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शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(भाग--1)-(प्रवचन-012) ओशो

निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया
(प्रवचन—बारहवां)  अध्‍याय—1—2

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।
हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।
अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।
सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।
पर कृष्ण ने क्यों सांख्य की ही पहले बात कर ली! सांख्य की इसलिए पहले बात कर ली कि अगर सांख्य काम में आ जाए, तो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सके, तो ही फिर कोई और आवश्यकता है।
जापान में झेन साधना की एक पद्धति है। आज पश्चिम में झेन का बहुत प्रभाव है। आज का जो भी विचारशील वर्ग है जगत का, पूरे जगत की इंटेलिजेंसिया, वह झेन में उत्सुक है। और झेन सांख्य का ही एक रूप है।
सांख्य का कहना यही है कि जानना ही काफी है, करना कुछ भी नहीं है; नालेज इज़ इनफ, जानना पर्याप्त है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन है, वह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं है, जिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह है, जिसे मिटाना है। न ही कोई जगह है, जिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूं? जानना है कि जो चारों तरफ फैला है, वह क्या है? सिर्फ अंडरस्टैंडिंग, सिर्फ जानना।
जो लोग कृष्णमूर्ति से परिचित हैं, उन्हें यह स्मरण में ले लेना उपयोगी होगा कि कृष्णमूर्ति का सारा विचार सांख्य है। लेकिन सांख्य को समझना कठिन है।
जैसे एक आदमी दुख में पड़ा है, हम उससे कहें कि केवल जान लेना है कि दुख क्या है और तू बाहर हो जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं भलीभांति हूं कि दुख है। जानने से कुछ नहीं होता; मुझे इलाज चाहिए, औषधि चाहिए। कुछ करो कि मेरा दुख चला जाए।
एक आदमी, जो वस्तुतः चिंतित और परेशान है, विक्षिप्त है, पागल है, उससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं काफी हूं; जानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है।
कृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले सांख्य की दृष्टि कही, क्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई जरूरत नहीं है। न काम में आए, तो फिर किसी और बात के कहने की जरूरत पड़ सकती है।
सुकरात का बहुत ही कीमती वचन है, जिसमें उसने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही सदगुण है। वह कहता था, जान लेना ही ठीक हो जाना है। उससे लोग पूछते थे कि हम भलीभांति जानते हैं कि चोरी बुरी है, लेकिन चोरी छूटती नहीं! तो सुकरात कहता, तुम जानते ही नहीं कि चोरी क्या है। अगर तुम जान लो कि चोरी क्या है, तो छोड़ने के लिए कुछ भी न करना होगा।
हम जानते हैं, क्रोध बुरा है; हम जानते हैं, भय बुरा है; हम जानते हैं, काम बुरा है, वासना बुरी है, लोभ बुरा है, मद-मत्सर सब बुरा है; सब जानते हैं। सांख्य या सुकरात या कृष्णमूर्ति, वे सब कहेंगे: नहीं, जानते नहीं हो। सुना है कि क्रोध बुरा है, जाना नहीं है। किसी और ने कहा है कि क्रोध बुरा है, स्वयं जाना नहीं है। और जानना कभी भी उधार और बारोड नहीं होता। जानना सदा स्वयं का होता है। फर्क है दोनों बातों में।
एक बच्चे ने सुना है कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, और एक बच्चे ने आग में हाथ डालकर देखा है कि हाथ जल जाता है। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों के वाक्य एक से हैं। जिसने सिर्फ सुना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है। और जिसने आग में हाथ डालकर जाना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है।
इन दोनों के वचन एक-से हैं, लेकिन इन दोनों की मनःस्थिति एक-सी नहीं है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डाल सकता है। और जिसने जाना है, वह कभी हाथ नहीं डाल सकता है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डालकर कहेगा कि जानता तो मैं था कि हाथ डालने से हाथ जल जाता है, फिर मैंने हाथ क्यों डाला? वह जानने में भूल कर रहा है। दूसरे से मिला हुआ जानना, जानना नहीं हो सकता।
जिस जानने की सांख्य बात करता है, जिस नोइंग की सांख्य बात करता है, वह वह जानना है, जो उधार नहीं है। इस जानने से क्या हो जाएगा? एक छोटी-सी कहानी से बात समझाने की कोशिश करूं।
दूसरे महायुद्ध में ऐसा हुआ कि एक आदमी युद्ध-स्थल पर आहत हो गया। जब होश में आया बेहोशी से, तो पता चला कि उसे सब स्मरण भूल गया है; वह अपना सब अतीत भूल चुका है। उसे यह भी पता नहीं है कि उसका नाम क्या है! कठिनाई न आती, क्योंकि सेना में नाम की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन उसका नंबर भी खो गया युद्ध के स्थल पर।
सेना में तो आदमी नंबर से जाना जाता है, सेना में नाम से नहीं जाना जाता। सुविधा है नंबर से जानने में। और जब पता चलता है कि ग्यारह नंबर आज मर गया, तो कोई तकलीफ नहीं होती। क्योंकि नंबर के न बाप होते, न मां होती, न बेटा होता। नंबर का कोई भी नहीं होता। नंबर मर जाता है, मर जाता है। तख्ती पर सूचना लग जाती है कि इतने नंबर गिर गए। किसी को कहीं कोई पीड़ा नहीं होती। नंबर रिप्लेस हो जाते हैं। दूसरा नंबर ग्यारह नंबर उसकी जगह आ जाता है। किसी आदमी को रिप्लेस करना मुश्किल है, लेकिन नंबर को रख देना नंबर की जगह कोई कठिन नहीं है। यह मिलिटरी तो नंबर से चलती है। दफ्तर में नाम होते हैं, रजिस्टर में।
लेकिन उसका नंबर भी खो गया है। उसे नाम याद नहीं रहा। अब वह कौन है? अब क्या करें? उसे कहां भेजें? उसका घर कहां है? उसके मां-बाप कहां हैं? बहुत कोशिश की, खोज-बीन की, कुछ पता नहीं चल सका। फिर आखिर किसी ने सुझाव दिया कि एक ही रास्ता है कि उसे इंग्लैंड के गांव-गांव में घुमाया जाए। शायद कहीं उसे देखकर याद आ जाए कि यह मेरा घर है, यह मेरा गांव है। शायद वह जान ले।
फिर उसे ले गए। स्टेशनों पर उसे उतारकर खड़ा कर देते, वह देखता रह जाता; कुछ याद न आता। फिर तो जो ले गए थे घुमाने, वे भी थक गए। एक छोटे स्टेशन पर, जिस पर उतरकर देखने का इरादा भी नहीं है, गाड़ी खड़ी है, चलने को है। उस आदमी ने खिड़की से झांककर देखा और उसने कहा, मेरा गांव! उतरा, बताना ही भूल गया, कि जो साथ थे उनको बता दे। भागा, सड़क पर आ गया। चिल्लाया, मेरा घर! दौड़ा, गली में पहुंचा। दरवाजे के सामने खड़े होकर कहा, मेरी मां! लौटकर पीछे देखा, साथी पीछे भागकर आए हैं। उनसे बोला, यह रहा मेरा नाम। याद आ गया।
सांख्य कहता है, आत्मज्ञान सिर्फ रिमेंबरेंस है, सिर्फ स्मरण है। कुछ खोया नहीं है, कुछ मिटा नहीं है, कुछ गया नहीं है, कुछ नया बना नहीं है, सिर्फ स्मृति खो गई है। और जिसे हम जानने जा रहे हैं, अगर वह नया जानना है, तब तो फिर कुछ और करना पड़ेगा। लेकिन अगर वह भूला हुआ ही है, जिसे पुनः जानना है, तब कुछ करने की जरूरत नहीं है, जान लेना ही काफी है।
तो कृष्ण ने कहा कि अभी जो मैंने तुझसे कहा अर्जुन, वह सांख्य की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त कृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की कोशिश की, कि आत्मा अमर है; न उसका जन्म है, न उसकी मृत्यु है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त था, अव्यक्त होगा, बीच में व्यक्त का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैं, वे पहले भी थे, आगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने के भय से भयभीत हो रहा है, उन्हें मारा नहीं जा सकता है।
इस पूरे समय कृष्ण क्या कर रहे हैं? कृष्ण अर्जुन को, जैसे उस सिपाही को घुमाया जा रहा है इंग्लैंड में, ऐसे उसे किसी विचार के लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कण, कोई स्मृति चोट कर जाए और वह कहे कि ठीक, यही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा वह नहीं कह पाता।
वह शिथिल गात, अपने गांडीव को रखे, उदास मन, वैसा ही हताश, विषाद से घिरा बैठा है। वह कृष्ण की बातें सुनता है। वह उसे पूरे इंग्लैंड में घुमा दिए--हर स्टेशन, हर जगह। कहीं भी उसे स्मरण नहीं आता कि वह दौड़कर कहे, कि यह रहा मैं; ठीक है, बात अब बंद करो, पहचान आ गई; रिकग्नीशन हुआ, प्रत्यभिज्ञा हुई, स्मरण आ गया है। ऐसा वह कहता नहीं। वह बैठा है। वह रीढ़ भी नहीं उठाता; वह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण नहीं आ रहा है।
इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है। अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं। वे जो जानने से ही नहीं जान सकते, जिन्हें कुछ करना ही पड़ेगा, जो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकते-- अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं।


प्रश्न: भगवान श्री, झेन बुद्धिज्म में, जैसे कि अद्वैत वेदांत में ब्रह्म आता है, तो झेन बुद्धिज्म में तो कुछ ऐसा है नहीं, तो आप साम्यता जो बता रहे हैं, उसकी स्पष्टता करें। और दूसरी बात यह है कि वेस्टर्न फिलासफर्स सांख्य का कभी पुरस्कार करते हैं, तो इसलिए कि सांख्य निरीश्वरवादी है। लेकिन कोई-कोई विद्वान ऐसा कहते हैं कि सांख्य निरीश्वरवादी नहीं है। तो यह भी है। तो वेस्टर्न फिलासफर्स निरीश्वरवादी है, इसलिए सांख्य का स्वीकार करते हैं? और झेन और सांख्य दोनों में ब्रह्म तत्व का स्थान क्या हो सकता है?


