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सोमवार, 22 अगस्त 2016

समाधि कमल--(प्रवचन--01)

जीवन की सहज स्वीकृति—(प्रवचन—पहला)

क बात जो मैंने रात को आपको कही वह इस संबंध में थी कि हम जीवन को एक स्वीकार दे सकें। जीवन की स्वीकृति एक साधना है। जैसा जीवन उपलब्ध हुआ है हम यदि उसे वैसा ही स्वीकार कर सकें यदि हम उसे वैसा ही देख सकें तो एक क्रांति, एक ट्रांसफार्मेशन अपने आप होना
शुरू हो जाता है।
साधारणत: हम अपने से लड़ते हैं संघर्ष करते हैं। और जैसे हम बाहर के जगत में संघर्ष करते हैं वैसे ही अपने मन के जगत में भी संघर्ष करते हैं। मैं संघर्ष के विरोध में हूं। यह प्राथमिक रूप से आपको समझा दूं यह हमारी पहली बैठक है, यह आपको समझा दूं कि मैं संघर्ष के विरोध में हूं।
मैं आपको अपने मन से लड़ने के लिए, विरोध करने के लिए नहीं कहने को हूं। मैं आपसे कहना चाहता हूं इसके पूर्व कि हम मन के साथ कुछ भी करें हमारा मन को जान लेना, मन से ठीक तरह परिचित हो जाना जरूरी है।

हमारी शिक्षा, हमारे संस्कार, हमारे धर्म हमें मन से संघर्ष सिखाते हैं। वे हमें सिखाते हैं, अपने मन से लड़ने को। वे हमें सिखाते हैं, हमारे मन में जो बुरा है, उसे अलग कर देने को। मन में जो बुराई है, जो पाप है, उससे युद्ध करने को हमारी शिक्षा हमें सिखाती है।
इस शिक्षा का परिणाम होता है हम दो आदमियों में विभाजित हो जाते हैं। हम अपने से
ही लड़ने लगते हैं। हमारे भीतर दो हिस्से हो जाते हैं—एक वह आदमी जो लड़ रहा है और
एक वह आदमी जिससे हम लड़ रहे हैं।
इस तरह के संघर्ष के परिणाम में कभी भी विजय संभव नहीं है। अगर मैं अपने दोनों
हाथों को लड़ाके तो क्या हम सोच सकते हैं कि उन हाथों में से कोई एक जीत जाएगा? अगर मेरे ही दोनों हाथ लड़ते हों तो क्या यह संभव है कि उन दो हाथों में से एक हाथ कभी भी जीत जाएगा? यह तो असंभव है। क्योंकि उन दोनों हाथों के पीछे मेरी ही ताकत है मेरी ही शक्ति है। उन दोनों हाथों में से कोई जीतेगा तो नहीं एक बात हो जाएगी—वे दोनों हाथ लड़ते रहेंगे और मैं हार जाऊंगा। वे दोनों हाथ लड़ते रहेंगे और मेरी शक्ति क्षीण होती चली जाएगी और मैं थका हुआ और पराजित हो जाऊंगा। जीतेगा तो कोई भी नहीं, लेकिन मैं टूट जाऊंगा।
तो जब भी आप अपने मन से लड़ते हैं, मन की किसी बुराई से लड़ते हैं, तब आप अपने को दो आदमियों में तोड़ रहे हैं, जो कि बहुत घातक है। कौन किससे लड़ेगा? यह बात आपने बहुत सुनी होगी मन शत्रु है और उस शत्रु से लड़ना है। यह बात बिलकुल ही व्यर्थ है। अगर आपने मन को शत्रु समझ लिया और उससे आप लड़ना शुरू कर दिए, तो आपने विचार भी नहीं किया— आप किससे लड़ रहे हैं? आप अपने से लड़ रहे हैं! और अपने से लड़ने में दोनों तरफ आपकी ही शक्ति लगती है, आप ही क्षीण होंगे। इसलिए पहली बात इस साधना प्रयोग में हम अपने से लड़ने को इकट्ठा नहीं हुए हैं। हमें अपने मन से लड़ना नहीं है। और आप हैरान होंगे, अगर यह बात समझ में आ गई कि मन से लड़ना नहीं है तो मन के ऊपर कख्ता जीत हो जाती है।
लड़ना नहीं है तो फिर क्या हम करेंगे?
