कैसी
भूमिका बने तो
समाधि उत्पन्न
होना सरल होगा, उस
संबंध में थोड़ा
सा आज सुबह आपको
कहना चाहता हूं।
भुमिका के तल पर
तीन बातें स्मरणीय
है। एक बात, सबसे प्रथम बात
है: विचार का अपरिग्रह।
हम जिन विचारों
को अपना समझते
हैं वे अपने नहीं
हैं। वे हमने दूसरों
से ग्रहण किए हैं,
वे उधार हैं।
जितने भी विचार
आपके पास होंगे
उनमें से आपका
कोई भी नहीं है।
वे कहीं से आपके
भीतर आए हैं। आप
एक धर्मशाला की
तरह हैं जिसमें
आकर वे ठहर गए हैं।
वे आपके मेहमान
हैं। वे आपके भीतर
निवास कर गए हैं,
वे कहीं बाहर
से आए हैं, दूसरी
जगह से आए हैं।
इन
विचारों को अपना
समझ लेना भूल है।
इनमें ममत्व धारण
कर लेना भूल है।
तो विचार के प्रति
अपरिग्रह—कि जो
भी विचार मेरे
भीतर इकट्ठे हैं
वे मेरे नहीं हैं, इसका
स्पष्ट बोध मनुष्य
की चित्त—शांति
के लिए अनिवार्य
शर्त है।
अगर ऐसा प्रतीत हो कि वे विचार मेरे हैं, तो फिर उनका शून्य होना मुश्किल हो जाएगा, उनका शांत होना मुश्किल हो जाएगा। अगर ऐसा प्रतीत हो कि वे विचार मेरे हैं, तो फिर उनकी मृत्यु तो हमें दुखद मालूम होगी।
अगर ऐसा प्रतीत हो कि वे विचार मेरे हैं, तो फिर उनका शून्य होना मुश्किल हो जाएगा, उनका शांत होना मुश्किल हो जाएगा। अगर ऐसा प्रतीत हो कि वे विचार मेरे हैं, तो फिर उनकी मृत्यु तो हमें दुखद मालूम होगी।
स्पष्ट
रूप से यह बोध बहुत
उपयोगी है कि कोई
भी विचार जो आपके
पास है आपका नहीं
है। और यह कोई कल्पना
नहीं है यह सच है।
आप विश्लेषण करेंगे, अपने
भीतर झांकेंगे,
अपने विचारों
को देखेंगे— तो
क्या आप कोई एक
ऐसा विचार पाएंगे
जो आपका है, निजी आपका है,
जो मौलिक है,
जो ओरिजिनल है?
कोई
विचार मौलिक नहीं
होता है। सब विचार
उधार होते हैं।
किसी शास्त्र से, किसी
सदपुरुष से किसी
ग्रंथ से, किसी
के वचन से आपने
उनको अंगीकार किया
है।
ज्ञान
और विचार में यही
अंतर है। ज्ञान
वह है जो आपके भीतर
जाग्रत होता है, विचार
वह है जो आप दूसरे
से ग्रहण कर लेते
हैं। तो विचार
तो आगमन है और ज्ञान
जागरण है। अगर
ठीक से समझें तो
विचार आश्रव का
एक हिस्सा है,
वह आता है, वह हम पर आवृत
होता है, हम
पर छा जाता है,
वह हमको घेर
लेता है, वह
आश्रव है। और ज्ञान
तो उसकी निर्जरा
पर उत्पन्न होगा।
विचार की निर्जरा
पर ज्ञान उत्पन्न
होगा। वह जो ढंका
है इस विचार के
आच्छादन से, जब यह विचार नहीं
होगा तो उस ढके
हुए का निरावरण
होगा, उसका
उदघाटन होगा।
ज्ञान
सीखा नहीं जाता, उघाड़ा
जाता है। और विचार
सीखे जाते हैं,
उघाड़े नहीं जाते।
तो विचार और ज्ञान
में भेद समझ लें
और स्मरणपूर्वक
इस बात को बोध में
ले लें कि विचार
आपके नहीं हैं।
यह बोध आपको हो,
यह स्पष्ट सतत
आपको बना रहे,
तो विचार का
परिग्रह बंद हो
जाएगा।
इस
जगत में वस्तुओं
का परिग्रह उतना
घातक नहीं है जितना
विचार का परिग्रह
घातक है। क्योंकि
वस्तुएं तो इस
जन्म की इस जन्म
में छूट जाएंगी, विचार
इस जन्म के अगले
जन्म में भी आपके
भीतर संगृहीत चले
जाएंगे। मृत्यु
शरीर को तोड़ देती
है, वस्तुओं
से तोड़ देती है;
मन को नहीं तोड़
पाती, मन साथ
चला जाता है। उसका
संगृहीत सारा कचरा
साथ चला जाता है।
अगर आपके मन में
थोड़ी सी भी सामर्थ्य
प्रवेश की आ जाए
तो आप अपने पिछले
जन्मों को, विचार को अभी
भी जान सकते हैं।
वे आपके अचेतन
मन के हिस्से हैं।
वे अभी भी मौजूद
हैं। वे खोए नहीं
हैं। वस्तुएं एक
जन्म में ही नष्ट
हो जाती हैं। परिग्रह
एक जन्म से ज्यादा
वस्तुओं का नहीं
चल सकता है।
इसलिए
मैंने कहा—वस्तुओं
का परिग्रह उतना
घातक नहीं, मृत्यु
उसे छीन लेगी।
लेकिन
विचार के परिग्रह को मृत्यु नहीं छीन पाती है, वह साथ चला जाता है। विचार का, भाव का परिग्रह साथ चला जाता है।. वही आपका कर्म है। अगर वह भी छिन जाए तो फिर मृत्यु नहीं होती, फिर मोक्ष हो जाता है। इतना ही फर्क है, मृत्यु में वस्तुओं का परिग्रह छिन जाता है और मोक्ष में विचार का परिग्रह छिन जाता है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है मृत्यु और मोक्ष में। वह विचार ही आपको वापस जन्मों में लाता है।
विचार के परिग्रह को मृत्यु नहीं छीन पाती है, वह साथ चला जाता है। विचार का, भाव का परिग्रह साथ चला जाता है।. वही आपका कर्म है। अगर वह भी छिन जाए तो फिर मृत्यु नहीं होती, फिर मोक्ष हो जाता है। इतना ही फर्क है, मृत्यु में वस्तुओं का परिग्रह छिन जाता है और मोक्ष में विचार का परिग्रह छिन जाता है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है मृत्यु और मोक्ष में। वह विचार ही आपको वापस जन्मों में लाता है।
इसलिए
मैंने कहा कि विचार
का परिग्रह सबसे
ज्यादा घातक है।
और इस विचार के
परिग्रह को तोड़ने
का प्राथमिक बोध
यह है कि हम समझें
कि वे हमारे नहीं
हैं। जैसे ही यह
बोध आपको स्पष्ट
होगा... और यह सरल
है। यह आपको भ्रम
हो सकता है कि यह
मकान मैंने बनाया।
और यह एक अर्थ में
सच भी है कि आपने
बनाया होगा। तो
इस मकान के साथ
यह भाव छोड़ना कि
यह मेरा है जरा
कठिन है। लेकिन
विचार तो आपने
कोई भी नहीं बनाया
है। विचार तो शुद्ध
उधार है उसमें
तो गुंजाइश भी
नहीं है आपके बनाने
की। तो वहां अपरिग्रही
हो जाना बड़ा सरल
है।
तो
पहली तो विचार
के जगत में जो भूमिका
है वह विचार—अपरिग्रह
की। यह बोध कि सब
विचार उधार हैं।
देखें इसको। यह
मैं कहता नहीं
कि आप मान लें, आप
देखें अपने विचारों
को। आप पाएंगे
वे आपने कहीं से
इकट्ठे कर लिए
हैं। वह आपने संग्रह
कर लिया है। और
सब तरह के संग्रह
मनुष्य के अहंकार
को मजबूत करते
हैं। सब तरह के
संग्रह। धन का
संग्रह अहंकार
को मजबूत कर देता
है; यश का संग्रह
अहंकार को मजबूत
कर देता है; विचार का संग्रह
भी अहंकार को मजबूत
कर देता है। धनी
में और पंडित में
अहंकार की दृष्टि
से बहुत फर्क नहीं
होता। धनिक को
धन का दंभ होता
है, पंडित को
विचार का दंभ होता
है। धनिक का दंभ
मौत छीन लेगी,
पंडित का दंभ
मौत नहीं छीन पाएगी।
पंडित धनिक से
ज्यादा खतरनाक
परिग्रह की स्थिति
में है।
यह
आप बात समझ रहे
हैं न? धन तो बहुत
बाहर है विचार
एकदम बाहर नहीं
है; बाहर होकर
भी भीतर है। हमसे
तो बाहर है, हमारे चैतन्य
से तो बाहर है;
लेकिन देह के
भीतर है, इसलिए
भीतर लगता है,
अपना ज्यादा
अपना लगता है।
जो विचार के ममत्व
को छोड़ सकेगा,
वस्तुओं से उसका
ममत्व अपने आप
छूटना शुरू हो
जाता है।
तो
पहली क्रांति विचार
के तल पर ममत्व
के छोड़ देने की
है।
इसलिए
मैंने कहा : विचार—अपरिग्रह!
