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सोमवार, 12 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(भाग--1)-(प्रवचन-009) ओशो

आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन
(प्रवचन—नौवांअध्‍याय—1—2

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
चैनं क्लेदयन्त्यापोशोषयति मारुतः।। २३।।
हे अर्जुन, इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं गीला कर सकता है और वायु नहीं सुखा सकता है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। २४।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। २५।।
और यह आत्मा अव्यक्त अर्थात इंद्रियों का अविषय और यह आत्मा अचिंत्य अर्थात मन का अविषय और यह आत्मा विकाररहित अर्थात न बदलने वाला कहा जाता है। इससे हे अर्जुन, इस आत्मा को ऐसा जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अर्थात तुझे शोक करना उचित नहीं है।


प्रश्न: भगवान श्री, जो आत्मा अपनी तरफ से किसी भी दिशा में प्रवृत्त नहीं होता, वह वस्त्रों की भांति जीर्ण देह को त्यागने की और नवीन देह को धारण करने की चेष्टा की तकलीफ क्यों उठाता है? इसमें कुछ इंट्रिंजिक कंट्राडिक्शन नहीं फलित होता है?


आत्मा, न जन्म लेता है, न मरता है; न उसका प्रारंभ है, न उसका अंत है--जब हम ऐसा कहते हैं, तो थोड़ी-सी भूल हो जाती है। इसे दूसरे ढंग से कहना ज्यादा सत्य के करीब होगा: जिसका जन्म नहीं होता, जिसकी मृत्यु नहीं होती, जिसका कोई प्रारंभ नहीं है, जिसका कोई अंत नहीं है, ऐसे अस्तित्व को ही हम आत्मा कहते हैं।
निश्चित ही, अस्तित्व प्रारंभ और अंत से मुक्त होना चाहिए। जो है, दैट व्हिच इज़, उसका कोई प्रारंभ नहीं हो सकता। प्रारंभ का अर्थ यह होगा कि वह शून्य से उतरे, ना-कुछ से उतरे। और प्रारंभ होने के लिए भी प्रारंभ के पहले कुछ तैयारी चाहिए पड़ेगी। प्रारंभ आकस्मिक नहीं हो सकता। सब प्रारंभ पूर्व की तैयारी से, पूर्व के कारण से बंधे होते हैं, कॉजेलिटि से बंधे होते हैं।
एक बच्चे का जन्म होता है; हो सकता है, क्योंकि मां-बाप के दो शरीर उसके जन्म की तैयारी करते हैं। सब प्रारंभ अपने से भी पहले किसी चीज को, प्रिसपोज्ड, अपने से भी पहले किसी चीज को स्वीकार करते हैं। इसलिए कोई प्रारंभ मौलिक रूप से प्रारंभ नहीं होता। किसी चीज का प्रारंभ हो सकता है, लेकिन शुद्ध प्रारंभ नहीं होता। ठीक वैसे ही, किसी चीज का अंत हो सकता है, लेकिन अस्तित्व का अंत नहीं होता। क्योंकि कोई भी चीज समाप्त हो, तो उसके भीतर जो होना था, जो अस्तित्व था, वह शेष रह जाता है।
तो जब हम कहते हैं, आत्मा का कोई जन्म नहीं, कोई मृत्यु नहीं, तो समझ लेना चाहिए। दूसरी तरफ से समझ लेना उचित है कि जिसका कोई जन्म नहीं, जिसकी कोई मृत्यु नहीं, उसी का नाम हम आत्मा कह रहे हैं। आत्मा का अर्थ है--अस्तित्व, बीइंग
लेकिन हमारी भ्रांति वहां से शुरू होती है, आत्मा को हम समझ लेते हैं मैं। मेरा तो प्रारंभ है और मेरा अंत भी है। लेकिन जिसमें मैं जन्मता हूं और जिसमें मैं समाप्त हो जाता हूं, उस अस्तित्व का कोई अंत नहीं है।
आकाश में बादल बनते हैं और बिखर जाते हैं। जिस आकाश में उनका बनना और बिखरना होता है, उस आकाश का कोई प्रारंभ और कोई अंत नहीं है। आत्मा को आकाश समझें--इनर स्पेस, भीतरी आकाश। और आकाश में भीतर और बाहर का भेद नहीं किया जा सकता। बाहर के आकाश को परमात्मा कहते हैं, भीतर के आकाश को आत्मा। इस आत्मा को व्यक्ति न समझें, इंडिविजुअलसमझें। व्यक्ति का तो प्रारंभ होगा, और व्यक्ति का अंत होगा। इस आंतरिक आकाश को अव्यक्ति समझें। इस आंतरिक आकाश को सीमित न समझें। सीमा का तो प्रारंभ होगा और अंत होगा।
इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि न उसे आग जला सकती है।
आग उसे क्यों नहीं जला सकती? पानी उसे क्यों नहीं डुबा सकता? अगर आत्मा कोई भी वस्तु है, तो आग जरूर जला सकती है। यह आग न जला सके, हम कोई और आग खोज लेंगे। कोई एटामिक भट्ठी बना लेंगे, वह जला सकेगी। अगर आत्मा कोई वस्तु है, तो पानी क्यों नहीं डुबा सकता? थोड़ा पानी न डुबा सकेगा, तो बड़े पैसिफिक महासागर में डुबा देंगे।
जब वे यह कह रहे हैं कि आत्मा को न जलाया जा सकता है, डुबाया जा सकता है पानी में, न नष्ट किया जा सकता है, तो वे यह कह रहे हैं कि आत्मा कोई वस्तु नहीं है; थिंगनेस, वस्तु उसमें नहीं है। आत्मा सिर्फ अस्तित्व का नाम है। एक्झिस्टेंट वस्तु नहीं, एक्झिस्टेंस इटसेल्फवस्तुओं का अस्तित्व होता है, आत्मा स्वयं अस्तित्व है। इसलिए आग न जला सकेगी, क्योंकि आग भी अस्तित्व है। पानी न डुबा सकेगा, क्योंकि पानी भी अस्तित्व है।
इसे ऐसा समझें कि आग भी आत्मा का एक रूप है, पानी भी आत्मा का एक रूप है, तलवार भी आत्मा का एक रूप है, इसलिए आत्मा से आत्मा को जलाया न जा सकेगा। आग उसको जला सकती है, जो उससे भिन्न है। आत्मा किसी से भी भिन्न नहीं। आत्मा अस्तित्व से अभिन्न है, अस्तित्व ही है।
अगर हम आत्मा शब्द को अलग कर दें और अस्तित्व शब्द को विचार करें, तो कठिनाई बहुत कम हो जाएगी। क्योंकि आत्मा से हमें लगता है, मैं। हम आत्मा और ईगो को, अहंकार को पर्यायवाची मानकर चलते हैं। इससे बहुत जटिलता पैदा हो जाती है। आत्मा अस्तित्व का नाम है। उस अस्तित्व में उठी हुई एक लहर का नाम मैं है। वह लहर उठेगी, गिरेगी; बनेगी, बिखरेगी; उस मैं को जलाया भी जा सकता है, डुबाया भी जा सकता है। ऐसी आग खोजी जा सकती है, जो मैं को जलाए। ऐसा पानी खोजा जा सकता है, जो मैं को डुबाए। ऐसी तलवार खोजी जा सकती है, जो मैं को काटे। इसलिए मैं को छोड़ दें। आत्मा से मैं का कोई भी लेना-देना नहीं है, दूर का भी कोई वास्ता नहीं है।
मैं को छोड़कर जो पीछे आपके शेष रह जाता है, वह आत्मा है। लेकिन मैं को छोड़कर हमने अपने भीतर कभी कुछ नहीं देखा है। जब भी कुछ देखा है, मैं मौजूद हूं। जब भी कुछ सोचा है, मैं मौजूद हूं। मैं हर जगह मौजूद हूं भीतर। इतने घने रूप से हम मैं के आस-पास जीते हैं कि मैं के पीछे जो खड़ा है सागर, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ता।
और हम कृष्ण की बात सुनकर प्रफुल्लित भी होते हैं। जब सुनाई पड़ता है कि आत्मा को जलाया नहीं जा सकता, तो हमारी रीढ़ सीधी हो जाती है। हम सोचते हैं, मुझे जलाया नहीं जा सकता। जब हम सुनते हैं, आत्मा मरेगी नहीं, तो हम भीतर आश्वस्त हो जाते हैं कि मैं मरूंगा नहीं। इसीलिए तो बूढ़ा होने लगता है आदमी, तो गीता ज्यादा पढ़ने लगता है। मृत्यु पास आने लगती है, तो कृष्ण की बात समझने का मन होने लगता है। मृत्यु कंपाने लगती है मन को, तो मन समझना चाहता है, मानना चाहता है कि कोई तो मेरे भीतर हो, जो मरेगा नहीं, ताकि मैं मृत्यु को झुठला सकूं।
इसलिए मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में जवान दिखाई नहीं पड़ते। क्योंकि अभी मौत जरा दूर मालूम पड़ती है। अभी इतना भय नहीं, अभी पैर कंपते नहीं। वृद्ध दिखाई पड़ने लगते हैं। सारी दुनिया में धर्म के आस-पास बूढ़े आदमियों के इकट्ठे होने का एक ही कारण है कि जब मैं मरने के करीब पहुंचता है, तो मैं जानना चाहता है कि कोई आश्वासन, कोई सहारा, कोई भरोसा, कोई प्रामिस--कि नहीं, मौत को भी झुठला सकेंगे, बच जाएंगे मौत के पार भी। कोई कह दे कि मरोगे नहीं--कोई अथारिटी, कोई प्रमाण-वचन, कोई शास्त्र!
इसीलिए आस्तिक, जो वृद्धावस्था में आस्तिक होने लगता है, उसके आस्तिक होने का मौलिक कारण सत्य की तलाश नहीं होती, मौलिक कारण भय से बचाव होता है, फियर से बचाव होता है। और इसलिए दुनिया में जो तथाकथित आस्तिकता है, वह भगवान के आस-पास निर्मित नहीं, भय के आस-पास निर्मित है। और अगर भगवान भी है उस आस्तिकता का, तो वह भय का ही रूप है; उससे भिन्न नहीं है। वह भय के प्रति ही सुरक्षा है, सिक्योरिटी है।
तो जब कृष्ण यह कह रहे हैं, तो एक बात बहुत स्पष्ट समझ लेना कि यह आप नहीं जलाए जा सकेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ना। इसमें तो बहुत कठिनाई नहीं है। घर जाकर जरा आग में हाथ डालकर देख लेना, तो कृष्ण एकदम गलत मालूम पड़ेंगे। एकदम ही गलत बात मालूम पड़ेगी। गीता पढ़कर आग में हाथ डालकर देख लेना कि आप जल सकते हैं कि नहीं! गीता पढ़कर पानी में डुबकी लगाकर देख लेना, तो पता चल जाएगा कि डूब सकते हैं या नहीं!
लेकिन कृष्ण गलत नहीं हैं। जो डूबता है पानी में, कृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। जो जल जाता है आग में, कृष्ण उसकी बात नहीं कर रहे हैं। लेकिन क्या आपको अपने भीतर किसी एक भी ऐसे तत्व का पता है, जो आग में नहीं जलता? पानी में नहीं डूबता? अगर पता नहीं है, तो कृष्ण को मानने की जल्दी मत करना। खोजना, मिल जाएगा वह सूत्र, जिसकी वे बात कर रहे हैं।
सवाल पूछा है। पूछा है कि आत्मा न भी करती हो यात्रा, सूक्ष्म शरीर, लिंग शरीर अगर यात्रा करता है, तो भी आत्मा का सहयोग तो है ही। आत्मा कोआप्ट तो करती ही है। अगर इनकार कर दे सहयोग करने से, तब तो यात्रा नहीं हो सकेगी!
