अज्ञान
का बोध, इस
संबंध में
थोड़ी सी बात
मैं आपसे कहना
चाहता हूं।
जैसा
मुझे दिखाई
पड़ता है, अज्ञान
के बोध के
बिना कोई
व्यक्ति सत्य
के अनुभव में
प्रवेश न कभी
किया है और न
कर सकता है। इसके
पहले कि
अज्ञान छोड़ा
जा सके, ज्ञान
को छोड़ देना
आवश्यक है।
इसके पहले कि
भीतर से
अज्ञान का
अंधकार मिटे,
यह जो ज्ञान
का झूठा
प्रकाश है, इसे बुझा
देना जरूरी
है। क्योंकि
इस झूठे प्रकाश
की वजह से, जो
वास्तविक
प्रकाश है, उसे पाने की
न तो आकांक्षा
पैदा होती है,
न उसकी तरफ
दृष्टि जाती
है। एक छोटी
सी घटना इस
संबंध में
कहूंगा और फिर
आज की चर्चा
शुरू करूंगा।
एक
पूर्णिमा की
रात्रि में, एक बहुत
विलक्षण कवि
एक नौका पर
बजरे में यात्रा
कर रहा था।
छोटा सा झोपड़ा
था बजरे का, नौका थी, पूर्णिमा
की रात थी। वह
भीतर बैठ कर, मोमबत्ती को
जला कर, उसके
प्रकाश में किसी
ग्रंथ को पढ़ता
रहा। फिर जब
आधी रात हो गई और
वह थक गया तो
उसने
मोमबत्ती को
बुझाया, सोने
की तैयारी की।
लेकिन
मोमबत्ती को
बुझाते ही उसे
एक अदभुत अनुभव
हुआ जिसकी उसे
कल्पना भी न
थी। जैसे ही
मोमबत्ती
बुझी कि बजरे
के
रंध्र-रंध्र
से, खिड़की से,
द्वार से
चांद की रोशनी
भीतर आ गई।
उसने बजरे को
आकर भर दिया।
वह हैरान हो
गया! वह
मोमबत्ती का
छोटा सा टिमटिमाता
प्रकाश चांद
के प्रकाश को
बाहर रोके हुए
था! उसके
बुझते ही चांद
भीतर प्रवेश
कर गया! उसे
खयाल भी भूल
गया था--उस
टिमटिमाती
मोमबत्ती के
प्रकाश में
उसे खयाल भी
भूल गया था--कि
बाहर चांद भी
है। तब वह उठ
कर खिड़की पर गया
और उसने कहा, मैं कैसा
अभागा हूं!
आधी रात मैंने
व्यर्थ ही खो
दी। चांद की
अनुपम
ज्योत्स्ना
मिल सकती थी, वह चांद का
शीतल प्रकाश
मिल सकता था, तब मैं धुआं
देती एक छोटी
सी मोमबत्ती
की टिमटिमाती
पीली रोशनी
में बैठा रहा।
आधी रात का
उसे दुख हुआ।
लेकिन
बहुत कम लोग
हैं जो पूरे
जीवन में से
आधा जीवन भी
सच्चे प्रकाश
को पाने के
लिए जिनके जीवन
में संभावना
बन पाती हो।
अधिक लोग तो
जीवन गंवा
देते हैं
टिमटिमाती
रोशनियों
में। मोमबत्ती
जलाए रखते हैं
और इसलिए सत्य
का प्रकाश
उपलब्ध नहीं
हो पाता।
यह
हमारा जो
ज्ञान है झूठा
और उधार, यह
मोमबत्ती की
तरह धुआं देता
हुआ प्रकाश
है। इसे बुझा
देना जरूरी है,
तो ही सत्य
के, प्रकाश
के आगमन की
संभावना
प्रारंभ होती
है।
कल
मैंने इस
संबंध में
आपसे बात की।
यह जो ज्ञान
है झूठा, यह
जाए तो ही
सच्चे ज्ञान
के आने का
द्वार खुलता
है। अज्ञान का
बोध इसलिए
अत्यंत
अनिवार्य और
अपरिहार्य
आवश्यकता है।
उसके बिना कोई
गति नहीं है।
अज्ञान के बोध
से क्या होगा?
अज्ञान के
बोध से जो
होगा और जो
होना चाहिए और
जिस भांति
उसके होने में
सहायता दी जा
सकती है, उन
सूत्रों पर आज
मैं बात
करूंगा।
अज्ञान
के बोध से
पहली तो बात
यह होगी कि
जीवन एकदम
रहस्य से भर
जाएगा, एक
बहुत
मिस्ट्री घेर
लेगी। जीवन
रहस्य से भरा
हुआ है। लेकिन
थोथे ज्ञान की
वजह से उस
रहस्य पर
दृष्टि नहीं
जाती। जैसे
मैंने कहा, चांद का
प्रकाश भीतर आ
जाएगा। जैसे
ही आपका मिथ्या
ज्ञान हटा, आपने उस
दीये को
बुझाया जो कि
झूठा है और
पराया है, जीवन
में एक अदभुत
मिस्ट्री
उपलब्ध हो
जाएगी। चारों
तरफ एक रहस्य
का अनुभव होने
लगेगा।
रहस्य
का अनुभव
मनुष्य का
समाप्त होता
जा रहा है।
धर्मग्रंथों
ने उसे समाप्त
किया है, विज्ञान
ने उसे समाप्त
किया है, साहित्य
ने उसे समाप्त
किया है, सभ्यता
ने उसे समाप्त
किया है।
मनुष्य को जो
एक रहस्य की
प्रतीति होनी
चाहिए वह
विलीन हो गई
है। उसे कोई
रहस्य का
अनुभव नहीं
होता। क्योंकि
उसने हर चीज
के लिए
व्याख्या कर
ली है, हर
चीज के
सिद्धांत बना
लिए हैं और
मामला समाप्त
हो गया है।
आपको
दिखाई पड़ते
हैं दरख्त? आपको दिखाई
पड़ते हैं
चांद-सूरज? आपको जब एक
बीज फूट कर
अंकुर बनता है
तो कोई रहस्य
का अनुभव नहीं
होता? कि
होता है? नहीं
होता होगा। यह
चारों तरफ
पूरा जीवन
बहुत मिस्टीरियस
है, बहुत
रहस्यपूर्ण
है। लेकिन
हमारा थोथा
ज्ञान इसकी
व्याख्या कर
देता है। थोथा
ज्ञान बीच में
आ जाता है और
रहस्य से
हमारा कोई
संपर्क नहीं
हो पाता। नहीं
तो जीवन तो
प्रतिक्षण
रहस्य है। सब
अज्ञात है, सब अननोन
है। लेकिन हम
सबकी
व्याख्याएं
करके इस भांति
बैठ गए हैं
जैसे सब ज्ञात
हो गया हो, सब
नोन हो गया
हो। यह जो नोन
हो जाने का
भ्रम है कि सब
ज्ञात हो गया
है, इससे
रहस्य समाप्त
हो गया है। और
जिस चित्त में
रहस्य नहीं है,
उस चित्त
में धर्म कैसे
होगा? जिस
चित्त में
रहस्य की
लहरें नहीं
उठतीं, आश्चर्य
की, चकित
होने की, अवाक
रह जाने की, वह चित्त
धार्मिक कैसे
होगा?
कोई चीज
आपको रहस्य से
भरती है? आकाश
में घूमते हुए
बादल?
नहीं
लेकिन, विज्ञान
ने उनकी
व्याख्या कर
दी है। और
धर्म ने पहले
ही व्याख्या
कर दी थी कि
इंद्र बादल भेजता
है पानी
गिराने के
लिए। तो
बादलों में जो
मिस्टीरियस
था वह विलीन
हो गया, क्योंकि
बात साफ हो गई
कि इंद्र
भेजता है पानी
गिराने को। एक
व्याख्या, एक
एक्सप्लेनेशन
मिल गया और
मिस्ट्री
समाप्त हो गई।
तो फिर बादल
आकाश में घिर
रहे हैं, लेकिन
हमारे लिए
अर्थहीन हो गए,
हमें पता चल
गया कि बात
क्या है।
ज्ञात हो गया तो
रहस्य समाप्त
हो गया। जहां
चीजें अज्ञात
होती हैं, अननोन
होती हैं, वहां
रहस्य होता
है। जहां
चीजें ज्ञात
हो जाती हैं, रहस्य
समाप्त हो
जाता है। जिसे
हम जान लेते
हैं उसमें
रहस्य समाप्त
हो जाता है।
जिसे हम नहीं
जान पाते हैं
उसमें रहस्य
कायम रहता है।
सब रहस्य
समाप्त हो गया,
क्योंकि
इंद्र ने बादल
भेज दिए, तो
रहस्य समाप्त
हो गया।
फिर उस
पागलपन से बचे, हमको पता
चला कि कोई
इंद्र नहीं है,
कोई बादल
भेजने वाला
नहीं है। तो
विज्ञान ने नये
एक्सप्लेनेशंस
दे दिए, उसने
नई
व्याख्याएं
दे दीं कि
सूरज की गरमी
से पानी भाप
बनता है, फिर
बादल बनते हैं
और वे पानी
गिराते हैं।
इंद्र बदल गए,
व्याख्या
दूसरी आ गई।
लेकिन क्या
हमारी कोई भी
व्याख्या
अल्टीमेट है?
