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शुक्रवार, 3 मई 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

मैं पूंजीवाद के समर्थन में हूं

मेरे प्रिय आत्मन्!
‘समाजवाद से सावधान’, इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कही थीं। उस बाबत कुछ प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि जो व्यक्ति समझता है कि उसकी आवश्यकताएं जितनी हैं, वह उनको ठीक तरह से पूरी कर रहा है, तो क्या उसे भी असंतुष्ट होने की आवश्यकता है?
इस संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात तो यह कि जो व्यक्ति ऐसा समझता है कि उसकी आवश्यकताएं पूरी हो रही हैं, वह व्यक्ति स्वयं के या अन्य के विकास के क्रम से रुक जाता है। ऐसा व्यक्ति जो समझता है कि जो उसे मिल गया वह पर्याप्त है, वह आगे बढ़ने से रुक जाता है। और हो सकता है कि उसे स्वयं को तो इससे बहुत ज्यादा नुकसान न पहुंचे, लेकिन जिस समाज का वह हिस्सा है उस समाज को जरूर नुकसान पहुंचता है। उसे स्वयं भी बहुत नुकसान पहुंचेगा।
लेकिन साधारणतः हमें ऐसा ही समझाया गया है कि अपनी आवश्यकताओं को एक जगह रोक कर हमें समझना चाहिए कि वे पूरी हो गई हैं। धार्मिक आदमी की हम ऐसी ही परिभाषा करते रहे हैं कि वह अपनी आवश्यकताओं को कम कर लेता है और संतुष्ट हो जाता है।

सच्चाई बहुत उलटी है। मेरी दृष्टि में धार्मिक आदमी और ही प्रकार का आदमी है। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं, जिसकी आवश्यकताएं इस पृथ्वी को छोड़ कर आकाश को भी छूने लगती हैं। मैं उस व्यक्ति को धार्मिक कहता हूं, जिसकी आवश्यकताएं शरीर से भी ऊपर उठ कर आत्मा की आवश्यकताएं बन जाती हैं। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूं, जो पदार्थ की ही आवश्यकताओं को पर्याप्त न मान कर, परमात्मा को भी अपनी आवश्यकता बना लेता है।
धार्मिक आदमी मैं उसे नहीं कहता, जो कहीं आवश्यकताओं को पूरा मान कर ठहर गया; धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं कि जो जब तक परमात्मा को ही न पा ले, तब तक आवश्यकताएं पूरी हो गईं, ऐसा मानने को राजी नहीं हो सकता है। धार्मिक आदमी को मैं संतुष्ट आदमी नहीं कहता, धार्मिक आदमी को मैं दिव्य-रूप से असंतुष्ट आदमी कहता हूं..डिवाइन डिसकंटेंटमेंट। उसके भीतर इतना असंतोष है कि यह पूरी पृथ्वी भी उसे मिल जाए तो संतुष्ट नहीं कर सकती है। उसे तो स्वयं परमात्मा ही मिले तो ही वह संतुष्ट हो सकता है।
नहीं, धार्मिक आदमी वह नहीं है, जो थोड़े में संतुष्ट हो गया है। धार्मिक आदमी वह है कि उसे सारे जगत का सब कुछ भी मिल जाए तो भी संतुष्ट नहीं हो सकता। उसे तो जगत का परम अर्थ, जीवन का परम रहस्य, स्वयं प्रभु ही मिले तभी संतुष्ट हो सकता है।
तो मैं नहीं कहूंगा कि आप अपनी आवश्यकताओं को थोड़ा सा पूरा कर लें और वहां रुक जाएं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आप सदा दुखी रहें। असल में असंतुष्ट होने का मतलब दुखी होना नहीं है। असंतुष्ट होने का क्या अर्थ है, इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए। आपके पास जो है, उसे तो पूरे आनंद से भोगें; लेकिन जो नहीं है, उसके लिए भी श्रम करते रहें। आपके पास जो है, उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दें; और आपके पास जो नहीं है, उसके लिए मेहनत जारी रखें।
लेकिन साधारणतः हम समझते हैं, असंतुष्ट आदमी वह है कि उसके पास जो है उससे वह बिल्कुल दुखी है। नहीं! ठीक रूप से, सम्यक रूप से, राइट डिसकंटेंट, ठीक रूप से असंतुष्ट आदमी वह है कि जो उसे मिला है उसे तो परमात्मा को धन्यवाद देकर भोगता है, लेकिन जो नहीं मिला है उसे पाने के लिए भी प्रयासरत रहता है।
हां, धार्मिक और अधार्मिक असंतुष्ट आदमी में थोड़ा सा फर्क होगा। जैसा कि कृष्ण ने कहा है कि तुम प्रयत्न करो, प्रयास करो, कर्म करो, लेकिन फल की आकांक्षा मत करो। धार्मिक आदमी श्रम करेगा, जो नहीं है उसे पाने के लिए; लेकिन अगर न मिले, अगर न पा सके जिसे पाने के लिए उसने श्रम किया था, तो पागल नहीं हो जाएगा, विक्षिप्त नहीं हो जाएगा। धार्मिक आदमी अभीप्सा करेगा, जो नहीं है उसे पाने की; लेकिन फल सदा परमात्मा के हाथ में ही समझेगा।
अधार्मिक और धार्मिक में संतोष और असंतोष का फर्क नहीं है, अधार्मिक और धार्मिक में असंतोष के ही दो रूपों का फर्क है। अधार्मिक आदमी असंतुष्ट होगा जब, तो जो उसके पास है उसमें आनंद नहीं लेगा और जो उसके पास नहीं है उसमें आनंद की कामना करेगा। फिर जब उसे वह भी मिल जाएगा तो उसमें भी आनंद नहीं लेगा और जो नहीं है उसमें आनंद की कामना करेगा। अगर नहीं मिलेगा तो दुखी होगा और मिल जाएगा तो सुखी कभी भी नहीं होगा। यह अधार्मिक रूप से असंतुष्ट आदमी है।
धार्मिक रूप से असंतुष्ट आदमी वह है कि उसके पास जो है उसे प्रभु की कृपा मान कर पूरी तरह से भोगेगा और जो नहीं है उसे प्रभु की शक्ति मान कर पाने का प्रयत्न करेगा। अगर मिल जाएगा तो खुश होगा और परमात्मा को धन्यवाद देगा; और अगर नहीं मिलेगा तो समझेगा कि मेरे प्रयास में कमी है और प्रयास को जारी रखेगा। अगर नहीं पाएगा तो समझेगा कि परमात्मा की अनुकंपा नहीं है, फल नहीं मिल रहा है, मेरे पूरे प्रयास में, मेरी पूरी शक्ति में कोई कमी है। अपने प्रयास को बढ़ाएगा, श्रम को बढ़ाएगा।
असंतुष्ट होने का अर्थ दुखी होना नहीं है। असल में कोई आदमी पूरी तरह सुखी होकर भी असंतुष्ट हो सकता है। सुखी होने का मतलब है: जो है उसे आनंद से भोगना। और असंतुष्ट होने का अर्थ है: जो नहीं है उसे आनंद से पैदा करने का श्रम करना। जब अधिकतम लोग समाज में इस भांति श्रम करते हैं, तो समाज संपन्न और समृद्ध होता है। और जब अधिक लोग ऐसा सोचते हैं कि जो है बस ठीक है, वहीं रुक जाना है, तो फिर पूरा समाज धीरे-धीरे दरिद्र हो जाता है। जिंदगी का सारा विकास, जो नहीं है, उसे पाने से ही होता है।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि ऐसा किसी जगह मानने की जरूरत नहीं है कि अब सब पूरा हो गया, अब मुझे क्या करना है! यह मरने के ढंग हैं। यह अपने भीतर जिंदा रहते हुए मर जाना है। जब तक श्वास है, तब तक एक भी श्वास व्यर्थ नहीं जानी चाहिए। और फिर भी अगर किसी व्यक्ति को ऐसा लगता हो कि मेरी तो सच में ही सारी आवश्यकताएं पूरी हो गईं, तो फिर ऐसे व्यक्ति को दूसरों की आवश्यकताएं पूरा करने में लग जाना चाहिए। अगर किसी व्यक्ति को ऐसा पक्का लगता है कि मेरी तो सभी आवश्यकताएं पूरी हो गईं, मैं क्यों श्रम करूं? तो उसे चारों तरफ देखना चाहिए कि अब मेरा काम तो जमीन पर खत्म हो गया, लेकिन दूसरों की आवश्यकताएं पूरी नहीं हुई हैं, उनके लिए मैं श्रम करने में लग जाऊं।
लेकिन श्रम से नहीं बचा जा सकता। अगर आपकी आवश्यकताएं पूरी हो गई हैं, तो अपने चारों तरफ देखिए, बहुत लोगों की पूरी नहीं हुई हैं, उनके लिए श्रम करने में लग जाइए। लेकिन खाली बैठने का हक किसी को भी नहीं है। संन्यासी को भी खाली बैठने का हक नहीं है। क्योंकि उतनी हमारी शक्ति व्यर्थ जाए तो फिर देश संपन्न नहीं हो सकता। देश को संपन्न करना है तो सभी को श्रम में लगना ही चाहिए। और श्रम में हम तभी लगेंगे जब कोई आवश्यकता पूरी करनी हो। चाहे अपनी, चाहे किसी दूसरे की, लेकिन आवश्यकता पूरी करने की दौड़ जारी रहनी चाहिए।
यह दौड़ शांत हो, यह दौड़ आनंदपूर्ण हो, इतना तो मैं कहूंगा। यह दौड़ पागल की नहीं होनी चाहिए, विक्षिप्त की नहीं होनी चाहिए। यह दौड़ नींद को हराम कर देने वाली नहीं होनी चाहिए। यह दौड़ ऐसी नहीं होनी चाहिए कि आदमी बिल्कुल होश खो दे और दौड़ता रहे, और उसे पता भी न हो कि कहां दौड़ रहा है। यह दौड़ बहुत आनंदपूर्ण होनी चाहिए, यह दौड़ बहुत शांत होनी चाहिए, यह दौड़ बहुत स्वस्थ होनी चाहिए।
यह हो सकती है। लेकिन हमने इस तरफ सोचा नहीं। धार्मिक आदमी समझाता रहा कि संतोष रखो और अधार्मिक आदमी दौड़ता रहा, तो धीरे-धीरे असंतोष अधार्मिक आदमी का लक्षण बन गया और संतोष धार्मिक आदमी का लक्षण बन गया, जो कि सही नहीं है। धार्मिक आदमी को भी असंतुष्ट होना चाहिए। और सच बात यह है कि सभी अच्छे धार्मिक आदमी असंतुष्ट होते हैं। उनके असंतोष के तल बदल जाते हैं, यह दूसरी बात है। वे इस जमीन पर मकान नहीं बनाना चाहते बहुत बड़ा; लेकिन वे मोक्ष में जरूर कुछ बनाना चाहते हैं। वे इस जमीन का धन नहीं कमाना चाहते; लेकिन वे आत्मा का धन जरूर कमाना चाहते हैं। वे आदमी के प्रेम के प्रति अब बहुत आतुर नहीं हैं; लेकिन परमात्मा के प्रेम को पाने के लिए उनकी आतुरता बहुत बढ़ गई है। अब वे किसी आदमी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े न होंगे, याचक न बनेंगे, अब वे किसी द्वार पर भीख मांगने न जाएंगे; लेकिन प्रभु के मंदिर के सामने उनके हाथ चैबीस घंटे जुड़े हैं और उनका याचक वहां चैबीस घंटे प्रभु के सामने प्रार्थना लिए खड़ा है। यह सिर्फ आवश्यकताओं का बदल जाना है, आवश्यकताओं का अंत हो जाना नहीं है। यह आवश्यकताओं का और भी ऊंचा हो जाना है।
लेकिन जिनकी जिंदगी की नीचे की आवश्यकताएं ही पूरी नहीं हुईं और जो उन पर ही ठहर कर रह गए हैं, शायद वे जिंदगी की बड़ी आवश्यकताओं की खोज पर भी नहीं निकलेंगे।
अब हमारा ही देश है। हमारे देश में अधिक लोग जहां हैं वहां ठहरे हुए हैं और सोचते हैं सब ठीक है। लेकिन इनके सब ठीक होने के ख्याल से इनकी कोई आध्यात्मिक जिज्ञासा पैदा नहीं हो गई है और न ही ये कोई परमात्मा की खोज पर निकल गए हैं।
मेरी दृष्टि उलटी है। मेरी अपनी समझ यह है कि इस जगत की आवश्यकताओं में ठहरने की जरूरत नहीं है, इस जगत से ऊंची आवश्यकताओं तक जाने की जरूर जरूरत है। और जिस दिन कोई आदमी की आकांक्षा ऊपर चली जाती है, उसकी नीचे की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। वह बहुत दूसरी बात है। उस बात को मुर्दा संतोष नहीं कहा जा सकता, वह बहुत जीवंत असंतोष है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि समाजवाद में प्रत्येक को समान अवसर, ईक्वल अॅापरच्युनिटी मिलती है, जो कि पूंजीवाद में नहीं है। इस संबंध में आपके क्या ख्याल हैं?

पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि समाजवाद सबकी स्वतंत्रता छीन लेता है। और जहां स्वतंत्रता छिन जाती है वहां समानता कभी भी नहीं हो सकती है। समाजवाद का अर्थ शायद हमारी आंखों में, हमारे कानों में, हमारे हृदय में बहुत स्पष्ट नहीं है। समाजवाद शब्द के मोह से हम बहुत ज्यादा घिरे हैं। समाजवाद में सबको समान अवसर मिलता है, इससे ज्यादा झूठी कोई बात नहीं हो सकती।
रूस में सभी को समान अवसर नहीं है। रूस में पचास वर्षों में पचास आदमियों का छोटा सा गैंग हुकूमत कर रहा है। स्टैलिन बदल जाता है, ख्रुश्चेव बदल जाता है, लेकिन पचास-साठ आदमियों की जो ऊपर ताकत है, वही काम कर रही है। रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के सिवाय दूसरी पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं है। और जहां एक ही पार्टी हो वहां स्वतंत्रता नहीं रह सकती। रूस में इलेक्शन का कोई मतलब नहीं है, चुनाव का कोई मतलब नहीं है।
स्टैलिन को निन्यानबे प्रतिशत वोट मिलते थे। लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता कि उसके खिलाफ कौन खड़ा होता था। उसके खिलाफ कोई भी खड़ा नहीं होता था। अकेली पेटी में वोट डाले जाते थे। यह बड़े मजे की बात है। अगर एक ही आदमी खड़ा है तो वोट डालने की जरूरत क्या है? यह सारी दुनिया को धोखा देने का प्रयास है। निन्यानबे परसेंट वोट तो मिल ही जाएंगे। निन्यानबे परसेंट वोट मिलने में बहुत आश्चर्य नहीं है, आश्चर्य यह है कि वह सौवां आदमी कौन है जिसने वोट नहीं डाला! वह शायद जिंदा नहीं बच सकेगा, उसका जिंदा बचना बहुत मुश्किल है।
मैंने ख्रुश्चेव के संबंध में एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि ख्रुश्चेव जब ताकत में आया तो उसने स्टैलिन के संबंध में बहुत सी बातें जाहिर कीं। उसने कम्युनिस्ट पार्टी की विशेष सभा में यह सब बताया कि स्टैलिन ने कितने लोगों की हत्या की और कितने जुल्म किए। तो एक आदमी ने पीछे से खड़े होकर कहा कि महाशय ख्रुश्चेव, जब स्टैलिन ये हत्याएं कर रहा था लाखों लोगों की तब आप भी स्टैलिन की कमेटी के एक मेंबर थे, तब आपने विरोध क्यों नहीं किया? ख्रुश्चेव एक सेकेंड के लिए चुप रह गया, तब तक वह आदमी बैठ चुका था। फिर ख्रुश्चेव ने कहा कि अच्छा मेरे मित्र, दुबारा खड़े हो जाइए! आपका नाम क्या है, कम से कम इतना तो बता दीजिए! लेकिन दुबारा वह आदमी खड़ा नहीं हुआ। ख्रुश्चेव ने बहुत कहा कि आप खड़े हों और अपना नाम बता दें! लेकिन न वह आदमी खड़ा हुआ, न नाम बताया, न सवाल पूछा। तब ख्रुश्चेव ने कहा कि जिस वजह से आप खड़े होकर नाम नहीं बता रहे हैं, इसी वजह से स्टैलिन की कमेटी में मैं जरूर था, लेकिन इसी वजह से मैं भी चुप था। अगर आप नाम बताएंगे तो कल आप पाएंगे नहीं कि आप जिंदा हैं। तो मैं भी अपने को जिंदा रखने के लिए चुप था।
स्वतंत्रता की इतनी बुरी तरह से हत्या की गई है, जिन्हें हम समाजवादी मुल्क कहते हैं, सिर्फ स्टैलिन ने अंदाजन एक करोड़ लोगों की हत्या की। जहां स्वतंत्रता की इस भांति हत्या हुई हो, वहां समानता कैसे हो सकती है? हां, इतना हो सकता है कि सभी लोग समान रूप से गुलाम हैं। बस इतना ही हो सकता है..ईक्वल अॅापरच्युनिटी टु बी स्लेव्ड। रूस में सभी लोग समान रूप से गुलाम हैं, इतनी समानता के सिवाय और कोई समानता नहीं है। और रूस में जो लोग ताकत में हैं, वे लोग अलग वर्ग बन गया है; और जो ताकत में नहीं हैं, वे नीचे के सामान्यजन रह गए हैं।
हिंदुस्तान या किसी पूंजीवादी मुल्क में कोई गरीब आदमी कभी अमीर भी हो सकता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि कोई अमीर आदमी कभी गरीब भी हो जाता है। लेकिन रूस में, सामान्य जनता से सत्ता अधिकारियों के वर्ग में प्रवेश करना सर्वाधिक कठिन है। रूस में कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता पाना ही बहुत कठिन मामला है। रूस दो हिस्सों में बंट गया है। एक सामान्य जनता है और एक सत्ताधिकारियों का वर्ग है। यह सत्ताधिकारियों का वर्ग सुनिश्चित और फिक्स्ड हो गया है। यह नीचे की जनता को कोई समान अवसर नहीं है। लेकिन ख्याल सारी दुनिया में यही पैदा किया जाता है कि समाजवाद समान अवसर देगा।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, पूंजीवाद ने सर्वाधिक अवसर देने की सुविधा दी है। और इसको हमें कई तरह से समझ लेना जरूरी होगा।
अगर रूस में मैं जाकर रूस के खिलाफ कोई बात बोलना चाहूं, तो रूस में मैं नहीं बोल सकता हूं। रूस में स्वतंत्रता है रूस के पक्ष में बोलने के लिए, विपक्ष में बोलने के लिए समान अवसर नहीं है। रूस में एक पत्र रूस की सरकार के खिलाफ नहीं छप सकता; एक किताब नहीं छप सकती; एक लेख नहीं छप सकता; एक कविता नहीं छप सकती। तो रूस में जिसे सरकार के खिलाफ कविता लिखनी है, उसे कौन सा अवसर है? हां, वे कहेंगे कि सरकार के पक्ष में कविता लिखने का समान अवसर है, जिसको भी लिखना हो लिख सकता है। लेकिन इस समान अवसर का क्या मतलब होता है?
यहां कविता की तो बात छोड़ दें, रूस में कोई वैज्ञानिक ऐसी खोज नहीं कर सकता जो सरकारी नीति के प्रतिकूल पड़ती हो। आश्चर्यजनक मामला है! अब वैज्ञानिक कोई कविता तो बनाता नहीं, वह तो जिंदगी के नियम खोजता है। लेकिन रूस में रूसी सरकार यह भी तय करती है कि जिंदगी के कौन से नियम खोजे जाएं और कौन से न खोजे जाएं। कोई ऐसी बात जो कम्युनिज्म के खिलाफ पड़ती हो, नहीं खोजी जा सकती। अगर रूस का मनोवैज्ञानिक यह कहना चाहे कि प्रत्येक आदमी अलग-अलग है, समान नहीं है। तो रूस में यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह समाजवाद के खिलाफ न पड़ जाए। रूस में किसी आदमी को संपत्ति कमाने का अधिकार नहीं है, संपत्ति इकट्ठा करने का भी अधिकार नहीं है।
ध्यान रहे, दुनिया में कुछ लोगों की प्रतिभा संपत्ति कमाने की होती है, सबकी नहीं होती। न तो दुनिया में कवि होते हैं सब, न संगीतज्ञ होते हैं सब, न सब वैज्ञानिक होते हैं, और न सभी बिरला, टाटा, या राकफेलर या फोर्ड की तरह धन कमाने में समर्थ होते हैं। कुछ लोगों के पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता होती है। कुछ लोगों के पास गीत लिखने की पैदाइशी क्षमता होती है।
समाजवाद में, किसी आदमी के पास, जिसके पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता है, उसे कोई मौका नहीं होगा। इसलिए समान अवसर का क्या मतलब है?