इसे भी दो तलों पर समझ लेना जरूरी है। सहयोग भी इस जगत में दो प्रकार के हैं। एक, वैज्ञानिक जिसको कैटेलिटिक कोआपरेशन कहता है, कैटेलिटिक एजेंट जिसको वैज्ञानिक कहता है, उस बात को समझ लेना उचित है। एक सहयोग है, जिसमें हम पार्टिसिपेंट होते हैं। एक सहयोग है, जिसमें हमें भागीदार होना पड़ता है। एक और सहयोग है, जिसमें मौजूदगी काफी है, जस्ट प्रेजेंस
सुबह सूरज निकला। आपकी बगिया का फूल खिल गया। सूरज को पता भी नहीं है कि उसने इस फूल को खिलाया। सूरज इस फूल को खिलाने के लिए निकला भी नहीं है। यह फूल न होता तो सूरज के निकलने में कोई बाधा भी नहीं पड़ती। यह न होता तो सूरज यह न कहता कि फूल तो है नहीं, मैं किसलिए निकलूं! यह खिल गया है, इसके लिए सिर्फ सूरज की मौजूदगी, प्रेजेंस काफी बनी है। सूरज की मौजूदगी के बिना यह खिल भी न सकता, यह बात पक्की है। लेकिन सूरज की मौजूदगी इसको खिलाने के लिए नहीं है, यह बात भी इतनी ही पक्की है। सूरज की मौजूदगी में यह खिल गया है।
लेकिन यह भी बहुत ठीक नहीं है। क्योंकि सूरज की किरणें कुछ करती हैं। चाहे सूरज को पता हो, चाहे न पता हो। सूरज की किरणें उसकी कलियों को खोलती हैं। सूरज की किरणें उस पर चोट भी करती हैं। चोट कितनी ही बारीक और सूक्ष्म हो, लेकिन चोट होती है।
सूरज की किरणों का भी वजन है। सूरज की किरणें भी प्रवेश करती हैं। कोई एक वर्ग मील पर जितनी सूरज की किरणें पड़ती हैं, उसका कोई एक छटांक वजन होता है। बहुत कम है। एक वर्ग मील पर जितनी किरणें पड़ती हैं, अगर हम इकट्ठी कर सकें, तो कहीं एक छटांक वजन होगा। एक तो इकट्ठा करना मुश्किल है। अनुमान है वैज्ञानिकों का, इतना वजन होगा। इतना भी सही, तो भी सूरज फूल की पखुड़ियों पर कुछ करता है। तो वह भी कैटेलिटिक एजेंट नहीं है, इनडायरेक्ट पार्टिसिपेंट है, परोक्ष रूप से भाग लेता है।
लेकिन कैटेलिटिक एजेंट वैज्ञानिक बहुत दूसरी चीज को कहते हैं। जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बनता है। तो आप हाइड्रोजन और आक्सीजन एक कमरे में बंद कर दें, तो भी पानी नहीं बनेगा। सब तरह से सब मौजूद है, लेकिन पानी नहीं बनेगा।
लेकिन उस कमरे में बिजली की एक धारा दौड़ा दें। तो बस, तत्काल हाइड्रोजन और आक्सीजन के अणु मिलकर पानी बनाना शुरू कर देंगे। सब तरह से खोज-बीन की गई, बिजली की धारा कुछ भी नहीं करती। न वह हाइड्रोजन को छूती है, आक्सीजन को छूती है। न स्पर्श करती है, न उनके साथ कुछ करती। बस उसकी मौजूदगी, सिर्फ उसका होना। उसकी मौजूदगी के बिना नहीं हो पाता। कहना चाहिए, उसकी मौजूदगी ही कुछ करती है; बिजली कुछ नहीं करती।
कृष्ण कह रहे हैं इस सूत्र में, आत्मा निष्क्रिय है, अक्रिय है, नान-एक्टिव है।
आत्मा अक्रिय है, निष्क्रिय है, कर्म नहीं करती, तो फिर यह सारी की सारी यात्रा, यह जन्म और मरण, यह शरीर और शरीर का छूटना, और नए वस्त्रों का ग्रहण और जीर्ण वस्त्रों का त्याग, यह कौन करता है? आत्मा की मौजूदगी के बिना यह नहीं हो सकता है, इतना पक्का है। लेकिन आत्मा की मौजूदगी सक्रिय तत्व की तरह काम नहीं करती, निष्क्रिय उपस्थिति की तरह काम करती है।
जैसे समझें कि बच्चों की क्लास लगी है। शिक्षक नहीं है। चिल्ला रहे हैं, शोरगुल कर रहे हैं, नाच रहे हैं। फिर शिक्षक कमरे में आया। सन्नाटा छा गया, चुप्पी हो गई। अपनी जगह बैठ गए हैं, किताबें पढ़ने लगे हैं। अभी शिक्षक ने एक शब्द नहीं बोला। अभी शिक्षक ने कुछ किया नहीं। अभी उसने यह भी नहीं कहा कि चुप हो जाओ। अभी उसने यह भी नहीं कहा कि गलत कर रहे हो। अभी उसने कुछ किया ही नहीं। अभी वह सिर्फ प्रवेश हुआ है। पर उसकी मौजूदगी, और कुछ हो गया है। शिक्षक कैटेलिटिक एजेंट है इस क्षण में। अभी कुछ कर नहीं रहा है।
ये सारे उदाहरण बिलकुल ठीक नहीं हैं, सिर्फ आपको खयाल आ सके, इसलिए कह रहा हूं। आत्मा की मौजूदगी--लेकिन पूछा जा सकता है, मौजूद होने का भी उसका निर्णय तो है ही; डिसीजन तो है ही! शिक्षक कमरे में आया है, नहीं आता। आने का निर्णय तो लिया ही है। यह भी कोई कम काम तो नहीं है। आया है। आत्मा कम से कम निर्णय तो ले ही रही है जीवन में होने का। अन्यथा जीवन के प्रारंभ का कोई अर्थ नहीं है। कैसे जीवन प्रारंभ होगा! तो आत्मा क्यों निर्णय ले रही है जीवन के प्रारंभ का? मौजूद होने की भी क्या जरूरत है? क्या परपज है?
तो यहां थोड़े और गहरे उतरना पड़ेगा। एक बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि स्वतंत्रता सदा दोहरी होती है। स्वतंत्रता कभी इकहरी नहीं होती। स्वतंत्रता सदा दोहरी होती है। स्वतंत्रता का मतलब ही यह होता है कि आदमी या जिसके लिए स्वतंत्रता है, वह विपरीत भी कर सकता है।
समझ लें, एक गांव में हम डुंडी पीट दें और कहें कि प्रत्येक आदमी अच्छा काम करने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन बुरा काम नहीं कर सकता। तो उस गांव में अच्छा काम करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाएगी। अच्छा काम करने की स्वतंत्रता में इम्प्लाइड है, छिपी है, बुरा काम करने की स्वतंत्रता। और जो आदमी बुरा काम कर ही नहीं सकता, उसने अच्छा काम किया है, ऐसा कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
स्वतंत्रता दोहरी है, समस्त तलों पर। आत्मा स्वतंत्र है, अस्तित्व स्वतंत्र है। उस पर कोई परतंत्रता नहीं है। उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं, जो उसे परतंत्र कर सके। अस्तित्व फ्रीडम है, अस्तित्व स्वातंत्र्य है। और स्वातंत्र्य में हमेशा दोहरे विकल्प हैं। आत्मा चाहे तो दोनों यात्राएं कर सकती है--संसार में, शरीर में, बंधन में; बंधन के बाहर, संसार के बाहर, शरीर के बाहर। ये दोनों संभावनाएं हैं। और संसार का अनुभव, संसार के बाहर उठने के अनुभव की अनिवार्य आधारशिला है। विश्रांति का अनुभव, तनाव के अनुभव के बिना असंभव है। मुक्ति का अनुभव, अमुक्त हुए बिना असंभव है।
मैं एक छोटी-सी कहानी निरंतर कहता रहता हूं। मैं कहता रहता हूं कि एक अमीर आदमी, एक करोड़पति, जीवन के अंत में सारा धन पाकर चिंतित हो उठा। चिंतित हो उठा कि आनंद अब तक मिला नहीं! सोचा था जीवनभर धन, धन, धन। सोचा था, धन साधन बनेगा, आनंद साध्य होगा। साधन पूरा हो गया, आनंद की कोई खबर नहीं। साधन इकट्ठे हो गए, आनंद की वीणा पर कोई स्वर नहीं बजता। साधन इकट्ठा हो गया, भवन तैयार है, लेकिन आनंद का मेहमान आता हुआ दिखाई नहीं पड़ता, उसकी कोई पदचाप सुनाई नहीं पड़ती है। चिंतित हो जाना स्वाभाविक है।
गरीब आदमी कभी चिंतित नहीं हो पाता, यही उसका दुर्भाग्य है। अगर वह चिंतित भी होता है, तो साधन के लिए होता है कि कैसे धन मिले, कैसे मकान मिले! अमीर आदमी की जिंदगी में पहली दफा साध्य की चिंता शुरू होती है; क्योंकि साधन पूरा होता है। अब वह देखता है, साधन सब इकट्ठे हो गए, जिसके लिए इकट्ठे किए थे, वह कहां है!
इसलिए जब तक किसी आदमी की जिंदगी में साध्य का खयाल न उठे, तब तक वह गरीब है। चाहे उसके पास कितना ही धन इकट्ठा हो गया हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसके अमीर होने की खबर उसी दिन मिलती है, जिस दिन वह यह सोचने को तैयार हो जाता है--सब है जिससे आनंद मिलना चाहिए ऐसा सोचा था, लेकिन वह आनंद कहां है? साधन पूरे हो गए, लेकिन वह साध्य कहां है? भवन बन गया, लेकिन अतिथि कहां है? उसी दिन आदमी अमीर होता है। वही उसका सौभाग्य है। लेकिन बहुत कम अमीर आदमी अमीर होते हैं।
वह अमीर आदमी अमीर था; चिंता पकड़ गई उसे। उसने अपने घर के लोगों को कहा कि बहुत दिन प्रतीक्षा कर ली, अब मैं खोज में जाता हूं। अब तक सोचता था कि इंतजाम कर लूंगा, तो आनंद का अतिथि आ जाएगा। इंतजाम पूरा है, अतिथि का कोई पता चलता नहीं। अब मैं उसकी खोज पर निकलता हूं। बहुत-से हीरे-जवाहरात अपने साथ लेकर वह गया। गांव-गांव पूछता था लोगों से कि आनंद कहां मिलेगा? लोगों ने कहा, हम खुद ही तलाश में हैं। इस गांव तक हम उसी की तलाश में पहुंचे हैं। रास्तों पर लोगों से पूछता था, आनंद कहां मिलेगा? वे यात्री कहते कि हम भी सहयात्री हैं, फेलो ट्रेवलर्स हैं; हम भी खोज में निकले हैं। तुम्हें पता चल जाए, तो हमें भी खबर कर देना।
जिससे पूछा उसी ने कहा कि तुम्हें खबर मिल जाए, तो हमें भी बता देना। हमें कुछ पता नहीं, हम भी खोज में हैं। थक गया, परेशान हो गया, मौत करीब दिखाई पड़ने लगी। आनंद की कोई खबर नहीं।
फिर एक गांव से गुजर रहा था, तो किसी से उसने पूछा। झाड़ के नीचे एक आदमी बैठा हुआ था। देखकर ऐसा लगा कि शायद यह आदमी कोई जवाब दे सके। क्योंकि अंधकार घिर रहा था सांझ का, लेकिन उस आदमी के आस-पास कुछ अलौकिक प्रकाश मालूम पड़ता था। रात उतरने को थी, लेकिन उसके चेहरे पर चमक थी सुबह की। पकड़ लिए उसके पैर, धन की थैली पटक दी। और कहा कि ये हैं अरबों-खरबों रुपए के हीरे-जवाहरात--आनंद चाहिए!
