अंतस की बदलाहट ही-(प्रवचन-चौथा)
एकमात्र बदलाहट
मेरे प्रिय आत्मन्!अच्छा होगा कि मैं आज प्रश्नों के ही उत्तर दूं, क्योंकि बहुत प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। संक्षिप्त में ही देने की कोशिश करूंगा ताकि अधिकतम प्रश्नों के उत्तर हो सकें।
एक मित्र ने पूछा है: बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, इन तीन सूत्रों के संबंध में आपका क्या कहना है?
सूत्र तो जिंदगी में एक ही है--बुरे मत होओ। ये तीनों सूत्र तो बहुत बाहरी हैं। भीतरी सूत्र तो--बुरे मत होओ--वही है। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न देखे, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न सुने, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। और अगर कोई भीतर बुरा है, और बुरे को न बोले, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा आदमी सिर्फ पागल हो जाएगा। क्योंकि भीतर बुरा होगा! अगर बुरे को देख लेता तो थोड़ी राहत मिलती। वह भी नहीं मिलेगी। अगर बुरे को बोल लेता तो थोड़ा बाहर निकल जाता, भीतर बुरा थोड़ा कम हो जाता, वह भी नहीं होगा। अगर बुरे को सुन लेता तो भी थोड़ी तृप्ति मिलती, वह भी नहीं हो सकेगी। भीतर बुरा अतृप्त रह जाएगा।
नहीं, असली सवाल यह नहीं है। लेकिन आदमी हमेशा बाहर की तरफ से सोचता है। असली सवाल है होने का, असली सवाल करने का नहीं है। मैं क्या हूं, यह सवाल है। मैं क्या करता हूं, यह गौण है। क्योंकि मैं जो हूं, मेरा करना उसी से निकलता है।
लेकिन अब तक की सारी शिक्षाएं मनुष्य पर जोर नहीं देतीं, मनुष्य के करने पर जोर देती हैं। करना गौण है। भीतर मनुष्य क्या है, उससे करना निकलता है। हम जैसे हैं वही हमसे किया जाता है। लेकिन हम चाहें तो धोखा दे सकते हैं। बुराई भीतर दबाई जा सकती है। दबाई हुई बुराई दुगुनी हो जाती है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बुरा करें। मैं यह कह रहा हूं, बुराई को दबाने से बुराई से मुक्त नहीं हुआ जा सकता! बुरे होने को ही रूपांतरित होना है। इसलिए सूत्र तो एक है कि बुरे न हों। लेकिन बुरे कैसे न होंगे, बुरे हम हैं! इसलिए इस बुरे होने को जानना पड़े, जागना पड़े, पहचानना पड़े। यही मैं तीन दिनों से कह रहा हूं कि यदि हम अपनी बुराई को पूरी तरह जान लें तो बुराई के बाहर छलांग लग सकती है।
लेकिन हम बुराई को जान ही नहीं पाते, क्योंकि हम तो यह सोचते हैं कि बुराई कहीं बाहर से आ रही है। बुरे को देखेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरे को सुनेंगे तो बुरे हो जाएंगे; बुरा बोलेंगे तो बुरे हो जाएंगे। हम तो यह सोचते हैं कि बुराई जैसे कहीं बाहर से भीतर की तरफ आ रही है। हम तो अच्छे हैं, बुराई जैसे बाहर से आ रही है।
यह धोखा है! बुराई बाहर से नहीं आती; बुराई भीतर है! भीतर से बाहर की तरफ जाती है बुराई। गुलाब में कांटे बाहर से नहीं आते, भीतर की तरफ से आते हैं। फूल भी भीतर की तरफ से आता है, वह भी बाहर से नहीं आता। भलाई भी भीतर से आती है, बुराई भी भीतर से आती है; कांटे भी भीतर से, फूल भी भीतर से।
इसलिए बहुत महत्वपूर्ण यह जानना है कि भीतर मैं क्या हूं? वहां जो मैं हूं, उसकी पहचान ही परिवर्तन लाती है, क्रांति लाती है।
लेकिन शिक्षाएं ऐसी ही बातें सिखाए चली जाती हैं। वे बहुत ऊपरी हैं, बहुत बाहरी हैं। इसलिए सारी शिक्षाओं ने मिल कर ज्यादा से ज्यादा आदमी के आवरण को बदला है, उसके अंतस को नहीं। और आवरण बदल जाए इससे क्या होता है? सवाल तो अंतस के बदलने का है। आवरण सुंदर हो जाए तो भी क्या होता है? सवाल तो अंतस के सुंदर होने का है।
हां, एक कठिनाई हो सकती है कि आवरण सुंदर बनाया जा सकता है और अंतस कुरूप रह जाए। तो आदमी दो हिस्सों में बंट जाए, असली आदमी भीतर हो, नकली आदमी बाहर हो। जैसा कि है। एक आदमी है नकली, जो हम बाहर होते हैं; और एक आदमी है असली, जो हम भीतर होते हैं। वह जो भीतर है वही है। और अगर कहीं कोई परमात्मा है तो उसके सामने जब हम खड़े होंगे तो वह जो भीतर है वही दिखाई पड़ेगा। वह जो नकली है वह छूट जाएगा। वह साथ नहीं होगा।
इसलिए अगर कोई क्रांति करनी है तो आचरण में करने की उतनी चिंता मत करना, अंतस में करना; क्योंकि अंतस से आचरण आता है। लेकिन समझाया कुछ ऐसा जाता है कि जैसे आचरण ही अंतस है। तब आदमी आचरण को ही बदलने में लग जाता है। आचरण बदल भी जाए तो भी अंतस नहीं बदलता। अंतस बदले तो ही आचरण बदलता है।
मैं सुबह कह रहा था, मैं कह रहा था कि अगर कोई गेहूं बोए तो भूसा भी पैदा हो जाता है। गेहूं तो अंतस है; भूसा आचरण है, बाहर है। लेकिन अगर कोई भूसे को बोने लगे, तो गेहूं तो पैदा होता नहीं, भूसा भी सड़ जाता है। गेहूं बोना चाहिए, तो भूसा भी आ जाता है बिना बोए। और भूसा बोया, तो गेहूं तो आता ही नहीं, भूसा भी सड़ जाता है। आचरण भूसा है, अंतस आत्मा है।
इसलिए सूत्र एक है--बुरे मत होओ।
लेकिन बुरे हम हैं! मत होओ कहने से क्या होगा?
बुरे मत होओ, इसका अर्थ हुआ कि जो हम हैं--बुरे--उसे जानें, पहचानें। इतना तय है कि अगर कोई आदमी अपनी बुराई को पहचान ले तो बुरा नहीं रह जाता। बुरा होना असंभव है।
न मालूम कितने हत्यारों ने अदालतों में इस बात की स्वीकृति की है कि हम हत्या होश में नहीं किए हैं। हम बेहोश थे तब हो गई यह बात। और कुछ हत्यारों ने तो यह भी कहा है कि उन्हें स्मरण ही नहीं है कि उन्होंने हत्या कब की। तो पहले तो समझा जाता था कि ये झूठ बोल रहे हैं। लेकिन अब तो मनोवैज्ञानिक उनकी स्मृति की खोजबीन करके कहते हैं कि वे ठीक बोल रहे हैं, उनको पता ही नहीं उन्होंने हत्या कब की। वे इतने बेहोश हो गए क्रोध में कि हत्या कर गए, वह उनकी स्मृति ही नहीं बनी, जब वे होश में आए तब हत्या हो चुकी थी।
जो गहरे में जानते हैं, वे कहते हैं, आदमी बुराई करता है सदा बेहोशी में। कोई भी आदमी बुराई को होश में नहीं करता। होश में कर नहीं सकता! सब बुराई बेहोशी में है। इसलिए असली सवाल बेहोशी तोड़ने का है।
महावीर से किसी ने पूछा--साधु कौन है? तो महावीर ने नहीं कहा कि जो मुंह-पट्टी बांधता है। बड़ी गलती की। वे अगर बता देते कि जो मुंह-पट्टी बांधता है, तो हम सब साधु हो जाते। महावीर ने नहीं कहा कि जो ऐसा खाना खाता है; जो ऐसा सोता है; ऐसा उठता है।
नहीं। महावीर से पूछा--साधु कौन है? तो महावीर ने कहा, जो जागा हुआ जीता है।
असाधु कौन है? तो महावीर ने नहीं कहा कि जो वेश्या के घर जाता है, कि जो बीड़ी पीता है, कि मांस खाता है। महावीर ने कहा, जो सोया हुआ जीता है वह असाधु है।
हम सब सोए-सोए जी रहे हैं। हमें पता ही नहीं है कि हम सो रहे हैं, सोने में ही सब कुछ कर रहे हैं, एक नींद पकड़े हुए है और चले जा रहे हैं।
एक ही धर्म का गहरा सूत्र है कि हम जागें। उस संबंध में मैं आखिरी प्रश्न में बात करना चाहूंगा।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है, उन्होंने पूछा है: आपके सारे विचार डिस्ट्रक्टिव हैं, कंस्ट्रक्टिव नहीं; सब विध्वंसात्मक हैं, निर्माणात्मक नहीं।
डिस्ट्रक्टिव ही होंगे, विध्वंसात्मक ही होंगे।
जीसस ने एक बार कहा है: आई हैव कम नाट टु डिस्ट्राय। मैं आया हूं, नष्ट करने नहीं।
और मैं जीसस के शब्दों में कहना चाहता हूं--आई हैव कम टु डिस्ट्राय। मैं आया हूं नष्ट करने। लेकिन मतलब मेरा भी वही है जो जीसस का है। जीसस ने कहा कि मैं आया हूं नष्ट करने नहीं, निर्माण करने। मैं भी कहना चाहता हूं कि मैं आया हूं नष्ट करने, क्योंकि बिना नष्ट किए कुछ भी निर्माण नहीं किया जा सकता। नष्ट करना निर्माण करने की प्रक्रिया का हिस्सा है। और जो कौम नष्ट करना भूल जाती है, ध्यान रहे, वह निर्माण करना भी भूल जाती है। नष्ट करने की हिम्मत होनी ही चाहिए। उसी हिम्मत से निर्माण करने की हिम्मत आती है। निर्माण करना दूसरा कदम है। पहले तो मिटाना पड़ता है, तभी निर्माण होता है। निर्माण का कोई रास्ता ही नहीं है बिना विध्वंस के।
लेकिन कुछ हमारा मस्तिष्क ऐसा सोचता रहा है कि निर्माण और विध्वंस दो विरोधी चीजें हैं। गलत सोचता रहा है। निर्माण और विध्वंस एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं। गिराना बनाने की तैयारी है और बनाना भी फिर गिराने की तैयारी है। वे एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं। जन्मना मरने की तैयारी है, मरना फिर जन्मने की तैयारी है। जिसे हम प्रारंभ कहते हैं वह अंत की शुरुआत है, जिसे हम अंत कहते हैं फिर वह नया प्रारंभ है।
लेकिन पुराना मन इतना घबरा गया है तोड़ने से कि वह तोड़ता नहीं। तो फिर वह बना भी नहीं पाता। फिर वह मरे-मराए को, सड़े-सड़ाए को छाती पर ढोता चला जाता है।
हम ऐसे लोग हैं कि अगर मेरे घर में कोई मर जाए--बहुत प्यार करता हूं; बहुत प्रेम करता हूं--और मैं उसे मरघट ले जाऊं, तो गांव के लोग कहें, बड़े डिस्ट्रक्टिव मालूम पड़ते हो, जिसको इतना प्रेम किया उसको मरघट ले जा रहे हो!