क्या हमारी
कोई भी
व्याख्या इस
रहस्य को खोलती
है कि जगत
क्यों है?
नहीं, विज्ञान यह
बता देता है
कि कैसे होता
है बादल का
बनना। लेकिन
बादल के होने
की जरूरत क्या
है? बादल
अगर न होता तो
कोई हर्जा था!
क्यों है? विज्ञान
बता देता है
कि बीज कैसे
अंकुर बनता है।
लेकिन क्यों
बनता है? क्या
कारण है? क्या
जरूरत है? हम
हैं तो क्यों
हैं? यह
हमारे भीतर
प्रेम पैदा
होता है तो
क्यों पैदा
होता है? यह
हमारे भीतर एक
जीवन-शक्ति है,
यह क्यों है?
ये चारों
तरफ पक्षी गीत
गा रहे हैं, ये पौधे बड़े
हो रहे हैं, आकाश में
बादल घूम रहे
हैं, ये
क्यों?
विज्ञान
ने कुछ
व्याख्याएं
दे दीं, कुछ
धर्म ने दे
दीं और यह
"क्यों' हमारी
दृष्टि से ओझल
हो गया और
हमें लगने लगा
कि हम जीवन को
जान रहे हैं।
यह जानने का
भ्रम खतरनाक
है। इसकी वजह
से रहस्य
समाप्त हो
गया। जब कि
सच्चाई यह है
कि जीवन के
"क्यों' के
संबंध में न
कुछ ज्ञात है,
न कुछ ज्ञात
अभी हुआ है, न हो सकता
है। जो
अल्टीमेट
"क्यों' है,
जो आखिरी और
अंतिम "क्यों'
है, वह
बिलकुल
अज्ञात है।
उस
अज्ञात का जब
तक संस्पर्श न
होगा प्राणों
में तब तक प्राणों
में धर्म का
उदय नहीं हो
सकता। क्योंकि
उस अज्ञात के
संस्पर्श से
ही अनंत
परमात्मा का
मार्ग स्पष्ट
होता है और
खुलता है।
लेकिन
हमारे
मस्तिष्क तो
ज्ञात से बंध
गए हैं। सब
चीजें हमें
मालूम हो गई
हैं। जब कि
सच्चाई यह है
कि हमें मालूम
कुछ भी नहीं
है। लेकिन पहले
धर्म ने यह
काम किया था, अब विज्ञान
यह काम कर रहा
है। और मनुष्य
के जीवन से इन
दोनों ने मिल
कर मिस्ट्री
को हटा कर अलग
कर दिया। अब
हमारे जीवन
में
मिस्टीरियस
जैसा कुछ भी
नहीं है।
मैं एक
जगह गया, एक
प्रोफेसर
मेरे साथ थे।
हम गए एक
जलप्रपात को
देखने, बहुत
ऊंचे पहाड़ से
पानी गिरता
था। लेकिन वे
प्रोफेसर
मुझसे बोले, वहां क्या
रखा है? आखिर
पानी ही तो
पहाड़ से नीचे
गिरता है!
उन्होंने बात
तो बिलकुल ठीक
कही--वहां
क्या रखा है? आखिर पानी
ही तो पहाड़ से
नीचे गिरता
है! इसमें बात
क्या है देखने
की?
पहाड़
से पानी नीचे
गिरता है, इस वाक्य
में सब समाप्त
हो गया। लेकिन
पहाड़ से पानी
नीचे गिरता है,
जिन्होंने
आंख खोल कर
उसे देखा होगा,
उनके
प्राणों में
कुछ तरंगित हो
गया। वह इस व्याख्या
में नहीं आता,
वह शब्दों
में नहीं
बंधता है, उसके
लिए कोई
व्याख्या
नहीं हो सकती।
लेकिन जिसने
पहाड़ से पानी
को गिरते देखा
है, उसके
प्राणों में
भी कोई झरना
जाग सकता है।
वह इस
व्याख्या में
कहीं भी नहीं
आता है।
अगर हम
एक फूल को ले
लें और एक
वनस्पतिशास्त्री
से पूछें कि
फूल क्या है? तो वह कहेगा,
ये-ये तत्व
मिले हुए हैं,
ये-ये
रासायनिक
केमिकल्स
मिले हुए हैं,
उनसे बना
हुआ है। बात
खत्म हो गई।
लेकिन फूल
किसी के
प्राणों में
जो गीत पैदा
कर देता है, वह इस
व्याख्या में
नहीं आया, वह
छूट गया हाथ
से।
केमिस्ट्री
की लेबोरेटरी में
जाकर फूल की
सब व्याख्या
हो जाएगी, सब
तत्व निकाल कर
रख देंगे, बता
देंगे कि
यह-यह है, यह-यह
है। बात खत्म
हो गई। काव्य
नष्ट हो गया, रहस्य विलीन
हो गया।
व्याख्या तो
हो गई, लेकिन
फूल के प्राण
समाप्त हो गए।
फूल
केमिकल्स में
ही नहीं है, फूल
केमिकल्स के
जोड़ से कुछ
ज्यादा है। वह
वही उसे जान
पाता है जिसके
प्राण रहस्य
से आंदोलित
होते हैं, जो
अज्ञात के लिए
अपने द्वार
खोलता है और
व्याख्याओं
को हटा देता
है और फूल से
सीधा संबंधित
हो जाता है।
उसके प्राणों
में भी कोई
फूल खिल जाते
हैं, जिसको
कोई विज्ञान
कभी नहीं खोज
पाएगा कि फूल से
उन फूलों के
खिल जाने का
क्या संबंध है?
लेकिन
जीवन में हमने
हर चीज की
व्याख्या कर
ली है। आदमी
की भी
व्याख्या कर
ली है, उसकी
भी एनालिसिस
कर डाली है, उसके शरीर
को भी
काट-छांट कर
सब पता लगा
लिया है। उसके
मस्तिष्क की
भी खोज कर ली
है। हमने सब एनालिसिस
कर ली है। और
एनालिसिस में
सब मर गया है।
क्योंकि जो भी
सुंदर है वह
हमेशा
सिंथेटिक है,
उसकी कोई
एनालिसिस
संभव नहीं, उसका कोई
विश्लेषण
संभव नहीं। और
जब भी हम किसी
चीज का
विश्लेषण
करेंगे तो
चीजें मर
जाएंगी।
फ्रायड
ने प्रेम का
विश्लेषण
किया, सेक्स
हाथ में आ गया,
प्रेम
विलीन हो गया।
फ्रायड ने
बहुत मेहनत करके
आखिर पता
लगाया कि
प्रेम-व्रेम
कुछ नहीं है, यह तो सब
सेक्स है।
और यह
सच है। अगर
विश्लेषण
करेंगे तो यही
पता लगेगा।
अगर आप भी
अपने प्रेम का
विश्लेषण करेंगे
तो मुश्किल
में पड़ जाएंगे, फिर उसमें
कुछ नहीं
मिलेगा खोजने
से, आखिर
में सेक्स
मिलेगा।
विश्लेषण
पार्थिव पर ले
आता है। जितना
चीजों को
तोड़िएगा उतनी
नीची होती चली
जाएंगी। आखिर
में जो अत्यंत
मैटीरियल है
वही हाथ में आ
जाएगा और जो
भी
स्प्रिचुअल
था वह विलीन
हो जाएगा। जो
भी
आध्यात्मिक
है, जो भी
आत्मिक है, वह सिंथेटिक
है, वह
जुड़ा हुआ है, वह इकट्ठा
है, वह
टोटेलिटी में
है। वह टुकड़ों
में नहीं है, वह समग्र
में है। अखंड है,
खंड में
नहीं है।
लेकिन
विज्ञान और
धर्मशास्त्र
और तत्व-चिंतन
सब खंड-खंड कर
देता है। और तब
चीज सब नष्ट
हो जाती है।
एक
सुंदर चित्र
पिकासो ने
बनाया। एक
पेंटर है, उसने एक
बहुत सुंदर
चित्र बनाया।
एक अमरीकी करोड़पति
उसे खरीदने
गया। उससे
पूछा, कितने
दाम होंगे? उसने कहा, पांच हजार
डालर। वह बहुत
हैरान हुआ!
उसने कहा, इसमें
है भी क्या? एक कैनवस का
टुकड़ा है, कुछ
रंग हैं, इसमें
है क्या ऐसी
बात? आखिर
पांच हजार
डालर की इसमें
कौन सी बात हो
गई? एक
कैनवस का
टुकड़ा है, कितने
दाम होते हैं
उसके? और
कुछ पेंट हैं,
तो उनके
कितने दाम
होते हैं?
