इसके
पहले कि हम रात्रि
के ध्यान के प्रयोग
पर बैठें, थोड़ी
सी बातें आपको
मैं कहूं। सुबह
सम्यक आचार के
संबंध में थोड़ा
सा मैंने आपको
कहा, वह एक भूमिका
है। वह भूमिका
बने, तो ध्यान
में अनायास गहराई
उपलब्ध होगी। उस
भूमिका के बनने
पर एक पृष्ठभूमि
बनेगी और उसके
माध्यम से चित्त
की शांति और शून्यता
संभव होगी। लेकिन
और भी कुछ भूमिकाएं
हैं, उनकी भी
इसके पहले कि हम
यहां से विदा हों,
मैं आपसे चर्चा
कर लेना चाहूंगा।
तीन
बातों की मैंने
चर्चा की—सम्यक
आहार की, सम्यक
व्यायाम की, सम्यक निद्रा
की। वे तीनों ही
शरीर से संबंधित
हैं। शरीर एक भूमिका
है साधक की, लेकिन अकेली
भूमिका नहीं है।
उसके और भीतर प्रवेश
करें, तो उसका
एक भाव जगत भी है।
और भीतर प्रवेश
करें, उसका
एक विचार जगत भी
है। शरीर के तल
पर तीन बातें कहीं
ऐसी ही तीन बातें
भाव के तल पर और
ऐसी ही तीन बातें
विचार के तल पर
और आपको मुझे कहनी
हैं। अभी रात्रि
में मैं, भाव
के तल पर कौन सी
तीन बातें हैं
जो भूमिका बनेंगी
उनकी थोड़ी चर्चा
कर लूं और फिर ध्यान
के लिए हम बैठेंगे।
मनुष्य
इसके पहले कि निर्भाव
हो,
इसके पहले कि
उसके सारे भाव
शून्य और समाप्त
हो जाएं, कुछ
भाव हैं जो उसकी
चित्त की अशांति
और उद्विग्नता
को बढ़ाते हैं।
कुछ भाव हैं जो
उसकी चित्त की
शांति को, समता
को लाने में सहयोगी
होते हैं और भूमिका
बन सकते हैं ध्यान
के लिए। वैसे तीन
भावों की मैं आपसे
चर्चा करूं। उनका
भी थोड़ा प्रयोग
जीवन में करेंगे,
उपयोगी होगा।
सबसे
पहले तो हमारे
बाहर जो जगत है
उसके प्रति एक
भाव। उसके बाद
हमारे कर्मों का
जो जगत है उसके
प्रति एक भाव।
और सबसे अंत में
हमारी संवेदनाओं
का जो जगत है उसके
प्रति एक भाव।
हमारे बाहर तीन
जगत हमें घेरे
हुए हैं। एक तो
वस्तुओं और व्यक्तियों
का जगत है, जो
हमसे चारों तरफ
फैला हुआ है। उसके
बाद हम जो कर्म
करते हैं उनकी
एक पर्त है, उनका एक जगत है,
वह हमें घेरे
हुए है। उसके बाद
जो सुख—दुख की संवेदनाएं
हमें छूती हैं,
स्पर्श करती
हैं, उनका एक
जगत है, वह हमें
अंत में घेरे हुए
है। ऐसी तीन पर्तें
हमें घेरे हुए
हैं। इन तीनों
पर्तों के लिए
तीन भावनाएं ध्यान
के लिए सहयोगी
हैं।
समस्त
जगत के प्रति मैत्री—
भाव सहयोगी है।
वह जो महावीर ने
कहा मित्ति मे
सव्वभूएषु, वैर
मज्र न केणई। वह
जो कहा—मेरा किसी
से वैर नहीं, मेरी इस सारे
जगत से मैत्री
है। यह भाव अगर
हम सा., अगर यह
भाव हमारे चित्त
में परिव्याप्त
हो जाए, तो शून्य
में और समाधि में
जाने में सहयोगी
होगा। ऐसा मत सोचना
कि यह भाव जगत के
लिए सहयोगी है।
जगत के लिए तो गौण
अर्थ में सहयोगी
है, स्वयं साधक
के लिए सहयोगी
है। आप जितने वैर
से भरे हैं जगत
के प्रति, उतने
ही आप अशांत होंगे।
आपके चित्त में
जितना वैमनस्य
और जितना दूसरों
के प्रति दुर्भाव
है, उतने ही
ज्यादा आप अशांत
होंगे।
थोड़ी
कल्पना करें, अभी
केवल कल्पना ही
करें कि सारे जगत
में आपके जो भी
हैं वे सब मित्र
हैं। सिर्फ कल्पना
ही करें, समझ
लें कि सारे जगत
में आपके मित्र
ही व्याप्त हैं।
सारे पशु— पक्षी
और पौधे, सारे
मनुष्य, सारे
प्राणी आपके प्रति
मैत्री रखते हैं।
कल्पना ही करें
इस बात की केवल
कि सारा जगत आपके
प्रति मैत्री से
भरा है और आप उस
सारे जगत के प्रति
मैत्री से भरे
हैं। तो क्या आपके
चित्त में शांति
आनी प्रारंभ नहीं
हो जाएगी? क्या
अशांति का कारण
कहीं वैर— भाव नहीं
है? कहीं दुर्भाव
नहीं है?
