प्रश्न-सार
:
1—प्यारे
भगवान! मैं
रोऊं, गाऊं
या
मुस्कुराऊं, नौ साल दूर
कैसे रह गई, समझ नहीं
पाती हूं। अब
पास आकर ऐसी
दशा है कि हमेशा
रोआं-रोआं
कांपता रहता
है, चाहे
सोई रहूं या
जागी रहूं। इस
अवस्था पर आनंद
भी अनुभव होता
है और
झुंझलाहट भी।
कोई रास्ता
दिखाने की कृपा
करें।
2—जीवन के
बंधनों से
मुक्ति कैसे
हो? आवागमन
कैसे मिटे?
3—आप
जब गांधी, विनोबा,
अरविंद और
विवेकानंद के
विरोध में
बोलते हैं, तो मुझे रंज
होता है। वैसे
ही जब कोई
आपके विरोध
में बोलता है
तो मुझे रंज
होता है।
विनती है कि
जैसे आप बुद्ध
और महावीर को
समझाने में
सहायक होते
हैं, वैसे
ही श्री
अरविंद को
समझाने में
सहायक हों।
4—आप
कहते
हैं--प्रेम है
द्वार प्रभु
का। मैंने भी
कभी किसी को
प्रेम किया था,
लेकिन उसे
पाने में असफल
रहा। अब तो
तीस वर्ष बीत
चुके हैं, लेकिन
फिर किसी और
को प्रेम न कर
पाया। भगवान,
क्या कभी
मेरा उससे
मिलन होगा?
पहला प्रश्न:
प्यारे भगवान! मैं रोऊं, गाऊं या मुस्कुराऊं, नौ साल दूर कैसे रह गई, समझ नहीं पाती हूं। अब पास आकर ऐसी दशा है कि हमेशा रोआं-रोआं कांपता रहता है, चाहे सोई रहूं या जागी हुई। इस अवस्था पर आनंद भी अनुभव होता है और झुंझलाहट भी। कोई रास्ता दिखाने की कृपा करें।
* वीणा!
रोना, गाना
और हंसना, तीनों
साथ चल सकते
हैं, चुनाव
की कोई जरूरत
नहीं है।
त्रिवेणी
सुंदर होगी।
एक--गरीब
होगा।
तीनों--बहुत
समृद्ध होंगे।
लेकिन तर्क से
भरा हुआ मन
हमेशा चुनाव
करता है: रोऊं,
गाऊं या
मुस्कुराऊं? तीनों साथ
चलने दो।
रोने
और हंसने में
कोई विरोध
नहीं है।
कभी-कभी तो
हंसने की
गहराई ही
आंसुओं में
रूपांतरित हो
जाती है। रोना
जरूरी रूप से
दुख के कारण
ही नहीं
होता--रोना
आनंद से भी
होता है। और
वीणा का रोना
निश्चित ही
आनंद से हो
रहा होगा।
रोने
का अर्थ क्या
है? रोने का
अर्थ है: कोई
भाव इतना
प्रबल हो गया
है कि अब
आंसुओं के
अतिरिक्त उसे
प्रकट करने का
कोई और उपाय
नहीं है। फिर
वह भाव चाहे
दुख का हो, चाहे
आनंद का हो।
आंसू
अभिव्यक्ति
के माध्यम
हैं। गहन
भावनाओं को, जो हृदय के
गहरे से उठती
हैं, वे
आंसुओं में ही
प्रकट हो सकती
हैं। शब्द छोटे
पड़ते हैं। गीत
छोटे पड़ते
हैं। जहां गीत
चूक जाते हैं,
वहां आंसू
शुरू होते
हैं। जो किसी
और तरह से प्रकट
नहीं होता वह
आंसुओं से
प्रकट होता
है। आंसू
तुम्हारे
भीतर कोई ऐसी
भाव-दशा से
उठते हैं जिसे
सम्हालना और
संभव नहीं है,
जिसे तुम न
सम्हाल सकोगे,
जिसकी बाढ़
तुम्हें बहा
ले जाती है।
फिर, ये आंसू
चूंकि आनंद के
हैं, इनमें
मुस्कुराहट
भी मिली होगी,
इनमें हंसी
का स्वर भी
होगा। और
चूंकि ये आंसू
अहोभाव के हैं,
इनमें गीत
की ध्वनि भी
होगी। तो गाओ
भी, रोओ भी,
हंसो भी--तीनों
साथ चलने दो।
कंजूसी क्या?
एक क्यों? तीनों क्यों
नहीं?
लेकिन, मन
हिसाबी-किताबी
है। वह सोचता
है: एक करना ठीक
मालूम पड़ता
है--या तो गा लो
या रो लो। मैं
तुमसे कहता
हूं कि इस
हिसाब को
तोड़ने की ही
तो सारी चेष्टा
चल रही है।
यही तो दीवाने
होने का अर्थ
है।
तुमने
अगर कभी किसी
को रोते, हंसते,
गाते एक साथ
देखा हो, तो
सोचा होगा
पागल है। पागल
ही कर सकता है
इतनी हिम्मत।
होशियार तो
कमजोर होता है,
होशियारी
के कारण कमजोर
होता है।
होशियार तो सोच-सोच
कर कदम रखता
है, सम्हाल-सम्हाल
कर कदम रखता
है। उसी
सम्हालने में
तो चूकता चला
जाता है।
होशियारों
को कब
परमात्मा
मिला! होशियार
चाहे संसार
में
साम्राज्य को
स्थापित कर
लें, परमात्मा
के जगत में
बिलकुल ही
वंचित रह जाते
हैं। वह राज्य
उनका नहीं है।
वह राज्य तो
दीवानों का
है। वह राज्य
तो उनका है
जिन्होंने
तर्क-जाल तोड़ा,
जो भावनाओं
के
रहस्यपूर्ण
लोक में
प्रविष्ट
हुए।
इन
तीनों
द्वारों को एक
साथ ही खुलने
दो। परमात्मा
ने हृदय पर
दस्तक दी, तब ऐसा होता
है। इसे
सौभाग्य
समझो।
"मैं
रोऊं, गाऊं
या
मुस्कुराऊं, नौ साल दूर
कैसे रह गई, समझ नहीं
पाती हूं।'
"वीणा'
मुझे नौ साल
पहले मिली थी।
करीब आते-आते
दूर हो गई।
करीब आना आसान
भी नहीं है।
हजार चीजें
रोकती हैं।
फिर मेरे करीब
आना तो और भी कठिन
है। जिनमें
प्रेम का
पागलपन है, वे ही करीब आ
सकेंगे।
क्योंकि मैं
जो कह रहा हूं,
वह
तुम्हारी
सांत्वना के
लिए नहीं कहा
गया है। तो
कभी-कभी ऐसा
होता है: मेरी
कोई बात तुम्हें
सांत्वना की
लगती है, तो
तुम करीब आ
जाते हो; और
मेरी कोई बात
तुम्हें चोट
कर देती है तो
तुम दूर हट
जाते हो।
तुम्हें जिस
बात से सुख
मिलता है तो
करीब आ जाते
हो; और जिस
बात से
तुम्हें दुख
मिलता है, तो
दूर हट जाते
हो। तुम मुझसे
थोड़े ही लगे
हो--तुम अपनी
ही धारणाओं से
चिपटे हो।
तुम्हारी
धारणाओं को जिस
बात से समर्थन
मिलता है, तुम
कहते हो: ठीक
कह रहे हैं
आप। तुम्हारी
धारणाओं को
जिन बातों से
चोट लग जाती
है, तुम
कहते हो: अब
बात गलत हो
गई।
एक
चर्च में एक
पादरी बोल रहा
था। उसने पहले
शराब का विरोध
किया। एक बूढ़ी
स्त्री उठ-उठ
कर कहने लगी:
बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक!
जुए का विरोध
किया, वह
बूढ़ी स्त्री
फिर भी बोली:
बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक!
वह सर्वाधिक
आनंदित थी
श्रोताओं में।
फिर चोरी का
विरोध आया और
उसने फिर कहा:
बिलकुल ठीक है,
बिलकुल ठीक
है! और तब उस
पादरी ने कहा:
तंबाकू खाना
भी ठीक नहीं
है, तंबाकू
बंद करो!
बुढ़िया बोली:
अब जरा बात
गलत हो गई! अब
धर्म की बात न
रही, अब तो
ये क्षुद्र
बातों में
पड़ने लगे।
यह
बुढ़िया
तंबाकू खाती
है। जुआ, उसे
कोई अड़चन
नहीं। चोरी से
उसे कोई अड़चन
नहीं। शराब से
उसे कुछ अड़चन
नहीं। तंबाकू
की जब बात आती
है तो अड़चन
शुरू हो जाती
है।
लेकिन
"वीणा' किन्हीं
सैद्धांतिक
कारणों से दूर
नहीं रह गई
थी। उसके कारण
भावनागत थे।
डर पैदा हुआ, कि अगर मेरे
करीब और आई तो
पति हैं, बच्चे
हैं, परिवार
है, इनका
क्या होगा।
यह
मेरे अनुभव
में आया है कि
पुरुष दूर रह
जाते
हैं--सैद्धांतिक
मतभेदों के
कारण।
स्त्रियां
दूर रह जाती
हैं--उनकी
आसक्तियों के
कारण। भय
समाता है कि
कहीं बात ऐसी
न हो जाए, कहीं
इतनी आगे न
चली जाए कि
फिर लौटना
संभव न हो!
तो नौ
वर्ष से "वीणा' बचने की
कोशिश करती
रही। इस बचने
की कोशिश में
भी करीब आती
गई। नौ वर्ष
मेरे पास नहीं
आई, नौ
वर्ष मुझे
सुना नहीं; लेकिन इस
बचने की कोशिश
में भी करीब
आती चली गई।
भीतर-भीतर रस
गहन होता रहा;
बीज फूटता
रहा। और जब इस
बार करीब आई
तो फिर न रोक
सकी। जो नौ
वर्ष पहले
होना था, वह
अब जाकर हुआ।
अब संन्यस्त
हुई। यह नौ
वर्ष पहले हो
सकता था।
लेकिन नौ वर्ष
पहले
सांसारिक
आसक्तियां, जिम्मेवारियां...।
और मजा
यह है कि मैं
तुम्हारी
जिम्मेवारियों
को तोड़ता नहीं, न तुम्हें
तुम्हारे
परिवार से अलग
करता हूं, न
तुम्हें
तुम्हारे
बच्चों से अलग
करता हूं। सच
तो यह है कि
अगर तुम पति
हो तो और
बेहतर पति हो
जाओगे; और
पत्नी हो तो
बेहतर पत्नी;
और मां हो
तो पहली दफा
मां बनोगी।
संन्यास तुम्हारे
जीवन में
सुगंध को
जोड़ेगा।
लेकिन
संन्यास की
बहुत दिनों से
चली आती जो जीवन-विरोधी
धारा है, उससे
घबड़ाहट होती
है। संन्यासी
सदा ही जीवन-विरोधी
रहा है। तो
संन्यास शब्द
ही विकृत हो
गया। संन्यास
शब्द में ही
जहर लग गया।
संन्यास शब्द
का सौंदर्य खो
गया, उसका
आकर्षण खो गया,
उसका
अहोभाव खो
गया। वह कुछ
उदास और रुग्ण
और भगोड़ों की
बात हो गई।
ठीक है, कोई
भाग जाए तो
तुम कहते हो
कि पैर छू
लेंगे; मगर
तुम पीछे नहीं
जाते हो। तुम
कभी बात भी सुन
लेते हो
भगोड़ों की। एक
कान से सुनते,
दूसरे कान
से निकाल
देते।
संन्यास शब्द
से घबड़ाहट हो
गई है।
क्योंकि
संन्यास की
पुरानी धारा
विकृत हो गई
थी, रुग्ण
हो गई थी।
ऐसा
सदा नहीं था।
उपनिषद और
वेदों में भी
संन्यास था, लेकिन वह
संन्यास
जीवन-विरोधी
नहीं था। उपनिषद
के ऋषि भी परम
संन्यासी थे,
लेकिन
जीवन-विरोधी
नहीं थे; जीवन
के मध्य थे।
उनकी
पत्नियां थीं,
उनके बच्चे
थे, उनके
परिवार थे।
जैनों और
बौद्धों के
प्रभाव में
संन्यास ने एक
अलग ही ढंग ले
लिया। फिर जब जैनों
और बौद्धों ने
वैराग्य, जीवन-विरोध,
जीवन का
त्याग--ऐसे
संन्यास की
परिभाषा की, तो हिंदुओं
को थोड़ी अड़चन
लगने लगी।
अड़चन यह थी कि
जैनों का
संन्यास
ज्यादा
महिमाशाली
दिखाई पड़ने
लगा।
स्वभावतः जो
पत्नी छोड़ कर
चला गया, बच्चे
छोड़ कर चला
गया, घर-द्वार
छोड़ दिया, नग्न
खड़ा हो
गया--उसके
सामने उपनिषद
के ऋषि फीके
मालूम पड़ने
लगे। हिंदू
धर्म की जड़ें
डगमगाने
लगीं।
प्रतिक्रिया
में
शंकराचार्य ने
हिंदू धर्म
में भी वही
जहर प्रविष्ट
करवा दिया, हिंदू
संन्यास भी
जीवन-विरोधी
हो गया।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं:
जीवन का विरोध
अंततः
परमात्मा का
विरोध है; क्योंकि
जीवन जिसका है,
जीवन में जो
छिपा है, जीवन
के विरोध में
तुम उसे भी
चूक जाओगे। और
जीवन-विरोधी
संन्यास पूरी
पृथ्वी को
गैरिक नहीं कर
सकता है--कुछ
छोटी-मोटी
संख्या को
शायद रसपूर्ण
लगे, लेकिन
अधिक लोग, बहुमत,
विशाल
जन-समुदाय
उससे अछूता रह
जाएगा। और इस
बड़ी पृथ्वी पर
अगर एकाध
व्यक्ति
संन्यस्त हो जाए,
दो-चार
संन्यस्त हो
जाएं, तो
कुछ परिणाम
नहीं होता।
सागर में बूंद
की तरह खो
जाते हैं। यह
तो पूरा सागर
ही रंगे, तो
ही किसी दिन
सौभाग्य
होगा।
"वीणा'
डर गई थी।
डर उसका
स्वाभाविक था,
क्योंकि नौ
वर्ष के बाद
आई पहले दिन
और पहले दिन
ही खो गई और
पहले दिन ही
डूब गई। तो नौ
वर्ष बीज भीतर
अंकुरित होता
रहा होगा। आज
जरूर पीड़ा
लगेगी मन को:
नौ साल दूर
कैसे रह गई, समझ नहीं
पाती हूं!
जिस
दिन तुम करीब
आने शुरू
होओगे सत्य के, उस दिन
तुम्हें सभी
को हैरानी
होगी कि
इतने-इतने दिन
कैसे दूर रह
गए, इतने-इतने
जन्म कैसे दूर
रह गए! और सत्य
इतने करीब था,
इतना सुगम
था, इतना
सरल था--हाथ
बढ़ाते तो मिल
जाता!
परमात्मा पास
ही खड़ा था और
तुम चूकते गए,
चूकते गए।
"अब
पास आकर ऐसी
दशा है कि
हमेशा
रोआं-रोआं कांपता
रहता है, चाहे
सोई रहूं या
जागी हुई।'
कांपेगा।
शुभ हो रहा
है। शुभ संकेत
है। रोआं-रोआं
संन्यस्त
होगा।
संन्यास तो
शुरुआत है, फिर
रोआं-रोआं
डूबेगा, फिर
कण-कण डूबेगा।
फिर जो आनंद
की लहर हृदय
में उठी है वह
शरीर में भी
व्याप्त
होगी। तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व जब
तक आच्छादित न
हो जाएगा, तब
तक यह कंपन
जारी रहेगा।
यह कंपन
सृजनात्मक है।
इसे आनंद-भाव
से स्वीकार
करना।
"इस
अवस्था पर
आनंद भी अनुभव
होता है और
झुंझलाहट भी।'
स्वभावतः
आनंद अनुभव
होगा, क्योंकि
कुछ घट रहा है
जिसकी
प्रतीक्षा थी:
झुक आई बदरिया
सावन की!
