आपके
कुछ प्रश्न आज
लूंगा। कोई
प्रश्न आज छूट
जाएंगे तो
परेशान न हों, कल उन पर
चर्चा हो
जाएगी। ईश्वर
सगुण है या निर्गुण?
ईश्वर है या
नहीं है? ईश्वर
में विश्वास
मैं करता हूं
या नहीं करता हूं?
इस भांति के
जो भी प्रश्न हैं,
उनको मैं
लूंगा।
एक बात
जो सबसे
ज्यादा
महत्वपूर्ण
और विचार करने
जैसी है वह यह
है कि हजारों
वर्षों से मनुष्य
को विश्वास
करने की
प्रेरणा दी गई
है। उसे
समझाया गया है
कि तुम
विश्वास करो!
ईश्वर में विश्वास
करो, आत्मा
में विश्वास
करो, धर्म
में विश्वास
करो, गुरुजनों
में विश्वास
करो, शास्त्रों
में विश्वास
करो। इस भांति
कोई हजारों
वर्षों से
मनुष्य को
विश्वास के
लिए दीक्षित
और तैयार किया
गया है।
सबसे
पहले जो मैं
कहना चाहूंगा
वह यह कि मेरा विश्वास
में ही
विश्वास नहीं
है। मैं इस
पूरी धारा को
ही गलत मानता
हूं। मनुष्य
को दीक्षित
किया जाना
चाहिए विवेक
में, विश्वास
में नहीं।
क्योंकि
विश्वास तो
अंधी चीज है।
विश्वास का
अर्थ है, जिस
बात को तुम
नहीं जानते हो
उसे मान लो।
जैसे एक अंधा
आदमी प्रकाश
को जानता तो
नहीं है, लेकिन
विश्वास कर
सकता है कि
प्रकाश है।
लेकिन यदि अंधा आदमी विश्वास भी कर ले कि प्रकाश है, तो भी क्या उसे प्रकाश का कोई अनुभव होगा? क्या उसके मन में कोई रूप बनेंगे? क्या उसके मन में कोई प्रतीति होगी? क्या वह किसी भांति इस प्रकाश को जानने में विश्वास के द्वारा समर्थ हो सकेगा?
लेकिन यदि अंधा आदमी विश्वास भी कर ले कि प्रकाश है, तो भी क्या उसे प्रकाश का कोई अनुभव होगा? क्या उसके मन में कोई रूप बनेंगे? क्या उसके मन में कोई प्रतीति होगी? क्या वह किसी भांति इस प्रकाश को जानने में विश्वास के द्वारा समर्थ हो सकेगा?
अंधा
आदमी विश्वास
भी करे तो भी
प्रकाश को
नहीं जानेगा।
प्रकाश तो दूर
है, अंधा
आदमी अंधेरे
को भी नहीं
जानता है। तुम
शायद सोचते
होओगे कि अंधे
को अंधेरा
दिखता होगा।
तो तुम गलती
में हो।
अंधेरा देखने
के लिए भी आंख
चाहिए। तुम
अगर सोचते
होओगे कि अंधे
को कम से कम
अंधेरा तो
मालूम होता
होगा। तो भी
तुम गलती में
हो। अंधेरे को
देखने के लिए
भी आंख चाहिए।
आंखें न हों
तो अंधेरा और
प्रकाश, दोनों
ही दिखाई नहीं
पड़ते हैं।
तुम
अपनी आंख बंद
करके देखोगे
तो तुमको
अंधेरा दिखाई
पड़ेगा, इससे
तुम यह मत
सोचना कि
जिसकी आंख
नहीं है उसको
भी अंधेरा
दिखाई पड़ता
होगा। बंद आंख
फिर भी आंख
है। और जिसकी
आंख नहीं है
उसे कैसा दिखाई
पड़ता है, यह
तो तुम कल्पना
ही नहीं कर
सकते। उसे कुछ
दिखाई ही नहीं
पड़ता, क्योंकि
देखने के लिए
आंख चाहिए।
प्रकाश देखने
के लिए भी आंख
चाहिए और
अंधकार को
देखने के लिए
भी आंख चाहिए।
अंधे
आदमी को हम
विश्वास दिला
सकते हैं कि
प्रकाश है, लेकिन वह
विश्वास झूठा
होगा।
क्योंकि अंधे
को कोई अपना
अनुभव तो हो
नहीं सकता, तुम्हारी
बात मान लेगा।
और मानी हुई
बात के पीछे
संदेह खड़ा
रहता है, शक,
शंका बनी
रहती है कि
पता नहीं लोग
ठीक कह रहे हैं
या झूठ कह रहे
हैं!
विश्वास, जो हम
दूसरों से सीख
लेते हैं, वह
हमेशा अधूरा
और कच्चा
होगा। उसके
पीछे शंका
होगी, संदेह
होगा। केवल
वही विश्वास
जो ज्ञान से
उपलब्ध होता
है, वास्तविक
होता है, सच्चा
होता है। जिसे
हम खुद अनुभव
से जानते हैं,
वही जीवन का
आधार बनता है।
दुनिया
में जो धर्म
का पतन हुआ और
लोग अधार्मिक
हुए वह इसीलिए
कि धर्म
विश्वास पर
खड़ा किया गया
है। और
विश्वास अंधा
होता है।
इसलिए धार्मिक
जीवन
धीरे-धीरे
अंधा होता चला
गया, धीरे-धीरे
अंधविश्वास
होता चला गया,
सुपरस्टीशन
होता चला गया।
उसमें न तो
कोई ज्ञान की
ज्योति रही, न कोई
अनुभूति का बल
रहा, न
प्राणों का
उससे कोई
संबंध रहा।
झूठा हो गया, मिथ्या हो
गया। सारे लोग
इसलिए मानते
हैं कि हमसे
कहा जाता है, लेकिन हमें
खुद कोई अनुभव
नहीं है।
तो मैं
तो यह कहूंगा
कि खोजना, विचार करना,
श्रम करना
जानने के लिए,
तो एक दिन
जरूर ही
परमात्मा को
या सत्य को
जाना जा सकता
है। विश्वास
जो कर लेगा वह
फिर कभी नहीं
जान पाता, वह
विश्वास पर ही
रुक जाता है।
जो विश्वास
नहीं करता है
वह खोज करता
है, प्रयास
करता है, श्रम
करता है जानने
का और किसी
दिन जान पाता
है।
विश्वास
तो बाधा है।
इसलिए चाहे
निर्गुण ईश्वर
पर विश्वास
करो, चाहे
सगुण ईश्वर पर
विश्वास करो,
तुम्हारे
विश्वास का
कोई भी मूल्य
नहीं है। किसी