ध्यान
की भूमिका में
भाव के तल पर सारे
जगत के प्रति मैत्री
की धारणा बहुत
बहुमूल्य है। कैसे
करेंगे मैत्री
की धारणा? बहुत
सरल है। मैत्री
की धारणा से ज्यादा
सरल कुछ भी नहीं।
वास्तविक मैत्री
की स्थिति तो ध्यान
के बाद उपलब्ध
होगी। वास्तविक
मैत्री और प्रेम
की स्थिति तो ध्यान
के बाद उपलब्ध
होगी, वह तो
ध्यान का परिणाम
होगी। लेकिन ध्यान
के पूर्व मैत्री
का भाव आपके लिए
शांति में, प्रगाढ़ शांति
में ले जाने में
सहयोगी हो जाएगा।
जब
ध्यान के लिए बैठें, रास्ते
पर चलें, उठें,
भीड़ में जाएं
एकांत में जाएं,
पर्वत पर हों
झील पर हों, दरख्तों के नीचे
हों, तब अपने
आस—पास एक मैत्री
का घेरा बनाएं।
और अनुभव करें
कि आपके आस—पास
मैत्री परिव्याप्त
हो रही है आप सबके
प्रति, जो आपके
आस—पास हैं प्रेम
से भरे हुए हैं।
इसका एक भाव—घेरा
आरोपित कर लें।
दरख्त को देखें
तो अनुभव करें
कि आप उसके प्रति
प्रेम और मैत्री
से भरे हैं। और
पक्षियों को देखें
तो उनके प्रति
अनुभव करें कि
आप उनके प्रति
मैत्री से भरे
हैं और आपके हृदय
से उनकी तरफ मैत्री
प्रवाहित हो रही
है प्रेम और मित्रता
प्रवाहित हो रही
है। लोगों के पास
भी जब उठें तो ऐसा
अनुभव करें। आप
थोड़े ही दिन में
अनुभव करेंगे
: आपके चारों तरफ
एक मैत्री का घेरा
फैलता चला जा रहा
है। और जिस मात्रा
में आपके चारों
तरफ मैत्री का
सागर लहरें लेने
लगेगा, उसी
मात्रा में आपके
भीतर अशांति का
जो सागर लहरें
ले रहा है वह शांत
होता चला जाएगा।
अगर
आप यह मैत्री का
भाव रात्रि को
सोते समय करके
सो जाएं— सारे जगत
के प्रति मैत्री
का निवेदन करके, सारे
जगत के प्रति यह
भाव करके कि मैं
उसके प्रति प्रेम
से, मैत्री
से भरा हूं और यह
अनुभव करके कि
मेरे भीतर से सारे
जगत के प्रति मैत्री
प्रवाहित हो रही
है— आप सुबह एक अभिनव
शांति में जागेंगे।
सुबह उठ कर भी इस
भाव को दोहरा लें,
अपने मन में
इस भाव को आरोपित
कर लें कि सबके
प्रति मेरी मैत्री
है। इस भाव को चौबीस
घंटे सतत जब भी
स्मरण आए अपने
से बाहर प्रवाहित
कर दें। यह एक अदभुत
काम करेगा। यह
उस दूसरे भाव को—हिंसा
के और विरोध के
और वैमनस्य के
जो आपमें सतत जागता
है— क्षीण करेगा,
उसे विलीन कर
देगा। और उसके
कारण जो अशांति
और क्रोध चित्त
को व्यथित करते
हैं और मथ डालते
हैं, वे विलीन
हो जाएंगे।
और
भी एक आश्चर्य
की बात है, जो
प्रयोग करेंगे
तो आपको समझ में
आएगी। एक बड़ी अदभुत
बात है कि हमारी
भावनाएं संवेदित
हो जाती हैं और
हमारी भावनाएं
दूसरे व्यक्ति
को प्रभावित करती
हैं और स्पर्श
कर लेती हैं। अगर
आप किसी के प्रति
बहुत प्रेम और
मैत्री से भरे
हैं, अगर आपके
भाव उसके प्रति
वैमनस्य और विरोध
के नहीं हैं, तो आप अनिवार्यत:
पाएंगे, उसके
हृदय में भी आपके
प्रति मैत्री के
भाव संवेदित हो
रहे हैं, वे
जाग रहे हैं।
जो
व्यक्ति सारे जगत
के प्रति मैत्री
की भावनाएं फैलाता
है और फेंकता है, वह
अनिवार्यत: सारे
जगत का मैत्री—
भाव उसके प्रति
प्रवाहित होने
लगता है। हम जो
फेंकते हैं उसी
को वापस झेल लेते
हैं। हम घृणा फेंकते
हैं, घृणा हम
पर आरोपित हो जाती
है। हम मैत्री
फेंकेंगे, मैत्री
हम पर लौट आएगी।
भाव के जगत में
अनिवार्यत: वही
वापस लौट आता है
जो हमने फेंका।
कल
हम एक जगह गए थे
वह यहां की माथेरान
की देखने की जगह—
इको प्याइंट है।
वहां जो हमारे
साथ थे उन्होंने
आवाज फेंकी, तो
उन घाटियों से
वह आवाज लौट कर
चली आई। उन घाटियों
ने कुछ भी नहीं
जोड़ा, उन्होंने
केवल उसको ईको
कर दिया उसको प्रतिध्वनित
कर दिया। हमने
जो आवाज फेंकी
वह उन घाटियों
ने वापस हम पर लौटा
दी। यह सारा जगत
ईको—पॉइंट है।
इसमें हम जो फेंकते
हैं वही हम पर वापस
लौट आता है। इसमें
जो हम प्रतिध्वनित
करते हैं वही वापस
लौट कर हम पर फिर
हमें उपलब्ध हो
जाता है। जिसे
मैत्री चाहिए वह
मैत्री को फेंके
और जिसको प्रेम
चाहिए वह प्रेम
को लुटा दे, और जिसे फूल चाहिए
वह रास्तों पर
दूसरों के फूल
फैला दे। और यह
केवल भाव न हो हमारा,
यह हमारी जीवनचर्या
में प्रविष्ट हो
