अर्जुन
का जीवन शिखर--युद्ध
के ही माध्यम
से—
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते
त्वां महारथाः।
येषां
च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।।
३५।।
और
जिनके लिए तू
बहुत माननीय
होकर भी अब
तुच्छता को
प्राप्त होगा, वे महारथी
लोग तुझे भय
के कारण युद्ध
से उपराम
हुआ मानेंगे।
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति
तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं
ततो दुःखतरं
नु
किम्।। ३६।।
हतो
वा प्राप्स्यसि
स्वर्गं
जित्वा वा भोक्ष्यसे
महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।
३७।।
तेरे
बैरी तेरे
सामर्थ्य की
निंदा करते
हुए बहुत से न
कहने योग्य
वचनों को कहेंगे।
फिर उससे अधिक
दुख क्या होगा? इसलिए युद्ध
करना तेरे लिए
सब प्रकार से
अच्छा है।
क्योंकि या तो
मरकर तू
स्वर्ग को
प्राप्त होगा,
अथवा जीतकर
पृथ्वी को भोगेगा।
इससे हे
अर्जुन, युद्ध
के लिए निश्चय
वाला होकर खड़ा
हो।
कृष्ण
की बात यदि
यूनान के
मनस्वी प्लेटो
ने पढ़ी
होती, तो सौ
प्रतिशत
स्वीकृति
देता। प्लेटो
से किसी ने
पूछा, स्वर्ग
क्या है? सुख
क्या है? तो
प्लेटो
ने जो सुख की
परिभाषा की है,
वह समझने
जैसी है। प्लेटो
ने कहा, अंतस
की निजता का
बाहर के आचरण
से जहां संगीतपूर्ण
तालमेल है, वहीं सुख है;
जहां अंतस
की निजता का
बाहर के आचरण
से तालमेल है,
अविरोध है,
वहीं आनंद
है। और प्लेटो
ने कहा, व्यक्ति
जो हो सकता है,
जो उसके बीज
में छिपा है, जिस दिन वही
हो जाता है, उसी दिन
स्वर्ग है।
कृष्ण
अर्जुन से कह
रहे हैं, क्षत्रिय
होकर ही तेरा
स्वर्ग है।
उससे विचलित
होकर तेरा कोई
सुख नहीं है।
तेरी जो निजता
है, तेरी
जो इंडिविजुअलिटी
है, जो
तेरे भीतर का
गुणधर्म है, जो तू भीतर
से बीज लिए
बैठा है, जो
तू हो सकता है,
वही होकर
ही--अन्यथा
नहीं--तू
स्वर्ग को
उपलब्ध होगा,
तू सुख को
उपलब्ध होगा,
तू आनंद को
अनुभव कर सकता
है।
जीवन
का आशीर्वाद, जीवन की
प्रफुल्लता
स्वयं के भीतर
जो भी छिपा है,
उसके पूरी
तरह प्रकट हो
जाने में है।
जीवन का बड़े
से बड़ा दुख, जीवन का बड़े
से बड़ा नर्क
एक ही है कि
व्यक्ति वह न
हो पाए, जो
होने के लिए
पैदा हुआ है; व्यक्ति वह
न हो पाए, जो
हो सकता था और
अन्य मार्गों
पर भटक जाए।
स्वधर्म से
भटक जाने के
अतिरिक्त और
कोई नर्क
नहीं है। और
स्वधर्म को
उपलब्ध हो
जाने के अतिरिक्त
और कोई स्वर्ग
नहीं है।
कृष्ण
अर्जुन को कह
रहे हैं कि इस
दिखाई पड़ने
वाले लोक में
जिसे लोग सुख
कहते हैं, वह तो तुझे मिलेगा ही;
लेकिन न
दिखाई पड़ने
वाले लोक में...!
इसे भी
थोड़ा समझ लेना
जरूरी है कि
परलोक से हमने
जो अर्थ ले
रखा है, वह
सदा मृत्यु के
बाद जो लोक है,
उसका ले रखा
है। हमने जो
व्याख्या कर
रखी है अपने
मन में इस लोक
की और उस लोक
की, वह टेंपोरल
है, टाइम
में है। हमने
सोच रखा है कि
यह लोक खतम
होता है, जहां
हमारा जीवन
समाप्त होता
है, और
परलोक शुरू
होता है। ऐसा
नहीं है।
यह लोक
और परलोक साथ
ही मौजूद हैं।
टेंपोरल
नहीं है, समय
में उनका
विभाजन नहीं
है। बाहर जो
हमें मिलता है,
वह इहलोक है;
भीतर जो
हमें मिलता है,
वह परलोक
है। परलोक का
केवल मतलब
इतना ही है कि
इस लोक के जो
पार है, इस
लोक के जो बियांड
है--वह अभी भी
है, इस
वक्त भी है।
जिसको जीसस
ने किंगडम
आफ गॉड
कहा है, प्रभु
का राज्य कहा
है, उसे ही
इस देश ने
परलोक कहा है।
परलोक का संबंध
आपके जीवन के
समाप्त होने
से नहीं है; परलोक का
संबंध आपके
दृश्य से
अदृश्य में
प्रवेश से है।
वह आप अभी भी
कर सकते हैं, और वह आप
मृत्यु के बाद
भी चाहें तो
नहीं कर सकते
हैं। चाहें तो
मृत्यु के बाद
भी इहलोक में ही
घूमते
रहें--इसी लोक
में। और चाहें
तो जीते-जी
परलोक में
प्रवेश कर
जाएं।
वह
आंतरिक--जहां
समय और
क्षेत्र मिट
जाते हैं, जहां टाइम
और स्पेस खो
जाते हैं, जहां
दृश्य खो जाते
हैं और अदृश्य
शुरू होता है--वह
जो आंतरिकता
का, वह जो
भीतर का लोक
है, वहां
भी कृष्ण कहते
हैं, स्वर्ग।
लेकिन स्वर्ग
से आप किसी परियों
के देश की बात
मत समझ लेना।
स्वर्ग सिर्फ इनर हार्मनी
का नाम है, जहां
सब स्वर जीवन
के संगीतपूर्ण
हैं। और नर्क
सिर्फ इनर,
आंतरिक विसंगीत
का नाम है, जहां
सब स्वर
एक-दूसरे के
विरोध में खड़े
हैं।
सार्त्र
ने नर्क
की परिभाषा
में एक वचन
कहा है। उसने
कहा है कि मनुष्य
के मन में नर्क
उसी क्षण
उत्पन्न हो
जाता है, जिस
क्षण उसके चित्त
में दो बातें
खड़ी हो जाती
हैं। टु
बी, व्हाट वन इज़
नाट; एंड नाट टु
बी, व्हाट वन इज़--वह
होने की इच्छा,
जो कि मैं
नहीं हूं; और
वह नहीं होने
की इच्छा, जो
कि मैं हूं--इन
दोनों के बीच
में ही नर्क
उपस्थित हो
जाता है। सार्त्र
भी कृष्ण से
राजी होगा।
अर्जुन
ऐसे ही नर्क
में खड़ा हो
गया है। जो है, वह न होने की
इच्छा पैदा
हुई है उसे; जो नहीं है, वह होने की
इच्छा पैदा
हुई है। वह एक
ऐसे असंभव
तनाव में खड़ा
हो गया है, जिसमें
प्रवेश तो
बहुत आसान, लेकिन लौटना
बहुत मुश्किल
है।
जिंदगी
में किसी भी
चीज से लौटना
बहुत मुश्किल
है। जाना बहुत
आसान है, लौटना
सदा मुश्किल
है। और स्वयं
के धर्म से जाना
बहुत आसान है,
क्योंकि
स्वधर्म से
विपरीत जाना
सदा उतार है।
वहां हमें कुछ
भी नहीं करना
पड़ता, सिर्फ
हम अपने को
छोड़ दें, तो
हम उतर जाते
हैं। स्वधर्म
को पाना चढ़ाव
है। उतर जाना
बहुत आसान है,
चढ़ना बहुत कठिन
हो जाता है।
पश्चिम
का इस समय का
एक बहुत कीमती
मनोवैज्ञानिक
अभी-अभी गुजरा
है। उसका नाम
था अब्राहम
मैसलो। अब्राहम मैसलो के
पूरे जीवन की
खोज एक
छोटे-से शब्द
में समा जाती
है। और वह
शब्द है, पीक
एक्सपीरिएंस।
वह शब्द है, शिखर का
अनुभव। अब्राहम
मैसलो का
कहना है कि
व्यक्ति के
जीवन में
स्वर्ग का क्षण
वही है, जो
उसके
व्यक्तित्व
के शिखर का
क्षण है। जिस
क्षण कोई
व्यक्ति जो हो
सकता है, उसके
होने के शिखर
पर पहुंच जाता
है, जिसके
आगे कोई उपाय
नहीं बचता, जिसके आगे
कोई मार्ग
नहीं बचता, जिसके आगे
कोई ऊंचाई
नहीं बचती, जब भी कोई
व्यक्ति अपने
भीतर के पीक
को छू लेता है,
तभी समाधि,
एक्सटैसी अनुभव करता
है।
निश्चित
ही, जो पीक एक्सपीरिएंस
अर्जुन के लिए
होगा, वही
पीक एक्सपीरिएंस
बुद्ध के लिए
नहीं हो सकता।
जो पीक एक्सपीरिएंस,
शिखर की
अनुभूति
बुद्ध की है, वही अनुभूति
जीसस के
लिए नहीं हो
सकती।
लेकिन
एक बात ध्यान
रख लें, जब
हम कहते हैं
कि वही
अनुभूति नहीं
हो सकती, तो
हमारा
प्रयोजन
व्यक्ति से
है। अर्जुन और
मार्ग से उस
अनुभूति पर
पहुंचेगा; वह
क्षत्रिय है,
वह
क्षत्रिय के
मार्ग से
पहुंचेगा। हो
सकता है, जब
दो तलवारें
खिंच जाएंगी,
और जीवन और
मृत्यु
साथ-साथ खड़े
हो जाएंगे, श्वास ठहर
जाएगी और पलभर
के लिए सब रुक
जाएगा जगत, और पलभर
के लिए निर्णय
न रह जाएगा कि
जीवन में अब
एक पल और है--उस
तलवार की धार
पर, उस
चुनौती के
क्षण में
अर्जुन अपनी
पीक पर होगा, वह अपने
क्षत्रिय
होने के आखिरी
शिखर पर होगा।
जहां जीवन और
मृत्यु
विकल्प होंगे,
जहां क्षण
में सब तय
होता होगा--उस डिसीसिव मोमेंट
में वह अपने
पूरे शिखर पर
पहुंच जाएगा।
यह जो
शिखर की
अनुभूति है, बुद्ध को
किसी और मार्ग
से मिलेगी,
महावीर को
किसी और मार्ग
से मिलेगी,
मोहम्मद को किसी और
मार्ग से मिलेगी।
मार्ग भिन्न
होंगे, लेकिन
प्रत्येक
व्यक्ति जब
अपने शिखर पर
पहुंचता है, तो शिखर की
जो भीतरी
अनुभूति है, वह एक होगी।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन
को कह रहे हैं, एक अवसर
मिला है और
अवसर बार-बार
नहीं मिलते। खोए
अवसरों के लिए
कभी-कभी
जन्मों
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
मार्गन
से किसी ने एक
दिन पूछा--वह अमेरिका
का बड़ा करोड़पति
था, अरबपति था--उससे
पूछा कि आपको
जिंदगी में
इतनी सफलता कैसे
मिली? तो मार्गन ने
कहा, मैंने
कभी कोई अवसर
नहीं खोया। जब
भी अवसर आया, मैंने छलांग
लगाई और उसे पकड़ा।
अपने को खोने
को मैं राजी
रहा, लेकिन
अवसर को खोने
को राजी नहीं
रहा।
उस
आदमी ने पूछा, तो हम कैसे पहचानेंगे
कि अवसर आ गया!