और वह होगा इस बोध
से कि कोई विचार
मेरा नहीं। लोग
बात करते हैं— मेरा
विचार! बहुत हैरानी
की बात है! कभी आपने
सोचा आपका कोई
विचार है? और
मेरे विचार के
लिए हम लड़ते हैं
और विवाद करते
हैं। जब कि हमारा
कोई भी विचार नहीं
है। किसी का कुरान
से लिया होगा,
किसी का महावीर
से लिया हुआ होगा
किसी का बुद्ध
से लिया हुआ होगा,
किसी ने कहीं
और से लिया होगा।
तो
आप यह पूछ सकते
हैं मुझसे कि महावीर
ने भी फिर विचार
किसी और से लिए
होंगे? अपने से
पहले के तेईस तीर्थंकरों
से लिए होंगे
अभी
एक प्रश्न मुझसे
पूछा है— कि ओशो
सब महापुरुष दूसरों
के विचारों से
प्रेरणा पाते है।
यह
बिलकुल झूठ है।
महापुरुष पाते
होंगे, जिनको
हम सामान्यत: ग्रेट
मैन कहते हैं,
लेकिन सत्पुरुष
नहीं पाते। महापुरुष
पाते होंगे—स्टैलिन
पाता होगा, लेनिन पाता होगा,
मार्क्स पाता
होगा, नेहरू
पाते होंगे; लेकिन महावीर
और बुद्ध और क्राइस्ट
नहीं पाते। महापुरुष
और सत्युरुष में
अंतर है। महावीर
और बुद्ध महापुरुष
नहीं हैं, सत्सुरुष
हैं।
महापुरुष
वह है जिसके पास
बहुत सी शक्तियां
हैं और बहुत संग्रह
है अनेक रूपों
का,
जो सामान्य आदमियों
से बहुत ऊंचा है।
सत्सुरुष सामान्य
आदमियों से ऊंचा
नहीं है। सतपुरुष
सामान्य आदमियों
और असामान्य आदमियों,
दोनों से पृथक
है, अलग ही है,
वह इन कोटि में
नहीं है। यानी
आप ऐसा नहीं सोच
सकते कि महावीर
हमसे बहुत बड़े
आदमी हैं। आपसे
कोई तौल ही नहीं
है महावीर की।
महावीर इस अर्थ
में आदमी ही नहीं
हैं जिस अर्थ में
आप आदमी हो। और
अगर महावीर आदमी
हैं तो आप आदमी
नहीं रह जाओगे।
आप अलग कोटियां
हैं। सतपुरूष सामान्य
लोगों से विशेष
पुरुष नहीं है।
सत्सुरुष अतिक्रमण
कर गया उस सीमा
का जहां सामान्य
और विशेष पुरुष
होते हैं। वह अलग
है, उसकी कोटि
भिन्न है।
वह
कोई सोचता हो महावीर
ने अपने पिछले
तेईस तीर्थंकरों
से प्रेरणा ग्रहण
की,
तो बिलकुल गलत
सोचता है। महावीर
ने तो सारे प्रभाव
छोड़ दिए जो भी बाहर
से आए थे, सारे
इंप्रेशंस। उनको
ही हम संस्कार
कहते हैं। प्रभाव
और प्रेरणा संस्कार
है, जो दूसरे
ने आप पर डाला है।
वह बाहर से आया
हुआ है, वह आश्रव
है। महावीर ने
सारे बाहर से आए
प्रभाव छोड़ दिए,
जब वे निष्प्रभाव
हो गए, बाहर
का उनके भीतर कुछ
भी शेष न रहा, तब उसका जागरण
हुआ जो ज्ञान है।
ज्ञान
मौलिक होता है, विचार
सब उधार होते हैं।
इसलिए प्रत्येक
तीर्थंकर स्वयं
पाता है किसी से
उधार नहीं लेता।
और प्रत्येक सत्सुरुष
स्वयं पाता है,
किसी से उधार
नहीं लेता। जो
उधार लेता है वह
महापुरुष हो सकता
है, सतपुरूष
नहीं।
वह
निष्प्रभाव हो
जाने पर, समस्त
बाह्य प्रभावों
की निर्जरा हो
जाने पर जो शेष
रह जाता
है और विचारों के आवरणों के हट जाने पर, उन बदलियों के हट जाने पर जो सूरज अंतत: शेष रह जाता है, जो बाहर से नहीं आया है, जो निरंतर भीतर था, लेकिन बाहर से जो आ गया था उसके कारण आवृत था, उसका अनुभव ज्ञान है। वह ज्ञान मौलिक है, वह हमेशा मौलिक है। यानी आपको होगा तब मौलिक होगा, किसी दूसरे को होगा तब मौलिक होगा। वह ज्ञान कभी भी उधार नहीं है। यानी वह प्रत्येक को मौलिक होगा। और विचार कभी मौलिक नहीं, वे प्रत्येक को उधार होते हैं। विचार परंपरागत होते हैं, ज्ञान व्यक्तिगत होता है। विचारों से संप्रदाय बनते हैं, ज्ञान से धर्म बनता है।
है और विचारों के आवरणों के हट जाने पर, उन बदलियों के हट जाने पर जो सूरज अंतत: शेष रह जाता है, जो बाहर से नहीं आया है, जो निरंतर भीतर था, लेकिन बाहर से जो आ गया था उसके कारण आवृत था, उसका अनुभव ज्ञान है। वह ज्ञान मौलिक है, वह हमेशा मौलिक है। यानी आपको होगा तब मौलिक होगा, किसी दूसरे को होगा तब मौलिक होगा। वह ज्ञान कभी भी उधार नहीं है। यानी वह प्रत्येक को मौलिक होगा। और विचार कभी मौलिक नहीं, वे प्रत्येक को उधार होते हैं। विचार परंपरागत होते हैं, ज्ञान व्यक्तिगत होता है। विचारों से संप्रदाय बनते हैं, ज्ञान से धर्म बनता है।
इसी
प्रसंग में मैं
जो शास्त्रों के
संबंध में आपसे
कहा हूं उसे भी
विचार कर लेना।
शास्त्र से आया
हुआ प्रभाव भी
बाहर से आया हुआ
प्रभाव है। वह
भी आच्छादक है, वह
भी आपको छा लेगा।
वह भी छा लेगा,
इस अर्थ में
घातक कहा है। यानी
मैं जो, मेरे
शब्दों को खयाल
करना, उन्हें
गलत मत समझ लेना।
वह भी आपको आवृत
कर लेगा, इस
अर्थ में घातक
कहा है। वह भी आपको
आच्छादित कर लेगा।
वह भी बाहर से आया
है; इतना तो
स्मरण रखिए कि
वह भी बाहर से आ
रहा है। कितना
ही सदप्रभाव मालूम
पड़े, बाहर से
आया हुआ प्रभाव
आत्मसाधना में
घातक है।
मेरे
ऊपर आप लोहे का
एक कोट मुझे पहना
दें,
और एक आदमी मुझे
सोने का एक कोट
पहना दे, और
एक आदमी हीरे—जवाहरातों
से लदा हुआ कोट
मुझे पहना दे,
ये तीनों मुझे
बांध लेते हैं।
बुरे प्रभाव भी
मुझे बांध लेते
हैं। इसी अर्थ
में महावीर कहते
हैं, बुरे कर्म
भी बांध लेते हैं
शुभ कर्म भी बांध
लेते हैं। वही
बात, ठीक से
समझें बुरे विचार
भी बांध लेते हैं,
शुभ विचार भी
बांध लेते हैं।
बुरा विचार हो
तो आदमी निम्न
हो जाता है, शुभ विचार हो
तो महापुरुष हो
जाता है और दोनों
ही विचार विलीन
हो जाएं तो सत्सुरुष
हो जाता है। बुरा
विचार हो तो बुरा
आदमी हो जाएगा;
अच्छे विचार
हों अच्छा आदमी
हो जाएगा। बुरे
आदमी पर बुरा आच्छादन
है—समझिए लोहे
की दीवाल है उसके
प्रिजन की, उसके कारागृह
की लोहे की दीवाल
है। और भले आदमी
का अच्छा आच्छादन
है उसके कारागृह
की स्वर्ण की दीवाल
है। सत्पुरुष वे
हैं जिनकी कोई
दीवाल नहीं है—
न स्वर्ण की, न लोहे की।
मेरी
बात को समझने की
कोशिश जरूरी है।
और वह इस अर्थ में
जरूरी है, इसलिए
मैंने घातक कहा।
लोहे की दीवाल
घातक है यह तो हमको
दिखता है। सोने
की दीवाल घातक
है, इसे देखने
में जरा दिक्कत
होती है। सोने
से मोह हमारा बहुत
है। और इसीलिए
मैं कहता हूं कि
लोहे की दीवाल
से सोने की दीवाल
ज्यादा घातक भी
हो सकती है। क्योंकि
लोहे की दीवाल
तोड़ने में हमको
दिक्कत न होगी,
सोने की दीवाल
तोड़ने में बहुत
दिक्कत हो सकती
है। सोने का भी
मोह साथ होगा।
बुरे
प्रभाव हमको बुरे
दिखाई पड़ते हैं
इसलिए तोड़ने की
उत्सुकता भी मालूम
होती है। अच्छे
प्रभाव अच्छे दिखाई
पड़ते हैं, तोड़ने
में थोड़ी दिक्कत
मालूम पड़ती है।
और अगर यह दिक्कत
मालूम पड़ती है
तो यह और घातक हो
गया।
यानी
मेरा कुल कहना
यह है कि बाहर से
जो भी प्रभाव आया
है वह आच्छादक
है,
वह
आपके स्वयं सत्य को, स्वयं ज्ञान को रोकेगा रुकावट डालेगा, उसे प्रकट नहीं होने देगा।
और आप कहेंगे, फिर महावीर और बुद्ध सिखाते क्या रहे होंगे? अगर बाहर के प्रभाव
सब घातक हैं तो महावीर और बुद्ध सिखाते क्या रहे होंगे?