उस फकीर ने आंखें ऊपर उठाईं और उसने कहा कि सच में चाहिए? बिलकुल तुम्हें आज तक कभी आनंद नहीं मिला? उसने कहा, कभी नहीं मिला। उसने कहा, कभी कोई थोड़ी-बहुत धुन बजी हो! कोई धुन नहीं बजी। उसने कहा, कभी थोड़ा-बहुत स्वाद आया हो! उस आदमी ने कहा, बातों में समय खराब मत करो; तुम पहले आदमी हो, जिसने एकदम से यह नहीं कहा कि मैं भी खोज रहा हूं। मुझे बताओ! उस फकीर ने पूछा, कोई परिचय ही नहीं है? उसने कहा, कोई परिचय नहीं है।
इतना कहना था कि वह फकीर उस झोले को, जिसमें हीरे-जवाहरात थे, लेकर भाग खड़ा हुआ। उस अमीर ने तो सोचा भी नहीं था। वह उसके पीछे भागा और चिल्लाया, मैं लुट गया। तुम आदमी कैसे हो! गांव परिचित था फकीर का, अमीर का तो परिचित नहीं था। गली-कूचे वह चक्कर देने लगा। सारा गांव जुट गया। गांव भी पीछे भागने लगा। अमीर चिल्ला रहा है, छाती पीट रहा है, आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। और वह कह रहा है, मैं लुट गया; मैं मर गया; मेरी जिंदगीभर की कमाई है। उसी के सहारे मैं आनंद को खोज रहा हूं; अब क्या होगा! मेरे दुख का कोई अंत नहीं है। मुझे बचाओ किसी तरह इस आदमी से; मेरा धन वापस दिलवाओ। वह गांवभर में चक्कर लगाकर भागता हुआ फकीर वापस उसी झाड़ के नीचे आ गया, जहां अमीर का घोड़ा खड़ा था। झोला जहां से उठाया था वहीं पटककर, जहां बैठा था वहीं झाड़ के पास फिर बैठ गया।
पीछे से भागता हुआ अमीर आया और सारा गांव। अमीर ने झोला उठाकर छाती से लगा लिया और भगवान की तरफ हाथ उठाकर कहा, हे भगवान, तेरा परम धन्यवाद! फकीर ने पूछा, कुछ आनंद मिला? उस अमीर ने कहा, कुछ? बहुत-बहुत मिला। ऐसा आनंद जीवन में कभी भी नहीं था। उस फकीर ने कहा, आनंद के पहले दुखी होना जरूरी है; पाने के पहले खोना जरूरी है; होने के पहले न होना जरूरी है; मुक्ति के पहले बंधन जरूरी है; ज्ञान के पहले अज्ञान जरूरी है; प्रकाश के पहले अंधकार जरूरी है।
इसलिए आत्मा एक यात्रा पर निकलती है, वह धन खोने की यात्रा है। असल में जिसे हम खोते नहीं, उसे हम कभी पाने का अनुभव नहीं कर सकते। और इसलिए जब जिन्होंने पाया है, जैसे कृष्ण, जैसे बुद्ध...जब बुद्ध को मिला ज्ञान, लोगों ने पूछा, क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ था, उसको जाना भर। लेकिन बीच में खोना जरूरी था। स्वास्थ्य का अनुभव करने के लिए भी बीमार होना अनिवार्य प्रक्रिया है। ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसी फैक्टिसिटी है।
तो जब आप पूछते हैं, क्या जरूरत है आत्मा को संसार में जाने की? तो मैं कहता हूं, मुक्ति के अनुभव के लिए। और आत्मा संसार में आने के पहले भी मुक्त है, लेकिन उस मुक्ति का कोई बोध नहीं हो सकता; उस मुक्ति की कोई प्रतीति नहीं हो सकती; उस मुक्ति का कोई एहसास नहीं हो सकता। खोए बिना एहसास असंभव है।
इसलिए संसार एक परीक्षण है। संसार एक एक्सपेरिमेंट है, स्वयं को खोने का। संसार इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। यह आत्मा का अपना ही चुनाव है कि वह खोए और पाए। परमात्मा संसार में अपने को खोकर पा रहा है; खोता रहेगा, पाता रहेगा; अंधेरे में उतरेगा और प्रकाश में आकर जागेगा कि प्रकाश है।
इसलिए कृष्ण से अगर हम पूछेंगे, तो वे कहेंगे, लीला है--अपने से ही अपने को छिपाने की, अपने से ही अपने को खोजने की, अपने से ही अपने को पाने की--लीला है, बहुत गंभीर मामला नहीं है। बहुत सीरियस होने की जरूरत नहीं है। इसलिए कृष्ण से ज्यादा नान-सीरियस, गैर-गंभीर आदमी खोजना मुश्किल है। और जो गंभीर हैं, वे खबर देते हैं कि उन्हें जीवन के पूरे राज का अभी पता नहीं चला है। जीवन का पूरा राज यही है कि जिसे हम तलाश रहे हैं, उसे हमने खोया है। जिसे हम खोज रहे हैं, उसे हमने छिपाया है। जिसकी तरफ हम जा रहे हैं, उसकी तरफ से हम खुद आए हैं।
पर ऐसा है। और आप पूछें, क्यों है? तो उस क्यों का कोई उत्तर नहीं है। एक क्यों तो जरूर जिंदगी में होगा, जिसका कोई उत्तर नहीं होगा। वह क्यों हम कहां जाकर पकड़ते हैं, यह दूसरी बात है। लेकिन अल्टिमेट व्हाई, आखिरी क्यों का कोई उत्तर नहीं हो सकता है। नहीं हो सकता, इसीलिए फिलासफी, दर्शनशास्त्र फिजूल के चक्कर में घूम जाता है। वह क्यों की तलाश करता है।
इसको थोड़ा समझ लेना उचित है।
दर्शनशास्त्र क्यों की तलाश करता है--ऐसा क्यों है? एक कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? फिर दूसरा कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? फिर इनफिनिट रिग्रेस हो जाता है। फिर अंतहीन है यह सिलसिला। और हर उत्तर नए प्रश्न को जन्म दे जाता है। हम कोई भी कारण खोज लें, फिर भी क्यों तो पूछा ही जा सकता है। ऐसा कोई कारण हो सकता है क्या, जिसके संबंध में सार्थक रूप से क्यों न पूछा जा सके? नहीं हो सकता। इसलिए दर्शनशास्त्र एक बिलकुल ही अंधी गली है।
विज्ञान नहीं पूछता--क्यों? विज्ञान पूछता है--क्या, व्हाट? इसलिए विज्ञान अंधी गली नहीं है। धर्म भी नहीं पूछता--क्यों? धर्म भी पूछता है--व्हाट, क्या? इसे समझ लेना आप।
विज्ञान और धर्म बहुत निकट हैं। विज्ञान की भी दुश्मनी अगर है, तो फिलासफी से है। और धर्म की भी अगर दुश्मनी है, तो फिलासफी से है। आमतौर से ऐसा खयाल नहीं है। लोग समझते हैं कि धर्म तो खुद ही एक फिलासफी है।
धर्म बिलकुल भी फिलासफी नहीं है। धर्म एक विज्ञान है। धर्म यह पूछता है, क्या? क्यों नहीं। क्योंकि धर्म जानता है कि अस्तित्व से क्या का उत्तर मिल सकता है। क्यों का कोई उत्तर नहीं मिल सकता। विज्ञान भी पूछता है, क्या? विज्ञान पूछता है, पानी क्या है? हाइड्रोजन और आक्सीजन। आप पूछें कि क्यों हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं? वैज्ञानिक कहेगा, दार्शनिक से पूछो। हमारी लेबोरेटरी में हम क्या खोजते हैं। हम बता सकते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है। क्या, हम बताते हैं। कैसे, हम बताते हैं। क्यों, कृपा करके हमसे मत पूछो। या तो पागलों से या फिलासफर से, इनसे क्यों पूछो
वैज्ञानिक कहता है कि हम कितना ही खोजें, हम इतना ही जान सकते हैं कि क्या! और जब हमें क्या पता चल जाए, तो हम जान सकते हैं, कैसे! पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर बना है, हमने जान लिया--व्हाट। अब हम खोज कर सकते हैं कि कैसे मिला है। इसलिए विज्ञान क्या की खोज करता है और कैसे को प्रयोगशाला में ढूंढ़ लेता है।
धर्म भी अस्तित्व के क्या की खोज करता है और योग में कैसे की प्रक्रिया को खोज लेता है। इसलिए धर्म का जो आनुषांगिक अंग है, वह योग है। और विज्ञान का जो आनुषांगिक अंग है, वह प्रयोग है। लेकिन धर्म का कोई संबंध नहीं है क्यों से। क्योंकि एक बात सुनिश्चित है कि हम अस्तित्व के क्यों को न पूछ पाएंगे। अस्तित्व है, और यहीं बात समाप्त हो जाती है।
तो कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसा है कि वह जो आत्मा है, वह मरणधर्मा नहीं है। पूछें, क्यों? तो क्यों का कोई सवाल ही नहीं है। ऐसा है, थिंग्स आर सच। वह जो आत्मा है, वह आत्मा जल नहीं सकती, जन्म नहीं लेती, मरती नहीं। क्यों? कृष्ण कहेंगे, ऐसा है। अगर तुम पूछो कि कैसे हम जानें उस आत्मा को, तो रास्ता बताया जा सकता है--जो नहीं मरती, जो नहीं जन्मती। लेकिन अगर पूछें कि क्यों नहीं मरती? तो कृष्ण कहते हैं, कोई उपाय नहीं है। यहां जाकर सब निरुपाय हो जाता है। यहां जाकर आदमी एकदम हेल्पलेस हो जाता है। यहां जाकर बुद्धि एकदम थक जाती और गिर जाती है।
लेकिन बुद्धि क्यों ही पूछती है। उसका रस क्यों में है। क्योंकि अगर आप क्यों पूछें, तो बुद्धि कभी न गिरेगी और कभी न थकेगी, कभी न मरेगी। वह पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी, पूछती चली जाएगी।
बचपन में मैंने एक कहानी सुनी है, आपने भी सुनी होगी। एक बूढ़ी औरत, नानी है। बच्चे उसे घर में घेर लेते हैं और कहानी पूछते हैं। वह थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गई हैं। लेकिन बच्चे हैं कि रोज पूछे ही चले जाते हैं। वे फिर-फिर कहते हैं रोज रात, कहानी! और वह बूढ़ी थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गई हैं। अब वह क्या करे और क्या न करे! और बच्चे हैं कि पीछे पड़े हैं।
तो फिर उसने एक कहानी ईजाद की। ठीक वैसी ही जैसी परमात्मा की कहानी है। उसने कहानी ईजाद की। उसने कहा, एक वृक्ष पर अनंत पक्षी बैठे हैं। बच्चे खुश हुए, क्योंकि अनंत पक्षी हैं, कथा अनंत चल सकेगी। उसने कहा, एक शिकारी है, जिसके पास अनंत बाण हैं। उसने एक तीर छोड़ा। तीर के लगते ही वृक्ष पर, एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर? उस बूढ़ी ने कहा, उस शिकारी ने दूसरा तीर छोड़ा, फिर एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर! उस बूढ़ी ने कहा, फिर शिकारी ने एक तीर छोड़ा। फिर एक पक्षी उड़ा--फुर्र। बच्चों ने पूछा, फिर! फिर यह कहानी चलने लगी, बस ऐसे ही चलने लगी। फिर बच्चे थक गए और उन्होंने कहा, कुछ और नहीं होगा? उस बूढ़ी स्त्री ने कहा कि अब मैं थक गई हूं, अब और कहानी नहीं। अब यह एक कहानी काफी रहेगी। अब तुम रोज पूछना। फिर उसने एक तीर छोड़ा--अनंत हैं तीर, अनंत हैं पक्षी।