जिसके लिए
प्यास थी, वे
बादल आ गए।
लेकिन
झुंझलाहट भी
होगी, क्योंकि
इतना नया है
कि तुम्हारे
पास न भाषा है,
न व्याख्या
है। इतना नया
है कि समझने
का कोई उपाय
नहीं। इसलिए अहंकार
को झुंझलाहट
होती है। हृदय
आनंदित होगा,
बुद्धि
झुंझलाएगी।
हृदय रस से
मग्न होगा, हृदय नाचना
चाहेगा, हृदय
पंख खोल आकाश
में उड़ना
चाहेगा--और
बुद्धि बड़ी
बेचैनी अनुभव
करेगी: यह
क्या हो रहा
है--तर्कातीत!
बुद्धि
की जो समझ में
नहीं आता, बुद्धि उससे
झुंझलाती है।
बुद्धि कहती
है: ऐसे काम
में मत पड़ो, जो मेरी समझ
में नहीं आता।
नासमझी के काम
में मत पड़ो!
लेकिन, बुद्धि के
ऊपर भी एक समझ
है--हृदय की।
और जब हृदय की
समझ खुलनी
शुरू होती है,
कौन सुनता
है बुद्धि की!
जो सुने, वह
अभागा है।
इसलिए दोनों
बातें
होंगी--आनंद
भी होगा, झुंझलाहट
भी होगी।
झुंझलाहट
होगी सिर में;
आनंद होगा
हृदय में, धड़कन
में।
श्वास-श्वास
में आनंद भर
जाएगा और विचार-विचार
में झुंझलाहट
हो जाएगी।
विचार
की मत सुनना।
विचार व्यर्थ
के साथ जुड़ा है।
विचार सीमित
के साथ जुड़ा है।
विचार
क्षुद्र के
साथ बंधा है।
उसकी क्षुद्र
से सगाई हुई।
वह धन-पैसा, पद-प्रतिष्ठा,
इनकी
दुनिया में
कुशल है; प्रेम
और परमात्मा
और समाधि, इस
दुनिया में
उसकी कोई गति
नहीं है। वह
जमीन पर सरकने
के लिए ठीक है,
आकाश में
उड़ने की उसकी
क्षमता नहीं
है। आकाश में
उड़ना हो तो
हृदय के पंखों
पर सवार होना
होगा।
आनंद
की सुनना!
तुम्हारे
भीतर जो
विधायक है, उसमें ही
डूबो; और
जो नकारात्मक
है, उसकी
उपेक्षा करो,
ताकि
धीरे-धीरे
विधेय ही
तुम्हारा
जीवन हो जाए।
नकार अपने आप
गिर जाएगा; सूखेगा, कुम्हलाएगा।
पानी मत दो अब
नकार को। अब
झुंझलाहट को
पानी मत देना।
होती हो, होने
देना; तुम
तो पानी देते
जाना आनंद के
भाव को।
"इस
अवस्था में
आनंद भी अनुभव
होता है और
झुंझलाहट भी।
कोई रास्ता
दिखाने की
कृपा करें।'
"रास्ता
दिखाने की
कृपा करें'--इस प्रश्न
में आकांक्षा
है कि किसी
तरह झुंझलाहट
न हो, क्योंकि
आनंद से तो
कोई मुक्त
होना नहीं
चाहता।--झुंझलाहट
न हो!
झुंझलाहट न हो, इसके दो
उपाय हैं। एक
उपाय तो यह है
कि फिर वापस
बुद्धि की
सुनने लगो, तो झुंझलाहट
भी बंद हो
जाएगी और आनंद
भी बंद हो
जाएगा। यही
अधिक लोग करते
हैं। बुद्धि
इतनी झुंझलाहट
पैदा कर देती
है, इतनी
झंझट खड़ी कर
देती है, इस
तरह प्रतिपल
कोंचने लगती
है कि तुम
कहते हो: यह
आनंद तो महंगा
हुआ। छोड़ो!
जाने दो आनंद
को भी और जाने
दो झुंझलाहट
को भी! मगर तब
महंगा सौदा हो
जाएगा। वह
रास्ता न हुआ,
भटकना हो
गया।
दूसरी
बात--जो कि
वस्तुतः
रास्ते की बात
है--वह है कि आनंद
में और गहरे
उतरो। इतने
गहरे उतरो कि
तुम्हारे पास
झुंझलाने के
लिए कोई शक्ति
ही न बचे।
सारी शक्ति
आनंद में डुबा
दो। झुंझलाहट
के लिए भी
शक्ति चाहिए।
तो अभी
"वीणा' दो
हिस्सों में
बंटी होगी।
कुछ हिस्सा
झुंझलाहट में
जा रहा है, कुछ
हिस्सा आनंद
में जा रहा
है।
पूरे-पूरे
आनंद में चल
पड़ो! पागल ही
होना हो तो पूरे
होना उचित है।
छोड़ो लोकलाज!
नाचो, गाओ, हंसो, रोओ!
दूसरों की
आंखों में मत
देखो--अपने
भीतर झांको।
दूसरे क्या
कहते हैं, इसकी
फिकर छोड़ो।
दूसरों के
मंतव्य पर
बहुत ध्यान
दिया तो यह
आनंद चूक
जाएगा।
क्योंकि दूसरे
लोग दुखी हैं,
उनके
मंतव्य दुख से
उठ रहे हैं।
दूसरे लोग अंधे
हैं, उनके
मंतव्य उनके
अंधेपन से उठ
रहे हैं। अंधों
की मत सुनना।
मीरा
कहती है: साध
देख राजी भई, जगत देख
रोई।
मीरा
कहती है: साधु
को देखा तो
राजी हो गई।
हृदय आनंदित
हुआ। क्योंकि
साधु समझा, पहचाना। उसने
जो कहा, वह
पते की बात
थी। सांसारिक
समझा ही नहीं।
उसने जो कहा, उससे चोट
पहुंची। उसने
जो कहा, उससे
घाव बने।
रास्ता क्या
है? रास्ता
है कि अब
झुंझलाहट की
उपेक्षा करो।
छोटी सी भी
शक्ति न बचे
आनंद के बाहर,
सारा हृदय
आनंद में डूब
जाए।
झुंझलाहट
करने योग्य
कुछ बचे ही न
भीतर, तभी
झुंझलाहट से
वस्तुतः
मुक्ति होगी।
आनंद ही आनंद
एक दिन शेष रह
जाएगा।
आनंद
का सहयोग करो, झुंझलाहट से
असहयोग करो।
यही रास्ता
है। लौटने का
उपाय भी नहीं
है। जहां तक
"वीणा' का
संबंध है, मैं
कह सकता हूं:
लौटने का कोई
उपाय भी नहीं
है। लेकिन अगर
झुंझलाहट को
साथ दिया तो
देर लग जाएगी
परम घटना के
घटने में, समय
लंबा हो
जाएगा। दो-दो
नाव पर सवार
मत होओ। अब
पूरे ही एक
नाव पर सवार
हो जाओ।
आनंद
की पूरी सुनने
का मतलब यही
होता है कि अब अपनी
मस्ती में
जीओ। अब दूसरे
और कोई कारण
इस मस्ती में
बाधा न बनें।
तुम डोल रहे
मस्ती में, कोई खड़ा देख
रहा है, उसकी
वजह से रुको
मत। पागल ही
कहेगा न! क्या
बनता-बिगड़ता
है? क्या
हर्जा है? लोग
पागल ही समझ
लें तो क्या
हर्जा है, मीरा
को उन्होंने
दीवाना समझा,
इससे मीरा
की कोई हानि
नहीं हुई। यह
सोच कर कि लोग
पागल समझते
हैं, मीरा
अगर समझदार हो
गई होती तो
चूक गई
होती--सदा के
लिए चूक गई होती।
तुम्हारे
भीतर जो संसार
की आवाज है
वही झुंझला
रही है। और
तुम्हारे
भीतर जो
परमात्मा की
आवाज है, वह
गीत गाना
चाहती है, रोना
चाहती है, हंसना
चाहती है, नाचना
चाहती है।
इस तन
की वीणा बना
लो। छेड़ो
तारों को! गाओ!
इधर तुम गाने
लगे और तुम
पाओगे: उधर
परमात्मा करीब
आने लगा।
परमात्मा
उन्हीं के साथ
है, जिनके
हृदय गीत गाते
हुए हैं।
दूसरा
प्रश्न: जीवन
के बंधनों से
मुक्ति कैसे हो? आवागमन कैसे
मिटे?
* यह
प्रश्न
इसीलिए उठ आता
है कि तुम
सुनते हो संतों
की वाणी। वे
सभी कहते हैं:
आवागमन से
छूटो, मुक्त
हो जाओ बंधनों
से। उनकी बात
सुन कर तुम भी
सोचने लगते हो
कि मुक्त हो
जाएं बंधनों
से, आवागमन
से छूट जाएं।
परम आनंद
होगा। प्रभु
का मिलन होगा।
मोक्ष होगा।
तुम्हारे
भीतर वासना
पैदा हो जाती
है। संतों की
बात सुन कर
तुम्हारे
भीतर मोक्ष के
आनंद की वासना
पैदा हो जाती
है। यह एक नया
बंधन हुआ।
वासना बंधन
है। यह एक नई
तृष्णा हुई। तुम
चूक गए बात।
तुम संतों की
बात नहीं
समझे।
संतों
की बात अगर
ठीक से समझो
तो यही समझ
में आएगा कि
जब तृष्णा न
रह जाएगी, वासना न रह
जाएगी, तब
जो शेष रहेगा
वह मोक्ष है।
मोक्ष की कोई
वासना नहीं हो
सकती।
अब तुम
पूछते हो:
"जीवन के
बंधनों से
मुक्ति कैसे
हो?'
क्यों? क्या जरूरत
पड़ी है? तुम
कहोगे: मोक्ष
का सुख पाना
है। लेकिन सुख
पाने की
आकांक्षा ही
तो बंधन है।
तुम
कहते हो:
"आवागमन कैसे
मिटे?'
क्यों?--अमृत की
उपलब्धि करनी
है? लेकिन
क्यों? तुम्हारे
भीतर एक नई
वासना का
सूत्रपात
हुआ। यह तो
संसार का
फैलाव है। चूक
गए, ठीक-ठीक
पकड़ नहीं पाए
बात। और जिस
ढंग से पकड़ी, उस ढंग से
पकड़ने में ही
सब गलत हो
गया।
संत
कुछ कहते हैं, तुम कुछ
समझते हो।
तुम्हारी
व्याख्या
विकृत कर देती
है। बुद्ध ने
कहा, वासनाओं
से छूट जाओ, तो लोग उनसे
जाकर पूछते
हैं कि ठीक, चलो वासना
ही से छूट
जाएं। कैसे
छूटें? अब
यह नई वासना
पैदा हो गई कि
वासना से कैसे
छूटें! अब यह
सताएगी। अब यह
प्राण में
कांटे की तरह
चुभेगी। अब यह
घाव बनाएगी कि
वासना से कैसे
छूटें। यह एक
नई वासना पैदा
हो गई। और यह
बड़ी खतरनाक
वासना है।
पहली वासनाएं
तो ऐसी थीं कि
शायद पूरी भी
हो जाती हैं, लगे ही रहते
धुन में तो हो
ही जातीं। कोई
धन के पीछे
लगा ही रहे, लगा ही रहे, एक न एक दिन
धन पा ही लेता
है। फिर सिर
पीटता है कि
पा लिया, अब?
वह दूसरी
बात है। कोई
पद के पीछे
लगा ही रहे, लगा ही रहे, तो एक दिन पा
ही लेता है।
इस
संसार में सभी
कुछ पाया जा
सकता है।
लेकिन यह
निर्वासना
कैसे पाई
जाएगी? यह
तो बिलकुल
नहीं पाई जा
सकती। पाने की
भाषा ही वहां
गलत है। वहां
तो समझ ही काम
आती है, पाना
काम नहीं आता।
तुम वासनाओं
को समझ लो कि उनमें
कष्ट है। मेरे
कहने से नहीं।
मेरे कहने से
समझे तो समझे
नहीं। अपनी
वासनाओं को ही
अनुभव करो।
तुम धन के
पीछे दौड़-दौड़
कर कितना कष्ट
पा रहे हो।
फिर धन
तुम्हें मिल
भी गया, क्या
मिला? देखो,
निरीक्षण
करो! जाग कर
अपने जीवन की
प्रक्रिया को
समझो। अपने मन
के ढांचे को
पहचानो।
जैसे-जैसे
तुम्हें कष्ट
साफ होने लगेगा,
वैसे-वैसे
ही तुम पाओगे
कि तुम्हारी
मुट्ठी संसार
पर खुलने लगी।
त्याग नहीं
करना
पड़ेगा--त्याग
हो जाएगा। और
यह बड़ी अलग
बात है। इसलिए
मैं कहता हूं:
त्याग तो करना
ही मत, क्योंकि
त्याग करने का
मतलब है
कच्चा। त्याग
हो जाए।
तुम
हाथ में एक
पत्थर लिए चल
रहे थे, सोचते
थे हीरा है, तो खूब
मुट्ठी कस कर
बांधी थी। फिर
तुम्हें समझ
में आना शुरू
हुआ, जौहरियों
के पास
बैठे--जौहरि
की गति जौहरि
जाने--जौहरियों
के पास बैठे, साधु-संग
किया, पहचान
आनी शुरू हुई,
अपनी
मुट्ठी का
पत्थर गौर से
देखने लगे, समझ में आया
कि यह तो हीरा
नहीं है। क्या
तुम सोचते हो
फिर मुट्ठी
खोलने के लिए
कोई आयोजन करना
होगा? फिर
मुट्ठी कैसे न
बांधूं, यह
तुम पूछने
जाओगे? तुम
किसी से कहोगे
कि हे गुरुदेव,
अब मुझे कुछ
रास्ता बताएं
कि इस पत्थर
को कैसे छोडूं?