आपके स्वयं सत्य को, स्वयं ज्ञान को रोकेगा रुकावट डालेगा, उसे प्रकट नहीं होने देगा।
और आप कहेंगे, फिर महावीर और बुद्ध सिखाते क्या रहे होंगे? अगर बाहर के प्रभाव
सब घातक हैं तो महावीर और बुद्ध सिखाते क्या रहे होंगे?
महावीर
और बुद्ध यही सिखाते
रहे हैं कि बाहर
के प्रभाव घातक
हैं,
उनकी निर्जरा
कर देनी है। और
हम ऐसे नासमझ हैं
कि हम उन्हीं के
शास्त्र बना कर,
उन्हीं को प्रभाव
बना कर अपने ऊपर
लादे फिर रहे हैं।
बुद्ध ने कहा लोगों
से कि मेरी पूजा
मत करना, क्योंकि
बाहर कोई पूजने
जैसा नहीं है।
बुद्ध की जितनी
मूर्तियां हैं
इस जमीन पर, और किसी की मूर्तियां
नहीं हैं। और अरबी
और उर्दू में जो
शब्द है बुत, मूर्ति के लिए,
वह बुद्ध का
अपभ्रंश है। यानी
इतनी मूर्तियां
हो गईं बुद्ध की
कि जब पहली दफा
अरब के लोग परिचित
हुए, तो लोगों
से उन्होंने पूछा,
यह क्या है?
तो उन्होंने
कहा, बुद्ध।
तो उनकी भाषा में
बुत शब्द जो है
वह बुद्ध से आया
हुआ है। और बुद्ध
ने कहा था. बाहर
कोई भी नहीं है,
कोई मूर्ति मत
बना कर पूजने लगना।
और आज उसी आदमी
का वह नाम मूर्ति
का पर्यायवाची
है।
हम
करते क्या हैं? जिन
लोगों ने हमें
बाहर के प्रभाव
से मुक्त करने
की कोशिश की है,
हमने उनके प्रति
प्रेम और श्रद्धा
में उनको ही पकड़
लिया है और उनके
ही प्रभाव को ग्रहण
कर लिया है।
अगर
कोई महावीर को
ठीक से समझेगा, तो
सबसे तो मुक्त
हो ही जाएगा, महावीर से भी
मुक्त हो जाएगा।
नहीं तो फिर ठीक
से समझा नहीं।
मेरी बात समझिए।
उनकी अनुकंपा समझिए,
वे सदगुरु हैं
इस जगत में, जो आपको सबसे
तो मुक्त कर ही
दें, लेकिन
अपने से न बांध
लें। नहीं तो बंधन
शुरू हो गया। अगर
महावीर यह कहें
कि तुम सब छोड़ दो
और मेरी शरण आ जाओ,
तो सब नहीं छूटा।
महावीर की शरण
बाहर है न! कि महावीर
की शरण भीतर है?
क्या वे चरण
भीतर हैं आपके?
जो भी चीज पकड़ी
जा सकती है, बाहर होगी। महावीर
सदगुरु इस अर्थों
में हैं कि वे सारे
बाहर से तो आपको
मुक्त करते हैं
और यह भी स्मरण
दिला देते हैं
कि उनको मत पकड़
लेना, अन्यथा
फिर वही का वही
शुरू। मेरा कहना
है कि सदगुरु वह
है जो सबसे तो आपको
छुड़ा दे और अपने
से भी न बांधे,
अपने से भी न
बांधे। असदगुरु
वह है जो सबसे तो
छुड़ाए और अपने
चरणों को पकड़ने
के लिए कहे कि ये
पकड़ लो। वह असदगुरु
है।
यह
जो मैं कह रहा हूं
इसलिए कह रहा हूं
कि आपको जो शुभ
प्रभाव मालूम होते
हैं,
मैं उनको अशुभ
नहीं कह रहा, घातक कह रहा हूं।
अशुभ प्रभाव अलग
हैं, शुभ प्रभाव
अलग हैं, लेकिन
दोनों घातक हैं।
और घातक इस अर्थ
में हैं कि वे आच्छादक
हैं, वे आपको
बाहर से रोकते
हैं। उनके प्रति
अपरिग्रह चाहिए।
विचार के जगत में
विचारों के प्रति
अपरिग्रह रखिए।
कितना ही प्रीतिकर
और कितना ही शुभ
विचार मालूम पड़े,
जानिए कि मेरा
नहीं है। इसे स्मरणपूर्वक
जानिए कि मेरा
नहीं है। तो जब
चित्त शांत करने
में आप जाने लगेंगे,
तो वह जो पराया
विचार है उसका
छूटना आसान होगा,
क्योंकि हम उसे
पकड़े हुए नहीं
होंगे। अन्यथा
हम एक तरफ सोचते
हैं कि विचार शांत
हो जाएं और दूसरी
तरफ शुभ विचारों
को पकड़े रखते हैं,
तो फिर बहुत
मुश्किल है। फिर
कैसे संभव होगा?
वे शांत कैसे
होंगे? जब उनको
हम समझते हैं कि
वे बड़े महान हैं,
और बड़े ऊंचे
हैं, और जरूरी
हैं, और बड़े
कीमती हैं, तो उन कीमती चीजों
को छोड़ना संभव
कैसे होगा? इसके पहले कि
कोई हीरे—जवाहरातों
को मुट्ठी से नीचे
फेंक दे, यह
जान लेना जरूरी
है कि वे हीरे—जवाहरात
नहीं, कंकड़—पत्थर
हैं। नहीं तो फेंक
नहीं सकेगा, मुट्ठी खोलेगा
और फिर बांध लेगा।
तो
आपको मैं इसलिए
कह रहा हूं कि विचार
को समझें कि उधार
है। कितने ही श्रेष्ठ
पुरुष से आया हो, आपका
नहीं है, इसे
स्मरण रखें! और
स्मरण रखें कि
बाहर से आया है,
वह आश्रव है।
फिर उस आश्रव को
निर्जरा कर देने
के पूर्व, निर्जरा
तो ध्यान से होगी,
लेकिन यह भाव
अपरिग्रह का सहयोगी
होगा। तो विचार
के तल पर पहली चीज
है. विचार के प्रति
अपरिग्रह भाव।
दूसरा
सूत्र है विचार
के प्रति अपरिग्रह
भाव जो हमारे भीतर
है,
जो हमारे भीतर
आ गया उसके प्रति
अपरिग्रह, जो
अभी हमारे भीतर
आया नहीं लेकिन
बाहर है उसके प्रति
तटस्थता। दो विचार
आपके सामने खड़े
हैं, उनके प्रति
तटस्थता। उनमें
से किसी का भी चुनाव
नहीं, उनमें
से किसी भी विकल्प
को पकड़ लेना नहीं।
कोई
जैन धर्म को पकड़े
हुए है, कोई इस्लाम
को पकड़े हुए है,
कोई ईसाइयत को
पकड़े हुए है। जो
ईसाइयत को पकड़े
हुए है, वह जैन
ग्रंथ या जैन शब्द
या जैन विचार को
सुनते ही, सुन
भी नहीं सकता,
तटस्थ नहीं है।
पकड़े हुए है एक
को पहले से, उसके प्रति पक्षपातग्रस्त
है, वह उसकी
प्रिज्यूडिस है।
दूसरे विचार को
सुन भी नहीं सकता,
समझ भी नहीं
सकता। हम इतने
प्रिज्यूडिस्ट
हैं, हम इतने
पक्षपात से घिरे
हैं कि हम दूसरे
विचार को सुन भी
नहीं पाते हैं।
समझ तो दूर की बात
है, सुन नहीं
पाते हैं। सुनते
ही, हमारा जो
पक्षपात है, खड़ा हो जाता है
बीच में।
अभी
सुबह मैं किसी
मित्र से बात करता
था। उनसे मैं बात
कर रहा हूं लेकिन
वे मेरी बात नहीं
सुन रहे हैं। मैं
बात समाप्त किया, उन्होंने
दूसरा प्रश्न शुरू
कर दिया, जिसका
पहले प्रश्न से
कोई संबंध न था।
तो मैंने उनको
कहा, जब मैं
बात करता था तब
आप यह सोचते रहे
होंगे जो आप बोल
रहे हैं।
वे
बोले ही, यह मैं
सोच रहा था।
तो
अगर आप यह सोच रहे
थे तो मुझे सुन
कैसे रहे होंगे? सुनना
और सोचना साथ नहीं
हो सकता।
लेकिन
हम सब सुन रहे हैं
साथ सोच रहे हैं।
