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शनिवार, 4 मई 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-09)

नये समाज की खोज-(नौवां प्रवचन)

अध्यात्म की आधारशिला है भौतिकवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि आपने पहले दिन की चर्चा में कहा कि समाजवाद मनुष्य को पशु बना देता है। तो उन मित्र का कहना है कि आदमी तो आज पशु से भी बदतर हो गया है, इसलिए अगर आदमी पशु भी बन जाए तो हर्ज क्या है?
इस संबंध में दो-तीन बातें समझनी उपयोगी हैं। पहली बात तो यह है कि आदमी पशु से भी बदतर बन जाए, तब भी आदमी है। और पशु से बदतर बनने की क्षमता भी आदमी की क्षमता है, पशु की क्षमता नहीं है। और आदमी क्योंकि पशु से बदतर बन सकता है, इसलिए देवताओं से श्रेष्ठ भी बन सकता है। ये दोनों उसकी क्षमताएं हैं। पशु के पास दोनों क्षमताएं नहीं हैं। जो सीढ़ी ऊपर ले जाती है, वह नीचे भी ला सकती है। सीढ़ी दोनों तरफ चढ़ी जा सकती है। कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से ऊपर चला जाए और कोई आदमी चाहे तो सीढ़ी से नीचे आ जाए। लेकिन ये सीढ़ी की दोनों क्षमताएं एक ही साथ होती हैं।

अगर हम ऐसा सोचते हों कि मनुष्य सिर्फ ऊपर ही चढ़ सके, अगर ऐसी सीढ़ी हो, तो फिर मनुष्य की स्वतंत्रता न रह जाएगी। वह नीचे भी उतर सकता है, यह भी उसकी स्वतंत्रता है।
पशु परतंत्र है; अच्छा है तो परतंत्र है, बुरा है तो परतंत्र है। पशु के जीवन में न तो कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। अच्छा और बुरा वहां होता है जहां चुनाव है, जहां चुनाव करने की शक्ति है। अगर कोई मनुष्य पशु से भी बदतर है, तो वह मनुष्य देवताओं से श्रेष्ठ हो सकता है इसीलिए पशुओं से बदतर हो सका है।
मैं किसी मनुष्य का पशु बनना पसंद न करूंगा, क्योंकि पशु बनने का मतलब यह है कि फिर न तो पशु से बदतर बन सकेंगे आप और न फिर देवताओं से श्रेष्ठ बन सकेंगे आप।
फिर तो पशु से और बेहतर मशीन है। पशु बुरा तो नहीं कर सकता, अच्छा नहीं कर सकता; लेकिन पशु अपने को दुख पहुंचाने योग्य कुछ कर सकता है, सुख पहुंचाने योग्य कुछ कर सकता है। मशीन वह भी नहीं कर सकती। अगर हमें सारी ही दिक्कतों के बाहर हो जाना है तो हमें मशीन हो जाना अच्छा है। समाजवाद पशु ही नहीं बनाएगा, समाजवाद मूलतः आदमी को मशीन बनाने की कोशिश है।
मैं इस बात से राजी नहीं हो सकता हूं। मैं मानता हूं कि मनुष्य के पशु होने की क्षमता उसकी बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। उससे विपरीत भी वह कर सकता है, दोनों के लिए स्वतंत्र है। और दोनों के लिए सदा स्वतंत्र रहना चाहिए। जिस दिन आदमी अच्छा ही हो सकेगा, बुरा न हो सकेगा, उस दिन अच्छे होने में भी आनंद समाप्त हो जाएगा।
एक छोटा बच्चा सरल दिखाई पड़ता है, निर्दोष दिखाई पड़ता है। लेकिन मैं इस छोटे बच्चे की निर्दोषता और सरलता की तारीफ नहीं कर सकता, क्योंकि बच्चा अभी जवान होगा और बुरे होने की क्षमता उसमें आएगी। लेकिन जब कोई बूढ़ा आदमी सरल और निर्दोष हो जाता है, तब मैं उसकी तारीफ जरूर करता हूं, क्योंकि उसने बुराई के मौके को छोड़ कर वह अच्छा बना। बच्चे को बुराई का मौका ही नहीं मिला है, इसलिए बच्चे की कोई कीमत नहीं है।
अगर कोई बूढ़ा बच्चे जैसा हो जाए तो हम कहते हैं, वह परमात्मा का स्वरूप हो गया। लेकिन किसी बच्चे को नहीं कह सकते। क्योंकि बच्चे को अभी स्वतंत्रता का मौका नहीं मिला, चुनाव का मौका नहीं मिला, अभी बुरे होने के मौके नहीं आए, जहां उसकी परीक्षा होती कि वह बुरा होता है या अच्छा होता है। परीक्षा तय करती है, परीक्षा कसौटी है। आदमी की जिंदगी में सिर्फ कसौटी है, बाकी और किसी प्राणी की जिंदगी में कसौटी नहीं है। इसलिए परमात्मा की तरफ का रास्ता भी आदमी के चैराहे से गुजरता है और पशु की तरफ का रास्ता भी आदमी के चैराहे से गुजरता है। आदमी एक चैराहा है, जहां से दोनों तरफ रास्ते जाते हैं..आगे भी और पीछे भी।
मैं कभी राजी न होऊंगा कि आदमी को हम इस चैराहे से हटा कर पीछे कर दें। हो सकता है पशु की जिंदगी में अशांति कम हो जाए, हो जाएगी कम; लेकिन शांति भी कम हो जाएगी। हो सकता है पशु की जिंदगी में दुख कम हो जाएं; लेकिन सुख भी कम हो जाएंगे। जिस मात्रा में दुख कम होते हैं, उसी मात्रा में सुख कम हो जाते हैं।
जिन मित्र ने यह कहा है, उनकी बात थोड़ी सी विचार करने योग्य जरूर है। उनकी बात में महत्वपूर्ण यही है कि उन्हें लगता है कि आदमी आज पशु से भी बदतर हो गया है। इस बात में थोड़ी सच्चाई है। लेकिन यह ठीक से समझ लें कि आज बदतर हो गया है, इससे यह भ्रांति पैदा होती है कि पहले शायद ठीक रहा होगा। वह गलत ख्याल है। आदमी सदा से ऐसा ही रहा है। जिन्हें हम बुराइयां कहते हैं, वे आदमी में सदा से हैं; और जिन्हें हम अच्छाइयां कहते हैं, वे भी आदमी में सदा से हैं। और अच्छाई और बुराई का चुनाव प्रत्येक आदमी को अपनी जिंदगी में स्वयं ही करना पड़ता है। इसलिए एक ऐसे समाज की व्यवस्था चाहिए जो स्वतंत्रता का मौका देती हो।
अगर कोई हमें जबरदस्ती अच्छा भी बना दे, तो वह बुरे होने से भी बदतर होगा। जेलखाने में कोई चोरी नहीं कर सकता, जेलखाने में कोई हत्या नहीं कर सकता, जेलखाने में कोई भी बुराई करने की स्वतंत्रता नहीं है। फिर भी हम जेलखाने में जाना पसंद नहीं करेंगे। बाहर की जिंदगी में बुराई की स्वतंत्रता है, उसी के साथ अच्छाई की स्वतंत्रता भी है। जेलखाने में अगर कोई चोरी नहीं कर सकता, तो जेलखाने में कोई जीवन को ऊपर ले जाने का उपाय भी नहीं खोज सकता। जेलखाना एक परतंत्रता है।
समाजवाद कोशिश कर सकता है पूरे मुल्क को एक बड़ा जेलखाना बना देने की। उसने जेलखाने बनाए। और जेलखाने बनाने से कई बातों में सुविधा हो जाती है। लेकिन वे सुविधाएं बड़े कीमती सौदे हैं, उनमें हम बहुत कुछ खोते हैं और पाते कुछ भी नहीं हैं।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि आदमी पशु होने की क्षमता को स्वीकार करे, स्वतंत्रता को कायम रखे, फिर भी पशु न हो, इसकी दिशा में हमें कोशिश करनी चाहिए।
और आदमी पशु क्यों हो जाता है, यह भी थोड़ा सोचने जैसा है। जैसी जिंदगी है, उस जिंदगी में आदमी होना बहुत मुश्किल और कठिन मालूम होता है। जिंदगी में ऐसे अवसर नहीं मालूम पड़ते, जिनमें आदमी होने की सरलता हो; पशु होने की सरलता मालूम पड़ती है, सुविधा मालूम पड़ती है। ऐसा लगता है कि पशु होकर हम ज्यादा सफलता से जी सकेंगे, इसलिए आदमी पशु होने की दिशा में झुक जाता है।
अगर कोई आदमी झूठ बोल रहा है या बेईमानी कर रहा है या हिंसा करने पर उतारू हुआ है, तो ऐसा नहीं है कि कोई भी आदमी हिंसा करने के लिए उत्सुक पैदा होता है, न ही कोई क्रोध करने को उत्सुक पैदा होता है। बुरा होना बुरे से बुरा आदमी भी नहीं चाहता है, बुरे से बुरे आदमी के भीतर भी भले होने की आकांक्षा का बीज निरंतर मौजूद रहता है। लेकिन चारों तरफ की जिंदगी अगर ऐसी हो कि बुरे होने को मजबूर कर दे, तो बहुत कम लोग इतने हिम्मतवर होते हैं कि उस चुनौती को झेल सकें और अच्छे रह जाएं। अधिक लोग बुरे हो जाते हैं।
इसलिए समाज हमें एक ऐसा चाहिए जो स्वतंत्रता पूरी देता हो और बुरे होने के लिए मजबूर न करता हो, इतना ही काफी है। किसी आदमी को भले होने के लिए मजबूर करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ बुरे होने के लिए मजबूर न करे समाज, इतना ही काफी है। ऐसा समाज जो बेईमान होने के लिए मजबूर न करता हो।
लेकिन आज हमारा समाज सब तरफ से हमें बेईमान होने को मजबूर अगर करता हो, तो बहुत कम लोग रुक पाएंगे, अधिक लोग बेईमान हो जाएंगे। अगर जीना है, तो उन्हें बेईमान हो ही जाना पड़ेगा। फिर हम उनकी बेईमानी को कितना ही दोष दें, इससे कुछ हल नहीं होता। और जो दोष देने वाले हैं, वे भी करीब-करीब बेईमान होंगे। सिर्फ फर्क इतना होगा कि कुछ सफल बेईमान होंगे जिनकी बेईमानी का पता नहीं चलेगा और कुछ असफल बेईमान होंगे जिनकी बेईमानी पकड़ ली गई होगी।
जिन्हें हम नेता कहते हैं, जो लोगों को समझाते हैं कि बेईमानी मत करो, नेता होने तक की यात्रा बिना बेईमानी के बहुत मुश्किल है। लेकिन एक दफे जो मंच पर पहुंच जाता है, वह लोगों को समझाने लगता है कि बेईमानी बहुत बुरी चीज है। लोग भी जानते हैं कि यह वही आदमी है, बेईमानियों की सीढ़ियों से चढ़ा हुआ! लेकिन जो सफल हो गया, उसकी सब बुराइयां दब जाती हैं और समाप्त हो जाती हैं। और जो असफल हो गया, उसकी सब बुराइयां दिखाई पड़ने लगती हैं और प्रकट हो जाती हैं।
ऐसा मालूम पड़ता है कि जिसे हम समाज कहते हैं, उसमें असफलता ही एकमात्र बुराई है और सफलता ही एकमात्र शुभ है। जो सफल हो जाए वह सब तरह ठीक हो जाता है, जो असफल हो जाए वह सब तरह बुरा हो जाता है।
