प्रश्नसार:
1—प्रश्न
का ध्वनि मुद्रण
नहीं।
असुविधा
न मालूम हो, बस
इतना ख्याल रखें।
फिर वह सबके लिए
अलग—अलग समय होगा।
आराम रहे, उसमें
तकलीफ न मालूम
हो।
प्रश्न:
पीठ झुक जाए तो?
कोई
हर्जा नहीं है
यूं तकलीफ न हो
आपको बस इस तरह
से,
कोई तकलीफ की
बात नहीं है।
बात नहीं है।
ध्वनि—
मुद्रण स्पष्ट
नहीं।)
सिर्फ
गहरा नहीं लेना
है,
धीमा और गहरा।
प्रश्न
: श्वास लेते वक्त
आधार…….
चित्त
की तो आदत है कि
उसे कुछ न कुछ आधार
चाहिए। अगर कोई
भी आधार न हो
तो चित्त की मृत्यु हो जाएगी। उसी मृत्यु में आपको समाधि का अनुभव होगा। जब चित्त बिलकुल मर जाएगा, बिलकुल शून्य होगा, तब आपको आत्मा का पता चलेगा। तो चित्त अपने जीवन के लिए भोजन चाहता है। वह आधार माँगता है, कोई आधार हो। राम—राम जपते रहें, तो चित्त को बड़ी प्रसन्नता है, कोई दिक्कत नहीं है। कोई भजन गाते रहें, तो चित्त को कोई कठिनाई नहीं है।
तो चित्त की मृत्यु हो जाएगी। उसी मृत्यु में आपको समाधि का अनुभव होगा। जब चित्त बिलकुल मर जाएगा, बिलकुल शून्य होगा, तब आपको आत्मा का पता चलेगा। तो चित्त अपने जीवन के लिए भोजन चाहता है। वह आधार माँगता है, कोई आधार हो। राम—राम जपते रहें, तो चित्त को बड़ी प्रसन्नता है, कोई दिक्कत नहीं है। कोई भजन गाते रहें, तो चित्त को कोई कठिनाई नहीं है।
जो
चित्त, कोई न कोई
उसे भोजन मिल जाए,
तो वह बना रहेगा।
और वह बना रहेगा
तो आत्मा का अनुभव
नहीं होगा। तो
उससे भोजन छीनना
है, उसे निराधार
करना है, वही
हमारी
साधना है। अब हम ही उसको आधार दे दें, तो चित्त तो बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेगा। एक आधार दे दें तो जरा कम प्रसन्नता से, बहुत आधार दे दें तो बहुत प्रसन्नता से। चंचलता में बहुत प्रसन्न रहता है। एकाग्रता में उतना प्रसन्न नहीं रहता, क्योंकि हम उसके कई आधार छीन कर एक दे रहे हैं। ध्यान में और भी दिक्कत उसको मालूम होती है, क्योंकि हम आधार ही छीन रहे हैं।
साधना है। अब हम ही उसको आधार दे दें, तो चित्त तो बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर लेगा। एक आधार दे दें तो जरा कम प्रसन्नता से, बहुत आधार दे दें तो बहुत प्रसन्नता से। चंचलता में बहुत प्रसन्न रहता है। एकाग्रता में उतना प्रसन्न नहीं रहता, क्योंकि हम उसके कई आधार छीन कर एक दे रहे हैं। ध्यान में और भी दिक्कत उसको मालूम होती है, क्योंकि हम आधार ही छीन रहे हैं।
यह
आप बात समझे न?