यह तो बात
ही अब व्यर्थ
होगी। जिस दिन
तुम्हें समझ
में आ गया यह
पत्थर है, कि
कांच का टुकड़ा
है, हीरा
नहीं है--उसी
क्षण मुट्ठी
खुल जाएगी, खोलनी नहीं
पड़ेगी। खोलने
के लिए श्रम
नहीं करना
पड़ेगा।
मुट्ठी खुल
जाएगी, पत्थर
हाथ से छूट
जाएगा। छोड़ना
पड़े, तो
गलत। छूट जाए,
ठीक।
फर्क समझ
लेना, बारीक
फर्क है। बाहर
से जो देखेगा
उसको तो कुछ
फर्क नहीं
दिखाई पड़ेगा।
तुम छोड़ रहे
हो कि छूट गया,
बाहर से तो
कुछ पता नहीं
चलेगा। बाहर
से तो दोनों
एक से मालूम
होंगे: मुट्ठी
खुली, यह
पत्थर गिरा।
मगर तुम भीतर
तो जान सकते
हो, भेद
बड़ा है। छोड़ा
कि छूटा? जो
छूटा तो
मुक्ति हो गई।
जो छोड़ा, फिर
लौट आओगे।
क्योंकि
छोड़ने का मतलब
ही यह होता है:
अभी दिखा न था
कि पत्थर है।
मन में तो अभी यही
लगा था कि है
तो हीरा। मगर
अब ये साधु
लोग कह रहे
हैं कि पत्थर
है। ये जौहरी
कहते हैं कि पत्थर
है, है तो
हीरा। मैं तो
पचास साल से जानता
हूं कि हीरा
है। लेकिन ये
कहते हैं कि
पत्थर है।
शायद ठीक कहते
हों। शायद मैं
गलत होऊं।
लेकिन
शायद! पक्का
नहीं है। साफ
नहीं हुआ है। तुम
अभी जौहरी
नहीं हो गए
हो। अभी
तुम्हारी आंख
में पहचान
नहीं आई है।
तो छोड़ना
पड़ेगा। तो तुम
उपाय करोगे, आसन लगाओगे,
सिर के बल
खड़े होओगे, माला जपोगे,
दौड़ोगे, उछलोगे,
कूदोगे--लाख
उपाय करोगे कि
कैसे इसको छोड़
दूं! पकड़े हो
और भीतर मन कह
रहा है कि पता
नहीं, कहीं
धोखा-धड़ी न हो
जाए; हीरा
हाथ लगा था, कहीं छूट न
जाए! कभी-कभी
छोड़ भी दोगे, फिर उठा
लोगे। छोड़ कर
दो कदम जाओगे,
फिर लौट
आओगे कि छोड़ो
भी, किनकी
बातों में पड़े
हो, पता
इनको भी न हो!
कौन जाने, या
कौन जाने कि
मैं इधर छोड़
कर जाऊं और
साधु महाराज
खुद उठा लें!
कोई धोखाधड़ी
हो! सिर्फ
मुझे समझा रहे
हों कि यह
पत्थर है, सिर्फ
इसलिए कि मैं
छोड़ दूं! कौन
जाने!
फिर
उठा लेते हो।
फिर-फिर उठा
लेते हो।
कच्चा
फल जैसे वृक्ष
से अटका रहता
है, ऐसे तुम
अटके हो। जब
फल पक जाता है,
छूट जाता है,
अपने से छूट
जाता है। पका
फल गिर जाता
है, चुपचाप
गिर जाता है।
तुमने
पके पत्तों को
गिरते देखा!
कहीं कोई चोट
नहीं लगती।
वृक्ष पर कोई
घाव नहीं
छूटता। वृक्ष
को पता ही
नहीं चलता।
वृक्ष हो सकता
है अपनी शांति
में डूबा हो; कब सूखा
पत्ता गिर गया,
वृक्ष को
शायद महीनों
बाद पता चले
जब गौर से देखे
कि कहां गया
एक पत्ता, यहां
हुआ करता था!
वह तो अब तक
मिट्टी में
मिल चुका
होगा। लेकिन
कच्चा पत्ता
जब तुम तोड़ते
हो तो वृक्ष
को चोट लगती
है, घाव
लगता है, रेखा
छूट जाती है।
जो पक जाता है,
अपने से छूट
जाता है।
तो मैं
तुमसे कहूंगा:
जीवन को छोड़ने
की आकांक्षा
मत करो। जीवन
को समझो! मैं
तुमसे यह नहीं
कहता: हीरा
छोड़ दो। मैं
तुमसे यह कहता
हूं: हीरा पहचानो!
छोड़ने की
जल्दी क्या है? जिस दिन
पहचान
तुम्हारी पूरी
हो जाएगी, जिस
दिन तुम जौहरी
हो जाओगे, उस
दिन तुम पूछने
न जाओगे कैसे
छोड़ दूं, छूट
जाएगा। छोड़ने
के लिए कोई
आयोजन न करना
पड़ेगा।
इसी को
मैं परम
संन्यास कहता
हूं--जो समझ से
फलित हो। फिर
तुम्हें घर से
भागने की
जरूरत नहीं
है। घर में
रहते घर छूट
जाता है।
पत्नी के पास
बैठे-बैठे
पत्नी विलीन
हो जाती है।
बेटे के पास
बैठे-बैठे
बेटा
तुम्हारा
नहीं रह जाता।
मेरे का भाव
विलीन हो जाता
है। जहां मेरे
का भाव गया
वहीं संसार
गया।
तुम
दूर-दूर से
देख रहे हो।
तुम्हें कुछ
दिखाई पड़ रहा
है। साधु
पुरुष कुछ कह
रहे हैं। साधु
पुरुष पास खड़े
हैं।
उन्होंने
अनुभव से देखा
है। तुम्हारे
और उनके अनुभव
में मेल नहीं, इसलिए
प्रश्न उठता
है: कैसे?
मैं
नहीं चाहता कि
तुम्हें कैसे
बताऊं। कैसे बता-बता
कर तुम्हें
बहुत तकलीफ दे
दी गई है। मैं
चाहता हूं कि
तुम्हें करीब
लाऊं। इसलिए
कहता हूं:
जीवन से भागो
मत, नहीं तो
हिमालय की
गुफा में बैठ
कर तुम दुकान
की ही बात
सोचोगे। और
बहुत-बहुत बार
यह मन में विचार
उठेगा: कहीं
भूल तो नहीं
कर दी? पता
नहीं सुख वहीं
हो! और हजार
तर्क सिर
उठाएंगे।
हजार तर्क
कहेंगे कि मैं
यहां अकेला
बैठा हिमालय
पर, वहां
अरबों लोग जी
रहे हैं, अरबों
लोग गलत हैं
और मैं सही
हूं? यह
प्रश्न नहीं
उठेगा? इतने
लोग गलत हैं
और केवल मैं
सही हूं? यह
कैसे हो सकता
है? फिर
गुफा में
बैठे-बैठे, सिर्फ गुफा
में बैठने से
कोई आनंद तो
मिल नहीं
जाता। गुफाएं
सब गंदी हैं, हवा तक आने
की सुविधा
नहीं है।
आनंद-आनंद की
तो बात छोड़ो, शुद्ध हवा
भी नहीं आती।
वहां
बैठे-बैठे
कहां का आनंद,
कहां का
परमात्मा? थोड़े
दिन में यह मन
में उठने
लगेगा कि अपने
घर में थे, कम
से कम शुद्ध
हवा तो मिलती
थी। अपने घर
में थे, कभी-कभी
उत्सव के क्षण
भी आते थे।
बेटी की कभी शादी
हुई थी, तब
मन
प्रफुल्लित
हुआ था। लाटरी
जीत गए थे।
क्षण भर ही
टिका था, मगर
आया था क्षण
भर को! क्षण भर
को उल्लसित
हुए थे। यहां
न लाटरी खुलती,
न बेटे की
शादी होती, न बैंड-बाजे
बजते। यहां
बैठे हैं
खाली। कितनी देर
खाली बैठे
रहोगे? खाली
तो बैठ नहीं
सकते एक क्षण।
तो मन
में सारा
संसार चलेगा।
बाहर से संसार
छोड़ कर आ गए, मन में सारा
संसार चलेगा।
खूब जोर से
चलेगा। अंधड़
उठेंगे! सब
वासनाएं दबी
हुई पड़ी हैं, टक्कर
मारेंगी। और
मन में
बार-बार संदेह
उठेगा कि
मृत्यु के बाद
जो मोक्ष है, पता नहीं हो
या न हो!
बुद्धिमानों
ने कहा है: हाथ
की आधी रोटी
मत छोड़ना--कल्पना
की पूरी रोटी
के लिए। और
मैं यह आधी
रोटी भी छोड़
कर आ
गया--कल्पना
की पूरी रोटी
के लिए! अब यहां
बीमार हो जाता
हूं तो कोई
देखभाल करने
वाला नहीं।
गांव रोज जाना
पड़ता है भीख
मांगने, अपने
घर में था तो
कम से कम भीख
तो नहीं
मांगनी पड़ती
थी। जहां जाओ,
वहीं लोग कह
देते हैं: आगे
बढ़ो! ऐसा
अपमान सहना
पड़ता है। दो-दो
कौड़ी के लिए
मोहताज हो गया
हूं। तुम जरा
अपने
साधु-संन्यासियों
की मोहताजी तो
देखो। और जो
मोहताज है वह
गुलाम हो जाता
है। तुम अपने
साधु-संन्यासियों
की गुलामी तो
देखो। रोज ऐसे
अनुभव मुझे
होते हैं। जैन
साधु-साध्वियां
मुझे मिलने
आना चाहते हैं,
लेकिन खबर
भेजते हैं कि
हम आ नहीं
सकते, क्योंकि
श्रावक आज्ञा
नहीं देते।
श्रावक आज्ञा
नहीं देते! ये
श्रावक कौन
हैं? साधारणतः
तो माना जाता
है कि साधु
महाराज नेता
हैं और श्रावक
अनुयायी हैं।
श्रावक पैर
छूते साधु
महाराज के, सेवा को
जाते
हैं।...कहां जा
रहे? साधु
की सेवा को जा
रहे हैं! चरण
दबाते हैं। सिर
रखते हैं
चरणों पर। और
यही श्रावक
उनको आने नहीं
देते! यह तो
बड़ा मजा हुआ!
कौन मालिक है,
कौन गुलाम
है--तय कैसे हो?
ये श्रावक
कहते हैं:
जाना हो तो
चले जाना, लेकिन
फिर याद
रखना!...क्योंकि
रोटी-रोजी, छप्पर तो
श्रावक देता
है।...फिर याद
रखना, शोभायात्रा
न निकालेंगे
दुबारा। फिर
आना गांव में,
कोई स्वागत
करने गांव के
बाहर न आएगा।
ऐसा
हुआ, मैं
हैदराबाद में
था। एक जैन
मुनि को मेरी
बात जंच गई।
युवा थे, अभी
हिम्मत थी। तो
उन्होंने छोड़
दिया मुनि-वेश।
उन्होंने कहा:
आप ठीक कहते
हैं। मेरे मन
में सारी
वासनाएं तो चल
ही रही हैं।
कुछ भी गया
नहीं है। तो
क्या सार है!
शायद आप ठीक
कहते हैं कि
मैं कच्चा छोड़
कर आ गया।
अभी
उम्र भी
ज्यादा नहीं
थी, कोई तीस
साल उम्र थी।
और दस साल हो
गए थे उनको मुनि
हुए।
हिम्मतवर थे,
अभी जवान
थे। हिम्मत की
कि ठीक है, मेरा
मन तो अभी
यहां लगता
नहीं, यहां
मुझे कुछ
मिलता भी
नहीं। दस साल
देख लिया। और
जो संसार है
वह मुझे अभी
खींच रहा है, तो शायद आप
ठीक कहते हैं:
मैं कच्चा टूट
गया। मैं
पकूंगा। फिर
जब सौभाग्य का
क्षण आएगा, सहज संन्यास
फलित होगा, तो ठीक है।
यह
आदमी ईमानदार
था, प्रामाणिक
था। लेकिन जैन
समाज तो बहुत
नाराज हो गया।
इस आदमी के
पैर छूते थे, वे इस आदमी
को मारने को
तैयार हो गए!
कहते हैं अहिंसक
हैं, मगर
कहां कौन
अहिंसक है!
पानी छान कर
पीते हैं, खून
बिना छाने पी
जाते हैं। वे
तो मारने
को...क्योंकि
उनके तो यह
भारी सदमा हो
गया, उनका
मुनि और छोड़
कर चला गया।
मैं एक
सभा में बोलने
गया था। जैनों
की ही सभा थी।
वे मुनि भी
मेरे साथ आ
गए। अब तो वे
मुनि नहीं थे।
तो एक आदमी ने
उनको नमस्कार
नहीं किया। यह
तो बात चलो
ठीक है, लेकिन
वे मंच पर
मेरे साथ बैठ
गए, तो
मेरे पास
चिट्ठियां
आने लगीं कि
इनको मंच से नीचे
उतारिए।
मैंने उनसे
कहा: भई, मैं
मुनि
तुम्हारा
नहीं हूं, मैं
मंच पर बैठा, तो ये
बेचारे कभी तो
मुनि थे, भूतपूर्व
सही! भूतपूर्व
मंत्री भी आता
है तो भी आदमी
इज्जत करता
है। ये
भूतपूर्व
मुनि हैं, तुम्हारे
ही मुनि हैं।
मगर
उन्होंने कहा
कि जब तक ये
नीचे न
उतरेंगे, सभा
आगे न बढ़ेगी।
बड़ा शोरगुल
मचाने लगे।
लोग उठ कर खड़े
हो गए। मुझे
यह लगा कि वे
उनको खींच कर ही
उतार लेंगे।
मंच घेर लिया।
मैंने उन मुनि
महाराज से कहा
कि अब तुमने
मुनि-व्रत भी
छोड़ दिया, अब
तुम यह मंच का
भी थोड़ा मोह
छोड़ो। यह झंझट
फिजूल की हो
रही है। अब मुनि
ही जब न रहे, तो अब मंच भी
जाने दो।
मगर वे
भी जिद्दी!
जिद्दी न होते
तो वे मुनि ही कैसे
हुए होते! वे
भी छोड़ने को
राजी नहीं, क्योंकि वह
भी प्रतिष्ठा
का सवाल कि
मंच कैसे छोड़
दें! और वह
जनता भी
अहिंसकों
की!...मगर इस तरह
खूनी आंख कि
उनको मार
डालें! आखिर
सिवाय इसके
कोई रास्ता
नहीं था, मैं
मंच से उतर कर
चला गया। जब
मैं उतर गया, तो मुनि
महाराज मेरे
पीछे उतर गए।
वह सभा नहीं
हो सकी। और
उनको
हैदराबाद
छुड़वा कर रहे
लोग। वही लोग
जो पैर छूते
थे, मंच पर
न बैठने
देंगे।
तो कौन
किसका मालिक
है? तुम
जिनको मुनि
कहते हो, जिनको
त्यागी कहते
हो, साधु
कहते हो--वे
तुम्हारे
गुलाम हैं। वे
तुम पर निर्भर
हैं। तुम जैसा
चलाते हो, वैसे
चलते हैं। तुम
जहां बिठाते
हो वैसे बैठते
हैं। तुम जो
करवाते हो
वैसा करते
हैं। कठपुतलियां
हैं। जब तुम
साधु हो जाओगे--जबरदस्ती
के साधु--तब
तुमको पता
चलेगा कि तुमने
एक और बड़ी
गुलामी ले ली।
पहले कम से कम
गुलामी
थी--पत्नी थी, बच्चे थे, थोड़ा सा
परिवार था--अब
यह पूरी भीड़
के तुम गुलाम
हो गए।
स्वतंत्रता
खो गई। और
जिसकी
स्वतंत्रता
खो जाए, वह
मोक्ष कैसे
पाएगा? स्वतंत्रता
तक न रही, तो
परम
स्वतंत्रता
तो कैसे
मिलेगी? परम
स्वतंत्रता
की तरफ जाना
हो तो
स्वतंत्रता
को बढ़ना चाहिए,
तो ही पहुंच
पाओगे।
तो मैं
तुमसे नहीं
कहता कि तुम
छोड़ कर भाग
जाओ। मैं नहीं
तुम्हें कोई
विधि बताता कि
कैसे आवागमन
से मुक्ति हो।
मैं इतना ही
बताना चाहता हूं
कि कैसे तुम
समझो कि
आवागमन हो रहा
है, कैसे हो
रहा है? संसार
कैसे बन रहा
है? तुम्हारा
चित्त कैसे
संसार को
निर्मित करता है?
इसे पूरी
तरह देख लो, पहचान लो भर
आंख--उसी भरी
आंख में
छुटकारा है!
यहां
से शहर को
देखो तो
हल्का-दर-हल्का
खिंची
है जेल की
सूरत हर एक
सम्त फसील
हर एक
रहगुजर
गर्दिशे-असीरां
है
न
संगे-मील, न मंजिल, न
मुख्लसी की
सबील
जो कोई
तेज चले रहे
तो पूछता है
खयाल
कि
टोकने कोई
ललकार क्यों
नहीं आई?