हमें ये समाज की जिंदगी के मूल्य और ये वैल्यूज बदलनी चाहिए। हमें इस बात की फिकर करनी चाहिए कि हम समाज ऐसा निर्मित करें...और वह समाज कैसे निर्मित होगा, उस संबंध में मैंने दो दिन बहुत सी बातें आपसे कही हैं। एक बात तो मैंने यह कही है कि गरीबी सब पापों की जड़ है। और जब तक गरीबी है तब तक आप धर्म की बात कर सकते हैं, धर्म को ला नहीं सकते। गरीबी इतने पापों को पैदा करती है कि अगर हम सिर्फ गरीबी को मिटाने में लग जाएं तो नब्बे प्रतिशत पाप गिर जाएंगे।
लेकिन हम गरीबी मिटाने में नहीं लगते, हम पापों को मिटाने में लगते हैं, यह बड़ी बुनियादी भूल की बात है। पापों को हम नहीं मिटा सकेंगे, जब तक हम गरीबी को नहीं मिटाते; क्योंकि पाप तो सिर्फ फूल हैं, जड़ में गरीबी है।
हम ऐसे ही लोग हैं कि अगर किसी को घर में बुखार आ जाए और उसका शरीर गर्म हो जाए, तो हम उसके शरीर की गर्मी मिटाने में लग जाते हैं।
गर्मी बीमारी नहीं है, बीमारी तो शरीर में कहीं भीतर है, जिस बीमारी की वजह से शरीर गर्म हो गया है। गर्म हो जाना तो सिर्फ सिम्पटम है, लक्षण है, खबर दे रहा है कि शरीर के भीतर कोई बीमारी है। आप ठंडे बर्फ का पानी डालते रहें मरीज पर, मरीज भी मर जाएगा, बीमारी भी चली जाएगी, लेकिन मरीज को लेकर जाएगी। गर्मी कम करना इलाज नहीं है, गर्मी तो केवल खबर है कि भीतर बीमारी है। उस बीमारी को ठीक करें, बुखार अपने आप उतर जाएगा।
समाज में हमें जो आज इतना अनाचार, इतना व्यभिचार, इतना भ्रष्टाचार, इतनी बेईमानी, इतनी पशुता दिखाई पड़ती है, इसके बहुत गहरे में गरीबी बीमारी है। वह बीमारी घाव की तरह भीतर है, मवाद बाहर फिंक रहा है। हम मवाद को पोंछ-पोंछ कर मलहम-पट्टी करते रहते हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारी सब मलहम-पट्टियां टूट जाती हैं, भीतर से मवाद फिर आ जाता है। जब तक हम भीतर से ही उस कैंसर को गरीबी के न मिटा दें, तब तक हमें आशा नहीं करनी चाहिए कि हम समाज को धर्म और नीति, शुभ और पुण्य सिखा पाएंगे। वह हम नहीं सिखा पाएंगे।
हमारा महात्मा इसीलिए असफल हुआ जा रहा है। क्योंकि वह सिर्फ पाप से लड़ने के लिए कहे चला जाता है, पाप की जड़ को उखाड़ने की उसके पास कोई योजना नहीं है। पाप की जड़ को मिटाना होगा, तो पाप अपने आप मिट जाएंगे।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी पाप मिट जाएंगे। लेकिन गरीबी से पैदा होने वाले पाप मिट जाएंगे। और गरीबी से पैदा होने वाले पाप इतने दीन कर जाते हैं मन को जिसका कोई हिसाब नहीं है।
फिर हम यह भी समझ नहीं पाते...यह भी एक मित्र ने पूछा है।

एक मित्र ने पूछा है कि गरीब आदमी तो बहुत कम बेईमान होते हैं; आमतौर से तो अमीर आदमी ही बेईमान होते हैं।

इस बात को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। गरीब आदमी अगर बेईमान होता तो वह भी शायद अमीर हो गया होता, एक। लेकिन अगर वह अमीर नहीं हो सका है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह बेईमान नहीं है। इतना ही हो सकता है कि उसकी बेईमानी सफल न हो पाई हो। यह भी हो सकता है कि वह बेईमानी उसने की हो, लेकिन पड़ोसी उससे ज्यादा बेईमानी कर गया हो। यह भी हो सकता है कि बेईमानी वह करना चाहता हो, लेकिन साहस न जुटा पाता हो। बहुत से अच्छे आदमी सिर्फ कमजोर, कमजोरी की वजह से अच्छे मालूम होते हैं।
अगर हम लोगों के दिल में उतर सकें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर वे ऐसे आदमी होते हैं जो बुरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। बुरा करने के लिए भी हिम्मत चाहिए, करेज चाहिए, डेयरिंग चाहिए; बुरा करने के लिए फंसने की तो कम से कम हिम्मत चाहिए, दांव पर लगने की हिम्मत चाहिए।
अक्सर इस मुल्क में जिसको हम अच्छा आदमी कहते हैं वह कमजोर आदमी है। और जिस मुल्क में कमजोर आदमी अच्छे होते हैं और ताकतवर आदमी बुरे हो जाते हैं, उसके दुर्भाग्य के सिवाय उस मुल्क में और कुछ भी घटित नहीं होता। आज जो आदमी हिम्मतवर है वह बुरा हो जाता है और जो कमजोर है वह अच्छा हो जाता है। नपुंसक अच्छे आदमियों से कोई समाज नहीं बदल सकता; जब तक हम ताकतवर लोगों को अच्छे होने की दिशा में न लगाएं, तब तक यह नहीं हो सकेगा।
लेकिन ताकतवर आदमी अच्छे होने की दिशा में क्यों जाए? क्योंकि अच्छे होने की दिशा में असफलता के सिवाय कुछ भी हाथ अगर लगने को न हो, तो अच्छा आदमी फिर सफलता की दिशा में जाना शुरू हो जाता है। सारे समाज की व्यवस्था ऐसी है कि सफलता एकमात्र आकर्षण है। आप भी उसको पूजते हैं जो जीत जाता है।
पुरानी कहावत है कि सत्य सदा जीतता है। लेकिन उस कहावत में मुझे भ्रांति मालूम पड़ती है, मुझे ऐसा लगता है कि जो जीत जाता है उसी को हम सत्य कहने लगते हैं। हम सफलता को आदर देते हैं, सफलता किसी भी भांति आ जाए।
अगर हमें यह स्थिति बदलनी है, तो हमें अपने आदर के मूल्य बदलने पड़ेंगे। हम आदर के मूल्य जिनको देंगे, समाज उसी तरफ दौड़ना शुरू हो जाता है।
उदाहरण के लिए, हमने हिंदुस्तान में संन्यासी को बहुत आदर दिया तो हिंदुस्तान में लाखों संन्यासी हो गए। किसी दूसरे मुल्क में इतना संन्यासी को आदर नहीं मिला, इसलिए दूसरे मुल्क में इतने संन्यासी पैदा नहीं हुए। फ्रांस में लाखों चित्रकार पैदा हो जाते हैं, क्योंकि चित्रकार को बहुत आदर मिलता है। इतने चित्रकार दुनिया में और कहीं पैदा नहीं होते, क्योंकि इतना आदर चित्रकार को नहीं मिलता है।
हिंदुस्तान में जब तक हम बेईमान लोगों को आदर दिए चले जाएंगे, तब तक हिंदुस्तान में ईमानदारी की धारा का फूटना बहुत मुश्किल है। लेकिन आज आप सबसे ज्यादा आदर किसको दे रहे हैं?
आज राजनीतिज्ञ सारे आदर के केंद्र पर बैठ गया है। जब तक हिंदुस्तान में राजनीतिज्ञ को उतार कर जमीन पर नहीं खड़ा किया जाता, तब तक हिंदुस्तान में ईमानदारी की कोई संभावना नहीं हो सकती है। अखबार है तो राजनीतिज्ञ का, अखबार की खबरें हैं तो राजनीतिज्ञ की, चर्चा है तो राजनीतिज्ञ की, रेडियो है तो राजनीतिज्ञ है, सब तरफ राजनीतिज्ञ छाया हुआ है। अगर मंदिर का भी उदघाटन करना है तो कोई मिनिस्टर करेगा और अगर यज्ञ का भी उदघाटन करना है तो कोई राष्ट्रपति करेंगे। राजनीतिज्ञ को ही चारों तरफ जिंदगी में छाने की अगर हमने फिकर की, तो आप यह पक्का समझिए, इस मुल्क में ईमानदारी के रास्ते खुलने मुश्किल हो जाएंगे। क्योंकि राजनीति सबसे ज्यादा चालाक धंधा है।
लेकिन यह राजनीतिज्ञ कह रहा है कि धन पर भी हम ही काबू चाहते हैं।
समाजवाद के मेरे विरोध में एक कारण यह भी है। राजनीतिज्ञ के हाथ में राज्य की ताकत है, वह भी काफी नुकसान पहुंचा रही है। अब हम राजनीतिज्ञ के हाथ में धन की ताकत भी दे दें, तब तो फिर उससे मुक्ति पाने का कोई उपाय न रह जाएगा। राज्य के हाथ में दोनों ताकत! फिर तो राज्य बिल्कुल अनचैलेंजेबल, चुनौती के बाहर हो जाएगा। फिर तो राज्य से लड़ना और राज्य से बगावत करना या राजनीतिज्ञ की खिलाफत करने की कोई संभावना और कोई उपाय न रह जाएगा।
आज तो राजनीतिज्ञ से लड़ा जा सकता है। इसलिए मैं लोकतंत्र और पूंजीवाद के समर्थन में हूं कि राजनीतिज्ञ से लड़ने का हमारे पास एक उपाय तो है। लेकिन अगर राज्य का धन और देश की सारी संपत्ति भी राज्य के हाथ में चली जाती है, तो फिर राज्य से लड़ने का कोई उपाय नहीं रह जाता। और जिस दिन हम व्यक्तियों के हाथ से उनकी संपत्ति का अधिकार छीन लेंगे, उस दिन हम उनके जीवन की सारी शक्ति छीन लेंगे; उनके व्यक्तित्व का सारा सार छीन लेंगे; उस दिन राजनीतिज्ञ भगवान हो जाएगा। राजनीतिज्ञ भगवान होने की कोशिश में लगा हुआ है।
अगर हमें राज्य को भगवान बना देना है और राजनीतिज्ञ को भगवान बना देना है, तो हमें फिर बेईमानी वगैरह का विरोध करना बंद कर देना चाहिए। क्योंकि राजनीति में बेईमानी, चोरी, धोखा, जाल, सब सीढ़ियां हैं। लेकिन इन सीढ़ियों से जो आदमी गुजरता है, वे सब आदर के पात्र हो जाते हैं।
अगर इस मुल्क को कभी भी ईमानदारी की दिशा में कदम उठाना हो, तो राजनीतिज्ञ के प्रति बहुत सावधान हो जाना चाहिए। राजनीतिज्ञ को इतना आदर देने की कोई भी जरूरत नहीं है, कोई कारण भी नहीं है। अगर आपके पंजाब का कोई मंत्री, खाद्य मंत्री या फूड मिनिस्टर है, तो उसका आदर वैसे ही होना चाहिए जैसे घर में एक अच्छे रसोइए का होता है। वह पूरे प्रदेश का रसोइया है, इससे ज्यादा कोई कीमत देने की जरूरत नहीं है। वह पूरे प्रदेश के लिए भोजन की फिकर करता है, पूरे प्रदेश का बड़ा रसोइया है। अगर अच्छी फिकर करता है तो धन्यवाद दे देना चाहिए, अच्छा काम नहीं करता है तो निकाल बाहर करना चाहिए। इससे ज्यादा आदर का कोई कारण नहीं है।
राजनीतिज्ञ को इतने आदर की समझ नहीं कि क्यों इतना आदर हम दे रहे हैं!