एक कहानी मुझे याद आती है। यहूदियों के बाबत कहा जाता है कि उनमें पैदाइशी धन कमाने की क्षमता होती है। मैंने सुना है कि एक यहूदी एक नाव से यात्रा कर रहा है। बहुत तूफान आ गया और एक बहुत बड़ी मछली, एक बहुत बड़ा मच्छ, उस छोटी सी नाव पर हमला करने लगा। उस मछली से बचने के लिए सिवाय इसके कोई रास्ता न था कि मछली के मुंह में कुछ फेंका जाए। तो जो भी खाने का सामान था, मछली के मुंह में फेंक दिया गया। मछली थोड़ी देर में उसे पचा कर फिर हमला करती है।
आखिर नौबत यह आ गई कि अब आदमियों को फेंकने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहा, अन्यथा वह पूरी नाव को उलट देगी। एक यहूदी भी नाव पर सवार था, सारे लोगों ने उसे उठा कर मछली के मुंह में फेंक दिया। लेकिन वह हमला करती चली गई मछली और एक-एक आदमी को फेंका जाता रहा। जब धीरे-धीरे और लोग भी भीतर पहुंच गए, तब बड़ी हैरानी की बात लोगों ने देखी कि वह यहूदी मछली के पेट में, एक पहले फेंकी गई कुर्सी पर बैठा हुआ है। और उसके पहले संतरों की एक पोटली फेंकी गई थी, वह संतरों की पोटली रखे हुए है और बाकी यात्री जो मछली के पेट में पहुंच गए हैं, उनको एक-एक आने में संतरा बेच रहा है।
यह तो मजाक ही है, लेकिन यहूदी अगर मछली के पेट में भी पहुंच जाए तो कुछ न कुछ बेचने का उपाय खोज लेगा। उसके पास पैदाइशी क्षमता है।
जिन लोगों के पास धन कमाने की पैदाइशी क्षमता है, उनको समाजवादी समाज में कोई अवसर न होगा। जिनके पास विद्रोह की क्षमता है, उनके पास समाजवादी समाज में कोई अवसर न होगा। जिनके पास चिंतन की क्षमता है, उनको चिंतन का कोई मौका न होगा। समाजवादी समाज बहुत तरह का विश्वासी समाज है। सरकार सब तरह के विश्वास और श्रद्धा की मांग करती है, वह विपरीत चिंतन का मौका नहीं देना चाहती।
अब तक दुनिया में ऐसी कोई बात नहीं है जिस पर एकमत हुआ जा सके। इसलिए जिस मुल्क में एकमत होने की मजबूरी हो, उस मुल्क में मनुष्य के मस्तिष्क को संघातक नुकसान पहुंचता है। दुनिया में एक भी बात ऐसी नहीं है जिस पर सब आदमियों को राजी किया जा सके। जब ऐसी स्थिति है, तो सरकार के साथ सबको राजी होने की मजबूरी बहुत खतरनाक है।
इसलिए मैं नहीं मानता हूं कि समान अवसर है। हां, इतनी बात जरूर है कि प्रत्येक व्यक्ति को असमान होने की स्वतंत्रता नहीं है, समान होने की मजबूरी है। सबको एक जैसा होना ही पड़ेगा। और जहां एक जैसा होने पड़ने की मजबूरी हो, वहां आत्मा का बहुत दमन हो जाता है।
पूंजीवाद समाज अब तक के विकसित समाजों में सर्वाधिक स्वतंत्र समाज है और प्रत्येक व्यक्ति को एक अर्थों में समान अवसर है। जो भी व्यक्ति जो करना चाहता है, अगर उसके पास क्षमता है, शक्ति है, साहस है, बुद्धि है, तो बराबर कर सकता है, उसे कोई रोकने को नहीं है।
हां, सिर्फ एक चीज रोकने को है कि दूसरे लोग भी प्रतियोगी हैं। स्वभावतः अगर मुल्क में पचास करोड़ लोग हैं और मैं धन कमाने निकलूं, तो मैं अकेला नहीं हूं, पचास करोड़ लोग भी धन कमाने की कोशिश कर रहे हैं। पचास करोड़ लोगों की प्रतिभा में संघर्ष होगा। पचास करोड़ लोगों की क्षमता में संघर्ष होगा। फिर जो विजयी होगा वह होगा। मैं विजयी हो जाऊंगा, यह पक्का नहीं है। पूंजीवादी समाज प्रतियोगिता का समाज है, वहां प्रत्येक व्यक्ति को प्रतियोगिता का मौका है।
लेकिन यह बात जरूर सच है कि सब बराबर स्थितियों में नहीं हैं। कोई अमीर का बेटा है, कोई गरीब का बेटा है। इसलिए गरीब का बेटा कह सकता है कि मुझे उतना अवसर नहीं है जितना अमीर के बेटे को है। यह बात स्वाभाविक है।
असल में अमीर के बेटे का अर्थ इतना है कि उसके बाप ने संपत्ति पैदा करने के प्रयास किए और गरीब के बेटे का अर्थ इतना है कि उसके बाप ने संपत्ति का प्रयास नहीं किया। इसमें कसूर किसी का भी नहीं है। हम अपने बाप के ही हकदार हो सकते हैं, दूसरे के बाप के हकदार नहीं हो सकते।
और अगर गरीब को ऐसा लगता है कि मेरे बेटे को समान अवसर नहीं होगा, तो गरीब को बेटे कम पैदा करने चाहिए ताकि वह मुसीबत में न पड़े। लेकिन गरीब ज्यादा बेटे पैदा करता चला जाता है। अगर गरीब के बेटे को तकलीफ है, तो अपने बाप से शिकायत करनी चाहिए कि जब तुम्हारे पास सुविधा नहीं थी मुझे पूरी देने की तो मुझे पैदा क्यों किया? लेकिन गरीब अपने बाप से शिकायत नहीं करेगा। वह यह कह रहा है कि दूसरों के बेटों को ज्यादा अवसर क्यों है?
उनके बाप ने ज्यादा श्रम किया। या उनके बाप ने दस बेटे नहीं किए, दो बेटे पैदा किए। अगर एक बाप ने दो बेटे पैदा किए, तो उनके पास संपत्ति ज्यादा हो गई। और एक ने बारह पैदा किए, तो उनके पास बारह में बंट गई, संपत्ति कम हो गई। और गरीब आदमी ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने में कुशल रहा है। यह बहुत हैरानी की बात है कि अमीर आदमी कम बच्चे पैदा करता है। अक्सर अमीर आदमी को बच्चे गोद लेने पड़ते हैं। और गरीब आदमी बच्चों की कतार लगाए चला जाता है।
एक गरीब बाप जब दस बेटों को पैदा करता है, तो दस गुनी गरीबी अपने बेटों को दे जाता है। सच बात तो यह है कि वह आदमी बाप होने का हकदार नहीं है जो अपने बेटों को सुविधाएं न दे सकता हो; सिर्फ बच्चे पैदा करने से कोई आदमी योग्य बाप नहीं बन जाता। इसके पहले कि बेटा पैदा करना हो, चारों तरफ इंतजाम कर लेना चाहिए कि मेरे बेटे को मैं कितनी सुविधाएं दे पाऊंगा। वह बाप कठोर है जो बिना सुविधाओं के अपने बेटों को जमीन पर खड़ा कर देता है। इसमें किसी दूसरे का कोई कसूर नहीं है। निश्चित ही, जिसने श्रम किया है उसके बेटे को थोड़ी सुविधा मिलेगी, मिलनी चाहिए। जिसने श्रम नहीं किया है उसके बेटे को उतनी सुविधा नहीं मिलेगी, नहीं मिलनी चाहिए।
पूंजीवाद समाज सीधा प्रतियोगिता का समाज है। जो प्रतियोगिता में जितना संघर्ष करेगा, उस प्रतियोगिता में जितना श्रम करेगा, उतना आगे बढ़ जाएगा।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि सभी पूंजीपति न्यायोक्त ढंग से पैसा कमा लेते हैं। नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं। गलत पूंजीपति भी हैं। लेकिन गलत पूंजीपतियों की वजह से पूंजीवाद खराब नहीं हो जाता। अगर गलत हिंदू हों, तो सारे हिंदू खराब नहीं हो जाते। और अगर काली चमड़ी के चोर हों, तो सभी काली चमड़ी के लोग चोर नहीं हो जाते। और अगर लुधियाना में किसी को टी.बी. हो जाए, तो सारे लुधियाना के लोगों को टी.बी. होने की वजह से मार नहीं डालना चाहिए। और न सबका इलाज किया जाना चाहिए।
पूंजीवाद में भी ऐसे पूंजीपति हैं जो अन्याय-युक्त ढंग से पैसा कमा रहे हैं। यह पूंजीवाद का विरोध नहीं है, ये गलत पूंजीपति हैं। गलत पूंजीपति को रोकने का इंतजाम जरूर किया जा सकता है, पूंजीवाद की हत्या की कोई जरूरत नहीं है। गलत लोगों की वजह से कोई भी व्यवस्था खराब नहीं होती। जब हम व्यवस्था की बात करते हैं, तो समाजवाद और पूंजीवाद, दोनों व्यवस्थाओं में मुझे पूंजीवाद ज्यादा श्रेष्ठ और ज्यादा विकसित व्यवस्था मालूम पड़ती है। जहां तक गलत पूंजीपतियों का संबंध है, उन्हें रोकने का इंतजाम किया जा सकता है।
और बड़े मजे की बात है, यह भी समझ लेने जैसी है कि जैसे एक मित्र ने पूछा है कि कितने पूंजीपति रिश्वतखोरी करते हैं, ब्लैक मार्केट करते हैं, स्मगलिंग करते हैं, सब तरह की धोखाधड़ी करते हैं, क्या आप उनके भी समर्थन में हैं?
मैं पूंजीवाद के समर्थन में हूं। धोखाधड़ी, बेईमानी, रिश्वतखोरी के समर्थन में नहीं हूं। लेकिन आपसे मैं यह कहना चाहता हूं कि यह रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी, बेईमानी गरीब समाज की पैदाइश है। इसमें पूंजीपति का बहुत कम हाथ है। इसमें गरीब समाज का बहुत ज्यादा हाथ है।
हम यहां इतने लोग बैठे हैं। अगर यहां पचास आदमियों के खाने लायक भोजन हो और पांच हजार आदमी मौजूद हों, तो आप यह पक्का समझ लीजिए कि बहुत मुश्किल है कि यहां चोरी और उपद्रव शुरू न हो जाए। क्योंकि जहां पचास लोगों के लिए भोजन उपलब्ध हो और पांच हजार लोग भोजन पाने के लिए तैयार हों, वहां बहुत प्रतीक्षा नहीं की जा सकती; लोग बेईमानी, चालबाजी, हर तरह से भोजन को पाने की कोशिश में लग जाएंगे। अगर इन पांच हजार लोगों को ईमानदार बनाना हो तो कम से कम पांच हजार लोगों के लायक भोजन चाहिए। अन्यथा यह ईमानदारी बहुत मुश्किल है, यह अपेक्षा नहीं की जा सकती।
अगर लुधियाना में पानी की कमी हो जाए, तो लोग पानी को रात में चोरी करके ले जाने लगेंगे। अभी कोई पानी को चोरी करके नहीं ले जा रहा है। कल तक कोई पानी को नहीं चुरा रहा था, आज पानी की कमी हो गई है और लोग पानी को चुराने लगे हैं।
इसका क्या मतलब है?लोग चोर हैं या पानी की कमी है?