सुबह—सुबह किसी ने मुझे आकर कहा कि बहुत एकाग्र करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मन तो एकाग्र नहीं होता, वह तो भाग— भाग जाता है। हम उसे खींच कर लाने की कोशिश करते हैं, वह तो हाथ में आता नहीं।
तो मैं आपको न तो उसे खींच कर लाने को कहूंगा, न उससे लड़ने को कहूंगा, न चाहूंगा कि उसे आप जबरदस्ती दबाएं। मैं कुछ दूसरी ही बात कहने को हूं। और उस दूसरी बात को आप ठीक से समझ लेंगे तो परिणाम होगा। और अगर आपकी अपनी बनी हुई धारणा पीछे काम करती रही, तो परिणाम नहीं होगा। हमारे मन इतने शिक्षाओं से भरे हुए हैं और हमने इतनी बातें सीख रखी हैं कि उन बातों को थोड़ा तीन दिन के लिए छोड़ देना बड़ा
उपयोग का होगा।
वहां जर्मनी में एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ था, वेजनर। उसके पास जब भी कोई संगीत सीखने आता तो वह पूछ लेता कि पहले भी कहीं संगीत सीखा है या नहीं सीखा है? अगर कोई व्यक्ति कहता कि मैं पहले भी कहीं सीखा हूं तो उससे वह दोहरी फीस मांगता। और अगर कोई कहीं सीखा हुआ नहीं होता, तो उससे आधी फीस में भी काम चल जाता। लोग हैरान थे और उन्होंने कहा कि हम जब कुछ सीखे हुए हैं तो हमसे कुछ फीस कम लेनी चाहिए।
उसने कहा : पहले तो आधी मेहनत तो इसमें करनी होगी कि आप जो सीखे हुए हैं उसे
भुलाना होगा। और तब आपकी नई शुरुआत हो सकेगी।
तो यहां इस ध्यान के प्रयोग में, इस साधना में पहली बात आपको मैं यह कह दूं कि
आप ध्यान के संबंध में जो भी जानते हों, कृपा करके इन तीन दिनों में उसका उपयोग न करें। वह आपकी जानकारी, जो मैं कहने जा रहा हूं उससे इतनी भिन्न है कि अगर उसका आप थोड़ा भी उपयोग करते हैं, तो मैं जो कह रहा हूं उसका फायदा नहीं हो सकेगा। तीन दिन के लिए आप समझ लें कि आप ध्यान के संबंध में कुछ भी नहीं जानते हैं। और आपने ध्यान के संबंध में जो भी जाना हुआ है उसे एक तरफ रख दें। और फिर इस प्रयोग को करें।
आपने सुना होगा ध्यान का अर्थ एकाग्रता है।
और मैं आपको कहूंगा : ध्यान का अर्थ एकाग्रता बिलकुल भी नहीं है।
आपने सुना होगा ध्यान का अर्थ है चित्त को एकाग्र करना, कनसनट्रेट करना।
ध्यान का अर्थ कनसनट्रेशन नहीं है।
चित्त की दो अवस्थाएं हैं। एक अवस्था को हम चंचलता कहते हैं। चित्त एक चीज से दूसरी चीज पर कूद जाए, दूसरी से तीसरी पर कूद जाए, इसको हम चंचलता कहते हैं। एक विचार आए, फिर दूसरा आ जाए, फिर तीसरा आ जाए, इसको हम चंचलता कहते हैं। चित्त एक ही विचार पर बना रहे, इसको हम एकाग्रता कहते हैं। और चित्त न तो अनेक चीजों पर हो, न एक चीज पर हो, उसको हम ध्यान कहते हैं। चित्त एक चीज से दूसरी पर चला जाए, तीसरी पर चला जाए—चंचलता। चित्त एक पर ही बना रहे—एकाग्रता। चित्त किसी पर न रह जाए— ध्यान।
तो ध्यान न तो चंचलता है, न एकाग्रता है। ध्यान में कुछ रह ही नहीं जाता जिस पर हम
चंचल हों या जिस पर हम एकाग्र हों।
चित्त की, मैंने कहा, दो स्थितियां हैं। इसलिए ध्यान चित्त की स्थिति नहीं है। ध्यान चित्त
