सम्यक
आहार से अर्थ है
कि भोजन इतना न
हो कि वह शरीर की
सारी शक्तियों
को पचाने के लिए
आमंत्रित कर ले।
भोजन के बाद इसीलिए
नींद— मालूम होती
है, क्योंकि
शरीर की सारी शक्ति
भोजन को पचाने
में लग जाती है,
इसलिए सारा शरीर
शिथिल होने लगता
है। जितनी शक्ति
है शरीर के पास
वह पचाने में लग
जाती है, इसलिए
शरीर के लिए जरूरी
होता है कि वह सो
जाए, और कोई
काम न करे। अगर
वह काम करेगा तो
पाचन में बाधा
होगी, क्योंकि
उतनी शक्ति
काम में लगेगी और पाचन नहीं हो सकेगा।
काम में लगेगी और पाचन नहीं हो सकेगा।
सम्यक
आहार का अर्थ है
इतना भोजन कि वह
आपको नींद न लाए।
उसका अर्थ हुआ
इतना भोजन, उसकी
जो परिसीमा है
वह इतनी कि पेट,
जब आप भोजन करें,
तो भोजन के बाद
पेट का आपको पता
न चले।
अगर आपको
बोध होता हो पेट
का, तो समझना
चाहिए आपने ज्यादा
भोजन कर लिया।
जैसा कल मैंने
आपको कहा, शरीर
के उसी अंग का बोध
होता है जो अस्वस्थ
हो जाए। शरीर के
उस अंग का बोध नहीं
होता जो स्वस्थ
हो। मस्तिष्क में
दर्द है तो मस्तिष्क
का पता चलेगा,
हाथ में तकलीफ
है तो हाथ का पता
चलेगा, पैर
थक गए हैं तो पैरों
का पता चलेगा।
जो अंगअपनी ठीक स्थिति में है, उसका आपको पता नहीं चलेगा। तो भोजन के बाद अगर आपको पेट का पता चलता हो, तो समझना चाहिए आपने भोजन सम्यक नहीं लिया।
तो
पहली बात है. सम्यक
आहार। भोजन सम्यक
हो तो आपको ध्यान
में बड़ी सुगमता
सरलता और गहराई
उत्पन्न होगी।
इससे
ज्यादा मैं कुछ
और नहीं कहूंगा।
यह आप पर छोड़ दूंगा—
आप क्या खाते हैं, पीते
हैं। इतना ही स्मरण रखें कि वह हलका हो और पेट पर भारी न पड़ता हो। न केवल वह ध्यान
में उपयोगी होगा, वह आपके स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद होगा।
हैं। इतना ही स्मरण रखें कि वह हलका हो और पेट पर भारी न पड़ता हो। न केवल वह ध्यान
में उपयोगी होगा, वह आपके स्वास्थ्य के लिए भी लाभप्रद होगा।
मैंने
एक उक्ति सुनी
है,
किसी बड़े चिकित्सक
ने कहा है—कि लोग
जितना भोजन करते
हैं उसमें से आधे
से उनका पेट भरता
है, 'आधे से डॉक्टरों
का पेट भरता है।
जितना भोजन हम
करते हैं, उससे
आधे से हमारा पेट
भरता है, आधे
से डॉक्टरों का
पेट भरता है। क्योंकि
वह शेष आधा हमें
बीमार करता है
और हमें डॉक्टरों
की तरफ ले जाता
है।
तो
डॉक्टरों का पेट
न भरे, इतना भोजन,
उसको मैं सम्यक
आहार कहता हूं।
यानी करीब—करीब,
जितना आप लेते
हैं, उससे आधा
उपयोगी होगा। करीब—करीब,
कोई मोटी बात
नहीं कह रहा हूं।
करीब—करीब, जितना आप लेते
हैं, उससे आधा
उपयोगी होगा।
प्रश्न.
ओशो, यहां तो खाने
की इच्छा ज्यादा
होती है।
हां
खाने की इच्छा
ही भोजन को असम्बक
कर देती है। भोजन
कितना जरूरी है, यह
एक तरफ रह जाता
है और खाने का रस
ज्यादा महत्वपूर्ण
हो जाता है। हममें
से बहुत ही कम —लोग
शरीर को भोजन देते
हैं, हममें
से अधिक लोग स्वाद
को भोजन देते हैं।
स्वाद
शरीर की आवश्यकता
नहीं है। स्वाद
हमारे मन की वासना
है। और स्वाद के
कारण हम ज्यादा
खा लेते हैं। थोड़ा
होशपूर्वक करेंगे
तो ऐसा नहीं होगा।
थोड़ा होशपूर्वक
करेंगे और इतना
स्मरण रखेंगे कि
शरीर के लिए भी
हितकर हो, मन
के लिए भी हितकर
हो, तो बहुत
कठिन बात नहीं
है। यानी इतनी
कठिन बात नहीं
है जितना हम सोचते
हैं।
फिर
अगर ज्यादा खाने
की इच्छा होती
हो तो ज्यादा अच्छा
है कि बहुत चबा
कर खाएं। तो आप
ज्यादा देर तक
खाएंगे। आखिर ज्यादा
देर तक एक आदमी
आधा घंटे तक खाना
खाने में क्या
रस पाता होगा? आधा
घंटे तक उसको स्वाद
का अनुभव होता
है। तो जितना भोजन
आप पंद्रह मिनट
में कर लेते हैं,
उतने भोजन को
आधा घंटे में चबा
कर करें। तो आपको
रस आधा घंटे भोजन
करने का मिलेगा
और लाभ बहुत ज्यादा
हो जाएंगे। लाभ
बहुत ज्यादा ये
हो जाएंगे, वह चबा हुआ भोजन
सुपाच्य होगा,
वह पेट को भारी
नहीं करेगा, कम मात्रा में
आपके शरीर को ज्यादा
पोषण मिलेगा,
शरीर ज्यादा
स्वस्थ होगा। और
जो भोजन शरीर को
ज्यादा स्वस्थ
करता हो, वह
भोजन चित्त को
शांत करने में
सहयोगी हो जाता
है। अगर शरीर परिपूर्ण
निरोग स्थिति में
हो, तो चित्त
का शांत हो जाना
बहुत आसान है कठिन
नहीं है। चित्त
की अशांति का बहुत
कारण शारीरिक होता
है।
तो
वह जो ताराचंद्र
भाई ने पूछा यह
संभव है कि कल उनको
ठीक से न हुआ हो।
उसके दो कारण हो
सकते हैं। एक तो
उन्होंने भोजन
ज्यादा किया, कल
सांझ को वे टहले
भी ज्यादा। उसकी
थकान भी नुकसान
पहुंचाएगी।
सम्यक
आहार हो, सम्यक
व्यायाम भी हो।
सम्यक व्यायाम
का अर्थ है कि आप
इतना श्रम करें
कि श्रम आपको थकान
का बोध न दे। जिस
सीमा पर श्रम थकान
का बोध देने लगे,
समझना चाहिए
शरीर उस सीमा तक
श्रम करने को राजी
नहीं है। सम्यक
व्यायाम न हो तो
भी ध्यान में असुविधा
और बाधा होगी।
अगर बिलकुल व्यायाम
न हो तो भी बाधा
होगी, अगर अतिशय
हो जाए तो भी बाधा
होगी। सम्यक का
अर्थ है बिलकुल
संतुलित, बिलकुल
बीच में, बिलकुल
माध्यमिक।
जो
बिलकुल श्रम नहीं
करता, उसके शरीर
में, उसके चित्त
में एक तरह का आलस्य
छाया रहेगा। वह
आलस्य बाधा होगा।
जिसने बहुत ज्यादा
श्रम कर लिया है,
उसके चित्त और
शरीर में एक तरह
की थकान होगी,
वह थकान बाधा
होगी। अगर आप दिन
भर कोई श्रम नहीं
किए हैं तो भी आपको
रात में नींद नहीं
आएगी और अगर आप
अति श्रम कर लिए
हैं तो भी नींद
नहीं आएगी। दोनों
स्थितियों में
विश्राम को बाधा
पहुंच जाएगी। और
उसी भांति दोनों
स्थितियों में
ध्यान को भी बाधा
पहुंच जाएगी।
तो
सम्यक आहार हो, सम्यक
व्यायाम हो और
सम्यक निद्रा हो।
सम्यक
निद्रा का अर्थ
हर एक के लिए अलग
होगा—जैसे सम्यक
आहार का अलग होगा, सम्यक
व्यायाम का भी
अलग होगा।
हमारे
मुल्क में निद्रा
के प्रति कुछ बुरी
धारणा है। कम से
कम साधकों के मन
में निद्रा के
प्रति बुरी धारणा
है। उनका खयाल
है,
निद्रा जो है
वह पाप ही है। जितनी
कम ली जाए उतना
अच्छा।
यह
बात गलत है। न तो
निद्रा का ज्यादा
लेना अच्छा है।
अगर ज्यादा निद्रा
हो जाएगी
तो उसका परिणाम होगा कि दिन भर आपमें एक ताजगी का अभाव रहेगा, शरीर बहुत शिथिल मालूम होगा, मस्तिष्क भारी मालूम होगा। और अगर निद्रा कम हुई तो वह कम निद्रा पूरा होने की दिन भर कोशिश करेगी। और उसकी वजह से आप दिन भर उनींदे अनुभव करेंगे।
तो उसका परिणाम होगा कि दिन भर आपमें एक ताजगी का अभाव रहेगा, शरीर बहुत शिथिल मालूम होगा, मस्तिष्क भारी मालूम होगा। और अगर निद्रा कम हुई तो वह कम निद्रा पूरा होने की दिन भर कोशिश करेगी। और उसकी वजह से आप दिन भर उनींदे अनुभव करेंगे।
अभी
कुछ लोगों ने मुझे
कहा कि ध्यान में
उन्हें नींद आ
गई। ध्यान में
नींद तभी आ सकती
है जब आपकी निद्रा
कम हो रही हो, नहीं
तो नींद नहीं आ
सकती। अगर आपने
रात्रि निद्रा
कम ली है, तो
जब आप ध्यान करने
बैठेंगे—शरीर शिथिल
होगा, चित्त
शांत होगा—पहला
ही काम होगा कि
नींद आ जाएगी।
क्योंकि नींद के
लिए भी ये दो बातें
जरूरी हैं कि शरीर
शिथिल हो और चित्त
थोड़ा शांत हो।
अगर चित्त बहुत
अशांत है, चिंतित
है, चिंताओं
से भरा है, तो
नींद विलीन हो
जाती है। अगर शरीर
में बहुत टेंशन,
बहुत तनाव हैं,
तो नींद विलीन
हो जाती है। तो
नींद के लिए वे
दो गुण, लक्षण
अनिवार्य हैं—जब
कि चित्त शांत
हो और शरीर शिथिल
हो। ध्यान के लिए
भी वे जरूरी है
कि चित्त शांत
हो और शरीर शिथिल
हो। ये दोनों प्रारंभिक
सीढ़ियां दोनों
के लिए जरूरी हैं।
तो जिसकी नींद
कम है वह इन दो सीढ़ियों
के बाद तक्षण निद्रा
की दिशा में चला
जाएगा। लेकिन जिसकी
निद्रा पूर्ण हो
गई है, वह निद्रा
में तो नहीं जाएगा,
वह फिर ध्यान
में जा सकेगा।
ध्यान और निद्रा
की
प्राथमिक अवस्थाएं वे ही हैं, एक सी हैं। अंतिम अवस्था में भेद है। शरीर शिथिल होगा, चित्त शांत होगा, निद्रा में मूर्च्छा आ जाएगी। शरीर शिथिल होगा, चित्त शांत होगा, ध्यान में जागृति आ जाएगी। वह जागृति और मूर्च्छा का भेद है पीछे। लेकिन प्राथमिक दो चरण दोनों में समान हैं।
प्राथमिक अवस्थाएं वे ही हैं, एक सी हैं। अंतिम अवस्था में भेद है। शरीर शिथिल होगा, चित्त शांत होगा, निद्रा में मूर्च्छा आ जाएगी। शरीर शिथिल होगा, चित्त शांत होगा, ध्यान में जागृति आ जाएगी। वह जागृति और मूर्च्छा का भेद है पीछे। लेकिन प्राथमिक दो चरण दोनों में समान हैं।