आदमी जिंदा रहना चाहता है। जब उसके जिंदा रहने के लिए ईमानदारी आसान नहीं रह जाती, तो वह बेईमानी करने को मजबूर हो जाता है। यह जितनी बेईमानी हमें चारों तरफ दिखाई पड़ रही है, इस बेईमानी का बुनियादी कारण आदमी की खराबी कम, हमारी गरीबी की अधिकता ज्यादा है।
अगर आज यूरोप और अमेरिका के मुल्कों में सड़क पर अखबार रख दिया जाता है और पेटी रख दी जाती है, लोग पैसा डालते हैं और अखबार ले जाते हैं। तो इसका यह मतलब नहीं है कि वे बहुत ईमानदार हो गए हैं, इसका कुल मतलब इतना है कि एक आने की चीज चुराने की किसी को भी कोई जरूरत नहीं रह गई है। वे कोई हमसे ज्यादा ईमानदार हो गए हैं, इस भ्रम में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। वे भी हमारे जैसे लोग हैं। लेकिन एक आने का अखबार कौन चुराएगा? एक आने का अखबार चुराने योग्य हैसियत किसी की भी नहीं रह गई है। तो आदमी एक आने को डाल जाता है, अपना अखबार ले जाता है।
अगर लुधियाना में हम पेटी रख दें बाजार में सुबह पांच बजे और अखबार रख दें, तो पहला ही आदमी अखबार भी ले जाएगा और पेटी भी ले जाएगा। दूसरे आदमी को पैसे डालने की मुसीबत नहीं आएगी। इसका कारण यह नहीं है कि लुधियाना के लोग चोर हैं, इसका कारण सिर्फ इतना है कि एक आना भी इतनी मुश्किल चीज है कि उसके लिए आदमी चोर हो जाता है।
असल में जिंदगी अगर बहुत कठिन हो जाए तो हम बेईमानी को रोक नहीं सकते। और जिंदगी बहुत कठिन हो गई है। और इस जिंदगी के कठिन होने में कौन जिम्मेवार है?पूंजीपति जिम्मेवार हैं?
इतनी आसानी से यह बात नहीं कही जा सकती।
अभी हिंदुस्तान-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ था। बंटवारे से हम शायद सोचते थे कि हम कम हो गए। हमने गलती की थी। बीस साल में हमने उतने बच्चे फिर पैदा कर लिए हैं जितने लोग पाकिस्तान में कट गए थे। अब हम फिर बावन करोड़ की संख्या हो गए हैं..ज्यादा हो गए हैं। पाकिस्तान बंटा था जब, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान मिल कर जितनी हमारी संख्या थी, उससे ज्यादा हमारे अकेले की हो गई है। अब हम दुनिया भर से कह सकते हैं कि कितने ही पाकिस्तान काटो, तुम हमें कम न कर सकोगे।
मुल्क के पास शक्ति कम रह गई है, भोजन की, कपड़े की सुविधाएं कम रह गई हैं और लोग बढ़ते जा रहे हैं। अभी तो आसान है, अभी तो इतनी चोरी और बेईमानी नहीं हो गई है। अगर दस साल हमने इसी तरह बच्चे पैदा किए, तब आपको चोरी और बेईमानी की शिकायत करने का मौका भी नहीं रहेगा, क्योंकि चोरी और बेईमानी ही रह जाएगी। अगर एक-एक पैसे के लिए आदमी की हत्या न होने लगे बीस साल में इस मुल्क में, तो आप समझना कि आश्चर्य की बात है! वह होने लगेगी। क्योंकि जब इतने लोग बढ़ जाएंगे और जिंदगी मुश्किल हो जाएगी, तो फिर जिंदगी को जीने की हर आदमी दम तोड़ कर कोशिश करता है। और जहां जिंदगी दांव पर लगी हो, वहां फिर वह ईमानदारी वगैरह की फिकर नहीं करता। ईमानदारी वगैरह सब लग्जरी.ज हैं, सुविधा-संपन्न लोगों की बातें हैं, असुविधा से भरे हुए लोगों की बातें नहीं हैं।
असल में किसी कौम को अगर ईमानदार, भला और सज्जन होना हो, तो संपन्न होना पहली शर्त है। अगर संपन्नता को हम पूरी न कर पाएं, तो यह हो सकता है कि लाख दो लाख आदमी में एकाध आदमी ईमानदार सिद्ध हो जाए। लेकिन एकाध आदमी से कोई जिंदगी नहीं चलती, वह आदमी अपवाद है। यह हो सकता है कि पूरे मुल्क में दस-पच्चीस लोग शीर्षासन करने में कुशल हो जाएं। यह ठीक है, हो सकता है। लेकिन सारे लोग सिर के बल खड़े नहीं हो सकते। सारे लोग तो पैर के बल ही चलते रहेंगे। जिंदगी के सामान्य नियम यह कहते हैं कि हमारी हालतें इतनी बुरी हैं कि हमें इस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि इतनी बेईमानी क्यों है, हमें इस पर हैरानी होनी चाहिए कि और ज्यादा बेईमानी क्यों नहीं है! इतनी चीजें बुरी स्थिति में खड़ी हो गई हैं। इस स्थिति को बदलने के लिए संपत्ति पैदा करने के प्रयास में लगना जरूरी है।

एक मित्र ने पूछा है कि अडल्ट्रेशन हो रहा है, दूध में पानी मिलाया जा रहा है, सब चीजों में सब चीजें मिलाई जा रही हैं। इसके लिए क्या पूंजीवाद जिम्मेवार नहीं है?

नहीं, पूंजीवाद इसके लिए जिम्मेवार नहीं है। इसके लिए जिम्मेवार हम हैं, हम सब। उसमें पूंजीपति भी सम्मिलित है, उसमें गरीब भी सम्मिलित है।
आज हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा गाय-भैंसें हैं जमीन पर, और सबसे कम दूध है। स्वीडन या नार्वे, जिनके पास बहुत कम गाय-भैंसें हैं, लेकिन उनके पास दूध इतना इफरात है जिसका कोई हिसाब नहीं है। साधारण सी गाय भी कम से कम चालीस सेर दूध देती है। और हमारी गाय अगर आधा सेर दूध दे दे, तो भी भगवान की कृपा से देती है, हमारे कारण नहीं।
लेकिन हम गऊमाता वाले लोग हैं, हम गऊमाता की पूजा करते हैं। इस बात की बिना फिकर किए कि हमारी गऊ कितना पैदा कर रही है और हमारी पूजा से क्या परिणाम हो रहा है। और हम आंदोलन चलाए जाते हैं कि गऊ-हत्या बंद होनी चाहिए। बिना इस बात की फिकर किए कि जो गऊएं जिंदा हैं, वे मरे से भी बदतर हालत में जिंदा हैं।
सारी दुनिया में दूध में कहीं पानी नहीं मिलाया जाता, सिवाय हिंदुस्तान को छोड़ कर।
मेरे एक मित्र पटना यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं, वे स्वीडन गए हुए थे। सुबह पहले ही दिन उन्होंने, होटल में जो आदमी उनके लिए दूध लेकर आया, उससे उन्होंने कहा कि प्योर मिल्क है न, शुद्ध दूध है न! तो उस बैरा ने कहा, शुद्ध दूध हमने पहली दफा सुना। यह शुद्ध दूध क्या बला है? हमने तीन-चार तरह के दूध सुने हैं, पैश्चुराइज्ड मिल्क होता है, पाउडर मिल्क होता है। मगर यह शुद्ध दूध कौन सी चीज है, यह हमने कभी सुना नहीं। मैं अपने मैनेजर को बुला लाता हूं, शायद मैं ज्यादा आपकी भाषा नहीं समझता।
मैनेजर आया, वह भी घबराया हुआ आया, लिस्ट लेकर आया, पांच-छह किस्म के दूध लिखे थे, लेकिन शुद्ध दूध कुछ भी नहीं था उसमें। उसने कहा, शुद्ध दूध हमने कभी सुना नहीं, यह कौन सी चीज है? तो वे मेरे मित्र बहुत घबरा गए। उन्होंने कहा कि इतनी सी बात आपकी समझ में नहीं आती! मैं ऐसा दूध मांग रहा हूं जिसमें पानी न मिलाया गया हो। तो उस मैनेजर ने कहा, आप अजीब आदमी हैं! हम पानी मिलाएंगे किसलिए, हम पागल हो गए हैं? दूध में पानी किसलिए मिलाएंगे! क्या कोई ऐसी जगह भी है जहां दूध में पानी मिलाया जाता है? तो वे प्रोफेसर बेचारे मुश्किल में पड़ गए। उन्होंने कहा, माफ करिए, मैं अपने मुल्क के ही ख्याल में रहा। मैं समझा कि शायद यहां भी पानी मिलाया जाता होगा।
वे मित्र जब मुझे मिले, कहने लगे, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया।
मैंने कहा, मुश्किल में आप पड़ गए! और आपको मालूम होता है जानकारी बहुत पुरानी है। ऐसा बीस-पच्चीस साल पहले हिंदुस्तान में दूध में पानी मिलाया जाता था, अब तो पानी में दूध मिलाया जा रहा है। अब कोई दूध में पानी नहीं मिलाता, नासमझ कोई मिलाता हो तो बात अलग, अन्यथा पानी में ही दूध मिलाया जा रहा है, अब दूध में पानी मिलाने की हालत बहुत पुरानी पड़ गई है।
सारी दुनिया हैरान होती है कि आप दूध में किसलिए पानी मिलाते होंगे! लेकिन हम सोच ही नहीं सकते कि दूध और बिना पानी के मिल सकता है। कारण क्या है? कारण है हमारे ये बावन करोड़ मुंह, और दूध बिल्कुल नहीं है। अब अगर ठीक से समझें तो पानी मिलाने वाले की कृपा से आप सबको थोड़ा-बहुत दूध बहाने के लिए मिल रहा है, नहीं तो वह भी नहीं मिलेगा। इसलिए पानी मिलाने वाले पर नाराज न हों, उसको धन्यवाद दें कि तेरी कृपा से कम से कम दूध पीने का ख्याल तो होता है कि दूध पी रहे हैं! नहीं तो ख्याल भी नहीं कर सकते, फिर पानी ही पीना पड़ेगा।
नहीं, समाज की व्यवस्था जो है उसमें ये सारे अडल्ट्रेशन और भ्रष्टाचार, असल में एक अर्थ में जिंदगी को चलाने का काम करते हैं। जब जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाती है, तो इन उपायों का हमें काम करना पड़ता है।
हमने सुना है कि अश्वत्थामा के लिए, उनके घर में दूध न होने पर, पानी में आटा मिला कर मां धोखा दे देती थी। मां तकलीफ में पड़ती होगी, लेकिन कम से कम बेटे को इतना भरोसा भी क्या कम है कि दूध मिल गया! कम से कम रोने से तो रुक जाता है। करीब-करीब वैसी हालत पूरे मुल्क की हो गई है। वह द्रोणाचार्य की पत्नी हम सब के लिए आदर्श माता है। अब हम सब थोड़ा सा वहम अपने बच्चों को पैदा कर देते हैं कि तुम्हें दूध मिल रहा है। न मिलने से तो वहम भी अच्छा है।