यह जो हमारे क्यों का जगत है, वह ठीक बच्चों जैसा है, जो पूछ रहे हैं, क्यों? क्यों का सवाल चाइल्डिश है, यद्यपि बहुत बुद्धिमान लोग पूछते हुए मालूम पड़ते हैं। असल में बुद्धिमानों से ज्यादा बाल-बुद्धि के लोग खोजने मुश्किल हैं। क्यों का सवाल एकदम बचकाना है। लेकिन बड़ा कीमती मालूम पड़ता है। क्योंकि दुनिया में जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, वे यही पूछते रहे हैं। चाहे वे यूनान के दार्शनिक हों, चाहे भारत के हों और चाहे चीन के हों, वे यह क्यों ही पूछते रहे हैं। और फिर क्यों के उत्तर खोजते रहे हैं। किसी उत्तर ने किसी को तृप्ति नहीं दी। किसी उत्तर से हल नहीं हुआ। क्योंकि हर उत्तर के बाद पूछने वाले ने पूछा, क्यों? फिर एक तीर, फिर पक्षी उड़ जाता है। और फिर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है।
इसलिए मैंने निरंतर पीछे आपसे कहा कि यह किताब मेटाफिजिकल नहीं है। यह कृष्ण का संदेश जो अर्जुन को है, यह कोई दार्शनिक, कोई तत्व-ज्ञान का नहीं, यह मनस-विज्ञान का है। इसलिए वे कह रहे हैं, ऐसा है। और एक आत्मा जब यात्रा करती है, तो कैसे यात्रा करती है, वह मैंने आपसे कहा। यात्रा का क्या--इतना ही ज्ञात है, इतना ही ज्ञात हो सका है, इतना ही ज्ञात हो सकता है, इससे शेष अज्ञात ही रहेगा।
वह यह कि स्वतंत्रता के पूर्ण अनुभव के पहले परतंत्रता का अनुभव जरूरी है। मुक्ति के पूरे आकाश में उड़ने के पहले किसी कारागृह, किसी पिंजरे के भीतर थोड़ी देर टिकना उपयोगी है। उसकी यूटिलिटी है। इसलिए आत्मा यात्रा करती है। और जब तक आत्मा बहुत गहरी नहीं उतर जाती पाप, अंधकार, बुराई, कारागृह में, तब तक लौटती भी नहीं।
कल कोई दोपहर मुझसे पूछता था कि वाल्मीकि जैसे पापी उपलब्ध हो जाते हैं ज्ञान को! तो मैंने कहा, वही हो पाते हैं। जो मीडियाकर हैं, जो बीच में होते हैं, उनका अनुभव ही अभी पाप का इतना नहीं कि पुण्य की यात्रा शुरू हो सके। इसलिए वे बीच में ही रहते हैं। लेकिन वाल्मीकि के लिए तो आगे जाने का रास्ता ही खतम हो जाता है; कल-डि-सैक आ जाता है; वहां सब रास्ता ही खतम हो जाता है। अब और वाल्मीकि क्या पाप करें? आखिरी आ गई यात्रा। अब दूसरी यात्रा शुरू होती।
इसलिए अक्सर गहरा पापी गहरा संत हो जाता है। साधारण पापी साधारण सज्जन ही होकर जीता है। जितने गहरे अंधकार की यात्रा होगी, उतनी अंधकार से मुक्त होने की आकांक्षा का भी जन्म होता है; उतनी ही तीव्रता से यात्रा भी होती है दूसरी दिशा में भी।
इसलिए आत्मा निष्क्रिय होते हुए भी कामना तो करती है यात्रा की। निष्क्रिय कामना भी हो सकती है। आप कुछ न करें, सिर्फ कामना करें। लेकिन आत्मा के तल पर कामना ही एक्ट बन जाती है, दि वेरी डिजायर बिकम्स दि एक्ट। वहां सिर्फ कामना करना ही कृत्य हो जाता है। वहां कोई और कृत्य करने की जरूरत नहीं होती।
इसलिए शास्त्र कहते हैं कि परमात्मा ने कामना की, तो जगत निर्मित हुआ। बाइबिल कहती है कि परमात्मा ने कहा, लेट देअर बी लाइट, एंड देअर वाज़ लाइट। कहा कि प्रकाश हो, और प्रकाश हो गया। यहां प्रकाश हो और प्रकाश के हो जाने के बीच कोई भी कृत्य नहीं है; सिर्फ कामना है। आत्मा की कामना कि अंधेरे को जाने, कि यात्रा शुरू हो गई। आत्मा की कामना कि मुक्त हों, कि यात्रा शुरू हो गई। आत्मा की कामना कि जानें परम सत्य को, कि यात्रा शुरू हो गई।
और आपको अगर कृत्य करने पड़ते हैं, तो वे इसलिए करने पड़ते हैं कि कामना पूरी नहीं है। असल में कृत्य सिर्फ कामना की कमी को पूरा करते हैं, फिर भी पूरा नहीं कर पाते। अगर कामना पूरी है, तो कृत्य तत्काल हो जाता है। अगर आप इसी क्षण पूरे भाव से कामना कर पाएं कि परमात्मा को जानूं, तो एक सेकेंड भी नहीं गिरेगा और परमात्मा जान लिया जाएगा।
अगर बाधा पड़ती है, तो कृत्य की कमी से नहीं; बाधा पड़ती है, भीतर मन ही पूरा नहीं कहता। वह यह कहता है, जरा और सोच लूं; इतनी जल्दी भी क्या है जानने की! एक मन कहता है, जानें। आधा मन कहता है, छोड़ो। क्या रखा है! परमात्मा है भी, नहीं है--कुछ पता नहीं है। कामना ही पूरी नहीं है।
इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, आत्मा निष्क्रिय है, तो इस बात को ठीक से समझ लेना कि आत्मा के लिए कृत्य करने की अनिवार्यता ही नहीं है। आत्मा के लिए कामना करना ही पर्याप्त कृत्य है। अगर यह खयाल में आ जाए, तो ही यह बात खयाल में आ पाएगी कि कृष्ण अर्जुन को समझाए चले जा रहे हैं, इस आशा में कि अगर समझ भी पूरी हो जाए, तो बात पूरी हो जाती है; कुछ और करने को बचता नहीं है। कुछ ऐसा नहीं है कि समझ पूरी हो जाए, तो फिर शीर्षासन करना पड़े, आसन करना पड़े, व्यायाम करना पड़े, फिर मंदिर में घंटी बजानी पड़े, फिर पूजा करनी पड़े, फिर प्रार्थना करनी पड़े। अगर अंडरस्टैंडिंग पूरी हो जाए, तो कुछ करने को बचता नहीं। वह पूरी नहीं होती है, इसलिए सब उपद्रव करना पड़ता है। सारा रिचुअल सब्स्टीटयूट है। जो भी क्रियाकांड है, वह समझ की कमी को पूरा करवा रहा है और कुछ नहीं। उससे पूरी होती भी नहीं, सिर्फ वहम पैदा होता है कि पूरी हो रही है। अगर समझ पूरी हो जाए, तो तत्काल घटना घट जाती है।
एडिंग्टन ने अपने आत्म-संस्मरणों में लिखा है कि जब मैंने जगत की खोज शुरू की थी, तो मैं कुछ और सोचता था। मैं सोचता था, जगत वस्तुओं का एक संग्रह है। अब जब कि मैं जगत की खोज, जितनी मुझसे हो सकती थी, करके विदा की बेला में आ गया हूं, तो मैं कहना चाहता हूं, दि वर्ल्ड इज़ लेस लाइकथिंग एंड मोर लाइकथाट। अब यह नोबल प्राइज विनर वैज्ञानिक कहे, तो थोड़ा सोचने जैसा है। वह कहता है कि जगत वस्तु के जैसा कम और विचार के जैसा ज्यादा है।
अगर जगत विचार के जैसा ज्यादा है, तो कृत्य मूल्यहीन है, संकल्प मूल्यवान है। कृत्य संकल्प की कमी है। इसलिए हमें लगता है कि कुछ करें भी, तब पूरा हो पाएगा।
संकल्प ही काफी है। आत्मा बिलकुल निष्क्रिय है। और उसका संकल्प ही एकमात्र सक्रियता है। संकल्प है कि हम जगत में जाएं, तो हम आ गए। जिस दिन संकल्प होगा कि उठ जाएं वापस, उसी दिन हम वापस लौट जाते हैं। लेकिन जगत का अनुभव, लौटने के संकल्प के लिए जरूरी है।


प्रश्न: भगवान श्री, बहुत सारे श्रोताओं की जिज्ञासा मंडराती है इस प्रश्न के बारे में। क्या एस्ट्रल बाडी और प्रेतात्मा एक ही चीज हैं? क्या ऐसी प्रेतात्मा दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करके परेशान कर सकती है? उसका क्या उपाय है? बहुत सारे श्रोताजनों ने यह पूछा है।


जैसा मैंने कहा, साधारण व्यक्ति, सामान्यजन, जो न बहुत बुरा है, न बहुत अच्छा है...। चार तरह के लोग हैं। साधारणजन, जो अच्छाई और बुराई के मिश्रण हैं। असाधारणजन, जो या तो शुद्ध बुराई हैं अधिकतम या शुद्ध अच्छाई हैं अधिकतम। तीसरे वे लोग, जो न बुराई हैं, न अच्छाई हैं--दोनों नहीं हैं। इनके लिए क्या नाम दें, कहना कठिन है। चौथे वे लोग, जो बुराई और अच्छाई में बिलकुल समतुल हैं, बैलेंस्ड हैं। ये तीसरे और चौथे लोग ऐसे हैं, जिनकी जन्म की यात्रा बंद हो जाएगी। उनकी हम पीछे बात करेंगे। पहले और दूसरे लोग ऐसे हैं, जिनकी जन्म की यात्रा जारी रहेगी
जो पहली तरह के लोग हैं--मिश्रण; अच्छे भी, बुरे भी, दोनों ही एक साथ; कभी बुरे, कभी अच्छे; अच्छे में भी बुरे, बुरे में भी अच्छे; सबका जोड़ हैं; निर्णायक नहीं, इनडिसीसिव; इधर से उधर डोलते रहते हैं--इनके लिए साधारणतया मरने के बाद तत्काल गर्भ मिल जाता है। क्योंकि इनके लिए बहुत गर्भ उपलब्ध हैं। सारी पृथ्वी इन्हीं के लिए मैन्युफैक्चर कर रही है। इनके लिए फैक्टरी जगह-जगह है। इनकी मांग बहुत असाधारण नहीं है। ये जो चाहते हैं, वह बहुत साधारण व्यक्तित्व है, जो कहीं भी मिल सकता है। ऐसे आदमी प्रेत नहीं होते। ऐसे आदमी तत्काल नया शरीर ले लेते हैं।
लेकिन बहुत अच्छे लोग और बहुत बुरे लोग, दोनों ही बहुत समय तक अटक जाते हैं। उनके लिए उनके योग्य गर्भ मिलना मुश्किल हो जाता है। जैसा मैंने कहा कि हिटलर के लिए या चंगेज के लिए या स्टैलिन के लिए या गांधी के लिए या अलबर्ट शवित्जर के लिए, इस तरह के लोगों के लिए जन्म एक मृत्यु के बाद काफी समय ले लेता है--जब तक योग्य गर्भ उपलब्ध न हो। तो बुरी आत्माएं और अच्छी आत्माएं, एक्सट्रीमिस्ट; जिन्होंने बुरे होने का ठेका ही ले रखा था जीवन में, ऐसी आत्माएं; जिन्होंने भले होने का ठेका ले रखा था, ऐसी आत्माएं--इनको रुक जाना पड़ता है।
जो इनमें बुरी आत्माएं हैं, उनको ही हम भूत-प्रेत कहते हैं। और इनमें जो अच्छी आत्माएं हैं, उनको ही हम देवता कहते रहे हैं। ये काफी समय तक रुक जाती हैं, कई बार तो बहुत समय तक रुक जाती हैं। हमारी पृथ्वी पर हजारों साल बीत जाते हैं, तब तक रुक जाती हैं।
पूछा है कि क्या ये दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकती हैं?
