भक्ति:
चाकर बनने की
कला
सूत्र:
म्हानें
चाकर राखोजी, म्हाने चाकर
राखोजी।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, नित
उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।।
चाकरी
में दरसन पाऊं, सुमिरण पाऊं
खरची।
भाव—भगति
जागीरी पाऊं, तीनों बातां
सरसी।।
मोरमुकुट
पीताम्बर
सोहे, गल
बैजंती माला।
बिन्द्राबन
में धेनु
चरावें, मोहन
मुरली वाला।।
ऊंचे—ऊंचे
महल चिनाऊं, बिच—बिच
राखूं बारी।
सांवरिया
के दरसन पाऊं, पहर कुसुंबी
सारी।।
जोगी
आया जोग करण
कूं, तप
करने
संन्यासी।
हरि
भजन कूं साधु
आया, बिन्द्राबन
के बासी।।
मीरा
के प्रभु गहर
गंभीरा, सदा
रहो जी धीरा।
आधी
रात प्रभु
दरसन दे हैं, प्रेम नदी
के तीरा।
रमैया
मैं तो थारे
रंग राती।
औरों
के पिया परदेस
बसत हैं, लिख लिख
भेजें पाती।
मेरे
पिया मेरे
हृदय बसत हैं, रोल करूं
दिन—राती।
चूवा
चोला पहिर सखी
री, मैं
झुरमुट रमवा
जाती।
झुरमुट
में मोहे मोहन
मिलिया, घाल
मिली
गलबांथी।
और
सखी मद पी—पी
माती, मैं
बिन पियां ही
माती।
प्रेम
भठी को मैं मद
पीयो, छकी
फिरूं दिन—राती।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो, मनसा
पूरन बाती।
अगम
घाणि को तेल
सिंचायो, बाल रही दिन—राती।
जाऊंनी
पहिरिए आऊंनी
सासरिए, हरिसूं
सेन लगाती।
मीरा
के प्रभु
गिरधर नागर, हरि चरणां
चित लाती।
ये
जहाने रंगो बू
जल्वागाहे
आरजू
नाजनीनो
दिलनशीं
महवशो जौहरा
जबीं
गुलरुखो
लाला अजार
अतरबेज व
मुश्कबार
दिल
फिरोजो दिल
नवाज फितना
रेजो फितना
साज
इक
मुजस्सम अरत
आश शोला रेजो
बर्क पाश
नूरो
निकहत की परी
जानो रुहे
दिलबरी
हर कोई
समझा यही बस
अभी मेरी हुई
इसके
सब नाजो अदा
लुत्फ और
मैहरो वफा
वक्फ
में मेरे लिए
इब्तदाए वक्त
से
चार
दिन की जिंदगी
बस इसी में कट
गई
ये
अरूसे
फितनाकार पास
आई बार—बार
खेलती
सबसे रही पर
किसी की कब
हुई
मेहरबां
जिस पर हुई
जिसकी किस्मत
खोल दी
दर
हकीकत वो मिटा
काम से अपने
गया
जो
समझते हैं इसे
इसको ठुकराते
रहे
इक घड़ी
इसकी बहार
लम्हा भर का
बस निखार
रंग
लाई है उधार
रूप भी है
मुस्तआर
रौशनी
खुर्शीद की बन
गई है चांदनी
जिनको
शौके दीद है
उनकी
हद खुर्शीद
है।
यह
संसार लुभाता
बहुत, पर
तृप्ति इसमें
जरा भी नहीं।
यह संसार की
दुल्हन नाचती
पास—पास, मिलती
कभी किसी को
नहीं। सुंदर
है बहुत, पर
सौंदर्य इसका
उधार है।
रूपवान है
बहुत, पर
रूप इसका अपना
नहीं।
संसार
में जो रूप है, वह भी
परमात्मा की
ही झलक है।
जैसे चांद
होता है रात
में और सारी
पृथ्वी
चांदनी में
नहा गई होती
है; वृक्ष
सुंदर हो उठते
हैं; दिन
में जो कुरूप
थे वे भी रात
की चांदनी में
अपूर्व
सौंदर्य से भर
उठते हैं। इसी
में मत खो जाना,
चांद को
खोजना।
चांदनी में मत
उलझ जाना। यह
संसार चांदनी
जैसा है।
जिनको
शौके दीद है
उनकी
हद खुर्शीद
है।
जो सच
में ही खोज
में निकले हैं, वे चांदनी
में नहीं
भटकेंगे, वे
चांद को पाकर
रहेंगे।
संसार
और परमात्मा
का संबंध ऐसे
ही है जैसे चांदनी
और चांद का
संबंध। चांद
है परमात्मा, चांदनी है
संसार।
परमात्मा से
ही आता है यह
संसार, जैसे
चांदनी आती है
चांद से। फिर
भी चांदनी
चांद नहीं है।
परमात्मा से
उधार लिया हुआ
है सारा रूप, सारा रंग, सारा संगीत,
सारा
सौंदर्य।
ये
जहाने रंगो बू
जल्वागाहे
आरजू
नाजनीनो
दिलनशीं
महवशो जौहरा
जबीं
सच में
बहुत सुंदर है
संसार—जैसे
वीनस का चेहरा, जैसे जौहरा
का चेहरा! यह
स्थल संसार का,
यह छांव और
तृष्णाओं के
रूप—प्रदर्शन
का स्थल है।
चांद जैसे मुख
यहां हैं।
जौहरा, वीनस
जैसी सुंदर
प्रतिमाएं
यहां हैं।
सुगंधित इत्र
और इश्क की
सुगंध बरसाने
वाली प्रतिमाएं
यहां हैं।
गुलरुखो
लाला अजार
अतरबेज व
मुश्कबार
दिल
फिरोजो दिल
नवाज फितना
रेजो फितना
साज
इक
मुजस्सम अरत
आश शोला रेजो
बर्क पाश
नूरो
निकहत की परी
जानों रुहे
दिलबरी
यह
जीवनत्तरंग
बड़ी प्यारी है, बड़ी लुभाने
वाली है, बड़ी
आकर्षक है!
हर कोई
समझा यही बस
अभी मेरी हुई
इस
जीवनत्तरंग
को जब तुम पास
आते देखते हो
तो यही समझते
हो: बस अभी
मेरी हुई।
इसके
सब नाजो अदा
लुत्फ और
मैहरो वफा
इसका
सारा सौंदर्य
मेरी मुट्ठी
में अब आया, अब आया! पर
तरंग कब किसकी
हुई? तरंग
आती और चली
जाती है।
वक्फ
में मेरे लिए
इब्तदाए वक्त
से
चार
दिन की जिंदगी
बस इसी में कट
गई
यही
सोचते—सोचते
चार दिन कट
जाते हैं। थोड़े
से दिन हैं
जिंदगी के।
अंगुलियों पर
गिने जा सकते, इतने दिन है
जिंदगी के।
यही सोचते कि
अब मिला, अब
मिला, अब
मिला...संसार
कब किसको
मिला!
ये
अरूसे
फितनाकार पास
आई बार—बार
यह
दुल्हन नाचती
पास भी आ जाती
बहुत बार, बहुत पास आ
जाती है! ऐसी
कि हाथ के
भीतर मालूम
पड़ती है, कि
जरा हाथ बढ़ा
दिया कि मिल
ही जाएगी, कि
जरा मुट्ठी
बांध ली तो
मेरी हो
जाएगी!
ये
अरूसे
फितनाकार पास
आई बार—बार
खेलती
सबसे रही पर
किसी की कब
हुई
संसार
कभी किसी का
नहीं हुआ।
संसार कभी
किसी का हो
नहीं सकता।
चांदनी पर
मुट्ठी
बांधोगे, मुट्ठी
खाली रह जाएगी।
चांदनी को कौन
बांध पाया!
कैसे बांध पाओगे?
चांदनी के
पैरों में
जंजीरें कैसे
डाल पाओगे? चांदनी तो
एक स्वप्न है;
मुट्ठियों
में नहीं
बांधा जा सकता;
मिल नहीं
सकता।
जिनको
शौके दीद है
उनकी
हद खुर्शीद
है।
जो सच
में ही कुछ
पाना चाहते
हैं, वे चांद
को पाने निकलें,
चांदनी के
खेल में न
रंगे रहें।
महरबां
जिस पर हुई
जिसकी किस्मत
खोल दी
दर
हकीकत वो मिटा
काम से अपने
गया।
और
संसार जिस पर
मेहरबां हो
जाता है, जिस
पर दया कर
देता है, ऊपर
से तो लगता है
मेहरबानी हो
गई, लेकिन
भीतर बात उलटी
घट जाती है।
मेहरबां
जिस पर हुई जिसकी
किस्मत खोल दी
दर
हकीकत वो मिटा
काम से अपने
गया
दर
हकीकत वो मिटा, राम से अपने
गया
वह मिट
ही जाएगा! यह
संसार मिटाता
है, बनाता
नहीं। इस
संसार में मौत
के अतिरिक्त
और कभी कुछ
घटता नहीं। यह
संसार लूटता
है। इस संसार
के पास देने
को कुछ भी
नहीं। यह
संसार खुद
उधार है। यह
चांद की
चांदनी है।
जो
समझते हैं इसे
इसको ठुकराते
रहे
इक घड़ी
इसकी बहार
लम्हा भर का
बस निखार
ये
जानते हैं, यह घड़ी भर की
बहार है। ये
फूल अभी खिले,
अभी
कुम्हला गए।
यह लहर अभी आई,
अभी
विसर्जित हो
गई। यह गंध का
एक झोंका है, जो आया और
गया; आया
भी नहीं और
गया हो गया।
जो
समझते हैं इसे
इसको ठुकराते
रहे
इक घड़ी
इसकी बहार
लम्हा भर का
बस निखार
रंग
लाई है उधार
रूप भी है
मुस्तआर
सब
उधार है संसार
में, क्योंकि
संसार
प्रतिध्वनि
है। जैसे कोई
पहाड़ में गया
और जोर से
चिल्लाया और
पहाड़ियों में
गूंज हुई—ऐसा
ही संसार है—गूंज
है। अब
पहाड़ियों में
जब गूंज हो, तब तुम
पहाड़ों में
खोजने मत निकल
जाना कि किसकी
गूंज है। कोई
भी न मिलेगा।
गूंज उधार थी।
प्रतिफलन
है संसार; जैसे दर्पण
में चित्र बन
जाए। अब तुम
दर्पण में
खोजने मत निकल
जाना, अन्यथा
दीवालों से
टकराओगे, लहूलुहान
हो जाओगे।
जैसे चांद का
प्रतिबिंब
बना झील में, अब तुम झील
में लाख डुबकी
लगाओ, तुम
चांद को न पा
सकोगे। चांद
वहां है ही
नहीं।
रंग
लाई है उधार
रूप भी है
मुस्तआर
रौशनी
खुर्शीद की बन
गई है चांदनी
जिनको
शौके दीद है
उनकी
हद खुर्शीद
है।
चांद
पर नजर रखो, चांदनी से
मुक्त हो जाओ—तो
कुछ पा सकोगे;
तो जिंदगी
खाली न जाएगी;
तो काम से न
जाओगे, राम
से न जाओगे; तो भर
जाओगे। और भर
जाओ तो तृप्ति
है।
जिसने
संसार का यह
व्यर्थ
क्षणभंगुर का
प्रलोभन देख
लिया, वही
व्यक्ति
परमात्मा की
तलाश में
निकलता है। जो
संसार से
जागने लगा, जिसे यह दिखाई
पड़ने लगा कि
स्वप्नवत है
सब यहां, वही
सत्य की खोज
में निकलता
है। वही कह
सकता है प्रभु
से: म्हानें
चाकर राखोजी।
इस
संसार में
मालिक होकर भी
कोई मालिक
नहीं हो पाता।
और परमात्मा
के चरणों में
दास होकर भी मालिक
हो जाता है।
इस संसार में
सिकंदर भी कहां
मालिक हो पाते
हैं! और उस
संसार में
मीरा भी मालिक
हो जाती है।
और मीरा
मांगती नहीं
मालकियत—और
मालिक हो जाती
है। मीरा
मांगती तो
इतना ही है:
म्हानें चाकर
राखोजी। मुझे
नौकरी पर रख
लो। मुझे छोटा—मोटा
काम दे दो।
ऐसे ही बुहारी
लगाती रहूंगी
या पैर दाब
दूंगी।
म्हानें
चाकर राखोजी...
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं...
तुम्हारे
बगीचे में काम
कर दूंगी।
तुम्हारे पौधों
को पानी सींच
दूंगी।
...नित
उठ दरसन
पासूं।
बस
इतना बहुत है।
तुम्हारे
बगीचे में
झाडू—बुहारी
देती रहूंगी, सूखे पत्तों
को बीनती
रहूंगी, तुम्हारे
पौधों को पानी
देती रहूंगी,
तुम्हारे
लिए फूल चुनती
रहूंगी, तुम्हारे
लिए गजरा
बनाती रहूंगी—और
मेरे लिए इतना
ही सौभाग्य
काफी होगा
कि...नित उठ
दरसन पासूं।
बगीचे से
तुम्हारी झलक
मिलती रहेगी,
तुम्हें
देखती
रहूंगी।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।
इतना
पर्याप्त है
मुझे कि भर
आंख तुम्हें
देखती रहूं।
बस इतना बहुत
है। सब मिल
गया!