जो कोई
हाथ हिलाए तो
वहम को है
सवाल
कोई
छनक, कोई
झंकार क्यों
नहीं आई?
यहां
से शहर को
देखो तो सारी
खल्कत में
न काई
साहिबेत्तमकीं, न कोई
वाली-ए-होश
हर एक
मर्दे-जवां
मुजरिम-रसन-ब-गुलू
हर एक
हसीना-ए-रोना
कनीज
हल्का-ब-गोश
जो साए
दूर चिरागों
के गिर्द
लर्जा हैं
न जाने
महफिले गम है
कि
बज्मे-जाम-ओ-सबू
जो रंग
हर दरो-दीवार
पर परीशां है
यहां
से कुछ नहीं
खुलता, ये
फूल हैं कि
लहू।
दूर से
देख रहे
हो--बड़ी दूर से
देख रहे हो!
पक्का नहीं
होता कि वह जो
दीवार पर
दिखाई पड़ते
लाल धब्बे हैं, वे फूल हैं
कि लहू? और
यह संसार एक
कारागृह जैसा
है।
यहां
से शहर को
देखो तो
हल्का-दर-हल्का,
पेच-दर-पेच--
खिंची
है जेल की
सूरत हर एक
सम्त फसील
सब ओर
दीवालें बनी
हैं। हर तरफ
दीवालें खड़ी
हैं। हर तरफ
कारागृह हैं।
जिसको
तुम सांसारिक
कहते हो, वह
कारागृह में
है; और
जिसको तुम
संन्यासी
कहते रहे हो, वह भी
कारागृह में
है। सबके
कारागृह
हैं--अपने-अपने
कारागृह हैं।
खिंची
है जेल की
सूरत हर एक
सम्त फसील
हर एक
रहगुजर
गर्दिशे-असीरां
है
जेलखाने
कभी गए? तो
वहां जेल में
एक बीच में
चक्कर होता है,
जिनमें
कैदियों को
चलने की
सुविधा होती
है। जैसे
कोल्हू का बैल
चलता है, ऐसे
वे गोल चक्कर
में थोड़ी देर
घूम सकते हैं।
हर एक
रहगुजर
गर्दिशे-असीरां
है
और
यहां सब
रास्ते संसार
के, बस जेल
में जो चक्कर
रास्ता होता
है, जिस पर
कैदी थोड़ी देर
घूम सकते हैं,
इस तरह की
राहें हैं
यहां।
न
संगे-मील, न मंजिल, न
मुख्लसी की
सबील
न तो
मुक्ति की कोई
संभावना
दिखती है, न कोई मंजिल
का आसार।
मंजिल तो दूर,
राह के
किनारे पत्थर
भी नहीं लगे
हैं कि कितनी
दूर आ गए, मंजिल
कितनी और दूर
है?
जो कोई
तेज चले रहे, तो पूछता है
खयाल
कि
टोकने कोई
ललकार क्यों
नहीं आई?
कैदी
जब चलता है तो
अगर जरा तेज
चलने लगे तो
मन में खयाल
उठने लगता हैं
कि कोई टोकने
ललकार क्यों
नहीं आई? क्योंकि
पीछे ललकार
सदा खड़ी
है--सुप्रिंटेंडेंट
खड़े हैं, पुलिसवाले
खड़े हैं। तेज
नहीं चल सकते।
जो कोई
तेज चले रहे
तो पूछता है
खयाल
कि
टोकने कोई
ललकार क्यों
नहीं आई?
जो कोई
हाथ हिलाए तो
वहम को है
सवाल
कोई
छनक, कोई
झंकार क्यों
नहीं आई?
अगर
कोई हाथ हिलाए
तो जेलखाने
में तो एक ही
आभूषण होता
है--जंजीरें।
जब कोई हाथ
हिलाए तो
जंजीरों में
खनक होती है।
जो कोई
हाथ हिलाए तो
वहम को है
सवाल
कोई
छनक, कोई
झंकार क्यों
नहीं आई?
यहां
से शहर को
देखो तो सारी
खल्कत में
न कोई
साहिबेत्तमकीं, न कोई
वाली-ए-होश
यहां
से अगर दुनिया
को खड़े होकर
देखो, जरा
ऊंचाई से, तो
न तो कोई
दिखता है
सहनशील, न
कोई संतुष्ट,
न कोई
आनंदित, न
कोई होश वाला।
न कोई
साहिबेत्तमकीं
न कोई
वाली-ए-होश
हर एक
मर्दे-जवां
मुजरिम-रसन-ब-गुलू
सभी
रस्सी में
पिरोए हुए फूल
की तरह हैं।
एक तो फूल
होता है वृक्ष
पर और एक फूल
होता है गजरे में
पिरोया हुआ।
धागा दिखाई भी
नहीं पड़ता; छुपा होता
है। लेकिन फूल
गुलाम हो गया।
तुम्हारे
धागे भी दिखाई
नहीं पड़ते।
तुम्हारे हाथ
की जंजीरें
अदृश्य हैं, लेकिन हैं।
और यह मत
सोचना कि
तुम्हारे ऊपर
जंजीरें हैं,
तुम्हारे
मुनि पर नहीं
हैं। कारागृह
में बसे हुए
लोगों का जो
मुनि होगा, कैदियों का
जो गुरु होगा,
वह भी कैदी
ही होने वाला
है। बहुत
कठिनाई है; वह भी बच
नहीं सकता।
जैन मुनि जैन
कारागृह में
बंद, हिंदू
संन्यासी
हिंदू
कारागृह में
बंद, मुसलमान
फकीर मुसलमान
कारागृह में
बंद। अलग-अलग
कारागृह हैं।
इस जमीन पर
जितने धर्म
हैं, उतने
कारागृह हैं।
हर एक
हसीना-ए-रोना
कनीज
हल्का-ब-गोश
और हर
सुंदरतम
स्त्री भी
यहां गुलाम है, दासी है।
जवान से जवान,
शक्तिशाली
से शक्तिशाली
पुरुष भी धागे
में पिरोया
हुआ फूल है।
और सुंदर से
सुंदर स्त्री
भी यहां दासी
है।
जो साए
दूर चिरागों
के गिर्द
लर्जा हैं
और दूर
चिराग हैं और
उनके पास जो
दिखाई पड़ रहा
है।
न जाने
महफिले-गम है
कि
बज्मे-जाम-ओ-सबू
पता
नहीं, वहां
बैठ कर लोग रो
रहे हैं, दुखी
हो रहे हैं; कोई मर गया, मातम मना
रहे हैं; या
शराब ढाली जा
रही है, लोग
मस्त हो रहे
हैं? दूर
से कुछ राज
नहीं खुलता।
दूर से दीया
जलता है; पास
बैठी हुई
तस्वीरें
मालूम पड़ती
हैं, छायाएं
मालूम पड़ती
हैं।
जो साए
दूर चिरागों
के गिर्द
लर्जा हैं
न जाने
महफिले-गम है
कि
बज्मे-जाम-ओ-सबू
जो रंग
हर दरो-दीवार
पर परीशां है
यहां
से कुछ नहीं
खुलता, ये
फूल हैं कि
लहू?
दूर से
कुछ राज नहीं
खुलता। मैं
तुमसे कहूंगा:
पास आओ।
इसलिए
कहता हूं:
संसार से भागो
मत। संसार के
पास आओ। संसार
को आंख गड़ा कर
देखो। संसार
को पहचानो।
उसी पहचान में
छुटकारा है।
उसी पहचान में
मुक्ति है।
ज्ञान-मुक्ति
है। ज्ञान के
अतिरिक्त और
कोई मुक्ति
नहीं है।
कौन सी
चीज तुम्हें
बांधे है? क्यों बांधे
है? उसे
पास से देखो, गौर से
देखो। छूटने
की जल्दी न
करो। छूटने की
जल्दी में देख
ही न पाओगे।
भागने की
उत्सुकता मत
रखो, क्योंकि
भगोड़ा कैसे
समझ पाएगा? और शत्रुता
पहले से ही तय
मत कर लो, नहीं
तो पक्षपात
पहले से ही तय
कर लिया। तो
दुश्मन को कोई
भर आंख थोड़े
ही देखता है।
इसलिए
चाहता हूं कि
तुम
शास्त्रों से
मुक्त हो जाओ, शब्दों से
मुक्त हो जाओ,
सिद्धांतों
से मुक्त हो
जाओ। समझो कि
तुम पहले आदमी
हो जमीन पर; तुम्हें कुछ
पता नहीं कि
पहले लोगों ने
क्या कहा है।
चीन
में एक सम्राट
हुआ--अदभुत
सम्राट था!
सी-हुआंग उसका
नाम था। उसी ने
चीन की बड़ी
दीवाल बनाई।
और उसी ने एक
और बड़ा काम
किया--इससे भी
बड़ा काम किया।
उसने बड़ा काम यह
किया कि सारे
पुराने
शास्त्र और
पुरानी किताबों
को जलवा दिया, घर-घर खोज
करवा कर। और
जिन लोगों ने
बचाने की कोशिश
की, उन्हीं
को दीवाल पर
काम पर लगा
दिया, उन्हीं
ने दीवाल
बनाई।
जिन्होंने
बचाने की
कोशिश की किताबें,
उनको कहा कि
फिर दीवाल...।
और चूंकि
लोगों का मोह
बहुत है अतीत
से, तो
लाखों लोग मिल
गए, फंस गए
उस जाल में।
दोनों काम एक
साथ करवा लिए।
यह दीवाल बनवा
ली, क्योंकि
जो भी इसमें
फंस गया, एक
सीमा बना रखी
थी उसने कि
इतने दिन के
भीतर सारी
किताबें
समाप्त हो
जानी चाहिए।
क्यों
हुआंग को यह
खयाल आया कि
सारी किताबें
समाप्त हो
जानी चाहिए? क्योंकि
हुआंग ने देखा
कि इन्हीं
किताबों के कारण
लोगों की
आंखें देखने
में समर्थ
नहीं हैं। बड़ी
हिम्मत का कदम
था। उसने चाहा
कि आदमी अतीत
से मुक्त हो
जाए; उसके
पास कोई
पक्षपात न
रहें; आदमी
के मन में कोई
सिद्धांत, धारणाएं
न रहें--ताकि
वह जिंदगी को
जैसा है वैसा
ही देख सके।
लेकिन
फिर भी लोगों
ने किताबें
बचा लीं। लोगों
ने छिपा लीं।
कोई अपनी
किताब आसानी
से नहीं छोड़ता।
किताब में
तुम्हारे
प्राण हैं।
वहीं तुम्हारा
ज्ञान है।
तुममें खुद तो
ज्ञान है नहीं, किताब में
तुम्हारा
ज्ञान है।
किताब को छोड़
कर लगता है
अज्ञानी हो
गए। अज्ञानी
तुम हो ही, किताब
कैसे तुम्हें
ज्ञान दे देगी?
किताबों से
कहीं ज्ञान
मिला है!
पाकशास्त्र से
पेट तो नहीं
भरता। और जल
कैसे बनता है,
इसका सूत्र:
एच टू ओ, इसको
तुम कागज में
लिख कर और गटक
जाओ, तो
प्यास नहीं
बुझती।
"आग' शब्द
में कहां आग
है? परमात्मा'
शब्द में भी
परमात्मा
नहीं। अनुभव
में--जीवंत अनुभव
में!
तो
हुआंग ने सारी
किताबें हटवा
दीं और चाहा
कि लोग फिर
सरल हो जाएं, निर्दोष हो
जाएं, आदिम
हो जाएं।
मैं
तुमसे नहीं
कहता कि
किताबें जला
दो, क्योंकि
जलाने से क्या
होगा, अगर
मन में आग्रह
बना रहा? हुआंग
सफल नहीं हुआ।
लोगों ने एक
तो किताबें बचा
लीं और
जिन्होंने
नहीं बचाईं, उन्होंने भी
जलाने के पहले
कंठस्थ कर
लीं। किताब
छीन लोगे, कंठस्थ
कैसे छीनोगे?
याद कर लीं,
रटवा दीं।
फिर बच गईं।
हुआंग तो मर
गया, फिर
किताबें वापस
लिख दी गईं।
फिर किताबें
अपने-अपने
तलघरों से
निकल आईं, फिर
प्रकट हो गईं।
आदमी
का अतीत के
प्रति बड़ा मोह
है और अतीत के
मोह के कारण
ही आदमी
वर्तमान से
वंचित होता
है।
तुमसे
किसने कहा कि
संसार बुरा है? मैं नहीं
कहता कि भला
है। मैं नहीं
कहता कि बुरा
है। मैं कहता
हूं: तुम
जानो। तुम
पहचानो। संसार
परमात्मा ने
दिया है, होश
सम्हालो, कुछ
प्रयोजन होगा
इस देने में, ठीक भर आंख
देख लो क्या
है संसार, क्या
है इसका राज? उसी राज के
जानने में तुम
पाओगे कि हाथ
से जंजीरें
गिर गईं, तुम
मुक्त हो गए।
ज्ञान
मुक्ति है। और
सत्य
मुक्तिदाता
है, शास्त्र
नहीं।
तीसरा
प्रश्न: आप जब
गांधी, विनोबा,
अरविंद और
विवेकानंद के
विरोध में
बोलते हैं तो
मुझे रंज होता
है। वैसे ही
जब कोई आपके
विरोध में
बोलता है तो
भी मुझे रंज
होता है। विनती
है कि जैसे आप
बुद्ध और
महावीर को
समझाने में सहायक
होते हैं, वैसे
ही श्री
अरविंद को
समझाने में
सहायक हों!
* पहली
बात: तुम्हें
जिस बात में
रंज न हो, वह
मैं कहूं, तो
मुझे निरंतर
झूठ ही झूठ
बोलना पड़े।
फिर सच बोला
नहीं जा सकता।
सच तो चोट
करता है। सच
तो कड़वा है।
झूठ बड़े मीठे
हैं। झूठ को
मीठा होना ही
पड़ता है, नहीं
तो कौन गले
उतारेगा? झूठ
के चारों तरफ
शक्कर लगानी
पड़ती है।
जहर
भरी गोली
तुम्हें
खिलाते हैं तो
उसके ऊपर शक्कर
लगा देते हैं।
उस बीच शक्कर
घुले-घुले, तब तक गले से
उतर जाती है।
अगर
मैं यह ध्यान
रखूं कि तुम्हें
रंज न हो, तब
तो कठिन हो
जाएगा; तब
तो मैं
तुम्हें कोई
सहारा न दे
पाऊंगा। तुम्हें
बदल भी न
पाऊंगा। तब तो
मेरा बोलना
व्यर्थ है, समझाना
व्यर्थ है।
यह तो
ऐसे ही हुआ कि
तुम डाक्टर के
पास जाकर कहो
कि जब आप मेरे
घाव को धोते
हैं तो मुझे
बड़ी तकलीफ
होती है; और
जब आप मेरे
घाव से मवाद
निकालते हैं
तो मुझे बड़ी पीड़ा
होती है; इसलिए
तो मैं आया
नहीं था आपके
पास कि आप
मुझे पीड़ा दें;
मुझे सुख
दें! डाक्टर
वही कर रहा है:
मवाद निकल जाए,
घाव साफ हो
जाए, तो भर
जाए। भर जाए
तो सुख हो।
तुम अभी सुख
चाहते हो! तो
फिर किसी
धोखेबाज
डाक्टर के पास
जाना पड़ेगा।
वह मवाद भी
नहीं निकालेगा,
वह घाव
धोएगा भी नहीं,
ऊपर सुंदर
पट्टी बांध
देगा और
राम-राम लिख
देगा। राम-नाम
की चदरिया ओढ़ा
दी, मजा
करो, आनंद
से रहो।
आशीर्वाद दे
देगा। और तुम
बड़े प्रसन्न
घर लौट आओगे।
लेकिन वह जो
मवाद भीतर पड़ी
रह गई, वह
बढ़ेगी।
इस जगत
में कोई चीज
रुकती
नहीं--हर चीज
बढ़ती है। बढ़ाव
इस जगत का
नियम है। गलत
को काट कर न
फेंक दिया तो
बढ़ता रहेगा।
धीरे-धीरे
नासूर बनेगा। और
अगर तुम ऐसे
ही तलाश में
रहे, कि ऐसे ही
आदमियों के
पास गए जो
मलहम-पट्टी बढ़ाते
जाएं ऊपर-ऊपर,
जो घाव को
ढांकते
जाएं--तो नासूर
एक दिन कैंसर
बनेगा। ऐसे ही
तो लोग सड़ गए
हैं। लोग
लाशें हैं।
तुम जो
पूछ रहे हो, इसी कारण
से। लोग
मुर्दा हैं।
लोगों ने जीवन
नहीं जाना।
जीवन जानने के
लिए थोड़ी तो
चोट खाने की
हिम्मत करनी
होती है। जीवन
सीखने के लिए
भी चोट खानी
पड़ती है। छोटा
बच्चा चलना
शुरू करता है
तो कितनी बार
गिरता है!