लेकिन इस मुल्क में पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में हमने राजनीतिज्ञ को भगवान बना दिया है। अब राजनीतिज्ञ का यह मन होता है कि वह धन पर भी कब्जा पा ले। धन से ही उसे एक चिंता है। अगर कभी राजनीतिज्ञ को कोई धक्का पहुंचा सकता है, तो देश का धन उसे धक्का पहुंचा सकता है। अब वह चाहता है उस पर भी उसका हाथ हो जाए।
मेरी अपनी समझ यह है कि जब तक बहुत लोगों के पास धन बंटा हुआ है, तब तक बहुत लोग बहुत तरह की पार्टियों के लिए सहायता पहुंचा सकते हैं और उन्हें जिंदा रख सकते हैं। लेकिन जिस दिन राज्य के पास सारे कारखाने, सारी जमीनें, सारे उद्योग चले जाएंगे, उस दिन राज्य की पार्टी को कोई दूसरी पार्टी विरोध करने की स्थिति में नहीं रह जाएगी। इससे सावधान हो जाने की जरूरत है।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि आप समाजवाद और साम्यवाद..सोशलिज्म और कम्युनिज्म..में क्या फर्क करते हैं?

वही फर्क करता हूं मैं जो टी.बी. की पहली स्टेज में और तीसरी स्टेज में होता है, और कोई फर्क नहीं करता हूं। समाजवाद थोड़ा सा फीका साम्यवाद है, वह पहली स्टेज है बीमारी की। और पहली स्टेज पर बीमारी साफ दिखाई नहीं पड़ती इसलिए पकड़ने में आसानी होती है। इसलिए सारी दुनिया में कम्युनिज्म ने सोशलिज्म शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया है। कम्युनिज्म शब्द बदनाम हो गया है। और कम्युनिज्म ने पिछले पचास सालों में दुनिया में जो किया है, उसके कारण उसका आदर क्षीण हुआ है। पचास वर्षों में कम्युनिज्म की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई है। इसलिए अब कम्युनिज्म सोशलिज्म शब्द का उपयोग करना शुरू किया है। अब वह समाजवाद की बात करता है और यह भी कोशिश कर सकता है कि हम समाजवाद से भिन्न हैं। लेकिन समाजवाद और साम्यवाद में कोई बुनियादी भेद नहीं है, सिर्फ शब्द का भेद है। लेकिन शब्द के भेद पड़ने से हमें बहुत फर्क मालूम पड़ने लगते हैं। शब्द को भर बदल दें तो ऐसा लगता है कोई बदलाहट हो गई।
कोई बदलाहट नहीं हो गई है। समाजवाद हो या साम्यवाद हो, सोशलिज्म हो या कम्युनिज्म हो, एक बात पक्की है कि व्यक्ति की हैसियत को मिटा देना है, व्यक्ति के व्यक्तित्व को पोंछ डालना है, व्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर देना है, संपत्ति का व्यक्तिगत अधिकार छीन लेना है और देश की सारी जीवन-व्यवस्था राज्य के हाथ में केंद्रित कर देनी है।
लेकिन हमारे जैसे मुल्क में, जहां कि राज्य निकम्मे से निकम्मा सिद्ध हो रहा है, वहां अगर हमने देश की सारी व्यवस्था राज्य के हाथ में सौंप दी, तो सिवाय देश के और गहरी गरीबी, और गहरी बीमारी में गिरने के कोई उपाय न रह जाएगा।
आज मेरे एक मित्र मुझे एक छोटी सी कहानी सुना रहे थे, वह मुझे बहुत प्रीतिकर लगी। वे मुझे एक कहानी सुना रहे थे कि एक आदमी ने रास्ते से गुजरते वक्त, एक खेत में एक बहुत मस्त और तगड़े बैल को काम करते देखा। वह पानी खींच रहा है और बड़ी शान से दौड़ रहा है। उसकी शान देखने लायक है। और उसकी ताकत, उसका काम भी देखने लायक है। वह जो आदमी गुजर रहा था, बहुत प्रशंसा से भर गया, उसने किसान की बहुत तारीफ की और कहा कि बैल बहुत अदभुत है।
छह महीने बाद वह आदमी फिर वहां से गुजर रहा था, लेकिन बैल अब बहुत धीमे-धीमे चल रहा था। जो आदमी उसे चला रहा था, उससे उसने पूछा कि क्या हुआ? बैल बीमार हो गया? छह महीने पहले मैंने उसे बहुत फुर्ती और ताकत में देखा था! उस आदमी ने कहा कि उसकी फुर्ती और ताकत की खबर सरकार तक पहुंच गई और बैल को सरकार ने खरीद लिया है। जब से सरकार ने खरीदा है तब से वह धीमा चलने लगा है, पता नहीं सरकारी हो गया है।
छह महीने और बीत जाने के बाद वह आदमी फिर उस जगह से निकला तो देखा कि बैल आराम कर रहा है। वह चलता भी नहीं, उठता भी नहीं, खड़ा भी नहीं होता। तो उसने पूछा कि क्या बैल बिल्कुल बीमार पड़ गया, मामला क्या है? तो जो आदमी उसके पास खड़ा था उसने कहा, बीमार नहीं पड़ गया है, इसकी नौकरी कन्फर्म हो गई है, अब यह बिल्कुल पक्का सरकारी हो गया है, अब इसे काम करने की कोई भी जरूरत नहीं रह गई है।
बैल अगर ऐसा करे तब तो ठीक है, आदमी भी सरकार में प्रवेश करते ही ऐसे हो जाते हैं। उसके कारण हैं, क्योंकि व्यक्तिगत लाभ की जहां संभावना समाप्त हो जाती है और जहां व्यक्तिगत लाभ निश्चित हो जाता है, वहां कार्य करने की इनसेंटिव, कार्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जाती है। सारे सरकारी दफ्तर, सारा सरकारी कारोबार मक्खियां उड़ाने का कारोबार है। पूरे मुल्क की सरकार नीचे से ऊपर तक आराम से बैठी हुई है। और हम देश के सारे उद्योग भी इनको सौंप दें! ये जो कर रहे हैं, उसमें सिवाय हानि के कुछ भी नहीं होता।
मेरा अपना सुझाव तो यह है कि जो चीजें इनके हाथ में हैं वे भी वापस लौटा लेने योग्य है। अगर हिंदुस्तान की रेलें हिंदुस्तान की व्यक्तिगत कंपनियों के हाथ में आ जाएं, तो ज्यादा सुविधाएं देंगी, कम टिकट लेंगी, ज्यादा चलेंगी, ज्यादा आरामदायक होंगी और हानि नहीं होगी, लाभ होगा। जिस-जिस जगह सरकार ने बसें ले लीं अपने हाथ में, वहां बसों में नुकसान लगने लगा। जिस आदमी के पास दो बसें थीं, वह लखपति हो गया। और सरकार जिसके पास लाखों बसें हो जाती हैं, वह सिवाय नुकसान के कुछ भी नहीं करती। बहुत आश्चर्यजनक मामला है!
मैं अभी मध्यप्रदेश में था, तो वहां मध्यप्रदेश ट्रांसपोर्टेशन, बसों की व्यवस्था के जो प्रधान हैं..अब तो वे सब सरकारी हो गई हैं..उन्होंने मुझे कहा कि पिछले वर्ष हमें तेईस लाख रुपये का नुकसान लगा है। उन्हीं बसों से दूसरे लोगों को लाखों रुपये का फायदा होता था, उन्हीं बसों से सरकार को लाखों का नुकसान होता है। लेकिन होगा ही, क्योंकि सरकार को कोई प्रयोजन नहीं है, कोई काम्पिटीशन नहीं है।
दूसरा सुझाव मैं यह भी देना चाहता हूं कि अगर सरकार बहुत ही उत्सुक है धंधे हाथ में लेने को, तो काम्पिटीशन में सीधा मैदान में उतरे और बाजार में उतरे। जो दुकान एक आदमी चला रहा है, ठीक उसके सामने सरकार भी अपनी दुकान चलाए और फिर बाजार में मुकाबला करे। एक कारखाना आदमी चला रहे हैं, ठीक दूसरा कारखाना सरकार खोले और दोनों के साथ समान व्यवहार करे और अपना कारखाना चला कर बताए। तब हमको पता चलेगा कि सरकार क्या कर सकती है।
सरकार कुछ भी नहीं कर सकती है। असल में सरकारी होते से सारे काम की प्रेरणा विदा हो जाती है और जहां सरकार प्रवेश करती है वहां नुकसान लगने शुरू हो जाते हैं।
समाजवाद और साम्यवाद दोनों ही, जीवन की व्यवस्था को राज्य के हाथों में दे देने का उपाय हैं। जिसे हम आज पूंजीवाद कहते हैं, वह पीपुल्स कैपिटलिज्म है, वह जन-पूंजीवाद है। और जिसे समाजवाद और साम्यवाद कहा जाता है, वह स्टेट कैपिटलिज्म, राज्य-पूंजीवाद है। और कोई फर्क नहीं है। जो चुनाव करना है वह चुनाव यह है कि हम पूंजीवाद व्यक्तियों के हाथ में चाहते हैं कि राज्य के हाथ में चाहते हैं, यह सवाल है। व्यक्तियों के हाथ में पूंजीवाद बंटा हुआ है, डिसेंट्रलाइज्ड है। राज्य के हाथ में पूंजीवाद इकट्ठा हो जाएगा, एक जगह इकट्ठा हो जाएगा।
और ध्यान रहे, बीमारी है अगर पूंजीवाद, तो बंटा हुआ रखना ही अच्छा है। कनसनट्रेटेड बीमारी और खतरनाक हो जाएगी, और कुछ भी नहीं हो सकता।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है, उन्होंने पूछा है कि पूंजीवाद मजदूर का शोषण क्यों करता है?