इससे
ज्यादा नहीं
चाहिए भक्त
को। भक्त की
मांग बड़ी छोटी
है, लेकिन
भक्त विराट को
पा लेता है।
समझना
इस राज को:
जितनी बड़ी
मांग, उतनी
छोटी
उपलब्धि।
जितनी छोटी
मांग, उतनी
बड़ी उपलब्धि।
समझना इस राज
को: मांग...कि
उपलब्धि नहीं;
और मांग
बिलकुल न हो
तो सब मिल
जाता है।
परमात्मा
उन्हें मिलता
है जिनकी कोई
मांग नहीं।
अब यह
भी कोई मांग
है: म्हानें
चाकर राखोजी!
मुझे
नौकर रख लो!
कुछ भी काम दे
देना, चलो
बगीचा सही।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, नित
उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।
तुम्हारा
दर्शन होता
रहेगा, बस
काफी है। मेरे
गीत जग
जाएंगे।
तुम्हारा दर्शन
होता रहेगा, मेरे पैरों
में घूंघर बंध
जाएंगे।
तुम्हारा दर्शन
होता रहेगा, मेरे प्राण
रस में डूब
जाएंगे। फिर
कुछ और करने
को नहीं है।
गाऊंगी
तुम्हारी
लीला।...तेरी
लीला गासूं।
फिर
कुछ और बचा
नहीं पाने को।
फिर आनंदमग्न
हो नाचूंगी।
जिन्हें तेरी
खबर नहीं है, उनको तेरी
खबर पहुंचा
दूंगी। जो सोए
हैं, उन्हें
जगा दूंगी।
जिनके कान में
तेरी भनक भी नहीं
पड़ी है, उनके
कानों में
तेरी भनक
पहुंचा
दूंगी। बांटूंगी
तुझे।
खयाल
करना: मांगती
कुछ भी नहीं
है। मांगती
इतना ही है कि
चाकरी पर रख
लो।
चाकरी
में दरसन
पाऊं...
और फिर
कहती है, ऐसा
भी मत सोचना
कि चाकरी में
कोई बड़ी बात
तुमसे
मांगूंगी, कि
नौकरी क्या
होगी, वेतन
कितना
मिलेगा।
चाकरी
में दरसन
पाऊं...
वेतन
इतना ही बहुत
है कि
तुम्हारा दर्शन
मिलेगा।
...सुमिरन
पाऊं खरची।
और
इतना खर्च मिल
जाए कि
तुम्हारी याद
बनी रहे।
तुम्हारा
दर्शन मेरा
वेतन हो गया।
तुम्हारी याद
बनी रहेगी, तुम बार—बार
दिखाई पड़ते
रहोगे, तो
वह मेरा जो मन
हरामी है, मुझे
भटका न पाएगा।
तुम फिर—फिर
दिखाई पड़
जाओगे, फिर—फिर
तुम्हारी याद
सघन हो जाएगी,
फिर—फिर तुम
मुझे खींच
लोगे।
चाकरी
में दरसन पाऊं, सुमिरण पाऊं
खरची।
तुम्हारा
स्मरण बना रहा
तो और क्या
चाहिए खर्च के
लिए! इतना
बहुत है। इतना
जीवन के लिए
पर्याप्त है।
बस मुझे पास
बुला लो। मुझे
चाकरी दे दो।
भाव—भगति
जागीरी पाऊं...
और कोई
जागीरी नहीं
मांगती हूं; इतना ही—भक्ति
की जागीरी मिल
जाए, भाव
की जागीरी मिल
जाए।
मस्तिष्क से
तो तुम्हें
पुकारती हूं,
हृदय से
तुम्हें
पुकार सकूं।
तुम मेरे भाव
में उतर जाओ।
तुम मेरी
श्वास—श्वास
में समा जाओ।
तुम्हें
भूलूं ही न।
जागूं कि सोऊं,
उठूं कि
बैठूं, तुम्हारी
याद सतत ही
बनी रहे।
अक्षुण्ण!
धारा खंडित न
हो। अखंड!
भाव—भगति
जागीरी पाऊं, तीनों बातां
सरसी।
इन तीन
बातों से काम
चल जाएगा, ज्यादा
तुमसे मांगती
नहीं।
कुछ भी
मीरा मांग
नहीं रही।
सोचना, मांग
कुछ भी नहीं
रही। क्योंकि
दर्शन में भी
प्रभु का क्या
जाता है? मीरा
की आंखें भर
जाएंगी, प्रभु
का क्या जाता
है?
जब तुम
फूल को देखते
हो और प्रसन्न
हो जाते हो, फूल का क्या
जाता है? तुम्हारी
आंखें भर जाती
हैं।
तुम्हारा
हृदय आंदोलित
हो जाता है।
...सुमिरन
पाऊं खरची।
सुमिरण
में भी प्रभु
को तो कुछ
करना नहीं है; मीरा को ही कुछ
करना है। याद
करनी है।
स्मरण करना
है।
भाव—भगति
जागीरी पाऊं...
भाव—भगति
में भी
परमात्मा को
क्या करना है!
तो परमात्मा
से कुछ भी
नहीं मांग रही
है। यह न
मांगना ही कला
है। और जो
मांग रही है, वह अपने
हृदय का
रूपांतरण
मांग रही है।
जो मांग रही
है, वह मन
से मुक्ति
मांग रही है।
जो मांग रही
है, वह
नीचे गिरने के
लिए जो सीढ़ी
लगी है, वह
कट जाए, फिर
नीचे गिरना न
हो।
मोरमुकुट
पीताम्बर
सोहे, गल
बैजंती माला।
पहली
पंक्तियों
में और दूसरी
पंक्तियों
में फर्क खयाल
रखना। मांग
पूरी हो गई
जैसे! पहले पंक्तियों
में मांग है।
मोरमुकुट
पीताम्बर
सोहे, गल
बैजंती माला।
मांग
पूरी हो गई
जैसे! जिसने
भी चाकर होना
चाहा, उसकी
मांग सदा पूरी
हो गई। तुम भी
जरा करके देखो!
मगर भीतर—भीतर
यह वासना न
रहे कि यह
इरादा...चाकरी
तो मांग रहे
हैं, लेकिन
इरादा तो
मालकियत का
है। भगवान से
चूकते रहोगे,
जब तक तुम
उसके मालिक
होना चाहोगे।
यह बात ही
महापाप है।
लोग
भगवान के भी
मालिक होना
चाहते हैं।
लोग प्रेम में
भी मालकियत
कायम करते
हैं। और प्रेम
का मालकियत से
क्या संबंध? प्रेम और
मालकियत में
दुश्मनी है।
जब तुमने किसी
स्त्री से कहा
कि अब मैं
तेरा मालिक, क्योंकि मैं
तुझे प्रेम
करता हूं; और
किसी स्त्री
ने किसी पुरुष
को कहा कि अब
मैं तेरी
मालिक, क्योंकि
मैं तुझे
प्रेम करती
हूं—उसी क्षण
प्रेम मर जाता
है। प्रेम की
मौत उसी क्षण
घट जाती है
जिस क्षण
मालकियत आती
है।
लेकिन
हमारे सब
प्रेम के नाते
मालकियत के
नाते हैं।
कब्जा है। उस
कब्जे के कारण
ही प्रेम
पृथ्वी से
विलीन हो गया
है। प्रेम के
फूल अब खिलते
नहीं। प्रेम सिर्फ
बातचीत रह गया
है। कविताओं
में मिलता है, जीवन में
नहीं मिलता।
लोगों में
झांको तो वहां
प्रेम का कोई
पता नहीं है।
प्रेम के नाम
पर और कुछ
चीजें हैं।र्
ईष्या है, जलन
है, वैमनस्य
है, प्रतिस्पर्धा
है, महत्वाकांक्षा
है, हिंसा
है। और सब है—प्रेम
भर नहीं है।
चाहे प्रेम
ऊपर से लिखा
भी हो, लेकिन
भीतर कुछ और
है।
तुमने
जिससे प्रेम
किया, उस पर
मालकियत की है,
तो तुमने
प्रेम की
हत्या कर दी।
तुमने महापाप किया
है। इससे बड़ा
कोई पाप नहीं
है। प्रेम की
हत्या से बड़ी
कोई हत्या
नहीं है।
क्योंकि
प्रेम की
हत्या अंततः
परमात्मा की
हत्या है।
प्रेम से ही
तो सूत्र
मिलते हैं परमात्मा
के। प्रेम से
ही तो सीढ़ी
लगती है परमात्मा
की। प्रेम से
ही तो आदमी
धीरे—धीरे
रसविमुग्ध
होता है; राज
सीखता है।
प्रेम
पाठशाला है
परमात्मा की।
जैसे
कोई तैरना
सीखने जाता है
तो पहले उथले
पानी में
सीखता है।
स्वभावतः
गहरे पानी में
सीखने जाओगे
तो डूबोगे।
गले—गले पानी
में सीखता है।
जब कुशल हो
जाता है तो फिर
गहरे में जाता
है। फिर जितना
कुशल हो जाता
है उतना गहरे
में जाता है।
प्रेम
परमात्मा का
उथला रूप है।
वहां सीखनी है
प्रार्थना।
वहां जिसने
सीख ली, वह
फिर गहरे में
जाएगा। वह फिर
मीरा के अगम
गंभीर में, जिसकी फिर
कोई सीमा नहीं,
अनहद में, गहरे में
उतर जाएगा।
जिसकी कोई फिर
सीमा ही नहीं,
उसमें जाया
जा सकता है; लेकिन सीमा
में पाठ सीखना
पड़ता है। असीम
में जाने के
लिए भी पाठ
सीमा में सीखना
पड़ता है।
मैं
तुम्हें याद
दिला दूं। बार—बार
कहता हूं:
प्रेम पाठ है
परमात्मा का।
अगर तुम प्रेम
में कुशल हो
गए तो
परमात्मा दूर
नहीं। जितनी
तुम्हारी
कुशलता प्रेम
में है उतना परमात्मा
करीब आता है।
लेकिन
प्रेम के नाम
पर तुमने कुछ
और जहर पाल
रखे हैं; कुछ
और सांप—बिच्छू
पाल रखे हैं।
प्रेम के नाम
पर तुमने बड़ा
धोखा दे रखा
है अपने को।
तुम अपने
बच्चे को प्रेम
करते हो, कहोगे
निश्चित? लेकिन
अगर बच्चे पर
तुम अपने
सिद्धांत थोप
रहे हो तो तुम
प्रेम नहीं
करते। अगर तुम
हिंदू हो और
अपने बेटे को
हिंदू बना रहे
हो, तो तुम
प्रेम नहीं
करते। क्यों?
क्योंकि
तुम उसे
परतंत्र कर
रहे हो। तुम
उसके पैरों
में जंजीरें
डाल रहे हो।
प्रेम—और
जंजीरें
डालेगा! और
तुम्हें कुछ
खुद भी पता
नहीं है, फिर
भी तुम
जंजीरें डाल
रहे हो। जैसे
तुम्हारे
पिता ने तुम्हारे
पैरों में
जंजीरें डाली
थीं—हिंदू
धर्म की, मुसलमान
धर्म की, ईसाई
धर्म की, जैन
धर्म की—तुम
अपने बेटे के
पैरों में डाल
रहे हो। न तुम्हें
कुछ मिला है, तुम इस बेटे
को भी खराब
किए जा रहे
हो। तुम्हारा
अगर प्रेम
होता तो इतना
तो तुम बेटे
से कहते कि
मैं चालीस साल,
पचास साल से
हिंदू हूं, कुछ मुझे
मिला नहीं, शायद यह
हिंदू धर्म
मुझे उधार
मिला, यह
मैंने खोजा
नहीं था।
उधारी के कारण
मैं चूक गया
हूं। मंदिर
गया हूं, औपचारिक
रह गया।
प्रार्थना की,
शब्द रह गए।
हृदय मेरा
नहीं खुला। तो
मैं तुझे कहता
हूं बेटा कि
तू उधार धर्म
मत लेना। तू
अभी खोजना। जब
तुझे अपने मन
का धर्म मिल
जाए, जब
तुझे अपने मन
से मेल खाता
मंदिर मिल
जाए।...
