जीवन-मूल्य और संघर्ष-(प्रवचन-पांचवां)
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)हां, कई बार कोई चीज हमारे भीतर जागते-जागते किसी कोने में पड़ी रह जाती है। भूल जाते हैं, दूसरे काम में लग जाते हैं, दूसरी जिंदगी आ जाती है। कई दफा बीस वर्ष नहीं, बीस-बीस जन्म तक कोई चीज हमारे भीतर होकर पड़ी रहती है। और कभी भी उस पर चोट पड़ जाए, वह फिर जिंदा हो जाती है। क्योंकि भीतर कुछ मरता नहीं है, जन्मों-जन्मों तक नहीं मरता, प्रतीक्षा ही करता है और मौका देखता है कि कब ठीक पानी पड़ जाएगा और बीज फूट जाएगा। और जब वैसा होगा तो बहुत फर्क पड़ेगा। जिस आदमी के भीतर वैसी कोई बात नहीं हुई है कभी, वह भी सुनेगा, उसे यह बिलकुल फॉरेन मालूम पड़ेगा कि विजातीय बात है, पता नहीं क्या बात है। लेकिन जिसके भीतर कुछ सजातीय स्वर जग जाएगा, उसे बात ऐसी लगेगी कि यह मुझे कहनी थी और आपने कैसे कह दी! बस ऐसा ही लगेगा, इससे अलग कुछ और नहीं लगेगा।
और ऐसा लगता है जैसे सारे क्राउड में शायद मुझे ही आप कह रहे हैं।
हां, बिलकुल ही, बिलकुल ऐसा ही, बिलकुल ऐसा लगेगा, बिलकुल ऐसा लगेगा। ठीक कहते हैं, हमेशा ऐसा ही है। और सच बात तो यह है कि क्राउड से तो कोई बात हो ही नहीं सकती; होती तो एक-एक से ही है, चाहे वहां कितने ही लोग मौजूद हों।
क्या यह सही है कि हर एक चीज का एक क्षण होता है?
निश्चित ही सही है।
आज ही सुनना था यह?
हां, अक्सर यह बात सही है।
क्योंकि मेरे इस छोटे से जीवन में इतनी घटनाएं घटी हैं और मैंने तो किसी परम परमात्मा से...जो उसने दिया-लिया सब उसी का, मेरी कोई इच्छा नहीं है। मगर यह जरूर है कि जो पाया और जो गंवाया है, सब उसी की इच्छा से हुआ है। और जब कल शाम को हम लोग जा रहे थे वापस, एक और मित्र थे हमारी इंडस्ट्री के ही, वे भी आपके भक्त हैं। तो हम यही सोचते जा रहे थे कि आचार्य जी से मिलना है क्योंकि पिछली बार जब आप आए थे तो महीपाल जी से बात हुई थी, विष्णु से बात हुई थी कि आप भी कुछ इंडस्ट्री के व्यक्तियों से मिलना चाहते हैं।
हां-हां, जरूर मिलना चाहता हूं।
और यह मुझे अभी तक क्लियर नहीं था कि क्यों मिलना चाहते हैं! और इस इंडस्ट्री में कितने गिनती के लोग हैं जो कि इस धारा में बहना चाहेंगे! तो कल ही हम सोच लिए थे कि जाकर आज शूटिंग से वापस पहुंचा तो कहने लगे आपके लिए एक शुभ समाचार है।
मेरी महीपाल जी से बात हुई थी, वे तो मिले नहीं, कल चले गए। नहीं तो उनका खयाल था, आप की भी बात हुई थी। फिर आज अचानक प्रवीण ने कहा। तो मैंने कहा, आज ही बुला लो, अगर वे हों तो उन्हें बुला ही लो। काम तो बहुत है। क्योंकि असल में हर युग का अभिव्यक्ति का माध्यम है, और हर युग का अलग है, हर युग का माध्यम अलग है। जिससे हम लोक-मानस तक पहुंच सकते हैं, वह माध्यम अलग है। जब तक हम बोल कर ही पहुंच सकते थे, दूसरा कोई रास्ता नहीं था। और जो बात कान से पहुंचती है, उससे हजार गुना आंख से पहुंचती है, अगर वह देखी जा सके।
हम आमतौर से यह कहते हैं कि आपने सुना है कि देखा है? क्योंकि सुने हुए के सच होने का कोई भरोसा नहीं है, भरोसा मुश्किल है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास करना मुश्किल है। और जिस इंडस्ट्री की आप बात कर रहे हैं, उसने चीजों को देखने का मौका दे दिया है। देखे हुए झूठ पर भी अविश्वास नहीं किया जा सकता, देखने का बल इतना है। सुने हुए सच पर भी विश्वास करना बहुत मुश्किल है। सुनने का कोई बल नहीं है।
हां, लेकिन वह झूठ का भी बल है। और देखे हुए झूठ का तो बहुत बल है। और आंख को कुछ पता नहीं है कि वह सच में देख रही है कि परदे पर देख रही है। आंख सिर्फ देखती है। और उसकी लाखों-करोड़ों वर्षों की देखी हुई बात पर विश्वास करने की आदत है। वह जो देख लेती है उसको सच मानती है। इंस्टिंक्टिव है वह सब, वह आपको पता नहीं है। और इसीलिए तो आप फिल्म में देख रहे हैं कि एक आदमी दुखी हो रहा है--और एक आदमी बैठ कर रोने लगा। वह बिलकुल भूल गया है कि यह जो है वह परदा है, वह भूल ही गया है। क्योंकि आंख को पता ही नहीं है। आंख तो देखना जानती है, देखने पर विश्वास करना जानती है। यह करोड़ों वर्षों की आंख की आदत है। और हमको कभी पता नहीं था कि हम झूठा परदा भी बना लेंगे और उस पर हम देख लेंगे।
तो अब क्या हुआ...और हमेशा यह होता है कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है, तो सबसे पहले नये आविष्कार का उपयोग हमारी निम्नतम जरूरतों के लिए होता है। कहावत है अरब में कि जब भी कोई नया आविष्कार होता है तो शैतान उस पर पहले कब्जा कर लेता है। भगवान को बहुत मुश्किल से मौका मिलता है उस पर कब्जा करने का, नये आविष्कार पर। तो नये आविष्कार तो रोज होते चले जा रहे हैं और हमारी जो निम्नतम हैं वृत्ति, वे उस पर कब्जा कर लेती हैं। और इसलिए निम्नतम वृत्तियां बिलकुल पागल हो गई हैं। और उनको पागल करके शोषण भी किया जा सकता है, किया जा रहा है।
अब इस वक्त सारी की सारी दुनिया आदमी के सेक्स का शोषण कर रही है, पूरी तरह से शोषण कर रही है। हमें दिखाई भी नहीं पड़ता कि हम पेंटिंग से भी वही कर रहे हैं, हम फिल्म से भी वही कर रहे हैं, संगीत से भी वही कर रहे हैं, हम घूम-फिर कर आदमी के सेक्स का एक्सप्लायटेशन कर रहे हैं। और अगर सेक्स का इतना एक्सप्लायटेशन होगा, तो आदमी निश्चित ही खतरे में पड़ते चले जाएंगे। क्योंकि वहां से जितनी शक्ति एक्सप्लायट हो गई, उतनी कनवर्ट नहीं हो सकेगी फिर।
और यह मजे की बात है कि सेक्स एक्ट से उतनी इनर्जी आपकी व्यय नहीं होती जितनी सेक्स इमेजिनेशन से व्यय होती है; क्योंकि इमेजिनेशन परवर्शन है। एक्ट तो प्रकृति है, इमेजिनेशन बिलकुल परवर्शन है। और इमेजिनेशन का शोषण हो सकता है।
तो मेरा कहना यह है कि इस इमेजिनेशन का क्या शोषण शुभ के लिए नहीं हो सकता?