इसलिए
निद्रा भी सम्यक
हो। और यह हर एक
को अपने लिए तय
कर लेना चाहिए
थोड़े दिन प्रयोग
करके कि कितनी
नींद उसे जरूरी
है। बच्चे अठारह—बीस
घंटे सोएंगे, फिर
कम होती जाएगी,
फिर दस—बारह
घंटे रह जाएगी
फिर आठ घंटे रह
जाएगी, फिर
वृद्ध होते—होते
वह चार—पांच घंटे
रह जाएगी। और इसलिए
यह धारणा भी आपकी
गलत है कि कम सोना
अच्छा है; क्योंकि
अगर आप युवावस्था
में कम सोने लगते
हैं तो वृद्धावस्था
जल्दी आ जाएगी,
वह वृद्धावस्था
का लक्षण है। इसलिए
कभी भूल कर यह प्रयोग
न करें कि आप कम
सोने की चेष्टा
करें। जैसा धार्मिक
लोग, जो धर्म
में उत्सुक हो
जाते हैं वे करना
शुरू कर देते हैं।
और इसमें भी गौरव
अनुभव करते हैं
कि हम तीन घंटे
सोते हैं कि चार
घंटे, कि हम
सिर्फ पांच ही
घंटे सोते हैं
कि हम कोई बड़ी भारी
बात साध रहे हैं।
वे सिर्फ नासमझी
कर रहे हैं।
शरीर
को निद्रा की जरूरत
तब कम रहती है, जब
उसमें नये सेल्स,
नये कोष्ठ बनना
बंद
हो जाते हैं। बच्चा अठारह घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है। मां के पेट में वह चौबीस घंटे सोता है। उस वक्त उसके शरीर में निर्माण हो रहा है। सारी शक्तियां निर्माण कर रही हैं। इसलिए जागने की फुर्सत नहीं है। फिर जैसे—जैसे शरीर की निर्माणकारी शक्तियां कम होने लगती हैं और शरीर की विध्वंस की शक्तियां तीव्र होने लगती हैं, यानी शरीर में ज्यादा सेल्स टूटते हैं और कम बनते हैं, वैसे—वैसे नींद कम होती चली जाती है। बुढापे में सेल्स टूटते ही हैं बनते नहीं हैं, इसलिए नींद खतम हो जाती है। तो नींद का कम हो जाना कोई अच्छा लक्षण नहीं है।
हो जाते हैं। बच्चा अठारह घंटे सोता है, बीस घंटे सोता है। मां के पेट में वह चौबीस घंटे सोता है। उस वक्त उसके शरीर में निर्माण हो रहा है। सारी शक्तियां निर्माण कर रही हैं। इसलिए जागने की फुर्सत नहीं है। फिर जैसे—जैसे शरीर की निर्माणकारी शक्तियां कम होने लगती हैं और शरीर की विध्वंस की शक्तियां तीव्र होने लगती हैं, यानी शरीर में ज्यादा सेल्स टूटते हैं और कम बनते हैं, वैसे—वैसे नींद कम होती चली जाती है। बुढापे में सेल्स टूटते ही हैं बनते नहीं हैं, इसलिए नींद खतम हो जाती है। तो नींद का कम हो जाना कोई अच्छा लक्षण नहीं है।
लेकिन
एक और कारण से भी
नींद कम हो सकती
है। तो नींद आपको
कम करना नहीं है, आपको
तो पूरा लेना है
जितना आपके लिए
जरूरी मालूम हो।
कम से कम सात घंटा—कम
से कम प्रत्येक
के लिए जरूरी।
ज्यादा से ज्यादा
आठ घंटे, कम
से कम छह घंटे,
इससे कम नहीं,
इससे ज्यादा
नहीं, सामान्यत:।
अगर आप बहुत ठीक
से सम्यकरूपेण
चौबीस घंटे का
जीवन जीए हैं,
तो यह हो सकता
है नींद आपकी छह
घंटे में पूरी
हो जाए। वह अपने
आप छह घंटे में
पूरी हो जाती हो
और छह घंटे के बाद
आपको कोई वजह न
मालूम होती हो
पड़े रहने की, तो उसका अर्थ
यह है कि आप इतने
शांत हैं और आप
इतने व्यवस्थित
हैं कि शरीर के
बहुत से सेल्स
नहीं टूट रहे हैं,
और इसलिए नींद
आपकी अल्प हो गई
है।
अल्प
निद्रा नहीं है
जरूरी, अगर ध्यान
के और शांत जीवन
के प्रयोग से नींद
थोड़ी कम हो जाए
तो कोई हर्ज नहीं
है। लेकिन अगर
आप कोशिश करके
कर लें तो हर्ज
है। और इस सदी में
खासकर हमारी तीन—चार
चीजों पर ही हमला
हो गया है। मैंने
कहा. सम्यक व्यायाम
सम्यक आहार और
सम्यक निद्रा।
ये तीनों चीजें
हमारी सभ्यता ने
तोड़ दी हैं।
निद्रा
पर तो बहुत आघात
हुआ है। नींद तो
जैसे हम तोड़े ही
जा रहे हैं, जैसे
हम सोचते हैं,
नींद की कोई
जरूरत नहीं। हमारे
जितने वैज्ञानिक
आविष्कार हैं वे
सब नींद के विरोधी
हैं। सिनेमा है,
रेडियो है,
और सारी बातें
हैं। और हमारी
जो सभ्यता और संस्कृति
है, वह भी नींद
की विरोधी है।
जैसे शाम के बाद
ही दुनिया शुरू
होती है। दिन भर
आप काम करते हैं
और शाम के बाद दुनिया
शुरू होती है।
रात .को देर तक आप
काम में लगे रहेंगे,
देर तक व्यस्त
रहेंगे और ऐसी
चीजों में व्यस्त
रहेंगे जिनका आंख
पर इतना जोर पड़ता
है— या तो पढ़ेंगे
या सिनेमा देखेंगे—ये
इतने जोर डालने
वाली बातें हैं
आंख पर कि इनके
खिंचाव और तनाव
जब आप सो जाएंगे,
तब भी आपकी आंखों
के भीतर के स्नायु
खिंचे रहेंगे वे
आपको नींद नहीं
आने देंगे।
यह
सदी सबसे ज्यादा
अनिद्रा से ग्रसित
है। और जो जितना
मुल्क सभ्य है, आप
इससे उसका अंदाज
लगा सकते हें कि
कौन कितना मुल्क
सभ्य है। जिस मुल्क
में जितने लोगों
को कम नींद आती
हो वह मुल्क उतना
ज्यादा सभ्य है।
अमरीका सबसे ज्यादा
सभ्य मुल्क है,
क्योंकि वहां
अनिद्रा की बीमारी
सबसे ज्यादा है।
और वहां सैकड़ों
लोगों को, जिनकी
संख्या प्रतिदिन
बढ़ती जाती है,
बिना दवा लिए
सोना असंभव हो
गया है। एक वक्त
आएगा जब हम सब लोग
बिलकुल सभ्य हो
जाएंगे, तो
कोई भी बिना दवा
के नहीं सो सकेगा।
सभ्यता
जो हमारी है वह
प्रकृति के बिलकुल
प्रतिकूल होने
से,
हमारा सब जीवन
अस्तव्यस्त हुआ
चला जा रहा है।
नींद पर बहुत चोट
हुई है। हम उसका
खयाल ही भूल गए।
जैसे वह एक गैर—जरूरी
चीज है, वक्त
मिला तो उसे ले
लिया, उसकी
कोई खास जरूरत
नहीं है। मेरा
कहना है वह सबसे
ज्यादा जरूरी चीज
है और उसे सम्यक
होना जरूरी है।
तो
नींद आपकी सम्यक
हो संतुलित हो; भोजन
सम्यक हो, संतुलित
हो; और व्यायाम
भी संतुलित हो
और सम्यक हो।
व्यायाम
भी हमसे छिन गया
है। इस समय दुनिया
में दो तरह के लोग
हैं। एक जो केवल
व्यायाम करते हैं, वे
इसलिए परेशान हैं
कि उन पर व्यायाम
का बोझ ज्यादा
है श्रम ज्यादा
है। दूसरे वे लोग
हैं जो बिलकुल
श्रम नहीं करते,
वे इसलिए परेशान
हैं कि उन पर श्रम
का बोझ बिलकुल
नहीं है। समाजवाद
अगर दुनिया में
कोई एक लाभ लाएगा
तो मेरे लिहाज
से वह यह होगा कि
उससे श्रम बराबर
वितरित हो जाएगा।
और बाकी लाभ जो
होंगे होंगे कम
से कम श्रम बराबर
वितरित हो जाना
चाहिए। कुछ लोग
हैं जो श्रम की
वजह से दुखी और
पीड़ित हैं, जिनका जीवन श्रम
सोख लेता है। और
कुछ लोग विश्राम
से पीड़ित और दुखी
हैं, जिनका
जीवन विश्राम सोख
लेता है। संतुलन
दोनों तरफ टूट
गया है। यह संतुलन
भी आपको जीवन में
सम्हाल लेना चाहिए।
अगर ध्यान में
बहुत तीव्र गति
में जाना हो, तो यह सतुलन भी
सम्हाल बड़ा काम
का।
ये
तीन बातें आपके
लिए बड़ी सहयोगी
होंगी। इसमें एक
बात और आपको कह
दूं— कि इन तीनों
बातों का एक तो
मोटा अर्थ है जो
मैंने आपको बताया, कुछ
सूक्ष्म अर्थ भी
है।
जैसे
सम्यक आहार है।
आहार का अर्थ हम
साधारणत: भोजन
लेते हैं, लेकिन
आहार का और सूक्ष्म
अर्थ भी है—जो भी
हम इंद्रियों से
लेते हैं वह सब
आहार है। आंख से
लेते हैं रूप,
वह भी आहार है।
कान से ध्वनि सुनते
हैं, वह भी आहार
है, वह कान का
आहार है। रूप आंख
का आहार है। हाथ
से कोई चीज स्पर्श
करते हैं, वह
हाथ का आहार है।
आहार का मतलब है
जो भी इंद्रियों
के द्वारा मेरे
भीतर आता है। भोजन
तो आता ही है, वह तो आहार है
ही, बाकी ये
सब चीजें भी आहार
हैं। ये भी अगर
सम्यक हों, तो ध्यान में
अदभुत गति हो जाएगी।
अगर आप आंख से वही
देखें जो देखने
जैसा है और उसे
न देखें जो कि देखने
जैसा नहीं है,
तो आप पाएंगे
कि आपके ध्यान
में बड़ी गति आ जाएगी।
कान से आप वही सुनें
जो सुनने जैसा
है, जो सुनने
जैसा नहीं हैं
उसे न सुनें, तो आपके जीवन
में बड़ी शांति
आ जाएगी।
अभी
हम क्या है हमें
इसका कोई भेद ही
नहीं कि क्या देखने
जैसा है, क्या नहीं
देखने जैसा है।
हम सब देखे चले
जाते हैं। हम यह
भी फिक्र नहीं
करते कि क्या सुनने
जैसा है, क्या
नहीं सुनने जैसा
है। हम सब सुने
जाते हैं। अगर
मेरे घर में कोई
कचरा फेंक दे तो
मैं झगड़ा करूंगा
और मेरे कान में
कोई कचरा फेंक
जाता है, मैं
बिलकुल झगड़ा नहीं
करता।
अब
मैं सुबह से ही
सुन रहा हूं चारों
तरफ देखता हूं
हर आदमी एक—दूसरे
के कान में कुछ
न कुछ डाल रहा है।
यह बड़ी हैरानी
की बात है! और आप
बड़े मजे से बैठे
उसको बर्दाश्त
कर रहे हैं और सह
रहे हैं कि आप डाले
चले जाइए और आप
बैठे हैं। तो यह
कान का आहार हो
गया। फिर आप सोचते
हैं कि डाल देने
से मुक्ति है? डाल
देने से मुक्ति
नहीं है, डालने
के बाद अब आप उसको
मथेंगे, वह
आपके दिमाग में
चलेगा, वह आपको
परेशान करेगा।
और हम इतने उत्सुक
हैं एक—दूसरे के.