झेन और सांख्य के बीच जो साम्य मैंने कहा, उस साम्य का कारण है। ब्रह्म की चर्चा नहीं, उस साम्य का कारण है ज्ञान की प्रधानता। झेन कहता है, करने को कुछ भी नहीं है; और जो करेगा, वह व्यर्थ ही भटकेगाझेन तो यहां तक कहता है कि तुमने खोजा कि तुम भटकेखोजो ही मत, खड़े हो जाओ और जान लो। क्योंकि तुम वही हो, जिसे तुम खोज रहे हो। झेन कहता है, जिसने प्रयास किया, वह मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि जिसे हमें पाना है, वह प्रयास से पाने की बात नहीं है। केवल अप्रयास में, एफर्टलेसनेस में जानने की बात है।
झेन कहता है, पा सकते हैं श्रम से उसे, जो हमारा नहीं है। पा सकते हैं श्रम से उसे, जो हमें मिला हुआ नहीं है। धन पाना हो तो बिना श्रम के नहीं मिलेगा; धन पाने के लिए श्रम करना होगा। धन हमारा कोई स्वभाव नहीं है। एक आदमी को दूसरे के घर जाना हो, तो रास्ता चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरे का घर अपना घर नहीं है। लेकिन एक आदमी अपने घर में बैठा हो और पूछता हो कि मुझे मेरे घर जाना है, मैं किस रास्ते से जाऊं? तो झेन कहता है, जाना ही मत, अन्यथा घर से दूर निकल जाओगे
एक छोटी-सी कहानी मुझे याद आती है, जो झेन फकीर कहते हैं। वे कहते हैं, एक आदमी ने शराब पी ली। शराब पीकर आधी रात अपने घर पहुंचा। हाथ-पैर डोलते हैं, आंखों को ठीक दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे भी अंधेरा है, भीतर नशा है, बाहर अंधेरा है। टटोल-टटालकर किसी तरह अपने दरवाजे तक पहुंच गया है। और फिर थक गया है। बहुत देर से भटक रहा है। फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दो। मेरी मां राह देखती होगी।
पास-पड़ोस के लोग उठ आए। और उन्होंने कहा, पागल तो नहीं हो गए हो! तुम अपने ही घर के सामने खड़े हो, अपने ही घर की सीढ़ियों पर। यही तुम्हारा घर है। लेकिन वह आदमी इतना परेशानी में चिल्ला रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी, कि सुने कौन! सुनने के लिए भी तो चुप होना जरूरी है। वह आदमी चिल्ला रहा है। पास-पड़ोस के लोग उससे कह रहे हैं, यही तुम्हारा घर है।
लेकिन यही तुम्हारा घर है--यह भीतर कैसे प्रवेश करे? वह आदमी तो भीतर चिल्ला रहा है, मेरा घर कहां है? शोरगुल सुनकर उसकी बूढ़ी मां भी उठ आई, जिसकी तलाश में वह है। उसने दरवाजा खोला, उसने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, बेटा तुझे क्या हो गया है! उसने उसके ही पैर पकड़ लिए और उसने कहा कि मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी; मुझे रास्ता बताओ कि मेरा घर कहां है?
तो पास-पड़ोस में कोई मजाक करने वाले लोग एक बैलगाड़ी लेकर आ गए और उन्होंने कहा कि बैठो, हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देते हैं। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि यह भला आदमी है। ये सारे लोग मुझे घर पहुंचाने का कोई उपाय ही नहीं करते! कोई उपाय नहीं करता, न कोई बैलगाड़ी लाता, न कोई घोड़ा लाता, न मेरा कोई हाथ पकड़ता। तुम एक भले आदमी हो। उसने उसके पैर पड़े। वह आदमी हंसता रहा। उसे बैलगाड़ी में बिठाया, दस-बारह चक्कर लगाए घर के, फिर उसे द्वार के सामने उतारा। फिर वह कहने लगा, धन्यवाद! बड़ी कृपा की, मुझे मेरे घर पहुंचा दिया।
अब कृष्ण अर्जुन से कोशिश कर चुके पहली वाली कि यही तेरा घर है। अब नहीं मानता, तो बैलगाड़ी जोतते हैं। वे कहते हैं, कर्मयोग में चल। अब तू चक्कर लगा। अब तू दस-पांच चक्कर लगा ले, फिर ही तुझे खयाल में आ सकता है कि पहुंचा। बिना चले तू स्वयं तक भी नहीं पहुंच सकता है।
झेन कहता है कि जिसे हम खोज रहे हैं, वह वहीं है जहां हम हैं; इंचभर का फासला नहीं है। इसलिए जाओगे कहां? खोजोगे कैसे? श्रम क्या करोगे? असल में श्रम करके हम पराए को पा सकते हैं, स्वयं को नहीं। स्वयं तो सब श्रम के पहले उपलब्ध है।
तो झेन और सांख्य का जो साम्य मैंने कहा, वह इसलिए कहा कि सांख्य भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं है कर्म का। झेन भी कर्म को व्यर्थ मानता है, कोई अर्थ नहीं कर्म का। क्योंकि जिसे जानना है, वह सब कर्मों के पहले ही मिला हुआ है, आलरेडी एचीव्ड
तो जो अड़चन है, जो कठिनाई है, जो समझ में हमें नहीं आती, वह इस तरह की है कि कोई चीज जो हमें मिली हुई नहीं है, उसे पाना है, यह एक बात है। और कोई चीज जो हमें मिली ही है, उसे सिर्फ जानना है, यह बिलकुल दूसरी बात है। यदि आत्मा भीतर है ही, तो कहां खोजना है? और अगर मैं ब्रह्म हूं ही, तो क्या करना है? करने से क्या संबंध है? करने से क्या होगा?
नहीं; न-करने में उतरना होगा, नान-एक्शन में उतरना होगा, अकर्म में उतरना होगा। छोड़ देना होगा करना-वरना और थोड़ी देर रुककर उसे देखना होगा, जो करने के पीछे खड़ा है, जो सब करने का आधार है, फिर भी करने के बाहर है।
एक और झेन कहानी मुझे याद आती है कि झेन में कोई पांच सौ वर्ष पहले, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, बांकेई। जापान का सम्राट उसके दर्शन को गया। बड़ी चर्चा सुनी, बड़ी प्रशंसा सुनी, तो गया। सुना उसने कि दूर-दूर पहाड़ पर फैली हुई मोनेस्ट्री है, आश्रम है। कोई पांच सौ भिक्षु वहां साधना में रत हैं। तो गया। बांकेई से उसने कहा, एक-एक जगह मुझे दिखाओ तुम्हारे आश्रम की, मैं काफी समय लेकर आया हूं। मुझे बताओ कि तुम कहां-कहां क्या-क्या करते हो? मैं सब जानना चाहता हूं।
आश्रम के दूर-दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं अध्ययन करते हैं--कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में, आश्रम के सारे विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण-शिखरों से मंडित एक मंदिर है।
बांकेई ने कहा, भिक्षु जहां-जहां जो-जो करते हैं, वह मैं आपको दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में और कहा, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान करते हैं भिक्षु। ले गया जगह-जगह। सम्राट थकने लगा। उसने कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी-छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो बीच में स्वर्ण-शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं।
लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह भोजनालय देखने मैं नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने लगा--यहां यह होता है, यहां यह होता है।
आखिर वापस द्वार पर लौट आए, उस बीच के मंदिर में बांकेई नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार-बार कहता हूं कि उस मंदिर में ले चलो, वहां क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो!
बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने कहा, वहां-वहां ले चलो, जहां-जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं वहां-वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी नहीं करते। वहां सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर है, मेडिटेशन सेंटर है। वहां हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहां डूइंग नहीं है, वहां बीइंग है। वहां करने का मामला नहीं है। वहां जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते हैं, तो हम वहां भीतर जाते हैं। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा था, क्या करते हैं, वहां ले चलो
अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या करते हैं, तो मैं क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई एक्ट नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के यही उचित है कि आप मुझे पागल या बहरा समझकर चले जाएं।
झेन कहता है, ध्यान अर्थात न-करना। इस न-करने में ही वह जाना जाता है, जो है। सांख्य और झेन का इस वजह से साम्य है। झेन बात नहीं करता ब्रह्म की। क्योंकि झेन का कहना यह है कि जब तक ध्यान नहीं, जब तक ज्ञान नहीं, तब तक ब्रह्म की बात व्यर्थ है। और जब ज्ञान हुआ, ध्यान हुआ, तब भी ब्रह्म की बात व्यर्थ है। क्योंकि जिसे हमने नहीं जाना, उसकी बात क्या करें! और जिसे हमने जान लिया, उसकी बात की क्या जरूरत है! इसलिए झेन चुप है, वह मौन है; वह ब्रह्म की बात नहीं करता।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्म नहीं जानता। यह तो निर्भर करेगा व्यक्तियों पर। सांख्य बात करता है, इसी आशा में कि शायद उसकी चर्चा--उसकी चर्चा से उसे जाना नहीं जा सकता, लेकिन उसकी चर्चा शायद किसी के मन में छिपी हुई प्यास पर चोट बन जाए। शायद उसकी चर्चा किसी के मन में चल रही आकांक्षा को मार्ग दे दे। शायद उसकी चर्चा ऊंट के लिए आखिरी तिनका सिद्ध हो जाए। कोई बिलकुल बैठने को ही था ऊंट, एक तिनका और--एक तिनके से कहीं ऊंट बैठा है! लेकिन शायद किसी बैठते ऊंट को तिनका सिद्ध हो जाए, वह बैठ जाए।
इसलिए सांख्य बात करता है। लेकिन कैसे मिलेगा वह? कुछ करने से? नहीं; जानने से। जानना और करना, डूइंग और नोइंग का जो फर्क है, उस मामले में झेन और सांख्य बिलकुल समान हैं। और जगत में जितने भी परम ज्ञानी हुए हैं, उन सब परम ज्ञानियों की बातों में सांख्य तो होगा ही। सांख्य से बचा नहीं जा सकता। सांख्य तो होगा ही। यह हो सकता है कि किसी की चर्चा में शुद्ध सांख्य हो। तब ऐसा आदमी बहुत कम लोगों के काम का रह जाएगा।
जैसे बुद्ध। बुद्ध की चर्चा शुद्ध सांख्य है। इसलिए हिंदुस्तान से बुद्ध के पैर उखड़ गए। क्योंकि सिर्फ जानना, सिर्फ जानना, सिर्फ जानना! करना कुछ भी नहीं! वह जो इतना बड़ा जगत है, जहां सब करने वाले इकट्ठे हैं, वे कहते हैं कि कुछ तो करने को बताओ, कुछ पाने को बताओ! बुद्ध कहते हैं, न कुछ पाने को है, न कुछ करने को। झेन जो है, वह बुद्धिज्म की शाखा है। वह शुद्धतम बुद्ध का विचार है। लेकिन हिंदुस्तान के बाहर बुद्ध के पैर जम गए--चीन में, बर्मा में, थाईलैंड में, तिब्बत में। क्योंकि जो अशुद्धि करने के लिए बुद्ध का विचार हिंदुस्तान में राजी नहीं हुआ, तो यहां उसके पैर उखड़ गए, तो वही समझौता उसे करना पड़ा, जो यहां करने को राजी नहीं हुआ।
तिब्बत में वह करना बन गया, रिचुअल बन गया। चीन में जाकर उसने करने के लिए स्वीकृति दे दी कि ऐसा-ऐसा करो। थाईलैंड में वह करना बन गया, लंका में करना बन गया। वह कर्मयोग बना। जब तक वह सांख्य रहा शुद्ध, तब तक उसकी जड़ें फैलनी मुश्किल हो गईं
थोड़े से लोगों की ही पकड़ में आ सकती है शुद्ध सांख्य की बात। इसलिए श्रेष्ठतम विचार सांख्य ने दिया, लेकिन सांख्य को मानने वाला आदमी हिंदुस्तान में खोजे से नहीं मिलेगा। सब तरह के, हजार तरह के मानने वाले आदमी मिल जाएंगे, सांख्य को मानने वाला आदमी नहीं मिलेगा। सांख्य के लिए समर्पित एक मंदिर नहीं है। सांख्य के जन्मदाता के लिए समर्पित एक मूर्ति नहीं है।
असल में जो एब्सोल्यूट ट्रुथ की बात करेंगे, उनको राजी होना चाहिए कि आम जनता तक उनकी खबर मुश्किल से पहुंचेगी। जो पूर्ण सत्य की बात करेंगे, उनको राजी रहना चाहिए कि उनकी बात बहुत आकाश में घूमती रहेगी। जमीन तक उतारना बहुत मुश्किल है। क्योंकि यहां जमीन पर सिर्फ अशुद्ध सत्य उतरते हैं। यहां जमीन पर जिस सत्य को भी पैर जमाने हों, उसे जमीन के साथ समझौता करना पड़ता है।
कृष्ण ने पहले नानकंप्रोमाइजिंग सांख्य की बात की। कहा कि मैं तुझे सांख्य की बुद्धि बताता हूं। लेकिन देखा कि अर्जुन के भीतर उसकी जड़ें नहीं पहुंच सकतीं। इसलिए दूसरे, सेकेंडरी वे कहते हैं, अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं।
और एक बात और पूछी है कि पश्चिम में क्या सांख्य की चर्चा जिन दार्शनिकों ने की है, उनका कारण यही तो नहीं है कि सांख्य निरीश्वरवादी है?
असल में जो भी ब्रह्मवादी है, वह ईश्वरवादी हो नहीं सकता। जो भी ब्रह्मवादी है, वह ईश्वरवादी हो नहीं सकता। अगर वह ईश्वर को जगह भी देगा, तो वह माया के भीतर ही होगी जगह, बाहर नहीं हो सकती। वह इलूजन के भीतर ही होगी। या तो वह कह देगा, कोई ईश्वर नहीं है, ब्रह्म पर्याप्त है, अव्यक्त पर्याप्त है। या अगर समझौता किया उसने आपसे, तो वह कहेगा, ईश्वर है; वह भी अव्यक्त का एक रूप है, लेकिन माया के घेरे के भीतर। वह सिर्फ आपसे समझौता कर रहा है।
सांख्य के जो मौलिक सूत्र हैं, वे शुद्धतम हैं। उनमें ईश्वर की कोई जगह नहीं है। ईश्वर का मतलब समझ लेना आप, ब्रह्म का फर्क समझ लेना।
ईश्वर का मतलब है, दि क्रिएटर, सृजन करने वाला। ब्रह्म का अर्थ है, शुद्धतम जीवन की ऊर्जा। ईश्वर के पहले भी ब्रह्म है। ईश्वर भी बनते और मिटते हैं, ईश्वर भी आते और जाते हैं। ईश्वर हमारी धारणाएं हैं।
इसे ऐसा समझें कि मैं एक अंधेरी रात में चल रहा हूं। दूर, दो-चार मील दूर कुछ दिखाई पड़ता है। लगता है कि कोई पुलिस वाला खड़ा है। और मीलभर चलकर आता हूं पास, तो दिखाई पड़ता है, पुलिस वाला नहीं है, कोई झाड़ का ठूंठ है। और मीलभर चलकर आता हूं, तो पाता हूं, झाड़ का ठूंठ भी नहीं है, स्वतंत्रता का स्मारक है। जो है, वह वही है। और पता नहीं मीलभर बाद चलकर पता क्या चले! जो है, वह तो वही है। मैं आगे आता जा रहा हूं।
जो लोग ब्रह्म की यात्रा पर निकलते हैं, यात्रा के अंत पर जिसे पाते हैं, वह ब्रह्म है। और यात्रा पास आती जाती है, पास आती जाती है, उस पास आते जाते में जिसे पाते हैं, वह ईश्वर है। ईश्वर ब्रह्म को दूर से देखा गया कंसेप्शन है, धारणा है। हम सोच ही नहीं सकते ब्रह्म को। जब हम सोचते हैं, तब हम ईश्वर बना लेते हैं। निर्गुण को हम सोच ही नहीं सकते, जब सोचते हैं तो सगुण बना लेते हैं। निराकार को हम सोच नहीं सकते, जब सोचते हैं तो उसे भी आकार दे देते हैं।
ब्रह्म मनुष्य के मन से जब देखा जाता है, तब ईश्वर निर्मित होता है। यह ईश्वर मनुष्य का निर्माण है। जैसे-जैसे आगे जाएगा, विचार छोड़ेगा, छोड़ेगा और निर्विचार होगा, उस दिन पाएगा, ईश्वर भी खो गया। अब जो शेष रह जाता है निराकार, निर्गुण, वही ब्रह्म है।
तो शुद्धतम सूत्र में तो सांख्य राजी नहीं है। क्योंकि सांख्य कहता है, बीच के मुकाम बनाने नहीं हैं। लेकिन सांख्य की भी बाद में एक दूसरी धारा फूटी। निरीश्वर सांख्य तो था ही, लेकिन वह भी हवा में खोने लगा, तो सेश्वर सांख्य भी निर्मित हुआ। कुछ लोगों ने समझौते किए और सांख्य में भी ईश्वर को जोड़ा। और कहा कि काम नहीं चलेगा, क्योंकि आदमी ब्रह्म को पकड़ नहीं पाता, उसके लिए बीच की मंजिलें बनानी पड़ेंगी। और न ही पकड़ पाए, इससे तो अच्छा है कि चार कदम चले और ईश्वर को पकड़े। फिर ईश्वर को छुड़ा लेंगे। चलने को ही जो राजी न हो, उसे चार कदम चलाओ। चार कदम चलने के बाद कहेंगे कि यह जो तुम्हें दिखाई पड़ता था, गलत दिखाई पड़ता था, इसे छोड़ो। और चार कदम चलो। हो सकता है, बीच में कई ईश्वर के मंदिर खड़े करने पड़ें--इससे पहले कि ब्रह्म का अव्यक्त, ब्रह्म का निराकार मंदिर प्रकट हो।