अगर ऐसा कोई गांव हो जहां मुर्दों को दफनाने में डिस्ट्रक्शन मालूम पड़े, विनाश मालूम पड़े, तो उस गांव में जिंदा आदमी न रह सकेगा; फिर मुर्दे ही रहेंगे। फिर मुर्दे इतने इकट्ठे हो जाएंगे...ध्यान रहे, मुर्दे जिंदा से हमेशा ज्यादा हैं। अगर सारे मुर्दे इकट्ठे हो जाएं जमीन पर, तो जिंदा आदमी कहां रहे? वह तो मुर्दों को हम दफना आते हैं इसलिए जिंदा के रहने के लिए जगह बन पाती है, नहीं तो नहीं बन सकती। माना कि बहुत प्रेम करते हैं मुर्दे को, तो प्रेम से ही दफना आएंगे, झगड़ा नहीं करेंगे।
पुराने को मरना ही पड़ेगा; नहीं तो नये का जन्म नहीं होता। जिस दिन बेटा जन्मता है, उस दिन बाप के मरने की यात्रा शुरू हो जाती है। बल्कि पुराने लोग तो बेटे को जन्माते ही इसलिए थे, नहीं तो अंत्येष्टि कौन करेगा? दफनाएगा कौन? अगर बेटा न होगा तो आग कौन लगाएगा? तो पुराना आदमी परेशान होता था कि बेटा जरूर पैदा हो जाए। अब तो दूसरों के बेटे भी सहायता कर देते हैं। पहले यह खयाल था--अपना ही बेटा!
लेकिन बात ठीक ही है, बात ठीक ही है। विध्वंस की तैयारी तो होनी ही चाहिए।
लेकिन विध्वंस शब्द से ही भय छा गया है कि जैसे यह कुछ बुरी बात है। अगर विध्वंस बुरा है तो फिर निर्माण कैसे होगा?
तो वे ठीक ही पूछते हैं मित्र, मैं डिस्ट्रक्टिव हूं। क्योंकि यह देश, यह समाज, यह आदमी बहुत दिन तक कंस्ट्रक्टिव रह लिया, बहुत रचनात्मक कार्यक्रम हो चुके। लेकिन रचनात्मक कार्यक्रम से चरखा चलता है, और कुछ भी नहीं होता। अब विध्वंसक कार्यक्रम की जरूरत है। और किन्हीं न किन्हीं लोगों को हिम्मत करनी होगी कि अब हम डिस्ट्रक्टिव प्रोग्राम बनाएं। अब मिटाने की तैयारी करें।
और ध्यान रहे, आदमी की एक अदभुत खूबी है। अगर पुराना गिर जाए तो आदमी बिना बनाए नहीं रह सकता। लेकिन अगर पुराना बना रहे तो आदमी आलस्य में पुराने में ही रहे चला जाता है। वह सोचता है: कल गिरा लेंगे, परसों गिरा लेंगे। फिर ऐसी जल्दी क्या है! थोड़ा पुराने में ही टीम-टाम कर लो; रंग-रोगन बदल दो; थोड़ा नया वार्निश कर दो; एकाध दीवार का पलस्तर गिर गया है, पलस्तर ठीक कर दो; पुराने में ही रहे चले जाओ। बना लेंगे, इतनी जल्दी क्या है! लेकिन अगर पुराना गिर जाए तो कितनी देर बिना नये के रह सकते हो?
जीवंत समाज सदा ही पुराने को गिराने के लिए तत्पर, नये को बनाने के लिए आतुर होता है। मुर्दा समाज पुराने को बचाने में तत्पर, नये से सदा भयभीत होता है। अब हमें कैसा रहना है, यह सोच लेना चाहिए। नये को आने से अगर निमंत्रण रोकना है तो फिर पुराने को बचा लेना चाहिए। और अगर नये को आमंत्रण देना है तो पुराने को हटाना ही पड़ेगा। दुखद भी होता है कई बार पुराने को हटाना, क्योंकि उसके साथ इतने दिन रहे। लेकिन दुख के साथ भी विदा देनी पड़ती है। पुराने को अलविदा कहना ही पड़ेगा, तभी नये का आलिंगन हो सकता है। मैं तो विध्वंसक हूं। क्योंकि उसके अतिरिक्त अब सृजनात्मक होने का कोई मार्ग नहीं है। न कभी था।
एक मित्र ने पूछा है: पुराना आदमी अच्छा है या बुरा, यह कैसे जान पड़ता है? जब कि हमारे पास बुरा या अच्छा आदमी का खयाल नापने के लिए मापदंड नहीं है। अच्छा आदमी का मापदंड ही आदर्श है, यह बात तो आप भी सहमत नहीं होंगे।
पुराना आदमी बुरा है, इसे कहने का कारण कोई मापदंड और आदर्श नहीं है। इसे कहने का कारण पुराने आदमी की दुख भरी जिंदगी है, पुराने आदमी की सड़ी हुई जिंदगी है।
आपको अगर टी.बी. और कैंसर हो जाए तो डाक्टर आपसे कहे कि आपको कैंसर है, टी.बी. है। आप कहें, स्वास्थ्य का मापदंड क्या है? पहले स्वास्थ्य का आदर्श तो पता चल जाए, तभी तो आप सिद्ध कर सकेंगे कि मुझे कैंसर है। तो फिर डाक्टर आपसे न जीत सकेगा, क्योंकि स्वास्थ्य का मापदंड अभी तक तय नहीं हो सका, न कभी होगा। डाक्टर बता सकता है कि बीमारी क्या है। बीमारी की डेफिनीशन उसकी किताब में लिखी है कि कौन-कौन सी बीमारी क्या-क्या है। लेकिन स्वास्थ्य की कोई परिभाषा किसी शास्त्र में नहीं लिखी कि स्वास्थ्य क्या है। एक ही परिभाषा है कि जब कोई बीमारी न हो तो जो शेष रह जाता है वह स्वास्थ्य है। तो फिर आपको लौटना पड़ेगा बिना इलाज करवाए।
नहीं, चिकित्सक कहेगा, स्वास्थ्य को जाने दो! इतना जानना काफी है कि टी.बी. तुम्हें गलाए दे रही है, सड़ाए दे रही है; तुम मरने के करीब पहुंच रहे हो। स्वास्थ्य के मापदंड की कोई जरूरत नहीं है टी.बी. को जानने के लिए। टी.बी. अपने में जताने के लिए काफी है।
पुराना समाज, पुराना आदमी बहुत दुख में जीया है, हिंसा में, संघर्ष में, युद्ध में। तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध हुए हैं पृथ्वी पर। तीन हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध! आदमी जरूर रुग्ण रहा होगा। ऐसा लगता है कि आदमी लड़ने का ही काम करता रहा है, और उसने कोई काम ही नहीं किया। कभी-कभी बीच में दस-पांच दिन के लिए फुर्सत का वक्त आता है। वह भी फुर्सत का नहीं है, वह भी पुराने युद्ध की थकान मिटाने का और नये की तैयारी करने का है। आदमी की पूरी कथा युद्ध की, हिंसा की, घृणा की, क्रोध की कथा है। आदमी की पूरी जिंदगी प्रेम की नहीं, फूल की नहीं, कांटों की और गंदगी की कथा है। क्या इसके लिए मापदंड खोजना पड़ेगा, तब हम तय करें?
नहीं, दुनिया में फैली हुई उदासी कहती है, दुख कहता है। दुनिया में फैला हुआ आदमी का जीवन कहता है। रोज आदमी आत्महत्या करने को उत्सुक है, जीने को उत्सुक नहीं है। कितने लोग मुझसे आकर पूछते हैं कि किसलिए जीएं? क्या फायदा है जीने में? मर जाएं तो क्या हर्ज है? प्रति सेकेंड जमीन के किसी कोने पर एक आदमी आत्महत्या कर लेता है। मैं साठ मिनट बोलूंगा, कितने लोग आत्महत्या कर लेंगे! प्रति सेकेंड एक आदमी किसी कोने पर आत्महत्या कर रहा है। और यह बढ़ती जाती है संख्या। जिंदगी का रस खोता जाता है, जिंदगी उदास होती चली जाती है। और आदमी पूछने लगा है--जिंदगी का अर्थ क्या है? क्यों जीएं हम?
दोस्तोवस्की ने लिखा है कहीं कि अगर परमात्मा मिल जाए तो उससे एक ही सवाल मुझे पूछना है कि हमने क्या कसूर किया था कि आपने हमें जन्म दिया? और उसकी टिकट वापस कर देनी है कि यह अपनी टिकट सम्हालिए, हम इस जिंदगी के भवन के बाहर जाना चाहते हैं। और उससे पूछना है कि बिना पूछे जिंदगी में कैसे भेजा हमें?
ईश्वर से पूछने की कई बातें कई लोगों ने सोच रखी होंगी। लेकिन दोस्तोवस्की जो कहता है यह बात ठीक लगती है। यह उससे पूछना जरूरी होगा--क्यों पैदा किया? क्या जरूरत थी पैदा करने की? शायद इसीलिए वह छिपा हो कि इसका उत्तर तो बहुत मुश्किल होगा। आदमी जैसा है वही बता रहा है कि वह वैसा नहीं है कि आनंद से नाच रहा हो, गीत से नाच रहा हो।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है। दिवायर ने एक छोटी सी कहानी लिखी है।
एक जादूगर है। उस जादूगर ने जिंदगी भर मेहनत करके, एल्केमी की साधना करके, कुछ रासायनिक तत्व खोज कर अमृत का पता लगा लिया। उसने पा ली वह चीज जिसको पीने से कोई आदमी अमर हो सकता है। तब वह सत्तर साल का हो गया था। फिर वह उस प्याले को अपने गले तक प्रसन्न होकर ले गया मुंह तक कि अब पी लूं। लेकिन तभी उसे खयाल आया--फिर मर न सकोगे; क्योंकि अमृत पीने के बाद फिर कोई मृत्यु नहीं! उसने कहा, दो मिनट फिर से सोच लूं। क्योंकि यह तो बहुत मुश्किल बात है। अमृत पीने के बाद फिर मर न सकोगे--उसके भीतर से किसी ने कहा--जरा सोच लो; सदा रहने का इरादा है? फिर मरना असंभव है! फिर पहाड़ से कूदो, चोट न लगेगी; पानी में डूबो, डूब न सकोगे; आग में जलो, जल न सकोगे। अमृत के बाद फिर मौत नहीं है! उसने प्याली नीचे रख दी, उसने कहा कि दो दिन सोच लूं, इतनी जल्दी क्या है!