कान में कुछ भी
डालने को! जिसका
हमारे लिए कोई
मूल्य नहीं है,
उसको हम दूसरे
के कान में क्यों
फिजूल डाल रहे
हैं? अगर उसका
कोई मूल्य होता
तो हमारी जिंदगी
में कुछ मूल्य
आ जाता। पर हम सब
लोग एक—दूसरे के
कानों के दुश्मन
हैं।
अब
बड़ी हैरानी है!
अखबार आप पढ़ लेंगे, आपने
पढ़ा वह तो गलती
की ही, अब उसको
पढ़ कर आप दूसरे
के दिमाग में भी
डालेंगे। यानी
आपने तो गलती की
कि आप आंख को गलत
आहार दिए, अब
आप एक काम यह करेंगे
कि जो अब आपके दिमाग
में घुस गया है
अब आप उसको दिन
भर में प्रचारित
करेंगे। दुनिया
में तीन अरब आदमी
हैं। और एक—आदमी
के पीछे समझ लीजिए
कितने—कितने आदमी
पड़े हुए हैं! अब
एक आदमी बेचारा,
उसकी कितनी क्षमता
है कान की सुनने
की! वह सुन रहा चौबीस
घंटे। फिर आप डाल
रहे हैं, फिर
सड़कों पर भाषण
हैं, और राजनीतिज्ञ
हैं, और पत्र
हैं, पत्रिकाएं
हैं, और अखबार
हैं, और पोस्टर
हैं, और रेडियो
है—सब चौबीस घंटे।
ये जो आहार हैं,
ये भी आपके भीतर
जाकर बेचैनी और
परेशानी पैदा करेंगे।
ये आपकी शक्ति
को क्षीण करते
हैं। अब आपने एक
अखबार पढ़ लिया,
उससे क्या होगा?
अखबार में है
क्या? नब्बे
प्रतिशत तो बातें
ऐसी हैं, जो
कि आप न जानते तो
कोई हर्ज नहीं
था।
प्रश्न
मारा—मार..........,
हां, यही
सारी की सारी घटनाएं
होंगी। ये सब आपके
चित्त में चली
जाएंगी। यह कचरा
आपमें इकट्ठा होता
चला जाएगा। रोज
सुबह से आप अखबार
पी लेंगे, वह
आपका भोजन हो गया।
उसको आप आहार की
तरह ले लेंगे,
फिर दिन भर उसको
मथेंगे। कहां किसने
किसी को मार डाला
है, कहां किसी
की हत्या हो गई
है, कहां चोरी
हो गई है, कहां
नाव डूब गई, कहां ट्रेन टकरा
गई, वह आपके
दिमाग में घूमता
रहेगा। फिर वह
घूमा हुआ आपके
चित्त को व्यर्थ
ही अशांत कर रहा
है, जिससे कोई
मतलब नहीं है।
यानी दुनिया में
अशांति नब्बे प्रतिशत
'से ज्यादा
छूता की वजह से
है, वास्तविक
कोई कारण नहीं
है उसका। यानी
आप व्यर्थ उसके
लिए अशांत हैं।
कोई आदमी सार्थक
रूप से अशांत हो,
तब भी ठीक है
कि उसकी कोई परेशानी
है। उसकी परेशानी
नहीं है। दूसरों
की परेशानियां,
जिनसे कोई वास्ता
भी नहीं है उसको,
वे उसके चित्त
को बहुत ज्यादा
व्यथित और परेशान
करती हैं।
तो
मेरा कहना है, कान
के लिए भी सम्यक
आहार चाहिए। आप
उतना सुनिए जितना
आपके लिए उपयोगी
मालूम हो; फिर
क्षमा मांग लीजिए
कि अब आप बंद करें।
क्योंकि यह कोई
कचराघर नहीं है
मेरा दिमाग कि
आप उसमें कुछ भी
डाले चले जा रहे
हैं।
हम
उसको बिलकुल कचराघर
बनाए हुए हैं।
और हम किसी को नहीं
रोकते। और यह हमारी
सभ्यता का हिस्सा
भी नहीं है कि हम..
.यह मैं सभ्य आदमी
का लक्षण समझता
हूं कि वह किसी
के दिमाग में जबरदस्ती
कुछ न डाले। जब
तक कि वह उसको आमंत्रण
न दे कि आप आएं और
डालें, तब तक उसको
कृपा करनी चाहिए
और पूछ लेना चाहिए
कि हम आपके दिमाग
में कुछ डालते
हैं, आप राजी
हैं कि नहीं?
अब
अभी मैं सुबह से
देखता हूं सांझ
तक,
चारों तरफ लोग
लगे हैं। क्या
कर रहे हैं आप?
चौबीस घंटे आप
बातें कर रहे हैं।
चौबीस घंटे आप
बातें कर रहे हैं।
क्या मतलब है?
क्यों आप बातें
कर रहे हैं? क्या मतलब की
बातें आप कह रहे
हैं किसी से? आपने जिंदगी
में कोई मतलब की
बात कही है किसी
से? यानी आपको
स्मरण आता है कि
आपने जिंदगी में
कोई मतलब की बात
कही हो?
एक
साधु था वहां दक्षिण
में। वह अपने गुरु
के आश्रम पर था।
एक बहुत बड़े विद्वान
का आना हुआ। उस
साधु का उस विद्वान
से विवाद हो गया।
गुरु बैठा हुआ
सुनता रहा। विवाद
जब पूरा हो गया, जब
वह विद्वान चला
गया बिलकुल परेशान
और पराजित होकर,
तो उस युवक ने
बड़े गौरव से अपने
गुरु की तरफ देखा
कि शायद वह उसकी
पीठ थपथपाएगा।
उसके गुरु ने कहा
मैं हैरान हूं
कि तुम इतनी देर
तक इतनी फिजूल
बातें कैसे कर
सके? और मैं
तुमसे यह पूछता
हूं तुमने जिंदगी
में एक भी बात कभी
काम की की है? और अगर नहीं की
हो तो आगे के लिए
होश रखना!
उसने
गौर किया अपने
पीछे, उसे याद ही
नहीं आया कि उसने
कोई बात ऐसी कही
हो जो मतलब की थी,
जो कि कहनी जरूरी
थी, जिसके बिना
कहे इस दुनिया
में कुछ बिगड़ जाता।
वह उसी क्षण चुप
हो गया।
उसके
गुरु ने उससे पूछा
समझे?
वह
कुछ नहीं बोला।
उसके
गुरु ने कहा बोलते
क्यों नहीं?
वह
फिर बोला ही नहीं।
फिर वह चालीस साल
जीया, फिर वह बोला
नहीं। उसके गुरु
से लोगों ने कहा
यह बिलकुल पागल
मालूम होता है।
यह तो चुप ही हो
गया।
उसके
गुरु ने कहा अगर
ऐसे पागल दुनिया
में थोड़े ज्यादा
हों तो दुनिया
बहुत बढ़िया हो
जाए।
मैं
आपको नहीं कहता
कि उस सीमा तक आप
पागल बनें। लेकिन
अगर थोड़ी भी समझ
आपमें आए, तो
कृपा करिए, दूसरे के कान
में व्यर्थ बातें
मत डालिए और अपने
कान में भी व्यर्थ
बातें दूसरे को
मत डालने दीजिए।
यह एक—दूसरे के
घर में कचरा फेंकने
से ज्यादा अनैतिक
है, सड़क पर छिलके
फेंकने से यह ज्यादा
अशिष्ट है। यह
बहुत कीमत की बात
है जो आप कर रहे
हैं और एक यह बिलकुल
फिजूल की बात कर
रहे हैं।
तो
कान का भी सम्यक
आहार हो, आंख का
भी हो। आंख से भी
आप फिजूल बातें..
.मैं देखता हूं
आप रास्ते पर चले
जा रहे हैं, तो आप पोस्टर
क्यों पढ़ रहे हैं
जो सिनेमा के दीवालों
पर लगे हुए हैं?
या मैं देखता
हूं अभी मेरे साथ
एक महिला सफर करती
थीं, जो भी कार
आगे जा रही है,
उसका नंबर पढ़
रही हैं। तो मैंने
उनसे पूछा, ये नंबर आप क्यों
पड़ती हैं? वे
बोलीं, यूं
ही आदत हो गई।
अब
इसको मैं कहूंगा
कि ये आप होश में
कर रहे हैं सब? इससे
प्रयोजन क्या है?
आप आंख को गलत
आहार दे रहे हैं।
फिर अगर यह भीतर
जाकर आपको परेशान
करे तो फिर इसमें
जिम्मा किसका है?
बेहतर है, आंख की जरूरत
हो तो खोलना, न हो तो उसको बंद
ही रहने देना जरूरत
क्या है खास! आप
सफर में बैठे हैं
तो काहे को आंख
खोले फिजूल बैठे
हैं? बंद कर
लें। आपको दुकान
पर फुर्सत मिली
तो आप काहे को सड़क
को देख रहे हैं?
उससे क्या प्रयोजन
है? थोड़ी देर
आंख बंद कर लें।
उतनी देर के लिए
आंख को आहार नहीं
मिलेगा, वह
विश्राम करेगी।
रख ध्यान में होगी
उतनी देर कम से
कम।
जब
कोई फिजूल बात
सुन रहे हैं तो
कान बंद ही कर लें, चुप
हो जाएं; उतनी
देर कम से
कम कान विश्राम में होंगे।
कम कान विश्राम में होंगे।
अगर
हम अपनी इंद्रियों
को सम्यक आहार
दें तो उन्हीं
इंद्रियों से तो
हमारा मन
प्रश्न.
ओशो अच्छा साहित्य
पढ़ें तो?