कर सकती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में जितनी संकल्पवान आत्मा हो, उतनी ही रिक्त जगह नहीं होती। जितनी विल पावर की आत्मा हो, उतनी ही उसके शरीर में रिक्त जगह नहीं होती, जिसमें कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सके। जितनी संकल्पहीन आत्मा हो, उतनी ही रिक्त जगह होती है।
इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जब आप संकल्प से भरते हैं, तब आप फैलते हैं। संकल्प एक्सपैंडिंग चीज है। और जब आपका संकल्प निर्बल होता है, तब आप सिकुड़ते हैं। जब आप हीन-भाव से भरते हैं, तो सिकुड़ जाते हैं। यह बिलकुल सिकुड़ने और फैलने की घटना घटती है भीतर।
तो जब आप कमजोर होते हैं, भयभीत होते हैं, डरे हुए होते हैं, आत्मग्लानि से भरे होते हैं, आत्म-अविश्वास से भरे होते हैं, स्वयं के प्रति अश्रद्धा से भरे होते हैं, स्वयं के प्रति निराशा से भरे होते हैं, तब आपके भीतर का जो सूक्ष्म शरीर है, वह सिकुड़ जाता है। और आपके इस शरीर में इतनी जगह होती है फिर कि कोई भी आत्मा प्रवेश कर सकती है। आप दरवाजा दे सकते हैं।
आमतौर से भली आत्माएं प्रवेश नहीं करती हैं। नहीं करने का कारण है। क्योंकि भली आत्मा जिंदगीभर एंद्रिक सुखों से मुक्त होने की चेष्टा में लगी रहती है। एक अर्थ में, भली आत्मा शरीर से ही मुक्त होने की चेष्टा में लगी रहती है। लेकिन बुरी आत्मा के जीवन के सारे अनुभव शरीर के सुख के अनुभव होते हैं। और बुरी आत्मा, शरीर से बाहर होने पर जब उसे नया जन्म नहीं मिलता, तो उसकी तड़फन भारी हो जाती है; उसकी पीड़ा भारी हो जाती है। उसको अपना शरीर तो मिल नहीं रहा है, गर्भ उपलब्ध नहीं है, लेकिन वह किसी के शरीर पर सवार होकर इंद्रिय के सुखों को चखने की चेष्टा करती है। तो अगर कहीं भी कमजोर संकल्प का आदमी हो...।
इसीलिए पुरुषों की बजाय स्त्रियों में प्रेतात्माओं का प्रवेश मात्रा में ज्यादा होता है। क्योंकि स्त्रियों को हम अब तक संकल्पवान नहीं बना पाए हैं। जिम्मा पुरुष का है, क्योंकि पुरुष ने स्त्रियों का संकल्प तोड़ने की निरंतर कोशिश की है। क्योंकि जिसे भी गुलाम बनाना हो, उसे संकल्पवान नहीं बनाया जा सकता। जिसे गुलाम बनाना हो, उसके संकल्प को हीन करना पड़ता है, इसलिए स्त्री के संकल्प को हीन करने की निरंतर चेष्टा की गई है हजारों साल में। जो आध्यात्मिक संस्कृतियां हैं, उन्होंने भी भयंकर चेष्टा की है कि स्त्री के संकल्प को हीन करें, उसे डराएं, उसे भयभीत करें। क्योंकि पुरुष की प्रतिष्ठा उसके भय पर ही निर्भर करेगी।
तो स्त्री में जल्दी प्रवेश...। और मात्रा बहुत ज्यादा है। दस प्रतिशत पुरुष ही प्रेतात्माओं से पीड़ित होते हैं, नब्बे प्रतिशत स्त्रियां पीड़ित होती हैं। संकल्प नहीं है; जगह खाली है; प्रवेश आसान है।
संकल्प जितना मजबूत हो, स्वयं पर श्रद्धा जितनी गहरी हो, तो हमारी आत्मा हमारे शरीर को पूरी तरह घेरे रहती है। अगर संकल्प और बड़ा हो जाए, तो हमारा सूक्ष्म शरीर हमारे इस शरीर के बाहर भी घेराव बनाता है--बाहर भी। इसलिए कभी किन्हीं व्यक्तियों के पास जाकर, जिनका संकल्प बहुत बड़ा है, आप तत्काल अपने संकल्प में परिवर्तन पाएंगे। क्योंकि उनका संकल्प उनके शरीर के बाहर भी वर्तुल बनाता है। उस वर्तुल के भीतर अगर आप गए, तो आपका संकल्प परिवर्तित होता हुआ मालूम पड़ेगा। बहुत बुरे आदमी के पास भी।
अगर एक वेश्या के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। एक संत के पास जाते हैं, तो भी फर्क पड़ेगा। क्योंकि उसके संकल्प का वर्तुल, उसके सूक्ष्म शरीर का वर्तुल, उसके स्थूल शरीर के भी बाहर फैला होता है। यह फैलाव बहुत बड़ा भी हो सकता है। इस फैलाव के भीतर आप अचानक पाएंगे कि आपके भीतर कुछ होने लगा, जो आपका नहीं मालूम पड़ता। आप कुछ और तरह के आदमी थे, लेकिन कुछ और हो रहा है भीतर।
तो हमारा संकल्प इतना छोटा भी हो सकता है कि इस शरीर के भीतर भी सिकुड़ जाए, इतना बड़ा भी हो सकता है कि इस शरीर के बाहर भी फैल जाए। वह इतना बड़ा भी हो सकता है कि पूरे ब्रह्मांड को घेर ले। जिन लोगों ने कहा, अहं ब्रह्मास्मि, वह संकल्प के उस क्षण में उन्हें अनुभव हुआ है, जब सारा संकल्प सारे ब्रह्मांड को घेर लेता है। तब चांदत्तारे बाहर नहीं, भीतर चलते हुए मालूम पड़ते हैं। तब सारा अस्तित्व अपने ही भीतर समाया हुआ मालूम पड़ता है। संकल्प इतना भी सिकुड़ जाता है कि आदमी को यह भी पक्का पता नहीं चलता कि मैं जिंदा हूं कि मर गया। इतना भी सिकुड़ जाता है।
इस संकल्प के अति सिकुड़े होने की हालत में ही नास्तिकता का गहरा हमला होता है। संकल्प के फैलाव की स्थिति में ही आस्तिकता का गहरा हमला होता है। संकल्प जितना फैलता है, उतना ही आदमी आस्तिक अनुभव करता है अपने को। क्योंकि अस्तित्व इतना बड़ा हो जाता है कि नास्तिक होने का कोई कारण नहीं रह जाता। संकल्प जब बहुत सिकुड़ जाता है, तो नास्तिक अनुभव करता है। अपने ही पैर डांवाडोल हों, अपना ही अस्तित्व न होने जैसा हो, उस क्षण आस्तिकता नहीं उभर सकती; उस वक्त जीवन के प्रति नहीं का भाव, न का भाव पैदा होता है। नास्तिकता और आस्तिकता मनोवैज्ञानिक सत्य हैं--मनोवैज्ञानिक।
सिमन वेल ने लिखा है कि तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में भारी दर्द था। चौबीस घंटे होता था। तो मैं कभी सोच ही नहीं पाई कि परमात्मा हो सकता है। जिसके सिर में चौबीस घंटे दर्द है, उसको बहुत मुश्किल है मानना कि परमात्मा हो सकता है।
अब यह बड़े मजे की बात है कि सिरदर्द जैसी छोटी चीज भी परमात्मा को दरवाजे के बाहर कर सकती है। वह ईश्वर के न होने की बात करती रही। उसे कभी खयाल भी न आया कि ईश्वर के न होने का बहुत गहरा कारण मेडिकल है। उसे खयाल भी नहीं आया कि ईश्वर के न होने का कारण सिरदर्द है। तर्क और दलीलें और नहीं। जिसके सिर में दर्द है, उसके मन से नहीं का भाव उठता है। उसके मन से हां का भाव नहीं उठता। हां के भाव के लिए भीतर बड़ी प्रफुल्लता चाहिए, तब हां का भाव उठता है।
फिर सिरदर्द ठीक हो गया। तब उसे एहसास हुआ कि उसके भीतर से इनकार का भाव कम हो गया है। तब उसे एहसास हुआ कि वह न मालूम किस अनजाने क्षण में नास्तिक से आस्तिक होने लगी।
संकल्प अगर क्षीण है, तो प्रेतात्माएं प्रवेश कर सकती हैं; बुरी प्रेतात्माएं, जिन्हें हम भूत कहें, प्रवेश कर सकती हैं, क्योंकि वे आतुर हैं। पूरे समय आतुर हैं कि अपना शरीर नहीं है, तो आपके शरीर से ही थोड़ा-सा रस ले लें। और शरीर के रस शरीर के बिना नहीं लिए जा सकते हैं, यह तकलीफ है। शरीर के रस शरीर से ही लिए जा सकते हैं।
अगर एक कामुक आत्मा है, सेक्सुअल आत्मा है और उसके पास अपना शरीर नहीं है, तो सेक्सुअलिटी तो पूरी होती है, शरीर नहीं होता, इंद्रियां नहीं होतीं। अब उसकी पीड़ा आप समझ सकते हैं। उसकी पीड़ा बड़ी मुश्किल की हो गई। चित्त कामुक है, और उपाय बिलकुल नहीं है, शरीर नहीं है पास में। वह किसी के भी शरीर में प्रवेश करके कामवासना को तृप्त करने की चेष्टा कर सकती है।
शुभ आत्माएं आमतौर से प्रवेश नहीं करतीं, जब तक कि आमंत्रित न की जाएं। अनइनवाइटेड उनका प्रवेश नहीं होता। क्योंकि उनके लिए शरीर की कोई आकांक्षा नहीं है। लेकिन इनविटेशन पर, आमंत्रण पर, उनका प्रवेश हो सकता है। आमंत्रण का मतलब इतना ही हुआ कि अगर कोई ऐसी घड़ी हो, जहां उनका उपयोग किया जा सके, जहां वे सहयोगी हों और सेवा दे सकें, तो वे तत्काल उपलब्ध हो जाती हैं। बुरी आत्मा हमेशा अनइनवाइटेड प्रवेश करती है, घर के पीछे के दरवाजे से; भली आत्मा आमंत्रित होकर प्रवेश कर सकती है।