लेकिन क्या आप सोचते हैं कि अगर दूध में पानी मिलाना बंद कर दिया जाए तो कुछ हल हो जाएगा! क्या हल होगा? इतना ही है कि वहम टूट जाएगा, कुछ लोगों को दूध नहीं मिलेगा और।
लेकिन असली सवाल हमारे ख्याल में नहीं आता कि दूध कम है और लोग ज्यादा हैं। दूध ज्यादा करने के लिए हम क्या कर रहे हैं? दूध ज्यादा किया जा सकता है। लेकिन हम उसकी हिम्मत नहीं जुटा पाते। अगर इतनी गाय और भैंसें हमें रखनी हैं तो दूध ज्यादा नहीं हो सकता, क्योंकि इतनी गायों और भैंसों के लिए भोजन नहीं हो सकता। असल में नार्वे या स्वीडन, जहां भी दूध ज्यादा है, वहां उन्होंने बहुत चुने हुए जानवर बचा लिए हैं, शेष जानवरों को विदा कर दिया है।
अब हम कहते हैं कि हम गऊमाता को बचाएंगे। तो आप बचाएं, गऊमाता बचेगी तो अडल्ट्रेशन भी चलेगा। क्योंकि इतनी गायों के लिए चारा जुटाना असंभव है, पानी जुटाना असंभव है। और अगर इतनी गायों के लिए चारा और पानी जुटाना है, तो ठीक है, आधा-आधा सेर, पाव-पाव दूध आप उनसे निकाल लें, इससे ज्यादा नहीं निकाल सकते। अगर थोड़ी सी अच्छी गायों की नस्ल पर मेहनत करनी है, जिनसे चालीस सेर, पचास सेर दूध मिल सके, तो हमें कुछ गायों को विदा करनी पड़ेगी। चाहे कितना ही दुख हो, लेकिन उस दुख को सहना पड़ेगा। वह कितना ही कठोर मालूम पड़े, लेकिन उस कठोरता को समझना पड़ेगा। यह मजबूरी है। और या फिर हमको पानी मिले दूध पर भरोसा करना चाहिए।
और अभी तो पानी मिला मिल रहा है, दस साल बाद वह भी नहीं मिलेगा। क्योंकि हम आदमी के लिए भोजन नहीं जुटा पा रहे, इतनी गायों के लिए कहां से भोजन जुटाएंगे? लेकिन हमारे महात्मा समझाते हैं कि गाय को तो बचाना जरूरी है, चाहे आदमी मरे तो मर जाए।
अब मैं यह सोचता हूं कि आदमी को मर जाने दो, गाय को बचा लो, लेकिन अगर आदमी मर जाएगा तो गाय कैसे बचेगी, यह जरा संदिग्ध है। आदमी बचे तो गाय भी बच सकती है। गाय नहीं बच सकती आदमी के बिना, वह आदमी के साथ मर जाएगी। लेकिन हम जिंदगी के संबंध में वैज्ञानिक नहीं हैं। हम जिंदगी के संबंध में बहुत अंधविश्वास की तरह बातचीत करते हैं। हमारा सारा सोचने का ढंग अंधा है। हम चीजों के संबंध में साफ और स्पष्ट नहीं हैं, इसलिए हम बड़ी कठिनाई में हैं। और कोई आदमी अगर साफ और स्पष्ट बात करे, तो मालूम पड़ता है अधार्मिक है।
अब मुझसे लोग पूछते हैं आ-आ कर कि आपका, गऊ-हत्या बंद होनी चाहिए कि नहीं, इस संबंध में क्या ख्याल है? वे सोचते हैं, अगर मैं कह दूं कि नहीं, बंद नहीं होनी चाहिए, तो चिल्लाएं वे कि मैं अधार्मिक हूं। जुलूस निकालें, काले झंडे दिखा दें। अगर मुझे काले झंडों से बचना है, तो मुझे कहना चाहिए कि बिल्कुल ठीक बात है, गऊ-हत्या बंद होनी चाहिए।
बस ठीक है, मैं तो निपट गया, लेकिन यह मुल्क मरेगा। इस मुल्क में सच्ची और सीधी बात कहना भी कठिन हो गई है। आप इतनी गायों को नहीं बचा सकते हैं। यह कितना ही हमें दुखद मालूम पड़े, लेकिन हमें इतनी गायों को विदा करना पड़ेगा। हमें थोड़ी सी गायों पर ज्यादा श्रम लेना पड़ेगा कि उनसे ज्यादा दूध पैदा हो सके, नहीं तो यह संभव नहीं हो पाएगा।
हम इतने आदमियों को भी नहीं बचा सकते हैं।
लेकिन हमारे महात्मा समझा रहे हैं कि आदमी तो भगवान देता है, बच्चे तो भगवान देता है, इसलिए बर्थ-कंट्रोल मत करना। गांधी जी से लेकर पुरी के शंकराचार्य तक सब महात्मा हमसे कह रहे हैं कि बर्थ-कंट्रोल मत करना! ब्रह्मचर्य साधो, अगर बच्चे रोकना है।
कितने लोग ब्रह्मचर्य साध पाते हैं?हमारे ऋषि-मुनियों में से भी कितनों ने ब्रह्मचर्य साध पाया है, इसका हम जरा पता लगा लें। कितने लोग ब्रह्मचर्य को साधते हैं?बावन करोड़ लोग ब्रह्मचर्य कब साधेंगे? और ये बावन करोड़ लोग जब तक ब्रह्मचर्य साधेंगे तब तक इस मुल्क की आबादी इतनी हो चुकी होगी कि फिर ब्रह्मचर्य साधने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
लेकिन महात्मा कहते हैं, ब्रह्मचर्य साधो! वे कहते हैं, कृत्रिम साधन का उपाय भगवान के खिलाफ है। बच्चे रोके नहीं जा सकते, बच्चे भगवान दे रहा है।
लेकिन इन्हीं महात्माओं से पूछो कि अगर जन्मते बच्चों को रोकने में भगवान का विरोध है, तो मरते हुए आदमी को बचाने में भी भगवान का विरोध है, फिर उसको भी मत बचाओ। जब अकाल पड़ता है तो क्यों चिल्लाते हो कि अब बचाओ इनको, यह अकाल पड़ गया। जब कोई आदमी बीमार है, तो अस्पताल बनाने की क्या जरूरत है? भगवान की दुश्मनी कर रहे हैं आप? मरने दो लोगों को! क्योंकि भगवान मारना चाहता होगा तो मरेंगे। आपके बचाने से बचने वाले हैं?
नहीं, मरते वक्त तो महात्मा आ जाता है कि सेवा करो! और जन्म लेते वक्त वह कहता है, बैंड-बाजे बजाओ! क्योंकि भगवान ने बच्चे को भेजा है। ये दोहरी बातें नहीं चल सकतीं।
जन्म-दर ज्यादा हो गई है और मृत्यु-दर घटती जा रही है। महामारी से कुछ लोग मर जाते थे, हमने महामारियां रोक दीं। प्लेग से मर जाते थे, प्लेग रोक दी। हैजे से मरते थे, हैजा रोक दिया। मच्छरों से मरते हों, तो मच्छरों को खत्म करो। बीमारियों से मरते हों, तो नई दवाएं ले आए। सारे पश्चिम ने मौत को रोकने का जो इंतजाम किया है, वह हमने भी कर लिया। तो मौत के दरवाजे तो हमने संकीर्ण कर दिए और जन्म के दरवाजे उतने के ही उतने हैं। तो अब हम मुसीबत में पड़ गए हैं।
पश्चिम ने दोनों उपयोग एक साथ किए। एक तरफ उन्होंने जन्म-दर कम कर ली है, दूसरी तरफ मृत्यु-दर कम की है, इसलिए वे मुसीबत में नहीं हैं। हम मुसीबत में पड़ गए हैं। जन्म-दर उतनी की उतनी है। अब बच्चे भी कम मरते हैं, क्योंकि दवाइयां भी ज्यादा हैं, इलाज भी ज्यादा हैं; लोग ज्यादा जी रहे हैं, औसत उम्र बढ़ गई है। यह सारा का सारा है, जमीन उतनी की उतनी है। भगवान बच्चे भेजता है, साथ में जमीन भेजता नहीं! अगर वह एक आदमी के साथ थोड़ा जमीन का टुकड़ा भी भेज दे तो आसानी पड़े, लेकिन उसका उसे कोई ख्याल नहीं है। और ये महात्मा इतनी प्रार्थना वगैरह करते हैं, ये भी कोई जमीन बुलवा नहीं पाते। तो यह मुल्क तो सड़ता जाएगा। इस मुल्क की सड़ांध को और इसकी कुरूपता को, इसकी गंदगी को, इसकी बेईमानी और चोरी को रोकने का अर्थ, एक ही रास्ता है और वह यह है कि हम मुल्क में जन्म की संख्या कम करें और उत्पादन बढ़ाएं।
लेकिन हम एक ही उत्पादन जानते हैं..बच्चों का उत्पादन। और कोई दूसरा उत्पादन हमें पता नहीं है। जो आदमी कुछ भी पैदा नहीं कर सकता वह भी कम से कम बच्चे तो पैदा कर ही सकता है। बच्चे पैदा करके वह प्रसन्न हो लेता है कि हमने भी कुछ पैदा किया, दुनिया में काफी काम कर दिया।
लेकिन अब इस काम से काम नहीं चल सकेगा। रोज हम इतने बच्चे पैदा कर रहे हैं कि कल उनके लिए हम इंतजाम न कर सकेंगे। तो फिर दूध में पानी बढ़ता चला जाएगा। कुछ दिन में दूध बिल्कुल नदारद हो जाएगा। बच्चों की आंखों पर पट्टी बांध देना और पानी पिला देना। पानी भी कितने दिन पूरेगा, यह भी कहना मुश्किल है। पानी में क्या मिलाइएगा, अगर पानी कम पड़ जाएगा तो? पानी में कुछ भी नहीं मिलाया जा सकता।
सारी दुनिया के समझदार लोग कह रहे हैं कि दस साल के भीतर हिंदुस्तान में महा-अकाल की हालत पैदा हो जाएगी। उन्नीस सौ अठहत्तर में हिंदुस्तान महा-अकाल में प्रवेश करेगा। और उस महा-अकाल में दस करोड़ लोगों से लेकर बीस करोड़ लोगों तक के मरने की संभावना है। सारी दुनिया में चर्चा है, हिंदुस्तान भर में कोई चर्चा नहीं है। हिंदुस्तान बेवकूफी की बातों में लगा रहता है कि यह जिला पंजाब में हो कि हरियाणा में, कि यह गांव गुजरात में हो कि महाराष्ट्र में, कि यह कारखाना लुधियाना में बने कि अमृतसर में, हम इन गंवारियों की बातों में लगा देते हैं। सारी दुनिया चिंतित है कि हिंदुस्तान में आठ साल में महा-अकाल आ जाएगा। दस करोड़ से बीस करोड़ लोग अगर किसी दिन मरे, तो बाकी जो बचेंगे वे जिंदा हालत में रहेंगे? अगर मुल्क में दस करोड़ लोगों की एकदम से मरने की हालत हो गई, तो हम जो जिंदा रहेंगे उनकी क्या हालत होगी? लेकिन हमें इसकी कोई फिकर नहीं।
मैं दिल्ली में एक बड़े नेता से बात कर रहा था। उनसे मैंने कहा कि आपको पता है, ये पश्चिम के लोग कह रहे हैं कि उन्नीस सौ अठहत्तर में हिंदुस्तान मुश्किल में पड़ेगा?