घुटने तोड़ लेता
है। खून निकल
आता है। चमड़ी
छिल जाती है।
सोच ले बच्चा
कि इसमें तो
चोट लगती है
चलने में, इससे
तो अपना घुटने
के बल ही
सरकना बेहतर,
उसमें कभी
चोट नहीं
लगती--तो फिर
कोई बच्चा कभी
चले नहीं। फिर
यहां जमीनों
पर सरकते हुए
लंगड़े-लूले
लोग हों।
धर्म
की दुनिया में
तुम ऐसे ही
लंगड़े-लूले हो, क्योंकि
वहां तुम चलने
की हिम्मत
नहीं कर पाते।
अब तुम
जरा सोचते
नहीं कि तुमने
क्या पूछा है।
तुम्हारा
अरविंद से मोह
है। यहां इतने
लोग बैठे
हैं--पांच सौ
लोग यहां हैं।
इन पांच सौ के
अलग-अलग मोह
हैं। तुम
चाहते हो मैं
इन सबको
प्रसन्न करता
रहूं? इनमें
से कोई
कम्युनिस्ट
है, उसका
माक्र्स से
मोह है; वह
कहता है:
माक्र्स के
खिलाफ मत
बोलना। इनमें
से कोई
नास्तिक है, उसको
चार्वाक से
लगाव है; वह
कहता है:
चार्वाक के
खिलाफ मत
बोलना। इनमें
से कोई बौद्ध
है, कोई
हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई ईसाई है,
कोई यहूदी
है। इनमें से
कोई फ्रायड को
मानता है।
इनमें से कोई
नीत्शे को
मानता है।
यहां इतने तरह
के लोग हैं।
अगर मैं इस
बात की फिकर
करूं कि यहां
किसी को रंज न
हो, तो तुम
सोचते हो, एक
भी शब्द बोल
पाऊंगा? मौन
ही रहना पड़ेगा।
लेकिन कई ऐसे
होंगे, जिनको
मौन से दुख
होगा। फिर
क्या करना? जो कहेंगे
हमें मौन से
रंज होता है, आप चुप
क्यों हो गए, बोलिए!
फिर
मेरा क्या
कसूर? तुम्हारे
लगाव
तुम्हारे
लगाव हैं।
तुम्हें अरविंद
पसंद हैं, यहां
मत आओ।
तुम्हें मैं
पसंद हूं तो
कीमत चुकाओ।
मैंने तुमसे
कहा नहीं कि
तुम यहां आओ।
तुम्हें जहां
सत्य के दर्शन
होते हों वहां
जाओ। लेकिन
तुम हो
बेईमान। तुम
सब नावों पर
इकट्ठे सवार
रहना चाहते
हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन जब
मरने के करीब
हुआ तो उसने
पहले अल्लाह
की बड़ी स्तुति
की कि हे
परमपिता! हे
अल्लाह! हे
करुणावान! हे
रहमान-रहीम!
जब प्रार्थना
पूरी कर दी, तब दूसरी
तरफ करवट बदली
और कहा कि हे
प्रभु, हे
शैतान। तू
महान है! तू
करुणावान है!
उसकी पत्नी ने
कहा: आपका
दिमाग तो खराब
नहीं हो गया?
उसने
कहा कि सभी को
राजी रखना ठीक
है। मरने के बाद
किससे मिलना
हो, क्या पता!
भगवान को भी
कह दी खुशी की
दो बातें, शैतान
को भी कहे
देते हैं।
कहां जाना
होगा, कौन
मिलना होगा, कौन के
चक्कर में
पड़ेंगे--अभी
से कुछ पक्का
तो है नहीं।
दोनों नाव पर
सवार रहना ठीक
है।
यह
कुशल, होशियार
आदमी का लक्षण
है।
अगर
तुम मुझे समझे
तो उसी समझने
में अरविंद गलत
हो जाएंगे।
अगर तुम मुझे
समझे तो उसी
समझने में गांधी, विनोबा और
विवेकानंद
गलत हो
जाएंगे। मैं
कहूं या न
कहूं, मेरे
कहने न कहने
की बात नहीं
है।
और तुम
चाहते हो कि
मैं जैसे
बुद्ध और
महावीर को
समझाता हूं, ऐसे ही
गांधी, विनोबा
को समझाऊं।
गांधी, विनोबा
राजनीतिज्ञ
हैं। महावीर
और बुद्ध से
इनका क्या
लेना-देना? कुशल
राजनीतिज्ञ
हैं!
तुम
चाहते हो:
अरविंद और
विवेकानंद को
भी इसी तरह
समझाऊं।
अरविंद गांधी
से थोड़े बेहतर
हैं--आधे
राजनीतिज्ञ
हैं।
विवेकानंद और
थोड़े बेहतर
हैं--एक चौथाई
राजनीतिज्ञ।
विवेकानंद की
राजनीति
तुम्हें समझ
में न आएगी, क्योंकि वह
राजनीति धर्म
की आड़ में है।
वह हिंदुत्व
का प्रचार है।
वह
हिंदू-अहंकार
की प्रतिष्ठा
है। इसलिए
हिंदुओं को
प्रीतिकर
लगते हैं
विवेकानंद, क्योंकि
हिंदू-अहंकार
की प्रतिष्ठा
है। लेकिन
विवेकानंद
समाधिस्थ
नहीं हैं, न
अरविंद हैं, न
गांधी-विनोबा
हैं।
अगर
बुद्ध और
महावीर को मैं
समझाता हूं, तो बुद्ध और
महावीर के
कारण नहीं, समाधि के
कारण। तो
पतंजलि को भी
समझाता हूं। कबीर
को भी समझाता
हूं। मीरा को
भी समझाता
हूं। जीसस को
भी समझाता
हूं। लाओत्से
को भी समझाता
हूं। जिन-जिन
ने समाधि को
उपलब्ध किया
है, किसी
ढंग से किया
हो, उनकी
समाधि के
प्रति मेरे मन
में बड़ा समादर
है। लेकिन
जिन्होंने
समाधि को
उपलब्ध नहीं
किया है, उनको
मैं नहीं समझा
सकता।
तुम्हें उनकी
बात अच्छी
लगती हो तो
मैं तुम्हें
रोकता नहीं, क्योंकि मैं
किसी को रोकना
नहीं चाहता
यहां। तुम्हें
उनकी बात
अच्छी लगती हो,
तुम उनके
मार्ग पर जाओ।
और तुम्हें
मेरी बात ठीक
लगती हो, तो
फिर ठीक-ठीक
चुनाव कर लो।
तुम
कहते हो: "आप
जब गांधी, विनोबा, अरविंद
और विवेकानंद
के विरोध में
बोलते हैं तो
मुझे रंज होता
है।'
तो कुछ
ऐसा करो कि
रंज न हो। तुम
मुझे बदलना चाहते
हो? रंज
तुम्हें होता
है, मुझे
बिलकुल रंज
नहीं होता।
मुझे रंज होता
तो मैं ऐसी
बात बोलता ही
नहीं। रंज
तुम्हें होता है।
तो अपने भीतर
तलाशो कि रंज
का क्या कारण
होगा।
तुम्हारे
अहंकार ने
संबंध बना लिए
होंगे।
तुम्हारे
अहंकार ने
नाते-रिश्ते
बना लिए होंगे।
गांधी
से तुम्हें
क्या लेना-देना
है? गोडसे ने
गांधी को गोली
मार दी, तुमने
आत्महत्या
नहीं कर ली? तुम एकदम
छलांग लगा कर
कुएं में नहीं
गिर गए कि अब
क्या जीना!
तुम्हें
गांधी से क्या
लेना-देना? हां, लेकिन
तुमने कुछ
लगाव बना लिए
हैं।
तुम्हारे लगाव
से तुम्हें
लगाव है। तुम
कहते हो कि गांधी
के कुछ खिलाफ
कहा गया तो
तुम्हारे
खिलाफ हो गया।
हो सकता है
तुम खादी
पहनते हो कि
चरखा चलाते हो
या और तरह की
कोई नासमझी
करते हो। या हो
सकता है एकाध
बार जेल गए
होओ; स्वतंत्रता
के आंदोलन में
सम्मिलित हुए
होओ।
तुम्हारा
अहंकार गांधी
के नाम के साथ
जुड़ा है। तुम्हें
डर लगता है कि
अगर गांधी गलत
हैं तो तुमने
जो गांधी के
साथ किया होगा
या सोचा होगा
कि कर रहे हो, वह गलत हो
गया।
तुम्हारी
हिम्मत इतनी
नहीं कि तुम
उस बात को देख
पाओ।
और तुम
कहते हो: "आपके
खिलाफ भी जब
कोई बोलता है
तो मुझे रंज
होता है।'
वह रंज
भी वही है। उसमें
कुछ भेद नहीं
है। हो सकता
है कि तुम
मानते होओ कि
तुम मेरे
अनुयायी हो या
मेरे शिष्य हो
या मेरे साथ
हो। और फिर
कोई मेरे
खिलाफ बोलता है
तो तुम्हें
चोट लगती है।
चोट यह नहीं
लगती कि मेरे
खिलाफ बोलता
है। मुझसे
तुम्हें क्या लेना-देना? चोट यह लगती
है कि तुम जिसके
पीछे चल रहे
हो, तुम
जैसा समझदार
आदमी जिसके
पीछे चल रहा
है, वह गलत
कैसे हो सकता
है! वह गलत तो
तुम गलत हो जाते
हो, इसलिए
चोट लगती है।
इस बात
को ठीक से
पहचान लो। ये
सब अहंकार को
लगी चोटें
हैं। और
अहंकार को
जाने दो, अन्यथा
अहंकार पर तो
चोटें लगती ही
रहेंगी।
अहंकार तो घाव
है। उसमें तो
जरा सी चीज लग
जाती है तो
पीड़ा होती है।
यह सब अहंकार
है।
कोई कह
देता है गीता
में क्या रखा
है, तुम एकदम
गुस्से में आ
जाते हो।
इसलिए नहीं कि
तुम्हें
कृष्ण से कुछ
लेना-देना है,
कि गीता में
कुछ रखा है।
तुम्हें भी
कुछ नहीं रखा
है। लेकिन
गीता में क्या
रखा है?--तुम्हें
चोट लग जाती
है। तुम हिंदू,
गीता
तुम्हारी
किताब! अगर
गीता में कुछ
नहीं रखा तो
तुममें क्या
रखा है? यह
घबड़ाहट पैदा
होती है। तो
गीता को बचाना
पड़ेगा। गीता
के पीछे तुम
भी बच जाते
हो।
तो इसी
तरह तो लोग
प्रकारांतर
से अहंकार
भरते हैं।
भारत--पुण्यभूमि!
क्योंकि आप
यहां पैदा हुए
हैं! बड़ी आपकी
कृपा! हिंदू
धर्म--दुनिया
का श्रेष्ठतम
धर्म--क्योंकि
आप हिंदू हैं!
आप मुसलमान
होते तो? तो
इस्लाम होता
दुनिया का
श्रेष्ठतम
धर्म। वेद
दुनिया की
सबसे पुरानी
किताब--क्योंकि
आप हिंदू हैं!
अगर जैन होते
तो वेद दो
कौड़ी का; तो
जैन धर्म
दुनिया का
सबसे पुराना
धर्म है, सबसे
महान धर्म है।
जरा
गौर से देखो!
तुम किस बात
की घोषणा कर
रहे हो? हिंदू
धर्म बड़ा!
भारतवर्ष बड़ा!
किस बात की
घोषणा कर रहे
हो? ये
बचकानी बातें
हैं। जैसे
छोटा बच्चा
कहता है कि
मेरे पिताजी
तुम्हारे पिताजी
को दो मिनट
में चारों
खाने चित्त कर
दें। मेरे
पिताजी! झगड़ा
हो जाता है इस
पर, मार-पीट
हो जाती है इस
पर बच्चों में
कि कौन के पिताजी
किसको चित्त
कर सकते हैं।
एक
बच्चा किसी से
कह रहा था कि
मेरी मां कोई
भी विषय दे दो, घंटों बोल
सकती है।
दूसरा बोला:
यह कुछ भी
नहीं, मेरी
मां बिना विषय
के घंटों बोल
सकती है।
अकड़े
हैं! आदमी सब
तरफ से अपनी
अकड़ को सहारा
दे रहा है।
कोई
मेरे खिलाफ
बोल देता है, तुम्हें चोट
लगती है। चोट
इसलिए नहीं
लगती कि तुम्हें
मुझसे कुछ
लेना-देना है;
चोट इसलिए
लगती है कि
तुम मुझे
सुनने आते हो।
अगर यह आदमी
सही कह रहा है,
तो फिर अब
तुम कैसे
सुनने आओगे? और सुनने
आओगे तो तुम
नासमझ हो, गलत
आदमी को सुनने
जा रहे हो! तुम
जैसा सही आदमी
गलत आदमी को
सुनने जा रहा
है! तो
तुम्हें खुद सही
रहने के लिए, जिसको तुम
सुनने जाते हो,
उसको भी सही
रहना पड़ेगा।
इसलिए तुम विवाद
करते हो।
समझो, क्यों चोट
लगती है? और
उस चोट के मूल
कारण से अपने
को मुक्त कर
लो--अहंकार
से। फिर कोई
चोट न लगेगी।
फिर मेरे खिलाफ
कोई बोले, तो
भी तुम शांति
से सुनोगे। हो
सकता है, यह
आदमी ठीक कह
रहा हो, इसको
शांति से
सुनना चाहिए,
समझना
चाहिए। अगर
तुम्हारे मन
में मेरा कोई
भी मूल्य है
तो जो मेरे
खिलाफ बोलता
है उसका भी
तुम्हारे मन
में मूल्य
होगा। चोट
नहीं लगेगी।
तुम उससे और
भी खोद-खोद कर
समझना चाहोगे
कि बात पूरी
समझ लेनी
चाहिए, क्योंकि
जीवन का
निर्णय इन
बातों पर
निर्भर है।
तुम उस आदमी
के पीछे लग
जाओगे। तुम
कहोगे: और
समझाओ। सब
बातें बताओ
जो-जो खिलाफत
की हैं, ताकि
मैं पुनः
विचार कर
सकूं। हो सकता
है तुम सही
होओ। क्योंकि
मैंने सही
होने का कोई
ठेका नहीं ले
लिया है। मैं
ही सही होऊं, यह क्या
जरूरी है? तुम
भी सही हो
सकते हो। तो
मुझे सारी
बातें कहो, खोल कर कहो, ब्योरे से
कहो। एक-एक
बात का तर्क
स्पष्ट करो।
मैं तुम्हारी
बात
हृदयपूर्वक
सुनूंगा, ताकि
मैं पुनः
निर्णय ले
सकूं।
और अगर
तुमने मेरी
बात समझी है
तो विरोधी की
बात को सुन कर
मेरी बात के
संबंध में
तुम्हारी समझ
और गहरी होगी, कम नहीं
होगी। क्यों
कम होगी? या
तो विरोधी सही
कह रहा है, तो
तुम मुझे छोड़
दोगे, तब
भी अच्छा हुआ।
तुम्हें जो
सही लगा, उसके
साथ गए। या तो
विरोधी गलत ही
कह रहा है, तो
उसकी सारी
बातें सुन कर
मेरी बातें
तुम्हें और
सही लगने
लगेंगी, जितनी
सही कभी भी न
लगी थीं।
लेकिन
इसकी तुम्हें
फिकर नहीं है।
तुम
कहते हो कि "मुझे
रंज होता है, इसलिए विनती
है कि जैसे आप
बुद्ध और
महावीर को
समझाने में
सहायक होते
हैं, वैसे
ही श्री
अरविंद को
समझाने में
सहायक हों!'