के विश्वास का
कोई मूल्य
नहीं है। और
चाहे तुम किसी
भी ईश्वर पर
विश्वास न करो,
अविश्वास
करो, अविश्वास
का भी कोई
मूल्य नहीं
है। मूल्य है
खोज का, संदेह
का, डाउट
और
इंक्वायरी।
संदेह करो और
खोज करो। और
जब तक तुम्हें
खुद कुछ अनुभव
न हो जाए तब तक
कुछ भी मत
मानना; न
तो आस्तिक को
मानना जो कहता
है ईश्वर है
और न नास्तिक
को मानना जो
कहता है ईश्वर
नहीं है। तुम
कहना कि मैं
नहीं जानता
हूं, मैं
नहीं जानती
हूं, मुझे
तो खोज करनी
है, मुझे
पहचानना है, मुझे जानना
है, मैं
खुद जानने को
उत्सुक हूं।
मैं बिना जाने
कोई भी बात
मानने को राजी
नहीं हूं।
अंधा
आदमी एक हुआ
बुद्ध के समय
में। बुद्ध एक
गांव में गए, उस अंधे
आदमी को उसके
मित्र समझाते
थे कि प्रकाश
है, लेकिन
वह मानता नहीं
था। वह उनसे
कहता था कि मैं
छूकर देखना
चाहता हूं कि
प्रकाश कैसा
है? तो
प्रकाश को
स्पर्श करने
का कोई उपाय
नहीं है। वह
कहता था कि
मैं चख कर
देखना चाहता
हूं कि प्रकाश
कैसा है? लेकिन
चखने का भी
कोई उपाय नहीं
है। वह कहता था,
तुम प्रकाश
को बजाओ, उसमें
कोई धुन निकले,
तो मैं धुन
ही सुन लूं।
यह भी कोई
उपाय नहीं है।
फिर
बुद्ध उस गांव
में आए तो
उसके मित्र उस
अंधे आदमी को
लेकर बुद्ध के
पास गए और
उन्होंने कहा, आप तो बहुत
विचारपूर्ण
हैं, इसे
समझा दें। यह
प्रकाश को
मानने से
इनकार करता
है।
बुद्ध
ने कहा, अगर
वह मान लेता
तो ही मैं उसे
गलत कहता। वह
नहीं मानता, यह तो ठीक है।
उसे नहीं
दिखाई पड़ता, वह कैसे
माने? और
मेरे पास तुम
व्यर्थ लाए, मेरी बजाय
तुम किसी
वैद्य के पास
ले जाओ। उसे उपदेश
की नहीं, उपचार
की जरूरत है।
उसकी
चिकित्सा
होनी चाहिए, उसका इलाज
होना चाहिए।
समझाना
व्यर्थ है, क्योंकि
प्रकाश को
देखने के लिए
आंखें चाहिए,
प्रकाश को
देखने के लिए
उपदेशों की
कोई भी आवश्यकता
नहीं है। और
आंख नहीं है
तो कितना ही
समझाओ, प्रकाश
का कोई अनुभव
नहीं हो सकता
और न प्रकाश
पर वस्तुतः
कोई श्रद्धा
हो सकती है।
वे
मित्र उस अंधे
आदमी को
चिकित्सकों
के पास ले गए।
उसकी आंख पर
जाली थी, वह
कुछ ही दिनों
के इलाज से
ठीक हो गई, कट
गई। वह आदमी
नाचता हुआ, भागता हुआ
बुद्ध को
धन्यवाद देने
आया, उनके
पैरों में गिर
पड़ा और उसने
कहा कि अब मैं क्या
कहूं? प्रकाश
तो है, पहले
भी था, लेकिन
मेरे पास
आंखें नहीं
थीं।
अब यह
जो अनुभव है
बहुत दूसरे
प्रकार का है।
यह अनुभव प्राणों
का अनुभव हो
गया। इस अनुभव
को अब कोई झूठा
नहीं कर सकता, इस अनुभव को
अब कोई खंडित
नहीं कर सकता,
अब कोई तर्क
इसे नष्ट नहीं
कर सकता, अब
कोई इसे हिला
नहीं सकता, डिगा नहीं
सकता। यह तो
प्राणों के
प्राण ने जाना
कि प्रकाश है।
ठीक ऐसे ही
परमात्मा भी
जाना जा सकता
है। लेकिन
उसके लिए भी
आंख चाहिए। ये
जो हमारी
साधारण आंखें
हैं, ये
केवल वस्तुओं
को, पदार्थों
को देख पाती
हैं। और एक
विवेक की, विचार
की आंख होती
है, जो
परमात्मा को
भी जान सकती
है। उसे जगाने
और खोलने की
जरूरत है। वह
हरेक के भीतर
है और हरेक के
भीतर बंद पड़ी
हुई है। जब उस
आंख को कोई
खोलता है और
जगा लेता है
तो उसे
परमात्मा का
अनुभव होता
है।
उस
अनुभव में न
तो कोई सगुण
और निर्गुण है; उस अनुभव
में न तो
हिंदुओं का
परमात्मा है,
न
मुसलमानों का;
उस अनुभव
में न तो
ईसाइयों का
परमात्मा है,
न किसी और
धर्म वालों
का। उस अनुभव
में तो यह
सारी सत्ता, यह सारा
विश्व ही एक
परमात्मा का
रूप दिखाई पड़ने
लगता है। उस
अनुभव में तो
फूल में भी
परमात्मा
दिखता है, वृक्ष
में भी, पत्थर
में भी, मनुष्य
में भी, पक्षी
में भी। उसमें
तो दिखाई पड़ता
है कि यह पूरा
का पूरा जीवन,
यह जो
जीवन-शक्ति है
जो सब तरफ
फैली हुई है, यह सभी कुछ
परमात्मा का
अनुभव देने
लगती है। वहां
कोई परमात्मा
मनुष्य की
भांति खड़ा
नहीं होता, कि हम उससे
बातें कर रहे
हैं और वह
हमारे सामने
खड़ा है। वहां
तो समग्र जीवन,
सारी
सृष्टि ही
परमात्म-स्वरूप
अनुभव होती है।
और तब
जीवन में एक
क्रांति हो
जाती है। और
तब व्यक्ति का
पूरा का पूरा
आमूल आचरण बदल
जाता है। फिर
वह और ढंग से
जीता है, और
ढंग से बोलता
है, और ढंग
से उठता है।
लेकिन
विश्वास करने
वाले आदमी के
जीवन में कोई
फर्क नहीं
होता।
विश्वास करने
वाले का जीवन वैसा
ही होता है
जैसा
अविश्वास
करने वाले का
जीवन होता है।
तुम उसे धक्का
दो तो वह भी तुम्हें
धक्का देगा; तुम उसे
गाली दो तो वह