के बाहर हो जाना है, माइंड के बाहर हो जाना है। जैसे हम यह कल्पना करें—एक सात डिब्बे रखे हुए हैं और एक बच्चा उन सात डिब्बों पर कूद रहा है। वह एक से दूसरे पर जा रहा है, दूसरे से तीसरे पर जा रहा है, यह चंचलता है। वह बच्चा एक ही डिब्बे पर कूद रहा है, यह एकाग्रता है। वह बच्चा डिब्बों पर कूद ही नहीं रहा, नीचे उतर गया, यह ध्यान है।
चंचलता में भी ऑब्जेक्ट होता है, लेकिन बदलता हुआ होता है। चंचलता में भी कोई विषय होता है, कोई विचार होता है, लेकिन बदलता हुआ होता है। एकाग्रता में भी कोई ऑब्जेक्ट होता है, कोई विचार होता है लेकिन बदलता हुआ नहीं होता, वही होता है। ध्यान में न कोई विचार होता है न कोई ऑब्जेक्ट होता है; न वहां बदलाहट होती है, न वहां न— बदलाहट होती है, वहां चित्त विषय से, ऑब्जेक्ट से मुक्त हो जाता है।
तो पहली बात, एकाग्रता नहीं है जो हम करने जा रहे हैं।
फिर, एकाग्रता का परिणाम जो है, वह घातक है। अगर आप चित्त को जबरदस्ती किसी एक चीज पर रोक दें—किसी मूर्ति पर, किसी विचार पर, किसी मंत्र पर, किसी भगवान के नाम पर— अगर विचार को आप जबरदस्ती रोक दें, तो एक बड़ी अदभुत घटना घटती है, जिसका आपको पता नहीं है। विचार को अगर जबरदस्ती रोका जाए, तो थोड़ी देर में उस जबरदस्ती के परिणाम में मन मूर्च्छित हो जाता है। उसे ऑटो—हिप्नोसिस, आत्म—सम्मोहन कहते हैं। अगर आप पांच मिनट तक एक ही चीज को देखते रहें, आपकी आंख बिलकुल थक जाएगी। अगर आप फिर भी देखते रहें तो थोड़ी देर में आप पाएंगे कि आंख अपने आप बंद हो गई। और उस घड़ी में आप मूर्च्छित हो जाएंगे। वह एक तरह की सम्मोहन निद्रा है। वह ध्यान नहीं है।
अगर किसी भी चीज पर कोई एकाग्रता करे, तो थोड़ी देर में मूर्च्छित हो जाएगा। उस पर्दा में भी एक तरह का सुख मिलता है, जैसे शराब पीने में, और किसी भी भांति की मूर्च्छा में मिलता है। जब आप मूर्च्छा के बाद होश में आएंगे, तो आपको ऐसा लगेगा, बहुत सुख था।
सुख बिलकुल नहीं था, केवल दुख का अभाव था। केवल चिंताएं, पीड़ाएं और परेशानियां मौजूद नहीं थीं, क्योंकि आप मूर्च्छित थे। आखिर सारी दुनिया में शराब के पीछे इतना आकर्षण क्यों है? एक ही बात है शराब आपकी चिंताओं को, आपकी परेशानियों को मिटा देती है, क्योंकि आप मूर्च्छित होते हैं, आप होश में नहीं होते हैं। वे मिटती नहीं हैं, केवल आपकी आंखों से ओझल हो जाती हैं, क्योंकि आप मूर्च्छित हो जाते हैं।
इस तरह के ध्यान को असम्बक ध्यान मैं कहता हूं। यह ध्यान वास्तविक नहीं है। यह ध्यान का धोखा है। अगर आप मूर्च्छित हो जाएं, तो आप सम्मोहन में चले गए, हिप्नोसिस में चले गए, आप ध्यान में नहीं गए। ध्यान का अर्थ है परिपूर्ण जाग्रत हो जाना। ध्यान का अर्थ है पूरे होश से भर जाना। ध्यान का अर्थ है. पूरे अप्रमाद की स्थिति में हो जाना, पूरी
अवेयरनेस में। उसका अर्थ मूर्च्छा नहीं है। उसका अर्थ बेहोशी नहीं है। वह तब संभव होगा, जब आप एकाग्रता न करें।
तो फिर आप क्या करेंगे? अगर एकाग्रता हम नहीं करेंगे तो हम क्या करेंगे?