एक
बात। मैं
बुद्ध और
महावीर को
समझाने में सहायक
नहीं हो रहा
हूं। मैं अपने
को समझा रहा
हूं; बुद्ध और
महावीर उसमें
सहायक होते
हैं। तुम ठीक
से समझ लेना।
मैं कोई मीरा
को समझाने में
सहायक नहीं हो
रहा हूं। मेरा
क्या
लेना-देना? मैं अपने को
समझा रहा हूं।
उसमें मीरा
सहायक होती है,
इसलिए मीरा
का उपयोग कर
लेता हूं।
अरविंद उसमें
सहायक नहीं हो
सकते, इसलिए
उनका उपयोग
नहीं कर सकता
हूं।
तुमने
बात ही गलत
समझ ली। तुम
समझे कि मैं
इन लोगों को
समझा रहा हूं।
इन्होंने
मुझे नहीं
समझाया, मैं
इनको क्यों
समझाऊं? बुद्ध
मेरे संबंध
में चुप रहे, मैं क्यों
बोलूं? नहीं,
इससे कुछ
लेना-देना
नहीं है। मैं
जो तुमसे कहना
चाहता हूं, वही कह रहा
हूं। अगर
बुद्ध की वाणी
उस पर थोड़ी
रोशनी डाल
देती है तो
मैं बुद्ध की
वाणी का उपयोग
कर लेता हूं; महावीर की
वाणी उस पर
थोड़ी रोशनी
डाल देती है, उनका उपयोग
कर लेता हूं।
लेकिन जो मुझे
कहना है, मैं
वही कह रहा
हूं। जिस-जिस
से मेरी बात
के लिए गवाही
मिलती है उनका
मैं उपयोग कर
लेता हूं।
लेकिन वे गवाह
हैं। ऐसा नहीं
कि मैं उन्हें
समझा रहा हूं।
यही तो
फर्क है।
पंडित बुद्ध
को समझाता है।
पुरोहित
महावीर को
समझाता है।
मुनि, त्यागी,
तुम्हारे
तथाकथित
धर्मगुरु
तुम्हारे
महापुरुषों
को समझाते
हैं। मैं नहीं
समझा रहा हूं किसी
को। मैं तो
सीधा मुझे जो
दिखाई पड़ा है,
मैंने जो
जाना है, उसी
को समझा रहा
हूं। अब उस
समझाने में
जहां-जहां से
सहायता मिल
सकती है--ताकि
तुम्हारे मन में
बात पूरी तरह
अनेक-अनेक
द्वारों से
बैठ जाए--उन
सबका उपयोग
किए ले रहा
हूं। लेकिन जो
मैं कह रहा
हूं वह मेरा
है। इसलिए यह
तो भूल कर भी मत...।
मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, कई लोग आ
जाते हैं। कोई
लेकर आ जाता
है स्वामी नारायण
संप्रदाय की
किताबें, कि
आप हमारे
महाराज को
समझाएं।
मैंने कहा, तुम पागल हो
गए हो! मेरा
तुम्हारे
महाराज से लेना-देना
क्या? तुम
मत झंझट में
डलवाओ अपने
स्वामी
नारायण को!
तुम ले जाओ
किताबें। कोई
किसी और को
लेकर आ जाता
है कि ये
हमारे स्वामी,
इनको
समझाइए! मैं
उनसे कहता हूं
कि तुम खतरा मत
लो, क्योंकि
कौन जाने, अगर
मुझसे मेल न
बैठा तो फिर
मुझसे मत
कहना! ऐसे ही
तो
गांधीवादियों
ने गांधी को
झंझट में डलवाया।
ऐसे ही अरविंद
को अरविंद के
मानने वालों
ने झंझट में
डलवाया। मैं
बोला ही नहीं था,
न बोलने
जाने वाला था
उन पर। बस आ गए
कि अरविंद को
समझाइए।
मैंने उनको कई
दफा समझाया भी
कि तुम अरविंद
को क्षमा करो;
मगर वे पीछे
ही पड़े रहे।
पीछे ही पड़े
रहे तो फिर
मुझे कुछ कहना
पड़ा। फिर मैं
वही कहूंगा जो
मुझे दिखाई
पड़ता है। उससे
अन्यथा मैं एक
शब्द नहीं कह
सकता। उससे
इंच भर भिन्न
नहीं कह सकता।
उससे तुम्हें
चोट लगे तो
ठीक। उससे
तुम्हें आनंद
हो तो ठीक। वह
तुम्हारा
निर्णय है।
लेकिन मैं तुम्हारे
रंज, सुख-दुख
को देख कर
नहीं बोल सकता,
अन्यथा फिर
मुझे झूठ
बोलना पड़ेगा।
तुम झूठ हो--और
झूठों में
तुम्हारा सुख
है।
चौथा
प्रश्न: आप
कहते
हैं--प्रेम है
द्वार प्रभु
का। मैंने भी
कभी किसी को
प्रेम किया था, लेकिन उसे
पाने में असफल
रहा। अब तो
तीस वर्ष बीत
चुके हैं, लेकिन
फिर किसी और
को प्रेम न कर
पाया। भगवान,
क्या कभी
मेरा उससे
मिलन होगा?
* पहली
तो बात, जिसे
मैं प्रेम
कहता हूं और
जिसे तुम
प्रेम कहते हो,
वे दोनों एक
ही चीजें नहीं
हैं। तुम गलत
चीज को प्रेम
कह रहे हो।
तुम कह
रहे हो: "तीस
साल पहले
मैंने किसी से
कभी प्रेम
किया था, उसे
पाने में असफल
रहा।'
अब
प्रेम का पाने
से क्या संबंध
है? मोह का
पाने से संबंध
है। मोह न पाए
तो तड़फता है।
प्रेम तो कर
लिया और भर
गया; पाने
की क्या बात
है? समझो, एक फूल खिला
गुलाब का। तुम
पास से निकले,
तुम्हारी
नजर पड़ी। तुम
आह्लादित
हुए। तुम्हारा
प्रेम गुलाब
के फूल पर
बरसा। तुम
अपनी राह चले
गए। बात आई-गई,
समाप्त हो
गई। गुलाब, जो तुम्हें
दे सकता था, उसने
तुम्हें दे
दिया; तुम
जो गुलाब को
दे सकते थे, तुमने दे
दिया। नहीं, लेकिन तुम
कहते हो: हमें
झपट्टा मार कर
गुलाब का फूल
तोड़ना है। जब
तक हम उसको
अपने बटन के
काज में न
लगाएं, तब
तक हम
तड़फेंगे। तीस
साल हो गए
तड़फते, कि
उस गुलाब के
फूल को हम
अपने बटन के
काज में न लगा पाए।
गुलाब का फूल,
जैसे ही
तुमने कब्जा
किया, वैसे
ही मर गया।
प्रेम
कब्जा नहीं
मांगता। और
शायद कब्जा
मांगने के
कारण ही तुम
चूके। तुमने
शायद कब्जा करना
चाहा होगा।
अभी भी, तीस
साल हो गए, मगर
तुम्हारे
इरादे अच्छे नहीं
हैं।
अभी भी
तुम कह रहे हो:
"भगवान, क्या
कभी मेरा उससे
मिलन होगा?'
अगर
मेरा बस चले
तो कभी नहीं
होने दूंगा।
तुम खतरनाक
हो। तुम किसी
की गर्दन पर
सवार होना चाहते
हो। तुम मालिक
होना चाहते
हो।
प्रेम
तो दान है।
प्रेम में कोई
किसी को रोक ही
नहीं सकता।
जिससे तुम
प्रेम करते हो, वह भी नहीं
रोक सकता
तुम्हें
प्रेम में।
कैसे रोक सकता
है? प्रेम
तो तुम्हारा
दान है।
और
प्रेम कभी
असफल नहीं
होता--हो ही
नहीं सकता।
इसका मतलब यह
नहीं है कि
प्रेम तुम
करोगे तो वह
तुम्हें मिल
ही जाएगा।
उसको मैं
सफलता नहीं
कहता। प्रेम
के तो करने
में ही सफलता
है। बात ही
खत्म हो गई; और कोई
लक्ष्य नहीं
है प्रेम में।
लेकिन तुम चाहते
होओगे कि यह
स्त्री मेरी
पत्नी बने।
तुम सोचते हो
यह प्रेम है? तुम कब्जा
करना चाहते
थे। तुम
स्त्री के हाथ
में जंजीरें
डालना चाहते
थे। तुम इस
स्त्री को अपने
आंगन में कैद करना
चाहते थे। तुम
इस स्त्री को
मेरी ही हो, और किसी की न
हो, इस तरह
की सील-मोहर
लगाना चाहते
थे। तुम स्वामी
बनना चाहते
थे। तुम इस
स्त्री को
संपत्ति बनाना
चाहते थे। तुम
चाहते थे कि
फिर तुम इस
स्त्री को
लेकर
गांव-बस्ती
में घूमो और
लोगों को दिखाओ
कि देखो, यह
सुंदर स्त्री
मेरी है! और
कोई इसकी तरफ
आंख उठा कर न
देखे! अन्यथा
मुझसे बुरा
कोई भी नहीं।
हिंसा
का भाव था
तुम्हारा, प्रेम का
नहीं। प्रेम
का क्या
लेना-देना है?
प्रेम तो
तुम्हारे
भीतर उठी आनंद
की ऊर्मि है।
किसी के चेहरे
को देख कर उठी,
बात पूरी हो
गई। किसी की
आंखों को देख
कर उठी, बात
पूरी हो गई।
किसी फूल को
खिला देख कर
उठी, बात
पूरी हो गई।
तुम मालिक
क्यों होना
चाहो? तुम
प्रेम और लोभ
में भेद नहीं
समझ पा रहे
हो।
तुम
प्रेम और मोह
में भेद नहीं
समझ पा रहे
हो। तुमने लोभ
और मोह को
प्रेम समझा
है। और ऐसा प्रेम
तो असफल होगा
ही। तुम्हें
स्त्री नहीं
मिली, इसलिए
नहीं; मिल
जाती तो भी
असफल होता।
नहीं मिली, इसलिए तीस
साल तक सरकता
भी रहा; मिल
गई होती तो
तीन दिन न
चलता।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि जिसको
तुम पाना
चाहते थे और
नहीं पा सके, तो तुम्हारा
अहंकार तड़फता
रहता है, क्योंकि
तुम्हें चोट
लगी, तुम
नहीं पा सके।
तुम हार गए।
तुम अपनी विजय
करके दिखाना
चाहते थे और
विजय नहीं हो
पाई। वह घाव
तुम में तड़फता
है। यह अहंकार
ही है, यह
प्रेम नहीं
है।
पूछते
हो: "आप कहते
हैं--प्रेम है
द्वार प्रभु का।'
मैं
कहता नहीं; ऐसा है।
प्रेम है
द्वार
परमात्मा का।
और प्रेम के
अतिरिक्त
उसका कोई और
द्वार नहीं
है। लेकिन
मेरे प्रेम की
परिभाषा
समझो। प्रेम
है दान। प्रेम
है विसर्जन।
प्रेम है
समर्पण।
लेकिन
तुम तो
परमात्मा को
भी अगर प्रेम
करोगे तो उसको
भी कब्जा कर
लेना चाहोगे; मौका मिल
जाए तो उसके
गले में रस्सी
डाल कर तुम अपने
अस्तबल में
बांध दोगे कि
चलो अब, मेरे
अस्तबल में
रहो। मैंने
तुम्हें पा
लिया। तुम तो
परमात्मा को
भी पा लोगे तो
उसको भी कैदी
बना लोगे।
तुम्हारे मन
में बड़ी गहन
हिंसा है। तुम
उस पर भी
मुट्ठी बांध
लोगे। अगर
तुम्हें
परमात्मा मिल
जाए तो तुम
फिर परमात्मा
को किसी और को
न मिलने दोगे;
फिर तुम
पूरी चेष्टा
करोगे कि अब
देखना, किसी
और पर कृपा मत
कर देना! अब
तुम्हारी
सारी अनुकंपा
मेरी तरफ है।
मैं तुम्हारा
भक्त, तुम
मेरे भगवान!
अब इधर-उधर मत
जाना! अब और
दूसरे
चिल्लाते हैं,
चिल्लाने
दो। न मैं
तुम्हें धोखा
दूंगा, न
तुम मुझे धोखा
देना। न मैं
किसी और को
भगवान
बनाऊंगा, न
तुम किसी और
को भक्त
बनाना।
तुम्हारा
यह जो रुग्ण
चित्त है, यह सभी
चीजों को
रुग्ण कर देता
है।
जापान
में एक कहानी
है। एक बौद्ध
साध्वी थी। उसके
पास बड़े
प्यारे बुद्ध
की प्रतिमा
थी। स्फटिक की
बनी थी। और वह
रोज बुद्ध की
प्रार्थना
करती
सुबह-सांझ, आरती उतारती,
दीया जलाती,
ऊदबत्ती
लगाती।
साध्वी थी तो
अक्सर
मंदिरों में
ठहरती।
यात्रा पर
जाती। एक बार
मंदिर में ठहरी।
हजार बुद्धों
का मंदिर, जहां
हजार
प्रतिमाएं
हैं बुद्ध की।
उसने सुबह
अपने छोटे से
बुद्ध को
निकाला। ये
हजार इतनी बड़ी
प्रतिमाएं
पूजा के लिए
काफी नहीं
हैं! उसे अपनी
थैली में जो
बुद्ध हैं, उनकी ही
प्रार्थना
करनी है। ये
उसी बुद्ध की
प्रतिमाएं
हैं सारी, बड़ी
विराट
प्रतिमाएं
हैं, जिन्हें
देखने हजारों
मील से लोग
आते हैं। लेकिन
जब वह सुबह
पूजा करने
बैठी तो उसने
अपनी झोली में
से अपने बुद्ध
निकाले।
अपने-अपने
बुद्ध सब सम्हाल
कर रखते हैं।
ऐसे उधार
बुद्ध और हर
किसी के बुद्ध
और
ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे
जिनकी प्रार्थना
करते हैं। लोग
अपने-अपने
विशिष्ट
बुद्ध रखते
हैं, अपनी
थैली में रखते
हैं, सम्हाल
कर रखते हैं।
अपने बुद्ध को
निकाला, बिठाया
आसन पर। छोटा
सा आसन भी
रखती थी।
तब उसे
एक सवाल उठा
कि आज अगर
मैंने
ऊदबत्ती लगाई
तो ऊदबत्ती के
धुएं पर किसका
क्या बस! धुआं
तो धुआं है।
धुआं कोई आदमी
तो नहीं है।
आदमी जैसी
बुद्धि भी
धुएं के पास
नहीं है। धुआं
तो उड़ेगा और
ये जो हजार
बुद्धों की
प्रतिमाएं हैं, न मालूम
किसके
नासापुटों
में समा जाए।
धुआं तो धुआं
है, धुएं
का क्या
भरोसा! तो
उसने एक छोटी
सी पोंगरी
बनाई--बांस की
पोंगरी।
ऊदबत्ती लगाई
और बांस की
पोंगरी में से
धुएं को अपने
बुद्ध तक पहुंचाया।
उसने जो किया,
सो ठीक, मगर
हुआ यह कि
बुद्ध का
चेहरा काला हो
गया। वह बड़ी
दुखी हुई। यह
प्यारी-प्यारी
प्रतिमा खराब
हो गई।
मंदिर
का बड़ा पुजारी
यह सब खड़ा
देखता था। वह
एक पहुंचा हुआ
फकीर था। उसने
कहा कि तेरी
बात मैं समझ
पाया। यह तेरा
देख रहा हूं
खेल। मगर देख, तेरे साथ
बुद्ध की क्या
गति हो गई! तू
तो मुक्त न
हुई बुद्ध को
पाकर, बुद्ध
तेरे कैदी हो
गए। तू तो
बुद्ध को पाकर
सुंदर न हुई, बुद्ध कुरूप
हो गए। जरा
देख बुद्ध को
क्या हुआ!