वह जो सोचना है, वह
हमारी तटस्थता
का अभाव है। अगर
आप महावीर के सामने
भी मौजूद हों,
उनको भी आप नहीं
सुन पाएंगे। क्योंकि
आप सोचेंगे। महावीर
ने उसको श्रावक
कहा है, जो सुनते
वक्त सोचता नहीं,
सिर्फ सुनता
है, वह श्रावक
है। आप श्रोता
हो सकते हैं, श्रावक नहीं
हैं। और सत्य को
जानने के लिए श्रावक
होने की जरूरत
है। श्रावक होने
का मतलब है तटस्थ
है व्यक्ति, कोई पक्षपात
नहीं है, सुन
रहा है। सुनते
समय न विरोध है
उसके मन में न स्वीकार
है। स्वीकार से
भी पक्ष आ जाएगा,
विरोध से भी
पक्ष आ जाएगा।
न स्वीकार है,
न विरोध है।
सिर्फ सुन रहा
है, सिर्फ समझ
रहा है।
अगर
इतनी क्षमता आप
पैदा करें विचार
के तल पर, तो आप हैरान
होंगे, सारी
दुनिया सांप्रदायिकता
से मुक्त हो जाए
और सारी दुनिया
धर्म से भर जाए।
अगर विचार के तल
पर तटस्थता हो,
इस दुनिया में
विचार के तल पर
विवाद बंद हो जाएं,
संवाद शुरू हो
जाएं। विवाद और
संवाद में यही
फर्क है। अगर आप
तटस्थ नहीं हैं
तो विचार विवाद
लाएगा और अगर आप
तटस्थ हैं तो विचार
संवाद लाएगा।
अभी
मैं सुबह एक घटना
सुनाता था। जुंग
एक मनोवैज्ञानिक
हैं। वे कुछ पागलों
का अध्ययन करते
थे। दो पागलों
को उन्होंने अपने
घर में ठहराया
हुआ था। वे दोनों
पढ़े—लिखे विद्वान
थे,
दोनों किन्हीं
कालेजों में अध्यापक
थे। वे उनका अध्ययन
करते थे। एक दिन
सुबह उन्होंने
देखा, वे दोनों
अपने कमरे में
बैठे हैं और बड़ी
चर्चा में मशगूल,
बड़ी चर्चा में
संलग्न हैं। बुर्जग
पीछे खिड़की से
सुनता रहा कि वे
क्या बातें कर
रहे हैं? बहुत
हैरान हुआ, वे बातें ऐसी
कर रहे थे जिनका
एक—दूसरे से कोई
संबंध नहीं था!
एक कुछ कह रहा था,
दूसरा बिलकुल
दूसरे छोर की कुछ
कह रहा था। उनमें
कोई किसी तरह का
संबंध, किसी
तरह का संबंध नहीं
था। लेकिन एक बात
और उसने हैरानी
की देखी.. .यह तो ठीक
ही था, पागल
थे, यह तो ठीक
ही था कि इस तरह
बात करें, लेकिन
एक और अजीब बात
देखी जिससे वह
हैरान हुआ—जब एक
बोलता था तो दूसरा
चुप रहता था। जब
एक बोलता, दूसरा
बिलकुल चुप होकर
सुनता। जब वह बंद
हो जाता तो दूसरा
बात शुरू करता,
लेकिन बात का
कोई संबंध उसकी
बात से होता ही
नहीं!
तो
जुंग ने कहा पागल
हैं,
अनर्गल बात कर
रहे हैं, यह
तो ठीक है, लेकिन
यह चुप रहना बड़ी
होशियारी की बात
है! वह अंदर गया
और उसने पूछा कि
हम एक बात पूछना
चाहते हैं। आप
बिलकुल अनर्गल
बातें कर रहे हैं,
लेकिन जब एक
बोलता है, दूसरा
चुप क्यों रहता
है?
वे
बोले हमें कनवरसेशन
का नियम मालूम
है कि जब एक बोले, दूसरा
चुप रहे जब वह बंद
हो जाए तब शुरू
करे— यह हमको बिलकुल
मालूम है।
आप
सोचते हैं आप जो
करते हैं वह भी
इस कनवरसेशन से
भिन्न है? जब
एक बोलता है तब
आप केवल कनवरसेशन
के नियम की वजह
से—कि जब एक बोले,
दूसरे का बोलना
ठीक नहीं— आप चुप
बैठे रहते हैं।
लेकिन आप चुप नहीं
बैठे रहते, आप उस वक्त तैयारी
में हैं जो आप बोलेंगे,
वह जब समाप्त
करेगा तो आप बोलना
शुरू करेंगे। जब
वह बोल रहा है तब
आप तैयारी कर रहे
हैं बोलने की,
सुन नहीं रहे
हैं। एकदम पागल
नहीं हैं, इसलिए
जब वह बोलना समाप्त
करेगा तो आप अनर्गल
नहीं बोलेंगे,
उसके बोलने के
अंतिम हिस्से में
से कोई बात पकड़
कर और उसके निमित्त
को लेकर जो आपने
तैयार किया है
उसको बोलना शुरू
कर देंगे। तब आप
में और पागल में
फर्क है। कोई एक
बात उसमें से पकड़
लेंगे —एंटी की
तरह, आधार हो
जाएगी वह, ताकि
संबंध मालूम पड़े,
बाकी हमारी बातचीत
में कोई संबंध
नहीं है। संबंध
हो नहीं सकता।
यह
कनवरसेशन है, कम्मुनिकेशन
नहीं है। यह विवाद
है, संवाद नहीं
है। संवाद तब होता
है जब विचार के
प्रति, अपने
संगृहीत विचार
के प्रति अपरिग्रह
होता है और जब सामने
उपस्थित विचार
के प्रति तटस्थता,
न्तुलिटी होती।
कोई पक्षपात नहीं
है आपको, आप
पूर्व से निर्णीत
नहीं हैं कि यह
जो कह रहा है गलत
है या यह जो कह रहा
है सही ही है।
एक
आस्तिक के सामने
कहो—ईश्वर नहीं
है। बस, वह इसको
सुन थोड़े ही सकेगा।
ईश्वर नहीं है,
यह सुनते से
ही वह उद्विग्न
हो जाएगा, अशांत
हो जाएगा और तैयारी
करेगा कि क्या
करूं कि सिद्ध
कर दूं कि ईश्वर
है! एक नास्तिक
से कहो—ईश्वर है।
वह सुन नहीं सकेगा।
यह शब्द उसके कान
में पड़ा कि वह तैयारी
में लग गया कि मैं
सिद्ध कैसे कर
दूं कि ईश्वर नहीं
है! वे दोनों सुन
नहीं रहे हैं।
वे दोनों बहरे
हैं। और जो विचार
के तल पर बहरा है
वह दुनिया में
बड़ा अविचार पैदा
करवा देता है।
हम
सारी दुनिया में
जो अविचार से भरे
हुए हैं वह विचार
के तल पर बहरे होने
की के विपरीत में
सत्य नहीं पड़ता।
अगर मैं सत्य कहूंगा
वह महावीर के विपरीत
नहीं है आपके विपरीत
पड़ सकता है। सत्य
कभी भी किसी सत्य
के विपरीत में
नहीं है। लेकिन
जो समाज के ढांचे
हैं उनके विपरीत
में पड़ जाता है।
तो
जिसको सत्य को
अनुभव करना हो, उसे
समाज से मुक्त
हो जाना जरूरी
है।
समाज
से मुक्त होने
का एक थोथा अर्थ
लोगों ने ले लिया
कि घर छोड़ कर जंगल
चले जाओ। उससे
आप क्या समाज से
मुक्त होओगे? जो
घर छोड़ कर जंगल
में चला गया है
वह समाज से अभी
भी बंधा हुआ है।
वह वही शास्त्र
याद कर रहा है जंगल
में बैठ कर जो समाज
ने उसको सिखाए
थे। और वही पूजा
और क्रियाकांड
कर रहा है जो समाज
ने उसे सिखाए थे।
वह समाज से भाग
गया है लेकिन समाज
की जो दिमागी गुलामी
है वह उसके साथ
जंगल में बनी रहेगी,
वह वही कर रहा
है।
समाज
से मुक्त होने
का मतलब है समाज
ने जो पैटर्न आपको
दिया है, आप उसको
अंगीकार न कर लें।
यह आत्मा का अपमान