वह
बिना आधार के रह
नहीं सकेगा। और
उसे अपने मरने
का डर लगता है।
और वह बिलकुल स्वाभाविक
है। और यही तपश्चर्या
है कि जब वह आधार
मांगे, तब हम साहस
करके उसे आधार
न दें। वह आधार
मांगेगा। हम उसे
आधार न दें।
तो
यह हो सकता है कि
शुरू—शुरू में
हमारे बिना दिए
भी वह आधार पकड़
ले। लेकिन वे आधार
देर तक नहीं टिकेंगे।
जो आधार हम उसे
देते हैं वह तो
टिक सकता है। जैसे
हमने ही अगर उसको
राम—राम जपना सिखाया, तब
तो वह टिकेगा।
हमने ही अरिहंत—अरिहंत
जपना सिखाया,
तब तो वह टिकेगा।
क्योंकि हम ही
उसे दे रहे हैं।
और हम चाह रहे हैं
कि वह टिके। लेकिन
समझ लें कि अगर
उसने अपने आप आधार
खोजने की कोशिश
भी की—जैसे बाहर
आवाजें आती हैं,
उनको ही उसने
आधार बना लिया—
और आप आधार देने
को उत्सुक नहीं
हैं, बल्कि
आप उसे निराधार
करने में उत्सुक
हैं, तो यह आधार
थोड़ी— बहुत देर
से ज्यादा टिकेगा
नहीं, यह आधार
चला जाएगा अपने
आप।
हमें
आधार नहीं देना
है। चित्त आधार
खोजता हो, तो
भी हम जो प्रयोग
कर रहे हैं, हमें वही प्रयोग
करना है। उसके
आधार को खोजने
में सहयोगी नहीं
होना है। तो वह
अपने आप निराधार
हो जाएगा। निराधार
हो जाएगा, शून्य
हो जाएगा। जैसे
ही उसके आधार गए
कि वह मिट जाएगा।
जिस क्षण चित्त
बिलकुल ही नहीं
होता है, वह
जो नो—माइंड की
स्थिति होती है,
जब कोई चित्त
नहीं रह गया, उस वक्त आप अपने
को जानते हैं।
तो
अपने को जानना
हो तो चित्त को
दूसरी चीजें, जिन्हें
वह जानता है, उनसे मुक्त कर
देना जरूरी है। क्योंकि चित्त जो है अगर वह दूसरी चीजों को जान रहा है, तो स्वयं को आप नहीं जान सकेंगे। मैं अगर आप सबको देख रहा हूं तो फिर मैं अपने को नहीं देख सकूंगा।
देना जरूरी है। क्योंकि चित्त जो है अगर वह दूसरी चीजों को जान रहा है, तो स्वयं को आप नहीं जान सकेंगे। मैं अगर आप सबको देख रहा हूं तो फिर मैं अपने को नहीं देख सकूंगा।
एक
घड़ी ऐसी आनी चाहिए
कि मुझे आप कोई
भी नहीं दिखाई
पड़ रहे हैं। जब
मुझे कोई भी नहीं
दिखाई पड़ रहा है, तब
मैं किसको देखूंगा?
देखने की शक्ति
तो मेरी मौजूद
रहेगी। देखने की
शक्ति आप में नहीं
है मेरी। आप मेरे
दृश्य हैं, आप मेरे देखने
की शक्ति नहीं
हैं; आप मेरे
दर्शन नहीं हैं,
मेरे दृश्य हैं।
आप जब समाप्त हो
जाएंगे, मेरे
सामने मौजूद न
होंगे, तब मेरा
दर्शन कहां जाएगा
मेरा दर्शन तो
मेरे भीतर रहेगा,
देखने की शक्ति
तो मेरे पास रहेगी।
वह देखने की शक्ति,
जब देखने को
कुछ भी न होगा,
तब किसको देखेगी?
तब वह देखने
की शक्ति स्वयं
को देखेगी।
आत्म—दर्शन
तब होता है, जब
सब पर—दर्शन से
हम मुक्त हो जाते
हैं। स्वयं का
ज्ञान तब होता
है, जब हम सारे
पर—ज्ञान से शून्य
हो जाते हैं। ध्यान
अपने में तब आता
है, जब हम उसे
सब आधारों से छीन
लेते हैं और निराधार
कर देते हैं।
यह
आप बात समझे न?