दो दिन सोचा तो उसे लगा कि यह तो बहुत खतरा मोल ले लिया, यह बहुत खतरनाक है। तो वह उस अमृत के प्याले को, जिसे खोजने के लिए जिंदगी भर गंवा दी थी, पा तो लिया उसने, लेकिन पीने की हिम्मत न जुटाई। फिर उसने सोचा कि इतनी मेहनत बेकार चली जाएगी, कुछ मित्रों से पूछ लूं।
जिस मित्र के घर गया वही खुश हुआ कि धन्यभाग, आओ-आओ! लेकिन पीने के पहले उसने पूछा कि भई, तुम खुद क्यों नहीं पीते? तो उसने कहा, मैंने सोचा पीने का, लेकिन फिर मर न सकूंगा। तो उस मित्र ने कहा, हमको दुश्मन समझा है अपना? कहीं और ले जाइए!
वह गांव-गांव घूमता रहा, कोई आदमी न मिला जो उसको पीने को राजी हो। सम्राट के पास गया। और उसने कहा कि मैं थक गया, अब मैं मरने के करीब हूं। जिंदगी भर मेहनत करके एक चीज खोजी थी, सोचता था बड़े काम पड़ जाएगी। यह अमृत है, आप पी लें। सम्राट पी गया! आमतौर से सम्राटों में बुद्धि कम होती है, नहीं तो सम्राट न बनना चाहते। उसने यह भी नहीं पूछा--पीने के बाद उसने पूछा--अब इसका असर क्या होगा? उसने कहा, इसका असर हो चुका! अब आप मर नहीं सकेंगे! उसने कहा कि बदतमीज, पहले क्यों नहीं बताया? मर नहीं सकूंगा, क्या मतलब तेरा? कभी नहीं मर सकूंगा? उसने कहा, अब कभी नहीं मर सकेंगे।
सम्राट ने कहा, इस आदमी को कैद कर दो। वह आदमी कैद कर दिया गया। वह कैद में मर गया। सम्राट के बेटे बड़े हुए, मर गए, पत्नियां मर गईं, बेटों के बेटे मर गए, बहुएं मर गईं, उनके भी बेटों के बेटे मर गए; लेकिन सम्राट मरता ही नहीं! सम्राट एक प्रेत छाया की तरह घूमने लगा। और सारा गांव चाहता है कि यह मर जाए। सारा घर चाहता है कि यह मर जाए। क्योंकि उसको कोई प्रेम करने वाला न बचा। उससे किसी का कोई संबंध न रहा। उससे लोग डरने भी लगे, भागने भी लगे। उससे इसलिए भी डरने लगे कि इस आदमी के पास भी होना खतरनाक है। पता नहीं यह कैसा आदमी है! यह मरता क्यों नहीं? उसके घर के लोग उससे बात न करते, क्योंकि कई पीढ़ियों का फासला पड़ गया।
वह पहाड़ों से गिरता है, वह आग में कूदता है, वह जहर पीता है, वह छुरा मारता है, लेकिन मरता नहीं। वह एक ही प्रार्थना करता है, सब तरह के मंदिरों में जाता है, गिरजों में जाता है, मस्जिदों में जाता है--कि कोई भगवान सुन ले, मुसलमान का सुन ले, ईसाई का सुन ले, हिंदू का सुन ले। कोई नहीं सुनता उसकी। वह कहता है, मुझे मरना है! मस्जिद सुनसान खड़ी रहती है। चर्च में चिल्लाता है, मुझे मरना है, ईशु! लेकिन कोई आवाज नहीं आती। मंदिर में पुकारता है कि कृष्ण, राम, कोई मेरी सहायता करो, मुझे मरना है! कोई उत्तर नहीं आता। भगवान को पुकारता है कि मुझे मरना है! लेकिन भगवान की फाइल में भी कोई उत्तर नहीं है। क्योंकि सदा लोग एक ही पुकार करते रहे थे कि हम मर न जाएं! उसका तो उत्तर है भी। लेकिन किसी ने कभी पूछा ही नहीं था कि मुझे मरना है।
सुनते हैं, वह आदमी अभी भी जिंदा है। लेकिन अब वह दूर जंगलों-पहाड़ों में बच-बच कर भागने लगा है। अब वह आदमी से बचता है। क्योंकि आदमी को देख कर उसेर् ईष्या होती है कि यह तो मर जाएगा और मैं नहीं मरूंगा। हो सकता है कभी राजकोट में आए वह आदमी तो आपसे भी मिलना हो जाए।
क्या, हो क्या गया है? उसे अगर पूरी अमृत जिंदगी मिल गई, उस पागल को इतना परेशान क्यों होना चाहिए? परेशान होने का कारण है--जिसे हम जिंदगी कहते हैं वह मौत से बदतर है। वह जिंदगी ही नहीं है, वह सिर्फ दुख की लंबी कथा है। वह तो थोड़े दिनों की है, इसलिए हम सह लेते हैं। वह लंबी हो जाए तो बहुत मुश्किल हो जाए। सब लंबी चीजें मुश्किल हो जाती हैं। छोटी है, इसलिए सह लेते हैं। पता नहीं चलता, गुजर जाती है, इसलिए सह लेते हैं। लेकिन लंबी हो जाए तो मुश्किल हो जाए।
लेकिन क्या यह जिंदगी है जिससे हमें ऊब जाना पड़ता है? अगर जिंदगी से भी हम ऊब जाते हैं तो फिर क्या होगा जगत में जिससे हम न ऊबेंगे?
नहीं, आदमी कुछ गलत हो गया है। आदमी कहीं कुछ गलत हो गया है, कहीं किसी रास्ते से भूल हो गई है। आदमी के बनावट के सूत्र बुनियादी रूप से गलत हो गए हैं। इसलिए मैं कहता हूं, पुराना आदमी गलत था। क्योंकि पुराना आदमी दुखी है, बेचैन है, परेशान है। पुराना आदमी नाचता हुआ नहीं है। नहीं कह सकते कि भविष्य का आदमी भी नाचता हुआ हो सकेगा। क्योंकि कैसे कहें कि हम पुराने जाल से छूट जाएंगे, छलांग लगा लेंगे?
हां, एक बात पक्की है कि कभी-कभी कोई-कोई आदमी पुराने दिनों में भी यह छलांग लगा गया है। कभी-कभी कोई कृष्ण, कभी कोई बुद्ध छलांग लगा गया इस आग के बाहर। फिर उसकी बांसुरी बजने लगी; फिर उसका चित्त आनंद से भर गया। फिर उसके जीवन में कुछ फूल खिले, जो हमारे जीवन में नहीं खिलते। फिर उसकी जिंदगी में कुछ गीत बजे, जो हमारी जिंदगी में नहीं बजते। फिर उसने किसी वीणा के तार छू लिए, जो हमने नहीं छुए। फिर वह कहता है--बहुत आनंद है; बहुत प्रकाश है; बहुत शांति है; बहुत अमरत्व है; परमात्मा है।
लेकिन हम पूछते हैं--कैसा परमात्मा? कैसा आनंद? हमें शक आता है। हमारा शक बताता है कि हम चूक गए हैं। कृष्ण पर विश्वास आता है? नहीं आता है। कृष्ण कहते हैं, आनंद ही आनंद है, नृत्य ही नृत्य है जीवन में। विश्वास नहीं आता। बुद्ध कहते हैं, शांति ही शांति है, अमृत है, शांति ही शांति है। इतना आनंद है भीतर कि हिसाब नहीं। सुनते हैं, शक होता है कि यह आदमी ठीक कहता है? क्योंकि हमारी जिंदगी में तो कोई गवाही नहीं है इस बात की। बुद्ध झूठे मालूम पड़ते हैं, महावीर झूठे मालूम पड़ते हैं, जीसस झूठे मालूम पड़ते हैं। सुकरात, ये सब कोई ठीक नहीं मालूम पड़ते। क्योंकि हम, हमारी भीड़ कुछ और कहती है। हम कहते हैं--जिंदगी तो दुख है, कौन कहता है जिंदगी आनंद है? जिंदगी में तो कांटे ही कांटे मिलते हैं, कौन कहता है कि फूल भी खिलते हैं?
जरूर कहीं हमारे साथ भूल हो गई है या बुद्ध और महावीर के साथ भूल हो गई है। किसी न किसी के साथ भूल हो गई है। अगर बुद्ध और महावीर के साथ भूल हो गई है, कृष्ण और क्राइस्ट के साथ भूल हो गई है, तो वह भूल करने जैसी है। और अगर हमारे साथ भूल हो गई है, तो उस भूल से छलांग लगाने जैसा है, उसके बाहर आने जैसा है।
एक मित्र ने पूछा है: आपकी वेशभूषा साधु के जैसी है, इसका क्या कारण है? क्या आप पतलून, शर्ट वगैरह नहीं पहन सकते? आप तो विज्ञान को मानते हैं और पुराने को निकालने का उपदेश देते हैं।
साधु के पास सिवाय वेशभूषा के और कुछ भी नहीं है। इसलिए वह मैंने उससे चुन ली है और बाकी चीजें जिनके पास हैं वह उनसे चुन लिया है। साधु के पास सिवाय वेशभूषा के कुछ भी नहीं है। मगर वेशभूषा उसके पास है। और ध्यान रहे, बहुत वैज्ञानिक वेशभूषा है। पतलून और टाई वैज्ञानिक नहीं हैं। असल में वस्त्र वे बढ़िया हैं, जो नंगेपन को मिटने न दें। वस्त्र वे बढ़िया हैं, जो कस न लें, बांध न लें, कटघरा न बन जाएं। वस्त्र वे बढ़िया हैं, जो कहीं बांधते न हों, सदा खुला और मुक्त रखते हों।
लेकिन हम तो कटघरों में जीने के आदी हैं तो मकान भी कटघरों जैसा ही बनाते हैं। फिर मकान से तृप्ति नहीं होती--क्योंकि बाहर मकान को लेकर कैसे जाएंगे--तो कपड़े भी कटघरे जैसे बनाते हैं कि सब तरफ से कसे रहें, बंधे रहें। अब कुछ नहीं बनता तो टाई भी बांधते हैं। टाई का मतलब समझते हैं? टाई का मतलब होता है फांसी। उसको कहना चाहिए गलफांस, नेकटाई, गले की फांसी। उसको भी लगा लेते हैं। हम बंधन के आदी हैं। तो सब तरफ से बंधे हुए होना चाहिए। कहीं से खुले हुए नहीं होना चाहिए।
साधु ने वेश तो होशियारी से चुना है, बहुत वैज्ञानिकता से चुना है। खुला हुआ चुना है, बंधा हुआ नहीं है। उसके वेश के भीतर वह बिलकुल मुक्त है, कुछ बांधता नहीं है उसे। उसके वेश के भीतर हवाएं जाती हैं और पार होती हैं।
आपके वेश के भीतर हवाएं आर-पार नहीं होतीं। और पहले कभी होती रही हों, अब तो बिलकुल ही नहीं हो पाती हैं। क्योंकि टेरीलीन है, और सब है, और प्लास्टिक से बने हुए जितने कपड़े हैं वे कोई भी हवा को भीतर नहीं जाने देते। स्टील के कपड़े भी बनने, तैयार होने की बात है। वे पहनना और भी सुंदर होंगे, चमकदार होंगे। लेकिन वैज्ञानिकता नहीं है। वैज्ञानिकता कुछ और बात है। वैज्ञानिकता का मतलब है: मैं कैसे जीऊं! वह जीना कैसे आनंदपूर्ण, स्वतंत्र, मुक्त हो! उसका सब तरफ से खयाल होना चाहिए--वस्त्र में भी, भोजन में भी, उठने-बैठने में भी, मकान में भी।
लेकिन उसका हमें खयाल नहीं है। मकान हम ऐसे बनाते थे कि चोर का ध्यान रखते थे, रहने वाले का नहीं। वह जिसको रहना है उसका ध्यान नहीं था, चोर का ध्यान था जो कभी आएगा। और जो चौबीस घंटे रहेगा उसकी कोई फिक्र नहीं। कभी आएगा चोर, वह पता नहीं आएगा कि नहीं आएगा, कोई पक्का भी नहीं है। लेकिन उसको ध्यान में रख कर मकान बनाते थे तो मकान कटघरा हो जाता था, मकान एक जेलखाना हो जाता था।
कपड़े भी हमने ऐसे बना लिए थे जो आदमी को कसे रहें चौबीस घंटे।
मैंने तो जान कर चुने हैं। मैं तो बिना जाने कुछ करता नहीं। मैंने देखा कि साधु के पास कपड़े बढ़िया हैं। कपड़े चुन लिए। और देखा कि कपड़े ही हैं, और कुछ नहीं है, तो और कुछ जहां मुझे मिला वहां से चुन लेता हूं। जिसके पास जो है मुझे स्वीकार है। अगर वह आनंदपूर्ण है, तो सिर्फ इस वजह से इनकार के योग्य तो न हो जाएगा कि फलां के पास था तो आपने कैसे चुन लिया!