जाए और हमारी छोटी—छोटी
बातों में परिलक्षित
होगा।
एक
गुरु था, उसके तीन
शिष्य उत्तीर्ण
हुए थे। वे पच्चीस
वर्ष के ब्रह्मचर्य
आश्रम के बाद अब
जीवन में वापस
लौट रहे थे। उस
गुरु ने कहा, तुम्हारी एक
परीक्षा और रह
गई, वह मैं जाते
समय ले लूंगा।
वे विद्यार्थी
राह देखते रहे,
आखिर वह विदा
का दिन भी आ गया
और उनकी कोई परीक्षा
नहीं हुई। सांझ
को गुरु ने उन्हें
विदा भी कर दिया।
सूरज अस्त होने
लगा और गुरु ने
कहा अब तो सूर्य
अस्त होता है,
तुम जाओ।
वे
बहुत हैरान थे
कि शायद गुरु भूल
गए हैं वह अंतिम
परीक्षा के लिए।
उन्होंने अपनी—
अपनी चटाइयां बांधीं, अपने
झोले लिए और वे
चल दिए। सांझ चांद
निकल आया, वे
कोई दो—चार मील
आश्रम से दूर चले
आए हैं, जंगल
में हैं, अब
वे अपने गांव की
तरफ हैं। और एक
झाड़ी के पास बहुत
से कांटे पड़े हुए
हैं। पहला विद्यार्थी
उसे छलांग करके
निकल गया; दूसरा
विद्यार्थी उसे
बगल से काट कर निकल
गया तीसरे विद्यार्थी
ने वे सारे कांटे
उठा कर झाड़ी में
डाले और जाने लगा।
उन्होंने
हैरान होकर देखा, गुरु
उनका झाड़ी में
छिपा है! और उसने
उनसे कहा, दो
जो आगे निकल गए
हैं वे कृपा करके
वापस लौट आएं।
एक जिसने कांटे
बीन कर अलग कर दिए
हैं वह उत्तीर्ण
हो गया। यह अंतिम
परीक्षा थी।
रास्ते
पर कांटा पड़ा है
और अगर आप उसे बिना
हटाए निकल जाते
हैं आप अहिंसक
नहीं हैं और आपके
मन में मैत्री—
भाव नहीं है। एक
नुकीला पत्थर पड़ा
है रास्ते पर और
आप उसे बिना फिक्र
किए निकल जाते
हैं,
आप किसी को चोट
नहीं पहुंचाना
चाहते, लेकिन
आपको किसी को चोट
से बचाने का मन
नहीं है। ऐसा मनुष्य
शांत नहीं हो सकता।
ऐसे मनुष्य के
भीतर अभी शांति
की भूमिका बनने
में कठिनाई है।
उस पत्थर को हटाना,
वह छोटा सा गेस्चर—वह
रास्ते पर गिरे
हुए पत्थर को हटा
देने का—एक कांटे
को उठा देने का,
इस जगत के प्रति
आपकी मैत्री भावना
को प्रतिवेदित
करता है।
छोटी—छोटी
बातें हैं जीवन
में। उन छोटी—छोटी
बातों पर थोड़ा
विचार करें और
देखें कि आप कुछ
ऐसा तो नहीं कर
रहे हैं जिसकी
वजह से आप खुद अपनी
अशांति के बीज
बोते हैं?
एक
महिला थी, ब्लावट्स्की,
उसे लोग देखते
बहुत हैरान थे।
वह जब भी सफर में
चलती तो एक बड़ा
झोला साथ में लिए
रहती और कुछ खिड़की
में से बाहर फेंकती
जाती। किसी ने
पूछा कि हमेशा
जब आपको सफर में
देखते हैं, झोले में आप क्या
रखती हैं और खिड़कियों
से बाहर क्या फेंकती
हैं?
उसने
कहा मुझे फूलों
से प्रेम है और
जिन रास्तों से
मैं निकलती हूं
उन पर फूलों के
थोड़े से बीज फेंक
देती हूं। अभी
वर्षा आएगी, अभी
बादल घिरने लगे
हैं और पानी गिरेगा,
और दोनों तरफ
के रास्ते फूलों
से भर जाएंगे।
कोई उन्हें देख
कर मुस्कुराएगा,
कोई उन्हें देख
कर खुश होगा, किसी की आंख का
आंसू सूख जाएगा,
मेरी खुशी का
ठिकाना नहीं। मुझे
तो पता नहीं चलेगा,
लेकिन मैं कल्पना
करती हूं कि मेरे
फूल किसी को अच्छे
लगेंगे, किसी
को प्रीतिकर लगेंगे।
और इसलिए बीजों
को मैं सड़कों के
किनारों पर फेंक
देती हूं कभी पानी
गिरेगा, वे
फूल बन जाएंगे।
मैं
आपसे कहूंगा, मैत्री—
भाव सच में ही.. .एक
कहावत है अंग्रेजी
में इट कीस्ट्स
नथिंग टु बी काइंड,
दयालु होने के
लिए कुछ खर्च नहीं
करना होता। यह
सच है, मैत्री—
भाव को फेंकने
के लिए कुछ भी खर्च
नहीं करना होता।
घृणा को फेंकने
के लिए बहुत कुछ
खर्च करना होता
है। जब आप किसी
के प्रति घृणा
से भरते हैं, आप बहुत मंहगा
काम कर रहे हैं—
आप अपने को तोड़
रहे हैं आप अपने
को भीतर दुख में
डाल रहे हैं। और
जब आप किसी के प्रति
प्रेम और मैत्री
को फेंकते हैं,
तो आप एक इतना
सस्ता काम कर रहे
हैं जिसमें आपका
तो कुछ भी नहीं
खो रहा, बल्कि
कुछ मिल रहा है।
आपके भीतर एक समता
और शांति उत्पन्न
होगी।
तो
पहली बात, ध्यान
के साधक को अगर
सच में समाधि तक
जाना है, तो
उसे एक मैत्री—
भाव का घेरा, एक प्रेम का घेरा,
जो कि बिलकुल
मुफ्त है, जिसे
आप सहज प्रकट कर
सकते हैं...। क्या
खर्च होता है रास्ते
पर से एक पत्थर
को हटा देने में?