पिकासो
ने अपने
सहयोगी को कहा
कि एक कैनवस
का टुकड़ा इससे
भी बड़ा ले आओ
और रंगों की
पूरी की पूरी
टयूब ले आओ और
इनको दे दो, और जितने
दाम इनको देना
हो दे जाएं।
वह
करोड़पति बोला, लेकिन मैं
उस कैनवस के
टुकड़े और
रंगों को लेकर
क्या करूंगा?
तो
पिकासो ने कहा, फिर स्मरण
रखो, यह जो
चित्र है यह
रंग और कैनवस
ही नहीं है, यह उससे
ज्यादा है।
उसके हम दाम
ले रहे हैं।
अगर
इसको
वैज्ञानिक के
पास ले जाएं
तो वह तोड़ कर, निकाल कर रख
देगा कि कैनवस
यह रहा, लाल
रंग यह रहा, हरा रंग यह
रहा, पीला
रंग यह रहा।
बात खत्म हो
गई। चित्र
कहां है?
चित्र
तो टोटेलिटी
में है; टुकड़ों
में नहीं, समग्रता
में है। टुकड़े
कर दें, चित्र
विलीन हो गया,
खत्म हो गया,
वहां कुछ भी
नहीं बचा।
जिंदगी
को जब हम तोड़
कर देखने की
कोशिश करते हैं
तो
व्याख्याएं, इंटरप्रिटेशंस
हाथ में रह
जाते हैं और
जीवन से हाथ छूट
जाता है।
रहस्य विलीन
हो जाता है, सिद्धांत
हाथ में रह
जाते हैं।
सिद्धांत मुर्दा
होते हैं, रहस्य
जीवित होता
है। जीवन में
जो भी आपने
रहस्यपूर्ण
जाना हो, उसको
आप जब भी
खंड-खंड
करेंगे, तभी
आप पाएंगे कि
वह गया। आप
सबको पता है
सौंदर्य का।
लेकिन कोई
पूछे कि सौंदर्य
क्या है? बस
फिर मुश्किल
हो जाएगी। फिर
आप जो भी
बताएंगे वह सब
गड़बड़ हो
जाएगा। आप
सबने शायद
प्रेम को जाना
हो। लेकिन कोई
पूछे कि प्रेम
क्या है? सब
गड़बड़ हो
जाएगा। फिर जो
बताएंगे वह सब
व्यर्थ होगा।
आपको खुद ही
लगेगा कि यह
मैं क्या बता रहा
हूं!
बंगाल
में एक सूफी
फकीर हुआ।
उसके पास एक
बार एक बहुत
बड़ा पंडित
मिलने गया। वह
फकीर तो प्रेम
ही प्रेम की
धुन लगाए रखता
था। जो भी कोई
आता और पूछता
तो वह
कहता--प्रेम।
चौबीस घंटे
प्रेम के ही
गीत गाता और
कहता कि प्रेम
ही सब कुछ है, और प्रेम ही
परमात्मा है,
और जो प्रेम
को जान लेता
है वह सब जान
लेता है। वह
पंडित भी गया।
उस पंडित ने
जाकर पूछा कि
महानुभाव, पहले
यह तो बताइए, प्रेम कितने
प्रकार का
होता है? प्रेम
ही प्रेम लगाए
हुए हैं! कौन
से प्रकार का
प्रेम है?
वह
सूफी बोला, तुमने तो
मुझे मुश्किल
में डाल दिया।
मुझे प्रकार
का तो कोई भी
पता नहीं, सिर्फ
प्रेम का पता
है। और मुझे
पता ही नहीं चला
कि कोई प्रकार
भी होते हैं
प्रेम में।
प्रेम का मुझे
पता है, लेकिन
प्रकार का
मुझे कोई पता
नहीं।
तो वह
पंडित हंसा।
और पंडित
हमेशा ही उन
पर हंसते रहे
हैं जो जानते
हैं। उस पंडित
ने अपना ग्रंथ
खोला और कहा
कि तुमको नहीं
मालूम तो मेरे
ग्रंथ में पांच
प्रकार बताए
हुए हैं। ये
सुन लो! और अब
दुबारा जब
किसी से प्रेम
की बात करो तो
पहले समझ तो
लो कि प्रेम
कितने प्रकार
का होता है।
उसने अपने
पांच प्रकार
बताए, उनकी
व्याख्या
बताई। वह बहुत
खुश था कि आज
इस फकीर को
ठीक पकड़ा, आज
मुश्किल में
डाल दिया।
बताने के बाद
उसने उस फकीर
को पूछा कि
कैसा लगा? जंचा?
ये प्रकार
ठीक हैं कि
गलत हैं? नहीं
तो मैं विवाद
करने को तैयार
हूं।
फकीर
ने एक गीत
गाया, क्योंकि
इसके सिवाय
कोई उत्तर
नहीं हो सकता
था। पंडित
तर्क देता है,
फकीर जो
जानता है वह
गीत गाता है।
उसने एक गीत
गाया। और गीत
का अर्थ बहुत
अदभुत था। गीत
का अर्थ था कि
तुम जब प्रेम
के प्रकार
बताने लगे तो
मुझे उस सुनार
की याद आ गई जो
एक बार भूल से
फूलों की
बगिया में पहुंच
गया था। अपने
साथ वह, सोने
को जिस पत्थर
पर कसता था, उसको भी ले
गया था। और
फूलों को उस
पर कस-कस कर
देखने लगा कि
फूल सच्चे हैं
या झूठे? मुझे
उस सुनार की
याद आ गई जब
मैंने
तुम्हारी किताब
सुनी। उसने
कहा, हे
परमात्मा, यह
क्या अदभुत
है! प्रेम को
तो मैंने जाना,
प्रकार का
मुझे आज तक
पता नहीं चला
कि प्रकार भी
होते हैं! और
उसने कहा, मैं
तुमसे निवेदन
करता हूं, तुमने
प्रकार जाने
हैं, लेकिन
प्रेम नहीं
जाना होगा। जो
प्रकार जानता
है वह प्रेम
नहीं जान
सकता।
क्योंकि
प्रकार है
विश्लेषण, एनालिसिस;
और प्रेम है
सिंथीसिस, प्रेम
है समन्वय, इकट्ठा, समग्रता,
टोटेलिटी।
तोड़ कर
चीजें नष्ट हो
गई हैं। और हमने
सब तोड़ डाला
है। सब तोड़
डाला है।
इसलिए आत्मा
विज्ञान को
कभी ज्ञात
नहीं हो सकती, अणु ज्ञात
हो सकता है।
अणु ज्ञात हो
सकता है, एटम
ज्ञात हो सकता
है, आत्मा
विज्ञान को
कभी ज्ञात
नहीं हो सकती।
क्योंकि
विज्ञान
तोड़ता है, तोड़ते
में आखिर में
अणु पर पहुंच
जाता है, परमाणु
पर पहुंच जाता
है। और जो
जीवन का सत्य है
वह जोड़ पर है।
जोड़ते जाओ, जोड़ते जाओ, आखिर में जब
जोड़ने को कुछ
न बचे तो जो है
वह परमात्मा
है। तोड़ते जाओ,
तोड़ते जाओ,
जब आखिर में
कुछ न बचे तो
जो है वह
परमाणु है। तोड़ने
से नीचे
टूटते-टूटते
परमाणु हाथ
में रह जाएगा,
जोड़ने से
जोड़ते-जोड़ते
अंत में
परमात्मा
उपलब्ध हो
जाता है।
जीवन
को जो जोड़ने
की दृष्टि से
देखता है उसे
तो बहुत रहस्य
मालूम होंगे
और जो तोड़ने
की दृष्टि से
देखता है उसे
कोई भी रहस्य
मालूम नहीं हो
सकता है। और
जिसे रहस्य
मालूम न हो
उसके लिए परमात्मा
तक जाने का
कोई मार्ग
नहीं।
इसलिए
मैंने कल कहा
कि अज्ञान का
बोध जरूरी है।
क्योंकि अगर
आपका ज्ञान से
छुटकारा हो
जाए तो आप
व्याख्याओं
से, तोड़ने से,
एनालिसिस
से मुक्त हो
जाएंगे। और तब
कुछ हो सकता
है, तब
शायद
छोटी-छोटी चीज
आपको अत्यधिक
रहस्य से भरी
हुई मालूम
पड़े।
लेकिन
हमारी आंखें
अंधी हो गई
हैं
व्याख्याओं
में, हमारी
आंखें बिलकुल
अंधी हो गई
हैं। हमारी आंखें
व्याख्याओं
से अंधी हो गई
हैं। हमें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। जो हमें
सिखा दिया
जाता है, हम
उसको दोहराते
रहते हैं। फिर
हम देख भी
नहीं पाते, सोच भी नहीं
पाते, क्योंकि
व्याख्याएं
बीच में आ
जाती हैं। फिर
कोई रास्ता
देखने का नहीं
रह जाता।
चीजों से सीधे
संपर्क का जो