तुम्हें
दुगुने वजन की
गाली देगा; तुम ईंट
मारो तो वह
पत्थर
मारेगा। उसे
भी क्रोध होता
है, वह
भीर् ईष्या से
भरता है, वह
भी गुस्से में
आता है--जो
विश्वास करने
वाला है। लेकिन
जो परमात्मा
को जानता है
उसका जीवन बदल
जाता है। उसके
जीवन में घृणा,
क्रोध, हिंसा
समाप्त हो
जाते हैं।
उसके जीवन में
प्रेम ही
प्रेम रह जाता
है। वही सबूत
है, वही
प्रमाण है इस
बात का कि
उसने जाना है।
उसके जीवन में
सारी बात बदल
जाती है। उसके
जीवन में कोई
दुख, कोई
चिंता नहीं रह
जाती। मृत्यु
भी आ जाए तो भी
उसके जीवन में
आनंद ही बजता
रहता है, उसके
हृदय में गीत
ही गूंजते
रहते हैं।
एक
फकीर मरा।
जीवन भर आनंद
से भरा हुआ
था। उसकी मौत
करीब आने लगी, वह बहुत
बीमार पड़ गया।
तो लोग उसके
पास देखने आते
थे यह सोच कर
कि अब तो दुखी
हो गया होगा, अब तो मौत
करीब आ रही है,
अब तो इसके
चित्त में दुख
और पीड़ा और
उदासी आ रही
होगी। लेकिन
वह खाट पर पड़ा
था, उसका
शरीर तो सूख
गया था, लेकिन
उसकी आंखों की
वही शांति, वही ज्योति
कायम थी। वह
मरने के करीब
था। चिकित्सकों
ने कहा कि अब
यह कल सुबह तक
नहीं बच
पाएगा। तो लोग
उत्सुक थे कि
शायद अब दुखी
हो जाएगा।
लेकिन वह मरने
के आखिरी क्षण
तक हंसता रहा
और प्रसन्न
रहा। और मरते
वक्त उसने कहा
कि मित्रो, तुम एक काम
करना, मेरे
मरने के बाद
मेरे
वस्त्रों को
अलग मत करना, मैं जिन
वस्त्रों में
मरूं उन्हीं
वस्त्रों के साथ
मुझे तुम चिता
पर चढ़ा देना।
हमारे
मुल्क में भी
ऐसा करते हैं, वस्त्र
बदलते हैं, स्नान कराते
हैं, उस
मुल्क में भी
ऐसा ही करते
थे। लेकिन
उसके निवेदन
को खयाल में
रख कर, वह
मर गया, तो
उसको उन्हीं
वस्त्रों में
ले जाकर
जलाया। जब
चिता पर उसकी
लाश रखी, तब
तक तो लोग
उदास थे और
दुखी थे, लेकिन
चिता पर लाश
रखते ही से
सारे लोग
हंसने लगे।
तुम खयाल भी
नहीं कर सकते
कि क्यों
हंसने लगे? तुम्हें
कल्पना भी
नहीं आ सकती
कि कोई मर गया है,
कोई जल रहा
है, कोई
प्रियजन अपना,
और लोग
हंसेंगे!
लोगों को
हंसना पड़ा!
उस
फकीर ने मरने
के पहले अपने
कपड़ों के भीतर
पटाखे और
फुलझड़ियां छिपा
रखी थीं। जब
वह लाश पर
चढ़ाया गया तो
वे सब पटाखे
फूटने लगे और
फुलझड़ियां
छूटने लगीं तो
लोगों को हंसी
आने लगी। और
लोगों ने कहा
कि अदभुत आदमी
था, जीता था
तब भी हंसता
था, प्रसन्न
था, आनंदित
था; मृत्यु
आई तब भी
प्रसन्न था; और अब मर गया
है तो भी इस
बात की खबर दे
रहा है कि मैं
प्रसन्न हूं,
मैं खुश हूं
और दुख मनाने
की कोई भी
जरूरत नहीं
है।
जो
आदमी
परमात्मा को
जानता है उसके
जीवन में सब
कुछ आनंद हो
जाता है।
लेकिन
विश्वास करना
जानना नहीं
है।
इसलिए
यह मुझसे मत
पूछो कि मैं क्या
विश्वास करता
हूं?
मैं तो
विश्वास कुछ
भी नहीं करता
और न किसी से कहता
हूं कि कभी
विश्वास
करना। मैं तो
कहता हूं कि
जानना, खोजना,
खुद अपने
प्राणों को
संलग्न करना
कि वह किसी भांति
आंखें भीतर की
खुल सकें और
तुम्हें खुद परमात्मा
का अनुभव और
दर्शन हो सके।
विश्वास
पर नहीं, विचार
पर, विवेक
पर, व्यक्तिगत
श्रम पर मेरी
श्रद्धा है।
विश्वास तो
खतरनाक बात है,
उसका अर्थ
है दूसरों को
मान लेना। और
जो दूसरों को
मान लेता है
उसका खुद का
विकास कुंठित
हो जाता है, रुक जाता
है। किसी और
को मानने की
जरूरत नहीं है;
खुद ही
जानने की, पहचानने
की जरूरत है।
तो
इसलिए इस छोटे
से जीवन में
जल्दी मत करना
और कुछ मान मत
लेना।
हालांकि
मां-बाप
सिखाएंगे, अध्यापक
सिखाएंगे--यह
मान लो, वह
मान लो।
छोटी-मोटी
चीजों में तो
ठीक है, लेकिन
परमात्मा
जैसी बड़ी चीज
में किसी को
मानने की
जरूरत नहीं
है।
कैसे
आंख खुल सकती
है, उसकी--मैं
अभी तुम्हारे
प्रश्नों की
बात कर लूं--तो
फिर मैं उसकी
चर्चा
करूंगा।
ध्यान का प्रयोग
भी हम करेंगे
तीन दिन।
ध्यान आंख के
खुलने का उपाय
है। ध्यान के
द्वारा भीतर
की आंख धीरे-धीरे
खुलती है।
और
भीतर की आंख
खुल जाएगी तो
खुद ही जान
सकोगे कि
परमात्मा है
या नहीं? है
तो कैसा है? उसका रूप है
या नहीं? उसमें
कोई गुण हैं
या नहीं? उसका
आकार है या
नहीं? या
क्या है
परमात्मा? किस
अनुभूति को
परमात्मा
कहते हैं? यह
तुम खुद ही
जान सकोगे। तो
बजाय इसके कि
मैं यह बताऊं
कि परमात्मा
कैसा है, क्या
यही उचित नहीं
है कि हम उस
विधि और मार्ग
का विचार करें
जिससे
प्रत्येक को
अनुभव हो सके,
प्रत्येक
जान सके!