और क्या खर्च
होता है किसी के
रास्ते पर दो फूल
रख देने में? और क्या खर्च
होता है इस सहज
प्रेम में जो हम
अपने चारों तरफ
परिव्याप्त कर
सकते हैं? उसका
परिणाम यह होगा,
आपके भीतर बाहर
से मैत्री प्रतिध्वनित
होगी। और जितनी
मैत्री बाहर से
प्रतिध्वनित होगी,
उतने अशांति
के बाहर से आने
वाले कारण विलीन
होते चले जाएंगे।
तो
पहली बात, भाव
के जगत में मैत्री
को मैत्री भावना
को थोड़ा सा विकसित
करना सहयोगी होगा,
भूमिका बनेगी,
यह बाहर जो जगत
व्याप्त है उसके
संबंध में। उसके
बाद हमारे कर्मों
का जो जगत है, जो हम रोज दिन—रात
कर रहे हैं काम,
उसके संबंध में
भी एक भाव प्रगाढ़
कर लेना उपयोगी
है। हम जो कर्म
कर रहे हैं उन कर्मों
में दो रास्ते
हैं उन कामों को
करने के। एक रास्ता
है कि उन कामों
से हमें बाद में
जो फल मिलेगा उसमें
हमारी खुशी हो
और एक रास्ता है
कि उन कर्मों के
करने में हम आनंद
को अनुभव करें।
एक रास्ता है कि
एक आदमी चित्र
को बनाता हो, चित्र जब बन जाएगा
और उसके दाम जो
मिलेंगे वे उसे
खुशी देंगे और
एक रास्ता यह है
कि चित्र बनाना
उसका आनंद हो।
हम अपने जीवन में
करीब—करीब ऐसे
काम कर रहे हैं
जिन कामों में
हमें कोई आनंद
नहीं है। जिन कामों
के फलों में हमें
आनंद है, कामों
में कोई आनंद नहीं
है।
मैं
आपसे कहूंगा, कुछ
ऐसे काम खोजें
जो आपके लिए अपने
में मूल्यवान हों,
जिनका अपने में
रस हो और अपना आनंद
हो, जिनमें
फल का प्रश्न न
हो, जिन्हें
करना ही एक खुशी
और आनंद हो। कुछ
ऐसे काम खोजें।
और जिन कामों को
आप नहीं इस तरह
का अनुभव करते
हैं उनमें भी क्रमश:
इस भाव को प्रतिपादित
करें, इस भाव
की धारणा करें
कि उन कामों की
फलासक्ति फल की
तीव्र आकांक्षा
क्षीण हो जाए और
काम अपने में आनंद
बन जाएं।
अगर इसका थोड़ा सा भाव—घेरा हम तैयार करें, भूमिका तैयार करें, तो आपको चित्त की शांति में पहुंचने में बड़ी तीव्र गहराई अपने आप उत्पन्न होगी। आपकी आकांक्षाएं और कर्मों के फल की आकांक्षा आपको बहुत अशांत किए रहती है। आप करते समय करने में बिलकुल उत्सुक नहीं होते, उसके बाहर उत्सुक होते हैं।
अगर इसका थोड़ा सा भाव—घेरा हम तैयार करें, भूमिका तैयार करें, तो आपको चित्त की शांति में पहुंचने में बड़ी तीव्र गहराई अपने आप उत्पन्न होगी। आपकी आकांक्षाएं और कर्मों के फल की आकांक्षा आपको बहुत अशांत किए रहती है। आप करते समय करने में बिलकुल उत्सुक नहीं होते, उसके बाहर उत्सुक होते हैं।
एक
साधु को किसी ने
पूछा आपकी साधना
क्या है? उसने कहा
मेरी साधना है—जब
मैं कपड़े पहनता
हूं तो इतने आनंद
से पहनता हूं जैसे
जगत में इससे बड़ा
कोई आनंद नहीं
है, और जब मैं
स्नान करता हूं
तो इतने आनंद से
स्नान करता हूं
जैसे जगत में इससे
बड़ा कोई आनंद नहीं
है, और जब रात्रि
मैं सोने जाता
हूं तो मैं सारे
जगत के प्रति इतना
अनुग्रह अनुभव
करता हूं कि मुझे
एक दिन और जीवन
का मिला और मैं
इतने आनंद से सोता
हूं जैसे सोने
से बड़ा कोई आनंद
नहीं है।
जीवन
की छोटी—छोटी चीजों
में जो आनंद को
अनुभव नहीं कर
सकेगा उसे कोई
बड़े आनंद दुनिया
में उपलब्ध नहीं
होंगे। दुनिया
में बड़े आनंद नहीं
हैं। दुनिया में
छोटे—छोटे आनंदों
का इकट्ठा जोड़
बड़े आनंद को उत्पन्न
कर देता है। और
हमको सब चीजें
छोटी मालूम होती
हैं—कपड़ा पहनना, रास्ते
पर चलना, चांद
को देखना, एक
फूल का खिलना—सब
छोटी बातें हैं।
मैं
आपको कहूंगा ध्यान
के साधक को अगर
सच में भूमिका
खड़ी करनी है तो
उसे छोटी—छोटी
बातों में आनंद
को अनुभव करना
शुरू करना चाहिए।