पश्चिम में जो सांख्य का प्रभाव है, वह निरीश्वरवादी होने की वजह से नहीं है। पश्चिम में भी जो बुद्धिमान, विचारशील आदमी पैदा हुआ है, वह भी जानता है कि बात तो सिर्फ ज्ञान की ही है, सिर्फ जान लेने की ही है। अगर हमें समझ में न आए, तो वह हमारी मजबूरी है, लेकिन बात केवल जान लेने की है। अगर इकहार्ट से पूछें, या प्लेटिनस से पूछें, या बोहेम से पूछें, तो पश्चिम में भी जो आदमी जानता है, वह कहेगा, बात तो यही है कि सिर्फ जान लेना है, और कुछ भी नहीं करना है। जरा हिले करने के लिए--कि चूक हुई। क्योंकि करना बिना हिले न होगा। करेंगे तो हिलना ही पड़ेगा। और वह जो अकंप है, वह हम जरा भी हिले कि खोया।
उसी की तरह अकंप हो जाना पड़ेगा। जैसे दीए की लौ किसी बंद घर में--जहां हवा के झोंके न आते हों--अकंप जलती है। ऐसे ही अकर्म में व्यक्ति की चेतना अकंप हो जाती है; अकर्म में, नान-एक्शन में अकंप हो जाती है। और जैसे ही व्यक्ति की चेतना अकंप होती है, विराट की चेतना से एक हो जाती है।
पश्चिम में भी प्रभाव सांख्य का है। और मैं मानता हूं कि जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि और विकसित होगी, सांख्य और भी प्रभावी होता चला जाएगा। भारत में उतना प्रभाव सांख्य का नहीं है। भारत में प्रभाव योग का है, जो कि बिलकुल ही दूसरी, उलटी बात है। योग कहता है, कुछ करना पड़ेगा। योग मनुष्य की निम्नतम बुद्धि से चलता है। सांख्य मनुष्य की श्रेष्ठतम बुद्धि से चलता है।
स्वभावतः, जो श्रेष्ठतम से शुरू करेगा, वह आखिर तक नहीं आ पाएगा। और अक्सर ऐसा होता है कि जो आखिरी से शुरू करेगा, वह चाहे तो श्रेष्ठतम तक पहुंच जाए।
सांख्य शुद्धतम ज्ञान है, योग शुद्धतम क्रिया है। और अगर हम सारी दुनिया के चिंतन को दो हिस्सों में बांटना चाहें, तो सांख्य और योग दो शब्द काफी हैं। जिनका भी करने पर भरोसा है, उनको योग में; और जिनको न-करने पर भरोसा है, सिर्फ जानने पर भरोसा है, उनको सांख्य में। असल में जगत में सांख्य और योग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बाकी सब इन दो केटेगरी में कहीं न कहीं खड़े होंगे। चाहे दुनिया के किसी कोने में कोई चिंतन पैदा हुआ हो जीवन के प्रति, बस दो ही विभाजन में बांटा जा सकता है।
असल में पूरब और पश्चिम की फिलासफी बांटनी बंद करनी चाहिए; जैन, हिंदू, मुसलमान की फिलासफी बांटनी बंद करनी चाहिए; सिर्फ दो विभाजन किए जाने चाहिए, योग और सांख्य। योग पर वे आस्थाएं, जो कहती हैं, कुछ करने से होगा। सांख्य पर वे आस्थाएं, जो कहती हैं, कुछ न करने से ही होता है।


नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायोविद्यते
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।। ४०।।
इस निष्काम कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है, और उलटा फलस्वरूप दोष भी नहीं होता है, इसलिए इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा भी साधन, जन्म-मृत्युरूप महान भय से उद्धार कर देता है।


कृष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म का कोई भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। इसे समझना जरूरी है। निष्काम कर्म का छोटा-सा प्रयास भी व्यर्थ नहीं जाता है। लेकिन इससे उलटी बात भी समझ लेनी चाहिए। सकाम कर्म का बड़े से बड़ा प्रयास भी व्यर्थ ही जाता है।
एक घर में मैं अभी ठहरा था। चिंतित थे, जिनके घर रुका था। रात नींद नहीं आती थी, तो मैंने पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहा, क्या बताएं, बड़ी मुसीबत टूट पड़ी है, पांच लाख का नुकसान हो गया। स्वभावतः, पांच लाख का नुकसान लगा हो, तो बड़ी मुसीबत टूट ही गई है। मैंने उनकी पत्नी को पूछा, क्या हो गया? कैसे नुकसान लग गया पांच लाख का? उनकी पत्नी ने कहा, आप इनकी बातों में मत पड़ जाना। पांच लाख का नुकसान नहीं लगा है, पांच लाख का लाभ हुआ है!
मैं तो बहुत मुश्किल में पड़ गया। मैंने कहा कि क्या कहती हो! उसने कहा, बिलकुल ठीक कहती हूं। उनको दस लाख के लाभ की आशा थी, पांच लाख का ही लाभ हुआ है, इसलिए उनको पांच लाख का नुकसान हो गया है। नींद हराम है, दवाएं चल रही हैं, ब्लड-प्रेशर बढ़ा हुआ है। कोई उपाय नहीं है उनको समझाने का कि पांच लाख का लाभ हुआ है!
मैंने उनसे पूछा। तो उन्होंने कहा कि वह पांच लाख क्या, दस लाख होने ही वाले थे। पंद्रह भी हो सकते थे। पांच का कोई सवाल ही नहीं है। पांच का तो सुनिश्चित नुकसान हुआ है।
अब यह सकाम बुद्धि है, यह सदा असफल होती है; सदा असफल होती है। लाभ हो, तो भी हानि होती है सकाम बुद्धि में। क्योंकि अपेक्षा का कोई अंत नहीं है। जो भी मिलता है, सदा छोटा पड़ता है। जो भी सफलता मिलती है, वह भी किसी बड़ी असफलता के सामने फीकी लगती है। कुछ भी मिल जाए, तो भी तृप्ति नहीं है। कुछ भी मिल जाए, तो भी संतोष की कहीं कोई झलक नहीं आती। सकाम कर्म असफल होने को बाध्य है। असफलता में नहीं है उसका राज, उसका राज सकाम होने में है।
अब कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्म का छोटा-सा भी कृत्य सफल ही होता है। होगा ही, क्योंकि असफलता का कोई उपाय नहीं है। जब निष्काम है, तो अपेक्षारहित है। इसलिए जो भी मिल जाए, वह भी बहुत है। क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं थी, जिससे उसको छोटा बताया जा सके।
कहानी सुनी है हम सबने कि अकबर ने एक लकीर खींच दी थी दरबार में अपने, और कहा था अपने दरबारियों को कि बिना छुए इसे छोटा कर दो। वे सब हार गए थे और फिर बीरबल ने एक बड़ी लकीर उसके पास खींच दी। उसे छुआ नहीं, काटा नहीं, पोंछा नहीं, सिर्फ एक बड़ी लकीर पास खींच दी। और वह लकीर एकदम छोटी हो गई।
अपेक्षा की बड़ी लकीर जिनके मन में खिंची है, सफलता की सभी लकीरें छोटी पड़ती हैं। अपेक्षा एंडलेस है--वह जितनी बड़ी खींची थी बीरबल ने, वह कुछ बड़ी नहीं थी--अपेक्षा की जो लकीर है, उसका कोई अंत ही नहीं है। वह दोनों छोरों पर अनंत है। जो लोग ब्रह्म को जानते हैं, वे ब्रह्म को अनंत कहते हैं। लेकिन जिन्होंने ब्रह्म को नहीं जाना, वे भी एक अनंत चीज को जानते हैं। वह अपेक्षा है, एक्सपेक्टेशन है। उस अनंत अपेक्षा के पास खींची गई कोई भी सफलता सदा छोटी पड़ती है।
लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि अपेक्षा की लकीर मिटा दो। निष्काम कर्म का अर्थ यही है--अपेक्षारहित, फल की आकांक्षारहित, कामनारहित। स्वभावतः, बड़ी होशियारी की बात उन्होंने कही है। वे कह रहे हैं कि अगर अपेक्षा की लकीर मिटा दो, तो फिर छोटा-सा भी कर्म तृप्ति ही लाता है। क्योंकि कितना ही छोटा हो, तो भी बड़ा ही होता है, क्योंकि तौलने के लिए कोई नीचे लकीर नहीं होती। इसलिए निष्कामकर्मी कभी भी विषाद को उपलब्ध नहीं होता है। सिर्फ सकामकर्मी विषाद को उपलब्ध होता है। फ्रस्टे्रशन जो है, वह सकाम कर्म की छाया है। निष्काम कर्म की कोई छाया नहीं बनती, कोई विषाद नहीं बनता
इसलिए एक बहुत मजे की बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है, गरीब आदमी ज्यादा विषाद को उपलब्ध नहीं होता, अमीर आदमी ज्यादा विषाद को उपलब्ध होता है। होना नहीं चाहिए ऐसा। बिलकुल नियम को तोड़कर चलती हुई बात मालूम पड़ती है। गरीब समाज ज्यादा परेशान नहीं होते, अमीर समाज बहुत परेशान हो जाते हैं। क्या कारण होगा?
असल में गरीब आदमी अनंत अपेक्षा की हिम्मत नहीं जुटा पाता। वह जानता है अपनी सीमा को। वह जानता है कि क्या हो सकता है, क्या नहीं हो सकता है। अपने वश के बाहर है बात, वह अनंत अपेक्षा की रेखा नहीं बनाता। इसलिए फ्रस्ट्रेशन को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए विषाद को उपलब्ध नहीं होता। अमीर आदमी, जिसके पास सुविधा है, संपन्नता है, अपेक्षा की रेखा को अनंत गुना बड़ा करने की हिम्मत जुटा लेता है। बस, उसी के साथ विषाद उत्पन्न हो जाता है।
पाल गुडमेन ने अमेरिका के संबंध में एक किताब लिखी है, ग्रोइंग अप एब्सर्ड। उसमें उसने एक बहुत मजे की बात कही है। उसने कहा है कि मनुष्य जाति ने जिन-जिन सुविधाओं की आकांक्षा की थी, वे सब पूरी हो गई हैं अमेरिका में। मनुष्य जाति ने जो-जो सपने देखे थे, उनसे भी आगे अमेरिका में सफलता मिल गई। लेकिन अमेरिका में जो आदमी है, आज उससे दुखी आदमी बस्तर के जंगल में भी नहीं है। क्या, हो क्या गया? यह एब्सर्डिटी कहां से आई? यह अजीब बात है कि जो-जो आदमी करोड़ों साल से अपेक्षा कर रहा था, वह सब फलित हो गई है। सब सपने पूरे हो गए हैं। यह क्या हो गया लेकिन? हुआ क्या?