तूने चेहरा
काला कर दिया।
ऐसी भी क्या
बात? ऐसा
भी क्या लोभ, मोह? ऐसा
भी क्या बंधन?
मगर
यही है हालत।
अपने-अपने
भगवान हैं।
अपने-अपने
मंदिर हैं।
तुमने प्रेम को
समझा ही नहीं।
प्रेम
विस्तीर्ण
है। प्रेम कोई
सीमा नहीं
मानता और न
कोई सीमा
जानता है। प्रेम
कुछ मांगता
नहीं उत्तर
में। प्रेम
कोई प्रत्युत्तर
नहीं चाहता।
प्रेम तो इसी
से धन्यभागी
अनुभव करता है
कि मैं प्रेम
को कर पाया।
अब तुम
चांद को प्रेम
करते हो, तो
तुम चांद को
कोई अपने घर
बांध नहीं
रखना चाहते।
छोटे बच्चे
अक्सर हाथ
बढ़ाते हैं
चांद को पकड़ने
के लिए। छोटे
बच्चे अक्सर
परेशानी खड़ी
कर देते हैं।
तुमने कृष्ण
और यशोदा की
कहानी भी पढ़ी
होगी कि कृष्ण
मचल गए कि
चांद चाहिए।
अब यशोदा परेशान
है कि क्या
करे, क्या
न करे। एक साधु
गुजरता है और
वह साधु यह सब
देखता है। वह कहता
है: एक काम कर।
कांसे की थाली
में पानी भर कर
रख। चांद
उसमें दिखाई
पड़ेगा। वही
चांद कृष्ण को
दे दे।
उसने
कांसे की थाली
में पानी भरा, चांद का
प्रतिबिंब
पड़ा। यह छोटा
सा बालकृष्ण खूब
आह्लादित हो
गया। थाली
लेकर घूमने
लगा। जहां ले
जाए, चांद
तो वहीं, चांद
की छाया पड़
रही है। बहुत
खुश है, प्रसन्न
हो गया, तृप्त
हो गया।
ध्यान
रखना, अगर
तुमने
प्रेमपात्र
पर मालकियत
करना चाही, तो
प्रतिबिंब पर
ही मालकियत
होगी। यह इस
कहानी का राज
है। असली पर
नहीं हो सकती।
असली चूक जाएगा।
नकली पर हो
जाएगी
मालकियत।
नकली पर ही
मालकियत हो सकती
है। नकली ही
मुट्ठी में
आता है, असली
मुट्ठी में
नहीं आता। अगर
असली चाहिए हो
तो मुट्ठी
खुली रखना, बांधना मत।
नकली चाहिए हो
तो मुट्ठी
बांध लेना।
असली के लिए
खुला हाथ
चाहिए, खुला
हृदय चाहिए।
नकली के लिए
बांध सकते हो।
प्रतिबिंब
पकड़ में आ
सकते हैं, मूल
पकड़ में नहीं
आता।
और हम
सारे जीवन यही
उपद्रव में
लगे हैं कि किसी
तरह प्रेम पकड़
में आ जाए; बांध लें, रेखा खींच
दें उसके
चारों तरफ; कब्जे में
कर लें। यह
कब्जे की
आकांक्षा
रुग्ण है।
पूछते
हो: "आप कहते
हैं--प्रेम है
द्वार प्रभु
का। मैंने भी
कभी किसी से
प्रेम किया था।
लेकिन उसे
पाने में असफल
रहा।'
पाने
की आकांक्षा
थी, इसी में
असफलता है।
अगर सिर्फ
प्रेम किया
होता तो सफलता
ही सफलता थी।
पाना क्यों
चाहो? मालकियत
क्यों? मालिक
तो सिर्फ एक
परमात्मा है,
तुम क्यों
मालिक बनना
चाहो? सुंदर
फूल उसके, सुंदर
पहाड़ उसके, सुंदर चेहरे
उसके, सुंदर
देहें उसकी, सुंदर
नदियां उसकी,
सुंदर
चांदत्तारे
उसके--सारा
सौंदर्य उसका
है। तुम कब्जा
क्यों करना
चाहो? और
तीस साल बीत
गए, अभी भी
तुम्हारी
कब्जे की
आकांक्षा है?
"लेकिन
मैं फिर किसी
और को प्रेम न
कर पाया।'
तुम
सोचते हो
तुमने बड़ा
भारी काम किया, कोई शहीद हो
गए! सोच रहे
होओगे: शहीदों
की चिताओं पर
जुड़ेंगे हर
बरस मेले!
क्या विचार कर
रहे हो? यह
भी कोई प्रेम
हुआ, जो एक
पर चुक गया? बूंद-बूंद
रहा होगा, एकाध
ही बूंद रहा
होगा कि टपका
कि खत्म। फिर
झरना ही सूख
गया? इतना
विराट संसार!
प्रभु इतने
रूपों में
प्रकट! और तुम
एक रूप में ही
ऐसे भटक गए कि
फिर तुम किसी
और को प्रेम न
कर पाए। तुम
सोचते होओगे
कि यह बड़ा
मैंने प्रेम
किया, कि
देखो, वह
तो नहीं मिली,
लेकिन मैं
अब भी उसी का
हूं! फिर किसी
को प्रेम नहीं
किया!
तुम
अपने को नाहक
सता रहे हो।
तुम अपने को
नाहक कष्ट दे
रहे हो। यह भी
अहंकार है। उस
प्रेम में भी
अहंकार था कि
पाकर रहूंगा!
फिर पा नहीं
सके तो विषाद
ने घेर लिया।
अब तुम यह
कहते हो: तो
दिखा कर रहूंगा
कि मैं वफादार
हूं! किसको
दिखा रहे हो? तुम्हारा
जीवन चुकता
हुआ जा रहा
है।
अगर
परमात्मा एक
द्वार से नहीं
मिला, दूसरे
द्वार से
खोजते।
एक
मेरे मित्र
हैं। उनकी
पत्नी मर गई।
जब पत्नी
जिंदा थी, तब भी मैं
उन्हें जानता
था, कभी
उनमें बनी
नहीं। किसमें
बनती है!
पति-पत्नी में
बन जाए, यह
चमत्कार। ऐसा
होता नहीं।
कभी हो जाए तो
अपवाद। और
अपवाद से
सिर्फ नियम
सिद्ध होता है,
और कुछ
सिद्ध नहीं
होता। उन्हें
जानता था। जब भी
मेरे पास आते
थे, उनकी
पत्नी आती थी,
तो सदा रोना
और झंझट यही
थी, दोनों
की बनती नहीं
थी। फिर पत्नी
मर गई, पत्नी
मर गई तो मुझे
खबर मिली कि
वे तो एकदम विरागी
हो गए। पत्नी
क्या मर गई, उनका प्रेम
एकदम से पत्नी
के प्रति हो
गया! उन्होंने
सब तरफ
दीवालों में
फोटुएं लगा
लीं पत्नी की।
दुकान
इत्यादि जाना
ही बंद कर
दिया। पैसे
वाले हैं, सुविधा
है, चाहें
तो इस तरह की
शहीदगी का मजा
ले सकते हैं, कोई अड़चन
नहीं है। वे
तो बैठ ही गए, वे जाएं ही
नहीं वहां से,
अपने कमरे
में ही बैठे
हैं धूनी
रमाए। उनकी बहन
ने मुझे आकर
कहा कि मेरे
भाई को क्या
हो गया, अब
आप कुछ फिकर
करें! मरे
उनकी पत्नी को
तीन महीने हो
गए, वे
वहीं बैठे हैं
धूनी रमाए।
गजब का प्रेम,
उनकी बहन ने
कहा है। ऐसा
प्रेम सतयुग
में होता था, कलियुग में
कहां!
मैंने
उनसे कहा कि
प्रेम-व्रेम
कुछ नहीं, मैं आता
हूं। मैं उनके
घर गया। मैंने
कहा: यह क्या
कर रहे हैं, किसकी
तस्वीरें
लटकाए हुए हो?
और मैं
भलीभांति
जानता हूं
तुम्हारी कभी
बनी नहीं। अब
अपराध-भाव से
पीड़ित हो या
क्या मामला
है--कि इसको
कभी सुख नहीं
दिया, इसको
सदा सताया! तो
अब कुछ
क्षति-पूर्ति
कर रहे हो? जिंदा
थी तो तुमने
जरूर कई बार
सोचा होगा कि
यह मर जाए।
कौन पति नहीं
सोचता! सरका
देता है विचार
को कि
नहीं-नहीं, यह बात ठीक
नहीं। और उस
दिन जिस दिन
यह विचार आता
है, कुल्फी
खरीद लाता है
बाजार से, साड़ी
ले आता है कि नहीं,
यह विचार आ
गया, ठीक
नहीं। अब इसकी
क्षति-पूर्ति
करनी पड़ती है न!
स्त्रियां
जानती हैं, जिस दिन पति
साड़ी ले आए
बिना कहे, उसका
मतलब है कुछ
गड़बड़ है; मिठाई
ले आए, उसका
मतलब है कुछ
गड़बड़ है। न
दिवाली न
होली--और ये
मिठाई लिए चले
आ रहे हैं! तो
जरूर कोई
अपराध किया
है। फिर
स्त्री
खोज-बीन में
लग जाती है और
जेब वगैरह
तलाशती है, डायरी वगैरह
देखती है कि
कहीं फोन नंबर
मिल जाए, कोई
नाम का पता चल
जाए। कुछ न
कुछ है मामला!
तो
मैंने कहा कि
तुमने जरूर कई
दफे सोचा होगा
कि यह मर जाए।
वे थोड़े
चौंके।
उन्होंने कहा
कि यह आपको
कैसे पता चला?
मैंने
कहा: पता की
बात ही क्या, ये फोटो
क्यों लगाई
हैं? यह
यहां बैठ कर
क्या धूनी
रमाए हुए हो? यह किसको
दिखा रहे हो? इससे सार
क्या है?
मैंने
कहा: मुझसे तो
कहो सच, अभी
यहां कोई भी
नहीं है। उनकी
आंख में आंसू
आ गए।
उन्होंने कहा:
आपने मुझे पकड़
लिया। मामला
यही है। मैंने
कई बार सोचा
कि यह मर जाए।
इतना ही नहीं,
कई दफा
मैंने सोचा कि
मार डालूं, क्योंकि दुख
ही दुख है। और
फिर वह मर गई
तो मुझे ऐसा
लगता है कि
मेरी ही
भावनाओं ने
उसे मार डाला।
मगर आप किसी
और को मत कह
देना। लोग तो
यही समझ रहे
हैं कि मैं
उसके प्रेम में
दीवाना हूं, अब कभी
विवाह न
करूंगा।
मैंने
उनसे कहा कि
अगर इस स्त्री
को तुमने प्रेम
किया था और इस
स्त्री के
प्रेम से
तुमने आनंद
पाया था तो
तुम निश्चित
विवाह करोगे।
क्योंकि
प्रेम ने
तुम्हें आनंद
दिया, आनंद
तुम क्यों न
चाहोगे! अक्सर
जो लोग एक विवाह
के बाद विवाह
नहीं करते, वे वे लोग
हैं जिनको
इतना स्त्री
कष्ट दे गई कि
सब स्त्रियों
से मुक्त कर
गई, सदा के
लिए मुक्त कर
गई। अब झंझट
में वे नहीं पड़
सकते। एक को
क्या जाना, सब को जान
लिया।
हालांकि ऐसा
वे कहेंगे
नहीं। मगर
मनोवैज्ञानिक
सत्य बड़े उलटे
हैं। आदमी जो
ऊपर करता है, वह एक बात; भीतर जो
होती है, बिलकुल
दूसरी बात।
अब तुम
कहते हो: तीस
साल बीत चुके, मैं किसी को
प्रेम न कर
पाया।
तुम्हारे
अहंकार को जो
चोट लगी है, उस चोट के
कारण तुम अब
एक नया अहंकार
खड़ा कर रहे हो
कि मैं कोई
ऐसा-वैसा
प्रेमी नहीं
हूं! मैं दिखा
कर रहूंगा कि
किया तो एक को
किया, फिर
कभी नहीं
किया! बस एक पर
कुर्बान हो
गया। अपनी
जिंदगी आहुति
चढ़ा दूंगा।
यह
रुग्ण
चित्त-दशा है।
यह दुखवादी
दशा है। जिसको
मनोवैज्ञानिक
मेसोचिज्म
कहते हैं, यह अपने को
सताने की
वृत्ति है।
तुम पुराने ढंग
के संन्यासी
हो सकते
हो--बड़ी आसानी
से। तुम चाहो
तो कांटों
वगैरह की सेज
बना कर लेट
सकते हो, धूप
में खड़े हो
सकते हो, उपवास
कर सकते
हो--बड़ी आसानी
से। तुम्हें
बिलकुल जम
जाएंगी ये
बातें।
प्रेम
तो जीवन की
भाव-भंगिमा
है। प्रेम
जीवन है।
प्रेम कोई ऐसी
चीज नहीं कि
एक पर चुक
गया। प्रेम तो
श्वास है आत्मा
की। तुम रोक
कैसे सकोगे? जैसे शरीर
के लिए श्वास
की जरूरत है, ऐसे ही
आत्मा के जीवन
के लिए प्रेम
की जरूरत है।
प्रेम तो सतत
हो रहा है--कभी
वृक्ष से, कभी
चांद से, कभी
तारों से, कभी
लोगों से, कभी
कविताओं से, कभी संगीत
से, कभी
चित्रों से, कभी
मूर्तियों
से। प्रेम तो
प्रतिपल हो
रहा है। प्रेम
कोई ऐसी चीज थोड़े
ही है कि तुम
एक तरफ कर लिए
कि बस खत्म
हुआ। अब तुम
मेरे पास हो
तो मुझसे
तुम्हारा
प्रेम हो रहा
है; नहीं
तो यहां
किसलिए हो? यह भी प्रेम
है। अगर मेरी
वाणी तुम्हें
प्रीतिकर लग
रही है तो यह
भी प्रेम है।
प्रेम
के अनंत रूप
हैं। कोई एक
स्त्री पर
थोड़े ही चुक
जाता है। कोई
किसी एक पुरुष
पर थोड़े ही
चुक जाता है।
तुम्हारा कोई
मित्र भी होगा; वह भी प्रेम
है। प्रेम के
बहुत-बहुत भाव,
बहुत
भंगिमाएं
हैं। और सभी
भंगिमाओं में
प्रेम को
प्रकट होना
चाहिए। और
प्रेम की
अंतिम भंगिमा
परमात्मा है।
जब
तुम्हारा
प्रेम सब तरफ
बहने लगता है, निर्बाध
बहने लगता है,
बेशर्त
बहने लगता है;
जब
तुम्हारे
प्रेम में कोई
मांग नहीं रह
जाती, सिर्फ
दान रह जाता
है--तो प्रेम
प्रार्थना हो जाता
है। इसलिए मैं
कहता हूं:
प्रेम
परमात्मा का
द्वार है।
मगर
तुम पूछते हो:
"भगवान, क्या
कभी मेरा उससे
मिलन होगा?'