एक
फूल खिल जाता है
किनारे पर हम उसे
बिना देखे निकल
जाते हैं? हम
अंधे हैं! और हम
उस फूल में जो खुशबू
और जो आनंद परिव्याप्त
हुआ है उसको एक
क्षण प्रशंसा से
भी नहीं देख पाते,
उसके सौंदर्य
को अनुभव भी नहीं
कर पाते। एक छोटा
सा फूल है—घास का
फूल हो सकता है—एक
क्षण उसको अनुभव
करें, उस छोटे
से फूल में आनंद
को अनुभव करें।
रात चांद से आकाश
प्रकाशित होता
है, तारे भर
जाते हैं, कभी
घना मखमली अंधेरा
होता है, कभी
छोटी—छोटी चिड़िया
गीत गाती हैं.. .इन
छोटी—छोटी बातों
को.. .कभी वर्षा होती
है और बूंद टपकती
है और उनके बूंदों
के टपकने में एक
गीत और एक आनंद
होता है। यह चारों
तरफ जगत छोटे—छोटे
आनंदों से भरा
है, इसको अनुभव
करें। और अपने
छोटे—छोटे काम
में भी अपने छोटे—छोटे
काम में भी—बुहारी
देने में या कपड़े
पहनने में— आनंद
को अनुभव करें।
एक आनंद को उसमें
परिव्याप्त करें।
आगे का प्रश्न
उसमें बहुत
विचारणीय न रखें, जो कर रहे हैं उसमें खुशी लें, उसमें आनंद लें।
विचारणीय न रखें, जो कर रहे हैं उसमें खुशी लें, उसमें आनंद लें।
तो
आप हैरान होंगे
कि आपके आस—पास
एक शांति का घेरा, मैत्री
के विचार से जगत
में बनेगा, स्वयं कर्म में
आनंद लेने की वृत्ति
से और भाव से—कर्म
ही आनंद है, फल नहीं, इस
भावना के आरोपण
से—कर्मों में
मिलेगा। और आप
पाएंगे कि आपके
छोटे—छोटे काम
बोझ नहीं रह गए,
वे आनंद हो गए
हैं। छोटे से अंतर
की बात है, और
काम बोझ हो जाता
है; और थोड़े
से भाव के अंतर
की बात है वह आनंद
हो जाता है।
एक
संन्यासी हिमालय
पर चढ़ता था। वह
तीर्थयात्रा को
था। वह अपने बोझ
को सिर पर लिए था।
वह बढ़ता था, दोपहर
घनी, और धूप
तेज, और पसीना,
और थकान। और
उसके सामने एक
पहाड़ी लड़की भी
चढ़ती थी, एक
छोटी सी लड़की और
अपने एक भाई को
लिए भाई मोटा और
वजनी। उस साधु
ने दयावश, उस
साधु ने सहानुभूतिवश
उस बच्ची के करीब
से गुजरते हुए
उससे कहा कि बेटी,
बहुत वजन लगता
होगा, धूप बहुत
तेज है, चढ़ाई
बड़ी है। उस लड़की
ने बहुत हैरानी
से उस साधु की तरफ
देखा और कहा आप
क्या कह रहे हैं?
वजन तो आप लिए
हैं, यह तो मेरा
छोटा भाई है! उस
लड़की ने कहा वजन
आप लिए हैं यह मेरा
छोटा भाई है! और
उस संन्यासी ने
लिखा है. मैंने
बड़े शास्त्र पड़े
हैं इससे अदभुत
वचन मैंने अपने
जीवन में नहीं
जाना! मुझे पहली
दफा पता चला, छोटे भाई में
वजन नहीं होता।
तराजू
में तो वजन होता
है। तराजू तो वजन
बताएगा—चाहे छोटा
भाई हो और चाहे
बिस्तर हो। लेकिन
हृदय वजन नहीं
बताएगा। प्रेम
वजन को काट देता
है,
शून्य कर देता
है। इस जगत में
प्रेम अकेली शक्ति
है जो बोझ को, वजन को काटती
है। अकेली प्रेम
शक्ति है जो ग्रेविटेशन
के विपरीत है।
वह जो जमीन में
कशिश है वह हर चीज
को खींच लेती है।
अकेला प्रेम है
जिसको वह नहीं
खींच पाती। अकेला
प्रेम मुक्त है
इस जगत में, और सब चीजें बंधी
हैं उससे। जितना
प्रेम होगा उतने
आप निर्भार हो
जाएंगे उतनी वेटलेसनेस
आपमें अनुभव होगी।
और जितनी आपमें
निर्भारता होगी
उतने आप भीतर प्रवेश
कर सकेंगे, उतने आप शांति
में, शून्य
में प्रवेश कर
सकेंगे।
तो
दूसरी धारणा मैं
आपसे कहूंगा. छोटे—छोटे
कामों को भार न
बनाएं, उनको आनंद
बना लें। इसे जरा
देखें—कल स्नान
करते वक्त कल भोजन
करते वक्त, कल कपड़े पहनते
वक्त कल किसी की
थोड़ी सी सहायता
करते वक्त कभी
रास्ते से पत्थर
हटाते वक्त। थोड़ा
सा देखें—एक पौधे
में पानी देते
वक्त। कोई ऐसे
भी पानी दे सकता
है, कोई बड़े
प्रेम से भी पानी
दे सकता है। बहुत
अंतर पड़ जाएगा!