और
मंदिर वही जो
मन से मेल
खाए। इसलिए तो
उसे मंदिर
कहते हैं। वह
उधार तो हो ही
नहीं सकता। वह
तो अन्वेषण
करना होता है, खोजना होता
है, तलाशना
होता है, टटोलना
होता है।
जब
तुम्हें अपने
मन का मीत मिल
जाए, वहीं झुक
जाना। फिर वह
मस्जिद हो, मंदिर हो, गुरुद्वारा
हो, क्या
हो, इसकी
फिकर मत करना,
क्योंकि सब
परमात्मा का
है। मैं तो
औपचारिक में
खो गया। मैं
तो जड़
सिद्धांतों
में खो गया। मुझे
तो जो किताबें
हाथ में थमा
दी गई थीं, उन्हीं
को पूजते—पूजते
नष्ट हो गया।
मैं तेरे हाथ
में कोई किताब
न थमाऊंगा।
मैं तुझे
सिर्फ एक बात
देना चाहूंगा—जिज्ञासा,
मुमुक्षा, खोज की
प्रबल
आकांक्षा। तू
मेरे आंसू सीख,
मेरी किताब
नहीं। तो
तुमने प्रेम
किया।
प्रेम
कैसे किसी को
परतंत्र
बनाएगा? प्रेम
सोच भी कैसे
सकता है
परतंत्र
बनाने की बात?
प्रेम तो
परम
स्वतंत्रता
का द्वार है।
लेकिन जिसको
हम प्रेम कहते
हैं, वह
परतंत्र
बनाता है। तुम
अपने बेटे को
प्रेम करते हो
और तुम उसे वह
सब जहर सिखा
रहे हो जिससे
तुम मरे, तुम
सड़े, तुम
गले। तुम उसे
वही धन की दौड़
सिखा रहे हो, जो तुम्हें
ले डूबी। यह
कैसा प्रेम? अगर तुम
किसी गङ्ढे
में गिरे और
हाथ—पैर टूट
गए, तो
क्या तुम अपने
बेटे को भी
उसी गङ्ढे में
जाने को कहोगे?
अगर कहो तो
क्या इसे हम
प्रेम कहेंगे?
जिंदगी भर
रुपये के पीछे
तुम दौड़े, भिखारी
रहे, हाथ—पैर
टूट गए, जीवन
नष्ट हो गया, मौत करीब आ
रही है—और
अपने बेटे को
भी कह रहे हो
कि धन कमा
लेना! धन में
ही सार है! तुम
कैसा प्रेम
करते हो? तुम
अगर जरा भी
ईमानदार हो तो
तुम कहोगे कि
मेरी जिंदगी
धन के पीछे
खराब हुई, अब
तू धन की दौड़
में मत दौड़ना।
तू कुछ और
तलाशना। शायद
जो मुझे नहीं
मिल सका, तुझे
मिल जाए। मेरी
जिंदगी पद में
ही खराब हुई, पद की
आकांक्षा ही
मेरी नाव को
डुबा दी। अब
तू पद मत
खोजना।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है! तुमने
जिसमें अपनी जिंदगी
खराब की है, वही तुम
अपने बेटों को
सिखा रहे हो।
और ज्यादा जोर
से सिखा रहे
हो। शायद तुम
सोचते हो कि तुम
नहीं पा सके, क्योंकि
पाने के लिए
जितनी चेष्टा
करनी थी, वह
तुमने नहीं
की। अब तुम
चाहते हो कि
बेटा उतनी
चेष्टा करे
जितनी तुम
नहीं कर पाए।
जहां—जहां तुम
चूक गए हो, तुम
बेटे को और
कुशल कर रहे
हो, और
निष्णात कर
रहे हो। तुम
इसका जीवन भी
खराब कर दोगे।
तुम
अपने प्रेम को
जांचोगे तो एक
बात निश्चित
पाओगे कि
तुम्हारा
प्रेम प्रेम
नहीं है। और
इसलिए तो परमात्मा
से संबंध नहीं
जुड़ता। तुम
अगर परमात्मा
से भी संबंध
जोड़ना चाहो तो
भीतर कहीं मालकियत
होगी।
मैंने
एक कहानी सुनी
है। कहां तक
सच है, पता
नहीं। सच होनी
चाहिए। कहते
हैं तुलसीदास
को कृष्ण के
मंदिर में ले
जाया गया।
नाभादास ने
कहानी लिखी।
वे गए लेकिन
कृष्ण के
सामने झुके
नहीं। जो
उन्हें मंदिर
में ले गया था,
उसने कहा कि
आप प्रणाम
नहीं कर रहे
हैं? तुलसीदास
ने कहा कि मैं
तो सिर्फ
धनुर्धारी राम
के सामने
झुकता हूं। और
कहानी कहती है
कि तुलसीदास
ने कहा कि अगर
चाहते हो कि
मैं तुम्हारे
सामने झुकूं,
तो हाथ में
धनुषबाण लो।
कहानी
किन्हीं
नासमझों ने
लिखी होगी। और
अगर हुई है तो
तुलसीदास भी
बड़े नासमझ थे।
यह भी कोई राम
से दोस्ती हुई, कि कृष्ण
में राम को न
देख सके! यह
कोई धार्मिकता
हुई? राम भी
हिंदू, कृष्ण
भी हिंदू—और
तुलसीदास
कृष्ण में भी
राम को न देख
सके! तो मस्जिद
में क्या खाक
देखेंगे? गुरुद्वारा
में क्या करते?
प्रवेश ही न
करते भीतर।
गिरजे में
क्या करते? दूर से ही
निकल जाते कि
भाई छाया न पड़
जाए, नहीं
तो मुझे स्नान
करना पड़ेगा।
और कृष्ण से कहते
हैं कि तब
झुकूंगा मैं,
जब तुम हाथ
में धनुषबाण
लो। यह तो
परमात्मा को
भी आज्ञा देना
हो गया। इसमें
और मीरा में
फर्क देखते
हो: म्हानें
चाकर राखोजी!
यह तो बड़ा भेद
हो गया।
तुलसीदास तो
बड़े अकड़े
मालूम पड़ते हैं।
जैसे
परमात्मा को
गरज हो इनके
झुकने की, कि
ये न झुके तो
परमात्मा को
कुछ अड़चन रह
जाएगी! जैसे इनके
झुकने में बड़ा
राज है! जैसे
इनके झुकने के
लिए परमात्मा
जन्मों—जन्मों
से प्रतीक्षा
कर रहा है!
इनकी शर्त पूरी
होनी चाहिए कि
धनुषबाण हाथ
लो! मैं जैसा
चाहूं वैसे
तुम होने
चाहिए, तो
झुकूंगा!—यह
झुकना
परमात्मा की तरफ
नहीं, यह
तो अपने "मैं'
की ही तरफ
है।
इसका
अर्थ समझना।
यह तो अहंकार
है। यह तो यह कहना
हुआ कि मैं
झुकूंगा तो
अपनी धारणा के
प्रति
झुकूंगा।
मेरी धारणा है
कि भगवान होते
तो धनुषबाण
लिए होते।
मैं एक
यात्रा में था
और एक जैन
महिला मेरे साथ
थी। उसका नियम
था कि जब तक वह
जाकर जैन
मंदिर में
प्रणाम न कर
ले, भोजन न
करे। एक गांव
में जैन मंदिर
नहीं था तो उसने
दिन भर भोजन न
किया। मैं भी
बड़ा बेचैन हुआ
कि यह तो बड़ी
मुश्किल की
बात हो गई।
संयोग की बात,
दूसरे गांव
में पहुंचे तो
मैंने पूछा कि
यहां जैन
मंदिर है? पहली
बात ही यह पूछी।
तो उन्होंने
कहा: हां, जैन
मंदिर है। तो
मैं बहुत खुश
हुआ। मैंने उस
महिला को कहा
कि चलो अच्छा
हुआ, एक
दिन का उपवास
हुआ, ठीक; मगर यहां
मंदिर है, तू
जाकर नमस्कार
कर आ और जल्दी
से भोजन कर।
वह गई, वापस
आकर बोली कि
नहीं, भोजन
नहीं होगा, वह तो
श्वेतांबर
जैन मंदिर है।
वह दिगंबर थी।
इस
मूढ़ता को धर्म
कहते हो? वही
महावीर? चलो
कृष्ण और राम
में थोड़ा फर्क
भी होगा; मगर
वही महावीर
श्वेतांबर
मंदिर में
बैठे हैं, वही
महावीर
दिगंबर मंदिर
में बैठे हैं।
लेकिन नहीं, दिगंबर तो
दिगंबर मंदिर
में झुकेगा।
यह अपने ही
अहंकार की
पूजा है
प्रकारांतर
से। इसमें
परमात्मा का
कुछ लेना—देना
नहीं है।
तुलसीदास
कहते हैं:
धनुषबाण हाथ
लो, तो मेरा
माथा झुकेगा।
और जिसने
कहानी लिखी है,
वह भी मूढ़
ही रहा होगा।
कहानी यहां तक
बढ़ी कि फिर
कृष्ण को
धनुषबाण हाथ
लेना पड़ा।
धनुषबाण हाथ
में लिया
कृष्ण ने, तब
तुलसीदास
झुके। जैसे
परमात्मा
आतुर है
तुम्हारे
झुकने के लिए!
यह कुछ धारणा
मौलिक रूप से
भ्रांत है।
मगर यही धारणा
प्रचलित रही
है। लोग परमात्मा
के भी मालिक
हो जाना चाहते
हैं। शायद परमात्मा
तुमसे इसलिए
बचता फिरता
है। नहीं तो
तुम उसकी
गर्दन दबा
दोगे। वह
अदृश्य इसीलिए
है, और
किसी कारण से
नहीं।
यहूदियों
के शास्त्रों
में एक कथा है—तालमुद
में कथा है—कि
शुरू—शुरू में
जब भगवान ने
दुनिया बनाई, तो वह यहीं
रहता था, जमीन
पर ही रहता था,
बीच बाजार
में रहता था।
उसकी ही
दुनिया थी। बनाई
ही इसलिए थी
कि इसमें रहे।
मगर लोग उसे
बहुत परेशान
करने लगे। न
दिन देखें न
रात, घुसे
चले आ रहे हैं—कि
ऐसा होना
चाहिए। और
मांगें उनकी
ऐसी कि पूरी न
हो सकें।
क्योंकि किसी
ने खेत में
बोआई कर दी, वह कहता:
पानी कल गिरना
ही चाहिए। और
कोई कहता है:
कल पानी गिरे
न, खयाल
रखना, मैंने
अभी बोआई की
नहीं। किसी ने
मिट्टी के
बर्तन बनाए
हैं—किसी
कुम्हार ने—वह
कहता: पानी
अभी महीने भर
नहीं गिरना
चाहिए; मेरे
सब बरतन खराब
हो जाएंगे। और
किसी के बीज मरे
जा रहे हैं।
कोई कहता:
पानी अभी
चाहिए। कोई
कहता: कल धूप
रहे; मैं
यात्रा पर जा
रहा हूं, जरा
खयाल रखना।
कोई कहता, कल
धूप तो होनी
ही नहीं चाहिए,
क्योंकि
मेरे घर बड़े
मेहमान
इकट्ठे हो रहे
हैं; छोटा
घर है, घर
के बाहर ही
उन्हें
बिठाना पड़ेगा
भोजन के लिए; कल तो धूप हो
ही न।
दिन—रात
तांता लगा रहे
लोगों का। और
जब उनकी मांगें
पूरी न हों तो
वे फिर झंझटें
करने लगे—घिराव, हड़ताल।
तालमुद में यह
बात कही गई है
कि लोग पत्थर
फेंकने लगे उसकी
खिड़कियों पर।
लोग दंगा—फसाद
करने लगे। लोग
गुंडागिरी पर
उतर आए। फिर परमात्मा
को सलाहकारों
ने कहा उसके, कि यहां से
हट जाना उचित
है, यहां
जीना संभव
नहीं होगा। तब
से परमात्मा
अदृश्य हो
गया।
यह कथा
मुझे
प्रीतिकर
लगती है, अर्थपूर्ण
लगती है। तुम
जरा सोचो, अगर
तुम्हें
परमात्मा मिल
जाए तो तुम
उसके साथ
सदव्यवहार कर
पाओगे? सदव्यवहार—असंभव!
तुम एकदम झपट
कर गर्दन पकड़
लोगे कि कहां
रहे इतने दिन?
और मेरे
लड़के की एक
टांग बड़ी और
एक छोटी। और
बेईमान मजा कर
रहे हैं और
मैं ईमानदार
दुख पा रहा
हूं। तुम थे
कहां? चलो
अदालत!