हुआ यह कि सब शक्ति हाथ में होने पर अपेक्षाएं एकदम अनंत हो गईं। इसलिए जो भी पास में है, एकदम छोटा पड़ गया। बस्तर के आदिवासी की बहुत बड़ी अपेक्षा की सामर्थ्य नहीं है, जो भी हाथ में है, काफी बड़ा है।
इसलिए दुनिया में गरीब आदमी कभी बगावत नहीं करते। गरीब आदमी अपेक्षा ही नहीं करते कि बगावत कर सकें। दुनिया में बगावत शुरू होती है, जब गरीब आदमी के पास अपेक्षाएं दिखाई पड़ने लगती हैं निकट; तब उपद्रव शुरू होता है। दुनिया में अशिक्षित आदमी बगावत नहीं करते, क्योंकि अपेक्षा बांध नहीं पाते। शिक्षित आदमी उपद्रव शुरू करते हैं। क्योंकि जैसे ही शिक्षा हुई, अपेक्षाएं एकदम विस्तार लेने लगती हैं। शिक्षित आदमी को शांत करना मुश्किल है। मैं नहीं कहता कि शिक्षित नहीं करना चाहिए; यह मैं नहीं कह रहा हूं। शिक्षित आदमी को शांत करना मुश्किल है। अभी तक तो कोई उपाय नहीं खोजा जा सका।
एक बहुत बड़े विचारक ने तो एक किताब लिखी है, कंपल्सरी मिसएजुकेशन। जिसको हम अनिवार्य शिक्षा कहते हैं, वह उसको अनिवार्य कुशिक्षा...। क्योंकि अगर अंततः आदमी सिर्फ दुखी और अशांत ही होता हो, तो अ, , , द सीख लेने से भी क्या हो जाने वाला है! अगर समृद्धि सिर्फ विषाद ही लाती हो, तो ऐसी समृद्धि से दरिद्रता बेहतर मालूम पड़ सकती है।
लेकिन राज क्या है? सीक्रेट सिर्फ इतना-सा है, समृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है, अगर अपेक्षा की धारा बहुत ज्यादा न हो, तो समृद्ध आदमी भी शांत हो सकता है। और अगर अपेक्षा की धारा बहुत बड़ी हो, तो दरिद्र भी अशांत हो जाएगा। अगर अपेक्षा शून्य हो, तो शिक्षित भी शांत हो सकता है। अगर अपेक्षा विराट हो, तो अशिक्षित भी अशांत हो जाता है। प्रश्न शिक्षित-अशिक्षित, धन और दरिद्रता का नहीं है। प्रश्न सदा ही गहरे में अपेक्षा का है, एक्सपेक्टेशन का है।
तो वह कृष्ण कह रहे हैं कि निष्काम कर्म की तुझसे मैं बात कहता हूं और इसलिए कहता हूं, क्योंकि निष्काम कर्म को करने वाला व्यक्ति कभी भी असफलता को उपलब्ध नहीं होता है। यह पहली बात। और दूसरी बात वे यह कह रहे हैं कि निष्काम कर्म में छोटा-सा भी विघ्न, छोटी-सी भी बाधा नहीं आती। क्यों नहीं आती? निष्काम कर्म में ऐसी क्या कीमिया है, क्या केमिस्ट्री है कि बाधा नहीं आती, कोई प्रत्यवाय पैदा नहीं होता!
है। बाधा भी तो अपेक्षा के कारण ही दिखाई पड़ती है। जिसकी अपेक्षा नहीं है, उसे बाधा भी कैसे दिखाई पड़ेगी? गंगा बहती है सागर की तरफ, अगर वह पहले से एक नक्शा बना ले और पक्का कर ले कि इस-इस रास्ते से जाना है, तो हजार बाधाएं आएंगी रास्ते में। क्योंकि कहीं किसी ने मकान बना लिया होगा गंगा से बिना पूछे, कहीं कोई पहाड़ खड़ा हो गया होगा गंगा से बिना पूछे, कहीं चढ़ाई होगी गंगा से बिना पूछे। और नक्शा वह पहले बना ले, तो फिर बाधाएं हजार आएंगी। और यह भी हो सकता है कि बाधाओं से लड़-लड़कर गंगा इतनी मुश्किल में पड़ जाए कि सागर तक कभी पहुंच ही न पाए।
लेकिन गंगा बिना ही नक्शे के, बिना प्लानिंग के चल पड़ती है। रास्ता पहले से अपेक्षा में न होने से, जो भी मार्ग मिल जाता है, वही रास्ता है। बाधा का कोई प्रश्न ही नहीं है। अगर पहाड़ रास्ते में पड़ता है, तो किनारे से गंगा बह जाती है। पहाड़ से रास्ता बनाना किसको था, जिससे पहाड़ बाधा बने!
जो लोग भी भविष्य की अपेक्षा को सुनिश्चित करके चलते हैं, अपने हाथ से बाधाएं खड़ी करते हैं। क्योंकि भविष्य आपका अकेला नहीं है। किस पहाड़ ने बीच में खड़े होने की पहले से योजना कर रखी होगी, आपको कुछ पता नहीं है।
जो भविष्य को निश्चित करके नहीं चलता, जो अभी कर्म करता है और कल कर्म का क्या फल होगा, इसकी कोई फिक्स्ड, इसकी कोई सुनिश्चित धारणा नहीं बनाता, उसके मार्ग में बाधा आएगी कैसे? असल में उसके लिए तो जो भी मार्ग होगा, वही मार्ग है। और जो भी मार्ग मिलेगा, उसी के लिए परमात्मा को धन्यवाद है। उसको बाधा मिल ही नहीं सकती।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, निष्काम कर्म की यात्रा पर जरा-सा भी प्रत्यवाय नहीं है, जरा-सी भी बाधा नहीं है, जरा-सा भी हिंडरेंस है ही नहीं। पर बड़ी होशियारी की, बड़ी कलात्मक बात है, बहुत आर्टिस्टिक बात है। एकदम से खयाल में नहीं आएगी। एकदम से खयाल में नहीं आएगी कि बाधा क्यों नहीं है? क्या निष्काम कर्म करने वाले आदमी को बाधा नहीं बची?
बाधाएं सब अपनी जगह हैं, लेकिन निष्काम कर्म करने वाले आदमी ने बाधाओं को स्वीकार करना बंद कर दिया। स्वीकृति होती थी अपेक्षाओं से, उनके प्रतिकूल होने से। अब कुछ भी प्रतिकूल नहीं है। निष्काम कर्म की धारणा में बहने वाले आदमी को सभी कुछ अनुकूल है। इसका यह मतलब नहीं है कि सभी कुछ अनुकूल है। असल में जो भी है, वह अनुकूल ही है, क्योंकि प्रतिकूल को तय करने का उसके पास कोई भी तराजू नहीं है। न बाधा है, न विफलता है। सब बाधाएं, सब विफलताएं सकाम मन की निर्मितियां हैं।


प्रश्न: भगवान श्री, श्लोक के उत्तरार्द्ध में-- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्--इस धर्म का अति अल्प आचरण भी बड़े भय से बचाता है, इसे भी समझाएं

निष्काम कर्म का अल्प आचरण भी बड़े-बड़े भयों से बचाता है। बड़े-बड़े भय क्या हैं? बड़े-बड़े भय यही हैं--असफलता तो नहीं मिलेगी! विषाद तो हाथ नहीं आएगा! दुख तो पल्ले नहीं पड़ेगा! कोई बाधा तो न आ जाएगी! निराशा तो नहीं मिलेगी! बड़े-बड़े भय यही हैं। कृष्ण कह रहे हैं, सूत्र के अंतिम हिस्से में, कि निष्काम कर्म का थोड़ा-सा भी आचरण, अंशमात्र आचरण भी, रत्तीभर आचरण भी, पहाड़ जैसे भयों से मनुष्य को मुक्ति दिला देता है।
असल में जब तक विपरीत दशा को न समझ लें, खयाल में नहीं आएगा। जरा-सी अपेक्षा पहाड़ों जैसे भय को निर्मित कर देती है। जरा-सी कामना, पहाड़ों जैसे दुखों का निर्माण कर देती है। जरा-सी इच्छा पर जोर, जरा-सा आग्रह कि ऐसा ही हो, सारे जीवन को अस्तव्यस्त कर जाता है। जिसने भी कहा, ऐसा ही हो, वह दुख पाएगा ही। ऐसा होता ही नहीं। जिसने भी कहा, ऐसा ही होगा, तो ही मैं सुखी हो सकता हूं, उसने अपने नर्क का इंतजाम स्वयं ही कर लिया। वह आर्किटेक्ट है अपने नर्क का खुद ही; उसने सब व्यवस्था अपने लिए कर ली है।
हम जितने दुख झेल रहे हैं, कभी आपने सोचा कि कितनी छोटी अपेक्षाओं पर खड़े हैं! कितनी छोटी अपेक्षाओं पर! नहीं देखा कभी। हम जो दुख झेल रहे हैं, कितनी छोटी अपेक्षाओं पर खड़े हैं!
एक आदमी रास्ते से निकल रहा है। आपने सदा उसको नमस्कार किया था, आज आप नमस्कार नहीं करते हैं, ये दो हाथ ऊपर नहीं उठे आज। उसकी नींद हराम है, वह परेशान है, उसे बुखार चढ़ आया है! अब वह सोचने लगा कि क्या हो गया, कोई बदनामी हो गई, इज्जत हाथ से चली गई, प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई। जिस आदमी ने सदा नमस्कार की, उसने नमस्कार नहीं किया! क्या होगा? क्या नहीं होगा? अब उसको कैसे बदला चुकाना, और क्या नहीं करना--वह हजार-हजार चक्करों में पड़ गया है। इस आदमी के ये दो हाथों का न उठना, हो सकता है उसकी जिंदगी के सारे भवन को उदासी से भर जाए।
पति घर आया है और उसने कहा, पानी लाओ। और पत्नी नहीं लाई दो क्षण। सब दुख हो गया! पति घर से बाहर निकला; राह चलती किसी स्त्री को उसने आंख उठाकर देख लिया; पत्नी के प्राण अंत हो गए! पत्नी मरने जैसी हालत में हो गई; जीने का कोई अर्थ नहीं रहा, जीना बिलकुल बेकार है!
हम अगर अपने दुखों के पहाड़ को देखें, तो बड़ी क्षुद्र अपेक्षाएं उनके पीछे खड़ी मिलती हैं। यहीं से समझना उचित होगा। क्योंकि निष्काम कर्म का तो अंश भी हमें पता नहीं, लेकिन सकाम कर्म के काफी अंश हमें पता हैं। यहीं से समझना उचित होगा। उसके विपरीत निष्काम कर्म की स्थिति है। कितनी क्षुद्र अपेक्षाएं कितने विराट दुख को पैदा करती चली जाती हैं!