इस दिशा में बहुत सोचा जाना जरूरी है, बहुत सोचा जाना जरूरी है। जैसे दरवेश नृत्य होते हैं।
एक फकीर था गुरजिएफ, आठ-दस साल पहले मरा। तो उसने कुछ दरवेश नृत्य खोजे हुए थे, जिनको आप घंटे भर सिर्फ देखें, आप देखते-देखते ध्यान में चले जाएंगे। सिर्फ वह डांस देखते रहिए, उसके सारे स्टेप्स, उसकी सारी लय, उसका पूरा संगीत, वह आपके भीतर से आपको ऊपर उठाना शुरू करता है। और घंटे भर में आप बिलकुल ही उस जगत को अनुभव करेंगे जो आपने कभी नहीं जाना। और एक बार उसकी जरा सी भी अनुभूति हो जाए तो फिर उसकी पुकार आपका पीछा करेगी, वह आपको चौबीस घंटे बुलाएगी कि वहां भी एक दुनिया है जो अनजानी रह गई। उसने कुछ दरवेश नृत्य...।
अब दरवेश नृत्य के द्वारा बहुत काम किया है सूफी फकीरों ने। जो लोग कुछ और नहीं समझ सकते--किताब नहीं समझ सकते, ज्ञान नहीं समझ सकते, कोई फिलासफी नहीं समझ सकते--वे भी नृत्य देख तो सकते हैं। और हम उनसे समझने के लिए कुछ कह ही नहीं रहे, उनकी आंख देखने में जो कर जाती है, उससे उनके सारे स्नायु पर जो असर हो जाते हैं और उनकी सारी चेतना तक जो प्रवेश हो जाता है, वह बिलकुल ही सहज है। उसमें उनसे करने को हम कुछ कह नहीं रहे हैं। और पहला अनुभव अगर सहज हो जाए तो दूसरा अनुभव आदमी साधना से करना चाहता है।
इस वक्त जो कठिनाई पड़ गई है--हम पहला अनुभव ही साधना से करवाने की दिक्कत में पड़े हुए हैं। पहला अनुभव सहज हो जाए, तो दूसरा अनुभव आप कितने ही कष्ट को उठा कर, श्रम को उठा कर कर सकते हैं। संगीत अदभुत है इस दुनिया में...इधर मेरा खयाल है कि एक थोड़े से मित्रों को, जो अलग-अलग दिशाओं में सोचते हैं--संगीत में हैं, या फिल्म में हैं, या पेंटिंग में हैं, या काव्य में हैं--क्या यह नहीं हो सकता कि ये सारे लोग मिल कर यह सोचें कि हम आदमी को उस ऊंचाई की तरफ ले जाने के लिए अलग-अलग दिशाओं से क्या दर्शन दे सकते हैं?
अगर एक पेंटिंग को देख कर एक आदमी कामातुर हो सकता है, तो एक पेंटिंग को देख कर एक आदमी रामातुर क्यों नहीं हो सकता? और अगर एक संगीत को सुन कर सेक्सुअलिटी जगती हो और आदमी सेन्सेट हो जाता हो, तो यह क्यों नहीं हो सकता कि एक दूसरे संगीत को सुन कर सेक्सुअलिटी खोती हो और आदमी आध्यात्मिक होता हो?
वह जो आप कहते हैं न कि क्या काम हो सकता है? काम तो बहुत है। काम तो इस वक्त इतना है, और मेरा मानना है हमेशा कि जो लोग नये माध्यम में काम करते हैं, उन्हीं के लिए सबसे ज्यादा काम होता है। पुराने माध्यम पिट गए होते हैं। और जो चीज पिट गई होती है, जिसके हम आदी हो गए होते हैं, वह हमारे भीतर किसी नये दरवाजे को तोड़ने में असमर्थ हो जाती है। कभी उसने तोड़ा होगा, जब वह नई थी। अब वह तोड़ना बहुत मुश्किल हो गया है।
और एक मजा हो गया कि दुनिया की जितनी पुरानी कलाएं थीं, वे एक अर्थ में एक्टिव थीं, उसमें आपको पार्टिसिपेट करना पड़ता था। नृत्य का पूरा मजा नाचने में था। संगीत का पूरा मजा खुद गाने में था, पैदा करने में था। नई दुनिया ने क्या व्यवस्था की कि सारी एक्टिव कलाओं को पैसिव आर्ट बना दिया। न आपको नाचना है, न आपको गाना है। आपको सिर्फ देखना है, सुनना है, बैठे रहना है। आप तो पैसिव एनटाइटी हैं। एक मुर्दे की तरह आप बैठे रहें तीन घंटे, और बाकी सब दूसरा कर रहा है।
इसके परिणाम बड़े खतरनाक हुए। इसका सबसे बड़ा परिणाम हुआ--सुबह से लेकर रात तक आदमी को हम पैसिव एनटाइटी बना रहे हैं। हम उससे कहते हैं, तुम्हें कुछ नहीं करना है, हम सब कर देंगे। किराये के आदमी हम कर देंगे, तुम सिर्फ देख लो बस काफी है, तुम्हारे लिए कुछ परेशान होने की जरूरत नहीं। एक संगीतज्ञ जिंदगी भर मेहनत करेगा, वह गा देगा, तुम सुन लेना; कोई नाचेगा, तुम देख लेना। धीरे-धीरे सारी पैसिविटी...और यह मजे की बात है कि जितना आदमी पैसिव हो उतना सेक्सुअल हो जाएगा; और जितना आदमी एक्टिव हो उतना स्प्रिचुअल होगा।
ये सारे जितने नये माध्यम आ गए हैं, नये माध्यम को भी हम मनुष्य की पुरानी आत्मा को उठाने के लिए कैसे काम में लाएं--यह बहुत ही बड़ा सवाल है। और नहीं हम लाते हैं, तो वह तो काम में लाया जा रहा है, नीचे ले जाने के लिए पूरी तरह काम में लाया जा रहा है। और यह ध्यान रहे कि सब पुरानी बातें पिट जाती हैं, उसके लोग आदी हो जाते हैं, फिर उसको देखते ही नहीं।
एक आदमी शादी कर लाता है। शादी के पहले उसने अपनी पत्नी को देखा होगा। फिर बीस साल हो गए हैं, अगर वह आज खयाल करेगा तो चौंक जाएगा, बीस साल से उसने देखा ही नहीं है, वह आदी हो गया है। रोज निकला है और पत्नी को गले भी लगाया है, उससे बात भी की है, सुबह-शाम उससे लड़ा-झगड़ा भी है, लेकिन देखा नहीं है। देखने का कोई मौका ही नहीं आया, कोई जरूरत नहीं पड़ी, वह आदी हो गया है। हां, कोई नई औरत को सड़क पर वह आज देख लेता है--आज भी देख लेता है, एक क्षण को आज भी देख लेता है--और देखने की वजह से वह आज भी लालायित हो जाता है। और अपनी पत्नी उसको अब आकर्षित नहीं करती, क्योंकि उसको वह देखता ही नहीं है। उसकी पत्नी को भी कोई देख कर उत्सुक हो जाता है, कोई देखता है तब न! पर हम आदी हो जाते हैं सबके, और धीरे-धीरे सारे माध्यम आदत के हिस्से हो जाते हैं।
अभी मैं पटना था, तो जालान पिंडी है, एक बहुत अच्छा उन्होंने म्यूजियम बनाया हुआ है घर पर, बहुत शौक से। तो उधर मैं गया तो एक तिबेतन गांग रखा हुआ है। देखा आपने कभी? हम घंटा मंदिर में रखते हैं, वैसा तिबेतन गांग होता है, वह गोल होता है। एक लकड़ी का डंडा होता है। एक लकड़ी का डंडा होता है तो वह उस गांग में जोर से घुमाते हैं, ऐसा तीन बार घुमाते हैं, फिर जोर से उसको मारते हैं। तो तीन बार घुमाने से और चौथी बार चोट करने से "ॐ मणि पद्मे हुम्' इसकी पूरी आवाज करता है, वह गांग जो है, पूरी आवाज करता है। इतनी अदभुत आवाज करता है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते। पूरा सूत्र बोल देता है वह। तीन दफा उस गोले के अंदर डंडे को घुमाया और चौथी बार उसको मारा, तो वह "ॐ मणि पद्मे हुम्', वह जो चोट है वह "हुम्' कर देती है, और वह आवाज गूंजती रहती है। तो वह मंदिर में, जहां पगोडे गांग है, वह गूंजती रहती है। और वह ध्यान के लिए काम में लाई जाती है।