और जब तक हम पहचानेंगे,
तब तक कहीं
ऐसा न हो कि
अवसर निकल
जाए! कहीं ऐसा न
हो कि हम पहचानें
और छलांग
लगाएं, तब
तक अवसर जा
चुका हो!
क्योंकि क्षण
तो, क्षण
नहीं रुकता।
आया नहीं कि
गया नहीं।
पहचानते-पहचानते
चला जाता है।
तो आप कैसे पहचानते
थे और छलांग
लगाते थे?
मार्गन
ने जो उत्तर
दिया, वह
बहुत हैरानी
का है। मार्गन
ने कहा कि मैं
कभी रुका ही
नहीं; मैं
छलांग लगाता
ही रहा। अवसर
आ गया तो
छलांग काम कर
गई, अवसर
नहीं आया तो
भी मैं छलांग
लगाता रहा। क्योंकि
इतना मौका
नहीं था कि
मैं
प्रतीक्षा करूं,
अवसर को पहचानूं,
फिर छलांग लगाऊं।
मैं छलांग
लगाता ही रहा।
अवसर का घोड़ा
नीचे आ गया, तो हम सवार
थे; लेकिन
हमारी छलांग
जारी थी, जब
घोड़ा नहीं था,
तब भी।
कृष्ण
के लिए जो बड़ी
से बड़ी चिंता
अर्जुन की तरफ
से दिखाई पड़ती
है, वह यही
दिखाई पड़ती है,
एक विराट
अवसर...।
अर्जुन को
महाभारत जैसा
अवसर न मिले, तो अर्जुन
का फूल खिल
नहीं सकता।
कोई छोटी-मोटी
लड़ाई में
नहीं खिल सकता
उसका फूल।
जहां जीत
सुनिश्चित हो,
वहां
अर्जुन का फूल
नहीं खिल
सकता। जहां
जीत पक्की हो,
वहां
अर्जुन का फूल
नहीं खिल
सकता। जहां
जीत निश्चिंत
हो, वहां
अर्जुन का फूल
नहीं खिल
सकता। जहां
जीत चिंता हो,
जहां जीत
अनिर्णीत हो,
जहां हार की
उतनी ही
संभावना हो, जितनी जीत
की है, तो
ही उस चुनौती
के दबाव में, उस चुनौती
की पीड़ा में, उस चुनौती
के प्रसव में
अर्जुन का फूल
खिल सकता है
और अर्जुन
अपने शिखर को
छू सकता है।
इसलिए
कृष्ण इतना
आग्रह कर रहे
हैं कि सब खो देगा!
स्वर्ग का
क्षण तुझे
उपलब्ध हुआ है, उसे तू खो
देगा--इस जगत
में भी, उस
जगत में भी।
उस जगत का
मतलब, मृत्यु
के बाद
नहीं--बाहर के
जगत में भी, भीतर के भी
जगत में।
और
ध्यान रहे, बाहर के जगत
में तभी
स्वर्ग मिलता
है, जब
भीतर के जगत
में स्वर्ग
मिलता है। यह
असंभव है कि
भीतर के जगत
में नर्क
हो और बाहर के
जगत में
स्वर्ग मिल
जाए। हां, यह
संभव है कि
बाहर के जगत
में नर्क
हो, तो भी
भीतर के जगत
में स्वर्ग
मिल जाए। और
यह बड़े मजे की
बात है कि अगर
भीतर के जगत
में स्वर्ग
मिल जाए, तो
बाहर का नर्क
भी नर्क
नहीं मालूम
पड़ता है। और
बाहर के जगत
में स्वर्ग
मिल जाए और
भीतर के जगत
में नर्क
हो, तो
बाहर का
स्वर्ग भी
स्वर्ग नहीं
मालूम पड़ता है।
हम
जीते हैं भीतर
से, हमारे जीने के
सारे गहरे
आधार भीतर
हैं। इसलिए जो
भीतर है, वही
बाहर फैल जाता
है। भीतर सदा
ही बाहर को जीत
लेता है, ओवरपावर कर लेता है।
इसलिए जब आपको
बाहर नर्क
दिखाई पड़े, तो बहुत खोज
करना। पाएंगे
कि भीतर नर्क
है, बाहर
सिर्फ रिफ्लेक्शन
है, बाहर
सिर्फ प्रतिफलन
है। और जब
बाहर स्वर्ग
दिखाई पड़े, तब भी भीतर
देखना। तो
पाएंगे, भीतर
स्वर्ग है, बाहर सिर्फ प्रतिफलन
है।
इसलिए
जो बुद्धिमान
हैं, वे बाहर
के नर्क
को स्वर्ग
बनाने में
जीवन नष्ट
नहीं कर देते।
वे भीतर के नर्क
को स्वर्ग
बनाने का श्रम
करते हैं। और
एक बार भीतर
का नर्क
स्वर्ग बन जाए,
तो बाहर कोई
नर्क
होता ही नहीं।
मैंने
सुना है कि बक, इंग्लैंड का एक बहुत
बड़ा विचारक
था। वह ऐसे
नास्तिक था, लेकिन चर्च
जाता था।
मित्रों ने कई
बार उससे कहा
भी कि तुम चर्च
किसलिए जाते
हो? क्योंकि
तुम नास्तिक
हो!
ठीक
ऐसी ही बात
कभी डेविड
ह्यूम से
भी किसी ने पूछी
थी। डेविड
ह्यूम भी
एक नास्तिक था, बड़े से बड़ा
इस जगत में जो
हुआ, कीमती
से कीमती। वह
भी लेकिन
रविवार को चर्च
जरूर जाता था।
तो ह्यूम
ने जो उत्तर
दिया, वही
बक ने भी
उत्तर दिया
था।
बक ने
कहा कि चर्च
में जो कहा
जाता है, उसमें
मेरा कोई
विश्वास
नहीं। लेकिन
वह जो आदमी
कहता है, उसकी
आंखों में मैं
झांकता
हूं, तो
मुझे लगता है
कि वह आदमी
किसी भीतरी
विश्वास से कह
रहा है। और
सप्ताह में एक
दिन ऐसे आदमी की
आंख में झांक
लेना उचित है,
जिसे भीतरी
कोई स्वर्ग का
अनुभव हो रहा
है। वह जो
कहता है, उसमें
मुझे कोई
भरोसा नहीं है
कि वह आदमी जो
कह रहा है, वह
ठीक हो सकता
है। उसके
सिद्धांतों
को मैं तर्कयुक्त
नहीं मानता।
लेकिन फिर भी
सप्ताह में
मैं एक ऐसे
आदमी की आंख
में झांक लेना
चाहता हूं, जो भीतर
आश्वस्त है।
उसकी सुगंध!
यह बक
ने एक दिन, चर्च में जो फकीर
बोलता था, उससे
पूछा कि मैं तुमसे
पूछना चाहता
हूं। उस दिन
उसने बाइबिल
के एक वचन की
व्याख्या
करते हुए कहा
कि भले लोग, जो परमात्मा
में विश्वास
करते हैं, वे
स्वर्ग को
उपलब्ध होते
हैं। बक ने
उससे पूछा कि
आप कहते हैं, भले लोग, जो
परमात्मा में
विश्वास करते
हैं, वे
स्वर्ग को
उपलब्ध होते
हैं। तो मैं
पूछना चाहता
हूं कि बुरे
लोग, जो
परमात्मा में
विश्वास करते
हैं, वे
स्वर्ग को
उपलब्ध होते
हैं या नहीं? और यह भी
पूछना चाहता
हूं कि भले
लोग, जो
परमात्मा में
विश्वास नहीं
करते हैं, वे
स्वर्ग को
उपलब्ध होते
हैं या नहीं?
वह
फकीर साधारण
फकीर नहीं था, ईमानदार
आदमी था। उसने
कहा, उत्तर
देना मुश्किल
है, जब तक
कि मैं
परमात्मा से न
पूछ लूं।
क्योंकि इसका
मुझे कुछ भी
पता नहीं। रुको,
सात दिन मैं
प्रार्थना
करूं, फिर
उत्तर दे सकता
हूं। क्योंकि
तुमने मुझे मुश्किल
में डाल दिया।
अगर मैं यह
कहूं कि भले लोग,
जो
परमात्मा में
विश्वास नहीं
करते, नर्क जाते हैं, तो भलाई बेमानी
हो जाती है, मीनिंगलेस हो जाती है।
और अगर मैं यह
कहूं कि भले
लोग, जो
परमात्मा में
विश्वास नहीं
करते हैं, वे
भी स्वर्ग को
उपलब्ध हो
जाते हैं, तो
परमात्मा बेमानी
हो जाता है।
उसमें
विश्वास का
कोई अर्थ नहीं
रहता। तो रुको।
लेकिन
वह फकीर सात
दिन सो नहीं
सका। सब तरह
की प्रार्थनाएं
कीं, लेकिन
कोई उत्तर न
मिला।
सातवां
दिन आ गया।
सुबह ही आठ
बजे बक मौजूद
हो जाएगा और पूछेगा कि बोलो! तो वह
पांच बजे ही चर्च में
चला गया, हाथ
जोड़कर बैठकर
प्रार्थना
करता रहा।
प्रार्थना
करते-करते उसे
नींद लग गई।
उसने एक
स्वप्न देखा।
वही जो सात
दिन से उसके
प्राणों में
चल रहा था, वही
स्वप्न बन
गया।
उसने
स्वप्न देखा
कि वह ट्रेन
में बैठा हुआ
है, तेजी से
ट्रेन जा रही
है। उसने
लोगों से पूछा,
यह ट्रेन
कहां जा रही
है? उन्होंने
कहा, यह
स्वर्ग जा रही
है। उसने कहा,
अच्छा हुआ;
मैं देख ही लूं। सुकरात
कहां है? आदमी
अच्छा था, लेकिन
ईश्वर में
भरोसा नहीं
था। वे सारे
लोग कहां हैं?
बुद्ध कहां
हैं? आदमी
अच्छे से
अच्छा था, लेकिन
ईश्वर की कभी
बात नहीं की।
महावीर कहां हैं?
आदमी अच्छे
से अच्छा था, लेकिन
परमात्मा की
जब भी किसी ने
बात की, तो
कह दिया कि
नहीं है। ये
कहां हैं?
स्वर्ग
पहुंच गई
ट्रेन। बड़ी
निराशा हुई
लेकिन स्वर्ग
को देखकर। ऐसी
आशा न थी। सब
उजड़ा-उजड़ा
मालूम पड़ता
था। सब
रूखा-रूखा
मालूम पड़ता
था। रौनक न
थी। पूछा, यही स्वर्ग
है न? लोगों
ने कहा, यही
स्वर्ग है।
पूछा कि
महावीर कहां?
बुद्ध कहां?
सुकरात कहां? बहुत
खोज-बीन की, पता चला कि
नहीं हैं।
बहुत घबड़ाया
फकीर। स्टेशन
भागा हुआ आया
और कहा कि नर्क
की गाड़ी?
नर्क
की गाड़ी में
बैठा और नर्क
पहुंचा।
लेकिन बड़ी
मुश्किल में
पड़ा। देखा कि बड़ी
रौनक है। जैसी
स्वर्ग में
होने की आशा
थी, ऐसी रौनक
है। जैसी नर्क
में उदासी
होनी चाहिए थी,
वैसी
स्वर्ग में
थी। बड़ी चिंता
हुई उसे कि
कुछ भूल-चूक
तो नहीं हो
रही है!