कुछ बातें निरंतर प्रचारित होती रहें तो हम उन्हें पकड़ लेते हैं और भूल जाते हैं कि वे सच भी हैं या झूठ हैं। पूंजीवाद मजदूर का शोषण नहीं करता है। असल में पूंजीवाद में प्रत्येक चीज की कीमत उसकी मांग और उसकी सप्लाई से तय होती है, डिमांड और सप्लाई से तय होती है।
अगर एक गांव में दस मजदूर हैं और पंद्रह मजदूरों की जरूरत है, तो मजदूरों को ज्यादा दाम मिल जाएंगे, क्योंकि दस मजदूर हैं और पंद्रह मजदूरों की जरूरत है। लेकिन अगर गांव में पचास मजदूर हैं और दस मजदूरों की जरूरत है, तो मजदूरों को दाम कम मिलेंगे, क्योंकि बाजार में ज्यादा श्रम उपलब्ध है और सस्ते में खरीदा जाएगा। पूंजीवाद प्रत्येक चीज का भाव तय करता है उसकी कमी के आधार पर, उसकी न्यूनता के आधार पर। और कोई उपाय भी नहीं है चीजों के दाम तय करने का।
भगवान किसी चीज के ऊपर दाम लिख कर भेजता नहीं कि गेहूं के कितने दाम हैं। या कोहिनूर हीरे के कितने दाम हैं, इस हीरे पर कहीं लिखा हुआ नहीं है। एक ही कोहिनूर हीरा है, तो उसके दाम करोड़ों हो सकते हैं। अगर कल एक लाख कोहिनूर हीरे मिल जाएं, तो दाम तत्काल नीचे गिर जाएंगे और लाखों पर आ जाएंगे। और कल अगर करोड़ों कोहिनूर हीरों की खदान मिल जाए, तो दाम कौड़ी के नहीं रह जाएंगे और हर आदमी दो-दो पैसे में कोहिनूर हीरा खरीद लेगा।
चीजों के दाम आसमान से तय नहीं हैं, चीजों के दाम उनकी न्यूनता से तय होते हैं। कोई पूंजीपति किसी मजदूर का शोषण नहीं कर रहा है। लेकिन मजदूर ज्यादा हैं और जरूरत कम है, इसलिए इनको दाम कम मिल रहे हैं। दाम कम मिलने का और कोई भी कारण नहीं है। अगर बाजार में कपड़े खरीदने वाले कम हो जाएं और कपड़े ज्यादा हो जाएं, तो क्या आप कहेंगे कि कपड़े खरीदने वाले कपड़े के दुकानदारों का शोषण कर रहे हैं, क्योंकि दाम कम दे रहे हैं। नहीं, शोषण का कोई सवाल नहीं है। चीजों के दाम तय करने का एक ही नियम है कि कितनी जरूरत है और कितनी सप्लाई है। कितनी मौजूद है चीज और कितने लोग मांगने वाले हैं। श्रम बहुत ज्यादा मौजूद है, इतने श्रम की कोई जरूरत ही नहीं है। इतना ज्यादा श्रम मौजूद है कि उसे खरीद कर भी कोई क्या करेगा? और जब एक आदमी श्रम खरीदने निकलता है, तो अगर उसे पांच रुपये में मजदूर मिलता हो तो दस रुपये में मजदूर को लेने के लिए वह राजी नहीं होगा। वह पागल नहीं है, जरूरत भी नहीं है उसको लेने की।
अगर आपको बाजार में कोई चीज पांच रुपये में मिलती हो, तो आप दस रुपये में लेने को क्यों राजी होंगे? अगर आपको चार में मिलती है तो आप चार में राजी होंगे, तीन में मिलती है तो तीन में राजी होंगे। जो हमें शोषण दिखाई पड़ता है, वह शोषण नहीं है, वह मजदूर की अधिकता का परिणाम है। पूरे मुल्क के पास श्रम की ताकत तो बहुत ज्यादा है, बावन करोड़ लोग हैं, काम बहुत कम है, इसलिए काम के दाम कम हैं।
अगर आप चाहते हैं काम के दाम बढ़ें, तो पूंजीपति को मिटाने से काम के दाम नहीं बढ़ जाएंगे। काम के दाम बढ़ेंगे काम के बढ़ने से; काम के दाम बढ़ेंगे ज्यादा काम की जरूरत पैदा होने से; काम के दाम बढ़ेंगे ज्यादा लोगों के श्रम के उपयोग में आने से। लेकिन मुल्क में लोग ज्यादा हैं, काम बिल्कुल कम है। और काम हमने कभी पैदा नहीं किया, हम काम के विरोधी रहे हैं। हम कहते हैं..आवश्यकताएं कम, जरूरतें कम, नीड्स कम, सादा जीवन, शुद्ध विचार। आप सादा जीवन शुद्ध विचार रखिए, काम बढ़ेगा नहीं। काम नहीं बढ़ेगा, तो लोग भूखे मरेंगे, उनको खरीदने वाला कोई भी नहीं मिलेगा।
पूंजीपति शोषण नहीं कर रहा है, लेकिन हमें दिखाई पड़ता है।
अभी मैं निकल रहा था कहीं से, दिल्ली आ रहा था, तो एक बहुत बड़े मकान के पास ही दो-चार छोटे झोपड़े बने थे। मेरे कंपार्टमेंट में जो सज्जन थे, उन्होंने कहा, देखते हैं आप, इस बड़े मकान वाले ने शोषण करके कैसी खराब हालत पैदा कर दी है! ये नीचे के झोपड़ों का शोषण करके यह बड़ा मकान बन गया है।
मैंने उन सज्जन से कहा कि आप एक बार फिर से सोचिए, शायद आप बिना सोचे कोई बात कह रहे हैं। अगर हम इस बड़े मकान को हटा दें, तो क्या आप समझते हैं, ये छोटे मकान बड़े मकान हो जाएंगे? अगर यह बड़ा मकान इस जमीन पर न होता, तो ये छोटे मकान इस जमीन पर बिल्कुल नहीं हो सकते थे। एक बड़ा मकान बनाते वक्त दस छोटे मकान अपने आप बन जाते हैं। दस छोटे मकानों को छोटा करके कोई बड़ा मकान बड़ा नहीं बनता। बड़ा मकान बनता है इसलिए दस छोटे मकान भी पृथ्वी पर बन जाते हैं, अन्यथा बनेंगे नहीं!
हमें ख्याल में नहीं है यह बात कि अगर एक आदमी करोड़पति होता है, तो उसके आस-पास दस आदमी लखपति हो जाते हैं। और उन दस लखपतियों के आस-पास हजारों आदमी हजारपति हो जाते हैं। और उन हजारों आदमियों के आस-पास कुछ लोगों के पास सैकड़ों रुपये हो जाते हैं। एक आदमी जब शिखर पर चढ़ता है करोड़ के, तो अकेला नहीं चढ़ सकता, पिरामिड की तरह सारी जीवन की व्यवस्था है। अगर हमें एक मकान बनाना है बहुत ऊंचा, तो नींव भी भरनी पड़ती है, नींव के पत्थर भी भरने पड़ते हैं। एक अमीर आदमी अपने आस-पास सैकड़ों मध्यवर्गीय लोगों के लिए जिंदगी का कारण बनता है। सैकड़ों मध्यवर्गीय लोग अपने आस-पास हजारों गरीब मजदूरों के लिए जीवन का कारण बनते हैं। लेकिन अंत में दिखाई ऐसा पड़ता है कि जैसे शोषण हो गया।
शोषण किसी का भी नहीं हुआ। आदिवासियों में तो कोई बिरला नहीं है। बस्तर रियासत में जाएं, वहां तो कोई बिरला नहीं है, कोई टाटा नहीं है, कोई फोर्ड नहीं है। तो आदिवासियों को तो बहुत अमीर होना चाहिए, उनका तो शोषण किसी ने भी नहीं किया है। लेकिन आदिवासियों में तो कोई अमीर दिखाई नहीं पड़ता। दुनिया में पहाड़ों पर रहने वाली गरीब कौमें, उनका तो शोषण किसी ने भी नहीं किया, कभी नहीं किया। उनमें वे अमीर क्यों नहीं हो गए? उनको तो दुनिया का सबसे ज्यादा अमीर हो जाना चाहिए था, उनका शोषण किसी ने भी नहीं किया।
लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि बंबई में, जहां कि शोषण सबसे ज्यादा हो रहा है, वहां मजदूर के पास ज्यादा हैसियत है, बजाय पहाड़ पर एक जंगली आदमी के। और इसका शोषण हो रहा है, उसका शोषण नहीं हुआ। थोड़ा सोचने जैसा है कि शोषण का मतलब क्या है? किसी आदमी को काम देने का मतलब शोषण है? तो सारा काम छीन लेना चाहिए, सब कारखाने बंद कर देना चाहिए, सब उद्योग तोड़ देने चाहिए। फिर शोषण किसी का भी नहीं होगा। फिर आप मजे से अपनी अमीरी में जीना। अगर अमीर आपका शोषण कर रहा है, तो आप शोषण क्यों करवा रहे हैं? मत करवाइए! अपनी संपत्ति को घर में बचाइए, जिससे आप अमीर हो जाएं। कौन आपको कह रहा है आप शोषण करवाने जाइए?
लेकिन मर जाएंगे अगर बाजार में अपने श्रम को बेचने नहीं गए। श्रम बेचना ही पड़ेगा, श्रम को बेचने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। और श्रम के दाम बढ़ें, यह मैं भी चाहता हूं। लेकिन ये दाम पूंजीपति को मिटाने से नहीं बढ़ जाएंगे, ये दाम बढ़ेंगे नया काम खोजने से, नये काम निर्मित करने से, नये कारखाने डालने से, नये ढंग खेती के निकालने से, नये उद्योग, नई इंडस्ट्री बनाने से। पूरे मुल्क को इंडस्ट्रलाइज करने से काम बढ़ेगा। काम बढ़ेगा तो मजदूर को ज्यादा मिल सकेगा।
अगर काम बहुत ज्यादा बढ़ जाए, मजदूर कम पड़ जाएं, काम ज्यादा हो जाए, तो मजदूर को बहुत ज्यादा मिल सकेगा। अगर काम इतना ज्यादा बढ़ जाए कि मजदूर तब तक राजी ही न हो काम करने को जब तक उसको पार्टनर न बनाया जाए, तो उसको पार्टनर भी बनाना पड़ेगा, उसके सिवाय भी कोई उपाय नहीं है। लेकिन यह होगा काम के बढ़ने से।
शोषण नहीं हो रहा है। लेकिन हमारे दिमाग में यह बात न मालूम कैसे इधर पिछले सौ साल के प्रचार से बिठा दी गई है कि अमीर आदमी गरीब का शोषण कर रहा है।
अमीर आदमी पूंजी पैदा कर रहा है, गरीब का शोषण नहीं कर रहा है। शोषण तब हो सकता है जब आपके पास पूंजी पहले से रही हो। आज जो पूंजी फोर्ड के पास या राकफेलर के पास है, वह किसी के पास थी नहीं, यह पूंजी पैदा की गई है। पूंजीवाद पूंजी को पैदा करता है, शोषण नहीं करता। किसी की जेब नहीं काट रहा है, बल्कि जब आपसे काम लेता है तो आपकी जेब भी थोड़ी भर देता है। आपकी जेब खाली थी पहले काम लेने के, अब उसमें दो रुपये पड़ गए हैं, तो आपको और अकड़ आती है और दस का ख्याल आता है कि दस भी होने चाहिए।
बुरा नहीं है यह ख्याल, दस होने की कोशिश करिए, लेकिन यह मत सोचिए कि आपके आठ रुपये किसी ने चुरा लिए हैं। क्योंकि जब किसी ने नहीं चुराए थे, तब आपकी जेब में दो रुपये भी नहीं थे।
शोषण की पूरी की पूरी जो दृष्टि माक्र्स ने दुनिया को दी है और कम्युनिस्टों ने दी है, वह बुनियादी रूप से गलत है। अगर ये थोड़े से लोग, जिनको हम धनपति कहते हैं, अगर ये सारा कारोबार बंद कर दें, इनका कारोबार मिटा दिया जाए, तो हम सब अमीर नहीं हो जाएंगे। हां, लेकिन एक राहत जरूर मिलेगी कि हम सब समान रूप से गरीब हो जाएंगे और कोई अमीर दिखाई नहीं पड़ेगा तो दिल को बड़ी शांति मिलेगी। हमारी गरीबी नहीं मिट जाएगी। लेकिन आदमी का दिमाग ऐसा है। उसे खुद के दुख से उतना दुख नहीं होता, जितना दूसरे के सुख से दुख होता है। आदमी के दिमाग की बनावट बहुत अजीब है!