अब वह हजारों वर्षों से लाई जा रही है। और उसे कोई नहीं सुनता, दिन भर बज रही है। न किसी को मतलब है, न किसी को प्रयोजन है। जैसे मंदिर में जाकर हम घंटा ठोंक देते हैं, ऐसा वह तिबेतन जाकर उसको ठोंक कर अपने घर चला आता है। वह सुनता ही नहीं, उसको मतलब ही नहीं रहा।
वह कभी डिवाइस थी। और जिसने पहली दफा जिस चेतना ने...आज भी जो चेतना उसको पहली दफा सुनेगी, तो आपको पूरे प्राणों में वह ॐ मणि पद्मे हुम् की आवाज अंदर तक गूंजती मालूम पड़ेगी। और फिर जहां वह खोने लगती है, उस खोने पर ही ध्यान करना है। और जहां वह खोते-खोते, खोते-खोते शून्य हो जाती है, उसी शून्य में डूब जाना है।
अब वह इतना मेकेनिकल, अब वह आदत हो गई है। अब वह उसको रोज सुन रहा है। गांव में दिन-रात वह बज रहा है, किसी को मतलब नहीं है।
सब चीजें पुरानी पड़ जाती हैं। और इसलिए हमेशा मनुष्य की चेतना को रोज नये-नये माध्यम खोजने पड़ते हैं। तो निम्नतम प्रवृत्तियां तो रोज नये माध्यम खोज लेती हैं और श्रेष्ठतम प्रवृत्तियां पुराने माध्यमों पर ही जोर दिए जाती हैं, इसलिए हार जाती हैं। तो मेरा मानना है कि इस दौड़ में निम्न प्रवृत्ति हमेशा नया खोज लेती है, नया काम्पिटीशन ले आती है। श्रेष्ठ प्रवृत्ति पुराने की ही दुहाई दिए चली जाती है। बस वह मुश्किल में पड़ जाती है, वह हार जाती है।
जिस दिन हम श्रेष्ठ के लिए भी रोज-रोज नया खोज सकेंगे--रोज नया गीत, रोज नया संगीत, रोज नया माध्यम--उस दिन, उस दिन मनुष्य की चेतना में बड़ी क्रांति हो जाएगी। और सब तरफ से... वह जो आप कहते हैं कि क्या उपयोग? उपयोग तो बहुत हो सकता है, बहुत उपयोग हो सकता है। और कुछ लोगों को यह सब कुछ सोचना चाहिए।
साधु-संत अब नहीं जीत सकेंगे, वे हार चुके हैं। अब उनसे कुछ हो नहीं सकता, वे बिलकुल मरी हुई बाजी पर खड़े हुए हैं। अब तो साधुता को बिलकुल नये द्वार खोज कर लड़ाई लेनी पड़ेगी, तब तो होगा, नहीं तो गया, एकदम गया। इस बुरी तरह से हार रही है श्रेष्ठता जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और हर वर्ष कितने जोर से सब नीचे उतर रहा है, उसकी भी कल्पना नहीं कर सकते! और धीरे-धीरे कुछ बातें हमें याद ही नहीं रह जाएंगी कि वे थीं भी। आज भी नहीं हम मान सकते हैं।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, वह जाएगा, वह जाएगा। वह जाएगा, क्योंकि क्लासिकल संगीत को समझने वाली चेतना के साधना के स्तर कहां हैं?
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
उसको सिर्फ...वह मैंने कहा न कि वह जो मामला था, वह सिर्फ पैसिव होने का नहीं था। अब क्लासिकल संगीत को भी आप सुनेंगे, लेकिन सुनने की भी टयूनिंग चाहिए। यानी सुनना भी एक एक्टिव पार्टिसिपेशन है, वह भी एक पैसिव नहीं है, कि आप बैठ गए, आप गए और जाकर सुन लिया। आप जाकर तो वही सुन सकते हैं जो उस लेवल पर हो जिस पर सब आदमी हैं।
तो एक जॉज है, या कुछ और है, धूम-धड़ाका है, वह कोई भी जाकर सुन सकता है, क्योंकि हम सब उस जगह हैं। उसे समझने के लिए कुछ सीखना जरूरी नहीं, उसे समझने के लिए पहले कहीं से गुजरना जरूरी नहीं। हम वहां हैं!
फकीर की तरह ही नाचने-गाने वाले...।
नाचने-गाने वाले लोग, नाचने-गाने वाले लोग...। कुछ करना जरूरी है। और मेरा कहना यह है कि सब तरफ से करना जरूरी है--नाच भी, और गीत भी--और चित्र भी, और पेंटिंग भी, सब तरफ से चोट करनी जरूरी है। अगर यह हो सकती है तो यह हारती हुई बाजी बच सकती है, नहीं तो वह गई एकदम।
और मजा यह है कि जो हमें अनुभव में न हो उस पर हम विश्वास भी कैसे करें?
अभी मैं पढ़ रहा था, एक मनोवैज्ञानिक कहता है कि सौ वर्ष बाद सभ्यता इतनी तनावग्रस्त हो सकती है कि कुछ बच्चे बचपन से ही अनिद्रा के रोग से ग्रसित पैदा हों। जैसे ही वे पैदा हों, उन्हें नींद की दवा देनी पड़े। वे बच्चे बड़े होंगे। लेकिन अगर उनसे कोई कहेगा कि सौ वर्ष पहले ऐसे लोग थे जो बिस्तर पर सिर रखते थे और सो जाते थे, वे बच्चे नहीं मानेंगे। और क्यों मानें! मानें भी क्यों! वे बच्चे कहेंगे, यह हो ही नहीं सकता, यह कभी हुआ ही नहीं, ये झूठी बातें लिखी हैं किन्हीं किताबों में। यह कैसे हो सकता है कि कोई आदमी बस लेटे और सो जाए और कुछ न करे? यह हो ही नहीं सकता।
सच में ही जिसको बचपन से नींद न आई हो, वह कैसे विश्वास करे कि कोई दूसरा आदमी आंख बंद करता है और बस सो जाता है। और कुछ भी नहीं बीच में करना होता, बस सो जाता है। हम भी आज विश्वास नहीं कर सकते कि वक्त था, कि लोग बस आंख बंद करके बैठे और समाधि में चले गए। हम विश्वास नहीं कर सकते। हम विश्वास नहीं कर सकते, यह कैसे हो सकता है! हम तो मरे जाते हैं, और कहां की समाधि! कहां का ध्यान! कहीं कुछ प्रवेश नहीं होता। कैसे हम मानें इस बात को! या तो आदमी झूठ बोल रहा है, या कोई पौराणिक कथा है, ऐसा हो नहीं सकता! और वह हमारा ठीक भी है कहना, हमारा ठीक भी है कहना, क्योंकि हम भी कैसे विश्वास करें! कुछ चीजें एकदम खो रही हैं; और इस बुरी तरह खो रही हैं कि उनकी संभावना के द्वार भी जैसे बंद हो रहे हैं, जैसे कोई दरवाजा ही बंद हो गया, अब हमें उसका पता ही नहीं है कि वह है भी।
इस सबको तोड़ने की बड़ी...और यह चेष्टा साधु-संन्यासी के बस अब नहीं है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि वह खुद ही उसे कुछ पता नहीं है। और दूसरी बात कि चेतना इतने द्वारों से उलटी गई है कि अब तुम एक द्वार से उसे वापस नहीं ला सकते, उसे बहुत द्वारों से वापस लाना पड़ेगा। और मेरा मानना यह है कि जिन द्वारों से पतन होता है, उन्हीं द्वारों से ही उठान हो सकता है।
तो आज चेतना किन-किन मार्गों से नीचे चली जा रही है, उन्हीं-उन्हीं मार्गों से उसे वापस बुलाने की जरूरत है। और वही मैथडोलॉजी खोजनी पड़ेगी, उसी मीडियम में उसे हम वापस ला सकते हैं। और यह हो सकता है, इसमें अड़चन जरा भी नहीं है, सिवाय इसके कि न किया जाए तो नहीं होगा।
तो इधर मैं सोचना हूं कि कुछ अलग-अलग माध्यम में काम करने वाले लोग, जो अलग दिशाओं में सारा जीवन लगा दिए हैं, वे उन दिशाओं से कुछ, और सब तरफ से हम कैसे एक इंपैक्ट...