और जो
सुनेगा, वही
पकड़ लेगा, क्योंकि
सभी की मांगें
अधूरी रह गई
हैं। और सभी
के जीवन में
कष्ट हैं। और
सभी को
चिंताएं हैं।
सभी को संताप
है। सभी की
अड़चनें हैं, कठिनाइयां
हैं। और वही
जिम्मेवार
है।
तुम
जरा सोचो, तुम सदव्यवहार
कर पाओगे? भला
है कि अदृश्य
है। तो तुम
कभी—कभी मंदिर
में जाकर पूजा
कर आते हो।
जीवंत तुम्हें
मिल जाए। तो
तुम दूसरे
अर्थों में
पूजा कर दोगे।
मीरा
कहती है:
म्हानें चाकर
राखोजी।
जब तक
तुम्हारे
हृदय में सेवा
का, उसके
चाकर होने का,
उसके चरणों
के दास होने
का भाव
परिपूर्ण न हो
जाए, तब तक
तुम्हारा
उससे मिलन न
हो सकेगा।
तुलसीदास का
मिलन नहीं हो
सकता, मीरा
का होता है।
और यह मिलन इन
पंक्तियों
में छिपा है:
म्हानें चाकर
राखोजी।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, नित
उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।
चाकरी
में दरसन पाऊं, सुमिरन पाऊं
खरची।
भाव—भगति
जागीरी पाऊं, तीनों बातां
सरसी।
जब
मीरा यह कहती
है कि बस इन
तीन बातों से
काम चल जाएगा
और कुछ जरूरत
नहीं है और
कभी कुछ न मांगूंगी, बस इतना
पर्याप्त है,
बहुत है, जरूरत से
ज्यादा है—और
इसके बाद जो
वचन है:
मोरमुकुट
पीताम्बर
सोहे, गल
बैजंती माला।
जैसे
कि दर्शन हो
गया! ये
मोरमुकुट
पहने हुए, ये पीतांबर
पहने हुए, गले
में
वैजंतीमाला
डाले हुए
कृष्ण सामने
खड़े हो गए!
जिसके हृदय
में चाकरी का
भाव हुआ, उसके
सामने कृष्ण
खड़े हो ही
जाएंगे। अब और
कमी क्या रही!
बिन्द्राबन
में धेनु
चरावें, मोहन
मुरली वाला।
अब
मीरा को दिखाई
पड़ने लगा।
मीरा की आंख
खुली। अब मीरा
अंधी नहीं
हैं। यह जो...
मोरमुकुट
पीताम्बर
सोहे, गल
बैजंती माला।
बिन्द्राबन
में धेनु
चरावें, मोहन
मुरली वाला।
...यह
दृश्य हो गया।
रूप बदला। यह
जगत मिटा, दूसरा
जगत शुरू हुआ।
ऊंचे—ऊंचे
महल चिनाऊं, बिच—बिच
राखूं बारी।
अब
सोचती है
मीरा: अब क्या
करूं?
ऊंचे—ऊंचे
महल चिनाऊं...
अब
परमात्मा मिल
गया। यह
परमात्मा की
झलक आने लगी।
अब परमात्मा
के लिए—
ऊंचे—ऊंचे
महल बिनाऊं, बिच—बिच
राखूं बारी।
बीच—बीच
में बारी भी
रख लूंगी, क्योंकि मैं
तो वहां
रहूंगी।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, नित
उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।
ऊंचे—ऊंचे
महल चिनाऊं, बिच—बिच
राखूं बारी।
बीच—बीच
में झरोखे रख
लूंगी कि तुम
मुझे दिखाई
पड़ते रहो और
कभी—कभी मैं
तुम्हें
दिखाई पड़
जाऊं।
सांवरिया
के दरसन पाऊं, पहर कुसुंबी
सारी।
जोगी
आया जोग करण
कूं, तप
करने
संन्यासी।
हरि
भजन कूं साधु
आया, बिन्द्राबन
के वासी।
मीरा
कहती है: मैं
तो सिर्फ हरि—भजन
को आई हूं।
जोगी जोगी की
जाने।
संन्यासी संन्यासी
की जाने।
जोगी
आया जोग करण
कूं...
उसको
योग करना है।
उसको कुछ करके
दिखाना है।
मेरी करके
दिखाने की कोई
आकांक्षा
नहीं है। मैं—और
क्या करके
दिखा सकूंगी? तुम मालिक, मैं
तुम्हारी
चाकर! तुम्हीं
मेरे सांस हो,
तुम्हीं
मेरे प्राण
हो। मैं क्या
करके दिखा सकूंगी?
करने को
कहां कुछ है? करने को
उपाय कहां है?
करोगे तो
तुम! होगा तो
तुमसे! मेरे
किए न कुछ कभी
हुआ है, न
हो सकता है।
जोगी
जोगी की जाने, मीरा कहती
है।
जोगी
आया जोग करण
कूं, तप
करने
संन्यासी।
और
तपस्वी है, वह तप करने
आया है। उसको
व्रत—उपवास
इत्यादि करने
हैं। उनकी वे
समझें।
मीरा
कहती है: उनसे
मुझे कुछ लेना—देना
नहीं है। मुझे
भूल कर भी
जोगी या
तपस्वी मत समझ
लेना। मेरा तो
कुल इतना ही
आग्रह है:
हरिभजन
कूं साधु आया, बिन्द्राबन
के वासी।
हे
वृंदावन के
रहने वाले!
मैं तो भजन
करने आई हूं।
साध—संगत
में उसने भजन
सीखा है। मैं
तो तुम्हारे गुण
गाना चाहती
हूं। मैं तो
तुम्हारी
प्रशंसा के
गीत गाना
चाहती हूं।
मैं तो
तुम्हारे पास
एक गीत बनना
चाहती हूं। इस
शरीर की
सारंगी बना
लूंगी और नाचूंगी।
फर्क
क्या है? भक्त
परमात्मा के
पास सिर्फ
नाचना चाहता
है, उत्सव
करना चाहता है,
उसकी और कोई
मांग नहीं।
अहोभाव प्रकट
करना चाहता
है। क्योंकि
जो चाहिए, वह
तो मिला ही
हुआ है। जो
चाहिए, उसने
दिया ही है; मांगने का
कोई सवाल नहीं,
सिर्फ
धन्यवाद देना
चाहता है।
भजन
का अर्थ होता
है: धन्यवाद।
फर्क
खयाल रखना। जब
योगी योग करता
है, तो वह कह
रहा है: मैं यह—यह
करता हूं, मुझे
यह—यह मिलना
चाहिए। हम
करते ही कुछ
हैं, जब हम
कुछ पाना चाहते
हैं। योग है
कृत्य—फल की
आकांक्षा है।
जब तपस्वी तप
करता है, तब
वह भी
आकांक्षा से
भरा है—उपवास
करता, व्रत
करता, नियम
साधता। वह देख
रहा है पीछे
से: इतना—इतना
कर रहा हूं, इतना—इतना
मुझे मिलना
चाहिए। कहीं
अन्याय न हो
जाए! कहीं
मुझे कम न
मिले! कहीं
दूसरे को
ज्यादा न मिल
जाए! वहां
सारी
महत्वाकांक्षाएं
हैं, सारीर्
ईष्याएं हैं।
भक्ति
सिर्फ आनंद—विभोर
हो, अहोभाव
प्रकट करना
चाहती है:
तुमने दिया ही
है! योगी और
तपस्वी—तुम दो—इसकी
आकांक्षा से
भरे हैं। भक्त—तुमने
जो दिया है—उसका
धन्यवाद करना
चाहता है।
और मैं
तुमसे कहूंगा:
योगी और
तपस्वी
मांगते हैं, और नहीं
पाएंगे। और
भक्त मांगता
नहीं, और
पा लेता है।
यह न मांगने
और पाने की
कला सीखो।
मांगने
में तुम
भिखारी हो
जाते हो।
भिखारी को कौन
देता है? भक्त
सम्राट की तरह
जाता है। मजा
है! बड़ा विरोधाभास
है। कहता है:
म्हानें चाकर
राखोजी।
भक्त
कहता है: मुझे
नौकरी पर लगा
लो। मुझे पैर दबाने
का काम दे दो।
मगर जाता है
सम्राट की तरह, क्योंकि
उसकी कोई मांग
नहीं। यह भी
कोई मांग है?—
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, नित
उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।
चाकरी
में दरसन पाऊं, सुमिरन पाऊं
खरची।
भाव—भगति
जागरी पाऊं, तीनों बातां
सरसी।
—यह
कोई मांग है? कुछ भी नहीं
मांगा है।
जीसस
का एक बहुत
प्रसिद्ध वचन
है: जिनके पास
है, उन्हें
और दिया
जाएगा। और
जिनके पास
नहीं है, उनसे
वह भी ले लिया
जाएगा जो उनके
पास है। यह बड़ा
अपूर्व वचन है!
इसमें भक्ति
का सारा सार
छिपा है।
जिनके पास है,
उन्हें और
भी दिया
जाएगा।
क्योंकि "है' खींचता और
को। जिनके पास
नहीं है, उनसे
वह भी छीन
लिया जाएगा, जो उनके पास
है, क्योंकि
"नहीं' का
जो भाव है, दरिद्रता
का, भिखमंगेपन
का, उस भाव
में और नया
नहीं जोड़ा जा
सकता।
भक्त
कहता है: जो
तुमने मुझे
दिया है, इतना
ज्यादा है कि
मेरी पात्रता
नहीं थी। नाचता
है। ले लेता
है मृदंग हाथ
में। ले लेता
है एकतारा हाथ
में। नाचता
है। कहता: जो
तुमने मुझे
दिया, उसकी
मेरी पात्रता
नहीं थी।
तुम्हारी बड़ी
अनुकंपा है!
भक्त तो उसकी
बात करता है, जो उसे मिला
है। और
निश्चित ही जो
मिलने की बात
करता है और
मुझे मिलना
चाहिए, वह
दीनता प्रकट
करता है।
भक्त
सम्राट की तरह
नाचता है।
भक्त के चेहरे
पर परम शांति
और संतोष होता
है। जो मिला
है, वह बहुत
है। इससे कम
मिलता तो भी
बहुत होता। मेरी
पात्रता ही
कुछ नहीं है।
मेरी योग्यता
कुछ नहीं है।
तुम्हारा एक
गीत भी मुझ पर
बरस गया है, तो भी मैं
धन्यभागी हूं!
तुमने मुझे
आंखें दीं, मैं देख
पाता सौंदर्य
को—तुम्हारे
सौंदर्य को!
चांद को, चांदनी
को! तुमने
मुझे कान दिए,
मैं सुन
पाता
तुम्हारे गीत
को, रागिनी
को! तुमने
मुझे सब दिया—इतना
दिया—नाचूं, गाऊं, धन्यवाद
न करूं तो और
क्या करूं?
यह दशा
है सम्राट की।
और
जिनके पास है, उन्हें और
दिया जाएगा, क्योंकि इस
घोषणा में ही,
इस अहोभाव
में ही वे और
भी पात्र हो
गए। उनका पात्र
और बड़ा हो
गया। इस
विधायक भाव—दशा
में उनका
पात्र विराट
होने लगा। परमात्मा
इसे और भरेगा।
जब तुम
मांगते हो, संकुचित हो
जाते हो।
तुमने खयाल
किया? जब
भी तुमने किसी
से कुछ मांगा,
तुम कैसे
सिकुड़ जाते
हो! किसी से
मांग कर देखो।
मांगने में
कैसा मन सिकुड़
जाता है! किसी
को कुछ देकर
देखो, देने
में कैसा फैल
जाता है! जो
मांगता ही
रहता है, मांगता
ही रहता है, वह सिकुड़ता
जाता है, संकुचित
होता जाता है।
उसका पात्र
छोटा होता जाता
है। इसलिए
उसके पास जो
है, वह भी
छिन जाता है।
एक दिन उसके
पास कुछ भी
नहीं रह जाता—सिर्फ
आंसू ही आंसू
रह जाते हैं।
और भक्त के पास
एक दिन भगवान
होता है और
गीत ही गीत होते
हैं—आह्लाद के,
उत्सव के।
ऊंचे—ऊंचे
महल चिनाऊं, बिच—बिच
राखूं बारी।
सांवरिया
के दरसन पाऊं, पहर
कुसुम्बी
सारी।
जोगी
आया जोग करण
कूं, तप
करने
संन्यासी।
हरि
भजन कूं साधु
आया, बिन्द्राबन
के बासी।
मीरा
कहती है कि
मैं तो साधु—संगत
में बिगड़ी
हूं। उन्हीं
की संगत में
लोकलाज खोई।
मैं तो भक्तों
के पास उठी—बैठी।
मैं तो भक्तों
के रंग में
रंगी हूं। मैं
तुम्हारे पास
सिर्फ भजन के
लिए आई हूं।
मेरा एक गीत
सुन लो। मेरा
एक नृत्य देख
लो। बस पर्याप्त
है। तुमने देख
लिया, काफी
है। तुमने सुन
लिया, बहुत
है।
मीरा
के प्रभु गहर
गंभीरा, सदा
रहो जी धीरा।
मीरा
कहती है: मैं
तुमसे कहती
हूं कि मेरे
प्रभु बहुत
गहन गंभीर
हैं। गंभीर का
मतलब: गहरे हैं, बहुत गहरे
हैं! अपार
उनकी गहराई
है।
मीरा
के प्रभु गहर
गंभीरा, सदा
रहो जी धीरा।
इसलिए
मांग मत करो, धीरज रखो।
मांगो मत।
मांग से तुम
छोटे हो जाओगे।
मांग से तुम
संकुचित हो
जाओगे। धैर्य
रखो। मिलेगा।
मिला है, मिला
है, और
मिलेगा। मिला
है, मिलता
रहा है, मिलता
रहेगा। उस तरफ
से भेंट आनी
कभी बंद ही नहीं
होती। लेकिन
तुम जरा धीरज
तो रखो, धैर्य
तो रखो।
पुरानी
कथा है, मुझे
प्रीतिकर है।
निरंतर कहता
हूं। एक बूढ़ा
संन्यासी एक
वृक्ष के नीचे
बैठा है और
नारद जाते हैं
स्वर्ग को। वह
बूढ़ा
संन्यासी
उनसे कहता है:
आप जाते हैं
स्वर्ग, जरा
मेरे संबंध
में पूछ लेना।
तीन जन्म से
तपश्चर्या कर
रहा हूं। सब
करना चाहिए, किया है, कुछ
भूल—चूक नहीं
है। अभी तक
मेरा मोक्ष
क्यों नहीं हुआ?