नहीं, चुनाव की तो स्वतंत्रता है। और फिर मुझे यह भी लगा कि साधु के कपड़े मैं पहनूं तो अच्छा है। उससे यह भी पता चल जाए कि साधु के कपड़े पहनने से भी कोई आदमी साधु नहीं हो जाता। लोगों को पता चलता रहे कि यह आदमी भी साधु के कपड़े पहने है, साधु नहीं है।
अभी मैं एक ट्रेन में सवार हुआ, तो रोज बहुत मजेदार बातें हो जाती हैं। ट्रेन में सवार हुआ। कुछ मित्र छोड़ने आए थे। मेरे कंपार्टमेंट में जो सज्जन थे उन्होंने देखा बहुत लोग छोड़ने आए हैं, जरूर कोई महात्मा होना चाहिए। जब मैं अंदर गया, ट्रेन चल पड़ी, उन्होंने जल्दी से पैर पड़े और कहा कि महात्मा जी, आपका सत्संग हो गया, बड़ा अच्छा हुआ। मैंने कहा कि बड़ी गलती हो गई आपसे। अगर मैं महात्मा न होऊं, तो अब आप यह पैर छू लिए वापस कैसे लेंगे? उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मजाक करते हैं! मैंने कहा, मैं मजाक नहीं करता। मैं महात्मा नहीं हूं। मुझे सिर्फ कपड़ों का शौक है, तो मैंने ये कपड़े पहन लिए। उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैंने कहा, अगर अब कोई उपाय हो तो जल्दी से पैर छुए वह वापस ले लें। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने कहा, ऐसा हो गया है, मैं सामने खड़ा हूं। मैं महात्मा नहीं हूं। तो उन्होंने कहा, आप हिंदू तो हैं, वैष्णव हैं? मैंने कहा कि यह और मुश्किल हो गई। आपको पहले ही पूछ कर सब करना था। मैं हिंदू भी नहीं हूं, वैष्णव भी नहीं हूं। उन्होंने कहा, क्या मतलब? क्या आप मुसलमान हैं? मैंने कहा कि अगर मैं मुसलमान होऊं तो क्या करिएगा आप? उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैंने कहा, अपना मन मत समझाइए। सब हो सकता है। इसमें क्या कठिनाई है? मुसलमान होने में कोई कठिनाई है मेरे?
उन्होंने फिर मुझे नीचे से ऊपर तक देखा। मैंने कहा, बैठिए, घबराइए मत, अब जो हो गया हो गया। अब बाकी सत्संग शुरू करिए। उन्होंने कहा, मुझे कोई सत्संग नहीं करना। लेकिन आप आदमी कैसे हैं? आप मुसलमान हैं? मैंने कहा कि अगर मैं मुसलमान भी न होऊं तो सिर्फ आदमी होने में आपको कोई एतराज है? सिर्फ आदमी न होने देंगे?
उन सज्जन ने कंडक्टर को बुलाया, वे अपना सामान वगैरह लेकर दूसरे कंपार्टमेंट में चले गए। वे सत्संग करने से बड़े आनंदित हो रहे थे। फिर मैं उनके दरवाजे को खटखटाया जाकर। मैंने कहा, सत्संग नहीं करिएगा? तो उन्होंने कहा, आप मेरे पीछे क्यों पड़ गए हैं? मैंने कहा, मैं पीछे नहीं पड़ा; मैं हिंदू हूं। उन्होंने कहा, आइए-आइए! मैं तो पहले ही समझता था कि आप हिंदू हैं। मैंने कहा, आप देखते नहीं, जरा से शक में पड़ गए! कपड़े नहीं बताते कि मैं महात्मा हूं! उन्होंने दुबारा मेरे पैर पड़े और कहा, आप महात्मा हैं ही, वह तो मैं पक्का मान ही रहा था।
तो यहां हमारी बुद्धि अटक गई है--कहीं कपड़ों पर, कहीं शब्दों पर। इसको तोड़ देना पड़ेगा। गैर-महात्माओं को महात्माओं के कपड़े पहन लेना चाहिए, महात्माओं को गैर-महात्माओं के कपड़े पहन लेना चाहिए। यह सिलसिला टूटना चाहिए। हिंदू को मुसलमान के नाम रख लेना चाहिए, मुसलमान को हिंदुओं के नाम रख लेना चाहिए। यह सिलसिला टूटना चाहिए। यह पचास साल के बाद पता न चल सके--कौन गृहस्थ है, कौन संन्यासी है! कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है! यह पता नहीं चलना चाहिए। इसके पता चलने से बहुत नुकसान हुआ है। आदमी-आदमी के बीच बहुत दीवारें खड़ी हुई हैं। वे सब दीवारें तोड़ देने की जरूरत है, अगर एक नया समाज और एक नया आदमी पैदा करना है।
एक मित्र ने पूछा है कि हमें कल के आपके प्रवचन में यह बात समझ में नहीं आई कि तुलना, कंपेरिजन नहीं करनी चाहिए। तुलना न करने से तो फिर विकास नहीं हो सकेगा!
तुलना करने से विकास हो गया है?
हो गया है--सब आदमी पागल हो गए हैं, यह विकास हो गया है! क्योंकि जितनी तुलना होगी उतना ही पागलपन बढ़ता चला जाएगा। तुलना का मतलब है--नजर दूसरे पर। तुलना का मतलब है--दूसरा क्या कर रहा है, उससे मुझे तौलना है अपने को। तुलना का मतलब है--दूसरे को क्या हो गया है, उससे मुझे तौलना है अपने को। तुलना का मतलब है--दूसरे सदा मेरे ध्यान में रहें और मैं सदा गौण, और सदा उनसे अपने को तौलूं।
लेकिन ध्यान रहे, दो आदमी एक जैसे नहीं हैं। अगर आप रवींद्रनाथ के पड़ोस में रह गए तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। कहीं आप भी कविताएं करने लगे तो जिंदगी मुश्किल हो जाएगी। और रवींद्रनाथ अगर आपके बगल में रह कर कहीं दुकानदारी करने लगे तो इतनी मुश्किल में पड़ जाएंगे। रवींद्रनाथ के मां-बाप ने बहुत कोशिश की थी कि वे दुकानदार बन जाएं या डाक्टर बन जाएं या इंजीनियर बन जाएं। सभी मां-बाप करते हैं। बेटों को बिगाड़ने की कोशिश से कौन बचना चाहता है! लेकिन रवींद्रनाथ बच गए। बड़ी मुश्किल से बच पाए। नहीं तो एक अदभुत आदमी खो जाता।
रवींद्रनाथ के घर में एक किताब है, जिस किताब में बच्चों के जन्मदिन पर घर के बड़े-बूढ़े बच्चों के संबंध में भविष्यवाणियां करते थे। खेल था एक कि देखें किसकी भविष्यवाणी आगे ठीक निकलती है। तो रवींद्रनाथ के संबंध में किसी ने अच्छी भविष्यवाणी नहीं की। और घर में ग्यारह बच्चे थे, उनमें से कई के संबंध में अच्छी भविष्यवाणियां हैं। क्योंकि कोई प्रथम आता था, कोई फर्स्ट डिवीजन आता था। कोई कुछ करता था, कोई गोल्ड मेडल लाता था। रवींद्रनाथ कभी कुछ नहीं लाए। इनके संबंध में कौन भविष्यवाणी करे! क्योंकि इनकी तुलना ही किसी से ठीक नहीं पड़ती थी।
रवींद्रनाथ की मां ने भी लिखा है कि रवि से कोई आशा नहीं है।
वह किताब देखने लायक है। वे ग्यारह बच्चों का दुनिया में बिलकुल पता नहीं कि वे कहां चले गए। यह एक बच्चा है, अभी भी इसका नाम है। इससे बिलकुल आशा नहीं थी। मां को ही आशा नहीं थी, किसी और को तो क्या होगी! क्योंकि मां को तो सदा आशा होती है, चाहे किसी को न हो। लेकिन मां को भी आशा नहीं थी कि इससे कोई आशा नहीं बनती कि यह कुछ भी हो सकेगा।
लेकिन यह लड़का कुछ हो सका। यह हो सका इसलिए कि इसे जो होना था यह उसी होने में लग गया। शिक्षक गणित पढ़ाता और रवींद्रनाथ शिक्षक का चित्र बनाते। गणित तो नहीं सीख सके, लेकिन चित्र बनाना आ गया। शिक्षक भूगोल पढ़ाता और रवींद्रनाथ बाहर जो पक्षी गीत गाता उसको सुनते। भूगोल तो नहीं आई, लेकिन पक्षी का गीत प्राणों में प्रवेश कर गया।
लेकिन सारे बच्चे कुछ और कर रहे थे। रवींद्रनाथ के घर के भी लोग कह रहे थे--देखो, पड़ोस के बच्चे देखो! और घर के बच्चे देखो! बहुत बड़ा परिवार था, सौ लोग थे घर में, कितने बच्चे थे। सब आगे जा रहे हैं, तू पिछड़ा जा रहा है!