लेकिन भली आत्माओं का प्रवेश निरंतर कम होता चला गया है, क्योंकि आमंत्रण की विधि खो गई है। और बुरी आत्माओं का प्रवेश बढ़ता चला गया है। क्यों? क्योंकि संकल्प दीन-हीन और नकारात्मक, निगेटिव हो गया है। इसलिए आज पृथ्वी पर देवता की बात करना झूठ है; भूत की बात करना झूठ नहीं है। प्रेत अभी भी अस्तित्ववान हैं; देवता कल्पना हो गए हैं।
लेकिन देवताओं को बुलाने की, निमंत्रण की विधियां थीं। सारा वेद उन्हीं विधियों से भरा हुआ है। उसके अपने सीक्रेट मैथड्स हैं कि उन्हें कैसे बुलाया जाए, उनसे कैसे तारतम्य, उनसे कैसे कम्युनिकेशन, उनसे कैसे संबंध स्थापित किया जाए, उनसे चेतना कैसे जुड़े। और निश्चित ही, बहुत कुछ है जो उनके द्वारा ही जाना गया है। और इसीलिए उसके लिए आदमी के पास कोई प्रमाण नहीं है।
अब यह जानकर आपको हैरानी होगी कि सात सौ साल पुराना एक पृथ्वी का नक्शा बेरूत में मिला है। सात सौ साल पुराना, पृथ्वी का नक्शा, बेरूत में मिला है। वह नक्शा ऐसा है, जो बिना हवाई जहाज के नहीं बनाया जा सकता। जिसके लिए हवाई जहाज की ऊंचाई पर उड़कर पृथ्वी देखी जाए, तो ही बनाया जा सकता है। लेकिन सात सौ साल पहले हवाई जहाज ही नहीं था। इसलिए बड़ी मुश्किल में वैज्ञानिक पड़ गए हैं उस नक्शे को पाकर। बहुत कोशिश की गई कि सिद्ध हो जाए कि वह नक्शा सात सौ साल पुराना नहीं है, लेकिन सिद्ध करना मुश्किल हुआ है। वह कागज सात सौ साल पुराना है। वह स्याही सात सौ साल पुरानी है। वह भाषा सात सौ साल पुरानी है। जिन दीमकों ने उस कागज को खा लिया है, वे छेद भी पांच सौ साल पुराने हैं। लेकिन वह नक्शा बिना हवाई जहाज के नहीं बन सकता।
तो एक तो रास्ता यह है कि सात सौ साल पहले हवाई जहाज रहा हो, जो कि ठीक नहीं है। सात हजार साल पहले रहा हो, इसकी संभावना है; सात सौ साल पहले रहा हो, इसकी संभावना नहीं है। क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबा फासला नहीं है। सात सौ साल पहले हवाई जहाज रहा हो और बाइसिकल न रही हो, यह नहीं हो सकता। क्योंकि हवाई जहाज एकदम से आसमान से नहीं बनते। उनकी यात्रा है--बाइसिकल है, कार है, रेल है, तब हवाई जहाज बन पाता है। ऐसा एकदम से टपक नहीं जाता आसमान से। तो एक तो रास्ता यह है कि हवाई जहाज रहा हो, जो कि सात सौ साल पहले नहीं था।
दूसरा रास्ता यह है कि अंतरिक्ष के यात्री आए हों--जैसा कि एक रूसी वैज्ञानिक ने सिद्ध करने की कोशिश की है--कि किसी दूसरे प्लेनेट से कोई यात्री आए हों और उन्होंने यह नक्शा दिया हो। लेकिन दूसरे प्लेनेट से यात्री सात सौ साल पहले आए हों, यह भी संभव नहीं है। सात हजार साल पहले आए हों, यह संभव है। क्योंकि सात सौ साल बहुत लंबी बात नहीं है। इतिहास के घेरे की बात है। हमारे पास कम से कम दो हजार साल का तो सुनिश्चित इतिहास है। उसके पहले का इतिहास नहीं है। इसलिए इतनी बड़ी घटना सात सौ साल पहले घटी हो कि अंतरिक्ष से यात्री आए हों और उसका एक भी उल्लेख न हो, जब कि सात सौ साल पहले की किताबें पूरी तरह उपलब्ध हैं, संभव नहीं है।
मैं तीसरा सुझाव देता हूं, जो अब तक नहीं दिया गया। और वह सुझाव मेरा यह है कि यह जो नक्शे की खबर है, यह किसी आत्मा के द्वारा दी गई खबर है, जो किसी व्यक्ति में इनवाइटेड हुई। जो किसी व्यक्ति के द्वारा बोली।
पृथ्वी गोल है, यह तो पश्चिम में अभी पता चला। ज्यादा समय नहीं हुआ, अभी कोई तीन सौ साल। लेकिन हमारे पास भूगोल शब्द हजारों साल पुराना है। तब भूगोल जिन्होंने शब्द गढ़ा होगा, उनको पृथ्वी गोल नहीं है, ऐसा पता रहा हो, नहीं कहा जा सकता। नहीं तो भूगोल शब्द कैसे गढ़ेंगे! लेकिन आदमी के पास--जमीन गोल है--इसको जानने के साधन बहुत मुश्किल मालूम पड़ते हैं। सिवाय इसके कि यह संदेश कहीं से उपलब्ध हुआ हो।
आदमी के ज्ञान में बहुत-सी बातें हैं, जिनकी कि प्रयोगशालाएं नहीं थीं, जिनका कि कोई उपाय नहीं था। जैसे कि लुकमान के संबंध में कथा है। और अब तो वैज्ञानिक को भी संदेह होने लगा है कि कथा ठीक होनी चाहिए।
लुकमान के संबंध में कथा है कि उसने पौधों से जाकर पूछा कि बता दो, तुम किस बीमारी में काम आ सकते हो? पौधे बताते हुए मालूम नहीं पड़ते। लेकिन दूसरी बात भी मुश्किल मालूम पड़ती है कि लाखों पौधों के संबंध में लुकमान ने जो खबर दी है, वह इतनी सही है, कि या तो लुकमान की उम्र लाखों साल रही हो और लुकमान के पास आज से भी ज्यादा विकसित फार्मेसी की प्रयोगशालाएं रही हों, तब वह जांच कर पाए कि कौन-सा पौधा किस बीमारी में काम आता है। लेकिन लुकमान की उम्र लाखों साल नहीं है। और लुकमान के पास कोई प्रयोगशाला की खबर नहीं है। लुकमान तो अपना झोला लिए जंगलों में घूम रहा है और पौधों से पूछ रहा है। पौधे बता सकेंगे?
मेरी अपनी समझ और है। पौधे तो नहीं बता सकते, लेकिन शुभ आत्माएं पौधों के संबंध में खबर दे सकती हैं। बीच में मीडिएटर कोई आत्मा काम कर रही है, जो पौधों की बाबत खबर दे सकती है कि यह पौधा इस काम में आ जाएगा।
अब यह बड़े मजे की बात है, जैसे कि हमारे मुल्क में आयुर्वेद की सारी खोज बहुत गहरे में प्रयोगात्मक नहीं है, बहुत गहरे में देवताओं के द्वारा दी गई सूचनाओं पर निर्भर है। इसलिए आयुर्वेद की कोई दवा आज भी प्रयोगशाला में सिद्ध होती है कि ठीक है। लेकिन हमारे पास कभी कोई बड़ी प्रयोगशाला नहीं थी, जिसमें हमने उसको सिद्ध किया हो।
जैसे सर्पगंधा है। अब आज हमको पता चला कि वह सच में ही, सुश्रुत से लेकर अब तक सर्पगंधा के लिए जो खयाल था, वह ठीक साबित हुआ। लेकिन अब पश्चिम में सर्पेंटीना--सर्पगंधा का रूप है वह--अब वह भारी उपयोग की चीज हो गई है। पागलों के इलाज के लिए अनिवार्य चीज हो गई है। लेकिन यह सर्पगंधा का पता कैसे चला होगा? क्योंकि आज तो पश्चिम के पास प्रयोगशाला है, जिसमें सर्पगंधा की केमिकल एनालिसिस हो सकती है। लेकिन हमारे पास ऐसी कोई प्रयोगशाला थी, इसकी खबर नहीं मिलती। यह सर्पगंधा की खबर, आमंत्रित आत्माओं से मिली हुई खबर है। और बहुत देर नहीं है कि हमें आमंत्रित आत्माओं के उपयोग फिर खोजने पड़ेंगे
इसलिए आज जब आप वेद को पढ़ें, तो कपोल-कल्पना हो जाती है, झूठ मालूम पड़ता है कि क्या बातचीत कर रहे हैं ये--इंद्र आओ, वरुण आओ, फलां आओ, ढिकां आओ। और इस तरह बात कर रहे हैं कि जैसे सच में आ रहे हों। और फिर इंद्र को भेंट भी कर रहे हैं, इंद्र से प्रार्थना भी कर रहे हैं। और इतने बड़े वेद में कहीं भी एक जगह कोई ऐसी बात नहीं मालूम पड़ती कि कोई एक भी आदमी शक कर रहा हो कि क्या पागलपन की बात कर रहे हो! किससे बात कर रहे हो! देवता, वेद के समय में बिलकुल जमीन पर चलते हुए मालूम पड़ते हैं।
निमंत्रण की विधि थी। सब हवन, यज्ञ बहुत गहरे में निमंत्रण की विधियां हैं, इनविटेशंस हैं, इनवोकेशंस हैं। उसकी बात तो कहीं आगे होगी, तो बात कर लेंगे।
लेकिन यह जो आपने पूछा, तो सूक्ष्म शरीर ही स्थूल शरीर से मुक्त रहकर प्रेत और देव दिखाई पड़ता है।


अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।। २६।।
और यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला माने, तो भी हे अर्जुन, इस प्रकार शोक करना योग्य नहीं है।


कृष्ण का यह वचन बहुत अदभुत है। यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते, यह अर्जुन की मजबूरी देखकर कहते हैं। कृष्ण कहते हैं, लेकिन तुम कैसे समझ पाओगे कि आत्मा अमर है? तुम कैसे जान पाओगे इस क्षण में कि आत्मा अमर है? छोड़ो, तुम यही मान लो, जैसा कि तुम्हें मानना सुगम होगा कि आत्मा मर जाती है, सब समाप्त हो जाता है। लेकिन महाबाहो! कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, अगर ऐसा ही तुम मानते हो, तब भी मृत्यु के लिए सोच करना व्यर्थ हो जाता है। जो मिट ही जाता है, उसको मिटाने में इतनी चिंता क्या है? जो मिट ही जाएगा--तुम नहीं मिटाओगे तो भी मिट जाएगा--उसको मिटाने में इतने परेशान क्यों हो? और जो मिट ही जाता है, उसमें हिंसा कैसी?