अब मुझे शक
होने लगा है
कि परमात्मा
न्यायपूर्ण
है या नहीं।
जिसने
किया है उसको
सदा शक होगा।
जिसने अपने कृत्य
पर भरोसा किया
है, वह भगवान
पर भरोसा नहीं
कर सकता।
जिसका अपने पर
भरोसा है, उसका
भगवान पर
भरोसा नहीं
है।
तीन
जन्म, बहुत
हो गया। माला
फेरते—फेरते
हाथ की रेखाएं
पुंछ गई
होंगी।
जपत्तप करते—करते
देह क्षीण हो
गई है।
वह
बूढ़ा
संन्यासी
नारद से कहता
है: जरा पूछ लेना
कि कितनी देर
और है?
इसमें
बड़ी शिकायत
है। जहां
आकांक्षा है
वहां शिकायत
होगी ही। जहां
मांग है वहां
संदेह होगा
ही। नारद कहते
हैं: जरूर पूछ
लूंगा।
दूसरे
वृक्ष के नीचे
एक युवा
संन्यासी नाच
रहा है। उसने
एकतारा हाथ
में लिया है।
इतना युवा है
कि जैसे कल ही
संन्यासी हुआ
हो। नारद उससे
मजाक में ही
कहते हैं कि
आपको भी तो
नहीं पुछवाना
कुछ? प्रभु के
पास जा रहा
हूं, बूढ़े
संन्यासी की
पूछूंगा, तुम्हारी
भी पूछ लूंगा।
लेकिन वह तो
कुछ उत्तर
नहीं देता। वह
तो अपने नाच
में मगन है।
वह तो नारद
हैं या नहीं
वहां, इसकी
भी उसे पता
नहीं चलती। जो
परमात्मा में
मगन है, उसे
कहां फिकर—कौन
क्या है, कहां
क्या है, कौन
स्वर्ग जा रहा
है, कौन
नरक जा रहा है!
उसे क्या
पूछना है! उसे
कुछ पूछना नहीं
है, उसका
कोई प्रश्न
नहीं है, उसकी
कोई आकांक्षा
नहीं है। वह
अहोभाव में नाच
रहा है। वह
हरि—भजन में
है।
यह जो
माला जपता हुआ
संन्यासी है
बूढ़ा, जपत्तप
करता हुआ, इसका
हरि से कुछ
तालमेल नहीं
है; इसे
हरि पर अभी
श्रद्धा भी
नहीं है। तीन
जन्म यूं ही
गए जैसे।
श्रद्धा भी
नहीं जन्मी है,
मोक्ष की
आकांक्षा कर
रहा है। अभी
धीरज भी पैदा
नहीं हुआ और
मोक्ष की
आकांक्षा कर
रहा है। मोक्ष
तो उन्हें
मिलता है
जिनका धैर्य
अनंत है। इसका
तो मोक्ष
संसार का ही
एक रूप है—इच्छा,
वासना, मिल
जाए। पहले धन
खोजता होगा, अब मोक्ष
खोज रहा है। मगर
वही अहंकार।
वही खोजने
वाले का जोर।
वही "पाकर
रहूंगा'! वही
अकड़।
वह
युवा
संन्यासी तो
नाचता रहा।
नारद थोड़ी देर
खड़े रहे, फिर
हंस कर आगे बढ़
गए। उसने कुछ
ध्यान न दिया।
लौटे कुछ
दिनों बाद। उस
बूढ़े
संन्यासी को
कहा: पूछा था
प्रभु को।
उन्होंने कहा:
तीन जन्म और लग
जाएंगे। बूढ़ा
तो बहुत नाराज
हो गया। उसने
तो माला फेंक
दी। उसने कहा:
भाड़ में जाए
मोक्ष! एक सीमा
होती है। धीरज
की एक सीमा
होती है। मुझे
नहीं चाहिए यह
मोक्ष अब।
अन्याय हो रहा
है। यह मेरी
बरदाश्त के
बाहर है। मैं
बगावत करता
हूं।
क्रोधी!
तुमने अक्सर
सुना होगा, दुर्वासा और
इस तरह के लोग,
जिसने
जपत्तप किया,
वह क्रोधी
हो जाता है।
क्योंकि उसकी
अकड़ होती है:
मैंने इतना
किया है और
अभी तक नहीं
मिला! माला
फेंक दी।
क्रोध के उस
क्षण में भूल
ही गया, क्या
कर रहा है।
आगबबूला हो
गया, भभक
उठा। यह भभक
मौजूद रही
होगी तीन
जन्मों से। आज
मौका मिल गया,
प्रकट हो
गई।
नारद
आगे बढ़ गए।
युवा
संन्यासी के
पास ठिठके। थोड़ा
सोचा कि इससे
कुछ कहना
चाहिए कि नहीं, क्योंकि
जिसको तीन
जन्म की बात
की, उसने
माला फेंक दी।
और इसकी बात
तो बड़ी लंबी है।
क्योंकि
प्रभु से पूछा
तो उन्होंने
कहा: वह
संन्यासी जिस
वृक्ष के नीचे
नाचता है, उसमें
जितने पत्ते
हैं, उतने
ही जन्म
लगेंगे। कहीं
एकदम से
एकतारा खोपड़ी
पर न मार दे! तो
जब तीन जन्म
लगने वाले
आदमी ने माला
फेंक दी और
कहा कि भाड़
में जाए मोक्ष,
तो यह न
मालूम क्या
करे! थोड़े
झिझके भी
होंगे। लेकिन
यह इस मस्ती
में नाच रहा है
कि लगा कि कह
ही देना
चाहिए। और फिर
मन में जिज्ञासा
भी थी कि
देखें, यह
क्या
प्रतिक्रिया
करता है! रोका
उसे कि भाई
सुन! तूने
यद्यपि पूछा
नहीं था, फिर
भी मैंने कहा
लगे हाथ पूछ
ही लूं। बूढ़े
का पूछ रहा
हूं, तेरा
भी पूछ लूं।
तो मैंने पूछ
लिया अपनी तरफ
से, नाराज
इत्यादि मत हो
जाना। मुझे
माफ करना।
मैंने पूछा
प्रभु को कि
तेरे मोक्ष
में कितनी देर
है? तो
उन्होंने कहा
कि जितने
वृक्ष में
पत्ते हैं, उतने जन्म
लगेंगे।
वह
युवक तो एकदम
छलांग लगा कर
नाचने लगा।
उसने कहा: आहा!
तो फिर पा ही
लिया! पृथ्वी
पर कितने पत्ते
हैं! इतने ही
पत्ते, इतने
ही जन्म? तो
ज्यादा देर
नहीं है। हो
ही गया समझो।
और वह नाचने
लगा। फिर हरि—भजन
में लीन हो
गया। और कथा
कहती है, उसी
क्षण मोक्ष को
उपलब्ध हो
गया। उतने
जन्म नहीं लगे,
जितने
वृक्ष में
पत्ते थे। उसी
क्षण मुक्त हो
गया। इतना
जहां धैर्य हो
वहां मोक्ष
ज्यादा देर
रुक भी कैसे
सकता है!
धैर्य और मोक्ष
एक ही बात के
दो नाम हैं।
और जिसको तीन
जन्म की बात
कही है और
जिसने माला
फेंक दी है, वह अभी भी
सज्जन कहीं
भटकते होंगे।
हो सकता है, यहां मौजूद
हों। उनका
मुक्त होना
बड़ा कठिन है।
तीन जन्म की
बात तो तब थी
जब उन्होंने
माला नहीं
फेंकी थी। तीन
जन्म की बात
तो तब थी जब
उन्होंने ये
अदभुत वचन न
कहे थे कि भाड़ में
जाए मोक्ष!
उसके बाद उनकी
क्या गति या
दुर्गति हुई
होगी...। नरक न
चले गए हों तो
बहुत। पृथ्वी
पर हों तो
प्रभु की
अनुकंपा।
तुम्हारा
धैर्य
तुम्हारी
संपदा है।
मीरा
कहती है: मीरा
के प्रभु गहर
गंभीरा, सदा
रहो जी धीरा।
सदा
धैर्य रखो!
गाओ भजन!...तेरी
लीला गासूं
मांगो
मत कुछ। बिना
मांगे गाओ
भजन। मांगा तो
भजन खराब हो
गया। भरोसा
रखो। जो
तुम्हें
चाहिए, जो
तुम्हारी
वस्तुतः
जरूरत है, मिलता
रहा है, मिलता
रहेगा।
आधी
रात प्रभु
दरसन दे हैं, प्रेम नदी
के तीरा।
घबड़ाओ
मत, आधी रात
भी अगर जरूरत
पड़ेगी तो
प्रभु दर्शन
देंगे। लेकिन
दर्शन सदा
प्रेम नदी के
तीर पर होते
हैं। तुम
प्रेम की नदी
को बहने दो।
मांग नहीं।
प्रेम में
कहां मांग!
कुछ पाने की
आकांक्षा
नहीं। प्रेम
तो देने की
आकांक्षा है,
पाने की
नहीं। प्रेम
तो दान है।
बहने दो प्रेम
की नदी को! इस
प्रेम—नदी के
तीर पर जब भी
जरूरत होगी, जब भी तुम पक
जाओगे, जब
भी तुम्हारी
पात्रता
परिपूर्ण
होगी, उतरेगा
प्रभु। सदा
उतरा है।
आधी
रात प्रभु
दरसन दे हैं...
आधी
रात भी जरूरत
होगी तो भी
उनका उतरना हो
जाएगा। तुम्हारी
जब जरूरत होगी
तब हो जाएगा।
जरूरत के पहले
नहीं हो सकता।
और
तुम्हारी
मांगें सब
जरूरत के पहले
हैं। जिस बात
की तुममें
पात्रता नहीं, उसकी तुम
मांग करते हो।
फिर नहीं पाते
तो दुखी होते
हो। दुखी होते
हो तो और
अपात्र हो
जाते हो।
अपात्र हो
जाते हो, तो
जो तुम्हारे
पास है वह भी
खो जाता है।
जीसस
ठीक कहते हैं:
जिनके पास है, उन्हें और
दिया जाएगा; और जिनके
पास नहीं है
उनसे वह भी
छीन लिया जाएगा
जो उनके पास
है।
मेरे
जीवन का मरन
का साथी
कब कोई
मुझसे जुदा
होता है
हर नफस
साथ मेरे चलता
है
हर कदम
राहनुमा होता
है
बख्श देता
है खताएं मेरी
जामने
लगजशे पा होता
है
वही
मंजिल है वही
शौके सफर
वही
खुद बांगे
दिरा होता है
मैं
जिसे कहता हूं
मेरा—मेरा
सब उसी
का तो दिया
होता है।
है वही
शमे सयाह
खानाए दिल
वही
आंखों की जया
होता है
वही हर
मौजे नफस में
है रवां
दिल
में जो जोशे
वफा होता है
दर्दे
दिल बन के कभी
उठता है
बढ़ के
फिर खुद ही
दवा होता है
वही
पैदा है सकूते
लब में
वही
नगमों में
छुपा होता है
कभी
बनता है सकूने
साहिल
कभी
तूफाने बला
होता है
ला इला
है वही इल्ला
अल्ला है
वही हर
बुत में बसा
होता है
क्या
कहूं हमदमे
दैरीना मेरा
मुझसे
मिलता है तो
क्या होता है
शुक्र
सद शुक्र कि
मेरे लब पर
न
शिकायत न गिला
होता है
बेतलब
उसकी नजर से
मुझको
सागरे
कैफ अता होता
है।
परमात्मा
तुम्हारे साथ
है। तुम्हीं
उसके साथ नहीं
हो। परमात्मा
तुम्हारे साथ
न हो तो तुम जी
भी नहीं सकते
क्षण भर। जीवन
है तो
परमात्मा के
साथ होने का
सबूत है।
श्वास चलती है
तो परमात्मा
तुम पर बरस
रहा है, इसका
प्रमाण है।
तुम चैतन्य हो—और
क्या प्रमाण
चाहिए कि
परमात्मा
तुम्हारे भीतर
मौजूद है?