इसी
को हम सामायिक
कहते हैं या इसी
को समाधि कहते
हैं। जब हमने सारे
आधार छीन लिए ध्यान
के तो वह कहां जाएगा? हम
उसके एक—एक आधार
छीनते चले जाते
हैं। आखिर में
वह निराधार हो
जाता है। जब निराधार
हो जाता है तो अपने
पर खड़ा होना पड़ता
है। वह स्व—आधार
हो जाता है। निराधार
होना स्व—आधार
हो जाना है। निरालंब
होना स्वावलंब
हो जाना है। तो
हमें उसे निराधार
करना है, निरालंब
करना है, ताकि
वह स्वयं में थिर
हो जाए, अपने
में खड़ा हो जाए।
वह अपने में खड़े
होने का नाम समाधि
है।
और
जब तक आप उसे कोई
आधार देते रहेंगे, वह
दूसरे में खड़ा
रहेगा। आप फिर
स्व—
ज्ञान को उपलब्ध नहीं होंगे।
ज्ञान को उपलब्ध नहीं होंगे।
तो
कोई भगवान का नाम
आपको भगवत्ता तक
नहीं ले जाएगा, वह
नाम चित्त का ही
एक रूप है। वह भी
एक शब्द है। कोई
मंत्र आपको आत्मज्ञान
तक नहीं ले जाएगा।
वह भी चित्त की
ही एक प्रक्रिया
है। वह भी एक विचार
है। जब आप निर्विचार
होंगे, कोई
भी विचार आपके
भीतर नहीं होगा,
तब आप कहां होंगे?
इसे थोड़ा सोचिए।
जब आपके भीतर कोई
विचार न होगा,
तो आप कहां होंगे?
आप मिट तो न जाएंगे।
उस निर्विचार क्षण
में आप कहां होंगे?
आप अपने में
होंगे। उस अपने
में होने का नाम
सामायिक है। उस
अपने में होने
का नाम समाधि है।
तो
मैं कोई आधार आपको
देने को नहीं कह
रहा। आपने प्रयोग
किए होंगे, उनमें
आधार
रहे होंगे। और जिन प्रयोगों में भी आधार हों...
रहे होंगे। और जिन प्रयोगों में भी आधार हों...
(प्रश्न
का ध्वनि—मुद्रण
स्पष्ट नहीं!?
कुंडलिनी
शक्ति कहा है, कुंडलिनी
इसलिए कि वह अपने
में ही कुंडल मारे
सोई हुई है। वह
कोई सर्प नहीं
है, लेकिन जैसे
सर्प सोया रहता
है अपने में कुंडल
मार कर, वैसे
हमारी आत्म—शक्ति
अपने में ही छिपी
हुई सोई हुई है।
वह शक्ति जाग्रत
हो जाती है।
हम
सारे लोग सोए हुए
लोग हैं। चलते
हैं तो सोए हुए
चलते हैं। हम चल
रहे हैं रास्ते
पर और हमारे भीतर
अनेक विचार चल
रहे हैं, हम उनमें
ही सोए हुए हैं।
हमें वे विचार
घेरे हुए हैं।
हम रास्ते पर चल
जरूर रहे हैं,
लेकिन हम लगभग
सोए हुए चल रहे
हैं। हम अपने कपड़े
पहन रहे हैं, लेकिन सोए हुए
पहन रहे हैं। हम
खाना खा रहे हैं,
लेकिन सोए हुए
खा रहे हैं। सोए
हुए होने का अर्थ
है. हमारे भीतर
उस समय और कुछ भी
चल रहा है, जो
हमको घेरे हुए
है।
आपने
कभी अनुभव किया
होगा आप रास्ते
पर चले जा रहे हैं, कोई
करीब से निकल गया,
आपने देखा ही
नहीं। आपकी आंख
खुली हुई है, फिर आपने देखा
कैसे नहीं? आपने कभी देखा
होगा पढ़ते समय.