इमीजिएट
कांटेक्ट है
वह विलीन हो
जाता है। सीधा
कोई हमारा
हृदय उनसे जुड़
नहीं पाता। हम
दूर खड़े रह
जाते हैं, चीजें
दूर खड़ी रह
जाती हैं, बीच
में
व्याख्याएं
और शास्त्र
खड़े हो जाते
हैं और ज्ञान
खड़ा हो जाता
है।
जिस
व्यक्ति ने
फूलों के
संबंध में सब
जान लिया
हो--सारा
वनस्पतिशास्त्र, वह फूलों को
देखने से
वंचित हो
जाएगा। उसे तो
रंग दिखाई
पड़ेंगे, केमिकल्स
दिखाई पड़ेंगे,
फूल नहीं
दिखाई पड़ेगा।
फूल से जो
काव्य और जो पोएट्री
पैदा होती है
हृदय में, वह
जो तरंग हो
जाती है पैदा,
वह उसके
भीतर नहीं
होगी। और
जिसके भीतर
होगी वह उसे
पागल मालूम
पड़ेगा कि तुम
पागल हो।
अभी
वैज्ञानिक
चांद के संबंध
में सब समझे
ले रहे हैं।
चांद के संबंध
में जो भी
काव्य है, नष्ट हो
जाएगा। चांद
पर आदमी उतर
जाएगा, चांद
की छाती पर
खड़ा हो जाएगा,
लेकिन चांद
को जान नहीं
पाएगा। चांद
को तो उन्होंने
जाना है जिनके
हृदय उसको देख
कर आनंद से भर
गए हैं और
जिनके हृदय
में संगीत
पैदा हुआ और
गीत पैदा हुए
हों और
जिन्होंने
चांद को धन्यवाद
दिए हैं, उन्होंने
चांद को जाना
है। हालांकि
वे चांद से
बहुत दूर थे।
और वैज्ञानिक
चांद की छाती
पर खड़ा हो
जाएगा, फिर
भी चांद को
नहीं जान
पाएगा। वह जो
चांद की मिस्ट्री
है वह नष्ट हो
जाएगी।
विज्ञान
और
धर्मशास्त्र
और फिलासफी, सब जीवन से
मिस्ट्री को
खत्म करने में
लगे हुए हैं।
इसीलिए तो
आदमी नीचे
गिरता जा रहा
है। वह सब
चारों तरफ एक
ही काम चल रहा
है कि जिंदगी को
जान लो पूरा, उसमें
अनजाना, अननोन
कुछ भी न रह
जाए।
आपको
पता नहीं है, अगर किसी
दिन वे सफल हो
गए और जिंदगी
में सब जान
लिया गया और
कुछ भी अनजाना
न रहा, उसी
दिन सारी
दुनिया को
आत्मघात कर
लेना होगा।
क्योंकि जीने
का फिर कोई
कारण नहीं रह
जाएगा। अगर सब
जान लिया गया
तो उससे
ज्यादा
बोर्डम पैदा
करने वाली और
कोई बात नहीं
होगी। जीते
हैं हम अननोन
के कारण, नोन
के कारण नहीं।
और जैसे-जैसे
हम किसी चीज से
परिचित होते
जाते हैं, आदी
होते चले जाते
हैं, वैसे
ही उसमें अर्थ
खोता चला जाता
है।
कोई
युवक किसी
युवती को
प्रेम करने
लगे। जब वह
प्रेम करता है
तो युवती
अननोन होती है, अज्ञात होती
है। उस युवती
के हृदय में
भी वह युवक
अज्ञात होता
है। लेकिन कल
वे जल्दी से
शादी कर लेते
हैं, इकट्ठे
रहने लगते हैं,
पति-पत्नी
हो जाते हैं, ज्ञात हो
जाते हैं, प्रेम
विलीन हो जाता
है। तब वे बड़े
हैरान होते
हैं कि यह
क्या हुआ? पहले
क्षणों में जो
प्रेम का
अनुभव हृदय को
आंदोलित किया
था वह कहां
गया? अब वे
आदी हो गए, अब
वे एक-दूसरे
को सोचने लगे
कि हम जानते
हैं, इसलिए
प्रेम विलीन
हो गया। प्रेम
तो वहां हो सकता
था जहां अननोन
मौजूद था, अज्ञात
मौजूद था। तो
वहां हृदय
खिंचता था, खोज करता था,
चैलेंज था,
चुनौती थी।
अब सब ज्ञात
हो गया, पत्नी
परिचित है और
ज्ञात है, बात
खत्म हो गई।
अभी कल
सांझ को बहुत
बढ़िया बात
हुई। मेरे पास
एक बहिन है वह
गई, उसके गले
में दर्द था, वह डाक्टर
के पास गई।
लौट कर उससे
छोटी बहिन ने
मुझे कहा कि
डाक्टर और
डाक्टर की
पत्नी दोनों
वहीं थे। लेकिन
बड़ी बहिन ने
कहा कि नहीं, वह पत्नी
नहीं हो सकती,
क्योंकि
डाक्टर उससे
बहुत प्रेम से
बोल रहा था।
वह जरूर नर्स
होगी, कोई
और होगी। इतने
प्रेम से
पत्नी से कोई
पति कभी बोलते
ही नहीं, न
कोई पत्नी
किसी पति से
बोलती है।
वे
परिचित हो गए, वह सब ज्ञात
हो गया। अब
बोझ है सब, ढोना
है। अज्ञात तो
विलीन हो गया
है भीतर। अब कोई
वहां अज्ञात
आत्मा नहीं, जिसे जानना
हो, जिसे
प्रेम करना हो,
परिचित
होना हो। सब
ज्ञात हो गया।
इसीलिए तो दांपत्य
एक बोर्डम है,
एक ऊब है, एक घबड़ाहट
है, एक
परेशानी है।
लेकिन
अगर जीवन में
रहस्य हो, अगर चीजों
के अज्ञात
तत्व के प्रति
हमारे जीवन
में
संवेदनशीलता
हो, सेंसिटिविटी
हो, तो आप
हजार वर्ष एक
पत्नी के साथ
रहें, उसे
जान थोड़े ही
सकते हैं।
उसमें बहुत
अज्ञात मौजूद
रहेगा, बहुत
अज्ञात मौजूद
रहेगा।
जन्म-जन्म एक
पत्थर को भी
पूरा नहीं
जाना जा सकता,
एक फूल को
पूरा नहीं
जाना जा सकता।
एक मनुष्य को,
एक स्त्री
को, एक
पुरुष को कैसे
पूरा जाना जा
सकता है? बिलकुल
नहीं जाना जा
सकता। बहुत
अज्ञात है उसके
भीतर।
वह जो
अज्ञात है वही
तो परमात्मा
है। अगर उसकी
तरफ आंख खुली
रहे और हृदय
खुला रहे, तो रोज-रोज
सुबह आप
पाएंगे--यह
पत्नी तो नई
है, जिसको
मैंने कल नहीं
जाना। यह तो
बिलकुल नई है।
इसको मैंने कब
जाना? कब
पहचाना? रोज
सुबह आप
पाएंगे--प्रेम
के पहले दिन
मौजूद हैं, वे गए नहीं।
वे नहीं जा
सकते।
सुबह
रोज सूरज उगता
है। हम सोचते
हैं वही सूरज
उग रहा है जो
कल उगा था।
भूल में मत
पड़ना! विज्ञान
कुछ भी कहे।
विज्ञान झूठ
कहता होगा, रोज नया
सूरज उगता है।
आंख चाहिए
देखने वाली! रोज
नये बादल बनते
हैं। जो बादल
आज बने हैं, इसके पहले
कभी नहीं बने
थे और आगे भी
कभी नहीं
बनेंगे। और जो
सूरज आज सुबह
निकलेगा--जिस
पैटर्न में, जिस
बैकग्राउंड
में, जिस
पृष्ठभूमि
में--वह
बिलकुल नया है,
वह कभी इसके
पहले नहीं हुआ
था। लेकिन आप
इसी खयाल में
हैं कि कल जो
सुबह सूरज उगा
था वही आज भी
उगा है, तो
देखना क्या है?
आप इस खयाल
में हैं कि कल
जो मित्र
मिलने आया था
वही आज भी
मिलने आया है,
तो फर्क
क्या है?
नहीं!
जो कल था वह
गया। जीवन में
कुछ भी ठहरता
नहीं।
प्रतिक्षण सब
भागा जा रहा
है, बदला जा
रहा है।
प्रतिक्षण सब
नया है। लेकिन
व्याख्याएं
सब पुरानी हैं,
इसलिए सब
मामला गड़बड़ हो
गया।
व्याख्याएं
पुरानी हैं, जीवन नया
है।
व्याख्याएं
सीखी हुई हैं,
जीवन बहुत
अनसीखा हुआ है,
रोज नये-नये
रास्ते तय
करता है। नये
रास्ते तय
करता है, जिन
पर वह कभी
नहीं चला। यही
तो खूबी है
जीवन की! यही
खूबी तो उसके
भीतर छिपा हुआ
परमात्मा है!