मैंने एक कहानी सुनी है। मैंने सुना है कि एक आदमी ने कभी भगवान की बड़ी पूजा की, बड़ी प्रार्थना की। और कहानी कहती है कि भगवान ने फिर उसे वरदान मांगने के लिए कहा, कि तू कोई वरदान मांग ले! तो उस आदमी ने कहा कि मैं जो भी मांगूं..मैं एक ही वरदान मांगता हूं, क्योंकि एक अभी मांग लूंगा, फिर दुबारा तो नहीं मांग सकूंगा, इसलिए मैं ऐसा वरदान मांगता हूं कि जब भी मैं कुछ मांगूं तो मुझे मिल जाए। भगवान ने कहा, जब भी तू कुछ मांगेगा, तुझे मिल जाएगा। लेकिन एक और तुझे वरदान मैं अपनी तरफ से देता हूं कि तेरे पड़ोसियों को तुझसे दुगना मिल जाएगा।
उस आदमी की छाती पर वजन गिर गया, वरदान बेकार हो गया, बड़ी मुश्किल में पड़ गया। घर आकर लाख रुपये उसने मांगे, लेकिन बड़े रोते मन से। लाख रुपये तत्काल उसके घर पर गिर गए, लेकिन पड़ोसियों के घर पर दो-दो लाख गिर गए। जब उसके पास लाख नहीं थे तब जितना गरीब था, उससे ज्यादा गरीब वह हो गया, क्योंकि पड़ोसी दुगने अमीर हो गए। लाख तो उसके पास आ गए, लेकिन एकदम गरीब हो गया। इतना दुखी वह कभी भी न था, जब लाख नहीं थे तब भी नहीं था। लेकिन अब उसके दुख की कोई सीमा न रही। उसने महल बनवाया वरदान से, पड़ोसियों के मकान दुगने बड़े हो गए। वह अपनी छाती पीट कर रोने लगा। उसकी पत्नी ने उससे कहा कि इतना अच्छा मकान बन गया! उसने कहा, पागल, अपना मकान देख रही है? पड़ोसियों के दुगने हो गए! इस भगवान ने मुझे बहुत धोखा दे दिया।
उसने रात तरकीब निकाली बहुत सोच-विचार कर। शायद खुद निकाली हो या किसी राजनीतिज्ञ से जाकर पूछ ली हो। उसने तरकीब निकाली या राजनीतिज्ञ ने शायद उसे बताया कि तू ऐसा वरदान मांग कि पड़ोसी मुश्किल में पड़ जाएं। तू भगवान से कह कि हमारी एक आंख फोड़ दो। उसने कहा, यह बात जंचती है। उसने घर आकर रात कहा कि भगवान बड़ी कृपा होगी, मेरी एक आंख फोड़ दें। उसकी एक आंख फूट गई, वह नाचता रहा रात भर। पड़ोसियों की दोनों आंखें फूट गईं। उसने भगवान से कहा, मेरे घर के सामने एक कुआं बना दें, इतना गहरा कि गिरूं तो मर जाऊं। उसके घर के सामने एक कुआं बन गया, पड़ोसियों के घर के सामने दो कुएं और दुगने गहरे कुएं बन गए। और जब पड़ोसी, अंधे पड़ोसी, कुओं में गिरने लगे, तो उसके सुख की कोई सीमा न रही।
आदमी का मन बहुत अजीब है। यह जो समाजवाद की बातचीत है, यह समानता की इच्छा कम है, यह ईष्र्या की इच्छा ज्यादा है, यह जेलेसी है। यह जो समाजवाद के नाम से लोगों को भड़काया जा रहा है, इसमें यह मत समझ लेना कि सब आदमी समान होने के लिए उत्सुक हैं। यह भी मत समझ लेना कि सब आदमी अमीर होने के लिए उत्सुक हैं। यह भी मत समझ लेना कि सब आदमी श्रम करने को, धन पैदा करने के लिए तैयार हैं। नहीं, आदमी के मन को भड़काया जा सकता है। दूसरे के पास ज्यादा है, उसे छीनने के लिए भड़काना बहुत आसान है। आज जमीन छीनी जा रही है, कल मकान छीने जाएंगे, परसों कपड़े छीने जाएंगे। और आदमी को सदा राजी किया जा सकता है दूसरे को मिटाने के लिए।
समाजवाद विध्वंसक, डिस्ट्रक्टिव फिलासफी है। उसके पास कोई क्रिएटिव, कोई सृजनात्मक दृष्टिकोण नहीं है। वह सिर्फ दूसरे के खिलाफ भड़काने का उपाय है। सदा आसान है। किसी आदमी को कहो कि तुम मेहनत करो तो तुम अमीर हो जाओगे, तो वह राजी न होगा। उससे कहो कि थोड़ी मेहनत करो, पड़ोस का आदमी गरीब हो जाएगा; वह मेहनत करने को राजी हो जाएगा। आदमी का मन रुग्ण है और इस रुग्ण मन को यह बात बहुत जंचती है कि अमीर बांट दिए जाएं।
अभी हिंदुस्तान में हम सोचते हैं कि अमीर बांट दिए जाएं। जरूर बांट दें हम, इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। दस-पांच अमीर खत्म हो जाएंगे और गरीबों में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हां, दस-पांच गरीब और ज्यादा हो जाएंगे, जितने गरीब थे उसमें दस गरीब और मिल जाएंगे।
अमेरिका में एक बहुत बड़ा करोड़पति हुआ, रथचाइल्ड। उसके पास एक समाजवादी मिलने गया। और उसने रथचाइल्ड से कहा कि तुमने सारी दुनिया का शोषण कर रखा है। हम सबकी संपत्ति तुमने हड़प ली है। रथचाइल्ड ने कहा, मैंने तो कभी आपको देखा ही नहीं, आपकी संपत्ति कैसे हड़पी होगी! फिर भी मैं पूछता हूं, कितनी संपत्ति आपके पास थी जो मैंने हड़प ली है? कितनी संपत्ति आपके पास थी? आप वापस ले जाइए मुझसे। हालांकि मैंने आपकी कभी शक्ल भी नहीं देखी, जो मैं आपको हड़पने आया होऊं। फिर भी आपकी कितनी संपत्ति थी? उस आदमी ने कहा, नहीं, मेरे पास थी तो नहीं कुछ भी, लेकिन आपने सबकी हड़प जरूर ली है।
रथचाइल्ड ने कहा कि छोड़ो यह भी बात, तुम्हारे पास नहीं थी। लेकिन सारी दुनिया में जितने लोग हैं, मेरी संपत्ति में भाग दे दो और जितना तुम्हारे हिस्से में आता हो उतना ले जाओ। छह आने उस आदमी के हिस्से में आए। रथचाइल्ड ने वे छह आने उसे दे दिए और उससे कहा कि जिन-जिन को अपना हिस्सा लेना हो, वे आकर मुझसे ले जाएं। लेकिन क्या मैं तुम से पूछ सकता हूं कि छह आने कितनी देर चलेंगे? और छह आने का कितना परिणाम होगा? और छह आने से तुम रथचाइल्ड हो जाओगे? छह आने से तुम अरबपति हो जाओगे?
अगर हिंदुस्तान के सारे पूंजीपतियों को मिला कर हम बांटें, तो शायद छह आना भी एक आदमी के हाथ में नहीं पड़ेगा। उस छह आने का क्या करिएगा? सिगरेट पीजिएगा कि एक दिन सिनेमा देखिएगा, क्या करने का इरादा है? एक दिन सिनेमा देख लीजिए बस और मुल्क समाजवादी हो जाएगा। फिर हम सब समान हो जाएंगे।
और वे जो लाखों रुपये एक आदमी के पास इकट्ठे थे, उनके द्वारा कुछ पैदा हो रहा था, आपके पास छह आने से कुछ भी पैदा नहीं होगा। और यह भी ध्यान रखिए कि अगर आप पैदा ही करने वाले होते तो आपने पैदा कर लिया होता, छह आने की भीख और हिस्सा बंटवाने के लिए आप न गए होते।
लेकिन हम बड़े अजीब हैं। हमारे मन को ऐसा लगता है कि बड़ा अच्छा होगा; पड़ोस का महल तो कम से कम गिर जाए, हमारी झोपड़ी उठेगी कि नहीं उठेगी, कोई हर्ज नहीं। एक फायदा जरूर होगा, महल गिर जाए तो झोपड़ी फिर झोपड़ी मालूम नहीं पड़ेगी, क्योंकि झोपड़ी रिलेटिवली महल की अपेक्षा में ही झोपड़ी मालूम पड़ती है।
अभी मैं बंबई में था, एक जगह से गुजर रहा था, तो स्लम्स..बंबई के गंदे झोपड़े, पानी और कीचड़ में बने हुए..जिन्हें देख कर हृदय घबराता है, तो जो गाड़ी में मेरे साथ थे उन्होंने कहा कि देखिए कितनी गंदगी! कितने झोपड़े! हमारे मन में तत्काल यही ख्याल आता है कि जिन्होंने बड़े मकान बना लिए उन्होंने ये झोपड़े बना दिए, तत्काल यही ख्याल आता है।
यह बात गलत है। जिस दिन ये महल नहीं थे तब भी ये झोपड़े थे। बंबई मछुओं की छोटी सी बस्ती थी। बंबई का नाम भी मछुओं की एक छोटी सी देवी, मुंबा देवी के ऊपर है। एक छोटी सी मछुओं की बस्ती, जो मछली मारते और अपने झोपड़े में रहते। बंबई में जब महल नहीं थे तब ऐसा नहीं था कि बंबई में मछुए कोई महलों में रह रहे थे, तब मछुए इसी तरह गंदगी से रह रहे थे। लेकिन यह गंदगी दिखाई नहीं पड़ती थी, क्योंकि गंदगी दिखाई पड़ने के लिए कहीं पास में सफाई दिखाई पड़नी जरूरी है, अन्यथा गंदगी दिखाई नहीं पड़ सकती।
बंबई में ये जो महल बन गए हैं, इन महलों ने ये झोपड़े पैदा नहीं किए हैं। इन महलों ने सारी बंबई से झोपड़े खत्म कर दिए हैं, थोड़ी सी जगह झोपड़े रह गए हैं। उन जगहों को भी खत्म किया जा सकता है। लेकिन इन महलों को मिटाने से झोपड़े नहीं मिट जाएंगे, इन महलों को मिटाने से झोपड़े और बढ़ जाएंगे।
मेरी अपनी समझ यह है कि पूंजीवाद ने किसी को गरीब नहीं किया; हम सब गरीब थे, पूंजीवाद ने हमें पहली दफा अपनी गरीबी के प्रति कांशस किया है, हमें गरीबी के प्रति सचेतन बनाया है। यह अच्छा लक्षण है। अगर हम गरीबी के प्रति होश से भर जाएं तो उसे मिटाया जा सकता है। लेकिन मिटाने के दो रास्ते हैं..या तो हम अमीर को मिटा दें, तो फिर हम सब बराबर गरीब हो जाएं, दिक्कत खत्म हो जाए; और या हम अपनी गरीबी मिटाने की कोशिश में लगें।
मैं मानता हूं कि अमीर को मिटाना कोई रास्ता नहीं है, गरीब को मिटाना रास्ता है, हमें गरीब को मिटाने की कोशिश में लग जाना चाहिए। तो एक दिन ऐसा आ सकता है कि मुल्क में गरीब न रह जाए, अमीर न रह जाए, दोनों न रह जाएं, मुल्क में एक संपन्न, समृद्ध मिडिल क्लास रह जाए।
माक्र्स ने अपनी घोषणाओं में ऐसा कहा था कि एक दिन आएगा कि दुनिया में तीन क्लासेस हैं: रिच क्लास है, अमीर का वर्ग है; मध्यमवर्ग है, मिडिल क्लास है; और प्रोलेटेरिएट है, मजदूर का वर्ग है; ये तीन क्लास हैं दुनिया में, माक्र्स ने कहा था। और उसने कहा था कि जैसे-जैसे पूंजी का शोषण बढ़ेगा, तो अमीर और अमीर हो जाएंगे, गरीब और गरीब हो जाएंगे और मध्यमवर्ग दोनों हिस्सों में टूट जाएगा। थोड़े से मध्यमवर्गीय यात्रा करके अमीर हो जाएंगे, बाकी मध्यमवर्गीय नीचे गिर कर गरीब हो जाएंगे। समाज दो वर्गों में बंट जाएगा। एक तरफ अमीर, एक तरफ गरीब, मध्यमवर्ग टूट जाएगा। जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन दुनिया में गरीब अमीर पर कब्जा कर लेगा और समाजवाद या साम्यवाद की स्थापना हो जाएगी।