आप पूरा पन्ना
पढ़ गए, और बाद
में आपको याद आया
कि आपने कुछ भी
नहीं पढ़ा। यह सोया
हुआ पढ़ना था। आप
पढ़ जरूर रहे थे,
आंख देख रही
थी, लेकिन चित्त
कहीं और संलग्न
था, इसलिए आप
करीब—करीब देख
जरूर रहे थे, लेकिन सोए हुए
देख रहे थे। आप
रास्ते पर चल रहे
हैं, कोई करीब
से निकल गया, वह आपको दिखाई
नहीं पड़ा। आपकी
आंख बराबर देख
रही थी, लेकिन
आप भीतर सोए हुए
थे इसलिए दिखाई
नहीं पड़ा। हमारी
सारी क्रियाएं
सोई हुई हो रही
हैं।
महावीर
ने इन क्रियाओं
को प्रमत्त क्रियाएं
कहा है। ये सोई
हुई क्रियाएं, इसको
उन्होंने
प्रमाद कहा है। हम सोए हुए हैं। इस सोए हुए में अगर जागरण का हम प्रयोग करें और हम
अपनी क्रियाओं को जाग्रत करने की चेष्टा करें, तो आपका सतत चौबीस घंटे का जीवन ध्यान में परिणत हो जाएगा।
प्रमाद कहा है। हम सोए हुए हैं। इस सोए हुए में अगर जागरण का हम प्रयोग करें और हम
अपनी क्रियाओं को जाग्रत करने की चेष्टा करें, तो आपका सतत चौबीस घंटे का जीवन ध्यान में परिणत हो जाएगा।
तो
यह भी मैं आपको
स्मरण दिलाना चाहता
हूं कि यहां इन
तीन दिनों में
आप थोड़ा इसका भी
प्रयोग करेंगे।
जब आप खाना खा रहे
हों तो सिर्फ खयाल
रखें कि मैं सिर्फ
खाना ही खा रहा
हूं। चित्त में
और कुछ न चले, सिर्फ
खाना ही खाना हो
रहा है। मैंने
कौर बनाया है तो
मैं सिर्फ कौर
ही बना रहा हूं
मैंने उठाया है
तो मैं सिर्फ उठा
रहा हूं। और मेरे
चित्त में कुछ
भी नहीं, वही
क्रिया मात्र हो
रही है।
गांधी
जी चरखा कातते
थे,
तो वे कहते थे,
चरखा कातना मेरा
ध्यान है, वह
मेरी प्रार्थना
है। और उनका मतलब यह था कि जब मैं चरखा कातता हूं तो बस चरखा ही कातता हूं। सूत कतता है तो सूत के साथ मेरी चेतना ऊपर तक आती है, फिर लिपटता है तो मेरी चेतना उसके
साथ वापस चली जाती है।
है। और उनका मतलब यह था कि जब मैं चरखा कातता हूं तो बस चरखा ही कातता हूं। सूत कतता है तो सूत के साथ मेरी चेतना ऊपर तक आती है, फिर लिपटता है तो मेरी चेतना उसके
साथ वापस चली जाती है।
जैसा
मैंने अभी आपसे
कहा कि आप नाभि
के स्पंदन को देखें।
श्वास जाएगी तो
पेट उठेगा, देखें।
फिर पेट गिरेगा
तो देखें। वैसे
ही वे सूत के धागे
को देखते रहे हैं।
अगर आप सूत कातते
वक्त इतना कर पाएं,
तो आप पाएंगे
सूत कातना ध्यान
हो गया।
वहां
चीन में एक साधु
हुआ। वह जब अपने
गुरु के आश्रम
गया हुआ था, तो
उसके गुरु ने उससे
कहा कि तुम अगर
सच में साधु होना
चाहते हो और केवल
साधु दिखना नहीं
चाहते हो, तो
तुम्हें लंबा समय
लगेगा। अगर तुम
दिखना चाहते हो,
तो आज ही हो सकते
हो। और अगर साधु
होना है, तो
तुम्हें लंबा समय
लगेगा। तुम्हारा
जो चुनाव हो।
उस
युवक ने कहा : मैं
होना चाहता हूं।
दिख कर क्या करूंगा?