मैं
बात करता हूं।
जो
भी हम इकट्ठा करते
हैं,
उन्हीं से हमारा
मन बनता है। मन
हमारी इंद्रियों
का संग्राहक है।
जो हम इंद्रियों
से भीतर ले जाते
हैं वह वहां इकट्ठा
हो जाता है। फिर
वही हमारी शांति—
अशांति का कारण
बनता है। तो मेरा
कहना है कि अपनी
एक—एक इंद्रिय
के आहार के प्रति
सजग हों। अगर सच
में ही ध्यान की
बड़ी गहराई में
जाना है, तो
यह सब सहयोगी होगा।
यह सब उसकी पृष्ठभूमि
बनेगा। और आप प्रवेश
कर सकेंगे बहुत
गति से। यह मैंने
कहा सम्यक आहार
के बाबत।
सम्यक
निद्रा का भी और
गहरा अर्थ है।
उसका अर्थ है निद्रा
का तो सामान्य
अर्थ होता है कि
हम पूरे शरीर को
रात्रि को विश्राम
के लिए छोड़ दें
और सूक्ष्म अर्थ
यह होता है कि जिन
अंगों का हम व्यर्थ
काम नहीं ले रहे
हैं उनको टेंस
न रखें दिन में।
अब
मैं देखता हूं
एक आदमी परीक्षा
में लिख रहा है।
वह लिख तो हाथ से
रहा है ज्यादा
से ज्यादा अंगूठे
और अंगुली, इन
दो पर भार पड़ना
चाहिए। लेकिन उसके
पैर भी खिंचे हुए
हैं, उसकी गर्दन
भी खिंची हुई है,
उसके हाथ भी
अकड़े हुए हैं।
ये क्यों आप इनको
इतना खींचे हुए
हैं? इनकी तो
कोई जरूरत नहीं
है। ये तो आप अकारण
श्रम दे रहे हैं
जिसका कोई मतलब
नहीं है। जिस अंग
की जरूरत है उस
अंग को श्रम दें,
बाकी अंगों को
शांत रहने दें।
इसको
जरा देखें प्रयोग
करके। आप साइकिल
चला रहे हैं तो
पूरे शरीर पर थोड़े
ही जोर पड़ने की
जरूरत है, वे
सिर्फ पैर काफी
हैं उसको चलाने
को। तो पैर भर श्रम
करे, बाकी सारा
शरीर शांत हो।
तो आप हैरान होंगे
कि आप साइकिल चला
कर, पूरे शरीर
को तनाव में रख
कर, मील भर में
थक जाते हैं, अब. आप दस मील चलाते
हैं और नहीं थकेंगे।
क्योंकि आप बहुत
सा व्यर्थ श्रम
ले रहे हैं शरीर
से जो कि अनावश्यक
है।
मेरी
आप बात समझ रहे
हैं न? चौबीस घंटे
हम एक अंग से अगर
काम कर रहे हैं
तो बाकी अंगों
को सो जाने दें।
उनको मत जगाए रखें,
जगाने का मतलब
है कि उनसे मत काम
लें। जो चीज से
काम ले रहे हैं
उससे ही काम लें,
उतना काफी है।
उसका परिणाम आप
पर होगा कि आपमें
एक शक्ति का स्रोत
निर्मित होगा।
मनुष्य के पास
बहुत शक्ति है,
लेकिन छेद बहुत
बनाए हुए है वह।
वह सब उनसे निकल
जाती है। जीवन
के अंत में हम पाते
हैं—हम बिलकुल
खाली ड्रम की तरह
हैं, जिसमें
भीतर कुछ भी नहीं।
आखिर में आपको
पता चलता है कि
आप एक खाली डिब्बा
हैं, जिसके
भीतर कुछ भी नहीं।
जब आप पैदा हुए
थे, आप बड़ा स्रोत
लेकर पैदा हुए
थे, लेकिन जीवन
कुछ ऐसा गलत था
कि सब डिक्यूज
होता चला जाता
है, सब रोज निकलता
चला जाता है। आपकी
बड़ी विराट शक्ति
बड़ी क्षुद्र बातों
में व्यर्थ खोई
चली जाती है। आप
कुछ भी नहीं करते
जिसमें शक्ति न
खोती हो। शक्ति
तो आपके हर करने
में खोती है। तो
उतना करें जितना
जरूरी है, शेष
को विश्राम करने
दें। सम्यक निद्रा
के भीतर यह भी समाविष्ट
होगा कि आप उसको
विश्राम करने दें।
एक काम करके आप
चुकते हैं, बहुत बेहतर है
दो क्षण बिलकुल
विश्राम में छोड़
दें, तब दूसरा
काम शुरू करें।
गांधी
जी उन्नीस सौ बयालीस
के आदोलन में जब
पकड़े गए। वे जब
सभा से, जहां ठहरे
थे, वहां पहुंचे,
तो महादेव देसाई
ने उनसे कहा कि
बापू अब देर नहीं
है कि पुलिस आती
होगी और पकड़ेगी।
उनके हाथ—पैर कंपते
हैं महादेव के।
और सारे लोगों
के कैप रहे हैं
और सारे लोग घबड़ाए
हुए हैं। और गांधीजी
ने कहा, मैं
तब तक थोड़ा विश्राम
कर लूं। यानी वे
आते ही होंगे,
अब दिन भर की
सभा और थकान, मैं तब तक थोड़ी
एक झपकी ले लूं।
महादेव
ने अपनी डायरी
में लिखा है मैं
इतना हैरान हुआ
कि ये आदमी हैं
या कुछ और बात! यह
मौका झपकी का, इसे
खयाल कैसे? और गांधी तो लेट
गए हैं और उन्होंने
अपनी झपकी लेनी
शुरू कर दी। इसके
पहले कि पुलिस
आए, वे एक झपकी
ले लेना चाहते
हैं। आप ले सकेंगे?
और नहीं ले सकते
तो आप सम्यक निद्रा
का अर्थ नहीं जानते।
पुलिस
आई,
गांधी जी झपकी
लेकर तैयार हो
गार हैं, उन्होंने
हाथ—मुंह धो लिया
है। पुलिस आ गई
है, वह वारंट
ले आई है। सारे
लोग घबड़ाए हुए
हैं, घबड़ाहट
बड़ी है, क्योंकि
इतनी बड़ी क्रांति
को जन्म दिया है
उन्होंने, हो
सकता है हुकूमत
उनको जिंदा भी
न छोड़े, या हो
सकता है कितने
लंबे दिन का कारावास
हो, अब दुबारा
उनसे मिलना भी
हो या न हो। और गांधी
जी कहते हैं, मेरे नीबू का
वक्त हो गया है,
वह नीबू निचोड़
दो।
इसको
मैं सम्यक निद्रा
कहता हूं। यानी
इसका मतलब यह हुआ
कि यह आदमी बिलकुल
विश्राम में है, सारी
परेशानी इसको खींच
नहीं रही, परेशान
नहीं कर रही।
वे
अपना नीबू पीकर
गाड़ी में बैठ गए
हैं। वह गाड़ी चलने
लगी है और सारे
लोग रोए हुए खड़े
हैं,
उनकी समझ में
नहीं आता—क्या
पूछें? किसी
ने पूछा कि कोई
अंतिम संदेश हो
आपका देने को?
तो
उन्होंने कहा.
संदेश तो मैंने
जिंदगी भर दिया।
और फिर जब मैं बाहर
नहीं रहूंगा तो
मेरे संदेश का
क्या मूल्य है? जो
बाहर रहेंगे वे
देंगे। एक बात
है, सुबह घनश्यामदास
ने, बिड़ला ने
आश्रम की बकरी
का दूध लिया था,
उसके छह पैसे
उन पर रह गए हैं,
वे लेकर जमा
कर देना।
इसको
मैं,
विश्राम में
जो चित्त है, वह कहता हूं।
यह जो क्रांति,
इतनी बीच में
जो आग लग गई है,
यह सारा मुल्क
जलेगा, क्या
होगा, इसके
बाद भी वह घनश्यामदास
ने छह पैसे का दूध
लिया है वह जमा
कर देना।
सुकरात
जब मर रहा था, उसके
हाथ में जहर का
प्याला दे दिया,
तो उसके मित्रों
ने पूछा कोई अंतिम
बात?
सुकरात
ने कहा अंतिम तो
क्या, मेरी जो प्रथम
बात थी वह अंतिम
भी है। लेकिन मैंने
अचिलियत से एक
छह आने की मुर्गी
खरीदी थी, उसके
पैसे नहीं चुका
पाया। तो मेरे
मित्र, तुम
इकट्ठा करके उसे
चुका देना। वह
अपरिचित है; मरते वक्त मित्रों
का भार रहे तो ठीक
अपरिचित का ठीक
नहीं।
वह
जहर का प्याला
हाथ में लिए है।
उसने एक छह आने
की मुर्गी खरीदी
थी,
वह नहीं चुका
पाया है। मृत्यु
के वक्त जब कि आपको
जहर दिया जा रहा
हो, तब आपको
याद होगा? यह
स्मृति तभी संभव
है, जब चित्त
अव्यग्र है, अचिंत है, विश्राम में
है। उस विश्राम
के क्षण में, कुछ भी जो भूला
है, सब शांति
से पकड़ता है।
तो
सम्यक निद्रा का
मेरा अर्थ है सम्यक
विश्राम। वह चौबीस
घंटे की बात है, रात
सोने की ही बात
नहीं है। जब आपको
समय मिलता है,
थोड़ा ढीला छोड़
दें। उस थोड़े से
ढीले छोड़ने में
आप बहुत शक्ति
को वापस उत्पन्न
कर लेंगे। वह वापस
जग जाएगी, आप
फिर सजग हो जाएंगे।
और अगर ऐसा चौबीस
घंटे आप करते हैं
हमेशा करते हैं,
तो आप पाएंगे—जब
ध्यान को बैठते
हैं, आपमें
बहुत शक्ति है।
और
उसी भांति सम्यक
व्यायाम का भी
अर्थ है। उसका
मोटा अर्थ मैंने
आपको कहा, वह
तो है कि हम श्रम
करें, तो वह
सम्यक हो, तो
वह संतुलित हो।
उसकी बहुत गहराई
से देखें तो आप
जो भी श्रम करें—चाहे
मानसिक तल पर,
चाहे शारीरिक
तल पर—वह हमेशा
सम्यक हो, वह
कभी अति पर न चला
जाए। वह अति पर
चला जाएगा, घातक हो जाएगा।
बुद्ध
के पास श्रोण नाम
का एक राजकुमार
दीक्षित हुआ था।
वह राजकुमार था, वह
दीक्षित हुआ। वह
बड़े वैभव में पला,
उसने कभी कोई
दुख नहीं देखे,
कभी नंगे पैर
सड़क पर नहीं चला।
वह भिखारी हो गया
उसको अब चीथड़े
पहनने पड़े और नंगे
पैर सड़क पर चलना
पड़ा। लेकिन बुद्ध
देख कर हैरान हुए
कि और भिक्षु तो
ठीक रास्ते पर
चलते हैं, वह
उन पगडंडियों पर
चलता है जहां कांटे
पड़े हों, जान
कर चलता है। और
जब उसके पैरों
से खून बहने लगता
है और फफोले हो
जाते हैं, तो
इसमें गौरव अनुभव
करता है। इसको
वह तपश्चर्या समझ
रहा है, इसको
वह त्याग समझ रहा
है। तीन महीने
में वह सूख कर हड्डी
हो गया। बड़ा सुंदर
था, गौरवर्ण
था, एकदम काला
पड़ गया, सूख
गया।
बुद्ध
ने उसके पास जाकर
एक दिन कहा एक बात
पूछनी है। मैंने
सुना, जब तुम राजकुमार
थे, तो तुम वीणा
बजाने में बहुत
कुशल थे। तो मैं
यह पूछने आया हूं
कि अगर वीणा के
तार बहुत ढीले
हों तो उनमें संगीत
पैदा होता है?
उसने
कहा,
अगर तार बहुत
ढीले हों तो संगीत
कैसे पैदा हो,
ध्वनित ही नहीं
होंगे।
और
बुद्ध ने कहा तार
अगर बहुत कसे हों
तो संगीत पैदा
होता है?
उस
श्रोण ने कहा अगर
वे बहुत कसे हों
तो टूट जाएंगे, तब
भी ध्वनित नहीं
होंगे।
तो
बुद्ध ने कहा मैं
तुमसे यह कहने
आया हूं कि जो वीणा
का नियम है वही
जीवन का नियम भी
है। तार बहुत ढीले
हों तो बेकार हैं, तार
बहुत कस जाएं तो
बेकार हो जाएंगे।
तारों की एक स्थिति
ऐसी भी है जब वे
न ढीले हैं और न
कसे हुए हैं। तारों
की एक स्थिति ऐसी
भी है जहां न वे
बिलकुल ढीले हैं
न कसे हुए हैं।
वही स्थिति जहां
न तुम उन्हें ढीले
कह सकी और न कसे
कह सको वहीं उनमें
संगीत पैदा होता
है। और जीवन में
भी संगीत वहीं
पैदा होता है जहां
संतुलन होता है
जहां इस तरफ और
उस तरफ आप अति पर
नहीं निकल जाते
हैं।
अब
मैं देखता हूं
एक आदमी अतिशय
भोजन करता है, फिर
एक दिन उपवास भी
करता है। ये दोनों
बातें पागलपन की
हैं। ये दोनों
बातें पागलपन की
हैं। एक आदमी अति
भोजन करता रहता
है, फिर एक दिन
आता है उपवास भी
कर लेता है।
न, मैं
न तो आपको निराहार
होने को कहता हूं
और न अति आहार को
कहता हूं। मैं
तो सम्यक आहार
को कहता हूं। आपने
जो अति भोजन किया
वह एक गलती थी और
अब आप जो अनाहार
कर रहे हैं वह दूसरी
गलती कर रहे हैं,
वह दूसरी अति
है। और यह नियमित
नियम है जीवन का
कि एक अति पर जो
गलती करता है वह
तत्सण दूसरी अति
पर चला जाता है।
जो अति कामी है,
जो बहुत सेक्सुअल
है अगर कभी वह दूसरी
गलती करेगा तो
ब्रह्मचर्य ग्रहण
करने की करेगा
एकदम से। वह गलती
ही कर सकता है।
जो बहुत ज्यादा
भोजन प्रिय है,
अगर वह दूसरी
गलती करेगा किसी
भी दिन तो वह यह
करेगा कि वह निराहार
हो जाएगा। जो आदमी
बहुत भोग में था,
अगर वह कोई गलती
करेगा तो तत्काल
त्याग में चला
जाएगा।
न
तो भोग संयम है
और न त्याग संयम
है। संयम तो चित्त
की वह अवस्था है, जब
न तो भोग में आपका
कोई रस है, न
त्याग में आपका
कोई रस है। उस वक्त
एक संगीत आपमें
पैदा होना शुरू
होता है, एक
संतुलन पैदा होना
शुरू होता है।
सम्यक
व्यायाम से मेरा
मतलब है जीवन की
किसी भी दिशा में
इतना अति मत करिए
कि वह आपके तारों
को ढीला कर दे या
आपके तारों को
इतना कस दे कि आप
टूट जाएं। स्मरण
रखिए कि तार बीच
में हो और उनसे
संगीत पैदा हो
सके। तो इन तीन
शब्दों के भीतर—सम्यक
आहार, सम्यक व्यायाम
और सम्यक निद्रा—मैं
पूरे जीवन को समझता
हूं।
कल
कोई पूछता था. जीवनचर्या
कैसी हो?