यह बात गलत सिद्ध हुई है। आज अमेरिका में जहां पूंजीवाद ठीक से विकसित हुआ है, एक नई ही घटना हो गई है। वह घटना यह हो गई है कि ऊंचे बड़े करोड़पति भी कम होते जा रहे हैं और नीचे के मजदूर भी कम होते जा रहे हैं, बीच का मिडिल क्लास बड़ा होता जा रहा है। और ऐसा लग रहा है कि पचास साल में मिडिल क्लास एकमात्र क्लास रह जाएगी अमेरिका में। हां, मिडिल क्लास में हायर मिडिल क्लास, लोअर मिडिल क्लास, ऐसे फासले रह जाएंगे। अमेरिका में मध्य वर्ग बड़ा होता जा रहा है और दोनों छोर के वर्ग छोटे होते जा रहे हैं। इसलिए अमेरिका में कम्युनिज्म और सोशलिज्म का कोई प्रभाव नहीं है, क्योंकि अमेरिका में किसी को भड़काना मुश्किल हो गया है। गरीब के पास भी कुछ है, गरीब भी अमेरिका का गरीब नहीं है। और जब आप उससे कहते हैं कि सब संपत्ति छीनी जाएगी, तो उसको बहुत मजा नहीं आता। क्योंकि उसके पास अपनी संपत्ति भी है, वह भी छीनी जाएगी।
अगर हिंदुस्तान को नक्सलाइट्स से, कम्युनिस्टों से, समाजवादियों से, इन सारी बीमारियों से बचाना हो, तो हिंदुस्तान के गरीब को तत्काल थोड़ी सी संपत्ति और संपन्नता देनी जरूरी है। जब तक गरीब के पास कुछ भी नहीं है तब तक गरीब बहुत खतरनाक फोर्स है। जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसको खोने का कोई भी डर नहीं है, उसे छीनने का पूरा मजा है।
माक्र्स ने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की अपनी आखिरी पंक्ति में एक बहुत बढ़िया बात लिखी है। उसने लिखा है कि दुनिया के गरीबो, एक हो जाओ! क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं है।
निश्चित ही जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, उसे कोई भय भी नहीं है। लड़ने में उसका कोई नुकसान नहीं होना। नुकसान उसका होगा जिसके पास कुछ है। हिंदुस्तान में गरीब की हालत खतरनाक है। हिंदुस्तान के गरीब को भड़काया जा सकता है, आग लगवाई जा सकती है, क्योंकि उसके पास कुछ भी नहीं है। उसके पास कुछ भी न होना कम्युनिज्म के लिए बड़ी ताकत है। कम्युनिज्म हिंदुस्तान के गरीब को अपने साथ खड़ा कर लेगा। वह कहेगा, तेरे पास कुछ भी नहीं है, जिनके पास है उनसे हम छीन कर बांट देंगे।
हिंदुस्तान के अमीरों को भी सोचना पड़ेगा, हिंदुस्तान के मध्यवर्गीय लोगों को भी सोचना पड़ेगा, उन्हें समझना पड़ेगा कि हम हिंदुस्तान के नीचे के गरीब को अगर बहुत देर तक गरीब रखते हैं, तो हिंदुस्तान का कोई भविष्य नहीं है। हिंदुस्तान के गरीब के पास कुछ खोने को जरूर होना चाहिए। उसके पास भी कुछ होना चाहिए, कि जब यह कहा जाए कि सारी संपत्ति राज्य की हो जाएगी, तो उसको भी ख्याल उठे कि मेरी जमीन राज्य की हो जाएगी, कि मेरे पास जो छोटी सी तिजोरी है वह भी राज्य की हो जाएगी, कि मैंने वह जो थोड़ा सा पैसा जमा किया है वह भी राज्य का हो जाएगा।
इस मुल्क में कम्युनिज्म की ताकत कम्युनिज्म की ताकत नहीं है। इस मुल्क में कम्युनिज्म की ताकत गरीब की गरीबी है। और गरीबी इतनी ज्यादा है कि उसे भड़काया जा सकता है। और गरीबी इतनी ज्यादा है कि वह करीब-करीब इनफ्लेमेबल है। जैसा कि हम पेट्रोल की टंकी पर लिख छोड़ते हैं कि आग लग सकती है, वैसी ही इस मुल्क की गरीबी है, उसमें आग लग सकती है। आग करीब-करीब लगनी शुरू हो गई है। जहां-जहां आग भड़केगी वहां सम्हालना मुश्किल हो जाएगा।
और मजे की बात यह है कि उस आग लगने से गरीब को जितना नुकसान होगा, उतना किसी को भी नहीं होगा। अमीर को तो नुकसान होगा, लेकिन अमीर कितने हैं? सबसे कम नुकसान अमीर को होगा, क्योंकि अमीर बहुत कम हैं। उनकी गिनती अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। हिंदुस्तान में बहुत ही थोड़े लोग हैं जिनको हम अमीर कह सकें, उनका नुकसान कोई बड़ा भारी नुकसान नहीं है। एक बिरला रहे कि न रहे, इससे कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ता। बहुत बड़ा नुकसान मध्यवर्ग का होगा, मिडिल क्लास का होगा। उससे भी बड़ा नुकसान गरीब के क्लास का होगा, क्योंकि सबसे बड़ा क्लास वही है।
लेकिन यह उसे कौन समझाए? उसे भड़काना आसान है, समझाना हमेशा कठिन है। अगर किसी आदमी को..आप सब जानते हैं..लड़वाना हो तो लड़वाना बहुत आसान है। दो लड़ते आदमियों को रुकवाना हो तो बहुत मुश्किल है। दो आदमियों को लड़ाना हो तो छोटी सी बात काफी है। लेकिन दो आदमियों में प्रेम करवाना हो तो बहुत लंबा मामला है, बहुत मुश्किल मामला है। और दो आदमी लड़ना शुरू कर दिए हों तो उनमें दोस्ती खड़ी करनी बहुत कठिन है।
हिंदुस्तान के लिए भविष्य बहुत खतरनाक है। और उसका बड़े से बड़ा खतरा यह है कि हिंदुस्तान के गरीब और हिंदुस्तान के मध्यवर्गीय और हिंदुस्तान के संपन्न वर्गों के बीच में एक दुश्मनी का भाव पैदा कर दिया गया है। अब ऐसा लग रहा है कि किसी भी तरह दूसरे को मिटा दें, तो सब ठीक हो जाएगा।
दूसरे को मिटाने से कभी भी कुछ ठीक नहीं हुआ है।
इसलिए मैं, चाहे सोशलिज्म हो, चाहे कम्युनिज्म हो, नाम उनके कुछ भी हों, बीमारी एक मानता हूं। और मेरी समझ यह है कि हिंदुस्तान को अभी सौ वर्षों तक पूंजीवाद का तीव्रतम विकास करने की चेष्टा में लगना चाहिए।
क्या इसका यह मतलब है कि मैं यह कहता हूं कि पूंजीवाद सदा रहे?
नहीं! पूंजीवाद का एक ऐतिहासिक काम है कि वह इतनी संपत्ति पैदा कर जाए कि संपत्ति की कमी समाप्त हो जाए। जिस दिन संपत्ति की कमी समाप्त हो जाएगी, उस दिन व्यक्तिगत संपत्ति रखने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। हवा इतनी ज्यादा है कि कोई नहीं कहता कि मेरी है। अभी कार को हम कहते हैं कि मेरी है। कल अगर कारें ज्यादा हो जाएं, तो मेरी कहने का मजा खत्म हो जाएगा। जो चीज ज्यादा हो जाएगी उसको मेरा कहने का मजा समाप्त हो जाता है। कम होना जरूरी है।
अब यह बड़े मजे की बात है। आज हिंदुस्तान में कोई कार में निकले..बड़ी कार में निकले..तो लोग उसको झांक कर देखते हैं कि कौन जा रहा है! और वह भी कुछ कार में दूसरे ही ढंग से बैठता है कि कोई खास आदमी बैठा हुआ है। लेकिन अमेरिका में? अमेरिका में कार में बैठे आदमी को कोई देखता भी नहीं, न कार में बैठा हुआ आदमी अकड़ा दिखाई पड़ता है। क्योंकि कार में सभी बैठे हैं। वह जो सामने कार का ड्राइवर है, वह भी अपनी कार पर ही मालिक के घर पर सुबह आता है। दिन भर कार की ड्राइवरी करता है, शाम को अपनी कार में वापस लौट जाता है।
मेरे एक मित्र अमेरिका प्रोफेसर होकर चले गए थे। हिंदुस्तानी आदमी हैं, पैसा तो वहां बहुत मिलने लगा, लेकिन बुद्धि तो एकदम से नहीं बदल जाती है। एक पुरानी सी कार उन्होंने खरीद ली। अब अमेरिका में जाकर कोई पुरानी कार खरीदे तो पागल है। एक पुरानी सी कार खरीद ली। कभी कार तो खरीदी नहीं थी, यहां तो जब तक थे, वे पैदल ही यूनिवर्सिटी आते थे। वहां पैसा बहुत मिला, एक कार खरीद ली। लेकिन कार चलाना जानते नहीं थे, और अमेरिका में कार चलाना खतरनाक भी कम नहीं है, तो एक ड्राइवर रखा। और जब दूसरे दिन सुबह ड्राइवर अपनी कार पर बैठ कर आया, तो वे मुझसे कह रहे थे शर्म से मेरी आंखें नीचे झुक गईं। उसके पास तो बहुत चमकदार, बहुत शानदार, नये माडल की गाड़ी थी। उसने मेरे गैरेज में अपनी गाड़ी रख दी और मेरी पुरानी गाड़ी दिन भर चलाई। शाम को मैंने उससे कहा कि हाथ जोड़ता हूं भई, अब तू मत आना। क्योंकि तेरी गाड़ी देख कर मेरे प्राणों में बड़ी तकलीफ होती है। तू आना ही मत। अब या तो मैं ड्राइवर रखूंगा तब जब अच्छी गाड़ी खरीद लूं या गाड़ी ही नहीं रखूंगा, इससे तो किराए की गाड़ी में चल लेना अच्छा है।
अब ड्राइवर भी नये माडल की गाड़ी पर सुबह बैठ कर जिस मुल्क में आता हो, उसमें मालिक को गाड़ी में बैठ कर अकड़ने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
आज हालत उलटी हो गई है अमेरिका में। आज बड़ा आदमी करीब-करीब सड़क पर पैदल घूमने निकलता है। तब लोग उसको झांक कर देखते हैं कि यह कौन चल रहा है! जो आदमी पैदल सड़क पर घूमने निकला है वह जरूर अमीर आदमी होना चाहिए, गरीब आदमी तो अब सड़क पर चलता ही नहीं पैदल। अब तो गरीब आदमी कार पर चल रहा है। अब तो सिर्फ अमीर आदमी ही सड़क पर पैदल चल सकता है। जिंदगी बड़ी अजीब है, जिंदगी बहुत ही अजीब है। आज अमेरिका में जब सबसे ज्यादा भोजन इकट्ठा हो गया है, तो अमेरिका में फास्ट की कल्ट जोर से फैल रही है, हजारों लोग उपवास करने जाते हैं। जगह-जगह उपवास केंद्र बने हुए हैं नेचरोपैथी के फलां-ढिकां, और जगह-जगह लोग उपवास कर रहे हैं। कोई पूछे कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? हम इधर भूखे मर रहे हैं, तुम काहे के लिए उपवास के लिए परेशान हो?
लेकिन जब ज्यादा खाना मुल्क में हो जाए तो अमीर आदमी उपवास करना शुरू कर देते हैं। उससे पता चलता है कि आदमी अमीर है, अफोर्ड कर सकता है, उपवास भी कर सकता है। ज्यादा खा गया है, उपवास कर सकता है। ज्यादा कार में बैठ गया है, अब पैदल चल सकता है। ज्यादा आराम कर लिया है, सुबह एक्सरसाइज भी करता है, दौड़ता भी है।
जिंदगी बहुत उलटी है। इस मुल्क में अगर हमें संपत्ति के पैदा करने की दिशाएं खोजनी हों, तो हमें सौ वर्ष तक पूंजीवाद का निरंतर उपयोग करना पड़ेगा। और अगर हम जिस दिन पूंजी पूरी पैदा कर लेंगे...। और अमेरिका कर सकता है, तो हम क्यों नहीं कर सकते? इंग्लैंड कर सकता है, तो हम क्यों नहीं कर सकते? बेल्जियम कर सकता है, हम क्यों नहीं कर सकते? सारी दुनिया पूंजी पैदा कर सकती है, तो हम ही कोई गरीब होने का ठेका लिए बैठे हैं?