तो
फिर,
उसने कहा, तुम एक काम करो।
यह आश्रम, पांच
सौ साधु हैं यहां,
इनका जो यह भोजनालय
है, इसमें बहुत
चावल कूटने की
जरूरत पड़ती है,
तुम चावल कूटों।
और तुम सिर्फ चावल
कूटों और तुम कुछ
मत करना! तुम सुबह
उठना, चावल
कूटना, जब थक
जाओ तो सो जाना,
फिर जब तुम उठो
तो अपना चावल कूटना।
और एक ही बात स्मरण
रखना कि सिर्फ
चावल कूटना, और कुछ मत करना।
चित्त में और कुछ
न चले। बस चावल
ही कूटते चले जाना।
पूरा चित्त चावल
कूटने में ही संलग्न
हो, चित्त की
कोई शक्ति बाकी
न बच जाए जो कुछ
और कर रही हो। पूरे
चित्त की शक्ति
चावल ही कूटे।
तुम्हारा मूसल
उठे, तुम देखते
रहना नीचे जाए
तो तुम देखते रहना,
देखते रहना।
और दुबारा मेरे
पास मत आना। जरूरत
होगी तो मैं आऊंगा।
वह
आदमी बारह वर्षों
तक चावल कूटता
रहा अपने आश्रम
के पीछे। उसे लोग
भूल ही गए आश्रम
में कि वह है भी, या
कभी साधु होने
आया था। उसे लोग
चावल कूटने वाला
करके ही जानने
लगे। लेकिन एक
अदभुत बात हुई।
वह रोज चावल ही
कूटता रहा; और उसने कुछ भी
नहीं किया। वह
किसी से बात भी
नहीं करता, कोई ग्रंथ भी
नहीं पड़ता। वह
चुपचाप आश्रम के
पीछे एक एकांत
कोने में चावल
कूटता रहता। कुट
जाते, दे आता;
फिर ले आता,
फिर कूटता। थक
जाता, सो जाता;
सुबह उठता,
फिर कूटता। आप
सोचते हैं, कितने दिन! बारह
वर्ष लंबा वक्त
होता है। वह कूटता
रहा, कूटता
रहा, धीरे— धीरे
चावल कूटना ही
शेष रह गया। चित्त
अब कुछ करता ही
नहीं था, कुछ
सोचता ही नहीं
था, वह चावल
कूटने में आप्त
था। और चावल कूटने
में सोचना क्या
है? चावल कूटने
में विचार की और
थिंकिंग की गुंजाइश
क्या है? कूटना
है, सोचना क्या
है? तो वह कूटता
था। पहले सारे
विचार चले गए,
फिर विचार ही
चला गया, फिर
वह कूटना ही रह
गया। अब वह परिपूर्ण
जागा हुआ चावल ही कूटता रहता।
जागा हुआ चावल ही कूटता रहता।
बारह
वर्ष बाद उसके
गुरु की मृत्यु
करीब आई, उसने घोषणा
की कि मैं फलां
दिन प्राण छोड़
दूंगा, तो मैं
अपने बाद किसी
को चुनना चाहता
हूं। तो उसने कहा
कि जो व्यक्ति
चार पंक्तियों
में धर्म के सारभूत
अंश को लिख कर मुझे
दे देगा, मैं
उसे अपनी जगह बिठा
दूंगा। लेकिन स्मरण
रहे कि वे चार पंक्तियां
चोरी की हुई और
उधार की न हों।
वे तुम्हारी अपनी
अनुभूति से हों।
इतना मैं जानता
हूं इतना मैं पहचानता
हूं कि कौन सी पंक्तियां
अनुभूति से आई
हैं, कौन सी
शास्त्र से आई
हैं। तो, उसने
कहा, धोखा नहीं
चलेगा कि कोई शास्त्र
की चार पंक्तियां
लिख लाए। क्योंकि
शास्त्रों में
तो सब लिखा हुआ
है। लेकिन मैं
पहचानता हूं।
और
आप हैरान होंगे
कि किसी शास्त्र
में इतना पूरा
सत्य नहीं लिखा
हुआ है कि आप उसकी
पंक्तियां उद्धृत
कर दें और समझ लें
कि सत्य हो गया।
उसमें कुछ शेष
है। कोई शास्त्र
की पंक्ति पूर्ण
नहीं है। उसमें
कुछ शेष है, जो
आपको अपनी अनुभूति
से जोड़ना होता
है। और वही परीक्षा
है। और गुरु जान
लेता है जब आप उस
