेंस--कि
सागर भी है और
सागर की
यात्रा करवा
दे, तब तो
कुआं सहयोगी
हो जाता है।
और अगर कुआं
ही सागर बन
जाए और हम
सोचें कि यही
रहा सागर, तो
फिर सागर की, असीम की
यात्रा नहीं
हो पाती; फिर
हम कुएं के
किनारे ही
बैठे समाप्त
होते हैं।
शास्त्र
कुएं हैं। जो
जानते हैं, खोदते हैं।
और शब्द की
सीमा में छेद
बनाते हैं। जो
कहा जा सकता
है, उसकी
सीमा में छेद
बनाते हैं। और
अनकहे की
थोड़ी-सी झलक, थोड़ा-सा
दर्शन करवाते
हैं। इस आशा
में कि इसको
देखकर अनंत की
यात्रा पर कोई
निकलेगा।
इसलिए नहीं कि
इसे देखकर कोई
बैठ जाएगा और
तृप्त हो
जाएगा।
कुआं
सागर है, सीमा
में बंधा।
सागर कुआं है,
असीम में
मुक्त।
शास्त्र
ज्ञान है, सीमा
में बंधा।
ज्ञान
शास्त्र है, असीम में
मुक्त।
तो
कृष्ण जब वेद
की, शब्द की
बात कर रहे
हैं, तो
निंदा नहीं है,
सिर्फ
निर्देश है।
और निर्देश
स्मरण में रखने
योग्य है।
अभी
इतना ही। फिर
सांझ बात
करेंगे।
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