लेकिन हमें पूंजी पैदा करने की व्यवस्था बदलनी पड़ेगी। चरखे-तकली से पूंजी पैदा नहीं होती। हमें टेक्नालॅाजी लानी पड़ेगी, नई से नई टेक्नालॅाजी का उपयोग करना पड़ेगा, नई से नई मशीन का उपयोग करना पड़ेगा। अकेला आदमी ज्यादा से ज्यादा रोटी-रोजी कमा सकता है, पूंजी पैदा नहीं कर सकता। मशीन जब जुड़ती है आदमी से तो पूंजी पैदा होती है। जब तक हम बड़ी मशीनों से मुल्क को न भर देंगे, तब तक हम पूंजी पैदा नहीं कर सकते।
लेकिन हमारे मुल्क में अजीब लोग हैं। हमारे मुल्क में ऐसा समझाने वाले लोग हैं कि बड़ी मशीनें चाहिए ही नहीं। गांधी जैसे बड़े अदभुत आदमी हुए, वे तो रेलगाड़ी के भी खिलाफ हैं। वे कहते हैं, रेलगाड़ी भी नहीं चाहिए। वे तो कहते हैं, टेलीग्राफ के भी खिलाफ हैं, वह भी नहीं चाहिए। टेलीफोन भी नहीं चाहिए। वे तो कहते हैं, बड़ी मशीन चाहिए ही नहीं, चरखा-तकली आखिरी मशीनें हैं, इन पर आदमी को रुकना चाहिए। न केवल वे यह कहते हैं कि बड़ी मशीनें नहीं चाहिए, वे यह भी कहते हैं कि बड़ी मशीनें पाप हैं।
हद का पागलपन है! वे कितने ही बड़े कोई आदमी हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ये पागलपन की बातें हैं, ये मुल्क को मरवा डालेंगी। तो गांधी जी के चरखे ने मुल्क को इतना नुकसान पहुंचाया है जिसका कोई हिसाब नहीं! और गांधी जी के पाले हुए आस-पास के लोग मुल्क की छाती पर बैठ गए हैं। वे न मालूम नासमझी की बातें किए चले जा रहे हैं।
मुल्क को अगर संपत्ति पैदा करनी है, तो सिवाय मशीन के, बड़ी मशीन के, संपत्ति पैदा नहीं हो सकती। हमें अपनी सारी ताकत, अपनी सारी क्षमता, मुल्क को मशीनों के जाल में डुबा देने में लगाने की जरूरत है, मुल्क को पूरे मशीनों में डुबा देने की जरूरत है। जितनी हमारे पास जो भी सुविधा है, सब मशीन पर लगा देने की जरूरत है। तो कोई कारण नहीं कि बीस साल में हम भी संपत्ति के ढेर लगाने में समर्थ न हो जाएं।
लेकिन हम उलटी बातें कर रहे हैं। हम संपत्ति को पैदा करने की फिकर ही छोड़ दिए, हम संपत्ति बांटने की फिकर कर रहे हैं, बिना इस बात को पूछे कि संपत्ति है कहां जिसको बांटिएगा! समाजवाद बांटने की योजना है, पूंजीवाद बनाने की योजना है। पूंजीवाद संपत्ति को पैदा करने का ख्याल है।
और ध्यान रहे, पूंजीवाद संपत्ति इसलिए पैदा कर पाता है कि वह प्रतियोगिता है, काम्पिटीटिव है। अगर गांव में दस आदमी संपत्ति पैदा करने में प्रतियोगिता में लग जाएं, तो वे जी-जान से लग जाते हैं।
एक बहुत मजे की बात मैंने फोर्ड की जिंदगी में पढ़ी। फोर्ड खुद तो गरीब था, लेकिन अरबों रुपये उस आदमी ने पैदा किए। हेनरी फोर्ड एक दफा इंग्लैंड आया। तो स्टेशन पर आकर उसने पूछा क्लर्क को, इंक्वायरी आफिस में, कि लंदन में सबसे सस्ती होटल कहां है? तो उस क्लर्क ने आंख उठा कर देखा, चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा, अखबारों में फोटो देखे हैं कि यह हेनरी फोर्ड है, यह दुनिया का सबसे बड़ा अरबपति है। उसने कहा, चेहरा देख कर ऐसा लगता है कि आप हेनरी फोर्ड हैं और आप सस्ती होटल पूछ रहे हैं! आपके लड़के जब आते हैं तब तो वे पूछते हैं कि लंदन में सबसे ज्यादा लग्जूरियस होटल कौन सी है? सबसे बढ़िया होटल कौन सी है? सबसे कीमती होटल कौन सी है? हेनरी फोर्ड ने कहा कि मैं गरीब बाप का बेटा हूं, मेरे लड़के हेनरी फोर्ड के लड़के हैं। मेरी हिम्मत अभी भी नहीं पड़ती कि मैं अमीर होटल में ठहर जाऊं। मैं जरा सस्ती होटल खोज लेता हूं, गरीब का बेटा हूं।
हेनरी फोर्ड, गरीब का बेटा, अरबों रुपये कमा सका। उसने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि मेरे सेक्रेटरी ने एक बार मुझसे पूछा कि बड़े आश्चर्य की बात है! आपके दफ्तर के चपरासी दस बजे आते हैं, आपके क्लर्क साढ़े दस बजे आते हैं, आपके मैनेजर ग्यारह बजे आते हैं, आपके डायरेक्टर एक बजे आते हैं। आपके डायरेक्टर तीन बजे चले जाते हैं, मैनेजर चार बजे चले जाते हैं, चपरासी, क्लर्क पांच बजे चले जाते हैं। आप सुबह नौ बजे आ जाते हैं और सात बजे रात तक दफ्तर में रहते हैं। आपकी हालत तो ये क्लर्क, चपरासी, मैनेजर और डायरेक्टर सबसे गई-बीती है। तो हेनरी फोर्ड ने कहा कि वे सब नौकर हैं, मैं मालिक हूं। और उनके लिए किसी से काम्पिटीशन नहीं है, मेरा काम्पिटीटर बगल में बैठा हुआ है। वह नौ बजे आ जाता है, तो मुझे भी नौ बजे आना पड़ता है। वह सात बजे जाता है, तो मैं भी सात बजे के पहले नहीं जा सकता हूं, अन्यथा दौड़ में पिछड़ जाऊंगा।
पूंजीवाद एक प्रतियोगी दौड़ है।
और जब हजारों लोग प्रतियोगिता करते हैं, तब संपत्ति पैदा होती है।
आज रूस में संपत्ति पैदा नहीं हो रही है। रूस पिछले दस साल में रोज पिछड़ता चला गया है। दस साल में रूस में काम करने को अब कोई भी राजी नहीं है। क्योंकि किसलिए राजी हो? कोई प्रतियोगिता नहीं है। रूस में पिछले चालीस-पचास वर्षों में बहुत से मामलों में कोई विकास नहीं हुआ। क्योंकि विकास प्रतियोगिता से होता है। अगर एक कंपनी साबुन बनाती है और दूसरी कंपनी उससे सस्ता साबुन बना देती है, तो प्रतियोगिता होती है और विकास होता है। अब रूस में एक ही साबुन चल सकता है पचास साल तक, विकास का कोई सवाल नहीं, क्योंकि सरकारी फैक्टरी है। एक ही टुथपेस्ट चल सकता है पचास साल तक।
आप जान कर हैरान होंगे कि रूस आज भी चांद तक तो पहुंचाने में सफल हो सका है आदमी को, कोशिश कल की उसने, दौड़ लगाई, लेकिन आज भी कार के मामले में अमेरिका से चालीस साल पिछड़ा हुआ है। अभी फोर्ड को निमंत्रण दिया रूस ने कि आप हमारे यहां कारखाने, कार बनाने की फिकर करें। और आखिर इटली के साथ समझौता किया है और इटली से कारें बनवाने का इंतजाम कर रहा है। सोचने जैसा मामला है कि जो मुल्क आकाश में उतर सका, वह कार क्यों नहीं बना सका?