पंक्ति को, वह भी जोड़ देते
हैं जो शास्त्र
में लिखा हुआ नहीं
है और अनुभव से
आता है, तब गुरु
जान लेता है कि
अब पंक्ति
आपसे आ रही है। इसलिए जान कर किसी शास्त्र को पूरा नहीं लिखा गया है। कोई शास्त्र पूरा नहीं लिखा गया है। यह बड़ी समझ की बात है, उसमें कुछ छोड़ दिया गया है, जो आप अपने अनुभव से जोड़ेंगे। जो केवल शास्त्र को दोहरा देता है, वह नासमझ है। उसमें तो सत्य है ही नहीं; कुछ हिस्सा छूटा हुआ है।
आपसे आ रही है। इसलिए जान कर किसी शास्त्र को पूरा नहीं लिखा गया है। कोई शास्त्र पूरा नहीं लिखा गया है। यह बड़ी समझ की बात है, उसमें कुछ छोड़ दिया गया है, जो आप अपने अनुभव से जोड़ेंगे। जो केवल शास्त्र को दोहरा देता है, वह नासमझ है। उसमें तो सत्य है ही नहीं; कुछ हिस्सा छूटा हुआ है।
तो
उस गुरु ने कहा
कि तुम्हारे शास्त्र
की पंक्तियां काम
नहीं करेंगी।
पांच
सौ लोग थे उसमें
बड़े विद्वान लोग
थे। लेकिन वे जानते
थे कि वे जो भी जानते
हैं वह ग्रंथ से
जानते हैं, स्वयं
का जाना हुआ कुछ
भी नहीं है। सिर्फ
एक व्यक्ति ने
हिम्मत की, उसने जाकर चार
पंक्तियां लिख
दीं। उसने भी डर
के मारे खुद लिख
कर न दीं, उसके
दरवाजे पर लिख
आया। रात को गुरु
सोता था, उसके
दरवाजे पर लिख
आया। वे चार पंक्तियां
थीं, अदभुत
थीं। उसने चार
पंक्तियां लिखी—कि
मनुष्य का मन एक
दर्पण की भांति
है उस पर विचार
की और विकार की
धूल जम जाती है
उस धूल को हम झाडू
दें धर्म इससे
ज्यादा नहीं है।
ये
पंक्तियां सुंदर
हैं। लेकिन सुबह
गुरु ने उठ कर कहा, यह
कचरा यहां किसने
लिख
दिया? यह सब कचरा है, बकवास है, इसे पोंछ दो यहां से।
दिया? यह सब कचरा है, बकवास है, इसे पोंछ दो यहां से।
सारे
आश्रम में खबर
फैल गई। वे पंक्तियां
अदभुत थीं, मूल्यवान
थीं, और धर्म
का अर्थ
उनमें प्रकट था। सारे आश्रम के लोग चर्चा किए। कुछ भिक्षु निकलते थे उस चावल कूटने वाले के पास से और बात करते थे कि इतनी बहुमूल्य पंक्तियों को भी उन्होंने इनकार कर दिया। इसमें तो धर्म आ गया। क्योंकि उसने लिखा. मनुष्य का मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर विकार की और विचार की धूल जम जाती है, इस धूल को झाडू दें, धर्म इससे ज्यादा नहीं है।
उनमें प्रकट था। सारे आश्रम के लोग चर्चा किए। कुछ भिक्षु निकलते थे उस चावल कूटने वाले के पास से और बात करते थे कि इतनी बहुमूल्य पंक्तियों को भी उन्होंने इनकार कर दिया। इसमें तो धर्म आ गया। क्योंकि उसने लिखा. मनुष्य का मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर विकार की और विचार की धूल जम जाती है, इस धूल को झाडू दें, धर्म इससे ज्यादा नहीं है।
तो
वह चावल कूटने
वाले भिक्षु ने
कहा सच में ही कचरा
है।
यह
बारह वर्षों में
वह पहली दफा बोला।
जिसने सुना उसने
कहा कि तुमको भी
क्या सत्य का पता
चल गया चावल कूटते—कूटते? जो
शास्त्रों में
जीवन गंवा दिए
हैं उन्होंने लिखा
है!