लेकिन उस लड़के ने कोई फिक्र न की। उसने कहा कि अगर पिछड़ा ही होने वाला हूं मैं, अगर पिछड़ा ही हुआ हूं, तो वही ठीक! अब मैं क्या करूं? जैसा हूं, वैसा हूं!
असल में न तुलना करने का मतलब है कि मैं जैसा हूं, वैसा हूं। इसका यह मतलब नहीं है कि विकास रुक जाएगा। इसका यह मतलब है कि अगर आप इस बात के लिए राजी हो गए कि जो मैं हूं, हूं; तो आपकी जिंदगी में एक विकास होगा, जो आंतरिक होगा। आप रुक थोड़े ही सकते हैं विकास करने से। पौधे बगल के पौधे को देख कर बढ़ रहे हैं?
आपने गुलाब का पौधा लगाया, वह बगल के पौधे को देख कर बढ़ रहा है कि इसमें कितने पत्ते हैं, कितने फूल लगे हैं, इतने मैं लगाऊं?
नहीं, वह अपनी खाद ले रहा है, अपना पानी ले रहा है, अपनी ताकत से बढ़ रहा है।
जिंदगी भीतर की ताकत से चलती है। हम उसे बाहर का फीवर, बाहर का बुखार चढ़ाना चाहते हैं। बुखार तो चढ़ जाता है तेजी से, दौड़ तेज हो जाती है। लेकिन गलत दौड़ हो जाती है, क्योंकि दूसरे के पीछे दौड़ शुरू हो जाती है। जो हमें नहीं होना, वह हम होने की कोशिश में लग जाते हैं। तुलना ने मनुष्य को, मनुष्य के सारे जीवन को नष्ट करने में बहुत बड़ा काम किया है। तुलना वायलेंस है, तुलना हिंसा है।
जब कोई बाप अपने बेटे से कहता है कि पड़ोसी के बेटे को देखो, वह आगे निकला जा रहा है! तो अपने बेटे की हिंसा कर रहा है, वह उसकी गर्दन दबा रहा है। वह कह रहा है, बुखार चढ़ाओ अपने ऊपर! दौड़ो तेजी से! दूसरा आगे न निकल जाए!
दौड़ जाएगा बेटा उसका। सब धक्के देंगे। पिता देगा, मां देगी, शिक्षक देगा, पूरा समाज देगा। कल उसकी पत्नी देगी। आगे जाकर उसके बेटे देंगे कि तुम क्या कर रहे हो, सबके बाप कारें खरीद लाए! अपनी कार घर में नहीं दिखाई पड़ती। वह जिंदगी भर दौड़ता रहेगा, दौड़ता रहेगा और मर जाएगा। हां, हो सकता है एक कार खरीद लाएगा, एक मकान बना लेगा, सर्टिफिकेट दीवारों पर लटका देगा, कहीं-कहीं अभिनंदन समारोह करवा लेगा। वह सब हो जाएगा और आदमी मर जाएगा। कार आ जाएगी, मकान आ जाएगा, सर्टिफिकेट आ जाएंगे; आदमी खो जाएगा।
अगर आदमी को बेच कर यह सब खरीदना हो, तुलना बहुत जरूरी है, तुलना औषधि है, वह करना। लेकिन अगर आदमी को बचाना हो...इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी बच जाएगा तो कार नहीं आ सकती। इसका यह कोई मतलब नहीं है। आदमी बच जाए, यह पहली जरूरत है। कार हो, मकान हो, ये गौण जरूरतें हैं। हो जाएं, ठीक। लेकिन आदमी को बेच कर नहीं की जा सकती हैं।
लेकिन दौड़ तेज है। और उस तेज दौड़ में तुलना हमें मारे डाल रही है। बगल का आदमी मकान बना रहा है। और उसके मकान बनाने से मेरा मकान एकदम मुश्किल में पड़ जाता है। हालांकि मेरे मकान में कोई फर्क नहीं होता; मेरे कमरे उतने ही बड़े थे जितने कल थे। लेकिन एकदम छोटे लगने लगते हैं, क्योंकि बगल में बड़े कमरे बन गए हैं। अब मुझे इस मकान में सोना अच्छा नहीं लगता, नींद नहीं आती, क्योंकि बगल में एक और बढ़िया शानदार मकान बन गया है। क्या पागलपन है! मेरा कमरा मेरा है। और उसमें मैं सो रहा था, कल तक सब ठीक था। यह बड़ा मकान बन गया, सब मुश्किल हो गई।
कलकत्ते में एक बहुत बड़े आदमी के घर मैं ठहरता था। शायद उनका कलकत्ते में सबसे अच्छा मकान था। सारी संगमरमर की कोठी है, बड़ा बगीचा है। एक दूसरे नये धनपति ने मुझे आकर निमंत्रण दिया कि कल आप मेरे घर खाना खाएं। तो मैंने कहा, अच्छी बात, मैं आ जाऊंगा। जिनके घर ठहरा था, उनसे भी उन्होंने कहा कि आप भी कल जरूर आएं। उन्होंने कहा कि नहीं, मुझे बहुत काम हैं, मैं न आ सकूंगा; बहुत ही जरूरी हैं। उन्होंने कहा, दो मिनट के लिए आ जाएं। उन्होंने कहा, बहुत ही मुश्किल है, एक मिनट निकालना मुश्किल है। फिर कभी आऊंगा।
जब वे मित्र चले गए तो मैंने उनसे पूछा, उन्होंने इतना आग्रह किया, आप दो मिनट के लिए चले चलते। उन्होंने कहा, काम तो बिलकुल नहीं है। लेकिन इस आदमी ने जो मकान बनाया है, उसकी वजह से मेरा मकान नंबर दो हो गया। मैं उस गली से नहीं निकलता। मैं कार का दो मील का चक्कर लगा कर आता हूं। ठहर जाएं, घबराएं मत, साल दो साल की बात है। हम भी बना लेंगे। फिर जाएंगे उनके निमंत्रण पर। हम भी उनको निमंत्रण देंगे। अभी नहीं।
मैंने कहा, अजीब बात है। आप भी हद कर दिए। बना लेना आप मकान। लेकिन उनके मकान में जाने में क्या हर्ज है?
उन्होंने कहा, मैं उस गली से नहीं निकलता। वह मकान देख कर मुझे बड़ी मुश्किल हो जाती है।
फिर मैं दूसरे दिन उन दूसरे मित्र के घर भोजन करने गया। मैंने सोचा कि यह आदमी पागल है। उनके घर गया, मैंने कहा कि वे तो नहीं आए, मैंने भी बहुत आग्रह किया। उन्होंने कहा कि वे आते ही नहीं! जब से मकान बनाया है, चाहता हूं, एक दफा आ जाएं, जरा देख लें कि कैसा मकान बनाया है!
तब मुझे पता चला ये भी पागल हैं। वे दोनों ही उसी चक्कर में हैं। मैं सोचता था कि पहला आदमी पागल है, दूसरा आदमी भी पागल है। अगर हम आदमी-आदमी को खोजने जाएं तो हमें पता लगेगा कि हम एक बड़ा मैड हाउस बना लिए हैं, एक बड़ा पागलखाना बना लिए हैं, उसमें सब आदमी पागल हैं।
लेकिन लगता है कि तुलना विकास करवा रही है। नहीं, तुलना दौड़ाती तो है, लेकिन दौड़ना हर हालत में विकास नहीं है। नरक की तरफ भी दौड़ा जा सकता है। गङ्ढे में भी दौड़ा जा सकता है। और यह भी हो सकता है कि दौड़ते-दौड़ते आदमी दौड़ता ही रहे और पागल की तरह दौड़ता रहे, और कभी ठहर न पाए और दो क्षण विश्राम न कर पाए। किसी वृक्ष के नीचे न टिके, किसी छाया में न रुके। दौड़ता रहे, दौड़ता रहे, और गिरे और मर जाए। तो इस दौड़ को विकास कहिएगा?
करीब-करीब ऐसा ही होता है। बचपन से दौड़ शुरू होती है, कब्र पर शून्य होती है। फ्राम दि क्रेडल टु दि ग्रेव, झूले से लेकर बच्चे के, और मुर्दे की कब्र तक दौड़ चलती रहती है। और हम कहते हैं, बड़ा विकास हो रहा है। बड़ा विकास हो रहा है, क्योंकि आदमी दौड़ता चला जा रहा है।
नहीं, यह विकास नहीं है, यह विक्षिप्त दौड़ है। और यह विक्षिप्त दौड़ है कंपेरिजन की वजह से; यह विक्षिप्त दौड़ है तुलना की वजह से--दूसरा क्या कर रहा है!
दूसरे से क्या प्रयोजन है? मैं मैं हूं। कुछ क्षमताएं परमात्मा ने मुझे दी हैं। मैं उन क्षमताओं का आनंद लूं। और जब मैं उन क्षमताओं का आनंद लूंगा तो वे विकसित होंगी, बिना किसी दौड़ के। मुझे गीत गाना है, गीत गाऊं; सितार बजाना है, सितार बजाऊं; जूता बनाना है, जूता बनाऊं; किसी के पैर दबाने हैं, पैर दबाऊं। मुझे जो करना है, मैं करूं। और अगर मुझे आनंद आता है तो आनंद आने से मैं और करूंगा, और करूंगा, और करूंगा, गहरा करूंगा। आनंद मेरा बढ़ता जाएगा, मैं गहरा होता चला जाऊंगा। लेकिन दौड़ नहीं होगी, एक बहुत शांत गति होगी। शांत गति होनी चाहिए विकास में।
तुलना शांत गति नहीं होने देती। तुलना एक तरह के ज्वरग्रस्त व्यक्तित्व में जहर का काम करती है, जहर डालती जाती है और हम भागते चले जाते हैं।
यह ऐसा ही है कि जैसे हम किसी आदमी को पीछे से कोड़े लगाते जाएं और वह दौड़े। और अगर हम कहें कि यह कोड़े लगाना गलत है। तो कोड़े लगाने वाला आदमी कहे, कोड़े लगाए जा रहे हैं जिसे वह आदमी कहे कि अगर कोड़े न लगेंगे तो विकास कैसे होगा? कोड़े लग रहे हैं तब तो विकास हो रहा है। वह तो चमड़ी उधड़ जाती है पीठ की इसलिए तो मैं दौड़ता हूं।
तो मैं कहता हूं कि दौड़ो मत, ऐसे विकास से भी क्या होगा जिसमें पीठ की चमड़ी उधड़ जाती हो! आत्मा तक की चमड़ी उधड़ जाती है इस सारी प्रतियोगिता में, इस प्रतिस्पर्धा में, इस कांप्टीशन में, जो चारों तरफ हमें पकड़े हुए है। सब उधड़ जाता है। और आखिर में मौत हाथ में आ जाती है और जिंदगी का कोई पता नहीं चलता। इससे क्या प्रयोजन है? यह पूछने जैसा है प्रत्येक को अपने से कि ऐसी दौड़ का क्या अर्थ है? नहीं, ऐसी दौड़ का कोई अर्थ नहीं।
और ध्यान रहे, जिंदगी की जो मंजिल है, जिंदगी का जो रस है, जिंदगी का जो सौंदर्य है, वह तेज दौड़ने से नहीं, वह अत्यंत शांति और धीरज से चलने से उपलब्ध होता है।
एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। मैंने सुना है, एक नदी के तट पर दो फकीर उतरे। एक बूढ़ा फकीर है, एक युवा फकीर है। नाव से नीचे उतरे। मांझी नाव को बांधने लगा। बूढ़े फकीर ने और युवा फकीर ने, दोनों ने अपने सिरों पर--ग्रंथ थे उनके पास--ग्रंथों का बोझ उठा लिया। चलते वक्त, सूरज ढल रहा है, उन्होंने उस मांझी से पूछा कि इतना बता दो, गांव कितनी दूर है? पहाड़ी रास्ता है, सांझ होने के करीब है और हमने सुना है कि गांव के दरवाजे बंद हो जाएंगे सूरज के डूबने पर, तो कहीं ऐसा न हो कि हम न पहुंच पाएं और दरवाजे बंद हो जाएं तो रात जंगल में बितानी पड़े। कितनी दूर है?