उन्होंने कहा, उन्नीस सौ अठहत्तर बहुत दूर है। अभी तो हम उन्नीस सौ बहत्तर के चुनाव की चिंता में पड़े हुए हैं। देखेंगे उन्नीस सौ अठहत्तर जब आएगा।
उन्नीस सौ अठहत्तर, वे नेता कहते हैं, बहुत दूर है। उनके लिए उन्नीस सौ बहत्तर के आगे इतिहास ही खत्म हो जाता है, उसके आगे कुछ होना नहीं है। असली सवाल इस बात पर है..कौन इलेक्शन जीतता है, इसके लिए नेता उत्सुक है, उसे कोई मतलब नहीं है। महात्मा भगवान में उत्सुक है। और यह जो विराट जनता खड़ी है, इसमें कोई उत्सुक नहीं है।
इस विराट जनता की तकलीफों को जड़ से पकड़ने की जरूरत है। अगर हिंदुस्तान ने दस साल के भीतर अपने बच्चों को पैदा करने का विराट कारखाना बंद नहीं किया, तो आप किसी भ्रष्टाचार से बच नहीं सकते; भ्रष्टाचार बढ़ता चला जाएगा। यह कोई पूंजीपति नहीं बढ़ा रहा है, यह हम सब मिल कर बढ़ा रहे हैं।

एक और मित्र ने पूछा है। एक मित्र ने पूछा है कि भारत इतना गरीब है, इतना भूखा है, तो इसमें उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था कैसे पैदा की जा सकती है?

असल में दो-तीन बातें समझ लेनी चाहिए। एक तो बड़ी कठिनाई है जो वह यह है कि हम सदा पीछे की तरफ देख कर जीते हैं, इसलिए आगे की तरफ का हमें कोई ख्याल नहीं होता। अब जैसे, अब तक हम जमीन से ही भोजन प्राप्त करते रहे हैं, इसलिए हम जमीन से ही भोजन प्राप्त करना चाहते हैं। हम इस बात की फिकर नहीं करते कि और तरह के भोजन भी हैं, जो जमीन के अलावा मिल सकते हैं।
जैसे समुद्र के पानी से भोजन मिल सकता है, सीधा समुद्र का पानी भी भोजन में रूपांतरित किया जा सकता है। हमें इसका कोई ख्याल नहीं है कि सीधी हवाओं से भी भोजन मिल सकता है। सूरज की किरणों से भी सीधा भोजन मिल सकता है। हमें इसका भी कोई ख्याल नहीं है कि भोजन पेट में बहुत सेर दो सेर डाला जाए, यह जरूरी नहीं है। अब तो सिंथेटिक फूड भी हो सकता है, एक छोटी सी गोली भी भोजन का पूरा काम कर सकती है।
हमें इन सारी दिशाओं में श्रम करना पड़े। हमारे लाखों बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं, हमारे लाखों बच्चे विज्ञान के स्नातक हो रहे हैं, उन सारे बच्चों को मिल कर इसकी फिकर करनी चाहिए कि भोजन के हम नये साधन खोजें। जरूरी नहीं है कि हम पुराने साधनों पर ही निर्भर रहें। पुराने साधनों पर निर्भर रहे तो अब हम जिंदा न रह सकेंगे। लेकिन हम पुरानी आदत से ही सोचे चले जाते हैं, हम कुछ नये ढंग से सोचते ही नहीं।
अब कपड़ा कपास से ही बने, यह जरूरी नहीं रहा है। जमाने गए जब कपड़ा कपास से ही बनता था। अब कपड़े को कपास से बनाने की ही कोई पक्की जरूरत नहीं है। कपड़ा रबर से भी बन सकता है, प्लास्टिक से भी बन सकता है, सिंथेटिक भी बन सकता है। अब हम कपास के ही कपड़े पर निर्भर क्यों रहें? अब कपड़ा हम ऐसा बना सकते हैं जो जमीन से पैदा नहीं होता, कारखाने में बनता है। लेकिन हमारी बुद्धि में वह ख्याल नहीं आता।
अब जो हम मकान बना रहे हैं, वह हम पुराने ढंग से ही बनाए चले जाते हैं। अब इतने मजबूत मकान बनाने की जरूरत नहीं है। अब इतनी ईंटें रखने की जरूरत नहीं है। अब मकान सस्ते बन सकते हैं। जापान भी मकान बनाता है, बहुत सस्ते मकान बना लेता है, हमसे बहुत सुंदर मकान बनाता है। लेकिन हम दुनिया में आंख खोल कर नहीं देखते। हम अपने वे ही मकान खड़े किए चले जा रहे हैं। चाहे वे ज्यादा जगह घेर रहे हों, कम सुविधा दे रहे हों, ज्यादा पैसा लग रहा हो, लेकिन हम पुराने ढंग का मकान बनाए चले जाते हैं।
हमारे मुल्क की बड़ी से बड़ी तकलीफ यह है कि हमारी पुरानी आदतें छूटती नहीं और नये उपाय हम नहीं करते, कि हम नये उपाय कुछ करें। नये भोजन खोजें, नये कपड़े खोजें, नये मकान खोजें। और एक बार हम खोजने में लग जाएं, तो इतना बड़ा मुल्क है, इतने बुद्धिशाली हमारे बच्चे हैं, वे सब खोज लेंगे, कोई अड़चन नहीं है, कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन आदतें पुरानी काम करती हैं।
अब जैसे उदाहरण के लिए, हम सब काम पुराने ढंग से ही किए चले जाते हैं। अगर हम मकान बनाते हैं तो अब भी मकान का मुंह सड़क की तरफ रखते हैं, सब मकान का मुंह सड़क की तरफ रखते हैं। अब यह बिल्कुल गलत बात है। अगर आठ-दस मकान एक-दूसरे की तरफ मुंह रख कर बनें तो उनके बीच में एक छोटा बगीचा बन सकता है, जिसमें उनके बच्चे खेल सकते हैं, दौड़ सकते हैं। और वे सारे घर के लोगों के मकान के मुंह अगर एक-दूसरे की तरफ हों तो उनको अलग-अलग बगीचे की जरूरत न पड़े, एक छोटी जमीन में अच्छा खूबसूरत बगीचा हो सकता है। वे सारे लोग उस बगीचे में थोड़ी सब्जी भी पैदा कर सकते हैं। उनके बच्चे खेल भी सकते हैं। सड़क पर मोटर के नीचे दब कर मरने की संभावना भी कम हो जाती है।
लेकिन बस हमारी पुरानी आदत है कि मुंह सड़क की तरफ होना चाहिए। सड़क की तरफ होने का कोई ठेका है मकान के मुंह का! कोई जरूरत नहीं है। लेकिन पुरानी आदत कहती है कि बस ऐसा होना चाहिए। पुरानी आदत के वश हम वैसा ही किए चले जाते हैं, हम नये ढंग से कुछ भी नहीं सोचते।
अगर एक मोहल्ला, एक पड़ोस अपना एक किचन बना ले, तो भी काम चल सकता है। सस्ते में काम चलेगा। अगर पच्चीस घरों में भोजन बनता है, तो पच्चीस गुना खर्च होता है। अगर पच्चीस घर अपने मकान एक-दूसरे की तरफ मुंह करके बना लें और बीच में एक किचन बना लें, तो कम खर्च में पच्चीस लोगों का काम चलेगा। पच्चीस औरतों को भोजन बनाने की जरूरत न रह जाएगी; पांच औरतें भोजन बना लें, बीस औरतें दूसरा काम करें, जिससे उत्पादन बढ़ जाए।
लेकिन हम सोचते नहीं..मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं..हम कुछ सोचते नहीं कि नया कैसे करें! जो हो रहा है पुराना, हम वही किए चले जाते हैं।
अब जमीन पर जगह कम पड़ गई है, अब जमीन पर मकान बनाना ठीक नहीं है। नदियों में मकान बनाए जा सकते हैं, समुद्र में मकान बनाए जा सकते हैं। लेकिन हम उस तरफ न सोचेंगे। जमीन के नीचे भी मकान बनाए जा सकते हैं। हम उसकी तरफ न सोचेंगे। अगर जमीन मकानों से भर गई तो पैदावार कहां करिएगा? अगर सड़कें ही सड़कें जमीन पर फैल गईं और ट्रेनें ही ट्रेनें जमीन पर फैल गईं और कारखाने और रहने वाले लोग जमीन पर फैल गए तो जमीन पर उत्पादन कहां करिएगा?
हमें जमीन से हटना पड़ेगा। हमें उन जगहों पर हटना पड़ेगा जो गैर-उत्पादक हों। यह सब हो सकता है। लेकिन इस संबंध में चिंतन की कमी है और इस संबंध में हमारा मुल्क कोई चिंतन नहीं करता। जिन लड़कों से आशा की जानी चाहिए कि वे चिंतन करें, वे सब तोड़-फोड़ में लगे हुए हैं। वे कहीं बस जला देंगे, सोचते हैं कि बस जलाने से कोई क्रांति हो जाएगी। वे कहीं किसी दफ्तर के कांच तोड़ देंगे, सोचते हैं कि कांच तोड़ने से कोई क्रांति हो जाएगी। इस मुल्क के लड़कों से आशा की जा सकती है, क्योंकि वे सुशिक्षित हो रहे हैं, उनके ऊपर ठीक से खर्च किया जा रहा है शिक्षा का। लेकिन वे लड़के बहुत ठीक ढंग का बदला दे रहे हैं, वे मुल्क को तोड़ने में लगे हुए हैं। और उन लड़कों को सब तरफ से भड़काया जा रहा है कि तुम मुल्क को तोड़ने में लग जाओ।
अगर हिंदुस्तान के जवान, सुशिक्षित लड़के तय कर लें, तो इस मुल्क के भाग्य को बदल सकते हैं। हजार नई बातें खोजी जा सकती हैं, भोजन बढ़ाया जा सकता है, मकान अच्छे बनाए जा सकते हैं, कपड़े अच्छे पैदा किए जा सकते हैं, कम खर्च में ज्यादा लोगों की जिंदगी को फैलाव दिया जा सकता है। लेकिन हमारे बच्चों को कोई फुर्सत नहीं है। उनको कहां फुर्सत है! वे सड़क पर नारेबाजी करें, हड़ताल करें, घेराव करें, वे इसमें लगे रहेंगे। नेताओं को भी इसी में सुख है कि लड़कों से वे इस तरह की बेवकूफियां करवाते रहें। और मुल्क मर जाएगा, मुल्क नष्ट हो जाएगा।
सारी दुनिया में जो काम इधर पचास वर्षों में हुआ है, वह उन मुल्कों के लड़कों ने किया है। इजरायल में उनके लड़कों ने पैदावार भी की है, पत्थर तोड़ कर भी पैदावार कर ली है। जापान जैसे मुल्क को उन्होंने, जो पिछले महायुद्ध में नष्ट हो गया था, फिर से जमीन पर स्वर्ग बना दिया है। जो लोग बीस साल पहले जापान देखने गए थे, और अभी जापान देख कर लौटे हैं, वे कहते हैं कि हम तो सोचते थे कि दूसरे महायुद्ध के बाद जापान अब कभी भी बढ़ न सकेगा। जमीन पर मिल गया था, सब मकान धूल-धूसरित हो गए थे, आग लग गई थी, सब नष्ट हो गया था। अब वहां फिर नई बस्तियां खड़ी हो गई हैं, नये मकान खड़े हो गए हैं।
आखिर सारी दुनिया के लोग कैसे जिंदगी को फैला लेते हैं, हम क्यों सिकुड़ते चले जाते हैं?हम कोई विशेष तरह का इंतजाम लेकर आए हुए हैं भगवान के यहां से? सिर्फ एक कमी है, हम जिंदगी को बदलने का विचार नहीं करते; हम जिंदगी में नई तरकीबें नहीं खोजते; हम पुरानी ही तरकीबों पर निर्भर करते हैं। और उन पर निर्भर होने की वजह से..जब पुरानी तरकीबें छोटी पड़ जाती हैं और हम ज्यादा हो जाते हैं..तो मुसीबत खड़ी हो जाती है। वह मुसीबत खड़ी हो गई है।
अब जैसे मैं उदाहरण के लिए कहूं, दूध की कमी है, मशीनें बनाई जा सकती हैं जिनको घास खिला कर सीधा दूध तैयार किया जा सके। अगर वेजिटेबल घी बन सकता है, तो वेजिटेबल मिल्क क्यों नहीं बन सकता? अगर हम वनस्पति से घी बना सकते हैं, तो वनस्पति से दूध क्यों नहीं बना सकते? आखिर गाय के पेट में कोई बहुत बड़ा काम थोड़े ही होता है। गाय के पेट में जो काम होता है वह मशीन के पेट में भी हो सकता है। गाय घास को चर कर दूध निकालती है, मशीन में भी घास को डाल कर दूध निकाला जा सकता है।
लेकिन इस मुल्क के बच्चे जब इस दिशा में मेहनत लेंगे तो यह संभव हो जाएगा। फिर गाय को तो बचाना भी पड़ता है, खिलाना भी पड़ता है, बीमारी होती है तो इलाज भी करना होता है। मशीन अगर घास से सीधा दूध दे सके, तो हम इस सारे उपद्रव से बच जाते हैं, सारे बच्चों को दूध भी मिल सकता है।
यह सब संभव है। लेकिन संभव यह आसमान से नहीं हो जाएगा। यह हमारे भाग्य से नहीं हो जाएगा। यह हमारे पुरुषार्थ से होगा!