उसने
कहा. शास्त्रों
में जीवन गंवा
कर भला लिखा हो, लेकिन
पंक्तियां बिलकुल
बेकार हैं। पंक्तियां
ये होनी चाहिए!
और उसने कहा कि
मनुष्य के मन का
कोई दर्पण ही नहीं,
धूल जमेगी कहां?
जो इस सत्य को
जानता है, वह
धर्म को जानता
है। उसने कहा मनुष्य
के मन का कोई दर्पण
ही नहीं, धूल
जमेगी कहां? जो इस सत्य को
जानता है, वह
धर्म को जानता
है। और उसके गुरु
ने उसे अंगीकार
कर लिया और वह चावल
कूटने वाला उसके
बाद उस आश्रम का
प्रधान हुआ।
ध्यान
के क्रमश: प्रयोग
के बाद आपको दिखाई
पड़ेगा—मन है ही
नहीं। मन एक भ्रम
था। उस पर धूल जमी
है,
यह दूसरा भ्रम
था। मन है ही नहीं।
और जब आपको यह पता
चलेगा कि मन है
ही नहीं, तो
आप एक अलौकिक सत्ता
के अनुभव से भर
जाएंगे। वही अनुभव
केवल मनुष्य को
धर्म में ले जाता
है। और वह अनुभव
क्रियाओं में जाग
जाने से संभव होता
है।
तो
यहां तीन दिन हम
रहेंगे, यह मैं
आपसे आकांक्षा
करूंगा कि इन तीन
दिनों में रास्ते
पर आप चलने जाएं
तो होश से चलें।
होश से चलने का
मतलब. आप पूरे होश
से चलें कि सिर्फ
चल रहे हैं, और कुछ नहीं कर
रहे हैं। पैर उठ
रहा है तो आपको
पता है, आप रास्ते
पर मुड़ रहे हैं
तो आपको पता है।
आप अंधे और सोए
हुए आदमी की तरह
नहीं चले जा रहे
हैं। आप कोई बात
कह रहे हैं तो आपको
पता है। और आप हैरान
होंगे, अगर
इस बोधपूर्वक जीवन—स्थिति
का आप निर्माण
कर लें, आपसे
बुराई होनी बंद
हो जाएगी। आप किसी
को गाली नहीं दे
सकते, अगर आपको
पता हो जाए गाली
देने के पहले कि
आप गाली दे रहे
हैं। यह असंभव
है। गाली आप बेहोशी
में और सोने में
दे पाते हैं। आप
कुद्ध नहीं हो
सकते किसी पर,
अगर आपको पता
हो जाए कि आप क्रोध
में आ रहे हैं।
वह सिर्फ मूर्च्छा
में संभव होता
है। मेरी तो पाप
की परिभाषा यह
है कि वे क्रियाएं
जो आप मूर्च्छित
करते हैं, पाप
है। और वे क्रियाएं
जो आप परिपूर्ण
जागरूक रह कर करते
हैं, पुण्य
है। क्योंकि परिपूर्ण
जागरूक रह कर पाप
करना असंभव है।
परिपूर्ण होश से
भरे रह कर कोई भी
पाप करना असंभव
है।
तो
महावीर या बुद्ध
पाप को छोड़ते नहीं
हैं,
वे केवल जाग
गए हैं इसलिए पाप
उनसे नहीं होते
हैं। इसे थोड़ा
समझ लेना इस बात
को। वे कोई भी पाप
को छोड़ते नहीं
हैं। उन्होंने
हिंसा नहीं छोड़ी
है, उन्होंने
झूठ नहीं छोड़ा
है, उन्होंने
क्रोध नहीं छोड़ा
है। उन्होंने तो