एक यंत्र को तोड़ते वक्त तो हम नहीं कहते कि हिंसा हो गई। एक घड़ी को फोड़ दें पत्थर पर पटककर, तब तो नहीं कहते कि हिंसा हो गई, तब तो हम नहीं कहते कि बड़ा पाप हो गया! क्यों? क्योंकि कुछ भी तो नहीं था घड़ी में, जो न मिटने वाला हो।
तो कृष्ण कहते हैं, जो मिट ही जाने वाले यंत्र की भांति हैं, जिनमें कोई अजर, अमर तत्व ही नहीं है, तो मिटा दो इन यंत्रों को, हर्ज क्या है? फिर चिंतित क्यों होते हो? और कल तुम भी मिट जाओगे, तो किस पर लगेगा पाप? कौन होगा भागीदार पाप का? कौन भोगेगा? कौन किसी यात्रा पर तुम जा रहे हो, जहां कि इनको मारने का जिम्मा और रिस्पांसिबिलिटी तुम्हारी होने को है? तुम भी नहीं बचोगे। ये भी मर जाएंगे, तुम भी मर जाओगे; डस्ट अनटु डस्ट, धूल धूल में गिर जाएगी। तो चिंता क्या करते हो?
लेकिन ध्यान रहे, यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते। कृष्ण इतनी बात कहकर अर्जुन की आंखों में देखते होंगे, कुछ परिणाम नहीं होता है। परिणाम आसान भी नहीं है। आपकी आंखों में देखूं, तो जानता हूं कि नहीं होता है।
आत्मा अमर है, सुनने से नहीं होता है कुछ। देखा होगा कृष्ण ने कि वह अर्जुन वैसा ही निढाल बैठा है। ये बातें उसके सिर पर से गुजर जाती हैं। सुनता है कि आत्मा अमर है, लेकिन उसकी चिंता में कोई अंतर नहीं पड़ता। तो कृष्ण यह वचन मजबूरी में अर्जुन की तरफ से बोलते हैं। वे कहते हैं, छोड़ो, मुझे छोड़ो। मैं जो कहता हूं, उसे जाने दो। फिर ऐसा ही मान लो, तुम जो कहते हो, वही ठीक है। लेकिन ध्यान रहे, वे कहते हैं, ऐसा ही मान लो, लेट अस सपोज। कहते हैं, ऐसा ही स्वीकार कर लेते हैं। तुम जो कहते हो, वही मान लेते हैं कि आत्मा मर जाती है, तो फिर तुम चिंता कैसे कर रहे हो? फिर चिंता का कोई भी कारण नहीं। फिर धूल धूल में गिर जाएगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। पानी पानी में खो जाएगा। आग आग में लीन हो जाएगी। आकाश आकाश में तिरोहित हो जाएगा। फिर चिंता कैसी?
यह अर्जुन के ही तर्क से, अर्जुन की ही ओर से कृष्ण कोशिश करते हैं। यह कृष्ण का वक्तव्य बताता है कि अर्जुन को देखकर कैसी निराशा उन्हें न हुई होगी। यह वक्तव्य बहुत मजबूरी में दिया हुआ वक्तव्य है। यह वक्तव्य खबर देता है कि अर्जुन बैठा सुनता रहा होगा। फिर भी उसकी आंखों में वही प्रश्न रहे होंगे, वही चिंता रही होगी, वही उदासी रही होगी। सुन लिया होगा उसने और कुछ भी नहीं सुना होगा।
इस वक्त जीसस का मुझे स्मरण आता है। जीसस ने कहा है, कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम सुनते कहां! आंख है तुम्हारे पास, लेकिन तुम देखते कहां!
कृष्ण को ऐसा ही लगा होगा। नहीं सुन रहा है, नहीं सुन रहा है, नहीं समझ रहा है। बात भी सुनने और समझने से आने वाली कहां है! कसूर भी उसका क्या है! बात अस्तित्वगत है, बात अनुभूतिगत है। मात्र सुनने से कैसे समझ में आ जाएगी?
नहीं, अभी कृष्ण को और मेहनत लेनी पड़ेगी। और-और आयामों से दरवाजे उसके खटखटाने पड़ेंगे। अभी तक वे जो कह रहे थे, पर्वत के शिखर से कह रहे थे। अब वे अंधेरी गली का तर्क ही अंधेरी गली के लिए उपयोग कर रहे हैं।


जातस्य हि धु्रवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थेत्वं शोचितुमर्हसि।। २७।।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।। २८।।
क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ। इससे भी तू इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं है। (और यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हैं, इससे शरीरों के लिए शोक करना उचित नहीं है, क्योंकि) हे अर्जुन, संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं।
केवल बीच में ही शरीर वाले (प्रतीत होते) हैं।
फिर उस विषय में क्या चिंता है?


खयाल आपको आया होगा कि कृष्ण जब अपनी तरफ से बोल रहे थे, तब उन्होंने अर्जुन को मूर्ख भी कहा। जब वे अपनी सतह से बोल रहे थे, तब अर्जुन को मूढ़ कहने में भी उन्हें कठिनाई न हुई। लेकिन जब वे अर्जुन की तरफ से बोल रहे हैं, तब उसे महाबाहो, भारत...तब उसे बड़ी प्रतिष्ठा दे रहे हैं, बड़े औपचारिक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। जब अपनी तरफ से बोल रहे थे, तब उसे निपट मूढ़ कहा, कि तू निपट गंवार है, तू बिलकुल मूढ़ है, तू बिलकुल मंद-बुद्धि है। लेकिन अब उसी मंद-बुद्धि अर्जुन को वे कहते हैं, हे महाबाहो!
अब उसकी ही जगह उतरकर बात कर रहे हैं। अब ठीक उसके कंधे पर हाथ रखकर बात कर रहे हैं। अब ठीक मित्र जैसे बात कर रहे हैं। क्योंकि इतनी बात से लगा है कि जिस शिखर की उन्होंने बात कही, वह उसकी पकड़ में शायद नहीं आती। बहुत बार ऐसा हुआ है।
मोहम्मद ने कहा है कि मैं वैसा कुआं नहीं हूं कि अगर तुम मेरे पास पानी पीने न आओ, तो मैं तुम्हारे पास न आऊं। अगर तुम मोहम्मद के पास न आओगे, तो मोहम्मद तुम्हारे पास आएगा। और अगर प्यासा कुएं के पास न आएगा, तो कुआं ही प्यासे के पास जाएगा।
कृष्ण अर्जुन के पास वापस आकर खड़े हो गए हैं। ठीक वहीं खड़े थे, भौतिक शरीर तो वहीं खड़ा था पूरे समय, लेकिन पहले वे बोल रहे थे बहुत ऊंचाई से। वहां से, जहां आलोकित शिखर है। तब वे अर्जुन को कह सके, तू नासमझ है। अब वे अर्जुन को कह रहे हैं कि तेरी समझ ठीक है। तू अपनी ही समझ का उपयोग कर। अब मैं तेरी समझ से ही कहता हूं।
लेकिन अब वे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ तर्क और दलील की बात है। क्योंकि जो अनुभव को न पकड़ पाए, फिर उसके लिए तर्क और दलील के अतिरिक्त पकड़ने को कुछ भी नहीं रह जाता; कोई उपाय नहीं रह जाता। जो तर्क और दलील को ही पकड़ पाए, तो फिर तर्क और दलील की ही बात कहनी पड़ती है। लेकिन उस बात में प्राण नहीं है, वह बल नहीं है। वह बल हो नहीं सकता। क्योंकि कृष्ण जानते हैं कि वे जो कह रहे हैं, अब सिर्फ तर्क है, अब सिर्फ दलील है। अब वे यह कह रहे हैं कि तुझे ही ठीक मान लेते हैं। लेकिन यह जो शरीर बना है, जिन भौतिक तत्वों से, जिस माया से, खो जाएगा उसमें। विद्वान पुरुष इसके लिए चिंता नहीं किया करते।
विद्वान और ज्ञानी के फर्क को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि पहले कृष्ण पूरे समय कह रहे हैं कि जो ऐसा जान लेता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन अब वे कह रहे हैं--ज्ञानी नहीं--अब वे कह रहे हैं, विद्वान पुरुष चिंता को उपलब्ध नहीं होते। विद्वान का वह तल नहीं है, जो ज्ञानी का है। विद्वान तर्क के तल पर जीता है, युक्ति के तल पर जीता है। ज्ञानी अनुभूति के तल पर जीता है। ज्ञानी जानता है, विद्वान सोचता है।
लेकिन यही सही, कृष्ण कहते हैं, नहीं ज्ञानी होने की तैयारी तेरी, तो विद्वान ही हो जा। सोच मत कर, चिंता मत कर। क्योंकि सीधी-सी बात है कि जब सब खो ही जाता है, इतना तो तू सोच ही सकता है, यह तो विचार में ही आ जाता है कि सब खो जाता है, सब मिट जाता है, तो फिर चिंता मत कर, मिट जाने दे। तू बचाएगा कैसे? तू बचा कैसे सकेगा? तो जो अपरिहार्य है--दैट व्हिच इज़ इनएविटेबल--जो अपरिहार्य है, जो होगा ही, होकर ही रहेगा, उसमें तू ज्यादा से ज्यादा निमित्त है, अपने को निमित्त समझ ले। विद्वान हो जा, चिंता से मुक्त हो।
लेकिन इसे समझ लेना। कृष्ण ने जब अर्जुन को मूढ़ भी कहा, तब भी इतना अपमान न था, जितना अब विद्वान होने के लिए कहकर हो गया है। मूढ़ कहा, तब तक भरोसा था उस पर अभी। अभी आशा थी कि उसे खींचा जा सकता है शिखर पर। उसे देखकर वह आशा छूटती है। अब वे उसे प्रलोभन दे रहे हैं विद्वान होने का। वे कह रहे हैं कि कम से कम, बुद्धिमान तो तू है ही। और बुद्धिमान पुरुष को चिंता का कोई कारण नहीं, क्योंकि बुद्धिमान पुरुष ऐसा मानकर चलता है कि सब चीजें बनी हैं, मिट जाती हैं। कुछ बचता ही नहीं है पीछे, बात समाप्त हो जाती है।
रास्ते में मैं आ रहा था, तो मेरे जो सारथी थे यहां लाने वाले, वे कहने लगे कि कृष्ण बड़ा अपमान करते हैं अर्जुन का! कभी मूर्ख कहते हैं, कभी नपुंसक कह देते हैं उसको; यह बात ठीक नहीं है।
अब वे बड़ा सम्मान कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, हे महाबाहो, हे भारत, विद्वान पुरुष शोक से मुक्त हो जाते हैं। तू भी विद्वान है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अपमान अब हो रहा है। जब उसे मूढ़ कहा था, तो बड़ी आशा से कहा था कि शायद यह चिनगारी, शायद यह चोट...वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था। वह बेकार चला गया। वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था, बड़ा धक्का था। अर्जुन को काफी क्रोध चढ़ा देते हैं वे। लेकिन उसको क्रोध भी नहीं चढ़ा। उसे सुनाई ही नहीं पड़ा कि वे क्या कह रहे हैं। वह अपनी ही रटे चला जाता है। तब वे अब, अब यह बिलकुल निराश हालत में कृष्ण कह रहे हैं।