उस मांझी ने कहा, दूरी की फिक्र न करें; एक ही ध्यान रखें कि धीरे-धीरे चलें।
वे दोनों तो सुने और भागे। उन्होंने कहा किसी पागल से पाला पड़ गया है। क्योंकि अगर धीरे चले तो हो गया। उससे पूछा था कि कितनी दूर है? उसने कहा, दूर की फिक्र न करें, इतनी ही फिक्र करें कि धीरे-धीरे चलें। अपनी नाव वह बांधता रहा। वे दोनों भागे, अब इससे बात करने में समय खोना भी ठीक नहीं था। यह आदमी पागल मालूम पड़ा, वे दोनों भागे।
सूरज नीचे उतरने लगा और उनकी तेज दौड़ होने लगी। पहाड़ी रास्ता है, बूढ़ा फकीर है, गिर पड़ा; घुटने टूट गए; किताबों के पन्ने उड़ गए। मांझी नाव को बांध कर गीत गाता धीरे-धीरे आ रहा है। बूढ़े के पास आकर खड़ा हो गया। अब बूढ़ा चल नहीं सकता; जवान फकीर उस बूढ़े को कंधे पर उठा रहा है। उस मांझी ने खड़े होकर कहा, मैंने कहा था, लेकिन आपने नहीं सुना, कोई नहीं सुनता। क्योंकि मैं वर्षों से देखता हूं कि जो धीरे चलता है वह पहुंच भी जाता है, जो दौड़ता है वह नहीं पहुंच पाता! रास्ते बहुत पहाड़ी हैं, सांझ का वक्त, अंधेरा उतरने के करीब। जो तेजी से चलता है, गिरता है। जो धीरे चलता है, पहुंच भी जाता है। जिंदगी भर के अनुभव से मैं यह कहता हूं, लेकिन कोई नहीं सुनता! अब तुम न पहुंच सकोगे, अब रात इस जंगल में ही बितानी पड़ेगी।
लेकिन हर्ज नहीं, किसी गांव में अगर रात भर न भी पहुंचे तो क्या हर्ज है? लेकिन जिंदगी के गांव में ही न पहुंच पाए और जिंदगी भर दौड़े, तब तो बहुत हर्ज हो जाएगा!
हम सब दौड़ते हैं, रास्ता पथरीला है, रास्ता अंधेरा है, वहां सांझ ही है रास्ते पर सदा। और पहाड़ी है, पथरीला है, रास्ता अनजान है, अपरिचित है। दौड़ने से गिरने की ही संभावना ज्यादा है, पहुंचने की नहीं। लेकिन गिरने को हम मंजिल समझते हैं। हां, यह बात दूसरी है कि कोई दिल्ली में जाकर गिर पड़ता है, तो हम कहते हैं, बहुत अच्छा हुआ।
पर दिल्ली में गिरे तो क्या फर्क पड़ता है, गिरे! दौड़ते-दौड़ते दिल्ली में गिर गए जाकर। आमतौर से ऐसा होता है, सारे मुल्क से लोग दौड़ते रहते हैं, गिरते दिल्ली में हैं। दिल्ली पुराना मरघट है, वहां जाकर लोग गिरते रहते हैं। और वहां कोई चला गया तो फिर वहां से लौटता नहीं। फिर वह कहता है, अब जब तक न गिर जाएं तब तक लौटें कैसे! मरेंगे यहीं, राजघाट पर ही दफनाए जाएंगे, अब कहीं नहीं जाते। तो वहां जो गया वह चिपक कर बैठ जाता है। या तो गिर ही जाता है जाते-जाते, नहीं तो दो-चार दिन बाद गिर जाता है। लेकिन दौड़ है दिल्ली के लिए और दिल्ली बड़ी हैरान है। और दिल्ली सदा यही सोचती है, लोग किसलिए दौड़ कर यहां आते हैं--सिर्फ मरने के लिए? गिरने के लिए? किसलिए दौड़ कर यहां चले आते हैं?
सारे यश के केंद्र, सारी प्रतिष्ठा के केंद्र, धन के केंद्र कब्र बन जाते हैं। दौड़ का आखिरी पड़ाव वहां पड़ता है, आदमी गिर जाता है।
टाल्सटाय ने एक छोटी सी कहानी लिखी है, वह सबने पढ़ी होगी। वह बहुत अदभुत है। उस कहानी का नाम है: हाउ मच लैंड डज ए मैन रिक्वायर? एक आदमी को कितनी जमीन की जरूरत है?
एक आदमी के घर में एक मेहमान रुका है रात। और उस मेहमान ने रात में उस आदमी से कहा कि तुमने सुना? तुम क्या कर रहे हो, समय खो रहे हो अपना! छोटी सी जमीन है, इसको बेच दो। वहां दूर साइबेरिया के पास बड़ी अदभुत जमीन मुफ्त में मिल रही है। तुम यहां क्यों पड़े हो? भागो!
उस आदमी ने कहा, कहां है वह जगह? वह उस रात नहीं सो सका। उसको सदा अच्छी नींद आती थी, उस रात वह नहीं सो सका। रात में कई बार उठा कि सुबह हुई कि नहीं हुई। वह आदमी उठ आए तो पता लेकर मैं भागूं।
सुबह उठ कर उसने पता लिया। जमीन बेच दी और साइबेरिया की तरफ भागा। वहां जाकर उस गांव में पहुंचा जहां वह जमीन मिलती थी--मुफ्त! हालांकि उसको कभी कोई खरीद नहीं पाता था। लेकिन अगर हमको भी पता चल जाता--मेरे घर में भी कोई ठहरता और मुझसे कहता कि जमीन मुफ्त मिल रही है, तुम क्या कर रहो हो यहां! तो मैं भी भागता। और एक ही शर्त थी कि सुबह खूंटी गाड़ कर दौड़ो और सांझ होने तक लौट आओ, जितनी जमीन को तुम घेर लोगे दौड़ कर, उतनी तुम्हारी। इतनी ही शर्त पर जमीन मिलती थी। हालांकि उस गांव की जमीन कभी नहीं बिकी। उस गांव के लोग बड़े बुद्धिमान रहे होंगे। इतने बुद्धिमान लोग पृथ्वी पर कहीं भी नहीं हैं। उस गांव में बड़े बुद्धिमान लोग थे। एक इंच जमीन कभी भी न गई उनकी; हालांकि इतनी सस्ती बेचते थे। लेकिन तरकीब बहुत होशियारी की थी। सारी मनुष्य-जाति का अनुभव उस तरकीब में लगा दिया था उन्होंने।
वह आदमी भागा हुआ पहुंचा। सौ एकड़ जमीन थी, उसने बेच दी, रास्ते का खर्च पूरा किया। वहां जाकर जब उसने सुना कि बात सच है, तो उसने दावत दी और कहा कि कल सुबह मैं दौड़ शुरू करूंगा। क्या यही शर्त है सिर्फ कि मुझे खूंटी गड़ा कर दौड़ना है! रात भर वह फिर न सो सका। उसने सोचा, किस तरफ दौडूं? पूरब जाऊं कि पश्चिम जाऊं? सब तरफ जमीन बढ़िया से बढ़िया है।
सुबह उसने खूंटी गड़ाई, सूरज अभी उग भी नहीं पाया और खूंटी उसने गड़ा दी। गांव का मुखिया आ गया, गांव के लोग आ गए, सबने उसको शुभकामनाएं कीं कि भगवान करे तुम ज्यादा से ज्यादा जमीन घेर लो! लेकिन उस पागल आदमी ने यह न पूछा कि पहले कोई घेर पाया? वह नहीं पूछा। कोई नहीं पूछता; वह भी क्यों पूछता। वह भागा। उसने तो आशीर्वाद सुनने की भी फिक्र न ली। शुभकामना सुनने में समय गंवाना व्यर्थ है। वह तेजी से दौड़ा। वह भागा।
उसने अपने साथ रोटी और पानी ले लिया था, ताकि भूख-प्यास न सताए, जल्दी न लौटना पड़े। रास्ते में ही भोजन कर लूंगा, पानी पी लूंगा। वह पहले भागता ही रहा। उसने कहा कि दोपहर तक तो मैं भागता ही रहूं--बारह बजे तक; फिर लौटना शुरू करूंगा। तो जितनी तेजी से दौड़ सकूं दौड़ता जाऊं। जितना दौड़ता था उतनी सुंदर जमीन आगे थी, उतनी और मखमली जमीन थी, उतनी कीमती जमीन थी। वह तो पागल हुआ जा रहा था। उसने कहा, एक दिन का मौका है सिर्फ! जितना मिल गया, मिल गया; चूक गया, चूक गया।
मीलों दौड़ चुका था। बारह बज गए। उसने कहा, बारह बज गए! मन के किसी हिस्से ने कहा, लौट चलो। लेकिन मन के किसी हिस्से ने कहा कि थोड़ा सा और दौड़ लो, इतनी जल्दी क्या है? लौट चलेंगे, जरा तेजी से चलेंगे लौटते वक्त।
मन सदा यही कहता है--लौटते वक्त तेजी कर लेंगे, थोड़ा और बढ़ जाएं, थोड़ा और बढ़ जाएं। मन ने कहा, थोड़ा और आधा घड़ी दौड़ने में क्या हर्ज है! अब तो सबसे अच्छी जमीन आ रही है! झील करीब आ गई थी और जमीन बहुत सुंदर हो गई थी। और ऐसा लग रहा था कि सोना उगल देगी। इसको चूकना बहुत मुश्किल है। फिर दोबारा तो यह मौका नहीं मिलेगा। वह गांव सिर्फ एक दिन का मौका देता था। सभी गांव एक दिन का मौका देते हैं। जिंदगी एक दिन का मौका ही तो है। उसने और थोड़ा दौड़ा। उसने कहा, लौटते में जरा ताकत ज्यादा लगा लेंगे और दौड़ लेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, चढ़ता हुआ दौड़ना एक बात है, लौटते वक्त दौड़ना बिलकुल दूसरी बात है। दो बजे के करीब वह अपने मन को समझा पाया कि अब लौट चलना चाहिए। लेकिन तब तक वह थक चुका था। दो बजे तक कौन नहीं थक जाता है! सूरज जब ढलने लगता है, कौन नहीं थक जाता है! जिंदगी जब ढलने लगती है, तब कौन नहीं थक जाता है! थक गया था, पैर उठते न थे। भोजन करने बैठे, समय जाया हो जाए! पहुंच सके खूंटी तक, न पहुंच सके। रोटी उसने निकाल कर फेंक दी।