स्टेशन पर
उतरा, तो
बड़ी ही रौनक
है; रास्तों
से निकला, तो
बड़ा काम चल
रहा है, बड़ा
आनंद है; कहीं
गीत है, कहीं
कुछ है, कहीं
कुछ है।
उसने
पूछा कि सुकरात, महावीर, बुद्ध
यहां हैं? उन्होंने
कहा, यहां
हैं। उसने कहा,
लेकिन यह नर्क है! सुकरात नर्क में? तो जिस आदमी
से उसने पूछा
था, उसने
कहा कि चलो,
मैं
तुम्हें सुकरात
से मिला देता
हूं। एक खेत
में सुकरात
गङ्ढा
खोद रहा था।
उसने सुकरात
से पूछा कि
तुम सुकरात
और यहां नर्क
में? अच्छे
आदमी और नर्क
में? तो सुकरात
हंसने
लगा और उसने
कहा, तुम
अभी भी गलत व्याख्याएं
किए जा रहे
हो। तुम कहते
हो कि अच्छा
आदमी स्वर्ग
में जाता है।
हम कहते हैं, अच्छा आदमी
जहां जाता है,
वहां
स्वर्ग आता
है। तुम गलत
ही
बात--व्याख्या--अभी
तक तुम अपनी बाइबिल से
गलत व्याख्या
किए जा रहे
हो। हम कहते
हैं, अच्छा
आदमी जहां
जाता है, वहां
स्वर्ग आता है;
बुरा आदमी
जहां जाता है,
वहां नर्क
आता है।
अच्छे
आदमी स्वर्ग
में नहीं
जाते। स्वर्ग
कोई रेडीमेड
जगह नहीं है
कि वहां कोई
चला गया।
स्वर्ग अच्छे
आदमी का
निर्माण है।
वह उसके भीतर
जब अच्छा
निर्मित हो
जाता है, तो
बाहर अच्छा
फैल जाता है।
वह अच्छे आदमी
की छाया है; वह अच्छे
आदमी की सुगंध
है; वह
अच्छे आदमी के
प्राणों की
वीणा से उठा
संगीत है। नर्क
कोई स्थान
नहीं है; वह
बुरे आदमी के
जीवन से उठे विसंगीत
का फैल जाना
है; वह
बुरे आदमी के
भीतर से उठी दुर्गंधों
का छा
जाना है; वह
बुरे आदमी के
भीतर जो
विक्षिप्तता
है, उसका
बाहर तक उतर
आना है।
कृष्ण
जब अर्जुन से
कहते हैं कि
स्वर्ग का क्षण
है, उसे तू खो
रहा है। तो एक
ही बात ध्यान
में रखनी है
कि तेरे
आंतरिक
व्यक्तित्व
के लिए जो
शिखर अनुभव हो
सकता है, उसका
क्षण है, और
तू उसे खो रहा
है।
प्रश्न:
भगवान श्री, आपने बताया
कि साधन में, मार्ग में
भिन्न रहने पर
भी बुद्ध, महावीर,
रमण की
भीतरी
अनुभूति में
भेद नहीं होता
है। किंतु
अभिव्यक्ति
देखते हैं, तो एक-दूसरे
से भिन्न और
कभी-कभी
विरुद्ध दिशा
की मालूम होती
है। जैसे कि
शंकर का बुद्ध
से विरोध है।
यह कैसे?
अनुभूति
में तो कभी
भेद नहीं होता, लेकिन
अभिव्यक्ति
में बहुत भेद
होता है। और जो
लोग
अभिव्यक्ति
को देखकर ही
सोचते हैं, उन्हें
विरोध भी
दिखाई पड़ सकता
है। साधारण नहीं,
असाधारण
दुश्मनी और
शत्रुता
दिखाई पड़ सकती
है। क्योंकि
अभिव्यक्ति
अनुभूति से
नहीं आती, अभिव्यक्ति
व्यक्ति से
आती है। इस
फर्क को समझ
लेना जरूरी
है।
मैं एक
बगीचे
में जाऊं। फूल
खिले हैं; पक्षी गीत गा रहे हैं;
एक रुपया
पड़ा है। अगर
मैं रुपए का
मोही हूं, तो
मुझे फूल
दिखाई नहीं पड़ेंगे।
मुझे पक्षियों
के गीत सुनाई पड़ते हुए
भी सुनाई नहीं
पड़ेंगे।
सब खो जाएगा, रुपया ही
दिखाई पड़ेगा,
इम्फेटिकली मुझे रुपया
ही दिखाई पड़ेगा।
रुपया मेरी
जेब में आ जाए,
तो शायद
पक्षी का गीत
भी सुनाई पड़े।
लेकिन
एक कवि प्रवेश
कर गया है।
उसे रुपया दिखाई
ही नहीं पड़ेगा।
जहां पक्षी
गीत गा
रहे हैं, वहां
रुपया दिखाई
पड़ जाए, तो
वह आदमी कवि
नहीं है। उसका
सारा
व्यक्तित्व
पक्षी के
गीतों की तरफ
बह जाएगा।
चित्रकार है,
उसका सारा
व्यक्तित्व
रंगों के लिए
बह जाएगा।
फिर वे
एक ही बगीचे
से होकर लौटें
और गांव में
आकर अगर हम
उनसे पूछें
कि क्या देखा? तो बगीचा एक
था, जहां
वे गए थे, लेकिन
अभिव्यक्ति
भिन्न होगी।
अभिव्यक्ति में
चुनाव होगा।
जो जिसने देखा
होगा या जो
जिसको पकड़ा
होगा या जो
जिसको प्रकट
कर सकता होगा,
वह वैसे ही
प्रकट करेगा।
मीरा
भी उस जगत में
गई है उस
अनुभूति के, लेकिन लौटकर
नाचने लगी।
महावीर की
नाचने की
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
सोच भी नहीं
सकते, कि
महावीर और नाचें।
उनके
व्यक्तित्व
में नाचने की
कोई जगह ही नहीं
है। महावीर भी
उस जगत से
लौटे हैं, पर
वे नाचते
नहीं। उस जगत
की जो खबर वे
लाए हैं, वह
खबर अपने ही
ढंग से प्रकट
करेंगे। उनकी
खबर उनकी
अहिंसा से
प्रकट होनी
शुरू होती है।
उनके शील से, उनके चरित्र
से, उनके
उठने-बैठने
से--छोटी-छोटी
चीज से प्रकट
होती है कि वे
अद्वैत को जानकर
लौटे हैं।
रात
महावीर एक ही
करवट सोते हैं, करवट नहीं
बदलते। कोई
पूछता है
महावीर से कि
आप रातभर
एक ही करवट
क्यों सोते
हैं? तो वे
कहते हैं कि
कहीं करवट बदलूं
और कोई कीड़ा-मकोड़ा दबकर
दुख पाए।
इसलिए एक ही
करवट, दि लीस्ट
जो पासिबल
है, बिलकुल
कम से कम जो
संभव है, वह
यह। एक करवट
तो सोना ही पड़ेगा,
तो एक करवट
ही सोए रहते
हैं। रातभर
पैर भी नहीं
हिलाते कि रात
के अंधेरे में
कोई दब जाए, कोई दुख
पाए।
अब इस
व्यक्ति की
अद्वैत की जो
अनुभूति है, वह अहिंसा
से प्रकट हो
रही है। यह
यही कह रहा है
कि एक ही है।
क्योंकि जब तक
कीड़ा-मकोड़ा
मैं ही नहीं
हूं, तब तक
उसके लिए इतनी
चिंता पैदा
नहीं होती। लेकिन
यह महावीर का
अपना ढंग है, यह उनके
व्यक्तित्व
से आ रहा है।
मीरा
नाच रही है। उसने
जो जाना है, वह उसके
भीतर नाच की
तरह
अभिव्यक्त हो
रहा है। वह
नाच ही सकती
है। वह जो
खुशी, वह
जो आनंद उसके
भीतर भर गया
है, अब कोई
शब्द उसे
प्रकट नहीं कर
सकते। वह तो
उसके घुंघरुओं
से प्रकट
होगा। वह उसी
अद्वैत को, पद-घुंघरू-बांध
खबर लाएगी।
अब अगर
हम महावीर और मीरा को
आमने-सामने
करें, तो हम कहेंगे, इनकी अनुभूतियां
अलग होनी
चाहिए। कहां
बजता हुआ घूंघर,
कहां रात भी
करवट न लेता
हुआ आदमी!
कहां नाचती हुई
मीरा के न
मालूम कितने
पैर पृथ्वी पर
पड़े और कहां महावीर
कि एक-एक पैर
को सम्हालकर
रखते हैं, फूंककर
रखते हैं।
वर्षा आ जाती
है तो चलते
नहीं, जमीन
गीली हो
तो पैर नहीं
उठाते, कि
कहीं कोई कीड़ा
न दब जाए। और
कहां नाचते
हुए पैर मीरा
के! बड़ा
विपरीत है।
महावीर कहेंगे,
बहुत हिंसा
हुई जा रही
है। मीरा कहेगी, नाच
ही नहीं रहे, तो कहां
जाना उसको!
क्योंकि उसे जानकर जो
नहीं नाचा,
तो जाना ही
कहां!
फिर
शंकर जैसा
व्यक्ति है, वह भी जानकर
आता है वहां
से। तो वह
कहता है कि एक
ब्रह्म ही सत्य
है, बाकी
सब माया है।
बुद्ध जैसा
व्यक्ति है, जो कहता है, कोई ब्रह्म-व्रह्म
नहीं है; कुछ
नहीं है, शून्य
है सब। बड़ी
उलटी बातें
कहते हैं, तो
विवाद दिखाई
पड़ता है, बड़ा
विरोध दिखाई
पड़ता है।
शंकर
और बुद्ध से
ज्यादा
विरोधी आदमी
खोजना मुश्किल
है। क्योंकि
एक कहता है, पाजिटिव है सब, विधायक
है सब; और
एक कहता है, निगेटिव है सब, नकारात्मक
है सब। लेकिन
वह भी
व्यक्तित्व
की एंफेसिस
है, वह भी
व्यक्तित्व
का ही प्रभाव
है। जो जानकर
वे लौटे हैं, वह
करीब-करीब ऐसा
है जैसे कि
कोई गिलास आधा
भरा रखा हो और
दो आदमी उसे
देखकर आए हों।
और एक आदमी
आकर कहे कि
गिलास आधा
खाली है, और
एक आदमी कहे
कि झूठ, गिलास
आधा भरा है।
एक खाली पर
जोर दे और एक
भरे पर जोर
दे। और विवाद
निश्चित हो
जाने वाला है,
क्योंकि
भरा और खाली
बड़े विपरीत
शब्द हैं।
बिलकुल हो
जाने वाला है।
बर्नार्ड शा के
संबंध में
मैंने सुना है
कि वह अमेरिका
गया बहुत-बहुत
निमंत्रणों
के बाद। तब वह
कहता रहा कि अमेरिका
बड़ा नासमझ, ईडियाटिक मुल्क है; मैं जाता ही
नहीं, ऐसे मूढ़ों के
बीच जाकर मैं
क्या करूंगा।
इधर वह गाली
देता रहा, उधर
अमेरिका
में आकर्षण
बढ़ता गया। जो
गाली देता है,
उसके प्रति
आकर्षण तो बढ़
ही जाता है।
बहुत निमंत्रण
थे, तो बर्नार्ड
शा गया।
जिस जगह उसे
उतारा गया, वहां इतना
भीड़-भड़क्का
हो गया और
इतना खतरा था
कि कोई झगड़ा
न हो जाए, तो
उसे चोरी से पहले
ही दूसरी जगह उतारकर ले
जाया गया।
और
पहली ही सभा
में वह बोला, तो उसने
उपद्रव शुरू
किया। वह पहली
ही सभा में बोला,
तो उसने कहा
कि जहां तक
मैं देख पा
रहा हूं, यहां
मौजूद कम से
कम पचास
प्रतिशत आदमी
बिलकुल महामूर्ख
हैं--सभा में
उसने
कहा--यहां मैं
देख रहा हूं, तो कम से कम फिफ्टी परसेंट
आदमी बिलकुल महामूढ़
हैं। जो
अध्यक्ष था, वह घबड़ा गया
और लोग चिल्लाने
लगे कि शर्म!