मेरे
जीवन का मरन
का साथी
कब कोई
मुझसे जुदा
होता है।
परमात्मा
जुदा हो ही
नहीं सकता। तुम
भला उसको देखो
न देखो, तुम
उसकी तरफ आंख
रखो न रखो, परमात्मा
जुदा नहीं हो
सकता। जो जुदा
हो जाए वह
परमात्मा
नहीं। इसलिए
तो हमने कहा:
परमात्मा
तुम्हारा
स्वभाव है।
वस्त्रों
जैसा नहीं है
कि बदल लिए।
चमड़ी जैसा भी
नहीं है कि
बदल जाएगी आज
नहीं कल—जवान
की बूढ़ी हो
जाएगी, बच्चे
की जवान हो
जाएगी। हड्डी—मांस—मज्जा
जैसा भी नहीं,
क्योंकि वे
भी बदल रहे
हैं। सात वर्ष
में मनुष्य के
शरीर में सब
बदल जाता है।
सत्तर साल जीओगे
तो दस बार
शरीर पूरा बदल
जाता है। मन
भी नहीं है, क्योंकि मन
तो प्रतिपल
बदल रहा है।
मन मेरो बड़ो
हरामी! वह तो
प्रतिपल बदल
रहा है। वह तो
प्रतिपल कुछ का
कुछ हो रहा
है।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर साक्षी
की तरह छिपा बैठा
है। तुम्हारा
आत्यंतिक
होना ही
परमात्मा है।
मगर तुम नजर
दो न दो, तुम
देखो न देखो—सदा
तुम्हारे
पीछे लगा है, छाया की तरह
लगा है।
मेरे
जीवन का मरन
का साथी
कब कोई
मुझसे जुदा
होता है
हर नफस
साथ मेरे चलता
है
हर कदम
राहनुमा होता
है।
श्वास—श्वास
में तुम्हारे
साथ है। और हर
घड़ी तुम्हें
राह दिखा रहा
है। तुम सुनो
कि न सुनो, मानो कि न
मानो, हर
घड़ी तुम्हारे
अंतरतम में
पुकार रहा है।
तुम चोरी को
चलो तो कहता
है: नहीं, मत
करो। तुम सुनो
या न सुनो, तुम
हत्या को जाओ
तो कहता है:
नहीं, रुको।
तुम
प्रार्थना
में डूबो तो
कहता है: डूबो,
पूरे डूब
जाओ! तुम सुनो
या न सुनो, तुम
किसी को कुछ
देने जाते, तो कहता है:
दे ही दो, पूरा
दे डालो! देने
से मुक्ति है।
देने में आदमी
निर्भार हो
जाता है। तुम
सुनो न सुनो, यह अंतरतम
में बोल ही
रहा है। हर
घड़ी!
हर नफस
साथ मेरे चलता
है
हर कदम
राहनुमा होता
है
बख्श
देता है खताएं
सारी
जामने
लगजशे पा होता
है
और
तुम्हारी
कितनी भूलें
हैं, अनंत
भूलें हैं—और
क्षमा किए जा
रहा है! और
कितनी बार तुम
लड़खड़ाते हो, लेकिन
तुम्हारे
पैरों को
सम्हाल लेता
है। कितनी बार
तुम गिरते हो,
और फिर—फिर
तुम्हें उठा
लेता है।
किसने
तुम्हें उठाया
जब तुम गिरे? और किसने
तुम्हें
सम्हाला जब
तुम लड़खड़ाए? किसने
तुम्हारी
खताएं माफ कीं?
कौन है जो
प्रतिपल
तुम्हें
स्वच्छ कर
लेता है, नहा
देता है, फिर
ताजा कर लेता
है?
वही
मंजिल है वही
शौके सफर
वही
मंजिल है—वही
यात्रा भी।
वही
खुद बांगे
दिरा होता है
और वही
यात्रा पर
बुलाने वाला
है कि आओ, आओ!
मैं
जिसे कहता हूं
मेरा—मेरा
सब उसी
का तो दिया
होता है
है वही
शमे सयाह
खानाए दिल
वही
आंखों की जया
होता है।
अंधेरी
रात में, गहरी
से गहरी
अंधेरी रात
में—जब हृदय
अंधेरे में
डूबा होता है,
तब अंधेरा
भी वही है। और
सुबह
तुम्हारी
आंखों में जो
रोशनी होती है,
वह रोशनी भी
वही है। उसे
पहचानना
सीखो। वह हर विरोधाभास
में मौजूद है।
वही हर
मौजे नफस में
है रवां
दिल
में जो जोशे
वफा होता है
दर्दे
दिल बनके कभी
उठता है
बढ़के
फिर खुद ही
दवा होता है
वही है
दर्द। वही है
पीड़ा। वही है
प्यास और वही
बरसेगा। घिर
आई बदरिया
सावन की!
वही
तुम्हारे
भीतर प्यास
है। वही सावन
की बदरिया है।
वही तृप्ति
है। उसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है।
वही पैदा
है सकूते लब
में
वही
नगमों में
छिपा होता है।
जब ओंठ
चुप होते हैं, तब वही चुप
है, और जब
ओंठ गीत गाते
हैं, वही
गीत गाता है।
कभी
बनता है सकूने
साहिल
कभी
तूफाने बला
होता है।
कभी
किनारे पर
शांति, सन्नाटा
और कभी मझधार
का तूफान—सब
कुछ वही है।
उसे पहचानो—सब
रूपों में
पहचानो! ये
तुलसीदास उसे
कृष्ण के रूप
में न पहचान
पाए। ये कहे
कि राम के ही
रूप में
पहचानूंगा।
रोशनी में भी
वही है, अंधेरे
में भी वही है—राम
और कृष्ण की
तो बात ही
छोड़ो। जिंदगी
भी वही है, मौत
भी वही है।
तुम्हारे दिल
में जो दर्द
बन कर उठता है,
वह भी वही
है—और जो दवा
बन कर आता है
वह भी वही है।
उसे सब रूपों
में पहचानो।
उसे अनंत
रूपों में
पहचानो!
ला इला
है वही इल्ला
अल्ला है
वही हर
बुत में बसा
होता है।
मस्जिद
में अमूर्त की
तरह प्रकट हो
रहा है। मंदिर
में मूर्ति की
तरह प्रकट हो
रहा है। मगर वही
है! उसके
अतिरिक्त कुछ
और हो नहीं
सकता।
क्या
कहूं हमदमे
दैरीना मेरा
मुझसे
मिलता है तो
क्या होता है!
यह
पुराना दोस्त, जब मिलता है
तो कहना
मुश्किल है कि
क्या होता है!
चूंकि कहा
नहीं जा सकता,
इसलिए मीरा
कहती है: तेरी
लीला गासूं।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं...
...तेरी
लीला गासूं।
और तो
कुछ कर न
सकूंगी। तेरे
मिलन के आनंद
में नाचूंगी!
गीत गाऊंगी।
जिनके जीवन
में कभी भनक भी
नहीं पड़ी है
तेरी, उनके
जीवन में तेरी
भनक
पहुंचाऊंगी।
क्या
कहूं हमदमे
दैरीना मेरा
मुझसे
मिलता है तो
क्या होता है!
उसके
मिलते ही
नृत्य होता
है। उसके मिलते
ही तुम एक
रक्स में आ
जाते हो। उसके
मिलते ही नशा
हो जाता है।
और ऐसा नशा, जिसमें
बेहोशी नहीं
है, होश है!
उसके मिलते ही
पैर लड़खड़ाने
लगते हैं। मगर
ऐसी लड़खड़ाहट
कि हर लड़खड़ाहट
मंजिल के करीब
लाने लगती है।
शुक्र
सद शुक्र कि
मेरे लब पर
न
शिकायत न गिला
होता है।
और जब
उससे मिलन
होता है, तब
कैसी शिकायत,
कैसा गिला!
यह भी कहते
नहीं बनता कि
इतने दिन क्यों
तरसाया। उस
मिलन की घड़ी
में वह उतने
जन्मों—जन्मों
का तरसाना भी
उसकी अनुकंपा
मालूम होती
है। उस मिलन
की घड़ी में ही
राज खुलता है।
उस मिलन की
घड़ी में यह
पता चलता है:
इतने दिन न
तरसाया होता
तो यह मिलन का
जो आज रस है, यह नहीं हो
सकता था। इतना
प्यासा रखा, इसलिए ऐसी
परम तृप्ति
है! उस दिन
प्यास का भी राज
खुल जाता है।
किसी
मित्र ने पूछा
है प्रश्न, कि आप कहते
हैं, परमात्मा
अनुकंपा है, तो फिर इतना
दर्द क्यों, इतना दुख
क्यों, इतनी
पीड़ा क्यों? लोग अनंत—अनंत
पीड़ाओं में
दबे हैं—शरीर
की, मन की, आत्मा की।
त्रिविध ताप!
अगर परमात्मा
अनुकंपा है तो
इतना दुख, इतना
दर्द क्यों?
यह
प्रश्न तब तक
उठेगा जब तक
मिलन नहीं
हुआ। तब तक
तुम्हारा
प्रश्न
सार्थक है।
स्वभावतः यह
लगता है: इतना
दर्द क्यों?
मगर यह
दर्द ही गहन
होकर दवा बनता
है। इतना दुख
इसीलिए है कि
आनंद हो सके।
इतने कांटे
इसीलिए हैं
ताकि फूल खिल
सकें। इतना
अंधेरा
इसीलिए है कि
जब रोशनी आए
तो नृत्य आए, तो उत्सव
आए।
जिसने
अंधेरा जाना
है, वही
रोशनी को
पहचान सकेगा।
और जिसने
संसार का दुख
जाना है वही
परमात्मा के
आनंद के अनुभव
में जा सकेगा।
मछली
सागर में ही
रहे तो उसे
सागर का पता
नहीं चलता; फेंक दो उसे
तट पर, तड़फने
दो थोड़ी देर
तट पर, जलने
दो धूप में—तब
उसे याद आती
है सागर की।
फिर उसे वापस
डालो सागर में,
तब वह जानती
है कि सागर का
कैसा अमृत
आनंद है!
संसार
सिर्फ एक
परीक्षा है; सिर्फ एक
तैयारी; सिर्फ
एक पाठशाला।
संसार ऐसे ही
है जैसे तट पर
फेंक दिए गए
तुम रेत में
तड़फने को, ताकि
जब वापस तुम
लौटोगे सागर
में तो
महातृप्ति का
क्षण आएगा। उस
तृप्ति को तुम
जान ही नहीं
सकते बिना तट
पर तड़पे हुए।
मगर यह राज
तभी खुलेगा, जब उससे
मिलना हो
जाएगा।
शुक्र
सद शुक्र कि
मेरे लब पर
तब
सिवाय
धन्यवाद के
कुछ भी नहीं
होता, शब्द
भी नहीं बनते।
ओंठों पर
धन्यवाद होता
है, शब्द
नहीं बनते। न
शिकायत, न
गिला होता है।
एक
शुक्रगुजार
दशा होती है।
एक धन्यवाद का
भाव होता है।
एक अपूर्व
अहोभाव होता
है। लेकिन
शब्द नहीं
बनते। शब्द
छोटे लगते हैं।
बेतलब
उसकी नजर से
मुझको
सागरे
कैफ अता होता
है।
और
मैंने मांगा
भी नहीं था—बेतलब—मैंने
मांग न की थी, मैंने तलब न
की थी।
बेतलब
उसकी नजर से
मुझको
—मैं
चुप खड़ा हूं, बिना मांगे
उसकी
नजर से मुझको
सागरे
कैफ अता होता
है
मस्ती
का ऐसा प्याला
उपलब्ध होता
है, जो
सागरों को मात
कर दे! लबालब
मस्ती का
प्याला
उपलब्ध होता
है—बिना मांगे,
बेतलब!
मांगे कि
चूके। मांगना
मत। मांग को
सदा ध्यान
रखना।
तुम्हारी
प्रार्थना
में किसी द्वार—दरवाजे
से मांग न घुस
जाए, नहीं
तो प्रार्थना मर
जाती है, मांग
ही रह जाती
है। और मांगने
वाला, भिखमंगा
कभी परमात्मा
तक नहीं
पहुंचता। मालिक,
सम्राट
पहुंचते हैं।
सम्राट से
मिलना हो तो सम्राट
की तरह जाना
होता है। और
सम्राट की तरह
जाने का राज
है:
म्हानें
चाकर राखोजी, म्हानें
चाकर राखोजी।
चाकर
रहसूं बाग लगासूं, नित उठ दरसन
पासूं।
बिन्द्राबन
की कुंज गलिन
में, तेरी
लीला गासूं।।
चाकरी
में दरसन पाऊं, सुमिरण पाऊं
खरची।
भाव—भगति
जागीरी पाऊं, तीनों बातां
सरसी।।
रमैया
मैं तो थारे
रंग राती।
मीरा
कहती है: तेरे
रंग में
बिलकुल रंग
गई। मैं बची
नहीं, तू ही
बचा। ऐसी रंगी
कि मैं तो मिट
गई।
रमैया
मैं तो थारे
रंग राती।
तेरे
प्रेम में पक
गई। तेरा
प्रेम ही बचा।
मैं का कोई
भाव नहीं उठता
अब। मैं हूं, यह बात भी
नहीं उठती। तू
ही है!