प्रत्येक
जान सकता है, क्योंकि
सबके भीतर यह
संभावना है।
कोई मनुष्य
ऐसा पैदा नहीं
होता जिसके
भीतर एक आंख न
हो जो बंद है
और जो खुल न
सकती हो।
लेकिन खोलने
का उपाय
करेंगे तभी, खोलने के
लिए चेष्टा
करेंगे तभी।
उसी
चेष्टा को
साधना कहा
जाता है, उसी
चेष्टा को
ध्यान।
तो वह
हम अभी बात
करेंगे कि
ध्यान क्या
है। और फिर हम
सब साथ बैठ कर
प्रयोग भी
करेंगे तीन दिन।
अगर पूरे श्रम
से, पूरे मन
से, पूरे
संकल्प से
तुमने उस
प्रयोग को
किया, तो
तीन दिन में
भी एक झलक मिल
सकती है शांति
की, एक झलक
मिल सकती है
आनंद की, एक
आलोक या
प्रकाश का
दर्शन हो सकता
है। और अगर
तीन दिन के
छोटे से समय
में भी पूरे
प्राणों से
संलग्न होकर
उस प्रयोग को
किया, तो
बहुत कुछ
द्वार खुल
सकते हैं जो
भीतर बंद हों।
और फिर अगर उस
प्रयोग को
जारी रखा, तो
दो-चार-छह
महीने में ही
तुम्हें
प्रतीत होगा
कि तुम्हारे
भीतर तो फर्क
होना शुरू हो
गया, तुम्हारे
भीतर एक नई
आंख खुलनी
शुरू हो गई, तुम्हें तो
कुछ नये अनुभव
होने लगे जो
कभी भी नहीं
हुए थे। और
अगर कोई
व्यक्ति जीवन
भर थोड़ा सा
समय भी ध्यान
के लिए दे, साधना
के लिए दे, तो
कोई कारण नहीं
है कि जीवन के
अंत होते-होते
वह परमात्मा
के समक्ष खड़ा
न हो जाए।
तो मैं
नहीं कहता कि
मानो, विश्वास
करो, मैं
कहता हूं, जानो।
जब कि जाना ही
जा सकता है तो
विश्वास करना
व्यर्थ है।
किसी की मानने
की जरूरत नहीं
है। द्वार
खोलो, मार्ग
खोजो, खुद
पहचानो।
यह
तो मैं पहले
दो-एक
प्रश्नों के
बाबत कहा। और
प्रश्न इसी
भांति आत्मा
के संबंध में
पूछा है। और
प्रश्न पूछा
है कि मरने के
बाद क्या होता
है? और
प्रश्न पूछा
है कि आत्माएं
मर जाने के
बाद भटकती हैं,
वह सच है या
झूठ है?
ये सारे
प्रश्न हैं।
इन सारे
प्रश्नों में
भी यह समझने
की बात है कि
मरने के बाद
आत्मा का क्या
होता है, इस
संबंध में तुम
उत्सुक हो।
लेकिन
तुम्हारी उत्सुकता
इस संबंध में
बिलकुल भी
नहीं है कि तुम्हारे
भीतर जो आत्मा
है अभी जिंदा
हालत में उसकी
क्या हालत है?
मरने के बाद
का तुम विचार
करोगे कि मरने
के बाद आत्मा
का क्या होता
है। और अभी
आत्मा का क्या
हो रहा है, इसका
कोई विचार
नहीं? यह
तो बड़ी नासमझी
की बात हुई।
यह तो बहुत ही
गलत बात हुई।
महत्वपूर्ण
तो यह है कि
मैं इस वक्त
सोचूं कि जिंदा
स्थिति में
मेरी आत्मा का
क्या हाल है? लेकिन हम
पूछते हैं:
मरने के बाद
क्या हाल होगा?
मरने
के बाद वही
हाल होगा जो
अभी जिंदा
हालत में है।
उससे भिन्न
थोड़े ही होगा।
लेकिन अगर अभी
हमारे भीतर
आत्मा की
स्थिति अच्छी
नहीं है--दुख
है, शांति
नहीं है, आनंद
नहीं है--तो
मरने के बाद
की चिंता करने
से क्या फायदा?
महत्वपूर्ण
तो यही है कि
हम अभी सोचें
कि जिंदा
स्थिति में
आत्मा का क्या
हाल है?
और बड़े
रहस्य की बात
यह है कि
जिंदा रहते
हुए जो आदमी
आत्मा को जान
लेता है, उसे
यह भी पता चल
जाता है कि
मेरी आत्मा की
कोई मृत्यु
नहीं हो सकती।
आत्मा
मरणधर्मा
नहीं है।
लेकिन
यह कोई दूसरे
के कहने से
नहीं, यह तो
तुम खुद ही जब
अनुभव कर सको
अपने भीतर तो तुम्हें
स्पष्ट दिखाई
पड़ सकता है कि
तुम्हारा
शरीर अलग है
और तुम्हारी
आत्मा अलग है।
यह उतना ही
स्पष्ट दिखाई
पड़ सकता है
जिस तरह तुम्हें
दिखाई पड़ रहा
है कि
तुम्हारे
वस्त्र अलग हैं
और तुम अलग
हो। यह उसी
तरह दिखाई पड़
सकता है जिस तरह
तुम्हें
दिखाई पड़ता है
कि जिस मकान
में हम बैठे
हैं वह अलग है
और हम अलग
हैं। यह तो
इतना साफ
दिखाई पड़ सकता
है...
तुम
छोटे बच्चे का
विचार करो।
मां के पेट
में बच्चा आता
है, छोटा सा
अणु बनता है।
पहले दिन वही
देह होती है, वही शरीर
होता है। फिर
वह अणु बड़ा
होता है, फिर
मां के पेट
में नौ महीने
में बच्चा बड़ा
होता है। फिर
वह बाहर आता
है, फिर और
बड़ा होता चला
जाता है। अगर
पहले दिन के बच्चे
की तस्वीर
तुम्हारे
सामने रख दी
जाए, तुम्हारी
खुद की तस्वीर,
तो तुम
पहचान नहीं
सकोगे कि यह
मेरी तस्वीर
है। अगर पहले
दिन की
तुम्हारी
तस्वीर रख दी
जाए तो कोई भी
नहीं पहचान
सकेगा कि यह
मेरी तस्वीर
है। कोई भी कह
देगा--यह मेरी
तस्वीर है? कैसे हो
सकती है? लेकिन
एक दिन वही
तुम्हारा
शरीर था। आज
तुम युवा हो, कल तुम बूढ़े
हो जाओगे।
बुढ़ापे में
तुम्हारी आज
की तस्वीर
तुम्हें बहुत
भिन्न मालूम
पड़ेगी।
बचपन, जवानी, बुढ़ापा,
बहुत फर्क
हो जाता है
शरीर में।
लेकिन भीतर कोई
है जो वही का
वही बना रहता
है। तुमने
शायद कभी यह
फिक्र न की हो
कि आंख बंद
करके तुम यह
सोचो कि मेरी
आत्मा की
कितनी उम्र है?
अगर तुम आंख
बंद करके
सोचोगी तो
तुम्हें वहां
आत्मा की कोई
उम्र पता नहीं
चलेगी--कि दस
साल, कि
बीस साल, कि
तीस साल। और
जैसा आज लगेगा
वैसा ही दस
साल बाद भी
लगेगा, तीस
साल बाद भी
लगेगा, मरते
वक्त भी वैसा
ही लगेगा।
भीतर कोई उम्र
नहीं है, सब
उम्र शरीर की
होती है। जैसे
एक आदमी ट्रेन
में जाए, नासिक
पर से गुजरे, फिर वह
कल्याण
पहुंचे या
बंबई पहुंचे,
तो क्या वह
यह कहेगा कि
मैं नासिक था,
अब मैं
कल्याण हो गया?