शर्म! वापस लो
अपने शब्द!
अध्यक्ष ने
कहा कि आप
शुरू से ही
उपद्रव की बात
कह दिए। किसी
तरह लोगों को समझाइए!
तो बर्नार्ड
शा ने कहा
कि नहीं! नहीं!
मैं क्या कहना
चाह रहा था और
मुझसे बड़ी
गलती हो गई। मैं
कह रहा था कि
जहां तक दिखाई
पड़ता है, यहां
उपस्थित पचास
प्रतिशत लोग
बहुत बुद्धिमान
मालूम पड़ते
हैं। और लोगों
ने तालियां
बजाईं कि
यह बात ठीक
कही गई है। और बर्नार्ड शा ने
झुककर
अध्यक्ष से
कहा कि कन्फर्म
हो गया कि
पचास परसेंट
यहां बिलकुल
गधे हैं।
लेकिन
इन दो वक्तव्यों
में बड़ा फर्क
मालूम पड़ता
है। बात वही
है। शंकर और
बुद्ध के बीच
भी ऐसा ही
मामला है।
बुद्ध
को नकारात्मक
शब्द प्रिय
है। उसके कारण
हैं उनके
व्यक्तित्व
में, साइकोलाजिकल कारण हैं।
बुद्ध आ रहे
हैं समृद्ध घर
से, जहां
सब पाजिटिव
था। महल था, राज्य था, धन था, स्त्रियां
थीं--सब था।
इतना ज्यादा
था सब कि बुद्ध
के लिए पाजिटिव
शब्द में कोई
रस नहीं रह
गया। इतना सब
भरा था कि अब
बुद्ध के लिए
रस खाली होने
में है।
शंकर
एक गरीब
ब्राह्मण के
लड़के हैं, जहां कुछ भी
नहीं है। एक
भिखारी घर से
आ रहे हैं, जहां
कुछ भी नहीं
था। जहां
झोपड़ा था, जिसमें
कुछ भी नहीं
था। शंकर का
रस नहीं में नहीं
हो सकता, नहीं
तो बहुत देखी।
शंकर का रस है
में है, पाजिटिव में है।
तो
शंकर के लिए
ब्रह्म जब
प्रकट होगा, तो वह
होगा--सब है।
और बुद्ध के
लिए जब ब्रह्म
प्रकट होगा, तो ऐसा
होगा--सब खाली
है। यह साइकोलाजिकल
टाइप का
फर्क है।
इसमें
अनुभूति का
जरा भी फर्क
नहीं है।
शंकर
और बुद्ध तो
बहुत दूर हैं।
बुद्ध के वक्त
ही महावीर
हैं। एक ही
साथ, एक ही इलाके
में हैं। और
कभी-कभी तो
ऐसा हुआ कि एक
ही गांव में
दोनों थे। तो
बिलकुल कंटेंप्रेरी
हैं। टाइप
में भी बहुत
फर्क नहीं
होना चाहिए, क्योंकि
महावीर भी
शाही घर से
आते हैं, बुद्ध
भी शाही घर से
आते हैं।
दोनों साथ-साथ
हैं। एक बार
तो ऐसा हुआ कि
एक गांव में
आधी धर्मशाला
में महावीर ठहरे थे, आधी में
बुद्ध ठहरे
थे। फिर भी
बातचीत नहीं
हो सकी; फिर
भी मिलना नहीं
हुआ।
और
बातें बड़ी
विपरीत हैं।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, आत्मा को
जान लेना ही
ज्ञान है। और
बुद्ध कहते
हैं, जो
आत्मा को
मानता है, उससे
बड़ा अज्ञानी
नहीं है। अब
और क्या विरोध
हो सकता है!
तलवारें सीधी खिंची
हैं। महावीर
कहते हैं, आत्मा
को जान लेना
ही ज्ञान है।
और बुद्ध कहते
हैं, आत्मा?
आत्मा को
मानने वाले से
बड़ा कोई
अज्ञानी नहीं है।
और फिर
भी मैं आपसे
कहता हूं कि
दोनों एक ही
बात कहते हैं।
फिर भी मैं
आपसे कहता हूं
कि वक्तव्य
विरोधी हैं, अनुभूति
विरोधी जरा भी
नहीं है। फिर
क्यों ऐसे
वक्तव्य हैं?
शब्दों
के अर्थ उस
परम अनुभूति
में बहुत निजी
और प्राइवेट
हो जाते हैं।
एक तो हमारी कामन
मार्केट की, बाजार की
भाषा है, जहां
सब शब्द कामन
हैं। अगर हम
कहते हैं मकान,
तो वही मतलब
होता है, जो
आपका है। वैसे
गहरे में फर्क
होता है। लेकिन
ऊपर से काम
चलने लायक
बराबर होता
है। जब मैं
कहता हूं मकान,
तो मुझे
मेरा मकान
खयाल में होता
है और आपको अपना
मकान खयाल में
होता है। अगर
हम दोनों मकान
की तस्वीर खींचें,
तो फर्क पड़
जाएगा।
जब मैं
कहता हूं
कुत्ता, तो
मेरा अपना
अनुभव है
कुत्तों का, वही होता है
उस शब्द में।
आपका अपना
अनुभव है, वही
होता है। हो
सकता है, कुत्तों
से मैंने जो
जाना हो, वह
प्रीतिपूर्ण
हो; और
आपने सिवाय
कुत्तों से
बचपन से डर के
अलावा कुछ भी
न जाना हो। जब
भी गली से
निकले हों, तभी कुत्ता भौंका हो।
तो जब कुत्ता
शब्द हम बोलते
हैं, तो
शब्द बिलकुल
सामान्य होता
है; लेकिन
अगर भीतर हम
खोजने जाएं, तो आपका
कुत्ता और
होगा, मेरा
कुत्ता और
होगा। लेकिन
कामचलाऊ
दुनिया है
शब्दों की, वहां चल
जाता है। वहां
चल जाता है।
जैसे-जैसे
गहरी अनुभूति
में उतरते
हैं--जो कि बाजार
में नहीं है, जो कि एकांत
में है--वहां
मुश्किल बढ़नी
शुरू हो जाती
है। जब महावीर
कहते हैं
आत्मा, तो
उनका अपना
निजी अर्थ है।
यह बिलकुल प्राइवेट
लैंग्वेज
है। महावीर का
मतलब होता है
आत्मा से, जहां
अहंकार नहीं
है। अहंकार को
छोड़कर जो
भीतर शेष रह
जाता है, वही
आत्मा है। और
तब वे कहते
हैं कि आत्मा
को जान लेना
ज्ञान है। और
आत्मा को जान
लेने का मार्ग
अहंकार का
विसर्जन है।
अगर हम अहंकार
को शून्य कर
दें स्वयं से,
तो जो बचता
है, महावीर
के लिए आत्मा
है।
बुद्ध
आत्मा से
अहंकार का ही
मतलब लेते
हैं। वे कहते
हैं, जहां तक
मैं का स्वर
है, और
आत्मा का मतलब
है मैं, वहां
तक अहंकार है।
तो बुद्ध
जहां-जहां
आत्मा कहते
हैं, वहां-वहां
उनका मतलब
होता है
अहंकार।
बुद्ध
ने जिस शब्द
का उपयोग किया
है आत्मा के लिए, वह है अत्ता।
अत्ता
बहुत बढ़िया
शब्द है।
आत्मा में भी
वह बात नहीं
है, जो अत्ता
में है पाली
के। अत्ता
का मतलब ही
होता है, दि एनफोर्स्ड
ईगो। अत्ता
शब्द के स्वर
में और दबाव
में भी वह बात
है--मैं।
बुद्ध
कहते हैं, जहां-जहां अत्ता है, जहां-जहां
मैं है, वहां-वहां
अज्ञान है। और
जो आदमी अत्ता
को मानता है, आत्मा को
मानता है, वह
अज्ञानी है।
लेकिन बुद्ध
भी कहते हैं
कि जो अत्ता
को छोड़ देता
है, तब जो
शेष रह जाता
है, वही ज्ञान
है।
इसीलिए
बुद्ध को लोग
कहते हैं अनात्मवादी, और महावीर
को कहते हैं आत्मवादी।
और वे दोनों
एक ही बात कह
रहे हैं, वहां
वाद का कोई
उपाय नहीं है।
वाद शब्दों तक
है। वाद
अभिव्यक्ति
तक है। वाद एक्सप्रेशन
है, एक्सपीरिएंस नहीं।
लेकिन
बड़ी कठिनाई
है। बड़ी
कठिनाई है, हमारे पास
तो शब्द आते
हैं। और शब्द
भी पंडितों के
द्वारा आते
हैं। शब्द भी शास्त्रीयता
के मार्ग से गुजरकर
आते हैं। शब्द
ही रह जाते
हैं। और अक्सर
ऐसा नहीं हो
पाता कि हम
अनुभूति से
खोजने जाएं कि
महावीर कहते
हैं कि अहंकार
छोड़ दो, तो
जो बचता है, आत्मा है--हम अहंकार
छोड़कर
देखें। बुद्ध
कहते हैं कि
आत्मा के भाव
को ही छोड़ दो, तब जो शेष रह
जाता है, वही
समाधि है--वह
भी करके
देखें। तब
आपको पता चलेगा,
बड़ा पागलपन
हुआ। ये तो
दोनों एक ही
जगह पहुंचा
देते हैं!