जागरण का प्रयोग
किया है। ध्यान
के प्रयोग और जागरण
के प्रयोग से वे
इतने जाग गए हैं
कि अब पाप होना
असंभव है। पाप
के लिए मूर्च्छा
अनिवार्य है। कोई
भी बुरा काम करने
के लिए आपका बेहोश
होना जरूरी है।
सब बुरे कामों
के पहले आप एकदम
बेहोश हो जाते
हैं। स्मरण रखना,
जब आप क्रोध
से भरते हैं, आप बेहोश हो जाते
हैं फिर क्रोध
संभव हो पाता है।
जब आप होश में आते
हैं, आप पछताते
हैं। काश यह होश
उसी वक्त मौजूद
होता, क्रोध
असंभव हो जाता!
तो
होश का एक जागरण
इन तीन दिनों में
करें। और ये तीनों
प्रयोग जो ध्यान
के हैं, ये
क्रमश: आपके भीतर होश को जगाने के लिए हैं। उस जगे हुए होश का वास्तविक उपयोग अपनी छोटी—छोटी क्रियाओं में है। आप घर में बुहारी दे रहे हैं तो जाग कर दें, होशपूर्वक दें। बुहारी दें, वह आपका ध्यान हो जाएगी। आप कपड़े पहन रहे हैं, होशपूर्वक पहनें, बेहोशी से न पहनें, कि आपका चित्त कुछ और कर रहा है और आपने कपड़े पहन लिए। छोटी—छोटी क्रियाओं में जागरण आ जाए तो समस्त चौबीस घंटे ध्यान में परिणत हो जाते हैं।
क्रमश: आपके भीतर होश को जगाने के लिए हैं। उस जगे हुए होश का वास्तविक उपयोग अपनी छोटी—छोटी क्रियाओं में है। आप घर में बुहारी दे रहे हैं तो जाग कर दें, होशपूर्वक दें। बुहारी दें, वह आपका ध्यान हो जाएगी। आप कपड़े पहन रहे हैं, होशपूर्वक पहनें, बेहोशी से न पहनें, कि आपका चित्त कुछ और कर रहा है और आपने कपड़े पहन लिए। छोटी—छोटी क्रियाओं में जागरण आ जाए तो समस्त चौबीस घंटे ध्यान में परिणत हो जाते हैं।
वे
जो तीन ध्यान मैं
कह रहा हूं वे तीनों
ध्यान इस चौथे
ध्यान को पैदा
करने के लिए भुमिका
मात्र है। असली
चीज यह है, असली
चीज यह चौथी चीज
है कि आपके चौबीस
घंटे के जीवन में
होश परिव्याप्त
हो जाए। आप अप्रमत्त
हो जाएं, अप्रमाद
की स्थिति हो,
अवयरनेस हो।
आप जो भी आपसे हो,
होश पूर्वक हो—स्नान
करने से लेकर कपडे
पहनने तक, भोजन
से लेकर सोने तक।
बुद्ध
कहते थे, मैं रात
को करवट भी लेता
हूं तो जानता हूं।
ओर
लोगों ने, बीस—तीस
वर्ष उसके साथ
थे, उन्होंने
देखा कि वे जिस
पैर पर पैर रख कर
सो गए है, तो
रात भर वह पैर उसी
पर रखा हुआ है।
वे जिस करवट से
गए है, तो वे
उसी करवट सोए हुए
है। सुबह वे उसी
करवट उठ आए है........
आज
इतना ही।
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