यह जो इतना बड़ा महाभारत हुआ, जानते हैं कितनी क्षुद्र-सी घटना से शुरू हुआ? इतना बड़ा यह युद्ध, यह इतनी-सी क्षुद्र घटना से शुरू हुआ! बहुत ही क्षुद्र घटना से, मजाक से, एक जोक। दुनिया के सभी युद्ध मजाक से शुरू होते हैं।
दुर्योधन आया है। और पांडवों ने एक मकान बनाया है। और अंधे के बेटे की वे मजाक कर रहे हैं। उसमें उन्होंने आईने लगाए हुए हैं। और इस तरह से लगाए हुए हैं कि दुर्योधन को, जहां दरवाजा नहीं है, वहां दरवाजा दिखाई पड़ जाता है; जहां पानी है, वहां पानी दिखाई नहीं पड़ता। उसका दीवार से सिर टकरा जाता है, पानी में गिर पड़ता है। द्रौपदी हंसती है। वह हंसी सारे महाभारत के युद्ध का मूल है। उस हंसी का बदला फिर द्रौपदी को नंगा करके चुकाया जाता है। फिर यह बदला चलता है। बड़ी ही क्षुद्र-सी घटना, जस्टजोक, एक मजाक, लेकिन बहुत महंगा पड़ा है। मजाक बढ़ता ही चला गया। फिर उसके कोई आर-पार न रहे और उसने इस पूरे मुल्क को मथ डाला।
एक स्त्री का हंसना! एक घर में चचेरे भाइयों की आपसी मजाक! कभी सोचा भी न होगा कि हंसी इतनी महंगी पड़ सकती है। लेकिन उन्हें पता नहीं कि दुर्योधन की भी अपेक्षाएं हैं। चोट अपेक्षाओं को लग गई। चोट अपेक्षाओं को लग गई। दुर्योधन ने सोचा भी नहीं था कि उस पर हंसा जाएगा--निमंत्रण देकर। उसने सोचा भी नहीं था कि उसका इस तरह मखौल और मजाक उड़ाया जाएगा। वह आया होगा सम्मान लेने; मिला मजाक। उपद्रव शुरू हो गया।
फिर उस उपद्रव के भयंकर परिणाम हुए। जिन परिणामों से मैं नहीं सोचता हूं कि आज तक भी भारत पूरी तरह मुक्त हो पाया है। वह महाभारत में जो घटित हुआ था, उसके परिणाम की प्रतिध्वनि आज भी भारत के प्राणों में चलती है।
जगत में बड़े छोटे-से, छोटे-से कारण सब कुछ करते हैं।
सकाम का हमें पता है, निष्काम का हमें कुछ पता नहीं है। निष्काम कृत्य को भी ठीक ऐसे ही समझें, इसकी उलटी दिशा में। जरा-सा निष्काम भाव, और बड़े-बड़े भय जीवन के दूर हो जाते हैं।
प्रश्न: भगवान श्री, क्या निष्काम भावना से हमारी प्रगति नहीं रुक जाती है?


पूछ रहे हैं कि निष्काम भावना से हमारी प्रगति नहीं रुक जाती है?
प्रगति का क्या मतलब होता है? अगर प्रगति से मतलब हो कि बहुत धन हो, बड़ा मकान हो, जायदाद हो, जमीन हो, तो शायद--तो शायद--थोड़ी रुकावट पड़ सकती है। लेकिन अगर प्रगति से अर्थ है, शांति हो, आनंद हो, प्रेम हो, जीवन में प्रकाश हो, ज्ञान हो, तो रुकावट नहीं पड़ती, बड़ी गति मिलती है। इसलिए आपकी प्रगति का क्या मतलब है, इस पर निर्भर करेगा।
प्रगति से आपका क्या मतलब है? अगर प्रगति से यही मतलब है जो बाहर इकट्ठा होता है, तब तो शायद थोड़ी बाधा पड़ सकती है। लेकिन बाहर सब कुछ भी मिल जाए--सारा जगत, सारी संपदा--और भीतर एक भी किरण शांति की न फूटे, तो मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें शांति की एक किरण देने को राजी हो जाए और कहे कि छोड़ दो यह सब राज्य और यह सब धन और यह सब दौलत, तो तुम छोड़ पाओगे। छोड़ सकोगे। एक छोटी-सी शांति की लहर भी इस जगत के पूरे साम्राज्य के समतुल नहीं है।
लेकिन हम प्रगति से एक ही मतलब लेते हैं। लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं कि जो निष्काम कर्म में गति करेगा, अनिवार्य रूप से दीन और दरिद्र हो जाएगा। यह मैं नहीं कह रहा हूं। क्योंकि मन शांत हो, तो दरिद्र होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। क्योंकि शांत मन जिस दिशा में भी काम करेगा, ज्यादा कुशल होगा। धन भी कमाएगा, तो भी ज्यादा कुशल होगा। हां, एक फर्क पड़ेगा कि धन कमाने का अर्थ चोरी नहीं हो सकेगा। शांत मन के लिए धन कमाने का अर्थ धन कमाना ही होगा, चोरी नहीं। धन निर्मित करना होगा।
शांत मन हो, तो आदमी जो भी करेगा, कुशल हो जाता है। उसके मित्र ज्यादा होंगे, उसकी कुशलता ज्यादा होगी, उसके पास शक्ति ज्यादा होगी, समझ ज्यादा होगी। इसलिए ऐसा नहीं कह रहा हूं कि वैसा आदमी अनिवार्य रूप से दरिद्र होगा। भीतरी तो समृद्धि होगी ही, लेकिन भीतरी समृद्धि बाहरी समृद्धि को लाने का भी आधार बनती है, लेकिन गौण होगी। भीतरी समृद्धि के बचते, भीतरी समृद्धि के रहते हुए मिलती होगी--नाट एट दि कास्ट, कीमत न चुकानी पड़ती होगी भीतरी समृद्धि की--तो बाहरी समृद्धि भी आएगी। हां, सिर्फ उसी जगह बाधा पड़ेगी, जहां बाहरी समृद्धि कहेगी कि भीतरी शांति और आनंद खोओ, तो मैं मिल सकती हूं। तो वैसा निष्कामकर्मी कहेगा कि मत मिलो, यही तुम्हारी कृपा है। जाओ।
प्रगति का क्या अर्थ है, इस पर सब निर्भर करता है। अगर सिर्फ दौड़ना ही प्रगति है--कहीं भी दौड़ना, बिना कहीं पहुंचे--तब बात अलग है। लेकिन कहीं अगर पहुंचना प्रगति है, तो फिर बात बिलकुल अलग होगी। अगर आप यह कहते हों कि एक आदमी पागल है और हम उससे कहें कि तुम्हारे दिमाग का इलाज किए देते हैं। और वह कहे, दिमाग का इलाज तो आप कर देंगे, लेकिन इससे मेरी प्रगति में बाधा तो नहीं पड़ेगी? क्योंकि अभी मैं जितनी तेजी से दौड़ता हूं, कोई दूसरा नहीं दौड़ पाता। हम कहेंगे, बाधा पड़ेगी। अभी तुम्हारी जैसी तेजी से कोई भी नहीं दौड़ पाता, लेकिन तुम इतनी तेजी से दौड़कर भी कहीं नहीं पहुंचते और धीमे चलने वाले लोग भी पहुंच जाते हैं। बस, इतना ही खयाल हो, तो बात समझ में आ सकती है।


व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। ४१।।
हे अर्जुन, इस कल्याणमार्ग में निश्चयात्मक-बुद्धि एक ही है और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदों वाली अनंत होती हैं।


मनुष्य का मन एक हो सकता है, अनेक हो सकता है। मनुष्य का चित्त अखंड हो सकता है, खंड-खंड हो सकता है। मनुष्य की बुद्धि स्वविरोधी खंडों में बंटी हुई हो सकती है, विभाजित हो सकती है, अविभाजित भी हो सकती है। साधारणतः विषयी चित्त, इच्छाओं से भरे चित्त की अवस्था एक मन की नहीं होती है, अनेक मन की होती है; पोलीसाइकिक, बहुचित्त होते हैं। और ऐसा ही नहीं कि बहुचित्त होते हैं, एक चित्त के विपरीत दूसरा चित्त भी होता है।
मैं कुछ दिन पहले दिल्ली में था। एक मित्र, बड़े शिक्षाशास्त्री हैं, किसी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति थे, फिर अब और भी बड़े पद पर हैं। वे मुझसे पूछने आए कि हम शिक्षित तो कर रहे हैं लोगों को, लेकिन बेईमानी, झूठ, दगा, फरेब, सब बढ़ता चला जाता है! हम अपने बच्चों को बेईमानी, दगा, फरेब, झूठ से कैसे रोकें? तो मैंने उनसे पूछा कि दूसरों के बच्चों की पहले छोड़ दें। क्योंकि दूसरों के बच्चों को दगा, फरेब से रोकने को कोई भी तैयार हो जाता है। मैं आपके बच्चों की बात करना चाहता हूं। दूसरों के बच्चों को दगा, फरेब से रोकने में कौन सी कठिनाई है! दूसरे का बेटा संन्यासी हो जाए, तो सब मुहल्ले के लोग उसको स्वागत- धन्यवाद देने आते हैं। उनका बेटा हो, तब पता चलता है!