जिन्होंने
यह पूछा हो वे समझ
लें कि जीवनचर्या
ऐसी हो। इस जीवनचर्या
के केंद्र पर अगर
आप ध्यान को साधेंगे, वह
अपरिसीम आनंद को
उपलब्ध कराएगा
और आपकी एक
गति होगी।
गति होगी।
आपने
पूछा है बीच में
कि अच्छा साहित्य
पढ़ें तो? आप
पूछते हैं— ओशो
अच्छा
साहित्य पढ़ें तो वह सम्यक आहार होगा कि नहीं? क्योंकि फिल्म देखें तो बुरा आहार है।
कोई रही साहित्य पढ़ें तो बुरा आहार है। अच्छा साहित्य पढ़ें तो?
साहित्य पढ़ें तो वह सम्यक आहार होगा कि नहीं? क्योंकि फिल्म देखें तो बुरा आहार है।
कोई रही साहित्य पढ़ें तो बुरा आहार है। अच्छा साहित्य पढ़ें तो?
मेरा
कहना यह है कि बुरे
साहित्य से तो
पढ़ना अच्छा मालूम
होता ही है। एक
आदमी एक फिल्म
की कथा पढ़ रहा है
और एक आदमी रामायण
पढ़ रहा है। तो ऊपर
से देखने में तो
ठीक लगता ही है
कि रामायण पढ़ना
बेहतर है और फिल्म
की कथा बेकार है।
लेकिन सच में क्या
आप सोचते हैं कि
फिल्म की कथा में
कुछ और है और रामायण
की कथा में कुछ
और है? वही ट्रायंगल
है, वही दो प्रेमी
हैं और एक प्रेमिका
है। और वही दो प्रेमियों
का एक प्रेमिका
के लिए झगड़ा है
और लड़ाई है और उपद्रव
है। यानी बात क्या
है? यानी कथा
क्या है वह? उस कथा में है
क्या? लेकिन
हां उस प्रेम—कथा
में भी बहुत से
सदुपदेश बीच में
डाले गए हैं। कथा
तो वह प्रेम की
है, उपद्रव
तो वह प्रेम पर
खड़ा हुआ है और एक
प्रेमिका पर खड़ा
हुआ है, एक प्रेयसी
की छीना—झपट है
वह, पर उसमें
बड़े आदर्श डाले
गए हैं। और आप सोचते
हैं उसको पढ़ने
से, अच्छा साहित्य
है।
मेरे
हिसाब से आप अच्छे
साहित्य को तो
जान ही नहीं सकते
उस समय तक जब तक
कि आपके भीतर किसी
अच्छे का जन्म
न हो जाए। उस वक्त
तक तो सब साहित्य
ही है अच्छा—वच्छा
कुछ नहीं है। एक
आदमी फिल्म को
याद कर लेगा, एक
आदमी रामायण की
कथा को याद कर लेगा
और दोनों ही कचरा
हैं उस समय तक जब
तक कि उसके भीतर
किसी अच्छे के
बोध का जन्म न हो
जाए। आप उसको दोहराने
लगेंगे वे चौपाइयां
आपको वैसे ही याद
हो जाएंगी जैसे
किन्हीं को फिल्मी
गीत याद हो गए हैं।
उनमें कोई भेद
नहीं है। बल्कि
एक खतरा भी है जो
कि बुरे साहित्य
वाले को नहीं है।
उसमें अहंकार नहीं
होगा, आपमें
अहंकार भी होगा।
आपमें एक अहंकार
होगा कि मैं रामायण,
मैं गीता और
फलां— फलां शास्त्रों
का जानकार हूं।
वह उस बेचारे में
कम से कम नहीं होगा।
बल्कि वह डरेगा
कि किसी को पता
न चल जाए कि हम कैसा
साहित्य पढ़ते हैं।
और आप चाहेंगे!
और आप चाहेंगे
कि जब आप पढ़ते हों
तब दो—चार लोग जरूर
निकल जाएं और देख
लें कि आप कैसा
साहित्य पढ़ते हैं।
नहीं, मेरा
कहना यह नहीं है
कि आप रामायण न
पढ़ें। मेरा कहना
कुल इतना है कि
अभी तो आपका चित्त
जैसा है उसमें
आप जो भी इकट्ठा
कर लेंगे वह करीब—करीब
कचरा होगा। अभी
तो अच्छा है कि
पढ़ना ही है तो फिर
रामायण पढ़ लें,
यानी वह मजबूरी
है। मेरी बात समझ
लें आप। उस जिसको
नेसेसरी ईविल कहते
हैं। यानी आवश्यक
बुराई जिसको कहते
हैं। अगर पढ़ना
ही है और बिना पड़े
नहीं मानता, तो बेहतर है जासूसी
उपन्यास न पढ़ें,
रामायण पढ़ लें,
गीता पढ़ लें।
पर नेसेसरी ईविल
समझ कर, एक जरूरी
बुराई समझ कर कि
अब मानता ही नहीं
है मन, कुछ पढ़ना
ही है, तो फिर
पढ़ लें।
लेकिन
अगर समझ हो तो उसे
भी देने की जरूरत
नहीं है। और अगर
आप चित्त को इस
तरह विचारों से न भरें और चित्त खाली और इनोसेंट हो, निर्दोष हो, तो आपके ऊपर से कुछ और आना शुरू हो जाएगा, जो कि वास्तविक ज्ञान है।
तरह विचारों से न भरें और चित्त खाली और इनोसेंट हो, निर्दोष हो, तो आपके ऊपर से कुछ और आना शुरू हो जाएगा, जो कि वास्तविक ज्ञान है।
उसको
आने का मौका अगर
देना है तो इस कचरे
से मत रोकें अपने
चित्त को, खाली
जगह छोड दें। सत्य
का अवतरण होगा
आपके भीतर। और
फिर आप साहित्य
को पहचान सकैंगे
क्या सत है और क्या
असत है। यानी साहित्य
के मामले में यूं
मामला है कि सत
और असत आप अभी पहचान
भी नहीं सकते।
सत और असत की पहचान
तब होगी जब चित्त
बिलकुल शांत होगा
और सत्य का आपको
बोध होगा, तो
फिर आपको साहित्य
में सत और असत दिखेगा।
लेकिन
उसके पहले अगर
बिना पड़े मानता
ही नहीं मन क्योंकि
हमारी सारी की
सारी शिक्षा—दीक्षा
पड़ाने की है। हम
सिखाते हैं— पढ़ो!
अगर ऐसी स्थिति
है कि पड़ाने की
शिक्षा—दीक्षा
है और आपको कुछ
पढ़ना ही है, तो
अच्छा है कि जो
आपको लगता है श्रेष्ठ
है धार्मिक है
उसको पढ़ो। लेकिन
इतना स्मरण रहे
कि वह आपके अहंकार
का पोषण न करता
हो।
नहीं
तो धार्मिक आदमी
से ज्यादा दंभी
आदमी खोजना बड़ा
कठिन होता है।
बहुत कठिन होता
है। उसकी जो ईगो
है वह बड़ी पैनी
होती है, बड़ी तीखी
होती है। क्योंकि
वह एक दफा मंदिर
जाता है, क्योंकि
वह कभी उपवास करता
है, क्योंकि
वह रोज माला फेरता
है। हम कितने,.
.हैरान हूं मैं
कि धार्मिकता हमारे
केवल अहंकार का
पोषण ही कर पाती
है, जब कि धार्मिकता
शुरू वहां होती
है जहां कि अहंकार
विलीन हो।
तो
अगर आपका सत—साहित्य
जिसको आप समझ रहे
हैं,
अगर वह आपके
अहंकार की पूर्ति
न करता हो, तो
समझना आहार सम्यक
है। तो उसे पढ़ लेना।
और अगर वह आपके
अहंकार की पूर्ति
करता हो, तो
समझ लेना आहार
असम्बक है, उसे पढ़ने से कोई
लाभ नहीं है आपको
नुकसान हो जाएगा।
यानी, मेरी
आप बात समझे? साहित्य को पढ़ते
वक्त —भापकी चित्त—स्थिति
निर्णीत करेगी
कि जो आप ले रहे
हैं वह सम्यक है
या नहीं है। मेरी
आप बात समझे न?
आपकी चित्त—स्थिति
अगर उससे आपके
दंभ को भरती हो...
रूमी
हुआ,
एक फकीर था सूफी,
वह अपने युवक
पुत्र को बोला
कि तुम रोज सुबह
मेरे साथ मस्जिद
चलो, वहां प्रार्थना
किया करो। उसके
साथ दो—चार दिन
उसका लड़का गया।
सर्दी के दिन थे
और लोग देर तक सोए
रहते थे। एक दिन
वे लौटते थे पांच—छह
दिन बाद, तो
उसके लड़के ने रूमी
से कहा कि देखते
हैं, लोग कितने
पापी हैं कि अभी
तक सो रहे हैं! तो
रूमी ने परमात्मा
से वहीं प्रार्थना
की कि हे परमात्मा,
मैंने बड़ी भूल
की जो मैं इसे मारूदि
ले आया। यह घर सोता
था तो कम से कम किसी
को पापी तो नहीं
समझता था।
तो
यह मस्जिद जाना
असम्बक हो गया, यह
मस्जिद जाना पाप
हो गया। जिस मस्जिद
और जिस मंदिर के
जाने से दूसरे
आपको पापी दिखाई
पड़े, वह मस्जिद
न जाना बेहतर था,
वह सम्यक था।
पर हम अगर विचार
करेंगे तो हमको
दिखाई पड़ेगा,
हमारी धार्मिकता
कुछ ऐसा ही करवा
देती है।
आप
साधु क्या होते
हैं,
शायद आपको साधु
होने की तो बिलकुल
इच्छा नहीं है,
दूसरों को असाधु
कहने का रस है।
दूसरों को असाधु
कहने का रस लेना
चाहते हैं? साधु हो जाएं।
बहुत रस होगा निंदा
का, कंडेमनेशन
का। और दूसरों
को निंदित करने
का बड़ा रस होगा
और दूसरों को पापी
और भोगी कहने का
बड़ा रस होगा। और
दूसरे नरक में
सहेंगे यह कल्पना
आपको बड़ा आनंद
देगी।
मेरा
कुल कहना इतना
ही है, थोड़ा ही सा
कि वह आपकी वृत्ति
पर, पकड़ पर निर्भर
करेगा। अगर आपमें
वृत्ति ऐसी हो
कि वह आपके भीतर
कुछ सरल कर जाती
हो, तो फिर जो
भी पढें आपको वह
साहित्य सम्यक
हो जाएगा। यानी
यह हो सकता है कि
एक फिल्म की कथा,
एक जासूसी उपन्यास
आपके लिए सम्यक
हो जाए।
एक
फकीर बहुत दिन
तक एक चोर के साथ
रहता था। बहुत
दिन उस चोर के साथ
रहा। लोगों ने
कहा तुम इसके साथ
रहते हो, बड़ा असत
संग है। अरे बड़ा
दुष्ट संग है! तुम
साधु आदमी और तुम
चोर के साथ रहते
हो और उसके झोपड़े
पर ठहरते भी हो!