इसलिए आखिरी बात आपसे कहना चाहता हूं और वह यह कि यह देश हजारों साल से भाग्यवादी रहा है, इसलिए यह गरीब है। हम हजारों साल से यही सोचते हैं कि भगवान जो करेगा! अभी भी पानी नहीं गिरता तो हमारे नासमझ लोग इकट्ठे होकर यज्ञ और हवन करने लगते हैं। वे कहते हैं कि हम यज्ञ और हवन से पानी गिरा लेंगे।
पांच हजार साल हो गए इन्हें यज्ञ-हवन करते! मुल्क की गरीबी नहीं मिटती, न खेत की पैदावार बढ़ती है, रोज अकाल खड़ा रहता है। कब तक यह पागलपन करते रहोगे? लेकिन हम करते चले जाएंगे, क्योंकि हमारी किताब में लिखा है। वह जो हमारा पंडित है वह कहता है कि हां, इससे हो जाएगा, पानी गिर जाएगा। हम कभी नहीं प्रयोग करवाते कि तुम एकाध बार तो पानी गिरा कर दिखा दो! पर बार-बार हम यज्ञ और हवन किए जाते हैं, लाखों रुपये फूंके चले जाते हैं और सोचते हैं कि जब...।

एक मित्र ने पूछा भी है। उन्होंने पूछा है कि रामचंद्र जी ने भी यज्ञ किया, कृष्ण जी ने भी यज्ञ किया, रावण ने भी यज्ञ किया, तो क्या उन सबने गलत किया?

अब उन्होंने गलत किया या सही किया, पहले तो यही पता लगाना मुश्किल है कि उन्होंने किया कि नहीं। यह भी पता लगाना मुश्किल है कि वे कभी हुए कि नहीं। और यह भी पता लगाना मुश्किल है कि उनके यज्ञ से कुछ फायदा हुआ कि नहीं। लेकिन हम तो यज्ञ करके देख रहे हैं रोज, कुछ होता नहीं है! एक नल की टोंटी में से तो पानी गिरा कर दिखा दो अगर पानी न आ रहा हो तो, बादल से गिराना तो बहुत दूर की बात है। अगर नल सूख गया हो, तो जरा यज्ञ-हवन करके उसकी टोंटी में से पानी गिरा दो! अगर कुआं सूख गया हो, तो यज्ञ करके उसमें पानी ला दो! बादल तो जरा दूर की बात है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि बादल से पानी नहीं गिराया जा सकता। यज्ञ-हवन से कभी भी नहीं गिरेगा, क्योंकि बादलों को आपके यज्ञ-हवन का कोई पता नहीं है, बादलों को आपसे कोई मतलब भी नहीं है। लेकिन रूस में वे बादलों से पानी गिरा रहे हैं। यज्ञ-हवन से नहीं गिरा रहे हैं, लेकिन उन्होंने वैज्ञानिक तरकीब निकाल ली है। हम भी गिरा सकते हैं।
रूस में वे पानी गिराते हैं बादलों से, जहां उनको पानी गिराना है वहां गिरा लेते हैं। अगर बादल लुधियाना के ऊपर से गुजर रहे हैं और पानी नहीं गिर रहा है, तो वे हवाई जहाज से ऊपर जाकर बर्फ का छिड़काव कर देते हैं बादलों के ऊपर। जब बर्फ बादलों पर गिरती है, ठंडक बढ़ जाती है, भाप को मजबूरी में पानी बनना पड़ता है, भाप पानी बन जाती है, लुधियाना पर पानी गिर जाता है। वे जिस गांव पर पानी गिराना है उस गांव के बादलों के ऊपर बर्फ का छिड़काव कर देते हैं।
अब यह कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। हवाई जहाज भी हमारे पास हैं, बर्फ भी हमारे पास है, हवाई जहाज में उड़ने वाले लोग भी हमारे पास हैं। लेकिन वह जो हवाई जहाज का पायलट है, वह भी यज्ञ के पास बैठा हुआ यज्ञ करवा रहा है। वह जो बर्फ की फैक्ट्री वाला मालिक है, वह भी दान दे रहा है यज्ञ में। और वे जो लड़के बर्फ गिराते ऊपर बादलों पर जाकर, वे भी यज्ञ में जाकर बैंड-बाजा पीट रहे हैं। तो ठीक है, पानी गिर जाएगा! अगर गिरना होता तो बहुत दिन पहले गिर गया होता!
रूस में जिस गांव पर बादल न गुजरे, उस गांव में भी बादल को ले जाने का उन्होंने इंतजाम कर लिया है। क्योंकि हवा के नियम पता चल चुके हैं। बादल आपके गांव पर क्यों आता है? अगर आपके गांव में बहुत गर्मी पड़ जाए...आज सुबह ही कोई कह रहा था कि बहुत गर्मी है, कहीं वर्षा न हो जाए! कभी आपने सोचा कि बहुत गर्मी होती है तो वर्षा क्यों हो जाती है?
बहुत गर्मी जब आपके गांव में होती है तो आपके गांव की हवा गर्मी के कारण फैल जाती है। हवा के फैल जाने की वजह से हवा में गड्ढे पैदा हो जाते हैं। और चारों तरफ जहां बादल हैं, उन गड्ढों की वजह से खिंच कर आपके गांव पर आ जाते हैं। हवा आपके गांव की अगर गर्मी से पिघल गई और फैल गई, तो आपके गांव की हवा विरल हो गई और आस-पास की सघन हवा में जो बादल हैं, वे खिंच कर आपके गड्ढों की तरफ चले आएंगे। इतनी सीधी सी बात है।
तो रूस में वे, अगर उनको जरूरत हो इस गांव पर बादल लाने की, तो ऊपर जाकर हवाई जहाज से गर्मी का इंतजाम करते हैं कि हवा को गर्म कर दें। हवा गर्म हो जाती है, आस-पास के बादल दौड़े हुए गांव के ऊपर आ जाते हैं। यह इतना ही सरल है सब कुछ, लेकिन एक बार हमारे ख्याल में ठीक बात आनी जरूरी है। लेकिन गलत बातें बैठी हों तो ठीक के आने में बहुत मुसीबत हो जाती है। ठीक का आना उतना कठिन नहीं, जितना गलत का निकालना कठिन हो रहा है। अब हम यज्ञ कर रहे हैं, तो दूसरी बात हमें कैसे ख्याल में आए।
एक आदमी था यूरोप में हाऊदिनी। वह आदमी एक अदभुत आदमी था। वह किसी भी तरह के ताले खोल कर बाहर निकल जाता था। उसको बड़े से बड़े पुलिस के कैदखानों में बंद किया गया हाऊदिनी को, और वह पंद्रह-बीस मिनट के भीतर, कैसी भी हथकड़ी हो, खोल कर बाहर निकल जाता था। उसने सब तरह के ताले खोलने की तरकीब बना रखी थी। उसके पास उसने कुछ इंतजाम कर रखा था, जिसका आज तक पता नहीं चल सका कि वह कैसे ताले खोल लेता था। स्कॅाटलैंड यार्ड ने, लंदन की पुलिस ने बड़ी मेहनत की; न्यूयार्क ने मेहनत की; दुनिया भर के बड़े-बड़े नगरों में अदभुत-अदभुत ताले खोजे गए; लेकिन सब तालों को खोल कर वह बाहर निकल जाता था।
एक बार दिक्कत में पड़ गया। एक गांव के..छोटे से गांव में..एक आदमी ने उसे अपने घर में बंद कर दिया, और वह नहीं निकल पाया और उसको माफी मांगनी पड़ी। मामला यह था कि उस आदमी ने जो ताला लटकाया, वह ताला खुला हुआ था, लगा हुआ नहीं था। उसको वह खोल कर बाहर नहीं आ पाया। क्योंकि लगा हुआ होता तो वह कोई तरकीब लगा लेता। वह बेचारा तरकीब खोजता रहा कि इसको खोलें कैसे? वह लगा ही नहीं था, वह सिर्फ अटका था। कोई चाबी जो उसकी कल्पना में हो सकती थी, कोई भी काम नहीं की; क्योंकि खुले हुए ताले पर कोई चाबी काम नहीं कर सकती; बंद ताला हो तो काम कर जाती।
जिंदगी भर का तालों को खोलने का माहिर कारीगर एक खुले हुए ताले को खोलने में हार गया। क्या, कठिनाई क्या आ गई? असल में वह मान कर चल रहा था कि ताला बंद है, बस यही मुश्किल हो गई। यह मान्यता ही दिक्कत में डाल दी।
हम इस मुल्क में इसी तरह की उलझन में पड़े हैं। हम कुछ बातें मान कर चल रहे हैं, जैसा कि नहीं है। जैसा हम मान कर चल रहे हैं, वैसा नहीं है। उस मान्यता की वजह से, जैसा है, उसका हम पता नहीं लगा पाते। अब हम मान रहे हैं कि यज्ञ करने से पानी गिरेगा। ऐसा नहीं है। यज्ञ से कोई संबंध पानी के गिरने का नहीं है, कोई संबंध ही नहीं है। अगर कोई आदमी कहने लगे कि हम अपने जूते को जमीन पर घिसेंगे, इससे पानी गिरेगा; जितना संबंध इसका है, उतना ही यज्ञ का है, इससे ज्यादा कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी कहने लगे कि हम सीटी बजाएंगे तो पानी गिरेगा, जितना इसका संबंध है, उतना ही यज्ञ का संबंध है, इससे ज्यादा नहीं है। लेकिन हम मान कर चल रहे हैं कि उससे पानी गिरेगा। बस फिर दिक्कत खड़ी हो गई। फिर पानी कैसे गिरेगा इसकी हम खोज नहीं कर पाते।
लेकिन हमें यह यज्ञ वगैरह का भरोसा क्यों आ गया? हमारे मन में एक बात बैठी है और वह यह बैठी है कि जो होने वाला है वह होगा, जो नहीं होने वाला है वह नहीं होगा।