औरों
के पिया परदेस
बसत हैं, लिख—लिख
भेजें पाती।
औरों
के प्रेमी हैं, वे परदेस
बसते हैं, दूर
देश बसते हैं।
वे उन्हें
चिट्ठियां
लिखती हैं। मैं
तुझे कैसे
चिट्ठी लिखूं?
मेरे
पिया मेरे
हृदय बसत हैं, रोल करूं
दिन—राती।
नाचती
हूं, गाती हूं,
लेकिन
चिट्ठी नहीं
लिख पाती, क्योंकि
पिया हृदय में
बसता है।
मेरे
पिया मेरे
हृदय बसत हैं, रोल करूं
दिन—राती।
गूंज
उठाती हूं, गुनगुनाती
हूं; लेकिन
संवाद तक करना
मुश्किल है, क्योंकि अब
मैं और तू दो न
रहे, एक हो
गए। यह एकता
ही भक्ति की
परिपूर्णता
है।
जलालुद्दीन
रूमी का
प्रसिद्ध गीत
है: प्रेमी ने
दस्तक दी
प्रेयसी के
द्वार पर।
भीतर से आवाज
आई: कौन है?
और
प्रेमी ने
कहा: मैं हूं, तेरा
प्रेमी। तूने
पहचाना नहीं?
मेरी
पगध्वनि नहीं
पहचानी? मेरे
हाथ की दस्तक
नहीं पहचानी?
फिर
आवाज आई: तू
आखिर है कौन?
और
प्रेमी ने
कहा: यह हद हो
गई, मेरी
आवाज भी तुझे
पहचान नहीं
आती!
और फिर
सन्नाटा हो
गया। और
प्रेमी ने
बहुत द्वार
खटखटाया, फिर
भीतर से कोई
उत्तर भी न
आया। बहुत सिर
मारा, तब
इतनी ही भीतर
से आवाज आई कि
यह घर बहुत
छोटा है, इसमें
दो न समा
सकेंगे।
प्रेमी
लौट गया।
जंगलों में, पहाड़ों में—भटकता
रहा। ध्यान
में, प्रार्थना
में—अपने को
निखारता रहा।
चांद उगे, चांद
ढले; सूरज
आए, सूरज
गए; दिन
बीते, माह
बीते, वर्ष
बीते—अनेक
वर्षों के बाद
वापस लौटा।
द्वार पर फिर
दस्तक दी। फिर
वही आवाज। फिर
वही प्रश्न:
कौन है? और
इस बार उसने
कहा: अब तो तू
ही है! और
द्वार खुले!
क्योंकि
प्रेम के घर
में दो नहीं
समा सकते।
यह
जलालुद्दीन
रूमी की कविता
भक्ति की
पराकाष्ठा की
तरफ इशारा है।
रूमी भी एक
प्रेमी था, जैसे मीरा।
एक भक्त—अपूर्व
भक्त!
औरों
के पिया परदेस
बसत हैं, लिख—लिख
भेजें पाती।
मेरे
पिया मेरे
हृदय बसत हैं, रोल करूं
दिन—राती।
चूवा
चोला पहिर सखी
री...
सुंदर
सुगंधित
वस्त्र पहनती
हूं; प्यारे
रंगों वाले
वस्त्र पहनती
हूं; जो उसे
भाते, ऐसे
वस्त्र पहनती
हूं!
चूवा
चोला पहिर सखी
री, मैं
झुरमुट रमवा
जाती।
चली
जाती हूं
झुरमुटों में, एकांत में—उसके
साथ खेलने! वह
तो साथ ही है।
एकांत में!
प्रेम
सदा एकांत
मांगता है, क्योंकि
प्रेम पागल
है। और भीड़ की
नजर पागल होने
की सुविधा
नहीं देती। जरूर
मीरा जाती रही
होगी, चली
जाती होगी दूर
झुरमुटों
में। नाचती
होगी वहां।
अपने पिया
संग! पिया भी
नाचता होगा
मीरा के संग, क्योंकि
पिया भीतर बसा
है। मीरा के
नाच में उसका
भी नाच है।
...रोल
करूं दिन—राती।
चूवा
चोला पहिर सखी
री, मैं
झुरमुट रमवा
जाती।
झुरमुट
चली जाती हूं—उसके
साथ रमने, खेलने, रास
रचाने!
झुरमुट
में मोहे मोहन
मिलिया, घाल
मिली
गलबांथी।
और
वहां उससे
मेरा मिलन हो
जाता है। मेरा
मोहन मुझे मिल
जाता है वहां।
हम गले मिल
जाते हैं, आलिंगन कर
लेते हैं। हम
एक—दूसरे में
डूब जाते है।
खुल कर हम एक—दूसरे
में प्रवेश कर
जाते हैं।
झुरमुट
में मोहे मोहन
मिलिया, घाल
मिली
गलबांथी।
और
सखी मद पी—पी
माती...
और
सखियां हैं, जो शराब
पीती हैं, तब
उन्हें नशा
चढ़ता है।
...मैं
बिन पियां ही
माती।
और मैं
बिना पीए नशे
में डोलती
हूं। उस
प्यारे का
भीतर बस जाना
बड़े से बड़ा
नशा है। फिर आंखें
सदा ही मदमाती
रहती हैं। फिर
पैर कहीं के
कहीं पड़ते
हैं।
और सखी
मद पी—पी माती, मैं बिन
पियां ही
माती।
उस
प्यारे को
अपने में बसा
लेना—मधुशाला
बन गए तुम! अब
कहीं और से
शराब पीनी जरूरी
नहीं।
शराब
आदमी पीता है—अपने
को विस्मरण
करने को। जिसे
प्यारा मिल गया
भीतर, वह तो
मिट ही गया, विस्मरण
करने को भी न
बचा अब। एक
गहन नशा छा जाता
है। लेकिन नशे
की खूबी है!
भक्त का नशा
ऐसा है—नशा भी
होता है, होश
भी होता है।
होश को बढ़ाता
है भक्त का
नशा।
संसार
में जो लोग
हैं, वे तो होश
में भी होते
हैं तो नशे
में होते हैं।
एक तरह की
मूर्च्छा, एक
तरह की निद्रा,
तंद्रा
घेरे रहती है।
भक्त नशे में
भी होता है—परमात्मा
को पीकर—फिर
भी उसके जीवन
में एक होश
होता है। भूल
उससे नहीं
होती। पैर
डगमगाते हैं,
लेकिन गलत
रास्तों पर
नहीं जाते।
नाचता है, लेकिन
सदा सही की
दिशा में घटना
घटती है।
किस खाक
से हुई है न
जाने मेरी
सरिश्त
दानिस्ता
कुछ गुनाह किए
जा रहा हूं
मैं
चाहूं
तो अपने हाथ
से अमृत पिलाए
तू
दुख है
कि फिर भी जहर
पीए जा रहा
हूं मैं
ये है
कशिश हयात की
या खौफ मौत का
जी बुझ
चुका है फिर
भी जीए जा रहा
हूं मैं
मस्ती
हुई नसीब बड़ी
मुश्किलों के
बाद
दामन
का चाक फिर भी
सीए जा रहा
हूं मैं
आया था
ले के हसरतें
दीदे जमाले
दोस्त
दिल
में उम्मीद
वस्ल लिए जा
रहा हूं मैं।
हकदार
तो हो तुम
अमृत पीने के—और
उस प्यारे के
हाथ से अमृत
पीने के!
चाहूं
तो अपने हाथ
से अमृत पिलाए
तू
दुख है
कि फिर भी जहर
पीए जा रहा
हूं मैं!
लेकिन
पी तुम जहर
रहे हो।
अहंकार
से जहर ही
झरता है।
अहंकार से
अमृत की कोई
पहचान नहीं
होती। अहंकार
मरणधर्मा है, इसलिए जहर
ही जहर है।
अमृत तो तभी
मिलेगा जब अहंकार
से छुटकारा
हो। जैसे ही
अहंकार गया, मृत्यु गई; क्योंकि
तुम्हारे
भीतर जो मर
सकता था, उससे
छुटकारा हो
गया।
तुम्हारे
भीतर अमृत ही बचा।
चाहूं
तो अपने हाथ
से अमृत पिलाए
तू
दुख है
कि फिर भी जहर
पीए जा रहा
हूं मैं!
यह
तुम्हारा
चुनाव है।
मीरा उस जगह
पहुंच गई है, जहां प्यारा
खुद अपने हाथ
से अमृत पिला
रहा है।
और सखी
मद पी—पी माती, मैं बिन
पियां ही
माती।
प्रेम—भठी
को मैं मद
पीयो, छकी
फिरूं दिन—राती।
मीरा
कहती है:
प्रेम की
भट्ठी में जो
शराब ढाली गई, बनाई गई, वह
मैंने पी।
प्रेम—भठी
को मैं मद
पीयो, छकी
फिरूं दिन—राती।
अब यह
ऐसा नशा चढ़ा
है, जो उतरना
नहीं जानता।
जो नशा उतर
जाए, वह भी
कोई नशा है? जो उतर—उतर
जाए, जिसे
जबरदस्ती—जबरदस्ती
चढ़ाना पड़े, वह कितनी
देर काम आएगा,
वह कितनी
दूर काम आएगा?
नशा ही करना
हो तो कुछ ऐसा
करो कि जो चढ़े
एक बार तो सदा
के लिए चढ़
जाए। रंगना ही
हो तो कुछ ऐसे
रंग में रंगो
जो पक्का हो।
रमैया
मैं तो थारे
रंग राती।
यह रंग
पक्का है—यह
प्रेम का रंग
है
और
प्रेम के
अतिरिक्त सभी
रंग कच्चे
हैं। प्रेम के
अतिरिक्त सभी
रंग उतर जाते
हैं। धन का रंग
उतर जाता है, पद का रंग
उतर जाता है।
प्रेम के
अतिरिक्त सब रंग
उतर जाते हैं।
और अगर
तुम्हारे
प्रेम का रंग
भी उतर जाता
हो तो समझना
कि प्रेम नहीं
है। जो उतर
जाए, वह
प्रेम नहीं।
प्रेम शाश्वत
में यात्रा
है। हुआ तो
हुआ। जो उतर—उतर
जाए, उसमें
कुछ और होगा, प्रेम नहीं
हो सकता।
प्रेम—भठी
को मैं मद
पीयो, छकी
फिरूं दिन—राती।
मीरा
कहती है: छकी
फिरूं दिन—राती!
ऐसे ही तुम भी
छक सकते हो।
तुम भी छके
फिर सकते हो।
और तुम्हारे
हाथ में ही
बाजी है। कोई
दूसरा तुम्हें
भटका नहीं रहा
है—तुम्हीं
अपने को भटका
रहे हो। तुमने
गलत से दोस्ती
बना ली है, इसलिए ठीक
से दोस्ती
बनाने के
हकदार नहीं रह
गए हो। गलत से
धीरे—धीरे
दोस्ती छोड़ो।
धन से, पद
से दोस्ती
छोड़ो, तो
प्रेम से
दोस्ती बने।
प्रेम से
दोस्ती बने तो
सीढ़ी हाथ लग
गई। नाव हाथ लग
गई। फिर
प्यारा बहुत
दूर नहीं है।
मेरी
अक्लो खिरद सो
गई है
वर्ना
ऐसी न कुछ
बेहुशी है
बंद है
आंख पर देखती
है
सो गया
जिस्म, जां
जागती है
रुक गई
है मेरी सांस
ऐसे
बेखुदी
में हवैदा
खुदी है
कैसी
हालत है मैं
क्या कहूं अब
मिट गए
गम खुशी ही
खुशी है
दूर
जुल्मत हुई
नूर फैला
चार
सूं इक नई
रोशनी है
बरकतो
रहमते हक की
बारिश
हर तरफ
हर कहीं हो
रही है
बोझ
हलका हुआ
जिंदगी का
नाचती
खेलती जा रही
है
रूह
खुशियों से
लबरेज होकर
सारी
दुनिया का
मुंह चूमती है
आज हर
शै पे छाई है
मस्ती
इक
मुसर्रत में
फितरत बसी है
कोहो
दरियाओ शाखो
शजर में
देखता
हूं कि जां पड़
गई है
जर्रे—जर्रे में
खुर्शीद
लरजां
कतरे—कतरे
में दरिया रवी
है
जिंदगी
इम्बसाते
खुदी के
आज
एहसास से
कांपती है
असले
तौहीद है ये
नज्जारा
और यही
जाने रंगे हुई
है।
मेरी
अक्लो खिरद सो
गई है
वर्ना
ऐसी न कुछ
बेहुशी है।
होता
क्या है? उस
प्यारे के रंग
में रंगते ही
तुम्हारी
बुद्धि, तुम्हारा
विचार सो जाता
है। मेरो मन
बड़ो हरामी! वह
जो हरामी मन
है, वह सो
जाता है। और
जब मन सो जाता
है तो हृदय
जागता है।
मेरी
अक्लो खिरद सो
गई है
वह जो
हिसाब—किताब
करने वाली
बुद्धि थी, वह सो गई है।
बस यही नशा है
वहां।
वर्ना
ऐसी न कुछ
बेहुशी है
और
क्या नशा है? बुद्धि खो
गई। बुद्धि सो
गई। तर्क गया,
श्रद्धा
उपजी। हिसाब—किताब
गया, प्रेम
उमगा।
बंद है
आंख पर देखती
है
इसलिए
मैंने कहा: यह
ऐसा नशा है, कि होश बढ़ता
है घटता नहीं।
बंद है
आंख पर देखती
है
सो गया
जिस्म, जां
जागती है
देह सो
जाती है, आत्मा
जागती है।
तुम्हारी अभी
आत्मा सोई है,
देह जाग रही
है। अभी
तुम्हारी आंख
खुली है, मगर
देखते कहां
तुम। अंधे हो!