मृत और जीवित
में यही तो
फर्क है। मैटर,
पदार्थ और
चैतन्य में
यही तो भेद
है। चैतन्य प्रतिक्षण
नया है, सब
नया है। इस
नये का बोध हो
तो जीवन में
रहस्य होगा और
उस बोध से गति
मिलेगी और
जीवन के सत्य को
जाना जा
सकेगा।
लेकिन
यह बोध कहां
है? हम तो सब
मुर्दे की तरह
हैं। इकट्ठा
किए हुए हैं
अपने मन में।
उसी के आधार
पर जीते हैं, उसी के आधार
पर देखते हैं।
मैंने तो अब
तक कोई पुराना
आदमी नहीं
देखा। नाम
पुराने हैं, हर आदमी नया
है। आप खुद ही
सोचिए, आप
यहां से तीन
दिन के बाद
जाएंगे, क्या
आप वही आदमी
होंगे जो आए
थे? नहीं, बहुत कुछ बह
गया होगा, मन
बहुत कुछ नई
दृष्टि में पड़
गया होगा, नये
सोच-विचार हो
गए होंगे।
लेकिन जब आप
लौट कर
पहुंचेंगे तो
आपके जो मित्र,
जिनको आप
अपने गांव में
छोड़ आए हैं, समझेंगे कि
वही आदमी आया।
वही आदमी नहीं
आता। वही
पत्ते थोड़े ही
निकलते हैं हर
पतझड़ के बाद, दूसरे पत्ते
आ गए। लेकिन
लगता है दरख्त
वही है।
पिछली
बार भी हम
माथेरान आए थे, यही दरख्त
खड़े हुए थे।
अब भी यही खड़े
हैं। क्या वही
दरख्त खड़े हुए
हैं? नहीं,
सब पत्ते
बदल गए। सब
बदल गया, सब
पक्षी बदल गए,
गीत बदल गए,
सब बदल गया।
लेकिन हम
सोचते हैं कि
यह तो देखा हुआ
है, वही
जगह है। यह
अंधी दृष्टि
है, खतरनाक
दृष्टि है।
जीवन के प्रति
नये का निरंतर
बोध, जीवन
के प्रति
रहस्य के बोध
को जो व्यक्ति
उपलब्ध न हो, वह आदमी
कितना ही
भजन-पूजन करे,
कितना ही
मंदिर जाए, कितना ही
शास्त्र पढ़े,
सब व्यर्थ
है। सब बिलकुल
व्यर्थ है, इसमें कोई
भी अर्थ नहीं
है।
यह
कैसे होगा? यह रहस्य
कैसे जगेगा? यह पर्त
कैसे टूटे
हमारी आंखों
की जो हमारे
ऊपर बैठी है? हम सब सीखे
हुए बैठे हैं
व्याख्याएं।
गुलाब का फूल
आता है, हम
फौरन कह देते
हैं--बहुत
सुंदर है। हो
सकता है सिर्फ
इसलिए कह रहे
हों कि लोगों
ने कहा कि गुलाब
का फूल सुंदर
है। सुना है
बचपन से, इसलिए
कहने लगे।
उसको सौंदर्य
को आपने जाना?
नहीं जाना।
इसलिए एक
मुल्क में एक
फूल सुंदर समझा
जाता है, दूसरी
कौम में दूसरा
फूल सुंदर
समझा जाता है।
एक मुल्क में
एक तरह की
शक्ल सुंदर
समझी जाती है,
दूसरे
मुल्क में
दूसरी तरह की
शक्ल सुंदर
समझी जाती है।
क्यों?
सुनते
हैं, सीख लेते
हैं। ये भी सब
सीखी हुई
बातें हैं। गुलाब
को देखा और
बोल
दिया--बहुत
सुंदर है। लेकिन
उसके सौंदर्य
को जाना? उसके
सौंदर्य को
जानने के लिए
तो कुछ और
मार्ग खोलने
पड़ेंगे हृदय
के। उस फूल के
पास थोड़ी देर
चुपचाप बैठना
पड़ेगा, बिना
सोचे, बिना
धर्म और विज्ञान
को बीच में
लाए फूल के
निकट होना
पड़ेगा, मैत्री
करनी पड़ेगी, फूल को जगह
देनी होगी। और
जब फूल को आप
अपने हृदय में
जगह देंगे तो
फूल अपने हृदय
में आपको जगह
देगा। तब पता
चलेगा
सौंदर्य का।
उसके पहले कैसे
पता चल सकता
है? उसके
पहले कुछ पता
नहीं चल सकता।
थोथे शब्द हैं
जो हम दोहरा
रहे हैं।
मैं
जहां हूं वहां
कुछ गुलाब के
फूल लगे हैं। कोई
भी आता है वह
कहता है, बड़े
सुंदर हैं! और
जल्दी से उनको
तोड़ लेता है। मैं
कहता हूं, अगर
सुंदर होते तो
तुम तोड़ते? क्योंकि
सौंदर्य को
कौन दुष्ट
तोड़ना चाहेगा?
लेकिन तुम
तोड़ते हो इससे
पता चलता है
कि सुंदर नहीं
हैं। तुमने
सुन लिया है
कि सुंदर हैं।
सुंदर को कोई
तोड़ना चाहेगा?
क्योंकि
तोड़ने का अर्थ
है नष्ट कर
देना, तोड़ने
का अर्थ है
मार डालना।
तुम कहते हो
कि सुंदर है
और जल्दी से
तोड़ते हो, तो
मुझे शक हो
जाता है कि दो
में से कौन सी
बात सच्ची है?
अगर फूल
सुंदर है ऐसा
तुमने जाना, तो तुम उसे
तोड़ना चाहोगे?
तुम उसे
नष्ट करना
चाहोगे? तुम
उसके मालिक
होना चाहोगे?
नहीं, तुम चाहोगे
कि इसे कोई
तोड़ न ले। तुम
चाहोगे कि यह
नष्ट न हो
जाए। तुम इसे
सहारा दोगे कि
यह टिके, इसकी
खुशबू और थोड़ी
देर तक फैले।
और लोग भी जो
करीब से
निकलें वे भी
इसके सौंदर्य
को, आनंद
को उपलब्ध हो
सकें, इसे
जान सकें, इसे
प्रेम कर सकें,
तुम यह
चाहोगे।
लेकिन
नहीं, प्रेम
तो कुछ भी
नहीं है, सौंदर्य
का बोध कुछ भी
नहीं है। तोड़ा
और जल्दी से
खीसे में लगा
लिया।
अगर
कोई बच्चा
सुंदर लगता है
उसकी गर्दन
तोड़ कर खीसे
में लगाइएगा?
नहीं
लेकिन, अगर
बस चले तो आप
यह भी कर सकते
हैं। आपका बस
नहीं चलता
इसलिए। नहीं
तो जो गुलाब
के फूल को तोड़ता
है वह बच्चे
की गर्दन
क्यों न
तोड़ेगा? और
करते भी हैं
जहां तक बस
चलता है। कोई
स्त्री किसी
को सुंदर लगती
है, तो घर
में कैद करके
पत्नी बना
लेता है, मालिक
हो जाता है
उसका। अगर
मालकियत जाने
लगे तो गर्दन
काट देगा उसकी
भी। ओनरशिप
पैदा कर लेता
है। जो चीज
हमें सुंदर
लगती है उसके
हम तत्क्षण
मालिक होना
चाहते हैं।
और
स्मरण रखें, जिसको कोई
चीज सुंदर
लगती हो वह
मालिक नहीं होना
चाहेगा, क्योंकि
मालिक होने से
ज्यादा
कुरूपता और
अग्लीनेस कुछ
भी नहीं है।
एक फूल का भी
मालिक होना
अत्यंत अग्ली
एक्ट है, कुरूप
कृत्य है।
मालिक होना? प्रेम करना
समझ में आता
है, मालिक
होना कैसे समझ
में आता है!
लेकिन
यह हमारी
स्थिति है!
लेकिन हम कहते
हैं कि फूल
बहुत सुंदर
है। दोहराते
हैं शब्द सुने
हुए, याद किए
हुए। और याद
किए हुए शब्द
हमेशा गड़बड़ हो
जाते हैं, जीवन
से उनका कोई
संबंध, संपर्क
नहीं रह जाता।
जीवन आगे बढ़
जाता है, शब्द
पीछे के रह
जाते हैं।
उनको हम
बिठाते हैं, सब गड़बड़
होती है। जीवन
में जो
कनफ्यूजन है,
जीवन में जो
उलझन है, जीवन
में जो
द्वंद्व है, जीवन में जो
चिंता है, जो
एंग्जाइटी है,
जीवन में जो
समस्याएं ही
समस्याएं हैं
और कोई समाधान
नहीं, उसका
कारण है कि
हमने कुछ
चीजें पहले से
ही तय कर रखी
हैं जीवन को
बिना जाने, बिना देखे, बिना
पहचाने। जीवन
को बिना
परिचित हुए, बिना अनुभव
किए कुछ हमने
तय कर रखा है, उसी को जीवन
पर ठोंकते
रहते हैं।
जैसे कोई दर्जी
हो, कपड़े
पहले बना ले, फिर आदमी का
नाप करे, और
फिर आदमी के
हाथ लंबे हों
तो हाथ काट दे,
पैर छोटे
हों तो खींच
कर बड़ा कर दे, ऐसी हमारी
व्यवस्था है।
व्याख्याएं
पहले हैं और
जीवन पीछे है, व्याख्याओं
को उसके ऊपर
बिठाते हैं, इसलिए जीवन
कुरूप हो जाता
है, अपंग
हो जाता है और
हम हमेशा दूर
रह जाते हैं जीवन
से। उस धारा
में नहीं बह
पाते, जीवन
के साथ एक
नहीं हो पाते।
जीवन के और
हमारे
प्राणों का
संगीत जुड़
नहीं पाता, एक हार्मनी
पैदा नहीं हो
पाती। हम दूर
खड़े रहते हैं,
जीवन दूर
चला जाता है।
फिर हम सत्य
को जानना चाहते
हैं, परमात्मा
को जानना
चाहते हैं। यह
कैसे होगा?