आदमी जमीन इसलिए चाहता है कि रोटी मिल जाए, लेकिन रोटी इसलिए फेंक देता है कि जमीन मिल जाए। उसने रोटी फेंक दी। उसने कहा, आज न खाया तो हर्ज क्या है? कितने लोग दुकान पर बैठ कर उपवास करते रहते हैं। आज न खाया तो हर्ज क्या है? प्यास लगी थी, लेकिन क्षण भर रुक कर पानी पीना खतरनाक था। क्योंकि सूरज तेजी से डूब रहा था और फासला इतना दूर मालूम हो रहा था कि लोग दिखाई नहीं पड़ते थे कि जहां वह छोड़ आया है खूंटी गड़ा कर वह कहां है। पानी पीने का समय न था, पानी की थैली भी उसने फेंक दी। क्योंकि बोझ भी लगता था और समय भी न था।
अब वह तेजी से दौड़ रहा है, पैर पत्थर जैसे भारी हो गए हैं। पैर उठता नहीं है, फासला अनंत मालूम होता है, सूरज तेजी से ढलता है। अब वह भाग रहा है, अब वह चिल्ला रहा है कि मैं मर गया, मैं लुट गया। हालांकि उससे किसी ने कुछ भी नहीं लिया था, जमीन मुफ्त मिल रही थी। वह चिल्ला रहा है कि मैं लुट गया, मैं हार गया, मैं मर गया। वह भाग रहा है, वह चिल्ला रहा है, वह भगवान से प्रार्थना कर रहा है--सूरज को थोड़ा धीरे चलाओ! इतनी तेजी से तो कभी चलते नहीं देखा, यह सूरज को क्या हो गया है! सूरज एकदम है कि डूबा चला जाता है, डूबा चला जाता है। वह भाग रहा है, वह भाग रहा है...अब वह घिसटने लगा है, अब पैरों ने जवाब दे दिया है, अब आंखों में कुछ दिखाई नहीं पड़ता है, अब वह अंधेरे में घुप्प हो गया है। ऐसा लग रहा है कि सूरज डूब तो नहीं गया। कभी सूरज दिखाई पड़ता है, कभी डूबा मालूम पड़ता है। सूरज अपनी जगह है, लेकिन उस आदमी की आंखें गड़बड़ा गई हैं। इतनी तेजी से जो दौड़ेगा, उसकी अगर दृष्टि गड़बड़ा जाए तो कुछ आश्चर्य है!
वह पहुंच गया है--सांझ होतेऱ्होते, सूरज बिलकुल ढलते-ढलते, आखिरी किनार छूने लगी है क्षितिज को। वे गांव के लोग खड़े हैं, पूरा गांव खड़ा है, वे चिल्ला रहे हैं कि मित्र जल्दी करो, सूरज डूबा जा रहा है! अब वे लोग दिखाई पड़ने लगे हैं। आशा फिर बंध गई है, अब वह फिर ताकत लगा कर दौड़ता है। आखिरी ताकत--अब वह श्वास भी नहीं लेता है--वह खूंटी के पास आकर गिर जाता है। वह आखिरी श्वास खूंटी के पास लेता है। दिल्ली आ गई! वह मर गया। गांव के लोग हंसते हैं। वह मरते आखिरी क्षणों में श्वास टूटने में हंसी की गूंज सुनता है और अपने मन में सोचता है कैसा पागल था!
वह मर रहा है, गांव वाले लोग उसके खीसे के रुपये निकाल रहे हैं, वह जो सौ एकड़ बेच आया था जमीन। और वे सब हंस रहे हैं, क्योंकि यह रोज होता है उस गांव में। कोई आता है और रोज यही होता है। और वे सब हंस कर बात कर रहे हैं, आदमी कैसा मूरख है, बिलकुल समझ के बाहर है। लेकिन सब आदमी ऐसे ही मूरख हैं और समझ के बिलकुल बाहर हैं।
नहीं, जिंदगी दौड़ने से नहीं मिलती। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि चलें मत। लेकिन चलने और दौड़ने में बहुत फर्क है। दौड़ता वह है जो तुलना करता है। चलता वह है मौज से जो तुलना नहीं करता, अपनी भीतर की गति से चलता है। जितनी गति है, चलता है। विश्राम करना है, विश्राम करता है। क्योंकि वह यह देखता ही नहीं कि पड़ोस का कहां चला गया। उससे कोई मतलब नहीं है; उससे कोई प्रयोजन नहीं है; उससे कोई संबंध नहीं है। मुझे जब मौज है तब चलता हूं, जब मौज है तब सोता हूं। जब उठना है तब उठता हूं, जब बैठना है तब बैठता हूं।
विकास, विकास बहुत आंतरिक बात है, बाहरी बात नहीं है। इसलिए मैंने कहा कि तुलना से मुक्त होना चाहिए तो ही मनुष्य शांत गति कर सकता है और आनंद के लक्ष्य तक पहुंच सकता है।
एक अंतिम प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है: आप मनुष्य के भीतर परमात्मा है उसको नमस्कार क्यों करते हैं? एक मित्र ने तो यह पूछा है कि आपने कल कहा कि भय के कारण प्रणाम करते हैं। तो आप लोगों से डरते हैं क्या जो उनको प्रणाम करते हैं?
और दूसरे एक मित्र ने पूछा है कि आप, लोगों के भीतर परमात्मा है, ऐसी बात जब करते हैं तो उससे तो एक आदर्श निर्मित हो जाता है और आप आदर्श के विरोधी हैं।
इन दोनों बातों को समझ लेना जरूरी है। मैंने यह नहीं कहा कि सभी प्रणाम भय के प्रणाम हैं। मैंने यह भी नहीं कहा कि सभी प्रार्थनाएं भय की प्रार्थनाएं हैं। मैंने इतना ही कहा कि पहचानने की कोशिश करना है कि जो प्रार्थना कर रहे हो वह भय की तो नहीं है? जो प्रणाम कर रहे हो वह भय का तो नहीं है? जो प्रेम कर रहे हो उसके भीतर भय तो नहीं है?
सौ में निन्यानबे मौके पर होता है; क्योंकि आदमी भय पर खड़ा है। और चूंकि भय पर खड़ा है इसलिए उसकी जिंदगी में कभी वह घड़ी ही नहीं आ पाती जब वह बिना भय के भी कुछ कर सके। कोई घड़ी नहीं आ पाती, कोई घड़ी ही नहीं आ पाती जब हम बिना भय के कुछ कर सकें।
अगर हम रास्ते पर भी किसी आदमी को प्रणाम करते हैं, नमस्कार करते हैं, तो भी भय के कारण ही करते हैं, अकारण नहीं करते। लेकिन अकारण प्रणाम करने का आनंद ही अलग है--जब कोई कारण ही नहीं है। अगर आपने कभी कारण से नमस्कार किया है तो नमस्कार बेकार हो गई। लेकिन अगर आपने बिना कारण किया है, सिर्फ इसलिए कि दूसरी तरफ भी वही है जो इस तरफ है, दूसरी तरफ भी वही मौजूद है जो सब तरफ मौजूद है, अगर ये हाथ किसी भी भय के बिना जुड़े हैं, तो हाथ जुड़ने का जो आनंद है उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
मैंने आपसे कहा कि अक्सर हम जब पैरों में सिर रखते हैं तो भय के कारण रखते हैं, लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि सब सिर भय के कारण ही रखे जाते हैं। कभी कोई सिर बहुत प्रेम के कारण भी रखा जाता है। लेकिन तब कोई भय नहीं है। तब कोई भय नहीं है।
सच तो यह है कि जहां प्रेम है वहां भय नहीं है।
मैंने सुना है, एक युवक ने विवाह किया नया-नया और अपनी पत्नी को लेकर वह यात्रा पर निकला। वह एक जहाज पर सवार हुआ। वह जहाज चल रहा है। जोर का तूफान आ गया है और जहाज डगमगाने लगा है और अब डूबा, अब डूबा होने लगा है। वह युवक शांत बैठा है। सारे जहाज के लोग भागने लगे हैं, घबराने लगे हैं। और उसकी पत्नी थर-थर कांप रही है और उसने उस युवक को कहा, आप घबरा नहीं रहे? आप डर नहीं रहे, भयभीत नहीं हो रहे? जहाज डूबने के करीब है, आपको भय नहीं लगता? उस युवक ने अपनी कमर से बंधी तलवार खींच ली है और उस अपनी प्रेयसी के, अपनी पत्नी के कंधे पर रख दी है नंगी तलवार। और वह पत्नी हंस रही है। उस युवक ने कहा, तुझे भय नहीं लगता? तलवार नंगी तेरे कंधे पर है, भय नहीं लगता? उसने कहा, हाथ में तुम्हारे तलवार हो तो मुझे भय कैसा! तो उस युवक ने कहा, परमात्मा के हाथ में तूफान है। और जब से उससे अपनी पहचान हुई है तब से कोई भय नहीं है।
कैसा भय! जहां प्रेम है, वहां कोई भय नहीं है। फिर नंगी तलवार भी कंधे पर हो तो भय नहीं है। हाथ जोड़ने की तो बात अलग है, नंगी तलवार भी कंधे पर कोई रखे तो भी भय नहीं है। लेकिन प्रेम हो तब!