और मेरा मानना यह है कि समझाने का माध्यम सबसे पुराना हो गया है। और समझाते भी हम थे, तो समझाना अंततः अगर बहुत गौर से देखें तो परसुएशन है, और कुछ भी नहीं है। मैं आपको समझा कर क्या समझा सकता हूं! परसुएड कर सकता हूं किसी बात के लिए कि वहां भी कुछ है, चलें देख लें। बस इतना ही कर सकता हूं, और तो क्या समझा सकता हूं। समझेंगे तो आप देख कर। परसुएड कर सकता हूं। परसुएशन के पुराने रास्ते सब गलत हो गए अब, वे काम नहीं करते। परसुएशन के नये रास्ते सब उपयोग किए जा रहे हैं।
अभी मैं एक दिन देख रहा था एक रिसर्च। न्यूयार्क के एक सुपर मार्केट में किसी ने कुछ रिसर्च वर्क किया। तो उसने, जितनी स्त्रियां वहां आती हैं--सारे अंदर दुकान में कैमरे लगे हुए हैं--वे जो स्त्रियां अंदर प्रवेश करती हैं, वे उनके आंखों के चित्र ले रहे हैं। वे सब यह देख रहे हैं कि स्त्रियां किस बात से आकर्षित होती हैं। तो उन्होंने हिसाब लगाया कि जो डिब्बे लाल रंग से रंगे हुए हैं, वे सात स्त्रियों को दस में से आकर्षित करते हैं।
तो दुकानदारों को उन्होंने सलाह दी कि डिब्बे लाल रंग में रंग दो। कोई भी और दूसरा रंग हार जाएगा। कंटेंट क्या है, यह सवाल नहीं है। लेकिन पहले स्त्री लाल रंग के डिब्बे को उठा कर देखती है।
फिर उन्होंने यह देखा कि वह कितनी ऊंचाई पर रखा हुआ है डिब्बा, आंख की कितनी ऊंचाई पर है--जिस पर स्त्री आकर्षित होती है खरीदने वाली। उन्होंने देखा कि अगर बहुत ज्यादा ऊंचाई पर है तो आंख से चूक जाता है, बहुत नीचाई पर है तो चूक जाता है। एक खास लेवल है, स्त्री की जो ऊंचाई का आंख का लेवल है, उसका एक फोकस है, एक फीट का, उसके भीतर जो डिब्बे पड़ते हैं वे उसको आकर्षित करते हैं। तो जो चीज सबसे सस्ती है और सबसे ज्यादा फायदा देने वाली है, वह इस ऊंचाई पर रखी जानी चाहिए। और जो चीज महंगी है या कम फायदा देने वाली है या उसके बेचने से में कोई फायदा नहीं है, वह इतनी ऊंचाई पर रखी जानी चाहिए।
वे डिब्बे उस हिसाब से रख दिए गए और इसका परिणाम हुआ!
और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि अगर काउंटर पर एक आदमी है, जो पूछता है--आपको क्या खरीदना है? तो नुकसान होता है दुकान का। क्योंकि जब आदमी यह पूछता है--आपको क्या खरीदना है? तो खरीदने वाली औरत को घर से तय करके आना पड़ता है कि मुझे क्या खरीदना है। तो परसुएड करने की सीमा का लिमिटेशन हो जाता है। उसको तय करके आना पड़ता है कि वह आदमी पूछेगा कि क्या खरीदना है? तो उसको कहना पड़ता है कि मुझे एक स्टोव खरीदना है।
काउंटर से आदमी हटा दिया, सिर्फ पैसा लेने वाला बाद में रहेगा, आपको थैला पकड़ा दिया, आप चले जाएं, जो चीज आपको पसंद है वह ले आएं। तो उन्होंने जो सर्वे किया वह यह कि जो स्त्रियों ने चीजें खरीदीं, जो खरीद कर स्त्रियां निकलीं, उसमें से दस में से सात वे थीं जो वे खरीदने आई नहीं थीं और तीन वे थीं जो वे घर से तय करके आई थीं।
तो इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब हुआ कि काउंटर से हटा दो, उन्होंने कहा, दुकानदार काउंटर पर नहीं होना चाहिए जो पूछे कि क्या खरीदना है। स्त्री को खुद ही छोड़ दो। और आंख के जो चित्र लिए, उनसे पता चला कि जैसे ही स्त्री देखती है चीजों को, वैसे ही वह हिप्नोटाइज्ड हो जाती है, उसके होश में नहीं है वह। आंख का जो विज़न है वह छोटा हो जाता है। उतना ही हो जाता है जितना हिप्नोसिस की हालत में होता है।
तो अब वे दुकानदार को कहते हैं कि तुम्हारे परसुएड करने का यह रास्ता है।
अब वह इसका मतलब यह हुआ कि अब जो खरीद वाला है उसको कुछ पता नहीं है कि वह कैसे परसुएड किया जा रहा है, और किस चीज के लिए उसे परसुएड किया जा रहा है, और वह क्या खरीद कर जाएगा। वह कौन सी किताब पढ़ेगा, वह कौन सा मंजन करेगा, वह कौन सी सिगरेट पीएगा--वह सब परसुएड किया जा रहा है उसको। और परमात्मा के लिए परसुएडर्स जो हैं वे बहुत पुराने ढंग उपयोग कर रहे हैं, वे बहुत ही पुराने ढंग उपयोग कर रहे हैं। अब उनका कोई मायने नहीं रह गया है। जो परसुएडर्स हैं--परसुएडर्स फॉर गॉड--वे बिलकुल हार जाएंगे इस दुनिया में, वे खड़े नहीं हो सकते। उनके पास परसुएशन के वे रास्ते हैं जो चार-पांच हजार साल पहले...बहुत क्रूड मैथड्स हैं। वे जिन्हें बता रहे हैं, वे किसी पर अपील नहीं करने वाले।
पूरे रिलीजन को साइंटिफिक बनाना होगा अब। जैसा कि सारी चीजों के लिए जो हो रहा है, वह उसके लिए करना पड़ेगा। तो हम जीतते हैं यह हारी बाजी, नहीं तो गए; हम उससे कभी जीत नहीं सकते हैं, संभावना नहीं है जीतने की। अगर यह हो सकता है कि एक फिल्म को देख कर सैकड़ों लोग आत्महत्या करने के खयाल से भर सकते हैं, कुछ लोग आत्महत्या कर सकते हैं, तो यह क्यों नहीं हो सकता कि एक फिल्म को देख कर सैकड़ों लोग साधना के खयाल से भर जाएं और कुछ लोग साधना में उतर जाएं? यह हो क्यों नहीं सकता? इसमें कोई विरोध नहीं है, इसमें कोई विरोध नहीं है।
लेकिन कठिनाई यह है कि पुराना जो आर्टिस्ट था, आनंद जी, वह आर्टिस्ट कुछ खयाल लेकर खड़ा हुआ था, जहां लोगों को आना पड़ेगा। आज का आर्टिस्ट सिर्फ बाजार में खड़ा हुआ है, जहां लोग हैं वह वही पहुंच जाता है। मरेगा! आप समझ रहे हैं न? आर्टिस्ट कहता है कि लोग जहां जा रहे हैं हम वहां जाते हैं, वे जो चित्र पसंद करते हैं वह हम पेंट करेंगे, वे जो गीत पसंद करते हैं हम गाएंगे। इस युग का सारा आर्टिस्ट आम आदमी के पीछे है। पिछले युगों का सारा आर्टिस्ट आम आदमी के आगे था। हां, आदमी के पीछे है तो वह पैसे के पीछे हो जाता है। वह आदमी के आगे था। उसके पास कोई मैसेज थी, वह कोई लड़ाई लड़ रहा था। वह मुसीबत में भी था एक अर्थ में। आज भी जो लड़ेगा वह मुसीबत में हो जाएगा। लेकिन कुछ लोगों को तो संघर्ष लेना चाहिए, वे जहां भी हैं। नहीं, नहीं सारी चीजों में ले सकें तो कुछ दिशाओं में थोड़े से प्रयोग करने चाहिए कि वहां कुछ समझ बदले।
तो जरूर आपके मित्रों को मुझे मिलाइए तो मैं कुछ जरूर बात करना चाहूंगा कि इस तरफ कुछ सोचें, कुछ करें।
इतना आनंद आ रहा था आपके विचार सुनने में, मैंने बोल कर...