अब मैं बंबई
हो गया? वह
कहेगा, मैं
नासिक पर से
निकला, कल्याण
पर से निकला, अब बंबई से
निकल रहा हूं।
तुम
बच्ची थीं, आज युवा हो, कल बूढ़ी हो
जाओगी। तो
क्या तुम यह
कहोगी कि कभी
हम बच्चे थे? अगर समझ
आएगी तो
मनुष्य ऐसा
सोचना शुरू
करता है कि
कभी मैं बचपन
से निकला, अब
मैं जवानी से
निकल रहा हूं,
अब मैं
बुढ़ापे से
निकल रहा हूं।
भीतर तो कोई एक
यात्री है जो
वही का वही है,
स्टेशंस
बदल जाते हैं--बचपन
से जवानी आ
जाती है, जवानी
से बुढ़ापा आ
जाता है।
शरीर
तो रोज मरता
रहता है।
वैज्ञानिक
बताते हैं, सात वर्ष
में पूरे शरीर
के अणु-अणु
बदल जाते हैं।
सात वर्ष बाद
तुम्हारे
शरीर में एक
टुकड़ा भी नहीं
होता वही जो
सात वर्ष पहले
था। सत्तर वर्ष
जो आदमी जीता
है उसका पूरा
शरीर दस बार
बदल जाता है, पूरा का
पूरा बदल जाता
है, उसमें
कुछ भी बचता
नहीं। शरीर
प्रतिदिन
मरता जाता है
और अपने मरे
हुए हिस्सों
को बाहर फेंकता
रहता है।
तुम्हारे
बाल हैं, तुम्हें
शायद कभी खयाल
न आया हो कि
तुम बाल काटती
हो तो उनमें
दर्द क्यों
नहीं होता? अगर वे
जिंदा हिस्से
होते तो उनमें
दर्द होता। वे
मरे हुए
हिस्से हैं।
नाखून हैं, वे मरे हुए
हिस्से हैं।
शरीर अपने
मुर्दा अंगों
को बाहर फेंक
रहा है। बालों
के रूप में, नाखूनों के
रूप में, पसीने
के रूप में, मल के रूप
में अपने
मुर्दा अंगों
को बाहर फेंक
रहा है। इसीलिए
तो बाल को
काटते वक्त या
नाखून को काटते
वक्त दर्द
नहीं होता। ये
मरे हुए
हिस्से हैं, इनको शरीर
बाहर फेंक रहा
है। इनको बाहर
फेंकता जाता
है, ये
बेकार हिस्से
हैं, इनकी
जगह नये
हिस्से भीतर
स्थापित होते
चले जाते हैं।
ऐसे
शरीर तो रोज
मरता है, लेकिन
भीतर कोई है
जो रोज नहीं
मरता। भीतर
कोई है जिसकी
स्मृति
स्थायी है।
लेकिन उसे
जाना, पहचाना
जा सकता है।
शांत क्षणों
में भीतर जाकर
यह देखा जा
सकता है। और
जब यह दिखाई
पड़ेगा तो तुम्हें
ज्ञात होगा कि
मेरी आत्मा तो
शरीर से अलग
है। और जिस
दिन तुम्हें
यह ज्ञात हो
जाएगा कि मेरी
आत्मा शरीर से
अलग है, उसी
दिन तुम्हें
यह भी ज्ञात
होगा कि मेरा
शरीर तो मरेगा,
लेकिन
आत्मा नहीं
मरेगी।
लेकिन
यह मैं नहीं
कहूंगा कि ऐसा
है। मेरा सारा
जोर इसी बात
पर है कि
तुम्हें खुद
अनुभव होना
चाहिए। मेरी
बात मान लेने
से कोई फायदा
नहीं है।
आत्मा नहीं मरती
है, आत्मा
नहीं मर सकती
है। लेकिन इसे
अनुभव किया जाना
चाहिए। इसे
मान नहीं लेना
चाहिए, ऐसे
किसी की बात
स्वीकार नहीं
कर लेनी
चाहिए। खुद
प्रयोग करना
चाहिए साहस के
साथ। और छोटा
सा प्रयोग भी
जारी रहे तो
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
जीवन में इस
महानतम वस्तु
को जान सकता
है जिसकी कोई
मृत्यु नहीं
होती। और अगर
यह ज्ञात हो
जाए तो
तुम्हारा
सारा भय, तुम्हारा
सारा डर, तुम्हारी
सारी चिंता, सब समाप्त
हो जाएगी। अगर
यह पता चल जाए
कि मैं अमर
हूं, तो
फिर मृत्यु का
कोई भय नहीं
है। दुख, पीड़ा,
कोई भी फिर
मुझे नष्ट
नहीं कर सकते।
तब तुममें एक
साहस का उदय
होगा--अदम्य
साहस का--जब तुम्हें
यह ज्ञात हो
जाएगा कि मेरी
कोई मृत्यु नहीं
है।
मृत्यु
के भय के कारण
ही तो मनुष्य
कमजोर हो जाता
है, भयभीत हो
जाता है। मरने
से जो डरता है
वह भयभीत हो
जाता है। केवल
धार्मिक
व्यक्ति ही
ठीक-ठीक
अर्थों में
अभय, फियरलेसनेस
को उपलब्ध हो
सकता है, जिसको
यह ज्ञात हो
कि मेरी कोई
मृत्यु नहीं
है।
क्राइस्ट
को सूली पर
लटकाया।
जिन्होंने
उनको लटकाया
उन्होंने
सोचा होगा कि
यह घबड़ाएगा। उनके
हाथों में
कीलें ठोंक
दिए और अंत
में उनसे कहा
कि अब इसके
पहले कि हम
तुम्हें सूली
पर चढ़ा दें, तुम्हें कुछ
कहना हो तो
कहो। तो
क्राइस्ट ने कहा,
हे
परमात्मा, इन
सारे लोगों को
क्षमा कर देना,
क्योंकि
इनको पता नहीं
कि ये क्या कर
रहे हैं! क्राइस्ट
ने कोई क्रोध
की बात नहीं
कही। क्योंकि
क्राइस्ट के
सामने कोई
फर्क ही नहीं
पड़ता है, जिंदा
या मुर्दा।
भीतर वे जानते
हैं कि उनकी
मृत्यु असंभव
है।
मंसूर
हुआ एक फकीर।
उसके लोगों ने
हाथ-पैर काट
डाले, उसकी
आंखें फोड़
दीं। लेकिन वह
हंसता था, हंसता
रहा। लोगों ने
उससे पूछा कि
तुम मृत्यु से
घबड़ा नहीं रहे
हो? उसने
कहा, घबड़ाऊं
तब जब मुझे यह
पता हो कि मैं
मरूंगा। मैं
तो जानता हूं
कि मेरी
मृत्यु असंभव
है।
सिकंदर
हिंदुस्तान
आया था। यहां
से एक फकीर को
यूनान ले जाना
चाहता था। जब
हिंदुस्तान
से जाने लगा
तो उसने
खोज-बीन की कि
कोई बड़ा फकीर, कोई बड़ा
साधु क्या
मेरे साथ जाने
को राजी है? तो एक गांव
में गया।
लोगों ने कहा
कि वहां एक बहुत
बड़ा साधु है।
उसके पास गया।
उससे जाकर
कहा--नंगी
तलवार उसने
अपने हाथ में
निकाल ली और
उस साधु से
कहा--मेरे साथ
यूनान चलने को
राजी हो जाओ।
उस साधु ने
कहा, शायद
तुम्हें पता
नहीं है, तलवार
भीतर कर लो, तुम्हें
शायद पता नहीं
है कि साधु को
डराया नहीं जा
सकता। तलवार
व्यर्थ बाहर
क्यों निकाल
रहे हो? सिकंदर
ने कहा, अगर
मैं तुम्हारी
गर्दन काट दूं
तो तुम डरोगे नहीं?