बहुत अंतर पड़ जाएगा,
जमीन—आसमान का
अंतर पड़ जाएगा।
तो
अपने कर्म के जगत
में,
छोटे—छोटे काम
हैं, कोई काम
बड़ा नहीं है, सब काम छोटे— छोटे
हैं, उन कामों
को एक आनंद से,
एक प्रीति से,
एक उल्लास से
उनको करें और उनमें
एक भाव स्थापित
करें। तो आप थोड़े
दिन में पाएंगे
कि आपका जीवन एक
अदभुत आनंद की
कथा हुआ जा रहा
है। इसमें छोटी—छोटी
बातें बड़ी महत्वपूर्ण
और आनंदपूर्ण हो
जाएंगी। अब मैं
यह देखता हूं हमारी
स्थिति बिलकुल
विपरीत है, हम उलटा ही करते
हैं। हम किसी चीज
में कोई आनंद अनुभव
नहीं करते और हर
चीज हम भार बना
लेते हैं, हर
चीज! हर चीज हमारे
लिए भार हो जाती
है। जो भी है, हमारे लिए भार
है। तो फिर चित्त
शांत नहीं हो सकता।
आप
खयाल करें आपके
पास ऐसी कौन सी
चीज है जो आनंद
है?
आपके पास करीब—करीब
हर चीज भार होगी।
और जैसे—जैसे उम्र
बढ़ती जाती है,
भार और बढ़ता
चला जाता है। एक
दिन बुढ़ापे में
सिर्फ भार ही होता
है आपके पास, और कुछ भी नहीं
होता। वह भार आपको
तोड़ देता है और
आपकी शांति की
संभावना को नष्ट
कर देता है। वह
भार इतना वजनी
हो जाता है कि आपके
भीतर वे बीज पैदा
नहीं हो सकते वे
बीज विकसित नहीं
हो सकते, उस
भार में दबे नष्ट
हो जाते हैं, जो कि हो सकते
थे जो कि आपको आत्म—ज्ञान
तक ले जा सकते थे।
तो
एक भूमिका अनासक्त
कर्म की। फलासक्ति
हीनता और आनंद
का भाव, ये दोनों
एक ही बातें हैं।
जिस कर्म में फलासक्ति
न होगी उसमें आनंद
परिव्याप्त हो
जाएगा। और जिस
काम में आनंद परिव्याप्त
हो जाएगा उसमें
फल की आकांक्षा
विलीन हो जाएगी।
फल की आकांक्षा
इसलिए है कि काम
में तो दुख है,
उसे करेंगे कैसे
जिस काम में दुख
है? तो फल की
आकांक्षा के पीछे
उसको करते चले
जाते हैं। काम
तो दुख देता है,
लेकिन फल की
आकांक्षा के पीछे
उसको किए चले जाते
हैं। अगर काम में
आनंद होगा, फलासक्ति विलीन
हो जाएगी।
तो
उस काम में थोड़ा
सा आनंद, उस भाव
को कर्म के प्रति
मैं चाहूंगा कि
हम थोड़ा सा व्यापक
करें। देखें,
उसे छोटे—छोटे
कामों में प्रयोग
करके देखें। काम
जिंदगी में बड़े
कहां हैं? सब
छोटे काम हैं।
और उन सब छोटे कामों
में अगर आनंद व्याप्त
हो तो सारी जिंदगी
का एक सिलसिला
आनंद से भर जाएगा।
इसे देखें, इसको अनुभव करें।
तो
एक तो मैत्री— भाव
और एक कर्म में
आनंद— भाव। तीसरा
तल हमारी वेदनाओं
का है, हमारी संवेदनाओं
का है। चौबीस घंटे
हम किसी न किसी
संवेदना से घिरे
हैं— या तो सुख से
घिरे हैं या दुख
से घिरे हैं। जब
दुख होता है तो
हम दुख से बचना
चाहते हैं और सुख
की आकांक्षा करते
हैं, यह हमारा
टेंशन, यह हमारी
तकलीफ होती है।
जब सुख आता है तो
हमें यह डर पकड़
लेता है कि कहीं
फिर दुख न आ जाए,
तो हम सुख को
पकड़ना चाहते हैं
और दुःख को बाहर
रखना चाहते हैं,
फिर भी टेंशन,
फिर भी तकलीफ
और तनाव बना रहता
है। आदमी बड़ी अजीब
हालत में है। दुख
होता है तो दुख
झेलता है, इसलिए
दुख झेलता है कि
दुख है और हट जाए।
और सुख होता है
तो इसलिए दुख झेलता
है कि सुख तो है,
लेकिन कहीं दुख
न आ जाए। दुख बाहर
रहे और सुख बना
रहे। सुख को पकड़ना
चाहता है, दुख
को हटाना चाहता
है। दुख को हटाने
में और सुख को पकड़ने
में, दोनों
ही स्थिति में
उत्तेजना बनी रहती
है।
दुख
भी एक उत्तेजना
है,
वह अप्रीतिकर
उत्तेजना है। सुख
भी एक उत्तेजना
है, वह प्रीतिकर
उत्तेजना है। और
उत्तेजना मात्र
मन के लिए अशांति
है, इसे स्मरण
रखें। चाहे सुख
की हो, चाहे
दुख की हो, उत्तेजना
मात्र अशांति है।
अगर शांत होना
है तो उत्तेजना
को थोड़ा छोड़ देना
होगा।
तो
उत्तेजना क्या
है?
दुख आता है उसको
हम हटाना चाहते
हैं, यह उत्तेजना
है। सुख आता है,
उसको पकड़ना चाहते
हैं यह उत्तेजना
है। दुख जब आए तो
उसे हटाने का बहुत
विचार न करें।
चित्त जब दुख से
भरा हो तब उस दुख
को स्वीकार कर
लें। उससे घबड़ा
न जाएं, उससे
पीड़ित, उत्तेजित
न हो जाएं, थोड़ी
समता रखें। और
जब सुख आए तब भी
उससे उत्तेजित,
आंदोलित न हो
जाएं, थोड़ी
समता रखें। सुख—दुख
के प्रति समता
का भाव, आपके
भीतर जहां संवेदनाएं
आपको व्यथित कर
जाती हैं, वहां
संवेदनाओं की व्यथा
से बचाने का उपाय
बनेगा। वहां क्रमश:..