है। यह अपनी आत्मा
का अपमान है कि
मैं दूसरे के ढांचे
को अंगीकार कर
लूं और उस ढांचे
में बंद हो जाऊं।
मुझे स्वतंत्रता
कायम रखनी चाहिए
कम से कम विचार
के तल पर तो। वहां
तो कोई बाधा नहीं
है। यह ठीक है कि
आप कपड़े पहनते
हैं, मैं कपड़े
पहनता हूं और अगर
कपड़े न पहनूं और
नंगा धूमूं तो
अशोभन होगा और
आपको दिक्कत होगी,
क्योंकि मेरा
नंगा घूमना बाहर
के तल पर एक असुविधा
लाएगा। लेकिन कम
से कम आंतरिक तल
पर, वहां तो
मैं आपको कोई असुविधा
नहीं दे रहा। वहां
तो कम से कम मैं
किसी ढांचे को
अंगीकार न करूं,
वहां तो मैं
स्वतंत्र जीवन—
ज्योति को कायम
करने की कोशिश
करूं। स्वतंत्रता
ही और स्वतंत्र
साधना ही अंतत:
व्यक्ति को सत्य
के करीब ले जाती
है। परतंत्रता
सत्य के करीब नहीं
ले जा सकती है।
तो
तीसरा मैं विचार
के तल पर आपको कहता
हूं : स्वतंत्र
भावना।
अपरिग्रह, तटस्थता
और स्वतंत्र बोध,
अगर ये तीन बातें
विचार के तल पर
हों फिर आप शास्त्र
पढ़िए, मुझे
कोई दिक्कत नहीं,
मुझे कोई इनकार
नहीं है।
मुझसे
लोग पूछते हैं
बार—बार कि हम शास्त्र
न पढ़ें मुझसे आज
कोई पूछा कि आप
तो पढ़ लेते हैं, हमको
क्यों कहते हैं
कि मत पढ़ें
मैंने
उनको कहा वे ठीक
कह रहे हैं। एक
तैराक नदी में
तैरता हो और आपसे
कहे कि कूद मत पड़ना, तो
आप कहते हैं कि
तुम कूदे चले जा
रहे हो और मुझसे
कहते हैं कूद मत
पड़ना। तो वह इतना
ही कहेगा, अगर
तैरना सीख गए हैं
तो कूद आएं और नहीं
सीखे हैं तो थोड़ा
रुक जाएं।
यानी
सवाल यह नहीं है
कि आप तैरें या
न तैरें। सवाल
यह है कि तैरना
आता है? ये तीन
तत्व हैं विचार
के तल पर, अगर
आते हों तो शास्त्रों
में तैर जाइए।
कोई शास्त्र आपको
नुकसान नहीं पहुंचा
सकेंगे, वे
शास्त्र सब आपके
लिए सहयोगी हो
जाएंगे। और अगर
ये तीन तत्व नहीं
आते, तो कृपा
करके रुकिए। फिर
अभी योग्यता नहीं
कि शास्त्र में
प्रवेश कर जाएं।
अगर आप विचार—अपरिग्रह
को रख सकते हैं,
तो किसी का विचार
आपको नुकसान नहीं
पहुंचा सकता। अगर
आप तटस्थ रह सकते
हैं, तो कोई
संप्रदाय, कोई
परंपरा आपकी प्रिज्यूडिस,
पक्षपात नहीं
बन सकती। और अगर
आप स्वतंत्र रह
सकते हैं, तो
कोई विचार का ढांचा
आपको गुलामी,
दिमागी गुलामी
नहीं दे सकता।
अगर
ये तीन बातें आपके
भीतर हों तो शास्त्र
आपको नुकसान नहीं
पहुंचा सकता। सत्य
तो शास्त्र से
नहीं मिलेगा, लेकिन
अगर ये तीन बातें
आपके भीतर हों
तो शास्त्र घातक
नहीं होगा। वह
घातकता मैंने कही
न आच्छादन है,
तो अगर ये तीन
बातें आपके भीतर
हैं तो शास्त्र
आच्छादक नहीं हो
सकता। तो शास्त्र
के अध्ययन के पूर्व
एक साधना से गुजरना
जरूरी है तब शास्त्र
अर्थ का हो सकता
है, उसके पहले
बेमानी है।
तो
अगर यह बात आपको
समझ में पड़े और
मैं आपको कहूं
कि महावीर या बुद्ध
के पास जो लोग जाते
थे,
आपको पता है
वे शास्त्र पढ़ने
को कहते थे? कोई एकाध उल्लेख
है कि महावीर के
पास लोग गए हों
और उन्होंने कहा
हो कि जाओ शास्त्रों
का अध्ययन करो?
कोई है आपकी
स्मृति में कोई
उल्लेख कि जहां
महावीर ने शिक्षा
दी हो कि शास्त्रों
का अध्ययन करो
और पहले तत्वज्ञान
रट कर आओ तब कुछ
होगा? या कि
बुद्ध का, या
कि क्राइस्ट का,
किसी का भी! क्राइस्ट
का तो स्पष्ट उल्लेख
है कि शास्त्रों
से सावधान! क्योंकि
शैतान भी शास्त्र
उद्धृत कर सकता
है।
यानी
सवाल यह है, शैतान
भी शास्त्र उद्धृत
कर सकता है। बल्कि
सच तो यह है, अक्सर शैतान
ही शास्त्र उद्धृत
करता है, अक्सर!
क्योंकि जहां आप
कमजोर होते हैं
वहीं आप शास्त्र
का उद्धरण करते
हैं। और जहां आप
कुछ नहीं समझते
वहां तत्काल शास्त्र
का उद्धरण शुरू
हो जाता है। जितना
अज्ञान उतना शास्त्र
का उद्धरण। उतना
ही रामायण की चौपाइयां
दोहराने वाला आदमी
मिल जाएगा आपको।
उसे खुद कुछ समझ
में नहीं आ रहा,
वह रटी हुई तोते
की तरह बातें दोहरा
देगा।
यह
जो मैं कह रहा हूं
शास्त्र घातक नहीं
होगा, अगर ये तीन
तत्व आपके विचार
के तल पर हैं। और
अगर ये तीन तत्व
आपके विचार के
तल पर हैं, तो
आप शून्य ध्यान
में प्रवेश करने
की योग्यता को
उपलब्ध हो जाएंगे।
यूं
मैंने तीन वर्गों
में नौ बातें कहीं।
एक शरीर के तल पर
सम्यक आहार, सम्यक
व्यायाम, सम्यक
निद्रा— शरीर के
तल पर। भाव के तल
पर समस्त जगत के
प्रति मैत्री—
भाव, कर्मों
के प्रति अनासक्ति
भाव और संवेदनाओं
के प्रति समता
का भाव। और विचार
के तल पर : तटस्थता,
अपरिग्रह और
स्वतंत्रता। अगर
ये नौ बातें आपके
स्मरण में हैं
तो इन नौ से वह भूमिका
बनेगी, वह अदभुत
भूमिका बनेगी कि
जिस तीन ध्यान
की मैं बात कर रहा
हूं अगर इस भूमिका
के साथ संयुक्त
होकर आपने उनका
प्रयोग किया,
तो कोई भी वजह
नहीं है कोई भी
कारण नहीं है कि
सत्य आपको उपलब्ध
न हो जाए।
पूछा
है किसी ने कि मीरा
और कबीर कहते हैं
कि बड़ा कठिन है, बड़ा
मुश्किल है और
भगवान मिलता नहीं
है, रोते हैं
तड़फते हैं। तो
तुमने पूछा कि
हम लोग तो मीरा
और कबीर जैसे भी
नहीं हैं। वे रोते
हैं, तड़फते
हैं, खोजते
हैं और फिर कहते
हैं, भगवान
मिलता नहीं और
बड़ा मुश्किल है।
तो हमको कैसे मिलेगा?
स्वाभाविक
है! स्वाभाविक
है कि हम पूछें
कि कबीर और मीरा
जैसे लोग रो—रो
कर कहते हैं कि
भगवान मिलता नहीं
और बड़ा कठिन है, बड़ा
दुर्गम है और बड़ी
खड़ग की धार पर चलना
है। तो हम सीधे—सादे
लोग, हमको कैसे
मिल जाएगा?
यह
प्रश्न उपयोगी
हो सकता है, अगर
यह केवल एक एस्केप
न हो। अगर यह केवल
एक बचाव न हो मीरा
और कबीर का नाम
लेकर अपने को बचा
लेने का—कि जब मीरा
और कबीर को नहीं
मिलता तो हमको
क्या मिलेगा?