एक
गांव में एक
वृद्ध आदमी
था। वह बहुत
बूढ़ा हो गया
था और बहरा हो
गया था। मेरे
देखे तो बहुत लोग
बूढ़े होने के
पहले ही बहरे
हो जाते हैं।
और बहुत लोग
तो बहरे पैदा
ही होते हैं।
कान वाले लोग
तो कम होते
हैं। लेकिन वह
बूढ़ा था और
उसके कान
धीरे-धीरे
खराब हो गए
थे। फिर उसके
पड़ोस में एक
युवा बीमार
पड़ा और खबर आई
कि शायद वह मर जाए, न बच सके। तो
लोगों ने उस
बूढ़े को कहा
कि तुम जाओ, दो शब्द
सहानुभूति के,
संवेदना के
उसे कहोगे तो
उसे सुख होगा।
तो उसने कहा, लेकिन मैं
बहरा हूं और
बीमार आदमी
इतने जोर से
नहीं बोल
पाएगा कि मैं
समझ सकूं। फिर
भी तुम कहते
हो तो मैं
जाऊंगा।
तो वह
गया। लेकिन
बहरा आदमी
क्या करता, उसने सोच
लिया पहले से
कि क्या-क्या
बात करूंगा और
यह भी कल्पना
कर ली कि वह
क्या-क्या
उत्तर देगा।
अनुमान कर
लिया। उसके
उत्तर मैं दे
दूंगा। तो
उसने सोचा, जाते से ही
मैं पूछूंगा
कि कहो कैसे
हो? तो वह
कहेगा, ठीक
है, सब ठीक
है। सभी लोग
ऐसा कहते हैं।
मरता हुआ आदमी
भी यही कहता
है कि सब ठीक
है। कैसा झूठ
है दुनिया
में! वह भी
कहता है सब
ठीक है। सब
बिलकुल ठीक
नहीं है, लेकिन
सभी कह रहे
हैं कि सब ठीक
है।
उसने
सोचा, वह तो
कहेगा ही कि
सब ठीक है। तो
मैं कहूंगा कि
परमात्मा की
कृपा है, बहुत
अच्छा है, बहुत
अच्छा है। फिर
मैं उससे
पूछूंगा कि
किस चिकित्सक
का इलाज चल
रहा है? तो
वह किसी न
किसी डाक्टर
का तो नाम
लेगा ही। तो
मैं कहूंगा, वह तो बहुत
ही अच्छा
डाक्टर है।
मेरे घर में भी
उसके चरण पड़े
तब से
स्वास्थ्य ही
स्वास्थ्य है।
उसके तो पैर
जहां पड़ जाएं
वहीं
स्वास्थ्य है।
वह तो बड़ा
जीवनदायी है।
उससे मैं यह
कहूंगा। ऐसा
वह तय करके
वहां गया।
उसने
जाकर पूछा कि
कहो ठीक तो हो?
उस
आदमी ने कहा, कहां, ठीक
कहां हूं, मरने
के करीब बैठा
हूं।
वह
बोला, बहुत
अच्छा है, बहुत
अच्छा है, भगवान
की कृपा है।
वह
आदमी तो बहुत
घबड़ाया, उसने
यह आशा न की थी
कि...यह कैसा
आदमी है! उसने
कहा, मैं
मरने के करीब
हूं, यह
कहता है बहुत
अच्छा है। यह
किस शत्रुता
का बदला ले रहा
है? कब
मैंने इससे
कुछ बुरा कहा
था जो यह बदला
लेने आया है
मरते वक्त!
ऐसा कोई किसी
से कहता है!
फिर
उसने पूछा, किस
चिकित्सक का
इलाज चल रहा
है?
उसने
गुस्से में
कहा कि मौत का!
यमदूत
चिकित्सा कर
रहे हैं।
उसने
कहा, वे तो
बहुत ही भले
चिकित्सक
हैं। जहां
उनके पैर पड़
जाएं वहीं
जीवन ही जीवन
है, स्वास्थ्य
ही स्वास्थ्य
है। उनके
हाथों में तुम
बिलकुल
सुरक्षित हो,
घबड़ाना मत।
युवक
तो घबड़ाया
होगा, हैरान
हुआ होगा!
लेकिन
पूरे जीवन में
ऐसा हो रहा
है। हम बहरे हैं, हम अंधे
हैं। शास्त्रों
ने, विज्ञान
ने, व्याख्याओं
ने सब कान, आंखें,
सब बंद कर
दी हैं।
जिंदगी से कुछ
पूछते हैं, उत्तर हमें
सुनाई नहीं
पड़ता। उत्तर
जो हम देते
हैं वह हमारा
अपना तैयार
किया हुआ
हजारों साल का
उत्तर है, वह
हम दे देते
हैं। तब
जिंदगी में
हमारे उत्तर
का कोई मेल नहीं
होता। जिंदगी
एक तरफ जाती
है, हम
दूसरी तरफ
जाते हैं। और
तब जीवन अगर
दुख और विषाद
हो जाता हो तो
आश्चर्य नहीं
है।
जीवन
से जुड़ना
जरूरी है।
सारी दीवालें
तोड़ देनी
जरूरी हैं बीच
की ताकि जीवन
से हम जुड़
जाएं। यह कैसे
होगा?
तो
पहला चरण
इसलिए मैंने
कहा: अज्ञान का
बोध। दूसरा
चरण मैं आपसे
कहता हूं:
रहस्य उन्मुखता, रहस्य की
तरफ
उत्प्रेरणा।
सदा जहां
रहस्य हो, वहां
व्याख्याएं
हटा देना और
डूबने की
कोशिश करना।
एक दरख्त के
पास कभी बैठ
कर देखना।
दरख्त उतना ही
नहीं है जितना
दिखाई पड़ता
है। वह लकड़ी
नहीं है जिसका
फर्नीचर बनता
है बस, उतनी
बात नहीं है।
एक दरख्त दिखा
और हमने सोचा
कि अच्छा
फर्नीचर बन
सकता है। उतना
नहीं है। दरख्त
एक जीवित
फिनॉमिना है,
एक घटना है,
एक जीवन की
अदभुत कृति है,
एक सृजन है,
प्रभु का, परमात्मा का
अदभुत रूप है,
कुछ प्रकट
हो रहा है
वहां, कुछ
बन रहा है।
फूल उतने
ही नहीं हैं
कि खरीदे और
किसी को भेंट
कर दिए या
माला बना दी
और किसी के
गले में डाल
दी। फूल उससे
बहुत ज्यादा
हैं।
पत्ते-पत्ते
में कोई कथा
है, जो बहुत
अदभुत है।
छोटा-छोटा
पत्ता भी कोई
कहानी कह रहा
है, जो
अदभुत है।
लेकिन सुनने
वाले कान
चाहिए, देखने
वाली आंखें
चाहिए। एक-एक
कंकड़ में कुछ
लिखा है। जो वेद
में और कुरान
में नहीं है
वह एक-एक कंकड़
में है। जो
गीता में और
किसी
महापुरुष के
वचनों में
नहीं है वह
एक-एक पत्ते
में है। लेकिन
देखने वाली
आंख चाहिए, खुले हुए
कान चाहिए, खुला हुआ
हृदय चाहिए।
तो एक छोटे से
पत्ते का कंपन
कहीं ले
जाएगा--किन्हीं
दूर यात्राओं पर।
पानी का कूदता
हुआ एक कतरा
किसी रहस्य को
खोल देगा।
आकाश में उठा
हुआ कोई तारा
कुछ कह जाएगा
जो अबूझ है।
लेकिन
खुली हुई आंख!
आंख तो बंद
है। कैसे यह
खुलेगी?