हम चंचलता को जानते हैं, हम एकाग्रता को भी जानते हैं। हम मंदिरों में, मस्जिदों में बैठ कर एकाग्रता करने की कोशिश भी करते हैं।
हम एक तीसरा प्रयोग करने को हैं, जिसमें हम न चंचलता करेंगे, न एकाग्रता करेंगे। हम कोई एक नई बात करना चाहते हैं। और वह यह, जैसा मैंने कल रात आपको कहा—मैंने आपको कहा कि बैठ जाएं किसी एकांत में, सारे शरीर को ढीला छोड़ दें और फिर आस—पास जो आवाजें सुनाई पड़ती हैं उन सबको चुपचाप सुनते रहें।...
किसी ने मुझे आकर कहा कि उन्होंने जाकर सुना, उन्होंने बराबर एकाग्र किया, इस आवाज को सुना। इसे स्मरण रखें कि सिर्फ गलत है उसी का पता चलता है, जो ठीक है उसका कोई पता...
शरीर को, रीढ़ को सीधा और शरीर को ऐसे ढीला छोड़ देना है, जैसे एंटी पर हमने कोट लटका दिया हो। रीढ़ की —एंटी पर सारा शरीर बिलकुल ढीला छूटा हुआ है। रीढ़ सीधी है और शरीर बिलकुल ढीला है। जैसे शरीर में कोई प्राण नहीं, ऐसा ढीला छोड़ दिया है। जितना ढीला आप शरीर को छोड़ देंगे, उतनी शीघ्रता से भीतर गति होगी। जितना शरीर ढीला छूट जाता है, उतना ही शरीर का स्मरण क्षीण होने लगता है। और आपका भीतर प्रवेश संभव हो जाता है।
तो शरीर को ढीला छोड़ेंगे और फिर गहरी श्वास लेंगे। गहरी श्वास में झटके से नहीं लेना है कि तकलीफ मालूम हो। इतने जोर से नहीं लेना है कि आपको कोई परेशानी मालूम हो। इतने जोर से नहीं लेना है कि दस मिनट में आप थक जाएं। इतने आहिस्ते लेना है, इतने रिदमिक लेना है कि कोई तकलीफ न हो, कोई पीड़ा न हो। श्वास धीमे से जाए, श्वास लेना एक आनंद हो, काम न हो। उस श्वास को बड़े आनंद से, बड़ी शांति से, गहरा लेकर धीरे— धीरे गहरा छोड़ना है। उसे न तो भीतर रोकना है न बाहर रोकना है। रोकना कहीं भी नहीं है, केवल गहरे लेना और गहरे छोड़ देना है। लेते वक्त पेट जहां ऊपर उठे, आंख बंद रखनी है और उस जगह ध्यान को जगाए रखना है कि पेट अब ऊपर उठा, अब नीचे गिरा। उसी बिंदु को चुपचाप देखते रहना है। उसको देखते—देखते मस्तिष्क के सारे तंतु शांत हो जाएंगे, सारे विचार शांत हो जाएंगे, थोड़ी देर में केवल श्वास का स्पंदन मात्र रह जाएगा। फिर तीन दिन हम प्रयोग करेंगे, उसमें गहराई रोज—रोज बढ़ती चली जाएगी।