कारण साफ है। आकाश के मामले में प्रतियोगिता है अमेरिका से इसलिए वह आकाश के मामले में तो दौड़ लगाता रहा, लेकिन घर के भीतर किसी से कोई प्रतियोगिता नहीं है इसलिए कार बनाने का मामला बिल्कुल पिछड़ गया। रूस में अच्छी कार नहीं बन सकी, लेकिन रूस अच्छा अंतरिक्ष-यान बना सका, क्योंकि अंतरिक्ष-यान के मामले में अमेरिका से काम्पिटीशन है। अंतरिक्ष-यान के मामले में रूस का मन पूंजीवादी है और भीतर कार बनाने के मामले में समाजवादी है इसलिए वहां कोई विकास नहीं हो सका।
जिस देश के भीतर समाजवाद स्थापित होगा, प्रतियोगिता समाप्त हो जाती है। जहां प्रतियोगिता समाप्त होती है, वहां विकास समाप्त हो जाता है। सब विकास काम्पिटीशन है। अधिकतम लोग काम्पीट करें, अधिकतम लोग प्रतियोगी हों, अधिकतम लोग एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करें, अधिकतम लोग सस्ती चीज बाजार में लाएं, अधिकतम लोग अच्छी चीज बाजार में लाएं, तो विकास का पहाड़ टूट पड़ता है। लेकिन यह समाजवाद में संभव नहीं हो सकता।
इसलिए हिंदुस्तान जैसे गरीब देश को समाजवादी बनाने की बातें सुसाइडल हैं, आत्मघातक हैं। अगर यहां समाजवाद आ गया तो हम वैसे ही सुस्त मरे हुए लोग हैं, हम और सुस्त होकर मर जाएंगे। हम जहां बैठे हैं वहीं बैठे रह जाएंगे, अपनी तकली और चरखा कातते रहेंगे। लेकिन अब सारी दुनिया बदल गई है, चरखे-तकली का कोई इंतजाम भविष्य के लिए नहीं है। भविष्य में तो बड़ी से बड़ी टेक्नालॅाजी संभावी हो गई है। और अगर मुल्क को जिंदा रहना है, तो बड़ी टेक्नालॅाजी के अतिरिक्त मुल्क को कोई जिंदा नहीं रख सकेगा। अब न तो जमीन से भोजन पैदा होगा, वह भोजन भी मशीन से पैदा करना पड़ेगा। अब दूध भी गाय से पैदा नहीं होगा, वह भी मशीन से पैदा करना पड़ेगा। अब कपड़े भी खेत में पैदा नहीं होंगे, वे भी मशीन से पैदा करने पड़ेंगे। अब दवा भी वनस्पतियों से पैदा नहीं होगी, मशीन से पैदा करनी पड़ेगी। अब सिवाय मशीन के मनुष्य का कोई भविष्य नहीं है।
और बड़े मजे की बात है, मशीन जितनी बढ़ जाए, मनुष्य उतना मुक्त हो जाता है। मशीन जितनी ज्यादा हो जाए, मनुष्य उतने श्रम के भार से बाहर हो जाता है। मशीन जिस दिन सारा काम करने लगेगी, उस दिन आदमी के मस्तिष्क पर जो बोझ है काम का, वह बहुत कम होता चला जाएगा। और दुनिया में सारी संस्कृतियां तब पैदा होती हैं, धर्म तब पैदा होता है, जब मनुष्य के ऊपर से काम का बोझ हट जाता है।
एक आखिरी बात, फिर मैं अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
यह सोचने जैसी बात है कि दुनिया में जो भी कीमती है, चाहे सितार हो, चाहे संगीत हो, चाहे काव्य हो, चाहे धर्म हो, चाहे मोक्ष हो, यह सारे उन लोगों से पैदा होते हैं जो बेकार हैं। बेकार अनएंप्लायड के मतलब में नहीं, बेकार लग्जूरियस के अर्थ में, जिनके पास कोई काम नहीं है और सुविधा है। अकबर के दरबार में तानसेन पलता है, और महावीर राजा के घर में पैदा होते हैं, बुद्ध राजा के घर में पैदा होते हैं, राम राजा के घर में पैदा होते हैं, कृष्ण, ये सारे के सारे शाही परिवार के लोग हैं। इनके पास काम बिल्कुल नहीं है और सुविधा बहुत है। ये करें क्या? रोटी पैदा नहीं करनी है, कपड़ा बनाना नहीं है। तो ये संगीत पैदा करेंगे, चित्र बनाएंगे, मूर्ति बनाएंगे, भगवान की खोज करेंगे, ध्यान करेंगे, प्रार्थना करेंगे, पूजा करेंगे, धर्म की खोज करेंगे, मोक्ष की यात्रा करेंगे..ये कुछ तो करेंगे, आदमी बेकार नहीं हो सकता। तो जब आदमी की नीचे की जरूरतें पूरी हो जाती हैं, तब उसकी ऊपर की खोज शुरू होती है। और जब तक नीचे की जरूरतें पूरी न हों, तब तक ऊपर की खोज कभी शुरू नहीं होती।
इसलिए हम इस मुल्क में धर्म की कितनी ही बातें भला करते रहें, हम धार्मिक नहीं हैं। हम धार्मिक हो नहीं सकते। क्योंकि धार्मिक होने के लिए सुविधा चाहिए, धार्मिक होने के लिए लग्जरी चाहिए। असल में धार्मिक होना आदमी की आखिरी लग्जरी है, वह आदमी का आखिरी विलास है। जिसके पास अब कुछ भी करने को इस पृथ्वी का शेष नहीं रह गया, अब वह आकाश के कामों में उलझ सकता है।
इसलिए जैनियों के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं, हिंदुओं के सब अवतार राजाओं के बेटे हैं, बुद्ध राजा के बेटे हैं। इसका कारण है। इसका कारण है कि सब मिल गया है, अब इसमें कुछ खोजने जैसा नहीं रह गया।
तो मैं आपसे कहता हूं कि हिंदुस्तान में नहीं, धर्म की अगली जो किरण है वह अमेरिका में उतरेगी। उतरेगी ही! क्योंकि अमेरिका अब बेकार हुआ जा रहा है..दूसरे अर्थों में। अब उसके पास सब है और काम करने की भी जरूरत रोज कम होती जा रही है। अमेरिका का अर्थशास्त्री चिंतित है कि बीस साल बाद अगर कोई आदमी काम मांगेगा तो हम काम कहां से देंगे, क्योंकि काम तो सब मशीन कर देगी। बड़ी अजीब दुनिया है हमारी! इधर हम चिंतित हैं कि आदमी को काम कैसे दें? अमेरिका में वे चिंतित हैं कि अगर आदमी काम मांगेगा तो हम सबको काम न दे सकेंगे! इसलिए अमेरिका के अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि अब हमें लोगों को राजी करना पड़ेगा कि तुम बिना काम के तनख्वाह लेने को राजी हो जाओ। तनख्वाह तुम ले लो, लेकिन काम न मांगो।
एक अर्थशास्त्री ने तो यह कहा है कि यह भी संभव है इस सदी के पूरे होते-होते कि जो आदमी काम न मांगे उसको तनख्वाह ज्यादा मिल जाए और जो आदमी काम मांगे उसको तनख्वाह कम मिले। इसलिए कि वह दो चीजें एक साथ मांग रहा है, तनख्वाह भी मांग रहा है और काम भी मांग रहा है। अगर सारा काम मशीनें ले लेंगी तो बहुत थोड़े लोग, जहां दस हजार आदमी काम करते थे, वहां दस आदमी बटन दबा कर काम कर सकेंगे। बाकी नौ हजार आदमी जो बाहर हो जाएंगे, इन आदमियों का क्या होगा? इनको काम नहीं है। तनख्वाह तो इनको देनी पड़ेगी, क्योंकि चीजें पैदा होंगी उनको कोई खरीदेगा कैसे? अगर इनको तनख्वाह नहीं दोगे तो कारखाना चलेगा कैसे? इनको तनख्वाह देनी पड़ेगी। इनको बेकारी की तनख्वाह देनी पड़ेगी कि तुम तनख्वाह लो और घर पर रहो।
निश्चित ही जिस दिन ऐसी हालत आ जाएगी..रोज आ रही है..उस दिन अमेरिका में धर्म का पहली दफा विस्तार होगा, लोग पहली दफा पूरी फुर्सत में होंगे। जैसा कभी-कभी किसी राजा के बेटे हुए थे, ऐसे पूरी जनता के बेटे इतनी फुर्सत में हो जाएंगे। तब वे साहित्य भी रचेंगे, कविता भी लिखेंगे, चित्र भी बनाएंगे, फुर्सत के काम करेंगे, जिनमें कि कोई उलझन नहीं है। वे धर्म की भी खोज करेंगे।
मेरी दृष्टि में, अगर हिंदुस्तान पूंजीवाद के मामले में पिछड़ गया, तो धर्म के मामले में भी पिछड़ जाएगा। और समाजवाद अधार्मिक व्यवस्था है। और पूंजीवाद अगर पूरी तरह विकसित हो जाए तो अनिवार्य रूप से धर्म उसमें से जन्मता है। लेकिन हमने एक भूल कर ली है अतीत में, हम भौतिकवाद के विरोधी हो गए हैं, बिना इस बात को समझे हुए कि भौतिकवाद परमात्मा की जिंदगी का आधार है, आधारशिला है।
हम एक मंदिर तो ऐसा बना सकते हैं जिसमें सिर्फ नींव हो और शिखर न हो, लेकिन हम ऐसा मंदिर नहीं बना सकते जिसमें सिर्फ शिखर हो और नींव न हो। हम एक ऐसा पौधा तो लगा सकते हैं जिसमें सिर्फ जड़ हो और फूल न हों, लेकिन हम एक ऐसा पौधा नहीं लगा सकते जिसमें सिर्फ फूल हों और जड़ न हो। यह बड़े मजे की बात है! ऊंची चीजें नीची चीजों पर निर्भर होती हैं, नीची चीजें ऊंची चीजों पर निर्भर नहीं होतीं। अगर आप नींव के पत्थर न भरें तो मंदिर के सोने के शिखर को नहीं चढ़ा सकते, सोने के शिखर को चढ़ाने के लिए नींव के पत्थर भरने ही पड़ेंगे। हां, आप चाहें तो नींव भर कर छोड़ सकते हैं, सोने का शिखर मत चढ़ाएं तो भी चल जाएगा।
अकेला मैटीरियलिज्म चल सकता है, लेकिन अकेला स्प्रिचुएलिज्म नहीं चल सकता। अकेला भौतिकवाद चल सकता है, लेकिन अकेला अध्यात्मवाद नहीं चल सकता। इस मुल्क में हमने ऐसी भूल कर ली, अकेले अध्यात्मवाद की चेष्टा करके हम परेशानी में पड़ गए। हमने सोचा कि हम सिर्फ आत्मा ही आत्मा रहेंगे, शरीर की हम फिकर नहीं करेंगे। हमने समझा कि हम तो सिर्फ परमात्मा को मानेंगे, संसार को माया कहेंगे। इससे हम बहुत मुश्किल में पड़ गए।
यह संसार, यह माया जिसको हम कहते हैं, यह भी सत्य है, यह झूठ नहीं है। और यह शरीर उतना ही सत्य है जितनी आत्मा सत्य है। और यह तो हो सकता है कि कोई आदमी सिर्फ शरीर में रहे, आत्मा की फिकर छोड़ दे। लेकिन कोई आदमी सिर्फ आत्मा में नहीं रह सकता शरीर की फिकर छोड़ कर। शरीर की फिकर तो करनी ही पड़ेगी। शरीर आधार है, बुनियाद है। नीचा है, लेकिन आधार है।
हिंदुस्तान को सौ साल अपने शरीर को मजबूत करने में, अपनी संपत्ति को बढ़ाने में, अपने भौतिकवाद को फैलाने में लगाने की जरूरत है। इससे घबराने की जरूरत नहीं है।
लोग मुझसे पूछते हैं, एक मित्र ने पूछा है कि आप सदा तो धर्म की बात करते हैं। आप तो ये भौतिकवाद की, मैटीरियलिज्म की बातें कर रहे हैं!
मेरे लिए धर्म मैटीरियलिज्म का विरोधी नहीं है। और जो धर्म मैटीरियलिज्म का विरोधी है, वह जिंदगी का विरोधी धर्म होगा। वह धर्म जिंदगी के काम का नहीं है। जो धर्म कहता है कि हम भौतिकवाद को नहीं मानते, उस धर्म को जिंदा रहने का मौका भी नहीं है, हक भी नहीं है, उसको मर जाना चाहिए। क्योंकि जिंदा रहने के लिए भौतिकवाद के बिना कोई रास्ता नहीं है। श्वास लो तो भी भौतिक है, पानी पीओ तो भी भौतिक है, रोटी खाओ तो भी भौतिक है, जिंदगी भौतिक है।
इसका यह मतलब नहीं है कि जिंदगी भौतिक ही है। जिंदगी का मकान भौतिक है, उसका निवासी आत्मिक है। जिंदगी का घर भौतिक है, उसके भीतर का रहने वाला जो मेहमान है, अतिथि है, वह अभौतिक है। लेकिन मेहमान को भी रखना हो तो उसको भी रोटी खिलानी पड़ती है। अगर घर में मेहमान आए और आप अध्यात्मवादी हैं, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा मेहमान, ज्यादा दिन घर में नहीं रुक सकेगा। क्योंकि आप कहेंगे, रोटी हम दे नहीं सकते, क्योंकि यह तो भौतिक है; पानी हम दे नहीं सकते, यह तो भौतिक है; बिस्तर हम दे नहीं सकते, यह तो माया है; छप्पर हम दे नहीं सकते, क्योंकि यह सब संसार तो झूठा है, सपना है। तो मेहमान ज्यादा देर नहीं टिक सकता।
हिंदुस्तान की आत्मा मुश्किल में पड़ गई है इसके अत्यधिक अध्यात्मवाद के कारण। यह टू मच अॅाफ स्प्रिचुएलिज्म हमारे लिए जहर सिद्ध हो गया। जिंदगी में हर चीज का अनुपात है। और अगर अमृत भी ज्यादा पी जाएं तो मारने वाला हो जाता है और जहर भी अगर अनुपात से पीएं तो जिलाने वाला हो जाता है। जिंदगी में हर चीज की एक सीमा है, एक मात्रा है। हम कुछ ज्यादा मात्रा खा गए अध्यात्मवाद की, उससे हम परेशान रहे। पांच हजार साल हम गुलामी में, गरीबी में मरे, वह अध्यात्मवाद की दवाई हम जरा ज्यादा पी गए। ऋषि-मुनियों को हम घोल कर इस बुरी तरह पी गए कि मरने के सिवाय रास्ता नहीं रहा।
नहीं, जिंदगी अध्यात्मवाद के विपरीत नहीं होनी चाहिए, लेकिन भौतिकवाद के विपरीत होने की भी कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी का असली धर्म भौतिक और अध्यात्म दोनों का जोड़ है। 

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