वह
बोला इस चोर से
मैंने इतना सीखा
कि किसी साधु से
कभी नहीं सीखा।
लोगों
ने पूछा तुमने
चोर से क्या सीखा
होगा? चोर के पास
भी सीखने को क्या
है? अरे उसको
ही सीखना है सब।
तुम उससे क्या
सीखोगे
वह
बोला मैं बहुत
सी बातें सीखा, मेरा
जीवन इसी आदमी
ने बदला, यह
मेरा गुरु है।
जब पहली—पहली दफा
मैं इसके पास रुका,
तो मैंने कई
अदभुत बातें देखीं।
पहली बात तो यह
देखी कि इसका काम,
जब सब सो जाते
हैं, तब शुरू
होता है। मैं इससे
सीख लिया। अपना
जो काम है परमात्मा
की खोज का वह किसी
की आंख में न पड़े।
वह चोरी है परमात्मा
की। वह किसी की
आंख में न पड़े।
नहीं तो पकड़ जाएंगे,
मामला सब खराब
हो जाएगा। तो मैंने
इससे सीख लिया
कि अपनी साधना
तब होनी है जब सारी
दुनिया सो जाए।
और अपनी साधना
उस तरह होनी है
कि किसी को पता
न चले। पता चलाने
की जो आकांक्षा
है वह साधना में
बाधक है। पता चलाने
की आकांक्षा—कि
पता चल जाए लोगों
को कि मैं ध्यान
साधता हूं कि मैं
यह करता हूं कि
मैं वह करता हूं—
तो आप साधक नहीं
हैं, आप केवल
अहंकार के लिए
नये आभूषण खोज
रहे हैं। बड़ा मकान
बना लिया था, बड़ा फर्नीचर
खरीद लिया था,
सब था, अब
एक आभूषण की कमी
और थी—कि आप धार्मिक
हैं और परमात्मा
भी आपके पजेशन
में है। वह और आप
किए ले रहे हैं,
दंभ पूरा हो
जाएगा।
तो
उसने कहा इससे
मैंने सीखा कि
अंधेरे में काम
शुरू करना, किसी
को पता न चले। और
इससे मैंने सीखा
कि एक दिन जाता
था, लौट आता
था, घुस नहीं
पाता था। दूसरे
दिन जाता था, घुस नहीं पाता
था, लौट आता
था। पहरे पर लोग
थे रास्ते को थे,
प्रकाश था,
घर में कोई बात
करता था। लेकिन
जाना नहीं छोड़ता
था। मैंने भी कहा
कि पक्का! अनेक
दफे भीतर जाता
हूं घुस नहीं पाता।
अनेक बार भीतर
जाता हूं ताला
नहीं तोड़ पाता।
मैंने कहा यह चोर
है कि कोशिश किए
ही चला जाता है,
मुझे भी कोशिश
किए ही चले जाना
है। मैं किए ही
चला गया।
तो
उसने कहा. यह चोर
मेरा गुरु है।
और सारी दुनिया
इससे कहती थी—छोड़
इसको। यह सब बंद
कर! यह क्या पागलपन
है! और सारी दुनिया
मुझसे भी कहती
कि छोड़ो यह परमात्मा—वरमात्मा, यह
क्या पागलपन है!
इसने नहीं छोड़ा।
मैंने कहा, हम भी छोड़ने वाले
नहीं, जब चोर
ही नहीं छोड़ता।
इससे मैंने तीन
बातें सीख लीं,
जो मैंने किसी
साधु से नहीं सीखीं।
इसके सत्संग में
मुझे जो मिला है
वह कहीं नहीं मिला।
तो
मैं आपसे कह सकता
हूं कि चोर का साथ
भी सत्संग हो सकता
है और साधु का साथ
भी असत्संग हो
सकता है। वह आपकी
वृत्ति पर निर्भर
है।
तो
साहित्य आप कौन
सा पढ़ते हैं, यह
बहुत विचारणीय
नहीं मेरे हिसाब
से। यानी वह आपकी
वृत्ति पर निर्भर
है कि वह आपमें
क्या कर रहा है।
तो आप उस पर जरा
जागे रहें कि यह
क्या कर रहा है?
अब
अभी मैं देखता
हूं सीधे—सरल लोग
साधुओं के पास
चले जाते हैं।
वहां कुछ रटी— रटाई
बातें सीख कर लौट
आते हैं। वे जटिल
हो जाते हैं। वे
सीधे—सरल लोग थे।
वे सीधे— सरल लोग
थे,
उन्हें कभी कोई
दंभ नहीं था जानने
का। वे महीने दो
महीने में किसी
साधु के पास रह
कर लौट आते हैं,
उन्हें जानने
का दंभ और हो जाता
है। वे दूसरों
को सिखाने में
और दूसरी को बताने
में उनकी संलग्नता
आ जाती है। वे विवाद—चुस्त
हो जाते हैं। और
यही ठीक दे इसका
आग्रह उनमें भारी
हो जाता है। तो
मैं कहूंगा कि
वे असत्संग से
लौटे। वे सत्संग
करके नहीं लौटे।
तो
आहार, या कोई भी
और बात, बहुत
कुछ आपकी वृत्ति
पर निर्भर है।
और वह वृत्ति ध्यान
में रहे, तो
फिर आप जो भी करेंगे
वह सम्यक हो जाएगा।
यानी
यूं समझिए कि तीन
बातें मैंने कहीं, अब
एक में उसे कह दूं—
सम्यक वृत्ति,
राइट एटिटयूड
उन तीनों को ले
लेता है। जिसके
पास राइट एटिटयूड
है, वह ठीक सोएगा,
ठीक खाएगा,
ठीक चलेगा,
ठीक पड़ेगा,
ठीक सुनेगा।
तो वे तीन जो मैंने
कहीं बातें वे
अलग— भलग कहीं,
अब एक ही शब्द
में उसको समझ लें—वह
राइट एटिटयूड।
या चाहें तो महावीर
का शब्द ले लें—सम्यक
दृष्टि। यानी उससे
क्या फर्क पड़ता
है! वह दृष्टि सम्यक
हो आपकी तो सब सम्यक
हो जाएगा। और दृष्टि
सम्यक न हो तो सब
असम्बक है। तो
उसका थोड़ा ध्यान
रखेंगे तो उपयोगी
होगा।
प्रश्न
तो बहुत है? ओशो
जीवन के कर्तव्य,
उत्तरदायित्व
ठीक ढंग से कैसे
निभाए जाएं?
अगर
मेरी बात आप समझ
रहे हैं कल से तो
मैं कहूंगा. अगर
आप ठीक हैं, तो
आपके सारे उत्तरदायित्व
और सारे कर्तव्य
ठीक ढंग से निभाए
जाएंगे। और अगर
आप ठीक नहीं हैं,
तो आप चेष्टा
भला करें, आप
अपना पूरा जीवन
खपा दें, न तो
आपके कर्तव्य आप
पूरे कर पाएंगे,
न कोई उत्तरदायित्व
निभा पाएंगे।
विचार
इसका मत करें कि
आप क्या कर रहे
हैं,
विचार इसका करें
कि आप क्या हैं।
आप ठीक हैं, तो आपसे जो भी
निकलेगा वह ठीक
होगा। और आप गलत
हैं, तो जो भी
निकलेगा उसका ठीक
होना संभव नहीं
है। मेरा पूरा
जोर आपके ऊपर है,
आपके व्यवहार
पर बहुत नहीं है।
इसका
यह मतलब न समझें
कि मैं आपके व्यवहार
को कोई मूल्य नहीं
देता। मैं उसको
बहुत मूल्य देता
हूं। लेकिन मैं
यह समझ पाता हूं
कि वह चूंकि आपसे
निकलता है, इसलिए
आपसे अन्यथा नहीं
हो सकता। चूंकि
आपसे निकल सकता
है, आपसे निकलता
है, इसलिए आपसे
भिन्न नहीं हो
सकता। अगर आप भीतर
अंधेरे में हैं,
तो आपका सारा
व्यवहार अंधेरे
में होगा। और उसमें
आप कुछ कर्तव्य
न निभा पाएंगे।
आपको यह भ्रम होगा
कि आपने निभाया
और जिनके प्रति
आपने निभाया,
उन सबको यह शिकायत
होगी कि बिलकुल
नहीं निभाया। आप
समझेंगे मैं उत्तरदायित्व
पूरा कर रहा हूं
और जिनके प्रति
कर रहे हैं वे समझेंगे
इस आदमी ने कोई
उत्तरदायित्व
पूरा नहीं किया।
आप समझेंगे मैं
प्रेम दे रहा हूं
लेकिन जिसको आप
प्रेम दे रहे हैं
उसको बिलकुल पता
नहीं चलेगा कि
आपने प्रेम दिया।
उसकी शिकायत यह
होगी कि मुझे प्रेम
उपलब्ध नहीं हुआ।
क्या
आप नहीं अनुभव
करते रोज? अपने
परिवार में क्या
आप अनुभव नहीं
करते कि आप सोचते
हैं आप पिता को
आदर दे रहे हैं
और पिता समझते
हैं कि इससे ज्यादा
इतना अनादर देने
वाला शायद ही किसी
का पुत्र होगा।
और क्या आप नहीं
सोचते कि आप अपनी
पत्नी को सोचते
हैं प्रेम कर रहे
हैं और आपकी पत्नी
सोचती है कि अभाग्य
है, दुर्भाग्य
है यह कि प्रेम
का कोई पता ही नहीं
है। क्या चौबीस
घंटे आपके सारे
संबंध में आपको
यही शिकायत नहीं
है सबको? क्या
जो आपसे कहते हैं
कि हम आपको प्रेम
करते हैं, आपको
पता चलता है कि
वे आपको प्रेम
करते हैं?
यह
संभव नहीं है।
आप भ्रम पैदा कर
लेते हैं कि हम
कर्तव्य पूरा कर
लेंगे वह हो नहीं
सकता। आप सोचते
हैं हम प्रेम दे
देंगे वह हो नहीं
सकता। अभी प्रेम
आपके भीतर नहीं
है,
तो आप दे कैसे
सकेंगे? जिनको
आप प्रेम देना
चाहते हैं इसके
पहले कि उन्हें
दें, वह आपके
भीतर तो होना चाहिए।
तो आप देने के तो
मनसूबे बांधते
हैं, लेकिन
आपके पास है नहीं।
तो आप जो भी देंगे
वह प्रेम नहीं
होगा, वह कुछ
और होगा। तो आप
भला भ्रम में रहें
कि वह प्रेम था,
लेकिन जिसको
दिया वह कैसे भ्रम
में रहेगा? यानी आप भ्रम
में हो सकते हैं
कि मैंने दिया
जो प्रेम था लेकिन
जिसको दिया वह
कैसे भ्रम में
होगा?
तो
यह सारा हमारा
जो जीवन है बड़े
भ्रमों पर खड़ा
है। और सबसे बड़ा
भ्रम यह है कि हम
जिंदगी में दूसरों
को वे चीजें देना
चाहते हैं जो हमारे
पास हैं ही नहीं।
न हमारे पास श्रद्धा
है,
न हमारे पास
प्रेम है, न
हमारे पास आदर
है, न हमारे
पास सहानुभूति
है, न दया है,
न करुणा है।
लेकिन ये ही हम
देना चाहते हैं।
न हमारे पास सेवा
है। यह कुछ हमारे
पास नहीं है। हम
ये देना चाहते
हैं। और ये झूठे
सिक्के जो हमारे
पास नहीं हैं,
नहीं चलते,
और दुनिया सब
खराब हो जाती है।
दूसरे
भी हमको यही झूठे
सिक्के पकड़ाते
हैं। तो व्यक्ति
को दोहरा असंतोष
जीवन में होता
है। उसने जिनको
देना चाहा था, नहीं
दे सका, इसका
दुख। जिनसे उसने
पाना चाहा था नहीं
पा सका, इसका
दुख। वह जीवन उसका
एक दुख में परिणत
हो जाता है।
जब
कि आप हैरान होंगे, अगर
आपके भीतर प्रेम
उत्पन्न हो जाए,
तो आप जिनको
देना चाहते हैं
उन्हें तो दे ही
देंगे, प्रेम
के साथ दोहरी घटना
घटती है देने की
सामर्थ्य आ जाती
है मांगने की इच्छा
चली जाती है। क्योंकि
जिसके पास प्रेम
है वह किसी से क्या
मांगेगा कि तुम
मुझे प्रेम दो!