महाराज
बख्शो! किसी
तरह बेचारी बच
गई। तुम कुछ
और काम करो।
तुम क्या अगले
जन्म की
प्रतीक्षा कर
रहे हो?
कल मैं
एक कविता पढ़
रहा था, तुम्हारे
काम की होगी।
उनकी
तस्वीर
निगाहों में
चमक उठी है
आंसुओ!
आज तो दम भर के
लिए थम जाओ
जाने
ये कौन बरस, कौन सदी है
कि यहां
मेरी
नाकाम सदाओं
के भटकते आसेब
अपनी
ही खोज में
आवारा-ओ-दरमांदा
है
मुझको
जाना था किधर
और मैं आया
हूं कहां?
अपने
जख्मों को लिए
कितने नगर
घूमा हूं
ले के
सामाने-सफर
दुखते हुए
शानों पर
हाथ
पकड़े हुए
वहशत-जदा
अरमानों का
अजनबी
वादियों, दरियाओं
में आ पहुंचा
हूं
हसरतो-गम
की तपिश-रेज
गुजर राहों पर
मेरे
रिसते हुए
छालों के
निशां मिलते
हैं
जीस्त
दम भर को जहां
बैठ के
सुस्ताती थी
अब वो
पीपल के घने
साए कहां
मिलते हैं
वक्त
दम साधे हुए
कांप रहा है
कि अभी
जिंदगी
अपनी कमींगह
से निकल आएगी।
और
ठोकर उसे
मारेगी कि--"चल, आगे बढ़!'
इसके
पहले कि मिले
वक्त को
हुक्मे-रफतार
मेरा
खोया हुआ
चेहरा मुझे
वापस दे दो
अपने
लब रख के मैं
उन ओंठों पे
सो जाऊंगा
जिनको
चूमे हुए
कितने ही बरस
बीत गए
रूह
में
सुर्खिए-लब
घुल के उतर
जाएगी
सुबह
अनफास की निकहत
में बस जाएगी
पांव
उठेंगे उसी
शहर की जानिब, कि जहां
कल्ब
ने मेरे, धड़क
उठने का फन
सीखा था
दम
बखुद वक्त
मुझे देख के
पूछेगा--
"क्या तेरे
शौक की
वारफ्तःमिजाजी
है वही?'
अपने
उलझे हुए
बालों की लटें
बिखराए
कौन ये
गोद में बच्चे
को लिए बैठी
है
अपने
घर-बार, दरोबाम
से उकताई हुई
--किसलिए आए
हैं? क्यों
घर में घुसे
आते हैं?
जाइए-जाइए, आफिस से वो
आते होंगे
अजनबी
शख्स को
देखेंगे तो
घबड़ाएंगे
जाने
क्या सोचेंगे, कुछ सोच के
झुंझलाएंगे
कौन वो? कौन ये
बच्चा? ये
थका-सा चेहरा?
कौन
मैं, अपने ही
पैकर का
झिझकता साया
वक्त
एहसासे
खिजालत से
झुकाए हुए सर
अपनी
खामोश
निगाहों से ये
करता है सवाल
"क्या तेरे
शौक की
वारफ्तःमिजाजी
है वही?'
यह कवि
कह रहा है कि
वर्षों बीत गए
हैं, जिसको
प्रेम किया था
और जिसके
प्रेम के कारण
जीवन में
उत्साह उठा था,
वह उत्साह
खो गया। अब
वर्षों से तो
मैं एक भूत की
तरह उसी को
खोजते भटक रहा
हूं। और इसके
पहले कि समय
मुझसे कहे कि
उठ, आगे बढ़,
मैं एक ही
प्रार्थना
करता हूं कि
मुझे मेरा पुराना
वह प्यारा
चेहरा वापस दे
दो। मैं
उन्हीं ओंठों
पर ओंठ रख कर
सो जाऊंगा।
मेरा
खोया हुआ
चेहरा मुझे
वापस दे दो
अपने
लब रख के मैं
उन ओंठों पे
सो जाऊंगा
जिनको
चूमे हुए
कितने ही बरस
बीत गए
रूह
में
सुर्खिए-लब
घुल के उतर
जाएगी
सुबह
अनफास की
निकहत में बस
जाएगी
--मेरी
श्वासें
सुगंधित हो
जाएंगी।
ओंठों की सुर्खी
मेरे प्राणों
को फिर से जगा
देगी।
पांव
उठेंगे उसी
शहर की जानिब, कि जहां
कल्ब
ने मेरे, धड़क
उठने का फन
सीखा था
वह
क्षण, वह
प्रेम का क्षण,
जहां मेरे
हृदय ने धड़क
उठने का राज
सीखा था, उसी
तरफ भागने
लगूंगा।
दम
बखुद वक्त
मुझे देख के
पूछेगा
और समय
मुझसे जरूर
पूछेगा--
"क्या तेरे
शौक की
वारफ्तःमिजाजी
है वही?'
क्या
तेरे प्रेम की, तेरे लगाव
की, तेरी
वासना की, अभी
भी वही
मनमौजीपन है
जो पहले था? अभी भी तू
जागा नहीं? अभी भी तू
समझा नहीं?
अपने
उलझे हुए
बालों की लटें
बिखराए
और अगर
मैं पहुंच
जाऊं फिर से, तो यह होगी
हालत...तुम्हारी
भी यह हालत
होगी। अब तीस
साल बाद अगर
तुम्हें मिल
जाए वह स्त्री
जिसको तुम
सोचते हो
तुमने प्रेम
किया था और
तुम उसके पास
उसके घर में
पहुंच
जाओ...अपने उलझे
हुए बालों की
लटें बिखराए!
वह भी पचास की
होती होगी।
तुम अभी भी
सोचते हो वह
बीस की है!
कौन ये
गोद में बच्चे
को लिए बैठी
है?
मिल
जाएगी तो
पहचान भी न
सकोगे
कौन ये
गोद में बच्चे
को लिए बैठी
है?
अपने
घर-बार दरोबाम
से उकताई हुई
सब तरह
से ऊबी, परेशान,
बालों को
बिखराए, यह
कौन बच्चे को
लिए बैठी है!
यह चेहरा
तुम्हें
पहचानने में
भी नहीं आएगा।
यह चेहरा वही
नहीं है, जो
तीस साल पहले
था। नहीं हो
सकता। अपना
चेहरा तो आईने
में देखो! तुम
भी कितने बदल
गए! तुम भी वही
नहीं हो। वह भी
वही नहीं हो
सकती।
तुम्हें
देखेगी तो
घबड़ाएगी। तुम
यह मत सोचना
कि पहचानेगी।
पूछेगी:
किसलिए
आए हैं? क्यों
घर में घुसे
आते हैं?
जाइए-जाइए, आफिस से वो
आते होंगे
अजनबी
शख्स को
देखेंगे तो
घबड़ाएंगे
जाने
क्या सोचेंगे, कुछ सोच के
झुंझलाएंगे।
--आप कहां
घुसे चले आ
रहे हैं? तुम्हें
पहचान भी न
सकेगी। तुम भी
न पहचान सकोगे।
कौन वो! कौन यह
बच्चा! यह थका
सा चेहरा!
किसकी बातें
कर रही है यह
स्त्री? कौन
वो? कौन
हैं जो दफ्तर
से आते होंगे?
कौन यह
बच्चा? यह
थका सा चेहरा!
और तब तुम्हें
खयाल उठेगा:
कौन
मैं? अपने ही
पैकर का
झिझकता साया
--सिर्फ
एक छाया मात्र
हूं अतीत की!
वक्त
एहसासे
खिजालत से
झुकाए हुए सर
और समय
लज्जा से सिर
झुका कर
पूछेगा--
अपनी
खामोश
निगाहों से यह
करता है सवाल
"क्या तेरे
शौक की
वारफ्तःमिजाजी
है वही?'
क्या
अब भी तेरे
प्रेम का
पागलपन वही है? अब भी तू
समझा नहीं? प्रौढ़ नहीं
हुआ? तीस
साल लंबा समय
है। इन तीस
सालों में तुम
उसी सपने को
संजोए बैठे हो,
तो तुमने
तीस साल गंवा
दिए, तो
तुमने जिंदगी
से कुछ सीखा
नहीं। और अभी
तीस साल के
बाद भी वही
बचकानी बात
तुम्हारे मन
में घूम रही
है कि भगवान, क्या कभी
मेरा उससे
मिलन होगा? तुम अब भी
सपने और ख्वाब
में जी रहे
हो। ख्वाब से
जागो! काफी
समय बीत गया।
आगे जो आ रहा
है, संभावना
बहुत कम है कि
उससे
तुम्हारा
मिलना हो; क्योंकि
जिससे तुम
मिलना चाहते
हो वह अब है कहां?
गंगा का
कितना पानी बह
गया! जो तुम
अपनी आंखों
में सजाए बैठे
हो तस्वीर, वह तस्वीर
अब कभी नहीं
मिलेगी। वह तो
पानी पर खिंची
लकीर थी, कब
की मिट गई है!
और जो मिलेगी,
उससे
तुम्हारा कोई
तालमेल न
बैठेगा। तुम
सोच भी न
पाओगे कि यह
स्त्री इस तरह
हो गई। तुम
पहचान भी न
पाओगे।
आने
वाली जो घटना
है, वह है मौत,
जो पास आ
रही है रोज।
तुम अतीत में
मत उलझे रहो।
जरा जागो
स्थिति के
प्रति।
जिंदगी हाथ से
जा रही है।
मौत करीब आ
रही है। इसके
पहले कि मौत आ जाए--पको!
प्रौढ़ बनो! ये
बचकानी बातें
हैं। ये कवियों
को शोभा देती
हैं। कवियों
को माफ किया जा
सकता है। बुद्धिमानों
को नहीं ये
बातें शोभा
देतीं। थोड़ी बुद्धि
पर रौनक लाओ, थोड़ी बुद्धि
को निखारो।
थोड़ा जीवन को
साफ करके
देखो। मिल भी
जाती तो क्या
होता? किसी
को तो मिल ही
गई होगी। जरा
उनसे पूछो, उनको क्या
हुआ?
मैंने
सुना है, एक
पागलखाने में
दो आदमी बंद
हैं। और एक
दर्शक देखने
आया है। वह
पूछता है: यह
आदमी क्या कर
रहा है? क्योंकि
एक आदमी एक
तस्वीर लिए
बैठा है, जैसे
तुम तस्वीर
लिए बैठे हो।
तस्वीर लिए
बैठा है, छाती
से लगा रहा है,
चूमता है, छाती से
लगाता है।
आंसू बह रहे
हैं, रो
रहा है। वह
पूछता है:
इसको क्या हो
गया? तो
सुप्रिंटेंडेंट
कहता है: यह
आदमी इस
स्त्री को
प्रेम करता था,
उसे पा नहीं
सका, उसी
में पागल हो
गया।
और
सामने ही
कोठरी में एक
दूसरा आदमी
दहाड़ें मार
रहा है और
दीवालों से
सिर फोड़ रहा
है। और वह पूछता
है: इस सज्जन
को क्या हुआ? और वह
सुप्रिंटेंडेंट
कहता है: इन
सज्जन को वह
स्त्री मिल गई,
जिससे वह
पहला प्रेम
करता था।
मिलने के कारण
ये पागल हो गए
हैं।
तुम बच
गए, भगवान को
धन्यवाद दो!
कोई दूसरा
तुम्हारा कष्ट
भोगता होगा।
इस
जिंदगी में
मिलता क्या है? यहां मिलने
को है क्या? राख ही राख
है। मिल जाए, इतनी सी बात,
तो बस बहुत
है कि यहां
कुछ भी मिलने
को नहीं। बस
यही सार है।
इतनी बात समझ
में आ जाए कि
यहां कुछ भी
नहीं। इस बोध से
ही आदमी
परमात्मा की
तरफ उठना शुरू
होता है। जहां
संसार का
प्रेम असफल
होता है, वहीं
परमात्मा का
प्रेम जगता
है।
अब तुम
उस स्त्री की
प्रतीक्षा न
करो। अब तुम उस
प्रेम की भी
प्रतीक्षा न
करो। वह जवानी
का सपना था। जवानी
सपने देखती
है। गया! अब
तुम बूढ़े होने
के करीब आए।
अब तुम जरा
जागो! अब यह
जिंदगी हाथ से
निकली जाती
है। इसके पहले
कि यह जिंदगी
हाथ से निकल
जाए, कुछ
तैयारी
करो--मौत से
मिलने की कुछ
तैयारी करो।
और एक ही
व्यक्ति मौत
से मिलने में
तैयार हो पाता
है, जो जाग
जाए, जो
होश से भर जाए,
जो जिंदगी
की असारता देख
ले।
इस
जिंदगी की
असारता में ही
परमात्मा का
सार है। यहां
दिख गया कि अब
असार है, तो
वहां दिखना
शुरू हो जाता
है, जो सार
है। असार को
असार की तरह
जान लेना, सार
की तरफ जाने का
पहला कदम है।
अब तुम
असार में मत
उलझे रहो। ऐसे
भी बहुत समय गंवा
दिया। तीस साल
में तो
परमात्मा को
पा लेते। इतनी
प्यास से तो
परमात्मा मिल
जाता। इतनी प्यास
को ढालते तो
प्रार्थना
मिल जाती। तुम
कूड़ा-कर्कट
पाने के लिए
इतने दीवाने
हो रहे हो? मूल्य कितना
है?
चारों
तरफ देखो। जो
प्रेम में सफल
हो गए हैं, उनको देखो; जो असफल हो
गए हैं, उनको
देखो--सब रो
रहे हैं! यह
प्रेम प्रेम
नहीं है। मैं
किसी और प्रेम
की बात कर रहा
हूं। मैं उस
प्रेम की बात
कर रहा हूं, जिसमें
असफलता होती
ही नहीं।
परमात्मा
से प्रेम
जुड़ाओ, वहां
कभी असफलता
नहीं है। और
वही मिलता है
जिसकी तुम
तलाश कर रहे
हो। जब तुम
साधारण जीवन
के प्रेम में
भी पड़ते हो, तब भी तुम
परमात्मा को
ही खोज रहे हो;
इसलिए
साधारण प्रेम
तुम्हें
तृप्त नहीं कर
सकता, क्योंकि
खोज बड़े की है
और साधारण
बिलकुल साधारण
है। तुम
कंकड़-पत्थरों
में हीरे खोज
रहे हो, नहीं
मिलेंगे। खोज
परमात्मा की
चल रही है, परम
प्यारे की चल
रही है। उसे
खोजो! वहां
कोई कभी असफल
नहीं होता है।
संसार
में कोई कभी
सफल नहीं होता; परमात्मा
में कोई कभी
असफल नहीं
होता है।
आज
इतना ही।
(समाप्त)
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