यह गलत से गलत बात है। असल में जो हम करेंगे वही होगा और जो हम नहीं करेंगे वह कभी नहीं होगा। भाग्य नहीं, हमारा पुरुषार्थ ही भगवान के हाथ है। भगवान हमारी खोपड़ी में कुछ नहीं लिखता, हमारे हाथों में लिखता है जो भी लिखता है। हमारे श्रम की क्षमता ही भगवान के इशारे लेती है।
लेकिन हमने एक ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि जो होना है वह होगा। अगर मरना है भूखे, तो मरेंगे, कोई उपाय नहीं है। अगर जीना है, तो वर्षा हो जाएगी। कहीं न कहीं से कुछ हो जाएगा, जरूर कुछ हो जाएगा। हजारों साल से हमारा मुल्क यह मान कर चल रहा है कि जो होना है वह हो जाएगा। इस बात से हम पिछड़ गए हैं। यह बात हमें तोड़ कर फेंक देनी है। और अगर हमने ज्यादा देर लगाई तो हम टूट जाएंगे, बात बची रह जाएगी।
नहीं, जो होने वाला है, कुछ भी होने वाला नहीं है। जो भी हम करते हैं, वही हो रहा है। यह भी जो हो रहा है, यह भी हमारा किया हुआ हो रहा है। अगर यह मुसीबत है तो हम कर रहे हैं। अगर यह गरीबी है तो हम कर रहे हैं। अगर यह गरीबी मिटानी है, तो हम कुछ कर सकते हैं। रेगिस्तान तोड़ डाले हैं लोगों ने और फसलें पैदा कर ली हैं। और हमारा मुल्क जो फसलों से भरा था, वह रेगिस्तान हुआ जा रहा है। कोई दुनिया में ऐसा मुल्क नहीं है, जिसमें अब बाढ़ों का डर रह गया हो, सिर्फ पूरब के मुल्कों को छोड़ कर। सारी दुनिया ने अपनी नदियों के पानी का उपयोग कर लिया है।
लेकिन हम कैसे उपयोग करें! नर्मदा के मामले को लेकर मध्यप्रदेश और गुजरात में, जब से मुल्क आजाद हुआ, झगड़ा चल रहा है। चैथाई सदी हो गई, वह मध्यप्रदेश यही झगड़ा करता है और गुजरात यही झगड़ा करता है कि नर्मदा का पानी किसका है? क्योंकि नर्मदा निकलती तो है मध्यप्रदेश से और गिरती है गुजरात में, तो पानी किसका है? यही पच्चीस साल में तय नहीं होता। वह पानी गिरता ही जा रहा है, वह किसी के लिए नहीं रुका हुआ है। यह पच्चीस साल में यह नर्मदा का जो अरबों-खरबों रुपये की कीमत का पानी समुद्र में चला गया, इसके लिए कौन जिम्मेवार है?
इसके लिए राजनैतिक बैठे लड़ रहे हैं। वे दिल्ली में विवाद करते रहते हैं कि पानी किसका है। और पानी बहा जा रहा है, वह पानी समुद्र का हुआ जा रहा है। न वह गुजरात का रहता है, न वह मध्यप्रदेश का रहता है। वह पानी उपयोग में आ सकता है, उसके उपयोग की हमें कोई फिकर नहीं है। तो हर साल बाढ़ आएगी, हर साल गांव डूबेंगे, हर साल लोग मरेंगे। लेकिन हमें कोई फिकर नहीं है कि यह बाढ़ रोकी जाए। यह बाढ़ रोकी जा सकती है। यह सारा पानी जो विध्वंस बनता है, यह सृजन बन सकता है।
लेकिन कौन करेगा यह? यह भगवान करने नहीं आएगा। भगवान ने आपको करने की ताकत दे दी, अगर आप नहीं करते तो आप जिम्मेवार हैं, भगवान को शिकायत करने की कोई जरूरत नहीं है। असल में नपुंसकों के अतिरिक्त भगवान से शिकायत करने कोई भी नहीं जाता। हिम्मतवर तो काम करते हैं और भगवान को चढ़ाने जाते हैं। वे कहते हैं, हमने इतना काम किया, इसे स्वीकार कर लो; बड़ी कृपा है कि इतना हम कर पाए। कमजोर भगवान के पास जाते हैं कि इतना काम कर दो तो बड़ी कृपा होगी। अब तक कमजोरों की भगवान ने नहीं सुनी। भगवान सिर्फ शक्तिशालियों की सुनता है। और अगर हम चाहते हैं कि भगवान हमारी सुने, तो हमें अपनी शक्ति के प्रमाण देने अत्यंत जरूरी हैं।
अंत में, मैं नहीं मानता हूं कि समाजवाद को ले आने से हमारी मुसीबतें मिट जाएंगी, मैं मानता हूं कि हमारी मुसीबतों के कारण और हैं, उन्हें हम दूर करेंगे तो वे मिट सकती हैं। मैं यह भी नहीं मानता हूं कि समाजवाद के आने से संपत्ति के पैदा करने में कोई सहयोग मिलेगा। उलटा, समाजवाद के आते ही संपत्ति पैदा करने की प्रेरणा मर जाएगी। पूंजीवाद की प्रतियोगी व्यवस्था हमें संपत्ति पैदा करने की प्रेरणा देती है, संघर्ष देती है, आकांक्षा देती है। और जो पिछड़ जाता है, वह खुद जिम्मेवार होता है। जो आगे बढ़ जाता है, वह पुरस्कृत होता है। पूंजीवाद जोखिम है और पुरस्कार है। जो पुरस्कृत होता है, वह दूसरों को भी जोखिम लेने की हिम्मत देता है। जो हारता है, वह फिर हिम्मत जुटा कर आगे बढ़ता है।
असल में पूंजीवाद, एक-एक व्यक्ति को अपनी शक्ति के परीक्षण का मौका है।

एक मित्र ने कहा है कि सरकार के हाथ में सब चला जाए तो बहुत अच्छा होगा। समाजवाद में बच्चे भी तो सरकार ले लेगी, तो मां-बाप की जिम्मेवारी कम हो जाएगी।

बड़े मजे की बात है, मां-बाप बनना तो आप चाहते हैं, लेकिन जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते हैं। मित्र ने पूछा है कि मां-बाप की जिम्मेवारी कम हो जाएगी, अगर बच्चे सरकार ले लेगी। मां-बाप बनने का मजा आपको लेना है और सरकार जिम्मेवारी लेगी।
लेकिन ध्यान रहे, जिस दिन सरकार बच्चों की जिम्मेवारी लेगी, उस दिन बच्चों को कटवाने और मारने का हक भी सरकार का हो जाएगा, आपका नहीं रह जाएगा। और जिस दिन सरकारी हो जाएंगे बच्चे, उस दिन आप मां-बाप नाम को रहेंगे, जिसका कोई मतलब नहीं होगा। सिर्फ दफ्तर में लिखा होगा, और कोई मतलब नहीं रह जाएगा मां-बाप होने का।
असल में मां-बाप होने का मतलब बच्चे पैदा करना नहीं है। मां-बाप होने का मतलब बच्चों को बड़ा करना, उनको जिंदगी देना है। और जो मां-बाप अपने बच्चों को जिंदगी देने की जिम्मेवारी से भी बचना चाहते हैं, अच्छा है कि वे मां-बाप बनने की जिम्मेवारी से बचें, बजाय मां-बाप की जिम्मेवारी से बचने के। मां-बाप न बनें तो उनकी बड़ी कृपा होगी। लेकिन सरकार बच्चों को पाले, यह ख्याल अगर आपके दिमाग में है तो बड़ा गलत ख्याल है। सरकार क्यों आपके बच्चे पाले?
और अगर सरकार बच्चे पालने लगेगी किसी दिन...पाल सकती है किसी दिन। अगर हम इसी तरह बच्चे पैदा करते चले गए तो आखिरी में यही परिणाम होगा! तो बड़े-बड़े अनाथालय गांव-गांव में बनाने पड़ेंगे, और तो कोई उपाय नहीं है। और उन अनाथालयों में जो बच्चों के साथ होगा, वह हम समझ सकते हैं कि क्या हो सकता है। सरकारी बच्चे किस मतलब के होंगे, वह भी हम समझ सकते हैं। जो भी सरकार के हाथ में चला जाता है, बेमानी हो जाता है। बच्चे भी बेमानी हो जाएंगे।
नहीं, इस तरह की जिम्मेवारियों से बचने का मत सोचें। जिंदगी जिम्मेवारी का नाम है। और जो आदमी जितना हिम्मतवर है, उतनी जिम्मेवारी उठाने की तैयारी दिखलाता है। जिंदगी जिम्मेवारी से भागने का नाम नहीं है, जिंदगी जिम्मेवारी लेने और संघर्ष करने का नाम है। घबराएं मत, भागें मत, जिंदगी के बोझ से डरें मत, जिंदगी के बोझ से लड़ें; तो जिंदगी हलकी हो सकती है।
इस संबंध में और दो-चार प्रश्न रह गए हैं। आपके कोई और प्रश्न होंगे तो आप लिख कर दे देंगे, तो कल सांझ हम बात कर सकेंगे।
सुबह के संबंध में एक सूचना, फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। सुबह जो मित्र ध्यान के लिए आ रहे हैं, वे ठीक छह बजे पहुंच जाएं। स्नान करके पहुंचें और धुले कपड़े पहन कर पहुंचें। और घर से चुपचाप चले जाएं और वहां कोई बात न करें, चुपचाप बैठ जाएं। ठीक छह बजे पहुंच जाएं ताकि धूप न हो जाए और छह और सात के बीच ध्यान का प्रयोग पूरा हो सके। यहां सांझ को तो मैं आपसे कह रहा हूं कि आप अपनी शक्ति से कुछ खोजें जगत में, सुबह जो लोग परमात्मा के जगत में कुछ खोजना चाहते हैं..वह भी अपनी शक्ति से..उनके लिए सुबह बुलाया हुआ है। जिन्हें संसार की खोज करनी है, वे सांझ की बात सुन लें; और जिन्हें परमात्मा की खोज करनी है, वे सुबह की बात भी जरूर सुन लें।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें। 

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