हम सारे लोग प्रेम
के प्यासे इसलिए
हैं कि हमारे भीतर
प्रेम नहीं है,
उसकी कमी अखरती
है, दूसरे से
मांगते हैं। हम
सारे लोग प्रेम
चाहते हैं कि कोई
प्रेम दे, कोई
प्रेम दे हमको।
क्यों चाहते हैं?
चाहते इसलिए
हैं कि भीतर प्रेम
नहीं है, इसलिए
दूसरे से मांगते
हैं। अब मजा यह
है कि जिनसे हम
मांग रहे हैं उनके
पास भी नहीं है,
वे भी दूसरों
से मांग रहे हैं।
हम सब भिखमंगे
इकट्ठे हो गए हैं
और एक—दूसरे को
बादशाह समझ रहे
हैं। इससे जीवन
दुख में परिणत
हो जाएगा। जहां
सारे भिखमंगे हों
और एक—दूसरे को
बादशाह समझते हों
वहां क्या होगा?
वहां क्या होगा?
एक
मुसलमान फकीर हुआ, फरीद।
अकबर के समय में
था। उसके गांव
के लोगों ने कहा,
बादशाह तुम्हें
बहुत मानता है,
तुम बादशाह को
जाकर कहना, गांव में एक स्कूल
खोल दे। फरीद ने
कहा कभी जाऊंगा
तो जरूर कहूंगा।
वह गया। वह दिल्ली
गया, वह अकबर
के महल गया। उसे
बड़े सम्मान से
लोग भीतर ले गए।
लोगों ने कहा,
अभी बादशाह नमाज
में हैं, अभी
वे प्रार्थना कर
रहे हैं। फरीद
ने कहा मैं जरा
देस्तूं वे क्या
नमाज करते हैं।
वह उनके पीछे जाकर
खड़ा हो गया। वे
अपनी निजी मस्जिद
में प्रार्थना
करते थे। जब वे
प्रार्थना करके
उठे तो बादशाह
अकबर ने कहा. हे
परम पिता, मुझे
और धन दे! और दौलत
दे! और राज्य का
विस्तार दे!
फरीद
वापस लौट आया।
अकबर ने उसे लौटते
देखा, वह सीढ़ियां
उतरता था, उन्होंने
कहा, अरे आप
आए और लौटते हैं!
कैसे आए?
फरीद
ने कहा. आया कुछ
और सोच कर था, कुछ
और पाकर वापस लौटा
जा रहा हूं। मैंने
सोचा तुम बादशाह
हो। यहां पाया
कि तुम भिखारी
हो। हम सोचते थे
तुमसे कुछ मांगेंगे
हमने तुमको खुद
मांगते पाया। हम
लौट चले। हमने
कहा, तुम जिससे
मांगते हो उसी
से हम मांग लेंगे।
यह
हमारी पूरी जिंदगी
में है। यह हंसने
की बात नहीं, रोने
की बात है। यह करीब—करीब
रोने की बात है,
इससे ज्यादा
रोने की कोई बात
नहीं हो सकती जिंदगी
में। हमारे पास
कुछ नहीं है और
जो हमारे आस—पास
हैं उनके पास भी
कुछ नहीं है। और
हम सबकी शिकायत
यह है कि कोई हमें
कुछ देता नहीं।
और हम सबकी शिकायत
यह है कि हम सबको
सभी कुछ दिए दे
रहे हैं लेकिन
हमें कोई कुछ नहीं
दे रहा है। यह आपका
भ्रम है। न आपके
पास है, न उनके
पास है।
तो
मैं आपसे यह नहीं
कहूंगा कि आप उत्तरदायित्व
निभाएं और कर्तव्य
पूरा करें, यह
मैं
नहीं कहूंगा। ये कोई जबरदस्ती की बातें हैं! मुझसे कोई कहे फलां को प्रेम करो तो मैं कैसे करूंगा? हम बच्चों को सिखाते हैं, एक—दूसरे को प्रेम करो। हम लोगों को सिखाते हैं पड़ोसी को प्रेम करो। यह कितनी फिजूल बात है! प्रेम क्या इस तरह किया जा सकता है? कि आप किसी को कह दें कि करो और वह करने लगे। और ऐसा किया हुआ क्या प्रेम होगा? कि मां—बाप हमको सिखाएं कि बच्चे हमारा आदर करें। कि शिक्षक हमको सिखाएं कि विद्यार्थी हमारा आदर करें। यह बड़ी हैरानी की बात है। अब आदर क्या किया जा सकता है यूं? क्या प्रेम इस तरह किया जा सकता है? क्या कर्तव्य निभाए जा सकते हैं?
नहीं कहूंगा। ये कोई जबरदस्ती की बातें हैं! मुझसे कोई कहे फलां को प्रेम करो तो मैं कैसे करूंगा? हम बच्चों को सिखाते हैं, एक—दूसरे को प्रेम करो। हम लोगों को सिखाते हैं पड़ोसी को प्रेम करो। यह कितनी फिजूल बात है! प्रेम क्या इस तरह किया जा सकता है? कि आप किसी को कह दें कि करो और वह करने लगे। और ऐसा किया हुआ क्या प्रेम होगा? कि मां—बाप हमको सिखाएं कि बच्चे हमारा आदर करें। कि शिक्षक हमको सिखाएं कि विद्यार्थी हमारा आदर करें। यह बड़ी हैरानी की बात है। अब आदर क्या किया जा सकता है यूं? क्या प्रेम इस तरह किया जा सकता है? क्या कर्तव्य निभाए जा सकते हैं?
जहां
निभाना है वहीं
झूठ शुरू हो गया।
जब आप सोचते हैं
कि मैं अपने पिता
के प्रति कर्तव्य
निभा रहा हूं जब
आपको यह पता चलने
लगा कि मैं कर्तव्य
निभा रहा हूं तभी
कर्तव्य समाप्त
हो गया। आप झूठ
कर रहे हैं। आप
बोझ ढो रहे हैं, कर्तव्य
नहीं निभा रहे
हैं। अगर आप सच
में कर्तव्य निभा
रहे होते, वह
आपके भीतर से पैदा
हो रहा होता, तो आपको यह कभी
न लगता कि मैं निभा
रहा हूं; आपको
यह लगता कि मैं
बिलकुल नहीं निभा
पा रहा हूं। अभी
उलटी हालत है जिसके
प्रति निभा रहे
हैं उसे लगता है
नहीं निभा रहे
हैं और जो निभा
रहा है उसको लग
रहा है मैं बहुत
निभा रहा हूं।
अगर आपके भीतर
प्रेम हो, तो
प्रेम हमेशा यह
अनुभव करेगा कि
मैंने कुछ भी नहीं
दिया जो मुझे देना
था। और अभी हमको
ऐसा लगता है, हमने तो सब दिया,
दूसरे ने बिलकुल
नहीं माना।
मेरा
कहना यह है कि आपके
कर्तव्य की मैं
बात नहीं करता, मैं
आपकी चित्त—स्थिति
की बात करता हूं।
मुझे यह लगता है
कि आपके भीतर प्रेम
आए शांति आए, तो आप अपने आप
कर्तव्य को निभाते
हुए पाएंगे। उसे
निभाना क्या है?
उसे सोचना क्या
है? वह अपने
से होगा। आपके
भीतर प्रेम होगा
तो वह अपने से हो
जाएगा। और एक फर्क
पड़ेगा, आपके
भीतर प्रेम होगा
तो प्रेम की मांग
मिट जाएगी।
मैं
आपको एक सूत्र
की बात कहूं : जिस
मनुष्य के पास
प्रेम है उसकी
प्रेम की मांग
मिट जाती है। और
यह भी मैं आपको
कहूं : जिसकी प्रेम
की मांग मिट जाती
है वही केवल प्रेम
को दे सकता है।
जो खुद मांग रहा
है वह दे नहीं सकता
है।
इस
जगत में केवल वे
लोग प्रेम दे सकते
हैं जिन्हें आपके
प्रेम की कोई अपेक्षा
नहीं है— केवल वे
ही लोग! महावीर
और बुद्ध इस जगत
को प्रेम देते
हैं। जिनको हम
समझ ही नहीं पाते।
हम सोचते हैं, वे
तो प्रेम से मुक्त
हो गए हैं। वे ही
केवल प्रेम दे
रहे हैं। आप प्रेम
से बिलकुल मुक्त
हैं। क्योंकि उनकी
मांग बिलकुल नहीं
है। आपसे कुछ भी
नहीं मांग रहे
हैं सिर्फ दे रहे
हैं।
प्रेम
का अर्थ है जहां
मांग नहीं है और
केवल देना है।
और जहां मांग है
वहां प्रेम नहीं
है,
वहां सौदा है।
जहां मांग है वहां
प्रेम बिलकुल नहीं
है, वहां लेन—देन
है। और अगर लेन—
देन जरा ही गलत
हो जाए तो जिसे
हम प्रेम समझते
थे वह घृणा में
परिणत हो जाएगा।
लेन— देन गड़बड़ हो
जाए तो मामला टूट
जाएगा। ये सारी
दुनिया में जो
प्रेमी टूट जाते
हैं, उसमें
और क्या बात है?
उसमें कुल इतनी
बात है कि लेन—देन
गड़बड़ हो जाता है।
मतलब हमने जितना
चाहा था मिले,
उतना नहीं मिला;
या जितना हमने
सोचा था दिया,
उसका ठीक प्रतिफल
नहीं मिला। सब
लेन—देन ट्र्ट
जाते हैं।
प्रेम
जहां लेन—दैन है, वहां
बहुत जल्दी घृणा
में परिणत हो सकता
है, क्योंकि
वहां प्रेम है
ही नहीं। लेकिन
जहां प्रेम केवल
देना है, वहां
वह शाश्वत है,
वहां वह टूटता
नहीं। वहां कोई
टूटने का प्रश्न
नहीं, क्योंकि
मांग थी ही नहीं।
आपसे कोई अपेक्षा
न थी कि आप क्या
करेंगे तब मैं
प्रेम करूंगा।
कोई कंडीशन नहीं
थी। प्रेम हमेशा
अनकंडीशनल है।
कर्तव्य उत्तरदायित्व,
वे सब अनकंडीशनल
हैं, वे सब प्रेम
के रूपांतरण हैं।
तो
मैं आपसे नहीं
कहता आप कैसे कर्तव्य
निभाएं। जब आपको
यह खयाल ही उठ आया
है कि कैसे कर्तव्य
निभाएं, तो आप पक्का
समझ लें, आपके
भीतर कोई प्रेम
नहीं है। तो मैं
आपसे यह कहूंगा—प्रेम
कैसे पैदा हो जाए।
और
यह भी आपको इस सिलसिले
में कह दूं कि प्रेम
केवल उस आदमी में
होता है जिसको
आनंद उपलब्ध हुआ
हो। जो दुखी हो, वह
प्रेम देता नहीं,
प्रेम मांगता
है, ताकि दुख
उसका मिट जाए।
आखिर प्रेम की
मांग क्या है?