थोड़ी
कोशिश करनी
पड़ेगी कि यह
खुल सके, क्योंकि
सैकड़ों साल
इसको बंद करने
में लगे हैं, हजारों साल
ने इसको बंद
किया है।
धीरे-धीरे मनुष्य
प्रकृति से
टूटता गया है,
टूटता गया
है। अकेला रह
गया है, आइसोलेटेड
हो गया है। जब
कि उसकी जड़ें
हैं प्रकृति
में, जब कि
वहीं से कोई
मार्ग हो सकता
है। वह उससे टूटता
गया, दूर
हटता गया।
हमारा कोई
संबंध नहीं है,
हम
मनुष्य-निर्मित
दुनिया में रह
रहे हैं, परमात्मा
के संसार से
हमारा कोई
संबंध नहीं है।
मनुष्य ने एक
दुनिया बना ली
है अपनी, एक
एनक्लोजर बना
लिया है, एक
घर बना लिया
है, एक
दीवाल बना ली
है, उसके
भीतर है।
मनुष्य-निर्मित
दुनिया है इसलिए
कठिनाई हो गई
है।
एक बड़ी
दुनिया है जो
चारों तरफ
फैली है। जब
मनुष्य नहीं
था तब भी थी, हो सकता है
मनुष्य न रह
जाए तब भी
होगी। और कोई फर्क
नहीं
पड़ेगा--पक्षी
ऐसे ही गीत
गाएंगे और पौधे
ऐसे ही
निकलेंगे, चांद
ऐसे ही रोशनी
देगा, सूरज
ऐसे ही
घूमेगा--आदमी
नहीं भी हो
सकता है। तो
भी यह सब ऐसा
ही था और ऐसा
ही होगा। और
यह सूरज और यह
पृथ्वी पर सब
समाप्त नहीं है,
ऐसे हजारों
और लाखों सूरज
हैं, ऐसे
करोड़ों तारे
हैं। जहां तक
मनुष्य की दूर
खोज जाती है, उसके पार भी
बहुत कुछ है।
असीम है सब, अनंत है सब।
इस
असीम और इस
अनंत के प्रति
थोड़े हृदय को
खोलना जरूरी
है। उसके लिए
जीवन में कुछ
देखने के, सुनने के, जागने के
प्रयोग करने
जरूरी हैं।
कभी किसी दरख्त
को प्रेम करें,
उसके पास
रुकें। और आप
हैरान हो
जाएंगे, दरख्त
में भी आपको
कुछ चैतन्य के
आभास मिलने शुरू
होंगे।
एक
वैज्ञानिक ने
एक अदभुत काम
किया इधर।
कैक्टस का एक
पौधा, जिसमें
कांटे ही
कांटे होते
हैं और जिसमें
कभी बिना
कांटे की कोई
शाखा नहीं
होती, एक
अमरीकन
वैज्ञानिक उस
पौधे को बहुत
प्रेम करता
रहा। लोगों ने
तो समझा कि
पागल है, क्योंकि
पौधे को प्रेम
करना! अरे
आदमी को ही प्रेम
करने वाले को
बाकी लोग पागल
समझते हैं, तो पौधे को
प्रेम करने
वाले को तो
कौन समझदार समझेगा!
उसके घर के
लोगों ने भी
समझा कि दिमाग
खराब हो गया
है।
वह
सुबह से उठता
तो वह पौधा ही
पौधा था। उसी
को प्रेम करता, उससे बातें
भी करता। तब
तो और पागलपन
हो गया। पौधे
से बातें!
लेकिन वह उससे
बातें भी
करता। और उस
पौधे से वह
निरंतर कहता
रहा कि कोई
मेरा विश्वास
नहीं करेगा, कोई मेरी
सुनता नहीं, कोई मेरी
मानता नहीं, मुझे तो
लगता है कि
तुममें भी
जीवन है और
अदभुत जीवन
है। तुम भी
शायद सुनते हो,
तुम भी शायद
समझते हो।
शायद हमारी
भाषाएं अलग हैं,
शायद हमारे
ढंग अलग हैं।
पता नहीं क्या
है! लेकिन तुम्हारे
भीतर भी कुछ
है। मैं कैसे
उससे संबंधित
हो जाऊं? क्या
तुम मेरी
बातों को
सुनते हो या
मेरे हृदय को
अनुभव करते हो?
या मेरे
हृदय में
तुम्हारे
प्रति जो
प्रेम बहता है
उसकी तरंगें
तुम तक
पहुंचती हैं?
लेकिन मुझे
कैसे पता
चलेगा? क्या
तुम मेरे लिए
कुछ खबर दोगे?
और उसने कहा,
खबर का मैं
एक सूत्र
तुम्हें
बताता हूं--यह
वह सात साल तक
निरंतर उस
पौधे से कहता
रहा--कि अगर तुम
तक मेरा प्रेम
पहुंचता हो तो
तुममें एक ऐसी
शाखा निकल आए
जिसमें कांटे
न हों, तो
मैं समझ
जाऊंगा।
और सात
साल बाद एक
शाखा निकल आई
जिसमें कांटे
नहीं थे।
अब
क्या समझिएगा? सारे अमरीका
में परेशानी
खड़ी हो गई। उस
पौधे में तो
कभी बिना
कांटे की कोई
शाखा होती
नहीं। वह आदमी
पागल साबित
नहीं हुआ।
उसके प्रेम की
खबरें वहां तक
पहुंचीं, वहां
कोई है जिसने
उसको सुना, उत्तर भी
आया।
ये
पौधे ही नहीं
हैं जो पास
खड़े हैं। ये
पक्षी ही नहीं
हैं जो
यहां-वहां घूम
रहे हैं। इनके
भीतर भी जीवन
ने अनूठे
रास्ते पकड़े
हैं, इनके
भीतर भी जीवन
प्रकट हुआ है,
इनके भीतर
भी जीवन ने
रूप लिया है, इनके भीतर
भी कोई केंद्र
है जहां जीवन
मौजूद है--वही
जीवन जो हमारे
भीतर मौजूद
है। इनसे
कम्युनिकेशन
हो सकता है, इनसे संबंध
हो सकता है।
इन तक प्रेम
पहुंचाया जा
सकता है, इनसे
प्रेम पाया जा
सकता है। यह
कठिन नहीं है।
लेकिन हमारे
द्वार बंद हैं
इसलिए कुछ पता
नहीं चलता कि
जीवन में क्या
है। परमात्मा
चारों तरफ है
और हम पूछते
हैं कि ईश्वर
कहां है? और
हम पूछते हैं
कि किस मंदिर
में जाएं, मस्जिद
में जाएं कि
गिरजाघर में
जाएं?
जो भी
यह पूछता है
कि ईश्वर को
खोजने कहां
जाएं, वह
जरूर अंधा है;
क्योंकि
जिसको खयाल
आएगा थोड़ा सा
भी, थोड़ा
सा भी दिखाई
पड़ेगा चारों
तरफ, वह
पाएगा--ईश्वर
तो यहां है।
यह जो चारों
तरफ फैली हुई
प्रकृति है, यह परमात्मा
का घर है। ये
जो चारों तरफ
रूप दिखाई पड़
रहे हैं, इन
रूपों से मत
भटक जाना, इनके
भीतर कुछ है
जो अरूप है।
उससे जुड़ना, उससे संपर्क
साधना, उसके
पास जाना, उसे
प्रेम से
पुकारना। कोई
संबंध होगा, कोई प्रेम
फलित होगा। और
इसी जीवन में
और चारों तरफ
फैले इसी जगत
में, इसी
विस्तार में
हमारे प्राण
संयुक्त
होंगे तो
ज्ञात होगा कि
क्या है। तो
ज्ञात होगा कि
क्या है, तो
अनुभव में
आएगा, प्रतीति
होगी कि सत्य
क्या है, ईश्वर
क्या है, आत्मा
क्या है। जब
तक यह नहीं तब
तक सब व्यर्थ
है। और इसके
लिए तो मन के
दर्पण को खूब
साफ करना पड़े,
धूल हटानी
पड़े, चित्त
से सारी
व्याख्याएं
हटानी पड़ें।
छोटे बच्चे
जैसा हो जाना
पड़े, जो
बिलकुल
निर्दोष
आंखों से
दुनिया को
देखता है।
और तब, तब ठीक यहीं,
इसी जगह कुछ
होगा। उसके
लिए इशारे किए
जा सकते हैं, उसके लिए
कहा नहीं जा
सकता कि क्या
होगा। उसकी हम
कल बात करेंगे
कि क्या हो
सकता है और हम
क्या करें कि
जिस भांति इस
प्रकृति से
टूटे हुए
संबंध जुड़
जाएं। मनुष्य
अपरूटेड हो
गया है, उसकी
जड़ें उखड़ गई
हैं। इसलिए तो
सारी उदासी है।
कोई पौधा इतना
उदास नहीं, कोई पक्षी
इतना उदास
नहीं। मनुष्य
के पास सब कुछ
है और उदास है!