इसलिए मिलने
की कोशिश क्यों
करें? तो पहली
तो बात मैं आपसे
कहूं कि मीरा और
कबीर आपसे बहुत
भिन्न नहीं हैं।
इस भ्रम में कभी
मत पड़ना कि वे भिन्न
हैं। कुछ भी भिन्न
नहीं हैं। क्या
भिन्नता है? और यह भ्रम आप
क्यों स्वीकार
करते हैं कि कबीर
और मीरा से आप बहुत
नीचे हैं और कहीं
ऊंचे हैं? जगत
में दो ही तरह के
लोग हैं एक जो जानते
हैं और एक जो नहीं
जानते। तीसरी तरह
के कोई लोग नहीं
हैं। और जो नहीं
जानते उनमें कोई
छोटा—बड़ा नहीं
नहीं जानने के
मामले में। दुनिया
में दो ही तरह के
लोग हैं जो जानते
हैं और जो नहीं
जानते। जो नहीं
जानते वे नहीं
जानने के तल पर
सब समान हैं। ही,
यह हो सकता है
कि आप मीरा जैसा
गीत न गा सकते हों।
तो गीत न गाने से
भगवान के मिलने
का कौन सा वास्ता
है? यह हो सकता
है कि आप कबीर की
तरह बुद्धिमान
न हों। लेकिन बुद्धिमत्ता
से भगवान के मिलने
का कौन सा वास्ता
है? भगवान से
मिलने की जो क्षमता
है वह प्रत्येक
व्यक्ति में समान
है। उसमें कोई
मीरा और कबीर और
आपमें कोई भेद
नहीं है।
भेद
कहां शुरू होता
है?
जो
मैंने कल आपसे
कहा—वह प्यास का
भेद है। क्षमता
में भेद नहीं है, वह
भेद प्यास का है।
वह प्यास आपमें
गहरी हो जाए, आप मीरा हो जाओगे
आप कबीर हो जाओगे।
और
अगर किसी को कठिन
लगता हो कि सत्य
को पाना बहुत कठिन
है,
तो कई बातें
विचारणीय हो जाती
हैं।
इस
मकान पर ताला लगा
हो,
मैं आऊं और हथौड़े
से ताले को तोर्डू,
और ताला न टूटे
तो मैं फिर चिल्ला
कर लोगों से कहूं
कि बड़ा मुश्किल
है इस घर में प्रवेश,
यह ताला तो खुलता
नहीं। तो प्रवेश
मुश्किल है या
कि मैं ताला खोलना
नहीं जान रहा हूं?
और हो सकता है
हथौड़े से ठोकने
की वजह से, बाद
में चाबी भी मिल
जाए तो वह काम न
करे। और तब मैं
कहूं कि चाबी भी
मिल गई तब भी बहुत
मुश्किल है।
हममें
से अधिक लोग सत्य
के दरवाजे पर ताले
के साथ गलत व्यवहार
करते हैं। और तब
सारी गड़बड़ शुरू
हो जाती है। तब
सारी गड़बड़ शुरू
हो जाती है। कोई
सत्य को मान रहा
है कि वह पति है, कोई
सत्य को मान रहा
है कि वह पिता है,
कोई सत्य को
मान रहा है कि वह
मां है, कोई
सत्य को मान रहा
है कि वह बाप है।
जो संबंध हमारे
परिवार के हैं
वे हम सत्य और परमात्मा
पर लागू कर रहे
हैं और उनकी तलाश
में चले जा रहे
हैं। वही रिलेशनशिप,
वही संबंध जो
हमारे लोगों से
हैं, हम परमात्मा
पर भी आरोपित कर
रहे हैं और उनकी
तलाश कर रहे हैं।
परमात्मा
को पाना हो तो असंग
होना पड़ता है, सारा
संग का भाव छोड़
देना होता है।
अब ताले पर आप हथौड़ा
ठोक रहे हैं। पति
की तलाश है मीरा
को। वह परमात्मा
जो है पति— रूप है।
वह उनकी तलाश में
है। यह मीरा की
कल्पना है। भगवान
पति—रूप नहीं हो
सकते। भगवान से
कोई संबंध हमारा
नहीं हो सकता,
क्योंकि भगवान
से अगर हमारा संबंध
हो जाए तो वे संसार
के हिस्से हो जाएं।
भगवान को हम उस
समय उपलब्ध होते
हैं जब हमारे मन
में सारे संबंधों
का भाव विलीन हो
जाता है। जब हम
असंग हो जाते हैं
तो हम भगवान को
उपलब्ध होते हैं।
असंगता में भगवान
उपलब्ध होते हैं,
संबंधों की कल्पना
में भगवान उपलब्ध
नहीं होते।
तो
मीरा के भजन तो
बहुत बढ़िया हैं, कौन
उनको मना करेगा?
लेकिन मैं आपको
सलाह नहीं दे सकता
कि आप अगर पति—रूप
भगवान की खोज में
निकल जाएं और वह
न मिलें तो आप समझें
कि उनका मिलना
कठिन है। आप अपनी
भूल में हैं। आप
ताले को व्यर्थ
ठोक रहे हैं। आपके
भीतर इच्छाएं काम
कर रही हैं भगवान
को पाने में भी,
आप इच्छा को
ही प्रबल बना रहे
हैं, जब कि वह
इच्छाशून्यता
पर उपलब्ध होगा।
तो अब आप उलटे चले
गए, इसमें कोई
क्या करेगा? तो अगर मीरा को
लगे कि बड़ा कठिन
है, तो इसमें
कोई गलती भगवान
की नहीं है और न
भगवान को पाने
के रास्ते की है।
गलती होगी तो मीरा
की होगी। यानी
मेरा कहना है कि
भगवान अकेली चीज
है जो इस जगत में
सबसे सरल है उपलब्ध
करना। क्योंकि
हम कहते हैं कि
वह हमारा स्वरूप
है। इस जगत में
किसी भी चीज को
पाना कठिन हो सकता
है, भगवान को
पाना कठिन नहीं
हो सकता। और आज
तक इस जमीन पर जगत
में किसी ने भी
जगत की तो कोई चीज
आज तक नहीं पाई
है। आज तक नहीं
पाई है। अगर किन्हीं
ने पाया है तो भगवान
को ही पाया है।
आप
जानते हैं आपने
जगत में कौन सी
चीज पा ली है? कुछ
पा लिया है? आज तक
पूरे मनुष्य के इतिहास में कोई मनुष्य जगत में कोई चीज नहीं पा सका है। जगत को पाना
असंभव है।
पूरे मनुष्य के इतिहास में कोई मनुष्य जगत में कोई चीज नहीं पा सका है। जगत को पाना
असंभव है।
असल
में पर को पाना
असंभव है, उसे
पाया नहीं जा सकता।
आप भ्रम में हो
सकतै हैं पाने
के, लेकिन पाया
नहीं जा सकता।
और आपका भ्रम मौत
तोड़ देती है कि
नहीं पाया था।
जिन प्रियजनों
को आपने पाया था,
मौत भ्रम तोड़
देती है कि नहीं
पाया था। जिस धन
को पाया था, मौत भ्रम तोड़
देती है कि नहीं
पाया था। जिस राज्य
को पा लिया था सिकंदरों
ने या नेपोलियनों
ने, मौत ने पता
बता दिया कि कुछ
नहीं पाया। आप
खयाल में थे, आप भ्रम में थे
कि पाया, मौत
झटक देती है। जिसे
मौत छीन लेती है
वह पाना क्या है?
वह पाना बिलकुल
नहीं हो सकता।
वह आप धोखे में
थे। मौत परीक्षक
है। यानी मौत परीक्षा
है कि आपने कुछ
पाया कि नहीं पाया?
जिसे मौत छीन
लेती है वह आपने
नहीं पाया। आप
भ्रम में थे। जिसे
मौत न छीन सके वह
आपने पाया।
तो
मैं आपको कहूं
संसार को पाना
असंभव है। कठिन
ही नहीं, असंभव।
और भगवान को पाना
बिलकुल संभव है
और एकदम सरल है,
कठिन बिलकुल
नहीं। और आज तक
जब भी किसी ने पाया
है तो सिर्फ भगवान
को पाया है। और
कुछ पाने जैसा
है ही नहीं। पाया
ही नहीं जा सकता।
पर
अब उसकी उसकी चाबी
की बात है कुल।
और अगर जो प्रयोग
की मैं बात कर रहा
हूं अगर उसको ठीक
से समझें, तो
आप हैरान होंगे,
वह पाया जा सकता
है। उसमें कोई
कठिनाई नहीं है।
उसमें बिलकुल भी
कठिनाई नहीं है।
इस
भ्रम को दिमाग
से अलग कर दें कि
वह कठिन है कठिन
है। यह तरकीब है
हमारी। यह हम बचना
चाहते हैं। यह
हम बचना चाहते
हैं,
हम पाना नहीं
चाहते हैं। हम
सोचते हैं बड़ा
कठिन है, इसलिए
छोड़ देते हैं।
और भी एक बात है
कि साधु—तथाकथित
साधु और पंडित—ये
बहुत दोहराते हैं
कि वह बहुत कठिन
है। इस दोहराने
में भी अर्थ है।
अर्थ यह है कि अगर
साधु और पंडित
यह कहें कि वह बिलकुल
सरल है, तो आप
साधु और पंडितों
को आदर देना बंद
कर देंगे। बिलकुल
बंद कर देंगे,
कि अगर बात ही
सरल है तो फिर क्या
है? आप आदर जो
दे रहे हैं उनको
जिनको परमात्मा
उपलब्ध हो जाता
है, उनको आप
आदर इसलिए दे रहे
हैं कि बड़ी दुर्गम
चढ़ाई उन्होंने
चढ़ी, एवरेस्ट
पर चढ़ गए हैं। और
हम जमीन पर खड़े
हुए हैं।
एक
साधु था तिब्बत
में,
वह नब्बे वर्ष
का होकर मरा। जीवन
भर उसके पास सैकड़ों
लोगों ने आकर कहा
कि आप हमें अपना
शिष्य बना लें।
वह कहता, बना
तो लूं लेकिन आप
अभी अपात्र हैं,
आप पात्र नहीं
हैं। ऐसा सैकड़ों
लोग आए और उसने
सभी को अपात्र
कहा। उसके अपात्र
कहने के कारण से
और लोग उत्सुक
उसमें हो गए थे।
वह अदभुत था वैसे,
बहुत शांत प्रतीत
होता, बहुत
आनंद को उपलब्ध
प्रतीत होता। तो
लोग आते उसको खोजते
उसके पहाड़ की चोटी
पर और उससे कहते,
शिष्य बना लें।
वह कहता, बना
तो लूं लेकिन अभी
आप अपात्र हैं,
कोई पात्र आए
तो बनाऊं। जिंदगी
में कोई पात्र
नहीं आया, क्योंकि
पात्र उसने किसी
को माना नहीं।
मरने
के तीन दिन पहले, उसके
पास एक युवक ठहरा
हुआ था आकर, उससे उसने कहा
कि देखो मैं तीन
दिन बाद अपना प्राण
छोड़ दूंगा। अब
तुम नीचे पहाड़ी
से उतर जारओ और
जिनको भी शिष्य
बनना हो सबको बुला
लाओ, क्योंकि
अब मुझे ज्यादा
देर रुकना नहीं
है। तो उसने कहा
: मैं किनको लाऊंगा?