उस
संन्यासी ने
कहा, डर का
कोई सवाल
नहीं। तुम
गर्दन को
काटोगे, वह
मेरे लिए
वस्त्रों
जैसी हो गई
है। और मेरी कोई
गर्दन काट दे
तो भी मैं
नहीं मरता
हूं। यह मेरा अनुभव
है और इसलिए
मुझे भयभीत
करना संभव
नहीं है।
जो
मृत्यु से
डरता है, जानना
चाहिए कि वह
आत्मा को नहीं
जानता। और मृत्यु
से डरने वाले
लोग पूछते हैं
कि क्या आत्मा
अमर है? वे
इसलिए पूछते
हैं ताकि उनको
विश्वास आ जाए
कि आत्मा नहीं
मरती, तो
उनका भय थोड़ा
कम हो जाए।
लेकिन
इससे कोई फर्क
नहीं पड़ता।
इसलिए तुम्हें
यह दिखाई
पड़ेगा, भारत
जैसा मुल्क है
हमारा, यहां
सारे लोग
मानते हैं कि
आत्मा अमर है।
लेकिन कभी
तुमने यह भी
देखा कि यहां
इस जमीन पर पूरी
दुनिया में
मृत्यु से
डरने वाले
सर्वाधिक लोग
भी यहीं रहते
हैं, इसी
मुल्क में!
आत्मा को
मानने वाले
लोग भी यहीं
रहते हैं, आत्मा
को अमर मानने
वाले लोग भी
यहीं हैं और मृत्यु
से डरने वाले
लोग भी यहीं
हैं। इतना दुनिया
में मृत्यु से
कोई भी नहीं
डरता जितना इस
मुल्क में लोग
डरते हैं।
क्यों? क्योंकि
इन्होंने
आत्मा जानी
नहीं है, केवल
मृत्यु के भय
की वजह से यह
मान लेते हैं
कि आत्मा अमर है,
ऐसा
विश्वास कर
लेते हैं, ताकि
मरने का भय
थोड़ा कम हो
जाए।
तो यह
मत पूछो कि
आत्मा अमर है
या नहीं? आत्मा
का मरने के
बाद क्या होगा?
यही
पूछो कि अभी
भीतर मेरे कोई
आत्मा है? अगर है तो
उसे मैं कैसे
जानूं? कैसे
पहचानूं? क्या
रास्ता है उसे
जानने का?
यह
पूछोगे तब तो
कोई बात आगे
बढ़ सकती है।
और अगर तुमने
यह पूछा किसी
से कि आत्मा
है मरने के बाद
या नहीं? और
उसने कह दिया
कि है, तो
फिर क्या
करोगे? और
उसने कह दिया
कि नहीं है, तो भी क्या
करोगे? दोनों
हालत में
चुपचाप रह जाओगे
उत्तर सुन कर।
उत्तर
तुम्हारे
जीवन में कौन
सा फर्क लाएगा?
तुमने पूछा,
ईश्वर है? किसी ने कह
दिया कि है, फिर क्या
करोगे? किसी
ने कह दिया कि
नहीं है, तो
क्या करोगे? तुम्हारे
जीवन में कौन
सा फर्क आएगा?
हमेशा
स्मरण रखो: वे
ही प्रश्न
महत्वपूर्ण
हैं, वे ही उत्तर
खोजने जैसे
हैं, जिनसे
हमारा जीवन
बदलता हो, जिनसे
हमारे जीवन
में क्रांति
आती हो, जिनसे
हमारा जीवन
नया होता हो, जिनसे हमारा
अनुभव और
ज्ञान
किन्हीं नई
दिशाओं को
जानता हो, किन्हीं
नये
क्षेत्रों
में प्रवेश
करता हो।
जिन
उत्तर और
प्रश्नों से
हम वहीं के
वहीं खड़े रह
जाते हों, उनका कोई भी
मूल्य नहीं
है। और उनको न
कभी पूछने की
जरूरत है, न
उनके उत्तर
खोजने की
जरूरत है।
क्या फर्क पड़ेगा?
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
दुनिया में
जिस भांति नास्तिक
जीते हैं, उसी
भांति आस्तिक
जीते हैं। जिस
भांति वे लोग जीते
हैं जो मानते
हैं आत्मा अमर
है, उसी
भांति वे लोग
जीते हैं जो
मानते हैं
आत्मा अमर
नहीं है। उनके
जीने में कोई
फर्क नहीं पड़ता।
नहीं पड़ सकता
है। जीवन में
तो फर्क तभी
पड़ता है जब
किसी व्यक्ति
को स्पष्ट रूप
से कुछ बोध
होते हैं।
इस बोध
के लिए मार्ग
है--ध्यान। इस
बोध के लिए केवल
विचार करना, केवल सोच
लेना, किसी
से पूछ लेना
मार्ग नहीं
है। उसकी मैं
बात करूं।
और यह
पूछा है कि
मैंने सुबह
कहा कि
महत्वाकांक्षा, प्रतिस्पर्धा,
बाहर के
जीवन में तो
इनके सिवाय
विकास नहीं हो
सकता, ऐसा
प्रश्न पूछा
है। और मैंने
यह कहा कि
बाहर के और
भीतर के दोनों
के जीवन में
संतुलन होना
चाहिए, दोनों
का विकास होना
चाहिए। तो
उन्हें, पूछने
वाले को, यह
तो समझ में
आया है कि
भीतर के जीवन
का विकास तो
बिना
प्रतिस्पर्धा
के हो सकता है,
लेकिन बाहर
के जीवन का
विकास नहीं हो
सकता।
यह बात
गलत है। अभी
तक सचमुच ऐसा
ही हुआ है कि बाहर
के जीवन में
बहुत
प्रतिस्पर्धा
है और तभी
विकास होता
है। लेकिन
नहीं, इससे
भिन्न हो सकता
है।
एक
चमार है, वह
जूते सीता है।
वह इस कारण भी
अच्छे जूते सी
सकता है कि
पड़ोसी जो
दूसरा चमार है
उससे उसको आगे
निकलना है, इसलिए उससे
अच्छे जूते
सिए। ज्यादा
कमाई होगी, ज्यादा पैसा
आएगा, बड़ा
मकान बना
सकेगा। नहीं
लेकिन, वह
इसलिए भी
अच्छे जूते सी
सकता है कि
उसे जूते सीने
की कला से
प्रेम है। या
जो आदमी उसके
जूते पहनेगा,
वह चाहता है
कि वह उसके
प्रति बुरा
भाव न लाए, वह
चाहता है कि
वह प्रसन्न हो,
वह चाहता है
कि मैंने जो
चीज बनाई है
वह उसे खुशी
दे।
कबीर
का नाम तुमने
सुना होगा, वे कपड़ा
सीते थे। फकीर
थे इतने बड़े, साधु थे, लेकिन
फिर भी कपड़ा
सीते थे।
लोगों ने उनसे
कहा कि यह तो
उचित नहीं है
कि आप कपड़ा
सिएं और बाजार
में बेचने
जाएं। आप जैसे
साधु को क्या
जरूरत?