लेकिन इतनी
किसी को
सुविधा नहीं
है।
हम
शब्दकोश से
सुनते हैं, दर्शनशास्त्र
में पढ़ते हैं।
बौद्ध पंडित
हैं, जैन
पंडित हैं, हिंदू पंडित
हैं, उनके
पास शब्दों के
सिवाय कुछ भी
नहीं है। वे उन
शब्दों की व्याख्याएं
करते चले जाते
हैं। फिर
प्रत्येक
निजी शब्द के
पास--निजी कह
रहा हूं, क्योंकि
इतना एकांत
अनुभव है
महावीर और
बुद्ध और शंकर
का कि मामला प्राइवेट
ही है, वह
बहुत पब्लिक
नहीं है--उस
निजी शब्द के
आस-पास फिर व्याख्याओं
का जाल बुनता
चला जाता है।
फिर जाल इतना
बड़ा हो जाता
है कि महावीर
के आस-पास जो
जाल खड़ा हुआ वह,
बुद्ध के
आस-पास जो जाल
खड़ा हुआ वह, शंकर के
आस-पास जो जाल
खड़ा हुआ वह, वे इतने
दुश्मन हो
जाते हैं हजार
दो हजार साल की
यात्रा में कि
वह जो बीच में
मूल शब्द था
और शब्द के भी
मूल में जो
अनुभूति थी, वह कहीं की
कहीं खो जाती
है, उसका
फिर कोई भी
पता नहीं
रहता।
इसलिए
अड़चन है।
अन्यथा
अनुभूति कभी
भी भिन्न नहीं
है।
अभिव्यक्ति
भिन्न हो सकती
है, होती है,
एक होने की
संभावना भी
नहीं है। जिस
दिन मनुष्य यह
जान पाएगा, उस दिन
धर्मों के बीच
विवाद नहीं
है। और जितना
जल्दी जान ले,
उतना शुभ
है। क्योंकि
धर्मों के बीच
सारा विवाद
भाषा का विवाद
है, सत्य
का विवाद नहीं
है। और जो लोग
भाषा के लिए विवाद
कर रहे हैं, कम से कम
धार्मिक तो
नहीं हैं, शब्द-शास्त्री
होंगे, लिंग्विस्ट्स होंगे। मगर
वे
शब्द-शास्त्री
अपने को
धार्मिक समझ
लेते हैं, तब
बड़ी कठिनाई हो
जाती है।
सुखदुःखे समे कृत्वा
लाभालाभौ
जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
३८।।
यदि
तुझे स्वर्ग
तथा राज्य की
इच्छा न हो, तो भी
सुख-दुख, लाभ-हानि
और जय-पराजय
को समान समझकर,
उसके
उपरांत युद्ध
के लिए तैयार
हो। इस प्रकार
युद्ध को करने
से तू पाप को
नहीं प्राप्त
होगा।
सुख और
दुख को समान
समझकर, लाभ
और हानि को
समान समझकर, जय और पराजय
को समान समझकर,
युद्ध में
प्रवृत्त
होने पर पाप
नहीं लगेगा।
कृष्ण का यह
वक्तव्य बहुत केटेगोरिकल
है, बहुत
निर्णायक है।
पाप और पुण्य
को थोड़ा समझना
पड़े।
साधारणतः
हम समझते हैं
कि पाप एक
कृत्य है और पुण्य
भी एक कृत्य
है। लेकिन
यहां कृष्ण कह
रहे हैं कि
पाप और पुण्य
कृत्य नहीं
हैं, भाव हैं।
अगर पाप और
पुण्य कृत्य
हैं, एक्ट हैं, तो
इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि मैं
लाभ-हानि को बराबर
समझूं या
न समझूं? अगर मैं
आपकी हत्या कर
दूं, लाभ-हानि
बराबर समझूं
या न समझूं,
आपकी हत्या
के कृत्य में
कौन-सा फर्क
पड़ जाएगा? अगर
मैं एक घर में
चोरी करूं
लाभ-हानि को
बराबर समझकर,
तो यह पाप
नहीं होगा; और लाभ-हानि
को बराबर न समझूं,
तो यह पाप
होगा? तब
इसका मतलब यह
हुआ कि पाप और
पुण्य का
कृत्य से, एक्ट से
कोई संबंध
नहीं है, बल्कि
व्यक्ति के
भाव से संबंध
है। यह तो
बहुत विचारने
की बात है।
हम सब
तो पाप और पुण्य
को कृत्य से बांधकर
चलते हैं। हम
कहते हैं, बहुत बुरा
काम किया। हम
कहते हैं, बहुत
अच्छा काम
किया। कृष्ण
तो इस पूरी की
पूरी
व्यवस्था को तोड़े
डालते हैं। वे
कहते हैं, काम
अच्छे और बुरे
होते ही नहीं,
करने वाला
अच्छा और बुरा
होता है। नाट दि एक्ट,
बट दि एक्टर, कृत्य
नहीं कर्ता!
जो होता है वह
नहीं, जिससे
होता है वह!
लेकिन
मनुष्य की
सारी नीति
कृत्य पर
निर्भर है।
कहती है, यह
काम बुरा है
और यह काम
अच्छा है।
अच्छे काम करो
और बुरे काम
मत करो।
कौन-सा काम
बुरा है? कौन-सा
काम अच्छा है?
क्योंकि
कोई भी काम एटामिक
नहीं है, आणविक
नहीं है; काम
एक शृंखला है।
समझें
उदाहरण से।
आप
रास्ते से
गुजर रहे हैं, एक आदमी
आत्महत्या कर
रहा है। आप
उसे बचाएं
या न बचाएं?
स्वभावतः, आप कहेंगे
कि आत्महत्या
करने वाले को
बचाना चाहिए,
कृत्य
अच्छा है।
लेकिन आप उसे
बचा लेते हैं
और कल वह
पंद्रह
आदमियों की
हत्या कर देता
है। आप नहीं
बचाते, तो
पंद्रह आदमी
बचते थे। आपने
बचाया, तो
पंद्रह आदमी
मरे। कृत्य
आपका अच्छा था
या बुरा?
कृत्य
एक सीरीज
है अंतहीन। आप
समाप्त हो
जाएंगे, आपका
कृत्य समाप्त
नहीं होगा, वह चलता
रहेगा। आप मर
जाएंगे, और
आपने जो किया
था, वह
चलता रहेगा।
आपने
एक बेटा पैदा
किया। यह बेटा
पैदा करना अच्छा
है या बुरा? यह बेटा कल हिटलर बन
सकता है। यह
एक करोड़
आदमियों को
मार डाल सकता
है। लेकिन यह
बेटा कल हिटलर
बनकर एक
करोड़ आदमियों
को मार डाले, तो भी कृत्य
अच्छा है या
बुरा? क्योंकि
वे एक करोड़
आदमी क्या
करते अगर बचते,
इस पर सब
निर्भर होगा।
लेकिन यह
शृंखला तो अनंत
होगी।
कृत्य इंडिविजुअल
नहीं है।
कृत्य के पास
कोई आणविक
इंतजाम नहीं
है; वह तो बड़ी
शृंखला की एक कड़ी है। बस,
एक कड़ी
है और आगे
शृंखला
अंतहीन है। आप
चले जाएंगे और
कृत्य जारी
रहेगा। जैसे
कि हमने पत्थर
फेंका एक झील
में, पत्थर
डूब गया।
लेकिन पत्थर
का झील से जो
संघात हुआ था,
वह जो लहर
उठी थी--पत्थर
तो डूबकर
झील में बैठ
गया--लेकिन वह
जो संघात हुआ
था, जो लहर
उठ गई थी, वह
उठ गई। अब वह
लहर चल पड़ी।
अब वह लहर और
लहरों को, और
लहरों को, और
लहरों को, उठाती
रहेगी।
पत्थर कभी का
शांत होकर बैठ
गया और लहर
अनंत चलती रहेगी,
अनंत तटों
को छूती रहेगी।
करीब-करीब
कृत्य ऐसा ही
है।
आप
करते हैं, आप तो बाहर
हो जाते हैं
करके, कृत्य
चल पड़ता है।
इसलिए कौन-सा
कृत्य ठीक है,
जब तक हम
पूरे विश्व का
अंत न पा लें, तब तक तय
नहीं हो सकता।
जब तक कि सब
सृष्टि
समाहित न हो
जाए, तब तक
तय करना
मुश्किल है कि
महात्मा ने जो
किया था, वह
अच्छा था, कि
असाधु ने जो
किया था, वह
अच्छा था!
मैं
अभी पश्चिम के
एक विचारक का
एक हैरानी से भरा
हुआ वक्तव्य पढ़ रहा था।
उसने यह पूछा
है कि अगर एक
आदमी दूसरे महायुद्ध
के पहले हिटलर
को गोली मार
दे, तो यह
कृत्य अच्छा
है या बुरा? बात तो ठीक
पूछता है। अगर
एक आदमी दूसरे
महायुद्ध के
पहले हिटलर
को गोली मार
दे, तो यह
कृत्य शुभ है
या अशुभ? क्योंकि
यह आदमी करोड़ों
आदमियों को
मरने से बचा
रहा है, बड़ी
बर्बादी
को रोक रहा
है। लेकिन इस
आदमी को सजा
होती और सारी
दुनिया में
इसके कृत्य का
विरोध होता कि
इसने गलत काम
किया है।
तो जो
लोग कृत्य से
सोचते हैं--और
हम सभी लोग सोचते
हैं, दुनिया
के समस्त
नीतिशास्त्र
कृत्य पर जोर
देते हैं कि
यह ठीक है और
यह गलत है।
कृष्ण
इससे उलटी बात
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं
कि यह सवाल
नहीं है कि
तुमने जो किया
है, वह ठीक है
या गलत। गहरे
में सवाल
दूसरा है, और
वह सवाल यह है
कि तुम कौन हो?
तुम क्या हो?
तुम्हारी
मनोदशा क्या
है? इस पर
सब निर्भर है।
मेरे
देखे भी, कृत्य
पर आधारित जो
नीति है, बहुत
बचकानी है, चाइल्डिश है। लेकिन
हम सभी ऐसा
सोचते हैं। हम
सभी ऐसा सोचते
हैं।
कृष्ण
कह रहे हैं, व्यक्ति की भावदशा
क्या है? और
वे एक सूत्र
दे रहे हैं कि
अगर लाभ और
हानि बराबर है,
अगर सुख और
दुख समान हैं,
अगर जय और
पराजय में कोई
अंतर नहीं, तो तू जो भी
करेगा, उसमें
कोई पाप नहीं
है। क्या
करेगा, इसकी
वे कोई शर्त
ही नहीं रखते।
कहते हैं, फिर
तू जो भी
करेगा, उसमें
कोई पाप नहीं
है।
विचारणीय
है, और गहरी
है बात।
क्योंकि
कृष्ण यह कह
रहे हैं कि
दूसरे को चोट
पहुंचाने की
बात तभी तक
होती है, जब
तक लाभ और
हानि में अंतर
होता है। जिसे
लाभ और हानि
में अंतर ही
नहीं है...शर्त
बड़ी मुश्किल
है। क्योंकि
लाभ-हानि में अंतर
न हो, यह
बड़ी गहरी से
गहरी उपलब्धि
है।
ऐसा
व्यक्ति, जिसे
लाभ और हानि
में अंतर नहीं
है, क्या
ऐसा कोई भी
कृत्य कर सकता
है, जिसे
हम पाप कहते
हैं! जिसे जय
और पराजय समान
हो गई हों, जिसे
असफलता और
सफलता खेल हो
गए हों, जो
दोनों को
एक-सा स्वागत,
स्वीकार
देता हो, जिसकी
दोनों के
प्रति समान
उपेक्षा या
समान स्वीकृति
हो, क्या
ऐसा व्यक्ति
गलत कर सकता
है?
कृष्ण
का जोर
व्यक्ति पर है, कृत्य पर
नहीं। और
व्यक्ति के
पीछे जो शर्त
है, वह
बहुत बड़ी है।
वह शर्त यह है
कि उसे
द्वंद्व समान
दिखाई पड़ने
लगे, उसे
प्रकाश और
अंधेरा समान
दिखाई पड़ने
लगे। यह तो
बड़ी ही गहरी
समाधि की
अवस्था में संभव
है।
इसलिए
ऊपर से तो
वक्तव्य ऐसा
दिखता है कि
कृष्ण अर्जुन
को बड़ी
स्वच्छंद छूट
दे रहे हैं; क्योंकि अब
वह कुछ भी कर
सकता है। ऊपर
से ऐसा लगता
है, इससे
तो स्वच्छंदता
फलित होगी, अब तुम कुछ
भी कर सकते
हो। लेकिन
कृष्ण अर्जुन
को गहरे से
गहरे
रूपांतरण और ट्रांसफार्मेशन
में ले जा रहे
हैं, स्वच्छंदता
में नहीं।
असल
में जिस
व्यक्ति को जय
और पराजय समान
हैं, वह कभी भी
स्वच्छंद
नहीं हो सकता
है। उपाय नहीं
है, जरूरत
नहीं है, प्रयोजन
नहीं है। लाभ
के लिए ही
आदमी पाप में प्रवृत्त
होता है; हानि
से बचने के
लिए ही आदमी
पाप में
प्रवृत्त
होता है।
एक
आदमी असत्य
बोलता है।
दुनिया में
कोई भी आदमी
असत्य के लिए
असत्य नहीं
बोलता है, लाभ के लिए
असत्य बोलता
है। अगर
दुनिया में सत्य
बोलने से लाभ
होने लगे, तो
असत्य बोलने
वाला मिलेगा
ही नहीं। तब
बड़ी मुश्किल
से खोजना पड़ेगा।
कोई त्यागी, महात्यागी असत्य बोले,
बात अलग।
कोई बड़ा संकल्पवान
तय ही कर ले कि
असत्य
बोलूंगा, तो
बात अलग।
लेकिन अगर
सत्य के साथ
लाभ होता हो, तो असत्य
बोलने वाला
नहीं मिलेगा।
तब तो इसका
मतलब यह हुआ
कि असत्य कोई
नहीं बोलता, लाभ ही
असत्य का
मार्ग लेता
है। हानि से
बचना ही असत्य
का मार्ग लेता
है। आदमी चोरी
के लिए चोरी
नहीं करता, लाभ के लिए
चोरी करता है।
कोई दुनिया
में चोरी के
लिए चोरी नहीं
करता।
आज तक
दुनिया में
किसी ने भी
कोई पाप लाभ के
अतिरिक्त और
किसी कारण से
नहीं किया; या हानि से
बचने के लिए
किया, दोनों
एक ही बात है।
पाप भी--और मजे
की बात है, पुण्य
भी--पुण्य भी
आदमी लाभ के
लिए करता है
या हानि से
बचने के लिए
करता है।
प्लेटो
ने एक छोटी-सी
कहानी लिखी
है। और कहानी
है एक नैतिक
प्रश्न उठाने
के लिए। कहानी
है कि एक आदमी
को यदि कोई
ऐसी तरकीब मिल
जाए, कोई ऐसा ताबीज मिल
जाए, कि वह इनविजिबल
हो सके, अदृश्य
हो सके--जब
चाहे तब
अदृश्य हो
सके--तो प्लेटो
पूछता है कि
क्या ऐसा आदमी
नैतिक हो
सकेगा? वह
आपकी दुकान पर
आए और
हीरे-जवाहरात
उठा ले; और
अदृश्य है, पुलिस उसे
पकड़ न पाए, समाज
उसे अनैतिक कह
न पाए। वह
किसी के घर
में रात घुस
जाए; दिखाई
न पड़े, अदृश्य
हो सके। तो प्लेटो
ने यह पूछा है
कि क्या ऐसा
नैतिक आदमी
खोजना संभव है,
जिसके हाथ
में अदृश्य
होने का ताबीज
हो और जो
नैतिक रह जाए?