ऐसे बहुत उतार-चढ़ाव गीता में चलेंगे। कभी आशा बनती है कृष्ण को, तो ऊंची बात कहते हैं। कभी निराशा आ जाती है, तो फिर नीचे उतर आते हैं। इसलिए कृष्ण भी इसमें जो बहुत-सी बातें कहते हैं, वे एक ही तल पर कही गई नहीं हैं। कृष्ण भी चेतना के बहुत से सोपानों पर बात करते हैं। कहीं से भी--लेकिन अथक चेष्टा करते हैं कि अर्जुन कहीं से भी--कहीं से भी उस यात्रा पर निकल जाए, जो अमृत और प्रकाश को उसके अनुभव में ला दे।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।। २९।।
और हे अर्जुन, यह आत्मतत्व बड़ा गहन है, इसलिए कोई
(महापुरुष) ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की तरह इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई सुनकर भी इस आत्मा को नहीं जानता।


बड़ी अदभुत बात है। एक तो कृष्ण कहते हैं, इस आत्मा की दिशा में किसी भी मार्ग से गति करने वाला एक आश्चर्य है--एक मिरेकल, एक चमत्कार। किसी भी दिशा से उन्मुख होने वाला आत्मा की तरफ--एक चमत्कार है। क्योंकि करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक उस ऊंचाई की तरफ आंख उठाता है। अन्यथा हमारी आंखें तो जमीन में गड़ी रह जाती हैं, आकाश की तरफ कभी उठती ही नहीं। नीचाइयों में उलझी रह जाती हैं, ऊंचाइयों की तरफ हमारी आंख की कभी उड़ान नहीं होती। कभी हम पंख नहीं फैलाते आकाश की तरफ। कभी करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी...।
इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि कभी कोई आदमी स्वयं को जानने के लिए आतुर और पिपासु होता है। होना नहीं चाहिए ऐसा; लेकिन है ऐसा। मैं कौन हूं? यह कोई पूछता ही नहीं। होना तो यह चाहिए कि यह बुनियादी प्रश्न होना चाहिए प्रत्येक के लिए। क्योंकि जिसने अभी यह भी नहीं पूछा कि मैं कौन हूं, उसके और किसी बात के पूछने का क्या अर्थ है! और जिसने अभी यह भी नहीं जाना कि मैं कौन हूं, वह और जानने निकल पड़ा है? जिसका खुद का घर अंधेरे से भरा है, जिसने वहां भी दीया नहीं जलाया, उससे ज्यादा आश्चर्य का आदमी नहीं होना चाहिए।
लेकिन कृष्ण बड?ा व्यंग्य करते हैं, वे बड़ी मजाक करते हैं; बहुत आयरानिकल स्टेटमेंट है। वे यह कहते हैं कि अर्जुन, बड़े आश्चर्य की बात है कि कभी करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी आत्मा के संबंध में खोज पर, जानने पर निकलता है। लेकिन पीछे और एक मजेदार बात कहते हैं।
वे कहते हैं, लेकिन वह आत्मा सोचने-समझने, मनन से नहीं उपलब्ध होता है; विचार से नहीं उपलब्ध होता है। एक तो यही आश्चर्य है कि मुश्किल से कभी कोई उसके संबंध में विचार करता है। लेकिन विचार करने वाला भी उसे पा नहीं लेता है। पाता तो उसे वही है, जो विचार करते-करते विचार का भी अतिक्रमण कर जाता है। जो विचार करते-करते वहां पहुंच जाता है, जहां विचार कह देता है कि बस, अब आगे मेरी गति नहीं है।
एक तो करोड़ों में कभी कोई विचार शुरू करता है। और फिर उन करोड़ों में, जो विचार करते हैं, कभी कोई एक विचार की सीमा के आगे जाता है। और विचार की सीमा के आगे जाए बिना, उसका कोई अनुभव नहीं है। क्योंकि आत्मा का होना विचार के पूर्व है। आत्मा विचार के पीछे और पार है। विचार आत्मा के ऊपर उठी हुई लहरें हैं, तरंगें हैं। विचार आत्मा की सतह पर दौड़ते हुए हवा के झोंके हैं। विचार से आत्मा को नहीं जाना जा सकता। आत्मा से विचारों को जाना जा सकता है। क्योंकि विचार ऊपर हैं, आत्मा पीछे है। विचार को आत्मा से जाना सकता है, विचार से आत्मा को नहीं जाना जा सकता। मैं अपने हाथ से इस रूमाल को पकड़ सकता हूं। लेकिन इस रूमाल से अपने हाथ को नहीं पकड़ सकता। हाथ पीछे है। विचार बहुत ऊपर है।
एक जगत है हमारे बाहर, वस्तुओं का; वह बाहर है। फिर एक जगत है हमारे भीतर, विचारों का; लेकिन वह भी बाहर है। हम उसके भी पीछे हैं। हमारे बिना वह नहीं हो सकता। हम उसके बिना भी हो सकते हैं। रात जब बहुत गहरी नींद में सो गए होते हैं--सुषुप्ति में--तब कोई विचार नहीं रह जाता, लेकिन आप होते हैं। सुबह कहते हैं, स्वप्न भी नहीं था, विचार भी नहीं था, बड़ी गहरी थी नींद। लेकिन आप तो थे। विचार के बिना आप हो सकते हैं, लेकिन कभी आपका विचार आपके बिना नहीं हो सकता। वह जो पीछे है, वह विचार को जान सकता है, लेकिन विचार उसे नहीं जान सकते।
लेकिन हम विचार से ही जानने की कोशिश करते हैं। पहले तो हम जानने की कोशिश ही नहीं करते। वस्तुओं को जानने की कोशिश करते हैं। वस्तुओं से किसी तरह करोड़ों में एक का छुटकारा होता है, तो विचारों में उलझ जाता है। क्योंकि वस्तुओं के बाद विचारों का जगत है। विचार से भी किसी का छुटकारा हो, तो स्वयं को जान पाता है।
तो कृष्ण कहते हैं, चिंतन से, मनन से, अध्ययन से, प्रवचन से उसे नहीं जाना जा सकता। एक और मजे की बात उन्होंने इसमें कही है कि आश्चर्य है कि कोई आत्मा के संबंध में समझाए, उपदेश दे।
पहली तो बात इसलिए आश्चर्य है कि कोई आत्मा के संबंध में उपदेश दे, क्योंकि आत्मा किसी की भी आवश्यकता नहीं है; उपदेश सुनेगा कौन? नो वन्स नेसेसिटी। बाजार में वही चीज बिक सकती है, जो किसी की जरूरत हो। आत्मा किसी की भी जरूरत नहीं है। इसलिए जो आत्मा के संबंध में उपदेश देने की हिम्मत करता है, बिलकुल पागल आदमी है। कोई जिस चीज को लेने को तैयार नहीं, उसको बेचने निकल पड़े!
वह कृष्ण को खुद भी समझ में आ रहा होगा कि अर्जुन की जो मांग नहीं, जो उसकी डिमांड नहीं, वे उसकी सप्लाई कर रहे हैं। वह बेचारा कुछ और मांग रहा है। वह मांग रहा है एस्केप, वह मांग रहा है पलायन, वह मांग रहा है कंसोलेशन, वह मांग रहा है सांत्वना। वह कह रहा है, मुझे किसी तरह बचाओ, निकालो इस चक्कर से। वह आत्मा वगैरह की बात ही नहीं कर रहा है। वह किसी की जरूरत नहीं है। इसलिए आश्चर्य है कि कभी कोई आदमी आत्मा को बेचने निकल जाता है!
पर कुछ लोग सनकी होते हैं, आत्मा को भी समझाने लगते हैं। एक तो यह आश्चर्य है कि कोई समझने को जिसे तैयार नहीं है...।
अभी मैंने पढ़ा, एक ईसाई बिशप का मैं जीवन पढ़ रहा था। कीमती आदमी था। सारे योरोप के ईसाई पादरियों का एक सम्मेलन था। तो उस बिशप ने उस पादरियों के सम्मेलन में यह कहा, उनसे पूछा कि मैं तुमसे यह पूछना चाहता हूं कि चर्चों में जब तुम बोलते हो, तो लोग सिर्फ ऊबे हुए मालूम पड़ते हैं; बोर्ड मालूम पड़ते हैं। अधिक तो सोए मालूम पड़ते हैं। कोई रस लेता नहीं मालूम पड़ता। और लोग बार-बार घड़ी देखते मालूम पड़ते हैं। कारण क्या है? उत्तर वे बिशप नहीं दे सके, जो इकट्ठे थे। तब जिसने पूछा था, उस फकीर ने खुद ही कहा कि मैं समझता हूं कि कारण यह है कि तुम उन प्रश्नों के उत्तर दे रहे हो, जो कोई पूछता ही नहीं है, जो किसी के प्रश्न ही नहीं हैं।
पहला तो आश्चर्य कि कोई आत्मा को समझाने निकलने की हिम्मत करे, करेजियस है मामला कि कोई आत्मा की दुकान खोले, कोई ग्राहक मिलने की उम्मीद नहीं होनी चाहिए। और दूसरा इस कारण भी आश्चर्य है कि आत्मा ऐसा तत्व है, जो समझाया नहीं जा सकता। कोई उपाय जिसे समझाने का नहीं है।
इसलिए कृष्ण या कबीर या बुद्ध या मोहम्मद या नानक, इनकी तकलीफ, इनकी उलझन बड़ी गहरी है। कुछ इन्होंने जाना है, जो ये चाहेंगे कि सबको जना दें। जो ये चाहेंगे कि जो इन्हें मिला है, वह सबको मिल जाए। जो आनंद की वर्षा और जो अमृत का सागर इनमें उतर आया है, सब में उतर आए। लेकिन समझाने की बड़ी मुश्किल है। शब्द बेकार हैं। जिसे विचार से जाना नहीं, उसे विचार से कहेंगे कैसे! और जिसे शब्द छोड़कर जाना, उसे शब्द से प्रकट कैसे करेंगे! तो आश्चर्य इसलिए भी है कि वह कहा नहीं जा सकता, फिर भी कहना ही पड़ेगा, फिर भी कहना ही पड़ा है।
इसलिए एक और एब्सर्ड, बिलकुल असंगत सी घटना दुनिया में घटी कि बुद्ध कहते हैं, कहा नहीं जा सकता; और जितना बुद्ध बोलते हैं, उतना कोई आदमी नहीं बोलता। और कृष्ण कहते हैं, समझाया नहीं जा सकता; और समझाए चले जा रहे हैं। और महावीर कहते हैं, वाणी के बाहर है, शब्द के बाहर है; लेकिन यह भी तो वाणी से और शब्द से ही कहना पड़ता है।
विट्गिंस्टीन ने अपने टेक्टेटस में एक वाक्य लिखा है, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट नाट बी सेड--जो नहीं कहा जा सकता, वह नहीं ही कहना चाहिए। लेकिन विट्गिंस्टीन की बात अगर कृष्ण, बुद्ध और महावीर मान लें, तो यह दुनिया बहुत गरीब होती, यह बहुत दीन और दरिद्र होती।
तो मैं तो कहना चाहूंगा, दैट व्हिच कैन नाट बी सेड, मस्ट बी सेड--जो नहीं कहा जा सकता, उसे भी कहना ही चाहिए। नहीं कहा जा सकेगा, यह पक्का है। लेकिन नहीं कह सकने की तकलीफ में भी कुछ संवेदित हो जाएगा, कुछ कम्युनिकेट हो जाएगा। नहीं कहा जा सकता, इस मुसीबत में भी कोई चीज शब्दों के बाहर और शब्दों के पार और पंक्तियों के बीच में निवेदित हो जाएगी। उसी की चेष्टा चल रही है।
संगीत वही नहीं है, जो स्वरों में होता है; संगीत वह भी है, जो दो स्वरों के बीच के मौन में होता है। वही नहीं कहा जाता, जो शब्दों में कहा जाता है; वह भी कहा जाता है, जो दो शब्दों के बीच के साइलेंस में, शून्य में होता है। वही नहीं सुना जाता, जो शब्द से सुना जाता है; वह भी सुना जा सकता है, जो शब्द के बाहर, इर्द-गिर्द, आस-पास छूट जाता है।
तो कृष्ण कह रहे हैं, मिरेकल है, चमत्कार है।

शेष सांझ बात करेंगे।


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