लेकिन
कबीर ने कहा
कि नहीं, अगर
मैं कपड़े नहीं
सिऊंगा, तो
जो भगवान
अनेक-अनेक
रूपों में
मेरे द्वारा सिए
हुए कपड़े
पहनता है, उसे
इतने अच्छे
कपड़े फिर नहीं
मिल सकेंगे।
क्योंकि
दूसरे जुलाहे
तो पैसा कमाने
के लिए कपड़े
सीते हैं, मैं
तो प्रेम से
कपड़ा सीता
हूं।
तो
कबीर कपड़ा
सीते थे, गीत
गाते थे। इतने
प्रेम से कपड़ा
सीकर बाजार
बेचने जाते
थे। और जब कोई
खरीदने वाला
आता था तो
उसके गले में
खुद ओढ़ा देते
थे और उससे
कहते थे: राम
बहुत सम्हल कर
इसको पहनना।
मैंने बड़ी
मेहनत से, बड़े
प्रेम से, अपने
प्राणों का
पूरा भाव
इसमें पिरोया
है। अब यह तो
बहुत और तरह
की बात हो गई।
और कबीर के
मुकाबले कपड़े
किसी के भी
नहीं होते थे
बाजार में। हो
भी नहीं सकते
थे। मगर इसमें
कोई
प्रतिस्पर्धा
नहीं थी।
तुमने
गोरा कुम्हार
का नाम शायद
सुना हो। एक बहुत
बड़ा कुम्हार
हुआ, बहुत बड़ा
विचारक हुआ, बहुत बड़ा
साधु हुआ। वह
घड़े बनाता रहा
जिंदगी भर
मिट्टी के और
घड़े बेचता
रहा। वह इतने
मजबूत घड़े बनाता
था कि दूसरे
कुम्हारों ने
उस पर एतराज
उठाया कि तुम
तो हमारे धंधे
को खराब किए
दे रहे हो। क्योंकि
तुम्हारा घड़ा
तो इतना चलता
है जिसका कोई
हिसाब नहीं!
घड़े तो ऐसे
बनाओ कि जल्दी
फूट जाएं, ताकि
शुरू में
खरीदने वाला
दुबारा आए।
लेकिन गोरा
कुम्हार ने
कहा, मैं
कोई धंधा नहीं
करता हूं, मैं
तो प्रेम करता
हूं घड़े बनाने
को। और इतना अच्छे
से अच्छा घड़ा
बनाना चाहता
हूं कि जो ले जाए
उसे दुबारा
फिर घड़ा
खरीदने की
जरूरत न पड़े।
अब
इसमें कोई
काम्पिटीशन न
रहा, इसमें
किसी से कोई
प्रतिस्पर्धा
न रही, इसमें
तो काम करने
से प्रेम हुआ।
हम अपने काम से
प्रेम करें तो
भी काम का
विकास होगा।
एक बागवान
अपनी बगिया
लगाने से
प्रेम करे, एक किसान
अपने खेत में
बीज बोने से
प्रेम करे, एक दफ्तर का
नौकर अपनी
दफ्तर की
नौकरी से प्रेम
करे। सारी
दुनिया में
अपने काम से
प्रेम होना
चाहिए।
अभी यह
है नहीं। इसके
न होने की भी
कुछ बुनियादी
बातें हैं।
इसके न होने
का सबसे बड़ा
कारण तो यह है
कि जो छोटे
काम हैं उन
कामों में
किसी आदमी को
इज्जत नहीं
मिलती है, प्रतिष्ठा
नहीं मिलती है,
रिस्पेक्ट
नहीं मिलती
है। बड़े काम
जिनको हम कहते
हैं, उनमें
आदर मिलता है,
इज्जत
मिलती है। तो
हर आदमी बड़ा
काम करना चाहता
है।
अगर
अच्छी शिक्षा
हो तो बच्चों
को यह समझाया
जाना चाहिए कि
कोई काम छोटा
और बड़ा नहीं
है। एक चमार
भी अगर अच्छे
जूते सीता है
तो उतना ही आदर
योग्य है
जितना किसी
राज्य का
मंत्री है, अगर वह
अच्छा काम
करता है। अगर
राज्य का
मंत्री बुरा
काम करता है
तो अच्छे काम
करने वाले
चमार से भी
उसको कम इज्जत
मिलनी चाहिए।
एक
राष्ट्रपति को
भी उतनी ही
इज्जत मिलनी
चाहिए जितनी
एक चपरासी को।
सवाल अच्छे और
बुरे काम का
होना चाहिए, सवाल पदों
का नहीं होना
चाहिए। पद का
कोई मूल्य
नहीं होना
चाहिए। अगर
दुनिया अच्छी
होगी और जैसा
मैंने कहा, अगर वह
प्रतिस्पर्धा
पर खड़ी नहीं
होगी, तो
दुनिया में
पदों का कोई
सवाल नहीं
होगा। पदों का
कोई सवाल है
भी नहीं।
अब्राहम
लिंकन
प्रेसिडेंट
हुआ अमरीका
का। उसका बाप
तो जूता सीता
था, चमार था।
जब वह
प्रेसिडेंट
हुआ और पहले
दिन वहां की
सीनेट में
बोलने को खड़ा
हुआ, तो
अनेक लोगों को
उससे बड़ी पीड़ा
हो गई कि एक चमार
का लड़का और
प्रेसिडेंट
हो जाए मुल्क
का! तो एक आदमी
ने खड़े होकर
व्यंग्य कर
दिया और कहा कि
महानुभाव
लिंकन, ज्यादा
गुरूर में मत
फूलो! मुझे
अच्छी तरह याद
है कि
तुम्हारे
पिता जूते
सिया करते थे।
तो जरा इस बात
का खयाल रखना,
नहीं तो
प्रेसिडेंट
होने में भूल
जाओ।
और कोई
आदमी होता तो
दुखी हो जाता, क्रोध से भर
जाता। शायद
गुस्से में
आता और उस आदमी
को कोई नुकसान
पहुंचाता।
प्रेसिडेंट नुकसान
पहुंचा सकता
था। लेकिन
लिंकन ने क्या
कहा? लिंकन
की आंखों में
आंसू आ गए और
उसने कहा कि तुमने
ठीक समय पर
मेरे पिता की
मुझे याद दिला
दी। आज वे
दुनिया में
नहीं हैं, लेकिन
फिर भी मैं यह
कह सकता हूं
कि मेरे पिता ने
कभी किसी के
गलत जूते नहीं
सिए हैं, और
जूते सीने में
वे अदभुत कुशल
थे। वे इतने
कुशल कारीगर
थे जूता सीने
में कि मुझे
आज भी उनका
नाम याद करके
गौरव का अनुभव
होता है। और
मैं यह भी कह
देना चाहता
हूं--और यह बात
लिख ली जाए, लिंकन ने
कहा--कि जहां
तक मैं समझता
हूं, मैं
उतना अच्छा
प्रेसिडेंट
नहीं हो
सकूंगा, जितने
अच्छे वे चमार
थे! मैं उनके
ऊपर नहीं निकल
सकता हूं, उनकी
कुशलता बेजोड़
थी!