सारे दुखी लोग
प्रेम चाहते हैं।
वे प्रेम इसलिए
चाहते हैं कि वह
प्रेम मिल जाएगा
तो उनका दुख मिट
जाएगा, दुख
भूल जाएगा। प्रेम
की आकांक्षा भीतर
दुख के होने का
सबूत है। तो फिर
प्रेम वह दे सकेगा
जिसके भीतर दुख
नहीं है। जिसके
भीतर कोई दुख नहीं
है, जिसके भीतर
केवल आनंद रह गया
है, वह आपको
प्रेम दे सकेगा।
अब
अगर मेरी बात ठीक
से समझें दुख भीतर
हो तो उसका प्रकाशन
प्रेम की मांग
में होता है और
आनंद भीतर हो तो
उसका प्रकाशन प्रेम
के वितरण में होता
है। प्रेम जो है
आनंद का प्रकाश
है। तो जो आदमी
भीतर आनंद से भरेगा
उसके जीवन के चारों
तरफ प्रेम विकीर्ण
हो जाएगा। जो भी
उसके निकट आएगा
उसे प्रेम उपलब्ध
होगा। जो भी उसके
करीब होगा उसका
कर्तव्य पूरा हो
जाएगा, उसका उत्तरदायित्व
निभेगा। और उस
आनंद के लिए तो
मैं आपसे कहा कि
अगर मैं कहूं कि
प्रेम आनंद का
प्रकाश है, तो आनंद आत्म—बोध
का अनुभव है, उसके पूर्व नहीं
है। दुख है कि हम
अपने को नहीं जानते,
अपने को नहीं
जानते इसलिए प्रेम
मांगते हैं। अगर
हम अपने को जानेंगे,
आनंद होगा;
आनंद होगा तो
प्रेम हमसे विकीर्ण
होगा।
तो
मैं कर्तव्य निभाने
को नहीं, प्रेम
को उपलब्ध करने
को आपसे कहूंगा।
एक
प्रश्न है ओशो
अपने को, अपनी
आत्मा को पाने
की क्या जरूरत
है? जो अपना
है उसको ही कैसे पाना है?
है उसको ही कैसे पाना है?
बड़ा
अच्छा प्रश्न है।
बड़ी समझदारी का
और बड़ी नासमझी
का भी।
लिखा
है '
अपने को अपनी
आत्मा को पाने
की क्या जरूरत
है?'
बिलकुल
ही ठीक लिखा है।
जो अपनी है उसको
पाने की क्या बात
है?
उसको पाने का
कोई सवाल नहीं
है। जो अपना ही
है उसको पाना क्या
है? तो जो आत्मा
है उसे क्या पाना
है? यह तो बिलकुल
ठीक बात है। आत्मा
को पाने की बिलकुल
जरूरत नहीं है।
लेकिन
आत्मा आपके पास
है?
जो अपना है वह
है आपके पास? यानी आपको लगता
है कि आत्मा आपमें
है?
अगर
है तो जरूर ही बिलकुल
नहीं पाना है।
और अगर नहीं लगता
तो फिर? अगर आपको
लगता है सुनिश्चित
कि मेरे भीतर आत्मा
है, तो सच में
ही नहीं पाना है।
फिर पाने की क्या
बात है! लेकिन आपको
लगता है कि आत्मा
है? लगता नहीं
होगा। लगता इतना
ही होगा यह देह
है, ज्यादा
से ज्यादा मन है,
और क्या है?
तो
मैं आपको कहूं
जो अपना है वह अपना
होने की वजह से
ही ज्ञात नहीं
हो पाता। जो बहुत
निकट होता है वह
स्मरण में नहीं
रह जाता। दूर की
चीजें दिखाई पड़ती
हैं,
पास, बहुत
पास की चीजें फिर
दिखाई नहीं पड़ती।
जो बिलकुल ही निकट
है वह इसीलिए नहीं
दिखाई पड़ता कि
वह बहुत निकट है।
और जो बिलकुल अपना
है उसे हम इसीलिए
भूल जाते हैं।
अपना इसीलिए भूल
जाता है कि वह बिलकुल
अपना है। वह चौबीस
घंटे सतत, सोते—
जागते, उठते—बैठते
हमारे भीतर है।
वह इतना हमारे
साथ है कि जन्म
हमारा नहीं हुआ
तब वह था जब हमने
जन्म पाया तब है,
जब हम मरेंगे
तब होगा। तो और
सब तो दिखता है
जो परिवर्तित होता
रहता है, जो
परिवर्तित नहीं
होता वह दिखता
नहीं है।
आप
यह जान कर हैरान
होंगे, जो चीज
बिलकुल परिवर्तित
नहीं होती वह आपको
दिखेगी नहीं,
जो. चीजें परिवर्तित
होती हैं वे दिखाई
पड़ेगी। परिवर्तन
उनको हमारी आंख
में स्पष्ट कर
देता है। जो बिलकुल
ही मौजूद है और
कभी बदलता नहीं
और हमेशा साथ है,
वह भूल जाता
है। असल में हम
उसी को याद रख पाते
हैं जिसे पाना
है। आप समझ लें।
हम उसी को याद रख
पाते हैं जिसे
पाना है। जो मिला
नहीं है उसकी याद
रहती है, जो
मिल जाता है वह
भूल जाता है।
इसलिए
जगत में जो चीजें
आप पा लेंगे वे
आपको भूल जाएंगी।
जो आपने नहीं पाई
हैं वे आपको स्मरण
बनी रहेंगी। सारी
वासना, सारी डिजायर
यही तो करती है।
जो मिल गया वह भूल
जाएगा। आपके पास
एक बड़ा भवन है वह
आपको भूल जाएगा।
जो बड़े भवन आपके
पास नहीं हैं वे
आपकी याद में होंगे।
जो प्रेम आपको
मिला वह आपको भूल
जाएगा, जो नहीं
मिला वह आपके स्मरण
में होगा। जो नहीं
है वह दिखता रहता
है और जो है वह दिखना
बंद हो जाता है।
तो
आत्मा इसीलिए आपको
उपलब्ध होकर भी
अनुपलब्ध हो जाती
मालूम होती है, क्योंकि
वह निरंतर उपलब्ध
है, उसका स्मरण
नहीं रहता। उसे
पाना नहीं है न,
इसलिए स्मरण
नहीं रहता। उसे
खोजना नहीं है,
इसलिए स्मरण
नहीं रहता।
इसलिए
साधक को एक बार
एक बड़ी अबूझ पहेली
में से गुजरना
पड़ता है। उसे उसको
फिर से पाना होता
है,
जिसे वह कभी
खोया नहीं। उस
सत्य को उसे फिर
से पाना होता है,
जिसे उसने कभी
खोया नहीं। उस
भूमि पर पैर रखने
होते हैं, जिस
भूमि से पैर कभी
हटाए ही नहीं थे।
उसके प्रति आंख
खोलनी होती है,
जो निरंतर आंख
में था, इसलिए
दिखना बंद हो गया
था।
यह
बात विपरीत लगती
है,
लेकिन विपरीत
नहीं है। बहुत
स्वाभाविक है।
बहुत स्वाभाविक
है। अगर आपको लगता
हो कि आत्मा मेरे
भीतर है, तब
तो कोई सवाल ही
नहीं है और कोई
प्रश्न भी नहीं
है—पूछने न पूछने,
जानने न जानने,
पाने न पाने
का कोई प्रश्न
नहीं है। लेकिन
अगर न लगता हो,
तो अभी तो आपको
पता ही नहीं है
कि आत्मा है भी
या नहीं। जिस दिन
आपको पता लगेगा
आत्मा मैं हूं
उस दिन पाने जैसा
कुछ भी नहीं है।
जब तक यह नहीं पता
लगा है तब तक तो
सब पाने जैसा है।
तो
अगर कोई यह सोच
ले कि आत्मा तो
है ही, इसलिए पाना
क्या है? तो
जीवन नष्ट कर लेगा।
यह केवल बातचीत
थी, सुन लिया
कि आत्मा तो है
ही, इसलिए पाना
क्या है? यह
केवल एक लाजिकल
कनवर्जन था। सुन
लिया कि लोग कहते
हैं आत्मा भीतर
है। जब यह सुन लिया,
तो हमने सोचा
कि फिर पाना क्या
है? पाना क्या
है, यह हमारा
निष्कर्ष है। यह
हमारी तरकीब है
बचने की। और वह
दूसरे का निष्कर्ष
है कि आत्मा है।
आत्मा है, यह
दूसरे का निष्कर्ष
है। अब पाना क्या
है, पाने की
कोई जरूरत नहीं,
यह हमारा निष्कर्ष
है। आप समझ लें!
इस वाक्य में दो
व्यक्तियों के
निष्कर्ष हैं,
एक के नहीं।
अगर एक के हों तो
बात हल हो जाएगी।
आत्मा है, यह
महावीर का होगा,
बुद्ध का होगा,
कृष्ण का होगा।
फिर पाना क्या
है जब हमारे भीतर
है ही, यह हमारा
है। अगर पहला भी
आपका है, तो
फिर कोई दिक्कत
नहीं। अगर पहला
दूसरे का है, तो दूसरे के अनुभव
से आप निष्कर्ष
नहीं निकाल सकते।
अपना अनुभव अपना
निष्कर्ष होगा।
दूसरे का अनुभव
आपके लिए निष्कर्ष
नहीं हो सकता।
तो
आप एक तरकीब उपयोग
में ला रहे हैं।
एक आधा हिस्सा
पीछे का अपना जोड़
रहे हैं। जो कि
केवल इस बात की
सूचना है, केवल
इस बात की सूचना
है कि हम अपनी निद्रा
से नहीं जागना चाहते हैं, हम चुपचाप जैसा चल रहा है चलते देना चाहते हैं और अपने को एक रेशनेलाइल्ड, एक बौद्धिक तर्क भी दे देना चाहते हैं कि उसको पाना ही क्या है जो कि उपलब्ध ही है।
से नहीं जागना चाहते हैं, हम चुपचाप जैसा चल रहा है चलते देना चाहते हैं और अपने को एक रेशनेलाइल्ड, एक बौद्धिक तर्क भी दे देना चाहते हैं कि उसको पाना ही क्या है जो कि उपलब्ध ही है।
कुरान
में एक पंक्ति
है कि वे लोग जो
शराब पीते हैं, वे
लोग जो व्यभिचारी
हैं, वे लोग
जो बुरे कामों
में रस लेते हैं,
उनको अनिवार्यरूपेण
नरक जाना होगा।
कोई पंक्ति है।
एक व्यक्ति शराब
पीता, व्यभिचारी
है, उसको किसी
साधु ने कहा कि
आपको पता नहीं
है कि इसका परिणाम
क्या होगा! वह बोला
मैंने सोचा, अगर हम पूरे वाक्य
को नहीं मान सकते
हैं, तो कम से
कम आधे को तो मानें
ही। उसने कहा,
अगर सदग्रंथों
का पूरा वाक्य
हमसे नहीं सम्हलता
है, तो कम से
कम आधे को तो सम्हालें
ही। आधा वाक्य
यह है कि वे लोग
जो शराब पीते हैं,
वे लोग जो व्यभिचार
करते हैं वे जो
अनाचारी हैं,
आधा इतना है
और आधा यह है कि
वे नरक जाएंगे।
तो उसने कहा, पूरी बात अगर
न भी बनती हो, तो आधी हम सम्हाल
लेते हैं। जितनी
बनती है उतना करते
हैं अभी।
ये
जो हमारी आधी बातें
हैं,
इनमें हमारे
बड़े हिसाब हैं।
इसमें आधी बाते
आपकी है और आधी
किसी दूसरे की
है। वह पहली भी
आधी आपकी हो तो
ठीक है और नहीं
तो आपकी आधी का
कोई मूल्य नहीं
है। और हमने सारे
ग्रंथों में और
सारे सदवचनों में
अपने हिसाब की
चीजें निकाल ली
हैं। वे आधी—आधी
बातें हैं। वे
आधी— आधी बातें
हैं और आधी हमने
छोड़ दी हैं, जिनके बिना वे
न केवल निरर्थक
हैं बल्कि घातक
हैं।
तो
मैं यही कहूंगा, प्रश्न
तो अच्छा है। और
अगर यह मान कर आप
बैठ गए कि आत्मा
है इसलिए क्या
पाना है? तो
घातक हो जाएगा।
अभी आपको आत्मा
नहीं है, अभी
यह आपके लिए सुना
हुआ शब्द है, यह अनुभव नहीं
है। जिस दिन यह
अनुभव होगा उस
दिन जरूर पाने
का कोई प्रश्न
नहीं रह जाता।
उस समय तक तो पाने
जैसी केवल एक ही
चीज है वह आत्मा
है। उसके पहले
पाने जैसा कुछ
भी नहीं है।
अब
दोपहर में बाकी
प्रश्नों को ले
लेंगे।
पढकर मन को शांती मिली
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