तो एक तो वह प्रणाम है जो प्रेम से निकलता है और एक वह प्रणाम है जो भय से निकलता है। दोनों में हाथ एक से जुड़ते हैं। लेकिन भीतर प्राण में दोनों में घटनाएं अलग घटती हैं। उसकी खोजबीन करनी चाहिए, उसकी खोजबीन करनी चाहिए कि मेरी जिंदगी में वह मौका आ जाए जब कि प्रेम से भी हाथ जुड़ने लगें, प्रेम से भी हाथ उठने लगें।
अभी तो हमारे सब हाथ मतलब से उठते हैं, प्रयोजन से उठते हैं। जहां प्रयोजन है, जहां मतलब है, वहां भय है। जहां निष्प्रयोजन हाथ उठते हैं वहां तो कोई भय की बात नहीं है।
एक कहानी और मुझे याद आती है जो मुझे बहुत प्रीतिकर है। एक फकीर एक मंदिर में ठहरा। रात थी बहुत सर्द और भगवान बुद्ध की तीन मूर्तियां थीं लकड़ी की। पुरोहित तो सो गए थे। उस फकीर ने एक मूर्ति उठा कर आग लगा कर जला कर ताप ली। जब आग भभकी तो पुजारी की नींद खुली कि मंदिर में आग किसने जलाई? क्या वह पागल फकीर आग जला लिया मंदिर के भीतर? तो वह उसे ठीक करने आया, समझाने आया कि मंदिर में आग मत जलाओ! लेकिन जब आकर उसने देखा कि बुद्ध जल रहे हैं--जल ही चुके हैं, राख हो गए हैं--तब तो उसके मंदिर में ही आग नहीं लगी, पुजारी में भी आग लग गई। पुजारी ने तो लकड़ी उठा ली। उसने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो? तुम पागल मालूम होते हो! तुमने भगवान की मूर्ति जलाई? तुमने भगवान को जलाया?
उस फकीर ने कहा, भगवान? एक लकड़ी पास पड़ी थी, वह उठा कर उसने, जो राख हो गए थे बुद्ध, वहां कुरेद कर देखा। उस पुरोहित ने पूछा, क्या कर रहे हो यह? उसने कहा, भगवान की अस्थियां खोज रहा हूं। उस पुरोहित ने कहा, निपट पागल मालूम होते हो तुम। लकड़ी की मूर्ति में कहीं अस्थियां होती हैं? उसने कहा, जब अस्थियां तक नहीं होतीं तो भगवान कहां होंगे! रात बहुत सर्द है, तुम एक मूर्ति और उठा लाओ तो बड़ी कृपा होगी। तीन मूर्तियां पूरी रात काट देंगी। उस पुरोहित ने पूछा, तुझे भय नहीं लगता? तू पागल, भगवान की मूर्ति जला लिया और इतनी मौज से बैठा हुआ है! तो उस फकीर ने कहा, जब से भगवान को पहचाना तब से कोई भय न रहा।
निकाल पुरोहित ने उसे बाहर किया। उसको ठहराना खतरनाक था, रात में दो मूर्तियां और जला सकता था। रात अभी काफी बाकी थी और सर्द थी रात। उसे निकाल बाहर किया।
सुबह जब मंदिर का दरवाजा खोला पुरोहित ने, तो देखा बाहर जो पत्थर गड़ा है--मील का पत्थर सड़क के किनारे--उसके ऊपर फूल डाल कर, हाथ जोड़ कर वे सज्जन बैठे हैं जो रात मूर्ति जला गए हैं। उसने कहा कि कैसा पागल आदमी है! जाकर उसके पास कहा, यह क्या कर रहे हैं महाशय! रात तो भगवान की मूर्ति जला दी और अब पत्थर को हाथ जोड़ रहे हैं।
तो उस फकीर ने कहा, मूर्ति जलाने की हिम्मत इसीलिए आ सकी कि अब पत्थर को भी हाथ जोड़ने की हिम्मत आ गई है। मूर्ति जलाने की हिम्मत इसीलिए आ सकी कि अब पत्थर को भी हाथ जोड़ने की हिम्मत आ गई है। अब हम उतने ही मजे से पत्थर को हाथ भी जोड़ सकते हैं और उतने ही मजे से मूर्ति को जला भी सकते हैं। अब कुछ फर्क न रहा। अब वही है। चाहे जलाओ, चाहे पूजो, चाहे कुछ भी करो, अब वही है। चलते हैं तो उसी पर, श्वास लेते हैं तो उसी में, सोते हैं उसी पर, खाते हैं उसी को, पीते हैं उसी को, जीते हैं उसी में, मरते हैं उसी में। अब वही है, अब सब बात खतम हो गई। अब हाथ भी जोड़ लेते हैं, आग भी जला लेते हैं। रात सर्द लग रही थी बहुत, मूर्ति जला ली। अब सुबह से धन्यवाद देने का मन हो रहा है कि रात तेरी मूर्ति ने बड़ा काम दिया। रात सर्द थी बहुत, तेरी मूर्ति बड़ी काम पड़ गई और रात बड़ा मजा आया, तो अब धन्यवाद दे रहे हैं हाथ जोड़ कर। ये फूल ले आएं हैं तोड़ कर, दो फूल रख दिए हैं, प्रार्थना कर ली है कि ऐसी ही कृपा बनाए रखना। जब भी कभी रात सर्द हो, ऐसे मंदिर में ठहरा देना जहां मूर्ति लकड़ी की हो। और पुजारी जरा ठीक से रखा करो, रात भर तो सोया रहे, बीच-बीच में न उठे।
इस आदमी को पहचानना थोड़ा मुश्किल पड़ जाता है। लेकिन यह धार्मिक आदमी है। और धार्मिक आदमी को पहचानना सदा ही मुश्किल है। धार्मिक आदमी एक रहस्य है। और जो आदमी बिलकुल समझ में आ जाए वह धार्मिक नहीं है। धार्मिक आदमी एक मिस्ट्री है। उसकी जिंदगी बहुत रहस्य है। उसमें बड़े विरोधों का समन्वय है। उसमें सब उलटी चीजें आकर समाविष्ट हो जाती हैं। उसमें अंधेरा और प्रकाश मिल जाता है, उसमें मिट्टी और सोना एक हो जाता है, उसमें जन्म और मृत्यु का फासला नहीं रह जाता, उसमें मित्र और शत्रु नहीं बचते हैं, उसमें चांटा मारना और हाथ जोड़ना भी बराबर हो सकता है। कुछ बहुत कठिन नहीं है।
और दूसरे मित्र ने पूछा है कि इससे आदर्श पैदा हो जाता है, आप कहते हैं कि सबके भीतर परमात्मा है।
इससे आदर्श पैदा नहीं होता। मैं आपसे नहीं कहता हूं कि आप मानें कि सबके भीतर परमात्मा है। अगर मैं आपको कहूं कि आप मानें कि सबके भीतर परमात्मा है, तब तो आदर्श पैदा हो जाएगा। यह मैं कहता हूं कि सबके भीतर परमात्मा है। यह मेरी मान्यता नहीं है--ऐसा मुझे लगता है, ऐसा मेरा जानना है। अब मेरे जानने को मैं कैसे झुठलाऊं! जो मुझे दिखाई पड़ता है मैं वही कह सकता हूं, उससे अन्यथा नहीं कह सकता। मेरे लिए आदर्श नहीं है यह सबके भीतर परमात्मा होना; यह तथ्य है।
श्री अरविंद से किसी ने पूछा, डू यू बिलीव इन गॉड? ईश्वर में विश्वास करते हैं आप?
अरविंद ने कहा, नो! नहीं!
उस आदमी ने कहा, मैं जर्मनी से आ रहा हूं, इतनी दूर से, यही सोच कर कि आप बड़े ज्ञानी हैं, ईश्वर को पा लिया आपने। आप ईश्वर में नहीं मानते?
अरविंद कहा, नहीं!
उस आदमी ने कहा, बड़ी यात्रा फिजूल हो गई। आप ईश्वर को बिलकुल इनकार करते हैं?
अरविंद ने कहा, मैंने इनकार कहां किया! मैंने तो इतना ही कहा कि मैं मानता नहीं।
तो उस आदमी ने कहा, इनकार तो हो गया।
अरविंद ने कहा, तू गलत सवाल पूछता है। आई नो देयरफोर आई कैन नाट बिलीव। मैं जानता हूं इसलिए मैं विश्वास कैसे करूं? जिसको हम जानते हैं उसमें विश्वास करते हैं? जिसको जानते नहीं उसमें विश्वास करते हैं।
अरविंद ने कहा, ईश्वर है, यह मेरा ज्ञान है, यह मेरा विश्वास नहीं।
आस्तिक का विश्वास होता है। इसलिए आस्तिक का कोई भरोसा नहीं। आस्तिक कहता है, हम ईश्वर में विश्वास करते हैं।
विश्वास? विश्वास का मतलब कि पता नहीं है। सूरज में विश्वास करते हैं? राजकोट में विश्वास करते हैं? नहीं, राजकोट है। विश्वास की कोई जरूरत नहीं। सूरज है। ईश्वर में विश्वास करते हैं, क्योंकि पता नहीं कि है या नहीं। इसलिए विश्वासी के भीतर सदा अविश्वास बैठा रहता है।
नहीं, जो जानता है, जानता है, तथ्य है। यह मैं आपसे कहता नहीं कि आपके भीतर परमात्मा है, है ही। सच तो यह है कि भाषा बड़ी गलती करवा देती है। जब मैं आपसे कहता हूं "आपके भीतर', तो भाषा गलत बोल रहा हूं। लेकिन कोई उपाय नहीं है।
कल सुबह मैंने, मैं जिस घर में ठहरा हूं, वहां किसी से कहा कि जरा एक पानी का गिलास ले आओ। पानी का गिलास तो कोई ला नहीं सकता। पानी का गिलास कैसे लाइएगा? लेकिन गिलास में पानी कोई ले आया। भाषा मेरी गलत थी, लेकिन मतलब समझ में आ गया। हम आमतौर से कहते हैं, पानी का गिलास ले आओ! लेकिन जब भी आता है गिलास में पानी आता है, पानी का गिलास कभी नहीं आता।
तो जब मैं आपसे कहता हूं "आपके भीतर', तो भाषा थोड़ी गलत है, क्योंकि भाषा गलत ही होगी। जब मैं कहता हूं "आपके भीतर', तो मेरा मतलब है आप ही। ऐसा नहीं कि आप कुछ अलग हैं और आपके भीतर परमात्मा है। आप ही परमात्मा हैं। और आपका मतलब आप यह मत समझ लेना कि आप ही हैं, ये जो खंभे गड़े हैं ये भी हैं, वह जो दीवार खड़ी है वह भी है, वह जिस फर्श पर आप बैठे हैं वह भी है। आप इस अहंकार में मत पड़ जाना कि आप! सड़क पर पड़े हुए पत्थर भी हैं।
जब मैं आपसे कह रहा हूं तो आपसे ही नहीं कह रहा, ये दरख्त भी सुन रहे हैं और दरख्तों पर सो गए पक्षी भी सुन रहे हैं। सोए हुए आदमी सुन रहे हैं, सोए हुए पक्षी भी सुन रहे हैं। नहीं, आपसे मतलब है--जो भी है वह परमात्मा ही है। और यह कोई आदर्श नहीं है, यह तथ्य है।
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