बड़ा कठिन
मालूम पड़ता है
ऐसा आदमी
खोजना।
आप भी
अगर सोचें कि
आपको ताबीज
मिल गया, एक
पांच मिनट के
लिए सोचें कि
हाथ में ताबीज
है, अब
क्या करिएगा!
आपका मन फौरन
रास्ते बताएगा
कि यह-यह
करो--पड़ोस
वाले की पत्नी
को ले भागो,
फलां आदमी
की कार ले भागो,
फलां की
दुकान में घुस
जाओ--फौरन
आपका मन आपको सब
रास्ते बता
देगा। अभी
मिला नहीं ताबीज
आपको, लेकिन
ताबीज
मिल जाए, इसका
खयाल भी आपको
फौरन बता देगा
कि आप क्या-क्या
कर सकते हो--जो
कि आप नहीं कर
पा रहे हो, क्योंकि
अनैतिक होने
में हानि
मालूम पड़ रही
है। और कोई
कारण नहीं है।
इस जगत में जो
हमें नैतिक और
अनैतिक लोग
दिखाई पड़ते
हैं, उनके
नैतिक और
अनैतिक होने
का निर्णायक
सूत्र लाभ और
हानि है।
कृष्ण
नीति को बड़े
दूसरे तल पर
ले जा रहे हैं, बिलकुल अलग डायमेंशन
में। वे यह कह
रहे हैं, यह
सवाल ही नहीं
है। इसीलिए तो
जो शक्तिशाली
होता है, वह
नीति-अनीति की
फिक्र नहीं
करता। इसलिए
अगर चाणक्य से
पूछें या मैक्यावेली
से पूछें,
तो वे कहेंगे,
नीति का कोई
मतलब नहीं
होता, नीति
सिर्फ कमजोरों
का बचाव है।
शक्तिशाली तो
कोई नीति की
फिक्र नहीं
करता, क्योंकि
उसे अनीति से
कोई हानि नहीं
हो सकती। सिर्फ
कमजोर नीति की
फिक्र करता है,
क्योंकि
अनीति से हानि
हो सकती है। मैक्यावेली
तो सुझाव देता
है कि अगर
तुम्हारे पास
शक्ति है, तो
शक्ति का मतलब
ही यह है कि
तुम अनैतिक
होने के लिए
स्वतंत्र हो।
अगर कमजोर हो,
तो उसका
मतलब इतना ही
है कि तुम्हें
नैतिक होने की
मजबूरी है।
नीति
और अनीति के
गहरे में
लाभ-हानि पकड़
में आती हैं।
दुनिया
रोज अनैतिक
होती जा रही
है, ऐसा हमें
लगता है। कुल
कारण इतना है
कि दुनिया में
इतने लोग
शक्तिशाली
कभी नहीं थे, जितने आज
हैं। कुल कारण
इतना है।
दुनिया अनैतिक
होती हुई
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
दुनिया में
इतना धन इतने
अधिक लोगों के
पास कभी भी नहीं
था। जिनके पास
था, वे सदा
अनैतिक थे।
दुनिया
अनैतिक होती
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
अतीत की
दुनिया में राजाओं-महाराजाओं
के हाथ में
ताकत थी। नई
दुनिया
लोकतंत्र है,
वहां एक-एक
व्यक्ति के
पास शक्ति
वितरित कर दी
गई है। अब
प्रत्येक
व्यक्ति
शक्ति के
मामले में ज्यादा
समर्थ है, जितना
कभी भी नहीं
था। दुनिया
अनैतिक होती
मालूम पड़ती है,
क्योंकि
इतने अधिक लोग
शिक्षित कभी
नहीं थे और
शिक्षा एक
शक्ति है। जो
लोग शिक्षित
थे, उनके
नैतिक होने का
कभी भरोसा
नहीं था।
जितनी
शिक्षा बढ़ेगी, उतनी अनीति
बढ़ जाएगी; जितनी
समृद्धि बढ़ेगी,
उतनी अनीति
बढ़ जाएगी; जितनी
शक्ति बढ़ेगी,
उतनी अनीति
बढ़ जाएगी। मजा
यह है कि नीति
और अनीति के
बहुत गहरे में
लाभ-हानि ही बैठी है।
इसलिए
कृष्ण का यह
वचन बड़े गहरे इंप्लिकेशंस
का है। वे
अर्जुन से
कहते हैं कि
जब तक तुझे लाभ
और हानि में
भेद है, तब
तक तू जो भी
करेगा, वह
पाप है। और
जिस दिन तुझे
लाभ-हानि में
कोई भेद नहीं
है, उस दिन
तू निश्चिंत
हो। फिर तू जो
भी करेगा, वह
पाप नहीं है।
इसलिए
सवाल नहीं है
यह कि हम
चुनें कि क्या
करणीय है और
क्या करणीय
नहीं है। असली
सवाल और गहरे
में है और वह
यह है कि क्या
मेरे चित्त
में लाभ और
हानि का
प्रभाव पड़ता
है? अगर पड़ता
है, तो मैं
मंदिर भी बनाऊं
तो पाप होगा, उसके बहुत
गहरे में
लाभ-हानि ही
होगी। अगर मैं
पुण्य भी करूं,
तो सिर्फ
दिखाई पड़ेगा,
पुण्य हो
रहा है; पीछे
पाप ही होगा।
और सब पुण्य
करने के लिए
पहले पाप करना
जरूरी होता
है। मंदिर भी
बनाना हो, तो
भी मंदिर
बनाने के लायक
तो धन इकट्ठा
करना ही होता
है।
सब पुण्यों
के लिए पाप
करना जरूरी
होता है, क्योंकि
कोई पुण्य
बिना लाभ के
नहीं हो सकते।
दान के पहले
भी चोरी करनी
पड़ती है। असल
में जितना बड़ा
चोर, उतना
बड़ा दानी हो
सकता है। असल
में बड़ा दानी
सिर्फ अतीत का
चोर है। आज का
चोर कल का
दानी हो सकता
है। क्योंकि
चोरी करके भी करिएगा
क्या? एक
सीमा आ जाती
है सेच्युरेशन
की, जहां
चोरी से फिर
कोई लाभ नहीं
मिलता। फिर
उसके बाद दान
करने से लाभ
मिलना शुरू
होता है।
कृष्ण
का वक्तव्य
बहुत अदभुत
है। वे यह
कहते हैं कि
तू लाभ और
हानि का जब तक
भेद कर पा रहा
है, तब तक तू
कितने ही
पुण्य की
बातें कर, लेकिन
तू जो भी
करेगा वह पाप
है। और अगर तू
यह समझ ले कि
लाभ-हानि में
कोई फर्क नहीं,
जय-पराजय
में कोई फर्क
नहीं, जीवन-मृत्यु
में कोई फर्क
नहीं, तो
फिर तू जो भी
करे, वह
पुण्य है।
यह पुण्य
और पाप का
बहुत ही नया
आयाम है।
कृत्य से नहीं, व्यक्ति के अंतस्तल
में हुई
क्रांति से
संबंधित है।
प्रश्न:
भगवान श्री, कुछ
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जैसे भूख, निद्रा,
काम आदि
स्वाभाविक वृत्तियां
हैं, वैसे
ही क्रोध करना
भी मानव की
स्वाभाविक
वृत्ति है।
यदि ऐसा है, तो जगत में
युद्ध भी
स्वाभाविक ही
है। जब तक जगत,
तब तक
युद्ध। क्या
युद्ध कभी अटक
भी सकती है?
स्वाभाविक
किसी बात को
कह देना, उसके
होने की
अनिवार्यता
को सिद्ध कर
देना नहीं है।
जो भी हमें
स्वाभाविक
मालूम पड़ता है,
वह सभी एक
तल पर
स्वाभाविक है,
लेकिन तल के
परिवर्तन के
साथ बदल जाता
है। जैसा
मनुष्य है, वैसे मनुष्य
के लिए क्रोध
बिलकुल
स्वाभाविक है।
लेकिन मनुष्य
बुद्ध जैसा
मनुष्य भी हो
जाता है, और
तब क्रोध
बिलकुल
अस्वाभाविक
हो जाता है। स्वाभाविक
और
अस्वाभाविक
व्यक्ति की
चेतना के
प्रत्येक तल
पर बदलते जाते
हैं।
एक
आदमी शराब
पीकर रास्ते
पर चल रहा है, तो नाली में
गिर जाना
बिलकुल
स्वाभाविक
है। लेकिन एक
आदमी बिना
शराब पीए सड़क
पर चल रहा है, उसका नाली
में गिर जाना
बिलकुल
अस्वाभाविक है।
लेकिन शराब
पीए आदमी में
और गैर शराब
पीए आदमी में
आदमियत का कोई
भी फर्क नहीं
है। फर्क है
चेतना का।
आदमियत का कोई
भी फर्क नहीं है।
शराब पीया
आदमी भी वैसा
ही आदमी है, जैसा नहीं
शराब पीया
हुआ आदमी आदमी
है।
अंतर
कहां है? अंतर
चेतना का है।
शराब पीए हुए
आदमी के पास उतनी
चेतना नहीं है,
जो नाली में
गिरने से बचा
सके। गैर शराब
पीए आदमी के
पास उतनी
चेतना है, जो
नाली में
गिरने से
बचाती है। अगर
हम क्रोध में
गिर जाते हैं,
तो वह भी
हमारी
मूर्च्छा के
कारण। और
बुद्ध अगर
क्रोध में
नहीं गिरते, तो वह भी
उनकी अमूर्च्छा
के कारण। वह
भी फर्क चेतना
का ही है। उस
फर्क में भी
वही फर्क काम
कर रहा है, जो
शराबी के साथ
कर रहा है।
हां, फर्क
भीतरी है, इसलिए
एकदम से दिखाई
नहीं पड़ता।
जब आप
क्रोध में
होते हैं, तब आपके एड्रिनल
ग्लैंड्स
आपके भीतर
शराब छोड़ देते
हैं। जब आप
क्रोध में
होते हैं, तो
आपके शरीर
में...बहुत से
मादक रस
इकट्ठे हैं आपके
शरीर में। अगर
वे ग्लैंड्स
काट दी जाएं, फिर आप
क्रोध करके
बताएं तो समझा
जाए!