मैंने उनसे पूछा, दूसरों के बच्चों की बात छोड़ दें। आपके भी लड़के हैं! उन्होंने कहा, हैं। लेकिन वे कुछ डरे हुए मालूम पड़े, जैसे ही मैंने कहा कि आपके बच्चों की सीधी बात की जाए। मैंने उनसे पूछा कि मैं आपसे यह पूछता हूं, आप अपने बच्चों को दगा, फरेब, झूठ, खुशामद, बेईमानी--ये जो हजार बीमारियां इस समय मुल्क में हैं--इन सब से छुटकारा दिलाना चाहते हैं? उन्होंने बड़े डरते से मन से कहा कि हां, दिलाना चाहता हूं। लेकिन मैंने कहा, आप इतने कमजोर मन से कह रहे हैं हां, कि मैं फिर से पूछता हूं, थोड़ी हिम्मत जुटाकर कहिए। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, मैं तो दिलाना ही चाहता हूं।
मैंने कहा, लेकिन आप हिम्मत नहीं जुटाते। आप जितनी ताकत से पहले मुझसे बोले कि सब बर्बाद हुआ जा रहा है, हम मुल्कभर के बच्चों को कैसे ईमानदारी सिखाएं! उतने जोर से आप अब नहीं कहते। उन्होंने कहा कि आपने मेरा कमजोर हिस्सा छू दिया है। आपने मेरी नस पकड़ ली है। मैंने कहा कि नस पकड़कर ही बात हो सकती है, अन्यथा तो कोई बात होती नहीं। इस मुल्क में हर आदमी बिना नस पकड़े बात करता रहता है, तो कोई मतलब ही नहीं होता है। तो मैं नस ही पकड़ना चाहता हूं।
तो उन्होंने कहा कि नहीं, इतनी हिम्मत से तो नहीं कह सकता। मैंने कहा, क्यों नहीं कह सकते? तो उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं। इतना तो मैं चाहता हूं कि जितने ऊंचे पद तक मैं उठा, कम से कम मेरा लड़का भी उठे। और यह भी मैं जानता हूं कि अगर वह पूरा ईमानदार हो, नैतिक हो, तो नहीं उठ सकता। तो फिर मैंने कहा, दो मन हैं आपके। दो में से एक साफ तय करिए--या तो कहिए कि लड़का सड़क पर भीख मांगे, इसके लिए मैं राजी हूं, लेकिन बेईमानी नहीं। और या फिर कहिए कि लड़का बेईमान हो, मुझे कोई मतलब नहीं; लड़का शिक्षा मंत्रालय में होना चाहिए। एजुकेशन मिनिस्ट्री में पहुंचे बिना हमें कोई चैन नहीं है। बेईमानी से हमें कोई मतलब नहीं। साफ बात कहिए। और नहीं तो आप अपने लड़के में भी डबल माइंड पैदा कर देंगे।
वह लड़का भी समझ जाएगा कि बाप चाहता है कि शिक्षामंत्री होने तक पहुंचो। और देखता है कि शिक्षामंत्री होने तक की यात्रा, सीढ़ी दर सीढ़ी बेईमानी और चोरी की यात्रा है। दूसरी तरफ बाप कहता है कि ईमानदार बनो। और ईमानदार की इस जगत में हालत ठीक वैसी है, जैसी कि नाइबर ने एक किताब लिखी है, मारल मैन इन इम्मारल सोसाइटी--नैतिक आदमी अनैतिक समाज में। सड़क पर भीख मांगने की तैयारी होनी ही चाहिए। यद्यपि नैतिक होकर सड़क पर भीख मांगने में जितना आनंद है, उतना अनैतिक होकर सम्राट हो जाने में भी नहीं है। लेकिन वह दूसरी बात है।
ये दोनों बातें लड़के के दिमाग में होंगी, तो लड़के के दो मन हो जाएंगे। तब तो वह यही कर सकता है ज्यादा से ज्यादा, कि उसको कोई इंतजाम भीतरी करना पड़ेगा। कोई कोएलिशन गवर्नमेंट तो भीतर बनानी पड़ेगी न! इन सब उपद्रवी विरोधी तत्वों के बीच कोई तो समझौता करके, कोई संविद सरकार निर्मित करनी पड़ेगी! तो फिर यही होगा कि जब बाहर दिखाना हो तो ईमानदारी दिखाओ और जब भीतर करना हो तो बेईमानी करो। क्योंकि मंत्री के पद तक पहुंचना ही है और ईमानदारी बड़ी अच्छी चीज है, उसको भी दिखाना ही है।
चित्त हमारा बंट जाता है अनेक खंडों में, और विपरीत आकांक्षाएं एक साथ पकड़ लेती हैं। और अनंत इच्छाएं एक साथ जब मन को पकड़ती हैं, तो अनंत खंड हो जाते हैं। और एक ही साथ हम सब इच्छाओं को करते चले जाते हैं। एक आदमी कहता है, मुझे शांति चाहिए, और साथ ही कहता है, मुझे प्रतिष्ठा चाहिए। उसे कभी खयाल में नहीं आता कि वह क्या कह रहा है!
एक मित्र मेरे पास आए। आते ही से मुझसे बोले कि मैं अरविंद आश्रम हो आया, रमण आश्रम हो आया, शिवानंद के आश्रम हो आया, सब आश्रम छान डाले, कहीं शांति नहीं मिलती है। अभी मैं पांडिचेरी से सीधा चला आ रहा हूं। किसी ने आपका नाम ले दिया, तो मैंने कहा आपके पास भी जाकर शांति--तो मुझे शांति दें।
तो मैंने कहा कि इसके पहले कि तुम मुझसे भी निराश होओ, एकदम उलटे लौटो और वापस हो जाओ। मैं तुम्हें शांति नहीं दूंगा। और तुम कुछ इस तरह कह रहे हो कि जैसे अरविंद आश्रम ने तुम्हें शांति देने का कोई ठेका ले रखा है। सब जगह हो आया, कहीं नहीं मिली! जैसे कि मिलना कोई आपका अधिकार था। बाहर हो जाओ दरवाजे के!
उन्होंने कहा, आप कैसे आदमी हैं! मैं शांति खोजने आया हूं। मैंने कहा, अशांति खोजने कहां गए थे? अशांति खोजने किस आश्रम में गए थे, यह मुझे पहले बता दो। कहा, कहीं नहीं गया था। तो मैंने कहा, जब तुम अशांति तक पैदा करने में कुशल हो, तो शांति भी पैदा कर सकते हो। मेरी क्या जरूरत है? जिस रास्ते से अशांत हुए हो, उसी रास्ते से वापस लौट पड़ो तो शांत हो जाओगे। मैं कहां आता हूं बीच में? अशांति के वक्त मुझसे तुमने कोई सलाह न ली थी, शांति के वक्त तुम मुझसे सलाह लेने चले आए हो! मैंने पूछा कि शांति की बात बंद। अगर मेरे पास रुकना है, तो अशांति की चर्चा करो कि अशांत कैसे हुए हो? क्या है अशांति, उसकी मुझसे बात करो। अशांति तुम्हारी स्पष्ट हो जाए, तो शांति पाना जरा भी कठिन नहीं है।
वे दो दिन मेरे पास थे। उनकी अशांति फिर धीरे-धीरे उन्होंने खोलनी शुरू की। वही थी, जो हम सब की है। एक ही लड़का है उनका। बहुत पैसा कमाया। ठेकेदारी थी। एक ही लड़का है। उस लड़के ने एक लड़की से शादी कर ली, जिससे वे नहीं चाहते थे कि शादी करे। तलवार लेकर खड़े हो गए दरवाजे पर--लाश बिछा दूंगा; बाहर निकल जाओ! लड़का बाहर निकल गया। अब मुसीबत है। अब मौत करीब आ रही है। अब किस मुंह से लड़के को वापस बुलाएं, तलवार दिखाकर निकाला था। और मौत पास आ रही है। और जिंदगीभर जिस पैसे को हजार तरह की चोरी और बेईमानी से कमाया, उसका कोई मालिक भी नहीं रह जाता और हाथ से सब छूटा जा रहा है!
तो मैंने उनसे पूछा, वह लड़की खराब थी, जिसने तुम्हारे लड़के से शादी की है? उन्होंने कहा, नहीं, लड़की तो बिलकुल अच्छी है, लेकिन मेरी इच्छा के खिलाफ...।
तुम्हारी इच्छा से तुम शादी करो, तुम्हारा लड़का क्यों करने लगा? अशांत होने के रास्ते खड़े कर रहे हो। फिर जब उसने शादी अपनी इच्छा से की और तुमने उसे घर से बाहर निकाल दिया, तो अब परेशान क्यों हो रहे हो? बात समाप्त हो गई। उसने तो आकर नहीं कहा कि घर में वापस लो।
कहने लगे, यही तो अशांति है। वह एक दफा आकर माफी मांग ले, अंदर आ जाए।
नहीं मानी, ठीक है। जब उसने आपकी बात नहीं मानी, तो ठीक है। बात खतम हो गई। अब आप क्यों परेशान हैं?
तो इस धन का क्या होगा?
मैंने कहा, धन का सबके मर जाने के बाद क्या होता है? और तुम्हें क्या फिक्र है? तुम मर जाओगे, धन का जो होगा, वह होगा।
कहा कि नहीं, मेरे ही लड़के के पास मेरा धन होना चाहिए। तो मैंने कहा, फिर मेरे लड़के के पास मेरी ही पसंद की औरत होनी चाहिए, यह खयाल छोड़ो। तुम्हारा लड़का धन छोड़ने को राजी है अपने प्रेम के लिए, तुम भी कुछ छोड़ने को राजी होओ
दो दिन मेरे पास थे, सारी बात हुई। देखा कि सब हजार तरह की उलटी-सीधी इच्छाएं मन को पकड़े हुए हैं, तो चित्त अशांत हो गया है। हम सब का मन ऐसा ही अशांत है।
कृष्ण कह रहे हैं कि विषय-आसक्त चित्त--चूंकि विषय बहुत विपरीत हैं--एक ही साथ विपरीत विषयों की आकांक्षा करके विक्षिप्त होता रहता है और खंड-खंड में टूट जाता है। जो व्यक्ति निष्काम कर्म की तरफ यात्रा करता है, अनिवार्यरूपेण--क्योंकि कामना गिरती है, तो कामना से बने हुए खंड गिरते हैं। जो व्यक्ति अपेक्षारहित जीवन में प्रवेश करता है, चूंकि अपेक्षा गिरती है, इसलिए अपेक्षाओं से निर्मित खंड गिरते हैं। उसके भीतर एकचित्तता, यूनिसाइकिकनेस, उसके भीतर एक मन पैदा होना शुरू होता है।
और जहां एक मन है, वहां जीवन का सब कुछ है--शांति भी, सुख भी, आनंद भी। जहां एक मन है, वहां सब कुछ है--शक्ति भी, संगीत भी, सौंदर्य भी। जहां एक मन है, उस एक मन के पीछे जीवन में जो भी है, वह सब चला आता है। और जहां अनेक मन हैं, तो पास में भी जो है, वह भी सब बिखर जाता है और खो जाता है। लेकिन हम सब पारे की तरह हैं--खंड-खंड, टूटे हुए, बिखरे हुए। खुद ही इतने खंडों में टूटे हैं, कि कैसे शांति हो सकती है!