क्या हो गया
है? जरूर
प्रकृति से
कहीं हमारी
जड़ें ढीली हो
गई हैं। कहीं
रस के स्रोत
से हम टूट गए
हैं, दूर
हो गए हैं।
इसलिए सब
कुम्हलाया जा
रहा है, सब
सूखा जा रहा
है। कांटे ही
कांटे लगते
हैं, कोई
फूल दिखता
नहीं, कोई
फूल निकलता
नहीं।
ये
जड़ें वापस
जोड़नी जरूरी
हैं। साधना का
कोई और अर्थ
नहीं है, साधना
का अर्थ है
अपनी रूट्स को
वापस, अपनी
जड़ों को उनके
मूलस्रोत तक
वापस पहुंचा देना,
जहां से वे
जल पा सकें, जहां से वे
प्राण पा सकें,
जहां से वे
जीवन के मूल
केंद्र से
संबंधित हो
सकें।
लेकिन
परमात्मा का
जब भी खयाल
उठता है तो हम
आकाश की तरफ
हाथ जोड़ लेते
हैं।
परमात्मा का
जब भी खयाल
उठे तो जड़ों
का विचार करना, सिर की तरफ
देखने से कोई
फायदा नहीं
है। नीचे की
तरफ, जहां
से जीवन जुड़ा
है, वहां
से।
यह
रहस्य का बोध!
अज्ञान का बोध, मैंने कल
आपसे कहा।
रहस्य का बोध!
जीवन में एक
काव्य होना
चाहिए, जीवन
में एक संगीत
होना चाहिए, सौंदर्य का
बोध होना
चाहिए, प्रेम
का बोध होना
चाहिए। जुड़ना
चाहिए आसपास।
प्रेम का और
क्या अर्थ है?
अर्थ है
जुड़ना।
इसलिए
तो कहा कि
प्रेम से
परमात्मा मिल
सकता है। उसका
क्या मतलब है? उसका मतलब
यह नहीं है कि
प्रेम-प्रेम,
प्रेम-प्रेम
जपेंगे तो
परमात्मा मिल
जाएगा। प्रेम
का अर्थ है:
जुड़ना। अकेला
प्रेम है जो जोड़ता
है, और सब
तोड़ता है।
प्रेम
को फैलाना
होगा, चारों
तरफ फैलाना
होगा। कभी
विचार करें, कभी देखें, अभी दो दिन
यहां हैं, रात
जब तारे आकाश
में हों तो
चले जाएं
एकांत में, जरा आंखें
साफ करके पहली
दफा तारों को
देखें। सब हटा
दें अपने मन
को और चुपचाप
तारों के नीचे
बैठे रह जाएं।
जाने दें हृदय
के प्रेम को
तारों तक। और
प्रेम की कोई
पुकार अनसुनी
नहीं आती, प्रेम
की कोई पुकार
बिना
प्रत्युत्तर
के नहीं लौटती,
उत्तर लाती
है साथ। यह
असंभव है कि
प्रेम खाली
लौट आए, दुगना
प्रेम लेकर
लौटता है।
तो
तारों को जब
प्रेम के गीत
से भर कर आप
देखेंगे तो
वहां से भी
कुछ आएगा। और
जब वृक्षों के
पास प्रेम से
बैठेंगे तो
वहां से भी
कुछ आएगा। पक्षी
भी कुछ देंगे।
सब तरफ से कुछ
मिलेगा। जो
बाहर की तरफ
प्रेम फेंकता
है उसके हृदय
की तरफ प्रेम
के अनंत-अनंत
स्रोत आने
शुरू हो जाते
हैं। और तब
उसके भीतर एक
ऊर्जा होगी, एक जागरण
होगा, एक
होश आएगा, वह
मिस्टीरियस
उसको पकड़ लेगा,
वह जो
रहस्यपूर्ण
है उसको पकड़
लेगा। तब वह
व्यक्ति नहीं
रह जाएगा, तब
वह समष्टि का
धीरे-धीरे एक
अंग होने
लगेगा। तब वह
इकाई नहीं रह
जाएगा, वह
सबका एक
हिस्सा होने
लगेगा।
धीरे-धीरे उसका
व्यक्ति
मिटता जाएगा
और परमात्मा
प्रकट होता
चला जाएगा।
जो
व्यक्ति
रहस्य से
जितना दूर है
उतना अहंकार
से भर जाता
है। जो
व्यक्ति
जितना अहंकार
से भर जाता है
उतना ही जीवन
के रहस्य से
दूर होता चला
जाता है।
अहंकार का
अर्थ है: मैं
हूं और मेरा
किसी से कोई
संबंध नहीं
है। मैं हूं
और मेरा किसी
से कोई प्रेम
नहीं है। मैं
सेवा ले सकता
हूं, शोषण कर
सकता हूं, लेकिन
मेरा कोई
संबंध नहीं
है। मेरे
प्राण अलग और
दूर हैं।
इसलिए अहंकार
ऊपर उठना
चाहता है और
अकेला होना
चाहता है।
जितना आदमी
ऊपर उठता जाता
है उतना अकेला
होता जाता है।
जितना ज्यादा
धन उसके पास
होता जाता है
उतना वह टूटता
जाता है
दूसरों से, उसके भवन
में बंद होता
चला जाता है।
वह किसी देश
का राजा हो
जाता है, राष्ट्रपति
हो जाता है, सबसे टूट
जाता है, अलग
खड़ा हो जाता
है।
मैं
अलग होना
चाहता है; प्रेम जुड़ना
चाहता है। जो
मैं के रास्ते
पर जाएगा वह
सबसे टूट
जाएगा और उसकी
जड़ें
छिन्न-भिन्न
हो जाएंगी। वह
फूल तोड़ सकता
है, फूल को
जान नहीं
सकता। वह किसी
की गर्दन दबा
सकता है, किसी
को प्रेम नहीं
कर सकता।
हिंदुस्तान
से तैमूरलंग
जब वापस लौटा, एक गांव में
ठहरा। उसके
स्वागत में
आसपास की वेश्याएं
नाचने के लिए
आईं, रात
को उसके दरबार
में वे नाचीं।
जब वे लौटने लगीं,
अंधेरी रात
थी। उसने उनके
सौंदर्य की
खूब प्रशंसा
की और उनके
नृत्यों और
उनके गीतों का
बहुत आनंद
लिया। और उन्हें
बहुत भेंटें
दीं और कहा कि
मैंने ऐसी
सुंदर
स्त्रियां
नहीं देखीं, ऐसे गीत
नहीं देखे, ऐसे नृत्य
नहीं देखे।
मैं आनंदित
हुआ। और उसने
उन्हें
बहुत-बहुत
भेंटें दीं।
लेकिन रात अंधेरी
थी, अमावस
की थी। उन
वेश्याओं ने
कहा, रात
अंधेरी है, हमें दूर तक
जाना है। तो
उसने अपने
सिपाहियों को
कहा कि जाओ और
बीच के सब
गांवों में आग
लगा दो ताकि
रोशनी हो जाए।
क्योंकि कोई
यह न कहे बाद
में कि
तैमूरलंग के
पास नाचने आई
हुई वेश्याएं
अंधेरे में
वापस लौटीं।
उसने रात में
भी दिन करवा
दिया। आसपास
के दस-बारह
गांवों में आग
लगा दी गई।
सोए हुए लोग
वहां जल गए और
वे वेश्याएं
प्रकाश में लौटीं।
इसने
नृत्य देखा
होगा? इसने
संगीत सुना
होगा? इसने
उनके सौंदर्य
को अनुभव किया
होगा? कैसे
संभव है? यह
कैसे संभव है?
तो
चित्त पर
निरंतर विचार
करना जरूरी है, चित्त के
प्रति सजग
होना जरूरी है
कि मैं जो कर
रहा हूं कहीं
वह मेरे भीतर
क्रूरता, घृणा,
हिंसा, इन
सबको तो
बलिष्ठ नहीं
करता जाता? कहीं मेरे
भीतर अहंकार
को तो पुष्ट
नहीं करता जाता?
एक तरफ
मैं यह करता
रहूं जीवन भर
और फिर अचानक जब
मैं इससे घबड़ा
जाऊं, अहंकार
से पीड़ा पाऊं,
अशांति
पाऊं, दुख
से भर जाऊं, तो मैं कहूं
कि मुझे
परमात्मा
चाहिए, मुझे
ईश्वर चाहिए,
मुझे मोक्ष
चाहिए, तो
कैसे होगा? यह अहंकार
को समझना होगा,
तोड़ना होगा,
मिटाना
होगा। अहंकार
मरे तो ही कुछ
हो सकता है।
अहंकार
के मरने के
मैंने दो
सूत्र आपसे
कहे, तीसरे सूत्र
की मैं कल
चर्चा
करूंगा।
ज्ञान जाने
दें, रहस्य
आने दें। ये
दो बातें
मैंने कहीं, कल तीसरी
बात आपसे
कहूंगा। इस
संबंध में कुछ
प्रश्न होंगे
तो वह दोपहर
और सांझ बात
हो जाएगी।
अब हम
सुबह के ध्यान
के लिए
बैठेंगे। आज
की बात के बाद
सुबह का ध्यान
और भी आसान हो
जाना चाहिए।
आज की बात के
बाद सुबह के
ध्यान में और
अर्थ आ जाना
चाहिए। तो अब
मैं कुछ और
नहीं कहूंगा, कल मैंने
सुबह के ध्यान
के बाबत आपसे
कहा है।
हम
सब दूर-दूर हट
जाएंगे।
दरख्तों
के नीचे चले
जाएं या कहीं
भी चले जाएं, दूर हट
जाएं।
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