न, न, न, जरा भी नहीं।
जहां तक इस छोटी सी दुनिया का ताल्लुक है उसमें...यह दुनिया विचित्र दुनिया बन गई है। जहां तक हमारा ताल्लुक है, आज पच्चीस साल के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि बेगिंग करना फिजूल है।
यह तो ठीक है, यह तो ठीक है...।
जिस उद्देश्य को लेकर मैं इस लाइन में आया था, उसमें मैं हार चुका हूं।
यह भी ठीक है।
यह नहीं कि भगवान ने मुझे कोई ख्याति नहीं दी। एक कलाकार के रूप में लोगों ने मेरी जो भी कुछ सेवा रही उसे सराहा। मगर क्या मैं वह कर सकता हूं जो मैं करना चाहता हूं? क्या ये वह कर सकते हैं जो ये करना चाहते हैं? हमारा प्रोडयूसर जो पिक्चर बनाता है, उसको नहीं लोगों को भगवान की तरफ ले जाना है। उसे पैसा बनाना है। और उसके बस में हो, अगर सेंसर बोर्ड न हो, तो वह तो नंगा नाच दिखाएगा।
यह तो बात ठीक है।
और जब सेंसर बोर्ड उनकी पिक्चर काटता है, उसके वे खिलाफ खड़े हो जाते हैं। आज बारह साल से आचार्य जी मैंने व्रत लिया हुआ है--सिने इंप्लाइज की सेवा करने का, जो एक्सप्लायटेड क्लास है मेरी इस इंडस्ट्री का। आज भी उन्नीस सौ उनहत्तर में जब कि महंगाई इतनी बढ़ गई है, जब कि मर्सिडीज में घूमने वाले लाखों रुपये कमाते हैं एक्टर और एक्ट्रेसेस, वह गरीब अभी तक स्टूडियो में अस्सी रुपये महीना कमाता है, जो कि गवर्नमेंट के किसी भी स्केल में नहीं आता। यानी आज मिल मजदूर जो है वह ज्यादा कमाता है, आज चपरासी ज्यादा कमाते हैं, ड्राइवर ज्यादा कमाते हैं। मगर मेरे स्टूडियोज में जो लेबर हैं--वह आज भी अस्सी रुपये...एक साउंड रिकार्डिस्ट एक सौ अस्सी रुपया लेता है। जब कि एक पानी पिलाने वाला, सेलटेक्स टे्रड यूनियन के कारण, तेरह रुपये दिन के ले लेता है। मैं उन गरीब लोगों की सेवा करने के लिए आज तेरह साल से खड़ा हुआ हूं। गवर्नमेंट की कमेटियां बनीं, वेज़ बोर्ड बने, पास हो गए सब कुछ, फिर भी लागू नहीं हो रहे। आज किसी...मेरे साथ कभी आप चलिए, मैं आपको स्टूडियो में ले जाऊं।
मैं जरूर चलूंगा कभी।
आप दंग रह जाएंगे कि किस गंदे एटमास्फियर में हम लोग काम करते हैं। जहां किसी के बैठने की जगह नहीं, जहां बाथरूम्स नहीं, जहां किसी मेहमान को हम एक प्याला चाय भी नहीं पिला सकते हैं, वहां हम सुबह से शाम कर देते हैं। अमीर लोग जो लाखों रुपये...उनके लिए एयरकंडीशन रूम बन जाएंगे मेकअप करने के लिए। मगर दूसरे जो गरीब लोग हैं उनके पास बैठने की जगह नहीं है। और यह जो पैसे वाला प्रोडयूसर है या स्टूडियो ओनर है उसको इस बात की कोई चिंता ही नहीं है। क्योंकि वह उन्हें आदमी नहीं समझता, वह जानवर समझता है। उनको वह समझता है कि इनको जरूरत क्या है!
ठीक है, समझा।
तो आज इतने सालों के बाद उनको ये इतना भी नहीं दिलवा पा रहे हैं। क्योंकि अगले दौर में, मैं उनके साथ जाकर बात कर रहे हैं। और अगर स्ट्राइक करवाते हैं तो बुरी बात है कि हमारा धंधा आप बंद करवाने में लगे हैं। परसों की बात है, मैं इनसे कह रहा था, प्रकाश स्टूडियो में वर्कर्स बैठे थे। न धूप से कोई शेड उनको दिया हुआ है, न बैठने की कोई जगह दी हुई है उनको। वे कहने लगे, मनमोहन जी, आप आठ साल से हमारे अध्यक्ष हैं, कुछ नहीं हो पाया। मुझे इतना दुख हुआ, मैंने कहा, जाओ मैनेजर के दफ्तर में जाकर बात करो। जब जाकर बीस आदमी बैठेंगे, तब उन्हें खयाल आएगा कि हां, आप भी कोई व्यक्ति हैं, आप भी कुछ आदमी हैं, आपको भी बैठने की जगह होनी चाहिए। तभी उनको अकल आएगी, नहीं तो नहीं आएगी। इंकलाब लाने के लिए क्या है कि वह जो बैठक में मैंने अर्ज किया--पिक्चर बनाने वाले वे हैं।
मैं समझा आपकी बात।
हम सारे अगर संगठन भी कर लें कि हमें गंदी पिक्चरों में काम नहीं करना...।
नहीं-नहीं, यह भी मैं समझा था।
क्या है कि उस आदमी ने बिलकुल न मासेस को एजुकेट करना है, न मासेस को कोई रिलीजस मैसेज देना है। कुछ हैं भी जो अच्छी फिल्में ही बनाते हैं, मगर वे गिनती के ही हैं। फिर भी उनका ध्येय यही है कि किस तरह दो के दस बनें। उनके हृदय में कभी यह चीज नहीं है। पढ़े-लिखे लोग भी आकर अनपढ़ हो गए हैं इस लाइन में आकर। और किस प्रकार से उनको सीधे रास्ते पर लाया जाए, वह अगर कोई आप रास्ता बता सकते हैं, तो उसके लिए हम सब तैयार हैं। यानी कि क्या करें! अब आप कल्याण जी से कहिए कि भई आप जिस प्रकार का संगीत...ये कहेंगे, मैं क्या करूं भई! मुझे डिमांड है उस प्रोडयूसर की।
यह तो मैं बात समझा मनमोहन जी, यह बात मैं समझा। यह तकलीफ आपकी नहीं है, यह तकलीफ सब की है। क्योंकि कोई भी आदमी यहां अकेला नहीं है, एक बड़े सामाजिक जाल के सारे लोग हिस्से हैं। कोई आदमी अकेला नहीं जी रहा है, अपनी मर्जी से नहीं जी रहा है, एक बड़े जाल के हिस्से हैं। लेकिन यह बात इस जाल में किसी भी आदमी से कहिए, तो वह यही कहेगा कि हम तो इस जाल के हिस्से हैं। आप अगर सोचते हों कि प्रोडयूसर यह नहीं कहेगा, तो आप गलत सोचते हैं। प्रोडयूसर भी यही कहेगा कि हम क्या कर सकते हैं? जहां से हम रुपया लाते हैं, हम यह करते हैं, वे इसीलिए रुपया देते हैं।
मेरा मतलब यह है, यह जो बात है न यह बात सार्थक तब थी, जब कि कोई इस हालत में होता, जो कह सकता कि हां, मेरे लिए मैं जिम्मेवार हूं। ऐसा कोई भी नहीं है। सारे लोग इकट्ठे जिम्मेवार हैं। एक इंटरडिपेंडेंस है सारे लोगों की। यह तो बात जाहिर हो गई, यह तो समस्या हुई, इस पर रुक नहीं जाया जा सकता। मेरा मानना यह है कि आनंद जी करते हैं काम, वे जो करते हैं वह उन्हें करना पड़ेगा; वैसे ही करना पड़ेगा; वे एक बड़े जाल के हिस्से हैं। लेकिन कुछ काम, जो उस बड़े जाल के बिना वे कर सकते हैं। वह बड़ा जाल चलता है, उसके वे हिस्से हैं, वे भी चलते हैं, वह भी ठीक है। लेकिन कुछ वे गा सकते हैं, जो वे पैसे के लिए नहीं गाते हैं। कोई नाच सकता है, जो वह पैसे के लिए...।
मेरा मतलब यह है: कहीं से हमें, कहीं से हमें तोड़ना पड़े। और यह तो मैं मानता ही नहीं हूं कि आप सारे जाल को तोड़ें, तब कुछ होने वाला है। यह तो हो नहीं सकता है! हां, हमें तो अपने हिस्से में कुछ काम तोड़ने की कोशिश करनी पड़े। और फिर सवाल यह है, इतना कमजोर आदमी कोई भी नहीं है--इतना सबल आदमी कोई नहीं है जो यह कह सके कि मैं बिलकुल स्वतंत्र हूं--इतना कमजोर आदमी कोई नहीं है जो यह कह सके कि मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। ये दोनों बातें मेरे खयाल में हैं। इतना कमजोर से कमजोर आदमी भी खोजना मुश्किल है जो यह कह सके कि मैं कुछ नहीं कर सकता हूं। बहुत मुश्किल है करना, लेकिन बिलकुल ही ऐसा नहीं है कि कोई कुछ नहीं कर सकता है। और थोड़ा सा भी जो कर सकता है, उसको करने को राजी हो, तो भी हम सर्किल को तोड़ते हैं। और जब दस लोग थोड़ा सा करने वाले मिल जाएं तो सर्किल को और जोर से तोड़ते हैं।