.जरा देखें प्रयोग
करके देखें.. .सुख
आता हो तब थोड़े
अनुत्तेजित रह
कर देखें। कठिन
बिलकुल नहीं है।
किया नहीं, इतनी ही बात है।
सुख आए तब जरा अनुत्तेजित
रह कर देखें। जरा
देखें कि सुख आया
है तो क्या उत्तेजना
भीतर होती है?
क्यों होती है?
और आप पाएंगे
कोई उत्तेजना नहीं
हो रही है, सुख
आ गया है, उत्तेजना
नहीं है। सुख आए
और उत्तेजना न
हो, तो जिस दिन
दुख आएगा उस दिन
भी उत्तेजना नहीं
होगी। उन दोनों
की, एक की भी
उत्तेजना शून्य
हो जाए, दूसरे
की अपने आप शून्य
हो जाएगी।
तपश्चर्या
और कुछ नहीं है।
तपश्चर्या के दो
रूप हैं— जो दुख
में हैं वे दुख
की उत्तेजना को
छोड़ दें, जो सुख
में हैं वे सुख
की उत्तेजना को
छोड़ दें। सम्राट
भी तपस्वी हो सकता
है। जनक वैसा था।
जनक की साधना यह
रही— सुख है, उसकी उत्तेजना
नहीं लेना। महावीर
दूसरे साधक हैं—
दुख है, उसकी
उत्तेजना नहीं
लेंगे। ऐसे गांवों
में खड़े हो जाते
जहां लोग उनको
सताते, ऐसे
श्मशानों में रुक
जाते जहां लोग
उनको परेशान करते।
उनके साथी, उनके मित्रों
ने उनको निवेदन
किया कि अच्छी
जगहें भी हैं,
तुम इन्हीं को
क्यों खोज लेते
हो और यहीं क्यों
खड़े हो जाते हो?
महावीर
के लिए तपश्चर्या
का हिस्सा था।
दुख जैसे आमंत्रण
देते फिरते थे।
और दुख आए तो उस
वक्त देखना है
कि उत्तेजना है
या नहीं? दुख आए
तो अनुत्तेजित
है आदमी।
तो
आपसे मैं नहीं
कहता आप दुख को
खोजने जाएं यूं
ही दुख काफी आते
हैं। आपको कहीं
खोजने जाने की
जरूरत नहीं है, वे
काफी वैसे ही आते
हैं। उनको आप परीक्षा
समझें और देखें
कि चित्त की समता,
उस समय अनुत्तेजित
चित्त रह पाता
है? अगर रह पाए,
थोड़ा—थोड़ा भाव
करने से रह पाएगा,
एक दिन आप पाएंगे
कि दुख खड़ा है,
सुख खड़ा है,
आप बिलकुल ही
अकंप उसे देख रहे
हैं, उसने आपको
छुआ नहीं, वह
आपमें प्रवेश नहीं
किया। जितनी यह
भावना आपकी गहरी
होगी उतनी ही आपके
भीतर शांति प्रगाढ़
होगी और समाधि
की संभावना सुनिश्चित
होती चली जाएगी।
तो
तीन भाव मैंने
कहे—जगत के प्रति
मैत्री— भाव! चाहे
उसे अहिंसा— भाव
कहें, चाहे उसे
प्रेम— भाव कहें,
इससे अंतर नहीं
पड़ता। कर्मों के
प्रति आनंद— भाव!
चाहे उसे फलासक्ति
हीनता कहें, चाहे अनासक्ति
भाव कहें, अंतर
नहीं पड़ता। और
तीसरा स्वयं के
भीतर सुख—दुख की
संवेदनाओं के प्रति
समता भाव! अगर ये
तीनों उत्पन्न
हों, तो सुबह
जैसे मैंने कहा
था, सम्यक आहार
हो, सम्यक निद्रा
हो, सम्यक व्यायाम
हो, तो तीनों
का इकट्ठा परिणाम
सम्यक दृष्टि होगा—
आहार, आचार
के जगत में। अगर
ये तीनों हों,
तो भाव के जगत
में सम्यक दृष्टि
उत्पन्न होगी।
और वह सम्यक दृष्टि
भूमिका बनेगी।
उस भूमिका में
ध्यान की गति होगी।
इसे
स्मरण रखें कि
ध्यान, समाधि
या आत्मा की उपलब्धि
का रास्ता बिलकुल
ही वैसा है जैसे
बगीचे में माली
पौधे बोता है—बीज
बोता है सम्हालता
है, खाद देता
है, पानी देता
है, सूरज की
रोशनी की व्यवस्था
करता है, सुरक्षा
करता है उनकी कि
उन्हें जंगली जानवर
न चर जाएं, उन
पर बाड़ बिठाल देता
है बागुडू लगा
देता है। फिर रोज—रोज
उनकी प्रतीक्षा
करता है कि वे बड़े।
लंबी प्रतीक्षा
के बाद उनमें फूल
आते हैं।
जीवन—साधना
भी एक बगीचे में
फूल लाने से भिन्न
नहीं है। इसे भी
बीज बोने होंगे, बीज
ध्यान के बोने
होंगे। खाद और
पानी और सूरज की
रोशनी भी देनी
होगी। यूं समझ
लें. एक सम्यक आचार
की जिसकी तीन बातें
मैंने कहीं, उसकी खाद देनी
होगी। सम्यक भाव
की जो मैंने तीन
बातें कहीं, उसका पानी देना
होगा। और कल मैं
तीन बातें आपसे
सम्यक विचार की
कहने को हूं उनकी
रोशनी देनी होगी।
तो इन त्रि—रत्नों