यह एक
समझ की बात है, एक बहुत
गहरी समझ की।
जब तक दुनिया
में पदों के
साथ इज्जत
होगी, तब
तक अच्छी
दुनिया पैदा
नहीं हो सकती
औरर् ईष्या और
प्रतिस्पर्धा
चलेगी।
प्रतिस्पर्धा
काम के कारण
नहीं है, प्रतिस्पर्धा
है पदों के
साथ जुड़े हुए
आदर के कारण।
कोई आदमी
बागवान नहीं
होना चाहता, बागवान होने
में कौन सी
इज्जत मिलेगी?
राष्ट्रपति
होना चाहता
है। यह तब तक
चलेगा, जब
तक हम गरीब
बागवान को भी
इज्जत देना
शुरू नहीं
करेंगे।
तुम्हारे
घर में एक
चपरासी है, बूढ़ा आदमी
है। तुम उसको
कोई इज्जत
नहीं दोगे, उससे आदमी
की तरह भी
व्यवहार नहीं
करोगे।
लेकिन
तुम्हें शायद
यह खयाल न हो, पदों से
आदमीयत में
कोई फर्क नहीं
पड़ता, पदों
से कोई फर्क
नहीं पड़ता। और
सच तो यह है कि दुनिया
में जिन
बड़े-बड़े पदों
की बहुत इज्जत
होती है, उन
बड़े-बड़े लोगों
ने जितने
नुकसान
पहुंचाए हैं,
उतने
छोटे-छोटे और
निरीह लोगों
ने कोई नुकसान
नहीं
पहुंचाए।
दुनिया की
सेवा
छोटे-छोटे लोगों
ने की है, दुनिया
का काम
छोटे-छोटे लोग
चलाते रहे हैं,
दुनिया की
जिंदगी
छोटे-छोटे
लोगों पर
निर्भर है। और
जिनको हम
बड़े-बड़े लोग
कहते
हैं--राष्ट्रपति
हैं, और
प्रधानमंत्री
हैं, और
मंत्री
हैं--इन सारे
लोगों ने
दुनिया को कोई
अच्छी स्थिति
में नहीं
पहुंचाया है।
इन सारे लोगों
ने दुनिया को
उपद्रवों में
डाला है, परेशानियों
में डाला है, दिक्कतों
में डाला है।
और जिंदगी
चलाने वाले जो
छोटे-छोटे लोग
हैं उनका कोई आदर
नहीं है, कोई
सम्मान नहीं
है। यह हमारी
पूरी स्थिति
गलत है।
जब
मैंने यह कहा
कि इस भांति
का
व्यक्तित्व
होना चाहिए कि
प्रतिस्पर्धा
न हो, उसका
मतलब है कि
पूरी शिक्षा
और ढंग की
होनी चाहिए, पूरे समाज
की व्यवस्था,
सोचना और
ढंग का होना
चाहिए। और ढंग
का हो सकता
है--अगर बच्चे
तैयारियां
करेंगे, अगर
छोटी लड़कियां
और छोटे लड़के
यह निर्णय करेंगे
कि हम एक
दूसरे तरह का
समाज बनाना
चाहते हैं, जहां हम काम
को आदर देंगे,
पदों को
नहीं; जहां
हम श्रम को
आदर देंगे, धन को नहीं।
अभी तो
धन की
प्रतिष्ठा है, श्रम की कोई
प्रतिष्ठा
नहीं। एक
रद्दी से
रद्दी आदमी
बहुत बड़ा
धनवान है तो
तुम उसको आदर
दोगे। और एक
अच्छे से
अच्छा आदमी
जिसके पास कोई
धन नहीं है, तुम उसकी
तरफ मुंह उठा
कर भी नहीं
देखोगे।
यह तो
गलत बात है, यह एकदम गलत
बात है। आदर
होना चाहिए
अच्छे मनुष्य
का, प्रेमपूर्ण
मनुष्य का, सच्चे
मनुष्य का।
आदर होता है
धनी का। जब कि
हो सकता है धन
इकट्ठा करने
में उसने झूठ
भी बोला हो, बेईमानी भी
की हो, पाप
भी किए हों, बुरा भी
किया हो।
लेकिन आदर
उसका है जहां
धन है। अच्छा
समाज होगा तो
वहां आदर काम
का होगा, श्रम
का होगा, धन
का नहीं। वहां
आदर उन लोगों का
होगा जो नींव
की बुनियाद
हैं, केवल
उनका ही नहीं
जो भवन के
शिखर हैं।
तो ऐसे
समाज की रचना
के लिए और ऐसी
शिक्षा के लिए
जो मैंने बात
कही उस पर
विचार करना।
तो तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कि भीतर का
विकास भी हो
सकता है, बाहर
का भी, बिना
किसी
प्रतिस्पर्धा
के।
और
दूसरी बात यह
पूछी है कि
क्या
प्रतिस्पर्धा
हमेशा ही बुरी
होती है, कभी अच्छी
नहीं होती?
हां, प्रतिस्पर्धा
कभी अच्छी
नहीं होती।
कभी अच्छी
नहीं हो सकती।
नहीं इसलिए हो
सकती है अच्छी,
क्योंकि
प्रतिस्पर्धा
में तुम्हारा
दूसरे के साथ
हमेशा विचार
जुड़ा हुआ
है--उससे आगे
होना है।
नहीं, विचार होना
चाहिए--मुझे
स्वयं को
विकसित करना है,
मुझे आज
जहां मैं हूं
वहां से कल
मुझे आगे होना
है। दूसरे से
आगे नहीं, मुझे
स्वयं से
प्रतिदिन आगे
होते जाना है।
प्रतिस्पर्धा
में मुझे
दूसरे से आगे
होते जाना है
और वास्तविक
विकास में
मुझे स्वयं से
आगे होते जाना
है। जहां आज
सांझ का सूरज
जिस जगह मुझे
छोड़ गया है, सुबह उठते
जब सूरज निकले
तो मुझे उसी
जगह न पाए, मुझमें
कुछ विकास हो
जाए। सुबह का
उगने वाला सूरज
जहां मुझे पाए,
सांझ का
डूबने वाला
सूरज मुझे उसी
जगह खड़ा न पाए,
मुझमें कुछ
विकास हो जाए।
मैं आगे पहुंच
जाऊं। मेरे
जीवन में कुछ
नया अनुभव, कुछ नया
ज्ञान, कुछ
नया प्रेम
जाग्रत हो
जाए।
यह अगर
खयाल हो कि
मुझे खुद के
ही साथ सतत
विकास करना है, तब तो जीवन
अच्छा होता
है। और जहां
दूसरे के साथ
स्पर्धा है
वहां जीवन गलत
हो जाता है।
दूसरे के साथ
किसी भी तरह
की स्पर्धा
शुभ नहीं है।
और
प्रश्न
तुम्हारे बच
जाएंगे, उनकी
मैं कल चर्चा
करूंगा।
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