एक मजे की बात यह है कि इतना बड़ा जाल है कि अगर एक व्यक्ति उसके सामने अपने को खड़ा करके सोचे, तो फौरन हार जाएगा, फौरन हार जाएगा। वह सोच भी ले तो हार गया, यानी अगर वह यह देखे कि इतना बड़ा जाल है यह खड़ा हुआ, इसके खिलाफ मैं खड़ा होता हूं, मैं कहां खड़ा...सोचना ही असंभव है, मर गए यह तो, हार जाऊंगा। यह तो बात सच है। लेकिन अगर वह इस तरह सोचे कि इतना बड़ा जाल भी कुछ व्यक्तियों का ही बनाया हुआ है, और कोई व्यक्ति एक से ज्यादा मूल्य नहीं रखता। बड़े से बड़ा व्यक्ति नहीं रखता, छोटे से छोटा भी कम नहीं रखता, वह चूंकि चल रहा है सिर्फ, इसलिए ताकतवर मालूम पड़ता है। और जिस दिन तोड़ने वाली कड़ी मिल जाए, तो एक कड़ी भी तोड़ देगी, फिर हजार कड़ी मिलती चली जाती हैं एकदम। हजारों कड़ियां प्रतीक्षा करती हैं, मनमोहन जी, कि कोई आवाज दे और वे आ जाएं। और हजारों कड़ियों के मन में आग होती है, लेकिन राह देखती हैं कि कोई जल जाए और हम जल जाएं।
इस दुनिया में एकाध लाख में एकाध आदमी होता है जो दूसरे की प्रतीक्षा नहीं करता! अधिकतम लोग प्रतीक्षा करते हैं। और हमें सिर्फ हमेशा उन थोड़े से लोगों को खोजने की जरूरत होती है जो प्रतीक्षा नहीं करते और जो कुछ कर सकते हैं। और कई बार बहुत छोटे-छोटे लोग इतना बड़ा तोड़ देते हैं...। लेकिन होता क्या है, हमें यह दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तोड़ते ही से वे बड़े-बड़े लोग हो जाते हैं। सब छोटे-छोटे लोग तोड़ते हैं दुनिया में। लेकिन इतिहास कभी नहीं आंक पाता कि छोटे आदमी कुछ करते हैं। सब काम छोटे आदमी करते हैं। लेकिन इतिहास में अंकते-अंकते वे सब बड़े आदमी हो जाते हैं, क्योंकि वे कर चुके। और तब हम कहते हैं कि वह बड़ा आदमी था। वह कर चुका। वह बड़े आदमी की वजह से नहीं किया, किया इसलिए बड़ा आदमी था और कोई भी छोटा आदमी...।
तो मुझे यह लगता है कि जो हम कर सकते हैं, बहुत छोटा सा कुछ, वह इस दिशा में करने का खयाल। अब आप जो कह रहे हैं, जिस लड़ाई की आप बात कर रहे हैं, वह लड़ाई बिलकुल दूसरी है। जिस लड़ाई की बात मैं कर रहा हूं, वह बिलकुल दूसरी है।
और मैं आपसे कहता हूं कि उस जिस लड़ाई में हम लड़ रहे हैं, जिसमें हम सौ रुपये वाले आदमी को डेढ़ सौ रुपये दिलाना चाहते हैं, अंततः वह लड़ाई रुपये की है। और जिससे हम दिलाना चाहते हैं पचास रुपये, पचास रुपये जिस कारण से हम दिलाना चाहते हैं, उसी कारण से वह भी पचास रुपये छोड़ना नहीं चाहता। जो बेसिक लड़ाई है, जो बेसिक लड़ाई है...और मेरा कहना है कि आप जब तक उससे पचास रुपये छुड़वा पाएंगे, जब तक आप पचास रुपये उससे छुड़वा पाएंगे लड़ कर, वह आप तभी छुड़वा पाएंगे जब वह पचास लाख और इकट्ठे कर लेगा। और लड़ाई हमेशा...गैप उतना ही बना रहता है, गैप जाता नहीं।
हैरान होंगे आप, हम तो छोटी लड़ाई लड़ रहे हैं, रूस जैसे मुल्क तो बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन गैप खत्म नहीं होता, गैप बना हुआ है। सोचा था कि इतनी बड़ी क्रांति होगी, सब गैप चला जाएगा। लेकिन गैप नहीं गया। वह जो कल मालिक था, अब मैनेजर है। मगर वह उतना ही रोब-दाब है, उतनी ही ताकत है, उतनी ही पकड़ है। बल्कि कल से पकड़ ज्यादा बढ़ गई है।
मैं एक मजाक सुन रहा था कि ख्रुश्चेव गया तिफलिस, जब वह ताकत में था। तो वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं के बीच उसने कहा कि अब तो हमारे पास सब कुछ है। आपके पास भी सब के पास कारें, रेडियो, सब होंगे? सबने सिर हिलाया, सिर्फ एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि नहीं, मेरे पास तो नहीं हैं। तो उसने कहा, कि आप अपना नाम दें, यह कैसे हो सकता है!
दूसरे दिन वह आदमी नदारद हो गया, दूसरे दिन वह आदमी गायब हो गया। दूसरे दिन ख्रुश्चेव ने पूछा कि वह जिस आदमी को गाड़ी वगैरह चाहिए थी, वह मिल गई न! तो लोगों ने कहा कि जरूर मिल गई होगी, क्योंकि उस आदमी का कोई पता ही नहीं चल रहा है।
दूसरी घटना मैंने सुनी...। वह आदमी गया! क्योंकि उसने यह बात कैसे कही! गाड़ी है, मतलब हां भरनी चाहिए। गाड़ी है कि नहीं, यह सवाल नहीं है।
हां करनी चाहिए।
हां करनी चाहिए थी। मैंने दूसरी घटना सुनी कि स्टैलिन के खिलाफ ख्रुश्चेव बोल रहा था प्रेसिडियम में उनकी। तो एक आदमी ने यह कहा कि आप स्टैलिन के साथ जिंदगी भर थे, उस वक्त आप क्यों नहीं बोले? ख्रुश्चेव एक क्षण रुका और उसने कहा कि जो सज्जन यह बोल रहे हैं, वे कौन हैं, कृपा करके नाम तो बता दें! तो कोई आदमी ने नाम नहीं बताया। तो ख्रुश्चेव ने कहा कि जिस वजह से आप नाम नहीं बता रहे हैं अभी, उसी वजह से मैं भी चुप रहा।
यह क्या हुआ फर्क? माना कि छप्पर भी मिल गया, और माना कि तनख्वाह भी मिल गई, लेकिन बड़ा महंगा मूल्य हो गया, आत्मा पूरी बिक गई। और वह जिस मैनेजर के हाथ में कल रुपया थे, आज उसके हाथ में आत्मा भी चली गई है।
आदमी जो लड़ाई लड़ रहा है मनमोहन जी, वह लड़ाई असल में, हम जिस मुद्दों पर लड़ते हैं, वे मुद्दे ही लड़ाई के हैं। जब तक वैल्यूज नहीं बदलतीं तब तक आप रुपयों के दिलवाने की लड़ाई में कभी जीतने वाले नहीं। दिलवाते-दिलवाते आप पाएंगे कि जब तक फासला आगे बढ़ गया, तब इसको फिर मिल गए। यानी जब तक आपको छप्पर मिल पाएगा आपके मजदूर को, तब तक पाएंगे मालिक बहुत आगे चला गया और छप्पर अब बेमानी हो गया। अब इसको कुछ और चाहिए, और लड़ाई जारी है।
यह जो सारी लड़ाई है, अगर बहुत हम गौर से देखें, तो पैसे की लड़ाई नहीं है। यह इस बात की लड़ाई है कि क्या समाज ऐसा ही रहेगा जिसमें एक आदमी किसी न किसी रूप में अपने अहंकार को बड़ा करके ही तृप्ति पाएगा? और तृप्ति का कोई रास्ता नहीं हो सकता? जो बेसिक लड़ाई है वह यह है कि क्या मैं अपने अहंकार को ही तृप्ति करके बस तृप्ति पा सकता हूं और कोई तृप्ति का रास्ता नहीं है?