जोसुआ लिएबमेन ने अपने संस्मरण लिखे हैं। संस्मरण की किताब को जो नाम दिया है, वह बहुत अच्छा है। और किताब के पहले ही हिस्से में उसने जो उल्लेख किया है, वह कीमती है। कहा कि जवान था, विश्वविद्यालय से पढ़कर लौटा था, तो मेरे मन में हुआ कि अब जीवन का एक नक्शा बना लूं कि जीवन में क्या-क्या पाना है! स्वभावतः, जीवन का एक नक्शा हो, तो जीवन को सुव्यवस्थित चलाया जा सके।
तो उसने एक फेहरिस्त बनाई। उस फेहरिस्त में लिखा कि धन चाहिए, सुंदर पत्नी चाहिए, यश चाहिए, सम्मान चाहिए, सदाचार चाहिए...। कोई बीस-बाइस बातों की फेहरिस्त तैयार की। उसमें सब आ गया, जो आदमी चाह सकता है। जो भी चाह चाह सकती है, वह सब आ गया। जो भी विषय की मांग हो सकती है, वह सब आ गया। जो भी कामना निर्मित कर सकती है, वे सब सपने आ गए। पर न मालूम, पूरी फेहरिस्त को बार-बार पढ़ता है, कि इसमें और कुछ तो नहीं जोड़ा जाना है; क्योंकि वह जीवनभर का नक्शा बनाना है।
सब खोज लेता है, कुछ जोड़ने को बचता नहीं। सब आ गया, फिर भी, समथिंग इज़ मिसिंग। कुछ ऐसा लगता है कि कोई कड़ी खो रही है। क्यों लगता है ऐसा? क्योंकि रात सोते वक्त उसने सोचा कि मैं देखूं कि सब मुझे समझ लो कि मिल गया, जो-जो मैंने फेहरिस्त पर लिखा है, सब मिल गया--हो जाएगा सब ठीक? तो मन खाली-खाली लगता है। मन में ऐसा उत्तर नहीं आता आश्वासन से भरा, निश्चय से भरा, कि हां, यह सब मिल जाए, जो फेहरिस्त पर लिखा है, तो बस, सब मिल जाएगा। नहीं, ऐसा निश्चय नहीं आता; ऐसी निश्चयात्मक लहर नहीं आती भीतर।
तो गांव में एक बूढ़े फकीर के पास वह गया। उसने कहा कि इस गांव में सबसे ज्यादा बूढ़े तुम हो, सबसे ज्यादा जिंदगी तुमने देखी है। और तुमने जिंदगी गृहस्थ की ही नहीं देखी, संन्यासी की भी देखी है। तुमसे बड़ा अनुभवी कोई भी नहीं है। तो मैं यह फेहरिस्त लाया हूं, जरा इसमें कुछ जोड़ना हो तो बता दो।
उस बूढ़े ने पूरी फेहरिस्त पढ़ी, फिर वह हंसा और उसने कलम उठाकर वह पूरी फेहरिस्त काट दी। और पूरी फेहरिस्त के ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में तीन शब्द लिख दिए, पीस आफ माइंड, मन की शांति। उसने कहा, बाकी ये सब तुम फिक्र छोड़ो; तुम यह एक चीज पा लो, तो यह बाकी सब मिल सकता है। और यदि तुमने बाकी सब भी पा लिया, तो भी ये जो तीन शब्द मैंने लिखे, ये तुम्हें कभी मिलने वाले नहीं हैं। और आखिर में निर्णय यही होगा कि यह पीस आफ माइंड, यह मन की शांति मिली या नहीं!
तो लिएबमेन ने अपनी आत्मकथा लिखी है, उसको नाम दिया है, पीस आफ माइंड। किताब को नाम दिया, मन की शांति। और लिखा कि उस दिन तो मुझे लगा कि यह बूढ़े ने सब फेहरिस्त खराब कर दी। कितनी मेहनत से बनाकर लाया हूं और इस आदमी ने सब काट-पीट कर दिया। जंची नहीं बात कुछ उसकी। लेकिन जिंदगी के अंत में लिएबमेन कहता है कि आज मैं जानता हूं कि उस बूढ़े ने फेहरिस्त काटी थी, तो ठीक ही किया था। उसने फाड़कर क्यों न फेंक दी! बेकार। आज जीवन के अंत में वे ही तीन शब्द पास घूम रहे हैं। काश, उस दिन मैं समझ जाता कि मन की शांति ही सब कुछ है, तो शायद आज तक पाया भी जा सकता था। लेकिन जिंदगी उसी फेहरिस्त को पूरा करने में बीत जाती है सबकी
कृष्ण कह रहे हैं, यह जो विषयों की दौड़ है चित्त की, यह सिर्फ अशांति को...। अशांति का अर्थ ही सिर्फ एक है, बहुत-बहुत दिशाओं में दौड़ता हुआ मन, अर्थात अशांति। न दौड़ता हुआ मन, अर्थात शांति। कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्म की जो भाव-दशा है, वह एक मन और शांति को पैदा करती है। और जहां एक मन है, वहीं निश्चयात्मक बुद्धि है, दि डेफिनीटिव इंटलेक्ट, दि डेफिनीटिव इंटेलिजेंस
इसको आखिरी बात समझ लें। तो जहां एक मन है, वहां अनिश्चय नहीं है। अनिश्चय होगा कहां? अनिश्चय के लिए कम से कम दो मन चाहिए। जहां एक मन है, वहां निश्चय है।
इसलिए आमतौर से आदमी लेकिन क्या करता है? वह कहता है कि निश्चयात्मक बुद्धि चाहिए, तो वह कहता है, जोड़त्तोड़ करके निश्चय कर लो। दबा दो मन को और छाती पर बैठ जाओ, और निश्चय कर लो कि बस, निश्चय कर लिया। लेकिन जब वह निश्चय कर रहा है जोर से, तभी उसको पता है कि भीतर विपरीत स्वर कह रहे हैं कि यह तुम क्या कर रहे हो? यह ठीक नहीं है। वह आदमी कसम ले रहा है कि ब्रह्मचर्य साधूंगा, निश्चय करता हूं। लेकिन निश्चय किसके खिलाफ कर रहे हो? जिसके खिलाफ निश्चय कर रहे हो, वह भीतर बैठा है।
मैं एक बूढ़े आदमी से मिला। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि मैंने अपनी जिंदगी में तीन बार ब्रह्मचर्य का व्रत लिया है। तो मैंने पूछा कि चौथी बार क्यों नहीं लिया? बूढ़ा आदमी ईमानदार था। बूढ़े आदमी कम ही ईमानदार होते हैं, क्योंकि जिंदगी इतनी बेईमानी सिखा देती है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। बच्चे साधारणतः ईमानदार होते हैं। बेईमान बच्चा खोजना मुश्किल है। बूढ़े साधारणतः बेईमान होते हैं। ईमानदार बूढ़ा खोजना मुश्किल है।
पर वह बूढ़ा ईमानदार आदमी था। उसने कहा कि आप ठीक कहते हैं। आप ठीक कहते हैं, मैंने चौथी बार इसीलिए नहीं लिया कि तीन बार की असफलता ने हिम्मत ही तुड़वा दी। फिर हिम्मत भी नहीं रही कि चौथी बार ले सकूं। पर मैंने कहा, तुमने व्रत किसके खिलाफ लिया था? अपने ही खिलाफ कहीं व्रत पूरे होते हैं? जब तुमने व्रत लिया था, तब तुम्हारा पूरा मन राजी था? उसने कहा, पूरा ही मन राजी होता तो फिर क्या था! मेजारिटी माइंड से लिया था, बहुमत से लिया था।
मन कोई पार्लियामेंट नहीं है कि जिसमें आप बहुमत से पक्ष लें। मन कोई पार्लियामेंट नहीं है, कोई संसद नहीं है। और अगर संसद भी है, तो वैसी ही संसद है, जैसी दिल्ली में है। उसमें कुछ पक्का नहीं है कि जो अभी आपके पक्ष में गवाही दे रहा था, वह दो दिन बाद विपक्ष में गवाही देगा; उसका कुछ पक्का नहीं है। आप रातभर सोकर सुबह उठोगे और पाओगे कि माइनारिटी में हो; मेजारिटी हाथ से खिसक गई है।
कृष्ण कुछ और बात कह रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निश्चय करो। वे यह कह रहे हैं, जो निष्काम कर्म की यात्रा पर निकलता है, उसे निश्चयात्मक बुद्धि उपलब्ध हो जाती है; क्योंकि उसके पास एक ही मन रह जाता है। विषयों में जो भटकता नहीं, जो अपेक्षा नहीं करता, जो कामना की व्यर्थता को समझ लेता है, जो भविष्य के लिए आतुरता से फल की मांग नहीं करता, जो क्षण में और वर्तमान में जीता है--वैसे व्यक्ति को एक मन उपलब्ध होता है। एक मन निश्चयात्मक हो जाता है, उसे करना नहीं पड़ता।

शेष कल सुबह बात करेंगे।


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