पावलव
ने बहुत
प्रयोग किए
हैं रूस में
कुत्तों की उन
ग्लैंड्स
को काटकर, जिनकी वजह
से कुत्ते भौंकते
हैं और भौंकते
ही रहते हैं
और लड़ते
ही रहते हैं।
बड़ा जानदार
कुत्ता है, तीर है
बिलकुल, जरा-सी
बात और जूझ
जाएगा। उसकी
भी ग्लैंड
काट देने के
बाद, उसको
कितना ही उकसाओ,
वह कुछ भी
नहीं करता।
फिर वह बैठा
रह जाएगा।
खतरा
भी है इस
प्रयोग में।
क्योंकि आज
नहीं कल, कोई
हुकूमत
आदमियों के ग्लैंड्स
भी काटेगी।
जिस हुकूमत को
भी विद्रोह और
क्रांति से
बचना है, आज
नहीं कल, बायोलाजिस्ट की सहायता वह
लेगी।
कोई कठिनाई
नहीं है। रूस
जैसे मुल्क
में, जहां
हर बच्चे को
नर्सरी में
पैदा होना है,
वहां पैदा
होने के साथ
ही ग्लैंड्स
समाप्त की जा
सकती हैं। या
उन ग्लैंड्स
के एंटीडोट्स
का इंजेक्शन
दिया जा सकता
है।
तब
आपको पता
चलेगा कि
स्वाभाविक
बिलकुल नहीं है।
स्वाभाविक
इसलिए है कि
शरीर के साथ
अनंत यात्रा
में जरूरी रहा
है। और शरीर
के साथ
बहुत-सी चीजें
जो कल जरूरी
थीं, अब जरूरी
नहीं रह गई
हैं, लेकिन
खिंच रही हैं।
जिस
स्थिति में
मनुष्य है, अगर हम उसको
परम स्थिति
मान लें, तब
तो बिलकुल
स्वाभाविक
है। लेकिन वह
परम स्थिति नहीं
है; उसमें
बदलाहट हो
सकती है।
उसमें बदलाहट
दो तरह से हो
सकती है।
शरीर
के द्वारा भी
बदलाहट हो
सकती है।
लेकिन शरीर के
द्वारा जो
बदलाहट होगी, वह मनुष्य
की आत्मा का
विकास नहीं, पतन बनेगी।
क्योंकि जो
आदमी क्रोध कर
नहीं सकेगा, इसलिए नहीं
करता है, वह
आदमी इंपोटेंट
हो जाएगा। उस
आदमी का कोई
गौरव नहीं
होगा। उसके
व्यक्तित्व
में चमक नहीं
आएगी। उसकी
आंखों में शान
नहीं आएगी।
अक्रोध की
शांति भी नहीं
आएगी, क्योंकि
क्रोध कर ही
नहीं सकता। जो
आदमी बुरा हो
ही नहीं सकता,
उसके भले
होने का कोई
भी अर्थ नहीं
होता। वह सिर्फ
असमर्थ होता
है, दीन
होता है।
लेकिन
जो आदमी क्रोध
कर सकता है और
नहीं करता है, उसकी चेतना
रूपांतरित हो
जाती है।
क्रोध कर सकता
है और नहीं
करता है, तो
वह जो क्रोध
की शक्ति है, वह अक्रोध
की शक्ति बननी
शुरू हो जाती
है। तब उसके
व्यक्तित्व
में रूपांतरण,
ट्रांसफार्मेशन के नए द्वार
खुलते हैं। तब
वह सामान्य
मनुष्य से ऊपर
उठना शुरू
होता है। सुपरमैन
उसके भीतर
पैदा होना
शुरू होता है,
वह अतिमानव
होना शुरू हो
जाता है।
मनुष्य
के लिए क्या
स्वाभाविक है, यह इस पर
निर्भर करता
है कि उसकी
चेतना का तल क्या
है। प्रत्येक
तल पर स्वभाव
भिन्न-भिन्न
होगा। एक
बच्चे के लिए
जो स्वाभाविक
है, जवान
के लिए
स्वाभाविक
नहीं रह जाता।
और एक जवान के
लिए जो
स्वाभाविक है,
बूढ़े के लिए
स्वाभाविक
नहीं रह जाता।
बीमार आदमी के
लिए जो
स्वाभाविक है,
वह स्वस्थ
के लिए
स्वाभाविक
नहीं रह जाता।
तो
स्वभाव कोई फिक्स्ड एनटाइटी
नहीं है।
स्वभाव कोई
ऐसी बात नहीं
है कि कोई थिर
चीज है। यही
खूबी है
मनुष्य की। एक
पत्थर का
स्वभाव थिर है, पत्थर का
स्वभाव
बिलकुल थिर
है। पानी का
स्वभाव
बिलकुल थिर
है। इसलिए हम
विज्ञान की
किताब में लिख
सकते हैं कि
पानी का यह
स्वभाव है, अग्नि का यह
स्वभाव है।
मनुष्य
की खूबी ही
यही है कि
उसका स्वभाव
उस पर ही
निर्भर है। और
वह अपने
स्वभाव को
हजार आयाम दे
सकता है और
विकास कर सकता
है। हां, एक
स्वभाव जन्म
के साथ सबको
मिलता है। कुछ
लोग उसी पर
रुक जाते हैं,
उसी को
स्वभाव का अंत
मान लेते हैं,
तब दूसरी
बात है।
कभी
आपने शायद
खयाल न किया
हो; अगर एक
हीरे को रख
दें और पास
में कोयले
के टुकड़े को
रख दें, तो
आपको कभी खयाल
न आएगा कि
हीरा कोयला ही
है। हीरे और कोयले में
बुनियादी
तत्व के आधार
पर कोई भी भेद
नहीं है। असल
में कोयला ही
हजारों-लाखों
वर्ष जमीन में
दबा रहकर हीरा
बन जाता है।
लेकिन हीरे और
कोयले का
स्वभाव एक है?
जरा भी एक
नहीं है। कहां
कोयला, कहां
हीरा! लेकिन बनता है
हीरा कोयले
से ही; वह कोयले की
ही आखिरी
यात्रा है।
तो
जहां मनुष्य
अपने को पाता
है, कोयले जैसा है। और
जहां बुद्ध
जैसे, महावीर
जैसे, कृष्ण
जैसे व्यक्ति
अपने को पहुंचाते
हैं, हीरे
जैसे हैं।
फर्क स्वभाव
का नहीं है, फर्क विकास
का है।
प्राथमिक
स्वभाव हम
सबको एक जैसा
मिला है--क्रोध
है, काम है, लोभ है।
लेकिन यह अंत
नहीं है, प्रारंभ
है। और इस
प्रारंभ को ही
अगर हम अंत समझ
लें, तो
यात्रा बंद हो
जाती है। और
हुई है बंद।
जैसा
कि आपने पूछा
है, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, यह
तो स्वभाव है।
लेकिन यह कहकर
वे कुछ इस तरह
की बात दुनिया
में पैदा
करवाते हैं कि
जैसे यह अंत
है। इसलिए
पश्चिम में
मनोविज्ञान
के कुछ परिणाम
हुए हैं।
हिंदुस्तान में
मनोविज्ञान
ने एक लाभ
लिया और
मनुष्य को विकास
दिया। और
पश्चिम के सौ डेढ़ सौ
वर्ष के
मनोविज्ञान
ने मनुष्य को
पतन दिया, विकास
नहीं दिया।
क्योंकि
मनोवैज्ञानिक
ने कहा, यह
तो स्वभाव है।
आदमी क्रोध तो
करेगा ही, क्रोध
तो स्वभाव है।
आदमी कामुक तो
होगा ही, कामुकता
तो स्वभाव है।
इसका
परिणाम क्या
हुआ? इसका
परिणाम यह हुआ
कि जो प्रारंभ
बिंदु था, वह
अंतिम मंजिल
बन गया। और तब
प्रत्येक
आदमी ने कहा, क्रोध तो
मैं करूंगा ही,
यह मेरा
स्वभाव है।
आदमी क्रोध
करेगा ही। निश्चित
ही, इसके
फल हुए हैं।
वे फल पश्चिम
में दिखाई पड़
रहे हैं। वे
फल ये हुए कि
आज कोई भी
व्यक्ति अपने
को किसी भी
कृत्य के लिए
जिम्मेवार, रिस्पांसिबल नहीं
मानता।
क्योंकि वह
कहता है, यह
स्वभाव है।
एक
आदमी गालियां
बक रहा है सड़क
पर, तो आप
उससे यह नहीं
कह सकते कि
तुम यह क्या
कर रहे हो? वह
कहता है, यह
स्वभाव है। एक
आदमी चोरी कर
रहा है, आप
उससे यह नहीं
कह सकते कि
तुम गलत कर
रहे हो। वह
कहता है, मैं
क्या कर सकता
हूं, यह
स्वभाव है।
पश्चिम के
मनोविज्ञान
ने अगर बड़े से
बड़ा खतरा लाया
है, तो
आदमी को रिस्पांसिबिलिटी
से मुक्त कर
दिया।
दायित्व कुछ
उसका है नहीं।
वह कहता है, यह स्वभाव
है। और जो भी
हो रहा है...।
तो
पश्चिम में माक्र्स
और फ्रायड, इन दो के
तालमेल से एक
अदभुत स्थिति
पैदा हो गई
है। माक्र्स
ने कह दिया कि
जो भी हो रहा
है, उसके
लिए
जिम्मेवार
समाज है। और फ्रायड ने
कह दिया कि जो
भी हो रहा है, उसके लिए
जिम्मेवार
प्रकृति है।
आदमी बाहर हो
गया। अगर एक
आदमी चोरी कर
रहा है, तो
जिम्मेवार
समाज है। अगर
एक आदमी हत्या
कर रहा है, तो
जिम्मेवार
समाज है। ऐसा माक्र्स
ने कह दिया, व्यक्ति के
ऊपर कोई
जिम्मेवारी
नहीं है, सोशल रिस्पांसिबिलिटी
है। इसलिए अगर
व्यक्ति को
बदलना है, तो
समाज को बदलो।
और जब तक समाज
नहीं बदलता, तब तक
व्यक्ति जैसा
है वैसा
रहेगा। इसकी
हम उसे
लाइसेंस देते
हैं।
व्यक्ति
बड़ा
प्रफुल्लित
हुआ। हजारों
साल की जो
चिंता थी, उसके दिमाग
से गिर गई। ये
कृष्ण ने, महावीर
ने, बुद्ध
ने आदमी को
बड़ी भारी
चिंता, बड़ी
एंग्जाइटी
दे दी थी--दे दी
थी कि तुम
जिम्मेवार
हो। चिंता गिर
गई। व्यक्ति
बड़ा निश्चिंत
हुआ। लेकिन उस
निश्चिंतता
में व्यक्ति
सिर्फ वही रह
गया, जो
कोयला था।
उससे बाहर की
यात्रा बंद हो
गई। निश्चित
ही, कोयले को हीरा
बनना हो, तो
चिंता से
गुजरना पड़ेगा।
लाखों साल की
लंबी यात्रा
है!
फिर फ्रायड ने
लोगों को कह
दिया कि समाज
भी बदल डालो, तो भी कुछ
होने वाला
नहीं है।
क्योंकि रूस
में क्रोध कम
हो गया? कि
रूस में
अहंकार कम हो
गया? कि
रूस का नागरिक
किसी भी तरह
से आदमियत के
तल पर बदल गया
है? कुछ भी
नहीं बदला। फ्रायड ने
कहा, समाज
वगैरह के
बदलने का सवाल
नहीं है।
जिम्मेवार
स्वभाव है, नेचर है। जब तक नेचर को न
बदल डालो,
तब तक कुछ
भी नहीं हो
सकता।
पर नेचर
को कैसे बदलोगे? स्वभाव को
कैसे बदलोगे?