अगर यही है, तो फिर बहुत मुश्किल है कि मैं आपके पास कार होने दूं। क्योंकि मेरे पास कार का मजा ही सिर्फ यह है कि आपके पास कार नहीं है। और मेरे पास बड़े मकान का मजा ही यह है कि आपके पास झोपड़ा है। और मैं जब छाया में बैठता हूं तो मुझे सुख ही इतना है कि कुछ लोग छाया में नहीं बैठे हुए हैं। और आप लड़ाई लड़ रहे हैं कि वे छाया में बैठ जाएं। छाया-वाया का झगड़ा नहीं है, सारा झगड़ा यह है कि मेरा सारा सुख छीन लोगे। आप दिलवा रहे हो छाया उनको, लेकिन मेरा सारा सुख छीन रहे हो। क्योंकि जो छाया में बैठा हुआ है, उसे छाया-वाया में बैठने का सुख नहीं है, बेसिक सुख इस बात का है कि वह छाया में बैठा है और दूसरे लोग छाया में नहीं हैं। और कल जब तक आप सब के लिए छाया का इंतजाम कर दोगे, वह नया उपाय कर लेगा, जिसमें वह ऊपर खड़ा हो जाएगा। वह कहेगा, मेरे पास यह है जो तुम्हारे पास नहीं है। और तकलीफ शुरू हो जाएगी। वह एयरकंडीशन में चला जाएगा।
तो मेरा कहना यह है कि जो हम ये लड़ाइयां लड़ रहे हैं, ये लड़ाइयां कोई तीन हजार साल से लड़ रहे हैं और नहीं जीत पा रहे हैं। और कभी नहीं जीत पाएंगे; जीत ही नहीं पाएंगे, क्योंकि गलत मुद्दे पर आप लड़ रहे हैं। मेरा कहना यह है, हम लड़ाई तब जीत पाएंगे, जब हम जीवन में तृप्ति के कुछ दूसरे रास्ते खोजें। जैसे हम उस आदमी को कोई तृप्ति का अर्थ न मालूम पड़े, जो कि दूसरे आदमी को धूप में खड़े देख कर खुद छाया में बैठा है--यह आदमी एकदम अपमानित हो जाए, यह आदमी एकदम अपमानित हो जाना चाहिए। इसको कुछ करने की जरूरत नहीं है, न कोई लड़ाई लड़ने की जरूरत है। न आपको कोई हड़ताल करने की जरूरत है। एकदम पूरे समाज में यह आदमी अपमानित हो जाना चाहिए, एकदम!
लेकिन वे जो छप्पर के नीचे नहीं बैठे हैं, धूप में खड़े हैं, वे भी इसको आदर देते हैं, क्योंकि इसके पास छप्पर है। अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। यह आदमी एकदम अपमानित होना चाहिए। इसका सब मामला खत्म हो जाना चाहिए।
राहुल रूस गए पहली दफा। जिस आदमी ने उनका स्वागत किया स्टेशन पर उसने हाथ मिलाया, और हाथ खींच लिया। राहुल का हाथ बहुत मुलायम, बहुत खूबसूरत और अच्छा है। वह कभी काम तो कुछ किया नहीं था। यहां तो हिंदुस्तान में जो भी हाथ देखता था, वह कहता था, अरे, बहुत मखमली हाथ है तुम्हारा! उस आदमी ने एकदम हाथ खींच लिया। राहुल ने कहा, क्या बात है? उसने कहा, आप हाथ किसी से भी खयाल से मिलाना, क्योंकि इस तरह के हाथ को हम अच्छे आदमी का हाथ नहीं समझते। क्योंकि इसने काम नहीं किया है। आप जिससे भी हाथ मिलाओ, सोच कर मिलाना; क्योंकि वह आदमी फौरन आपके प्रति नफरत से भर जाएगा कि यह आदमी मुफ्तखोर है।
राहुल ने कहा है कि मैं ऐसा डरा-डरा रहा हूं पूरे वक्त...कि कोई हाथ मिलाए तो डर लगे, क्योंकि हाथ मिलाया कि उसका चेहरा बदला फौरन!
सोशल वैल्यूज बदलने की बात है। अगर एक आदमी बड़े महल में रह कर सुखी होता है तो सुखी होने का कारण सोशल वैल्यू है। इसको डिसवैल्यू बनाना चाहिए। यह लड़ाई-वड़ाई नीचे-ऊंचे, उसकी लड़ाई नहीं है। मेरी नजर में हमें वैल्यूज बदलनी चाहिए। हम उस आदमी को आदर देंगे--किस तरह के आदमी को आदर देंगे, क्यों आदर देंगे, वह हमें सारा का सारा बदलना चाहिए। और एक दफा वैल्यू बदल जाए तो आप हैरान होंगे! अगर आप नंगे आदमी को आदर दो, आप हजार आदमी पाओगे बंबई में नंगे खड़े हुए हैं। आखिर साधु-संन्यासी खड़े हुए हैं, और क्या वजह है! आप समझते हैं कोई अध्यात्म मिल गया है! सिर्फ उनको आदर देने वाले लोग हैं, और कोई कारण नहीं है। आप आदर देने लगो, हजार आदमी कांटे पर लेट जाएंगे।
तो जहां मामला बिलकुल साफ है--मेरी नजर में लड़ाई यह है कि हम गलत चीजों में आदर देते रहे हैं। हमें कुछ आदर का पूरा ढंग बदलना चाहिए। और अगर हम आदर का ढंग बदल दें तो आप हैरान होंगे कि यह सोसायटी जहां लड़ रही है, वे मुद्दे इतनी सरलता से हल हो जाते हैं, जिनको कि हमें हल नहीं करना पड़ेगा। और नहीं तो यह लड़ाई जारी रहेगी। कम्युनिज्म आ जाए तो भी लड़ाई जारी रहेगी। क्योंकि बेसिक वैल्यूज वही की वही हैं, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई फर्क नहीं पड़ता।
अभी पीछे-पीछे, हटने के पहले, ख्रुश्चेव ने कहा कि रूस में भी जो लड़के पढ़ लेते हैं वे फिर--अब इस्टैब्लिश्ड सोसायटी हो गई रूस में--तो वे अब मजदूरी करना नहीं चाहते। पढ़े-लिखे लड़के क्लर्क होना चाहते हैं, रूस में भी। फिर मैं पूछता हूं, मतलब क्या हुआ?