क्योंकि वह जिंदगी
से जानता है कि
हरेक अपात्र है।
तो उसने कहा मैं
किसको लाऊंगा,
पात्र खोजना
मेरी सामर्थ्य
के बाहर है। उसने
कहा तुम किसी को
भी लिवा लाना।
वह
नीचे गया और उसने
गांव में लोगों
से जाकर कहा कि
अब वे तैयार हैं
शिष्य बनाने को, जिनको
भी चलना हो। तो
दस—पंद्रह लोग
जो खाली थे, फुर्सत में थे,
जिनको कोई काम
नहीं था, जो
जिंदगी से एक तरह
से मर ही चुके थे,
वे सब के सब वहां
गए। कोई बेकार
था जो नौकरी से
छुट्टी पर था,
कोई रिटायर हुआ
होगा, कोई कुछ
था, वे सब लोग
वहां गए। वे बड़े
हैरान हुए। लेकिन
उन्होंने उससे
कई दफे रास्ते
में पूछा कि वे
हमको शिष्य बनाएंगे?
क्योंकि बड़े—बड़े
लोग वहां आए, बड़े साधु आए,
उसने इनकार कर
दिया।
खैर
वे गए। उस साधु
ने कहा पहले मैं
इंटरव्यू ले लूं
एक—एक का।
वह
युवक जो लाया था, उसने
कहा : मेहनत बेकार
हुई। नीचे हम गए,
लाए और ये तो
इंटरव्यू के लायक
बिलकुल भी नहीं
हैं। क्योंकि वह
तो रासो में हम
ही को लग रहे हैं
कि अपात्र हैं।
रास्ते भर वे जमाने
की बातें करते
रहे, उनमें
से एक ने भगवान
की चर्चा न की,
न आत्मा की चर्चा
की। घंटों पहाड़ी
रास्ते पर चले,
जमाने भर की
बातें कीं, लड़े—झगड़े। ये
क्या पात्र होंगे!
लेकिन अब ले ही
आया था। उस साधु
ने उस युवक को कहा.
तुम बैठे रहो और
मुझे बताना कौन
पात्र है। उसे
बिठा लिया। एक—एक
को पूछा आप क्यों
भगवान को पाना
चाहते हैं?
उन्होंने
कहा मेरे पास कोई
काम नहीं, सब
काम जो था मैं कर
चुका। अब बिलकुल
बेकाम हूं सोचा कि भगवान को पाऊं।
बेकाम हूं सोचा कि भगवान को पाऊं।
तो
उन्होंने उस युवक
से पूछा. यह पात्र
है?
वह
युवक नीचे सिर
कर लिया कि यह क्या
पागल, जिसको भगवान
एक फिजूल आइटम
की तरह, कोई
काम नहीं है जिससे...
दूसरे
से पूछा। उसने
कहा मैं बेकार
था,
कुछ दिन से नौकरी
भी नहीं, वर्षा
का समय है, खाली
बैठा था, मन
भी नहीं लगता था,
सोचा चलो घूम
ही आएंगे, और
कुछ लाभ होगा।
यूं उनके उत्तर
थे। वह एक—एक के
बाद पूछता गया,
वह युवक तो पसीने
से भर गया, वह
तो थक गया। उसने
सोचा, बेकार
मेहनत की, यही
अगर इंटरव्यू लेना
था तो पहले ही कह
देते, हम लाते
नहीं। आखिर में
उसने उस युवक से
कहा कि बोलो, किसको शिष्य
बना लूं? वह
बोला इनमें तो
कोई भी योग्य नहीं,
मैं आपसे क्या
कहूं!
लेकिन
उस वृद्ध ने कहा
मैं इन सबको शिष्य
बना रहा हूं।
तो
उस युवक ने पूछा
मैं हैरान हूं
कि आप इन सबको शिष्य
बनाएंगे और इतने
लोगों को आपने
वापस लौटाया!
उस
वृद्ध ने कहा. असल
में तब मैं देने
में समर्थ नहीं
था,
इसलिए उनको अपात्र
कह कर टाल देता
था। अब मेरे पास
देने को है, अब तो कैसा ही
पात्र हो, सब
सुपात्र है। उसने
कहा, तब मेरे
पास देने को नहीं
था, इसलिए अपात्र
कह कर टाल देता
था। और आज तो मेरे
पास देने को है,
कैसा ही पात्र
हो, सुपात्र
है। अब तो जो मैं
दूंगा उसको पाकर
वह सुपात्र हो
जाएगा। तब मेरे
पास था ही नहीं
इसलिए टालता था।
आपको
मैं कहूं यह जो
कठिनाई की बात
है,
यह सत्य नहीं
है। या तो वे इसको
कहते हैं जिन्होंने
जाना नहीं और जो
उसे कठिन कह कर
बचाव करते हैं।
या वे कहते हैं
जिन्होंने जानना
नहीं चाहा और केवल
शास्त्र पढ़ लिए
और अपना बचाव करने
का एक उपाय कर लिया
और कहा कि यह कठिन
है।
परमात्मा
को पाना कठिन नहीं
है। इसका मतलब..
.मुझसे कोई पूछता
था परसों कि आप
कहते हैं कठिन
नहीं है और अभी
और यहीं पाया जा
सकता है, तो मुझे
अभी मिला क्यों
नहीं? मेरी
बात यह भ्रम पैदा
करती है कि अगर
कठिन नहीं है और
अभी और यहीं पाया
जा सकता है, तो माथेरान से
हम लेकर क्यों
न लौटें?
तो
आपको मैं कहूं
कठिन तो बिलकुल
नहीं है। वह तो
भ्रम छोड़ दें।
सत्य को पाना तो
कठिन नहीं है आप
बहुत कठिन हैं
इसलिए नहीं पा
पाते हैं। इसे
समझ लें, सत्य को
पाना बिलकुल कठिन
नहीं है, आप
बहुत कठिन हैं।
आप बहुत जटिल हैं,
वह तो बड़ा सरल
है। उससे सरल तो
कोई बात नहीं।
आप बहुत कांप्लेक्स
और आप बहुत जटिल
और उलझे हुए हैं।
यानी कठिनाई आपकी
ग्रंथियों में
है सत्य के पाने
में बिलकुल नहीं
है। इन ग्रंथियों
को खोलने में समय
लग जाता है, सत्य को पाने
में बिलकुल समय
नहीं लगता। इन
ग्रंथियों को जिस
दिन आप खोल कर खड़े
होते हैं—सारा
समय और साधना ग्रंथियां
खोलने में लगता
है—सत्य तो एकदम
मिलता है वह तो
सडन एनलाइटेनमेंट
है, वह तो एकदम
मिलता है।
जैसे
पानी को गरम करते
हैं तो पानी गरम
होता जाता है, गरम
होता जाता है—सौ
डिग्री पर आकर
भाप हो जाता है।
भाप तो वह एकदम
हो जाता है, वह तो बड़ी सरल
बात है पानी का
भाप हो जाना, वह तो कठिन नहीं
है। पानी का गरम
होना, वह थोड़ा
वक्त लेता है।
यानी कठिनाई पानी
के भाप होने में
नहीं है, कठिनाई
पानी के गरम होने
में है।
कठिनाई
आपके सत्य को उपलब्ध
होने में नहीं
है,
कठिनाई आपकी
भूमिका बनने में
है। और वह कठिनाई
आपकी जटिलता है।
और जटिलता हम बनाए
हुए हैं, कोई
दूसरा नहीं। इस
दुनिया में कोई
किसी दूसरे की
जटिलता नहीं बना
रहा है, हम बना
रहे हैं।
तो
मैंने ये नौ सूत्र
कहे,
इन्हें जरा थोड़ा
स्मरणपूर्वक समझना।
अगर ये ठीक इनमें
से कोई समझ में
पड़े तो उसका प्रयोग
करना। और साथ में
उन ध्यान का प्रयोग।
तो आप पाएंगे,
सत्य नहीं मिलेगा,
आप सरल होते
चले जाओगे। आप
एक दिन जब बिलकुल
जटिल न रह जाओगे,
बिलकुल इनोसेंट
और सरल और निर्दोष
हो जाओगे, उस
वक्त सब मिल जाएगा।
यानी सत्य मौजूद
है, हम अपनी
जटिलता की वजह
से उसे नहीं देख
पा रहे हैं। सत्य
निकट है, हम
अपनी जटिलता की
वजह से पीठ किए
हुए हैं। सवाल
सत्य का बिलकुल
नहीं है, सवाल
बिलकुल हमारा है।
मनुष्य
कठिन है, इसलिए
सत्य को पाने में
दिक्कत है। इसलिए
जितने पीछे लौट
जाइए, सत्य
जल्दी मिल जाता
था। तो उसकी वजह
क्या थी?