इसलिए आदमी
जैसा है वैसा
रहेगा।
निश्चिंत मन से
उसे जैसा है
वैसा रहना
चाहिए! यह
बदलाहट, यह
क्रांति, यह
भीतरी
रूपांतरण, यह
धर्म, यह
योग, यह
समाधि, ये
सब बकवास हैं।
फ्रायड
ने कहा, आदमी
जैसा है वैसा
ही रहेगा।
नाहक की चिंता
में आदमी को
डालकर परेशान
किया हुआ है।
वह जैसा है, है।
फ्रायड
के इस कहने का
परिणाम
पश्चिम में एक्सप्लोसिव
हुआ। आज हिप्पी
हैं, बीटनिक हैं, प्रवोस हैं, और
दूसरे तरह के
सारे लोग हैं,
वे यही कह
रहे हैं कि यह
स्वभाव है। और
फ्रायड
ने गारंटी दी
है कि यह
स्वभाव है, और आदमी वही
रहेगा जो है।
आदमी एक पशु
है। थोड़ी-सी
बुद्धि है
उसके पास, इसलिए
बुद्धि से
अपने को
परेशानी में
डाल लेता है।
बुद्धि को भी
छोड़ दे, तो
कोई परेशानी
नहीं है।
आदमी
को फ्रायड
ने--अगर फ्रायड
को समझें, तो वह यह कहता
है, तुम्हारी
बुद्धि ही
तुम्हारी
परेशानी है। उसी
की वजह से तुम
झंझट में पड़
जाते हो। जो
है, वह है।
यह बुद्धि उस
पर सोच-विचार
करके कहने लगती
है, ऐसा
नहीं होना
चाहिए, वैसा
नहीं होना
चाहिए। इससे
तुम चिंता
पैदा करते हो,
पागल हुए
जाते हो। छोड़ो
यह चिंता! जो
हो, उसके
लिए राजी हो
जाओ।
ठीक है, निश्चिंतता
आ जाएगी, लेकिन
कोयले की
निश्चिंतता
होगी। पशु
निश्चिंत है।
अगर फ्रायड
को मानकर
पूरा का पूरा
चला जाए, तो
आदमी पशु की
तरफ गिरता
जाएगा--गिरा
है। फ्रायड
जो कहता है, वह सच है, लेकिन
अधूरा सच है।
और अधूरे सच
झूठ से भी खतरनाक
होते हैं।
यह सच
है कि आदमी
में क्रोध है, और यह
स्वभाव है। और
यह भी सच है कि
आदमी में क्रोध
से विकसित
होने की
संभावना है, वह भी उसका
स्वभाव है। यह
सच है कि
क्रोध है। और
यह भी सच है कि
क्रोध से
मुक्त होने की
आकांक्षा है,
वह भी
स्वभाव है।
ऐसा आदमी
खोजना मुश्किल
है, जिसमें
क्रोध है और
क्रोध से
मुक्त होने की
आकांक्षा
नहीं है। तो
क्रोध स्वभाव
है, और
क्रोध से
मुक्त होने की
आकांक्षा? वह
स्वभाव नहीं
है? ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जो अपने को
अतिक्रमण
नहीं करना
चाहता, जो
अपने से ऊपर
नहीं जाना
चाहता। जो है,
वह स्वभाव
है। जो होना
चाहता है, वह
भी स्वभाव है।
और
निश्चित ही, जो होना
चाहता है, उसके
लिए, जो है
उसको
रूपांतरित
करना पड़ता है।
उसकी विधियां
हैं। उस विधि
का नाम ही
धर्म है। अगर
मनुष्य जैसा
है, वैसा
ही है, तब
धर्म की कोई अर्थवत्ता
नहीं है, मीनिंगलेस है।
इसलिए
अगर पश्चिम
में धर्म का
सारा मूल्य खो
गया, तो उसके खोने का
बहुत गहरा
कारण यही है
कि पश्चिम के
मनोविज्ञान
ने आदमी को
कहा कि यह तो
स्वभाव है।
ऐसा होगा ही।
एक
मित्र मेरे
पास आए, यही
अभी परसों।
उन्होंने कहा
कि मैं बहुत
परेशान था, नींद मुझे
नहीं आती थी।
नींद खो गई थी,
इससे
चिंतित था।
मनोवैज्ञानिक
के पास गया, तो
मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि यह
तो बिलकुल ठीक
है।
मनोवैज्ञानिक
ने पूछा कि
सेक्स के बाबत
तुम्हारी
क्या स्थिति
है? तो
मनोवैज्ञानिक
ने उनसे कहा
कि तुम
हस्तमैथुन, मस्टरबेशन शुरू कर दो।
उन्होंने कहा
कि कैसी
बात कहते हैं?
तो
उन्होंने कहा,
यह तो
स्वभाव है। यह
तो आदमी को
करना ही पड़ता
है! जब
मनोवैज्ञानिक
कहता हो, वे
राजी हो गए।
फिर दो
साल में उस
हालत में
पहुंच गए कि
उसी मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि अब
तुम्हें इलेक्ट्रिक
शॉक की जरूरत
है। अब तुम
बिजली के शॉक्स
लो। अब जब
मनोवैज्ञानिक
कह रहा है। और
हम तो अथारिटी
के ऐसे दीवाने
हैं, ऐसे पागल
हैं। और जो
चीज जब अथारिटी
बन जाए! कभी
मंदिर का
पुरोहित अथारिटी
था, तो वह
जो कह दे, वह
सत्य था। अब
वह पौरोहित्य
जो है मंदिर
का, वह
मनोवैज्ञानिक
के हाथ में
आया जा रहा
है। अब वह जो
कह दे, वह
सत्य है। तो
बिजली के शॉक
ले लिए। सब
तरह से
व्यक्तित्व
अस्तव्यस्त
हो गया।
स्वभाव
की आड़ में
आदमी की पशुता
को बचाने की
चेष्टा
खतरनाक है।
शायद मनुष्य
के ऊपर इससे
बड़े खतरे
के बादल कभी
भी नहीं आए थे, जितने बड़े खतरे के
बादल इस बात
से आए हैं कि
जो भी है, वह
है। यह तो
होगा ही, यह
तो बिलकुल
स्वाभाविक
है।
मैं
आपसे कहना
चाहता हूं कि
मैं भी कहता
हूं कि बिलकुल
स्वाभाविक
है।
मनोविज्ञान
से मेरी गहरी सहमतियां
हैं, लेकिन असहमतियां
भी हैं। मैं
मानता हूं, मनोविज्ञान
जहां तक जाता
है, बहुत
ठीक है। लेकिन
उसके आगे भी
यात्रा-पथ है।
जहां तक जाता है,
बिलकुल
ठीक। लेकिन
जहां से इनकार
करता है, वहां
बिलकुल गलत
है। फ्रायड
जहां तक जाते
हैं, बिलकुल
ठीक, वहां
तक कृष्ण और
बुद्ध भी
इनकार नहीं
करते। लेकिन
कृष्ण और
बुद्ध कहते
हैं, यह
अंत नहीं है, यह बिलकुल
प्रारंभ है।
और इस प्रारंभ
का ऐसा उपयोग
करना है कि
अंत भी फलित
हो सके।
जड़
स्वभाव है, लेकिन फूल
तक भी पहुंचना
है। अन्यथा
जड़ें बड़ी कुरूप
होती हैं; गंदी
होती हैं; अंधेरे
में दबी होती
हैं; नीचे
अंधेरे
रास्तों में,
जमीन में फैली होती
हैं।
स्वाभाविक
हैं, बिलकुल
जरूरी हैं, लेकिन जड़ें
फूल नहीं हैं।
और अगर जड़ों
पर कोई वृक्ष
रुक जाए और
कोई फ्रायड
वृक्ष को समझा
दे कि पागल, यही तेरा
स्वभाव है। और
वृक्ष रुक जाए
और कहे, क्या
करेंगे अब
आकाश में उठकर,
जड़ें ही
अपना स्वभाव
है, तो फिर
फूल नहीं
आएंगे।
और मजा
यह है कि जड़ें
इसीलिए हैं कि
फूल आएं। और
फूल और जड़ में
कितना विरोध
है! कहां
फूल--आकाश में खिले हुए, सूर्य की
रोशनी में
नाचते हुए! और
कहां जड़ें--अंधेरे
में दबी हुई!
विरोध है बड़ा,
सामंजस्य
भी है बड़ा, क्योंकि
फूल बिना जड़ों
के नहीं हो
सकते।
यह भी
आखिरी बात मैं
आपसे कहना
चाहता हूं कि
फूल बिना जड़ों
के नहीं हो
सकते; हालांकि
जड़ें बिना फूल
के हो सकती
हैं। यह जीवन
का एक बहुत
बड़ा दुर्भाग्य
है कि यहां जो
निम्न है, वह
श्रेष्ठ के
बिना हो सकता
है; लेकिन
यहां जो
श्रेष्ठ है, वह निम्न के
बिना नहीं
होता। एक
मंदिर पर स्वर्ण
के शिखर रखने
हों, तो
नींव भरनी ही
पड़ती है। नींव
के बिना
स्वर्ण-शिखर
नहीं होते; लेकिन
स्वर्ण-शिखर
के बिना नींव
हो सकती है--नींव
भरें और
छोड़ दें।
जो
निम्न है, वह श्रेष्ठ
के बिना भी हो
सकता है।
लेकिन जो श्रेष्ठ
है, वह
निम्न के बिना
नहीं हो सकता।
इसलिए अगर निम्न
को हमने
स्वभाव समझा,
नियति समझी,
डेस्टिनी समझी, तो जड़ें ही
रह जाती हैं
हाथ में।
नहीं, जड़ें हैं ही
इसलिए कि फूल
तक पहुंचें।
मनुष्य का जो
स्वभाव आज
दिखाई पड़ता है,
वह है ही
इसलिए कि वह
परमात्मा तक
पहुंचे। क्रोध
है इसलिए कि
क्रोध की जड़
किसी दिन
अक्रोध का फूल
बने। काम है
इसलिए, सेक्स
है इसलिए कि
सेक्स की
ऊर्जा और काम
की ऊर्जा किसी
दिन
ब्रह्मचर्य
का फूल बने।
और जब तक नहीं
बन जाती, तब
तक मनुष्य को
बेचैन होना ही
चाहिए; जब
तक नहीं बन
जाती, तब
तक मनुष्य को
चिंतित होना
ही चाहिए; जब
तक नहीं बन
जाती, तब
तक मनुष्य को
संताप में, पीड़ा में, संघर्ष में
होना ही
चाहिए। जल्दी
ली गई शांति खतरनाक
है, क्योंकि
वह प्रारंभ को
ही अंत बना
सकती है। शांति
जरूर मिलती है,
लेकिन अंत आ
जाए, मंजिल
आ जाए, तब
तक यात्रा
जारी रखनी
जरूरी है।
दो तरह
की शांतियां
हैं। एक तो हम
जहां हैं, वहीं बैठ
जाएं, तो
यात्रा का
कष्ट बंद हो
जाता है। एक
और शांति भी
है--जिस दिन
यात्रा पूरी
होती है और
मंजिल आती है।
हम बैठ जाएं
और इसी को
मंजिल मान लें,
तो भी शांति
मिलती है। और
मंजिल आ जाए
और हम बैठें,
तब भी शांति
मिलती है।
लेकिन
दोनों शांतियों
में बड़ा फर्क
है। एक पशु की
शांति है, एक परमात्मा
की शांति है।
आज इतना ही।
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