स्मरणीय यह भी है कि हम सब इस तरह बैठेंगे कि कोई किसी को छुएगा नहीं। वस्त्र जो पेट को कसे हों उन्हें थोड़ा ढीला कर लेंगे, ताकि वे आपके पेट पर बाधा न बनें। और अगर यहां अंदर थोड़ी कम जगह मालूम पड़ती हो, तो दोनों तरफ बराडों में चले जाएंगे। आवाज मेरी वहां पहुंचेगी बल्कि और सुखद होगा, वहां खुली हवा होगी और आप ज्यादा एकांत में बैठ सकेंगे। और इस भांति बैठें कि कोई किसी को छूता नहीं है, कोई का किसी को धक्का न लगे, इस भांति फैल जाएं। और अगर थोड़ी जगह कम है तो बाहर आ जाएं। जगह की अडूचन की वजह से भीतर न बैठें। ये बगल के जो बरांडे हैं बहुत साफ हैं, इनमें आप आ जाएंगे तो बड़ा लाभ होगा।
सीधा कर लें। सीधा का मतलब खींचा हुआ नहीं है। आराम से सीधा कर लें, वह कहीं झुकी हुई न हो। अच्छा हो दीवाल से न टिके कोई, अन्यथा आप अपनी रीढ़ सीधी नहीं कर पाएंगे। रीढ़ सीधी रखें रीढ़ के ही सहारे हों। और आंख बंद कर लें। आहिस्ते से पलकों को झप जाने दें, धीमे से पलक गिर जाने दें, आंख बंद कर लें। अब धीरे— धीरे गहरी श्वास लें। बहुत आहिस्ता से, बहुत शांति से बहुत आनंद से गहरी श्वास लें। श्वास पेट तक जाती हुई मालूम हो। पेट ऊपर उठेगा, नीचे गिरेगा। श्वास को धीरे— धीरे वापस हो जाने दें। बहुत धीमी और गहरी श्वास लें। बहुत आहिस्ता से, आराम से। श्वास पेट तक जाए, पेट ऊपर उठे, फिर धीरे से वापस हो जाए। आपके पेट का स्पंदन देख लें—कहां हो रहा है। जहां पेट ऊपर गिर रहा है, उठ रहा है, जहां पेट कप रहा है— आंख बंद किए हुए उसी जगह पर अपने ध्यान को ले जाएं। वहीं जाग जाएं, उस जगह को देखें, उस जगह को स्मरणपूर्वक देखें। उस जगह को स्मरणपूर्वक देखें जहां श्वास जाकर पेट को उठा रही है। उस जगह को स्मरणपूर्वक देखें। उस जगह को देखते रहें। शांति से वहीं जाग जाएं। अपने जागरण को, अपनी स्मृति को, अपने ध्यान को वहीं जगा लें। वहीं देखें। नाभि दिखाई पड़ेगी, उसका कंपन दिखेगा। वही
दिखता रह जाए, केवल वही रह जाए। ठीक है, गहरी श्वास नाभि के पास ध्यान।
मस्तिष्क को बिलकुल ढीला छोड़ दें उससे कोई काम नहीं लेना है। मस्तिष्क से कोई काम नहीं लेना है उसे बिलकुल ढीला छोड़ दें। मस्तिष्क से कोई भी काम नहीं लेना है, मस्तिष्क के सारे स्नायु ढीले छोड़ दे। केवल श्वास लें। जैसे हम केवल श्वास ही ले रहे हैं। केवल श्वास लें और नाभि को देखें...
बिलकुल ठीक है। नाभि को देखते चले जाएं, नाभि को देखते चले जाएं...। सब शांत होता जा रहा है सब शांत होता जा रहा है, सब शांत होता जा रहा है...।
जल्दी न करें।


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