के माध्यम से—सम्बक
आचार और सम्यक
भाव और सम्यक विचार
के माध्यम से वे
ध्यान के बीज समाधि
के फूल तक पहुंचेंगे।
तब, तब आपके
भीतर कुछ जागेगा
और उदय होगा। किसी
प्रकाश किसी सूर्य
के दर्शन संभव
होंगे।
तो
यह भूमिका अगर
हम देंगे तो संभावना
है। संभावना सुनिश्चित
है! बात को ठीक से
समझ लेना और बगिया
लगाने की विधि
को समझ लेने की
बात है। इतना मुझे
अभी कहना था।
अब
हम रात्रि के ध्यान
के लिए बैठेंगे।
रात्रि
का ध्यान कल मैंने
आपको समझा दिया
है। सुबह मैंने
कहा था, सुबह जब
आप जागते हैं आपके
भीतर जागरण की
शक्ति होती है,
इसलिए सुबह जो
हमने प्रयोग तय
किया है उसे विचार
कर तय किया। उसे
इस विचार से तय
किया है कि वह जागरण
की शक्ति जो आपमें
होती है उसका हम
उपयोग कर लें और
हम जागें और जागरण
का प्रयोग करें
अपने आंतरिक जीवन
में।
रात्रि
आप सोने के करीब
आ जाते हैं, सब
सोने की स्थिति
आपके भीतर तैयार
हो जाती है, इसलिए रात्रि
का प्रयोग हमने
बहुत दूसरे ढंग
से व्यवस्थित किया
है। उसमें यह व्यवस्था
है कि हम, सोने
की जो स्थिति हममें
आ रही है, उसका
उपयोग कर लें।
आप
अगर सौ वर्ष जीएंगे
तो पचास वर्ष सोने
में बीतेंगे और
पचास वर्ष जागने
में बीतेंगे। मनुष्य
न तो केवल जागा
हुआ है और न केवल
सोया हुआ है। इन
दोनों स्थितियों
में उसकी आत्मा
मौजूद होती है।
इन दोनों स्थितियों
से उसकी आत्मा
को भीतर प्रवेश
करने की सुविधा
है।
एक
प्रयोग है जागरण
का,
जिसके माध्यम
से हम जाग्रत स्थिति
से आत्मा में प्रवेश
करते हैं। दूसरा
यह प्रयोग है,
निद्रा का भी
उपयोग कर लेने
का, इसके माध्यम
से भी हम आत्मा
में प्रवेश करते
हैं। तो पहले में
हम रीढ़ को सीधा
रखते हैं, वह
जागरण का हिस्सा
है; श्वास को
गहरा करते हैं,
वह हमारे भीतर
प्राणवायु को ले
जाता है और जगाता
है और हम सतत जागरूक
रह कर नाभि के केंद्र
पर अपनी स्मृति
को ले जाते हैं,
ताकि वहां जागरण
हो और चित्त की
मूर्च्छा टूट जाए।
रात्रि
के प्रयोग में
हम बिलकुल विपरीत
प्रयोग कर रहे
हैं। न हम रीढ़ को
सीधा करते हैं, न हम
गहरी श्वास लेते
हैं न हम किसी स्थान
पर अपने को जागरण
का प्रयोग करते
हैं। हम शरीर को
शिथिल छोड़ते हैं
जैसे निद्रा में
छोड़ देते हैं।
श्वास को शांत
छोड़ देते हैं,
ताकि हम और भी
अंदर प्रवेश कर
जाएं। श्वास भी
सो जाए, शरीर
भी सो जाए, फिर
मन भी सो जाए, इसका प्रयोग
करते हैं कि मन
भी सो जाए, ये
तीनों सो जाएं।
चूंकि हम स्वयं
प्रयोग करते हैं
इनके सुलाने का,
इसलिए हम तो
जागे रहते हैं।
मैं तो जागा रहूंगा,
क्योंकि मैं
एक—एक को सुलाए
चला जा रहा हूं।
जब ये तीनों सो
जाएंगे तो मैं
तो जागा रहूंगा,
लेकिन ये तीनों
सो जाएंगे। सोने
के माध्यम से मैं
अपने चैतन्य को
जानूंगा।
सुबह
के ध्यान के प्रयोग
में हम जागरण के
माध्यम से उस चैतन्य
को जानते हैं।
इस रात्रि के प्रयोग
में हम सोने के
माध्यम से उस चैतन्य
को जानते हैं।
जिसने जागने में
आत्मा को जान लिया, उसे
जरूरी है कि वह
सोने में भी आत्मा
को जान ले, अन्यथा
वह जानना अधूरा
होगा। और इन दोनों
द्वारों से वह
प्रविष्ट हो जाए।
तो वह उस आत्मा
को जानेगा जो कभी
जागता है और कभी
सो जाता है, जो दोनों स्थितियों
में से गुजरता
है, दोनों द्वारों
में से गुजरता
है। उन दोनों द्वारों
का हम उपयोग कर
रहे हैं। एक का
रात्रि के प्रयोग
में, एक का सुबह
के प्रयोग में।
और एक तीसरा प्रयोग
जो मैंने आपसे
कहा है, उस प्रयोग
को रात्रि और दिन
से संबंधित न रख
कर, उसे आप कभी
भी कर सकें, किसी भी क्षण
कर सकें इस लिहाज
से व्यवस्थित किया
है।
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