उसकी
वजह थी मनुष्य
ज्यादा सरल था।
सत्य तो वैसा ही
है,
जैसा कल था वैसा
ही आज है, वैसा
ही परसों होगा।
सत्य की तो कोई
दिक्कत नहीं है,
वह तो वैसा ही
है। उस पर समय का
कोई प्रभाव नहीं
पड़ता। लेकिन मनुष्य
ज्यादा जटिल होता
चला जा रहा है।
जिसको हम सभ्यता
कह रहे हैं वह जटिलता
है। जिसको हम सिविलाइजेशन
कह रहे हैं, वह सभ्यता बिलकुल
नहीं है, वह
केवल जटिलता है,
जिसमें हमारे
और उलझाव और टेंशन्स
घने होते चले जा
रहे हैं। वे इतने
घने होते चले जा
रहे हैं, हम
इतने जटिल हो जाएंगे...
विलियम
जेम्स ने, जिसने
पागलों का और विक्षिप्त
लोगों का बहुत
अध्ययन किया,
उसने लिखा है
जब मैं पहली दफा
पागलखाने गया तो
मैं बहुत हैरान
हुआ और मैंने कहा
कि कितनी अजीब
सी बात है, इतने
लोग पागल हो गए!
फिर मैं बीस वर्ष
तक उनका अध्ययन
किया और अब मरते
वक्त मैं यह कहना
चाहता हूं कि जो
पागल हो गए हैं
वह तो ठीक है, जो पागल नहीं
हुए, यह कितना
चमत्कार है कि
वे पागल क्यों
नहीं हुए? यानी
इतनी जटिल दुनिया,
इतने टेंशन्स
का जगत, जो पागल
हो गए हैं वह तो
ठीक, उनको तो
कोई दिक्कत नहीं
मालूम होती है,
यानी उनका हो
जाना तो स्वाभाविक
है; जो नहीं
पागल हो पा रहे
हैं, ये बड़े
आश्चर्यजनक लोग
हैं!
सभ्यता
हमें धीरे— धीरे
पागलपन की तरफ
ले जा रही है। आप
जानते हैं, पागलों
की संख्या रोज
बढ़ती चली जा रही
है! और आप जानते
हैं कि हममें से
करीब—करीब प्रत्येक
पागल होने के कगार
पर खड़ा है! जरा सा
धक्का और पागल
हो जाएगा जरा सा
धक्का। उसका मकान
गिर जाए, पागल
हो सकता है। उसकी
स्त्री मर जाए,
पागल हो सकता
है। उसकी दुकान
डूब जाए, पागल
हो सकता है। बिलकुल
कगार पर खड़े हैं,
जरा सा धक्का
और आप पागल।
अमरीका
में प्रतिदिन पंद्रह
लाख लोग अपने दिमाग
के इलाजों के लिए
अस्पताल पहुंच
रहे हैं। और यह
संख्या बहुत कम
है। उनका खयाल
है कि इससे तिगुनी
संख्या पहुंचती
नहीं। यह सारी
दुनिया में होगा।
व्यक्तिगत तल पर
पागलपन घना हो
रहा है, क्योंकि
जटिलता बहुत तीव्र
है। और सामूहिक
तल पर भी हम रोज
पागल हो जाते हैं।
कभी दंगा कर लेते
हैं, कभी फसाद
कर लेते हैं, कभी झगड़ा, कभी युद्ध। दो
युद्ध किए, उसमें दस करोड़
लोगों की हत्या
की। यह कोई स्वस्थ
मस्तिष्क दुनिया
में संभव है कि
पचास साल के भीतर
हम दो युद्ध किए
और दस करोड़ लोगों
की हत्या कर दी!
हिरोशिमा
पर जिस दिन एटम
गिराया, दूसरे
दिन सुबह पत्रकारों
ने ट्रूमैन से
पूछा, रात आप
ठीक 'से सोए?
टूमैन बोला,
आज पहली दफा
बहुत आराम से सोया।
एक कंटक टल गया।
एक लाख आदमी मर
गए और एक आदमी कहता
है, मैं रात
आराम से सोया।
इसको आप होश में
कहिएगा? एक
लाख आदमियों को
मार डालने का आदेश
इसका है। रात इसे
दस बजे, ग्यारह
बजे खबर दे दी गई
है कि हिरोशिमा
खाक होने लगा।
यह मजे से अपना
खाना लिया रात
को अपने बच्चों
से प्रेम किया
और सो गया।
आप
सोचते हैं इसने
बच्चों से प्रेम
किया होगा? यह
आदमी बच्चों से
प्रेम कर सकता
है? वहां एक
लाख लोगों में
कोई बीस हजार बच्चे
रहे होंगे। वहां
एक लाख लोगों में
कोई पचास हजार
स्त्रियां रही
होंगी। यह अपनी
स्त्री को प्रेम
कर सकता है? यह धोखा दे रहा
है! और यह रात भर
मजे से सो सका।
इसको आप होश में
कहिएगा? इस
आदमी को पागल कहिएगा
या होश में कहिएगा?
और अगर यह आदमी
पागल है तो आप कोई
होश में हैं? एक बिलकुल पागलों
की दुनिया है,
जो रोज पागल
होती चली जा रही
है। और इसका अंतिम
परिणाम यह हो सकता
है एक दिन कि हम
सब मिल कर एक—दूसरे
को बिलकुल खत्म
कर लें, जो कि
करीब संभव है।
अगर दुनिया में
धर्म वापस पुनरुज्जीवित
नहीं होता तो यह
बिलकुल संभव है
कि सारी दुनिया
पागल हो जाए और
हम अपने आपको समाप्त
कर लें। और हम उसके
करीब पहुंचते चले
जा रहे हैं—व्यक्तिगत
रूप से भी और सामूहिक
रूप से भी। जटिलता
हम में बड़ी है जो
हमें पागल किए
दे रही है।
पागल
और साधु विपरीत
हैं। आपने साधारणत:
सोचा होगा कि बुरा
आदमी और साधु विपरीत
हैं। मैं ऐसा नहीं
सोचता। मेरी बात
समझ लेना आप। आपने
साधारणत: सोचा
होगा. बुरा आदमी
अनाचारी, दुराचारी
ये और साधु विपरीत
हैं। मैं ऐसा नहीं
सोचता। साधु और
पागल विपरीत हैं।
अनाचारी और दुराचारी
के विपरीत सज्जन
है, जो अनाचार
नहीं करता, दुराचार नहीं
करता। अनाचारी
के विपरीत असज्जन
के विपरीत सज्जन
पुरुष है। पागल
के विपरीत साधु
पुरुष है। दुराचारी
और सज्जन, दोनों
ही पागल हो सकते
हैं। यानी वे पागलपन
की ही किन्हीं
कोटियों में होंगे।
जो पागल हैं या
पागल हो सकते हैं
वे पागलपन की ही
किन्हीं कोटियों
में होंगे। साधु
पागल नहीं हो सकता।
उसके दिमाग की
सारी जटिलता विलीन
हो गई है जिससे
कि कोई पागल हो
सकता है।
महावीर
या बुद्ध उस जगह
हैं जहां पागलपन
असंभव हो गया है, जहां
इनसेनिटी नहीं
हो सकती। वे अकेले
सेन, अकेले
वैसे लोग हैं जो
विक्षिप्त नहीं
हैं। तो मैंने
कहा, विमुक्त
और विक्षिप्त विपरीत
हैं। आप जितने
कम विक्षिप्त होते
चले जाएंगे उतने
आप विमुक्त होते
चले जाएंगे। जितना
आपका चित्त जटिलता
से सरलता में आता
चला जाएगा उतने
आप साधु होते चले
जाएंगे। ये कुछ
सूत्र मैंने समझाए,
ये ध्यान के
लिए भूमिका मात्र
हैं। वास्तविक
चीज तो उस भूमिका
में फिर ध्यान
के बीज डालना है।
अब
हम सुबह के प्रयोग
को बैठें।
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