आंख खुली है—और
अंधे हो! कान
खुले हैं, लेकिन
तुमने सुना
क्या? जब
तक परमात्मा
का नाद न सुना,
तब तक कुछ
भी न सुना। और
जब तक
परमात्मा को न
देखा, तब
तक कुछ भी न
देखा।
बंद है
आंख पर देखती
है।
फिर एक
ऐसी घड़ी आती
है कि बाहर से
तो आंख बंद हो जाती
है और भीतर
देखती है—और
भीतर प्यारे
को देखती है!
सो गया
जिस्म, जां
जागती है
रुक गई
है मेरी सांस
ऐसे
बेखुदी
में हवैदा
खुदी है
और एक
अर्थ में तो
बेखुद हो गया
हूं, बेहोश हो
गया हूं। और
एक अर्थ में
पहली दफा होश
आया है। इस
बेखुदी में भी
खुदी छुपी है।
पहली दफा
ज्योति जगी
है।
कैसी
हालत है मैं
क्या कहूं अब
मिट गए
गम खुशी ही खुशी
है
आज हर
शै पे छाई है
मस्ती
इस
मुसर्रत में
फितरत बसी है
चारों
तरफ आनंद का
साज बज रहा
है। चारों तरफ
फूल ही फूल
खिले हैं।
चारों तरफ
सुगंध ही
सुगंध है।
भीतर मिलन हो
जाए उससे, तो बाहर भी
सब रूपांतरित
हो जाता है।
कोहो
दरियाओ शाखो
शजर में
देखता
हूं कि जां पड़
गई है
औरों
की तो बात छोड़
दो, पत्थरों
में भी फिर
जान दिखाई
पड़ने लगती है,
प्राण
दिखाई पड़ने
लगते हैं। वह
जो महावीर ने
कहा है कि
पत्थर में भी
प्राण हैं, वह भीतर
चैतन्य के परम
अनुभव के कारण
कहा है। पत्थर
में प्राण
दिखाई पड़ते
नहीं, लेकिन
पत्थर में भी
प्राण हैं। इस
जगत में कोई
जगह नहीं, जहां
प्राण न हों।
यह जगत प्राण
का सागर है, जीवन का
सागर है। यहां
सभी चीजें जाग
रही हैं, जी
रही हैं। सभी
चीजें गतिमान
हैं। सभी
चीजें परमात्मा
की तरफ सरक
रही हैं। अपने—अपने
ढंग, अपनी—अपनी
क्षमता के
अनुकूल।
आज हर
शै पे छाई है
मस्ती
इक
मुसर्रत में
फितरत बसी है
कोहो
दरियाओ शाखो
शजर में
देखता
हूं कि जां पड़
गई है।
और सखी
मद पी—पी माती, मैं बिन
पियां माती।
प्रेम—भठी
को मैं मद
पीयो, छकी
फिरूं दिन—राती।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो, मनसा
पूरन बाती।
मीरा
कहती है:
स्मृति—सुरत; और निरत—लीनता।
विरोधाभासी
लगेगा।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो...
एक तरफ
परमात्मा की
स्मृति सघन हो
गई है और अपनी
याद खो गई है।
तो मैं तो लीन
हो गई हूं और
प्रभु जागने
लगा है। मैं
तो मिट गई हूं, प्रभु होने
लगा है।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो...
इस तरह
अदभुत
सामंजस्य हो
रहा है। एक
तरफ लीन हो गई
हूं, और एक तरफ
पहली बार जागी
हूं। ऐसा दीया
जल रहा है
भीतर।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो, मनसा
पूरन बाती।
और अब
तो मन की ही
बाती बन गई
है। वह जो
मेरे भीतर
विचार की
क्षमता थी, जो अकेली—अकेली
भटकाती थी, अब प्रभु के
चरणों में लग
कर वही ज्योति
की बाती बन गई
है।
ध्यान
रखना, तुम्हारे
भीतर कुछ भी
ऐसा नहीं जो
व्यर्थ हो। उसका
ठीक उपयोग, सभी कुछ
सार्थक है।
ठीक संयोग
चाहिए। वही आग
घर को जला
सकती है, वही
आग भोजन पकाती
है। वही विचार
तुम्हें भटकाता
है संसारों
में, वही
विचार
तुम्हारे
भीतर बाती बन
सकता है।
सुरत
निरत को दिवलो
जोयो, मनसा
पूरन बाती।
अगम
घाणि को तेल
सिंचायो, बाल रही दिन—राती।
और अगम
का, उस असीम
का, जिसको
समझने का कोई
उपाय नहीं, उसके तेल से
ही दीये को
भरा है।
क्योंकि और सब
तेल तो चुक
जाएंगे आज
नहीं कल, वही
एक तेल है जो
कभी न चुकेगा।
अगम
घाणि को तेल
सिंचायो, बाल रही दिन—राती।
और अब
यह ज्योति दिन—रात
जल रही है। यह
शाश्वत
ज्योति है। इस
ज्योति को
जिसने नहीं
पाया, वह
अंधेरे में जी
रहा है। इस
ज्योति को
जिसने नहीं
पाया, वह
भटक रहा है।
इस ज्योति को
पाते ही भटकन
मिट जाती है।
परमात्मा का
तेल बनाओ, मन
की बाती बनाओ।
"अगम—निगम, सुरत—निरत'
का दीया
बनाओ।
जाऊंनी
पीहरिए आऊंनी
सासरिए, हरि
सूं सेन
लगाती।
अब
मीरा कहती है
कि कहीं जाऊं
कही आऊं—नैहर
जाऊं कि
ससुराल आऊं, अब कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
...हरिसूं
सैन लगती।
अब तो
उसी का ध्यान
बना रहता है।
घर कि बाहर, ससुराल कि
नैहर, पहाड़ों
में कि
बाजारों में,
एकांत में
कि भीड़ में, अपनों में
कि परायों में—अब
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। आंखें
उसमें ही अटकी
हैं।
...हरि
सूं सेन
लगाती।
इशारे
उसके साथ चल
रहे हैं।
बोलती—बतियाती
औरों से, लेकिन
बात भीतर उसी
से चल रही है।
चलती बाहर, लेकिन असली
चलना भीतर हो
रहा है।
जाऊंनी
पीहरिए आऊंनी
सासरिए, हरि
सूं सेन
लगाती।
मगर एक
गुफ्तगू चल
रही है।
चुपचाप एक
संवाद चल रहा
है। इशारे
उससे ही हो
रहे हैं।
"सेन'
शब्द बड़ा
प्यारा है।
सेन का मतलब:
आंख ही आंख से
इशारा। किसी
को पता भी न
चले, आंख
ही आंख में
बात हो जाए। शब्द
भी न उठाने
पड़ें।
मीरा
के प्रभु
गिरधर नागर, हरि चरणां
चित राती।
मीरा
कहती है: मेरे
तो प्रभु
गिरधर नागर
हैं। उनके ही
चरणों में
सारे चित्त को
डाल दिया है।
इस चित्त के
डालने की कला:
म्हानें
चाकर राखोजी, म्हानें
चाकर राखोजी।
चाकर
रहसूं बाग
लगासूं, तेरी
लीला गासूं।
प्रभु
के चाकर बनो—और
तुम सदा के
लिए मालिक हो
जाओगे! मालिक
बनने की कोशिश
करो—और तुम
संसार के
गुलाम रहोगे!
यहां बड़े से
बड़ा धनी
व्यक्ति भी
गुलाम है।
यहां के
सम्राट भी गुलाम
हैं। उसके जगत
के चाकर भी
मालिक हैं। इस
जगत के मालिक
भी चाकर हैं।
अहंकार
समर्पित करना
होगा, तभी
चाकर बन
सकोगे। उसके
चरणों में
चित्त को तभी
रख सकोगे, जब
यह मैं की अकड़
मिटे। अगर ठीक
से समझो तो
मैं के
अतिरिक्त और
कोई पाप नहीं।
मैं के
अतिरिक्त और
कोई संसार भी
नहीं। मैं के
अतिरिक्त और कोई
नरक भी नहीं।
मैं गया, नरक
गया, पाप
गया, संसार
गया। और जहां
मैं गया, वहां
फिर जो शेष रह
जाता है, फिर
मैं के चले
जाने पर जिसकी
अनुभूति होनी
शुरू होती है—वही
है प्यारा, वही है
प्रभु! उसे
नाम कुछ भी दो—राम
कहो, कृष्ण
कहो, अल्लाह
कहो, जो
मर्जी हो कहो।
वे सब भेद नाम
के हैं।
न तो
राम जपने से
कुछ होगा, न कृष्ण
जपने से कुछ
होगा, न
अल्लाह जपने
से कुछ होगा।
मैं को छोड़ दो—और
राम भी मिल गए,
कृष्ण भी
मिल गए, अल्लाह
भी मिल गए; क्योंकि
वे एक के ही
नाम हैं। अलग—अलग
लोगों ने अलग—अलग
ढंग से उसे
पुकारा है; लेकिन
पुकारने में
वही सफल हो
पाता है, पुकार
उसी की
पहुंचती है, जो मिट कर
पुकारता है।
चाकर
होने की कला
सीख लो, तो
भक्ति की
कुंजी
तुम्हारे हाथ
में आ गई। और भक्ति
से मिलता हो
तो किसी और
ढंग से पाने
की जरूरत
नहीं। और ढंग
नंबर दो हैं।
जब इतनी मस्ती
से मिलता हो
तो रो—रो कर
क्या पाना? जब नाच—नाच
कर मिल जाता
हो तो तप, योग
की व्यर्थ
झंझटों में
क्यों पड़ना? उस गोरख—धंधे
में क्यों
पड़ना? जब
सिर्फ गुण
गाने से मिलता
हो, जब
इतनी सरलता से
मिलता हो, सहजता
से मिलता हो—तो
फिर अड़चनें
क्यों मोल
लेनी?
लेकिन
खयाल रखना, तुम्हारा
अहंकार
अड़चनें मोल
लेने में सदा
उत्सुक होता
है। सरलता से
नहीं जाना
चाहता है, क्योंकि
अहंकार हमेशा
चुनौती पसंद
करता है। योग
पसंद आता है
अहंकार को। तप
पसंद आता है, तपश्चर्या
पसंद आती है; क्योंकि
वहां अहंकार
को कुछ करने
को मिलता है।
और जब भी कुछ
करने को मिलता
है, अहंकार
मजबूत होता
चला जाता है।
भक्ति पसंद नहीं
आती अहंकार को।
अहंकार को बात
ही नहीं जंचती,
क्योंकि
भक्ति में
करने को कुछ
है ही नहीं।
समर्पित हो
जाना है।
भक्ति में
करने की बात
ही नहीं है—अकर्ता
हो जाना है।
भक्ति में तो
परमात्मा करता
है—भक्त सिर्फ
झेलता है।
जहां ले जाता
है, चला
जाता है। भक्त
तो सिर्फ हाथ
परमात्मा के
हाथ में दे
देता है। कहता
है: फिर जैसी
तेरी मर्जी!
इसलिए
अहंकार को
भक्ति में रस
नहीं होता। और
तुम्हारे
भीतर जो
अहंकार है, वह भी तुमसे
कहेगा: भक्ति
नहीं, योग
करो, तप
करो, जप
करो, व्रत—उपवास
करो—तो कुछ
हुआ; भक्ति
में क्या है? नाचे, गाए—इसमें
क्या होगा?
यहां
मेरे पास लोग
आ जाते हैं।
वे कहते हैं:
नाचने—गाने से
क्या होगा? उन्हें कुछ
पता नहीं है।
नाचने—गाने
में हो ही
जाता है।
नाचने—गाने
में हो ही
गया। क्योंकि
जिनके पास है,
उन्हें और
दिया जाएगा।
और जिनके पास
नहीं है, उनसे
वह भी छीन
लिया जाएगा जो
उनके पास है।
आज
इतना ही।
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