यह उन्नीस सौ तीस की बात है, राहुल की जो घटना है। आज उन्नीस सौ पैंसठ में कोई जाकर पढ़ा-लिखा लड़का कहता है कि मैं भी खेत पर काम करने नहीं जाऊंगा। तो फिर हिंदुस्तान में और अमेरिका में और रूस के लड़के के दिमाग में वैल्यू का फर्क क्या है? वह भी व्हाइट कालर को आदरपूर्ण समझता है। तो फिर ठीक है, वही का वही हो गया। आज जो चीन और रूस के बीच झगड़ा है, वह झगड़ा यह है कि रूस बिलकुल ही कैपिटलिस्ट माइंड पर फिर आ गया वापस। क्योंकि बेसिक वैल्यू तो बदली नहीं थी, जबरदस्ती तुमने कोशिश की, वह पचास साल में फिर खिसक गई।
बड़ी संभावनाएं हैं। और फिर मैं यह कहता हूं कि जिस जिंदगी में हारना ही है उसमें किसी ऐसी लड़ाई के लिए हारना चाहिए कि हारने का भी सुख हो, मजा आए। यानी हारना ही है जिस जिंदगी में, तो फिर लड़ाई बड़ी ले लेनी चाहिए। मेरा अपना मानना यह है कि जहां जीतने का भरोसा ही नहीं है, और जहां इस तरह की चीजों में जीत कर भी कुछ पाने का भरोसा नहीं है, वहां कोई लड़ाई ले लेनी चाहिए। और लड़े और हारे तो भी हर्जा नहीं, एक तृप्ति तो रहेगी कि एक ऐसी चीज के लिए लड़ते थे जिसमें हारने में भी मजा था। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो लोग गलत चीजों के लिए जीत भी जाते हैं वे कोई तृप्ति नहीं पाते। जीत तृप्ति नहीं लाती मनमोहन जी, आप किसके लिए लड़ते हैं, उसकी हार भी...।
अब अगर गौर से देखें तो जीसस हारा हुआ आदमी है, बुद्ध हारे हुए आदमी हैं। ये कोई जीते हुए आदमी नहीं हैं, अभी इनको जीतने में हजारों वर्ष लग जाएंगे। और कभी जीतेंगे, यह भी शक मालूम होता है। शक ही है, अभी जीत-वीत नहीं हुई। लेकिन फिर भी ये लोग कितने आनंद से मरे हैं, हारते हुए, कि जिनको हम जीता हुआ कहते हैं, हिटलर को, या नेपोलियन को, या सिकंदर को...। अब यह बड़ा उलटा मालूम पड़ता है।
इस दुनिया में परमात्मा के लिए लड़ने वाला हारता भी है तो भी एक अर्थ में जीत जाता है। और परमात्मा के खिलाफ लड़ने वाला जीतता भी है तो भी हारता है। क्योंकि वह जो सुगंध थी जीत की वह तो आई नहीं। और मुझे ऐसा लगता है कि अगर बड़ी चीजें जीत जाएंगी तो और बड़े लोग पैदा होंगे, जो और बड़ी चीजों के लिए लड़ेंगे और हारेंगे। यानी ऐसे लोग हमेशा पैदा होते रहेंगे।
नीत्शे ने एक वाक्य लिखा है, बहुत अदभुत लिखा है। नीत्शे ने लिखा है कि वह दिन मर जाने योग्य होगा जिस दिन ऐसे आदमी पैदा नहीं होंगे जो आदमी पर शरमाएं। वह दिन मर जाने योग्य होगा जिस दिन ऐसे आदमी पैदा नहीं होंगे जो आदमी पर शरमाएं। वह दिन बेकार होगा जिस दिन आदमी की प्रत्यंचा--प्रत्यंचा--वह जो तीर है वह अज्ञात के लिए नहीं उठेगा। वह दिन शरमाने जैसा होगा जिस दिन लोग कोई ऐसी बड़ी चीज न पाएंगे जिसके लिए लड़ा जा सके, हारा जा सके।
बहुत मुश्किल है। मैं भी सोचता हूं, मैं भी यही सोचता हूं कि यह बहुत मुश्किल होगा। ऐसा तो कभी नहीं होगा। बड़े से बड़े आकाश खुलते जाते हैं लड़ाई के लिए। हमें छोटी-मोटी लड़ाई लेनी चाहिए। जहां भी हम हैं, जो भी हम कर सकते हैं, जो कुछ भी हम कर सकते हैं, हमें करना चाहिए।
और मिल-जुल कर आपस में...।
हां, बिलकुल ही आप मित्रों की कोई छोटी मीटिंग रखिए। उसमें कुछ डिटेल्स में बात करिए। मैं समझा, वह आपने रखी और मैंने पूरी बात सुन कर पूरी आपसे बात की।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मैं समझा, मैं समझा, तभी मुझे खयाल होगा, मेरा कोई संबंध नहीं है।
हां, आ गए हैं तो सुनाएं, थोड़ी देर सुन लिया जाए।
ब ब ब
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
नहीं, अनिश्चित नहीं है कमल। असल में दस साल का तो सवाल नहीं है, दस सेकेंड का भी सवाल नहीं है। कठिनाई है हमारी, हमने जो बैरियर्स बना रखे हैं उनकी।
नहीं, मेरी समझ में यह बात नहीं आई। अगर किसी का अनुभव हो गया इंसान को, तो फिर वह जान जाता है कि क्या उचित है।
हां-हां, बिलकुल ही। तब तो बहुत सुगम है, फिर दस साल का सवाल नहीं है, फिर तो सवाल नहीं है। वही होने में देर लगती है--पहला अनुभव होने में। पहला अनुभव हो जाने के बाद तो अत्यंत सरल बात है। पहला अनुभव ही...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
असल में दो तरह की उम्र हैं। एक तो जो हमें दिखाई पड़ रही है कि एक आदमी पचास साल का है, एक आदमी पंद्रह साल का है, एक तो यह उम्र। और एक वह उम्र है जो पीछे से आ रही है। और हो सकता है कि पंद्रह साल वाला ठीक उम्र पर हो कि उसके काम पड़ जाए बात और पचास साल वाला ठीक उम्र पर न हो, उसके काम न पड़े। तो यह जो बाहर से एज दिखाई पड़ रही है, इसका तो कोई मूल्य नहीं है। एक और एज है जो पीछे से आ रही है और बहुत लंबी है, और बच्चा बूढ़ा हो सकता है और बूढ़ा बच्चा हो सकता है। उस एज को ध्यान में रख कर ही ये सारी बातें हैं। और एक खास एज पर ही, उस एज पर पहुंच कर ही ये बातें काम की हैं और उपयोग की हैं।
उसको ही लगेंगी?
हां, उसको ही लगेंगी। इसलिए बेफिक्री से फेंकी जा सकती हैं। क्योंकि जो उस एज के बाहर है वह चुपचाप खाली हाथ लौट जाएगा। और सच बात तो यह है कि जो उस एज के बाहर है उसे अर्ज भी नहीं होगी, वह आएगा भी नहीं, एक दफा आ जाएगा तो फिर दोबारा नहीं आएगा। वह तो चोट ही वहीं होती है, जहां कोई चीज पक गई है और तैयार हो गई है। आप एक पत्थर फेंकें, वह पका फल जो है, छूते से ही गिर जाता है, कच्चा फल हिलता है और अपनी जगह रह जाता है, पत्थर वापस लौट आता है।
स्वामी जी, जिन तारों को छेड़ कर आप वापस चले जाएंगे। उन तारों का क्या होगा?
बहुत कुछ होगा, बहुत कुछ होगा।
क्योंकि मन बहुत कुछ और सुनने को चाहता है। आप और कुछ कहिए। जब थोड़ा सा मार्ग-दर्शन मिलता है तो और राहें खुलती हैं। और आप जहां भी हों बस वहीं से...।
मैं समझा, मैं समझा, आपकी बात समझा। और इसलिए कुछ भी छूटता नहीं। क्योंकि बहुत तरह की ग्रोथ है। हमने एक बीज को डाल दिया जमीन के भीतर, और चला गया डाल कर आदमी। और बीज सोचता होगा--अब मेरा क्या होगा? छोड़ कर तो चले गए। लेकिन इस बीच बीज फूटेगा, बढ़ेगा। वह जब पड़ा है जमीन में तब भी बढ़ रहा है। असल में कोई चीज भीतर हो, फिर वह बढ़ती है, उसकी अपनी ग्रोथ है। एक बार वहां हो, तो वह बढ़ने लगती है। और मेरी अपनी दृष्टि यह है कि जब भी उस बढ़ती हुई हालत को जरूरत होती है तो ठीक वक्त पर उसे सहायता मिल जाती है, उसे कहीं कभी बाधा नहीं पड़ती। यानी इतनी सहायताएं बह रही हैं हमारे चारों तरफ, चूंकि हम तैयार नहीं हैं इसलिए हम चूक जाते हैं। यानी हमारी तरफ न मालूम कितनी चेष्टाएं चल रही हैं, हमारे करीब से चल रही हैं, हमारे पड़ोस से चल रही हैं, हमारे निकट से वह आदमी गुजर रहा है, जब हमें जरूरत होगी तो फौरन काम पड़ जाएगा। लेकिन हमें चूंकि जरूरत नहीं है...।
देखें आप, हमारी जो जरूरत है, उसके अनुकूल हम अपने पास खींच लेते हैं, जरूरत खींच लेती है। अनुकूल आता नहीं। अब एक ही जमीन है, और उसमें आपने चमेली का पौधा लगाया हुआ है। चंपा का पौधा लगाया हुआ है, जमीन एक ही है और चंपा वह सुगंध खींच लेती है उसी जमीन से जो वह खींच सकती है और चमेली वह सुगंध खींच लेती है जो वह खींच सकती है। और जमीन एक है! हवा एक है! और सूरज एक है! दोनों की खींचने की जरूरतें अलग-अलग हैं। वे अलग फूल बन जाते हैं, वे अलग फूल खिल जाते हैं। ठीक जहां महात्मा खड़ा हो जाता है, वहीं उसके पास ही एक बुरा आदमी भी पैदा हो रहा है, और उसी जमीन से खींच रहा है वह अपनी ग्रोथ। यानी मेरा मानना यह है कि हमारे भीतर जो भी जरूरत है उसे पूरा करने के लिए परमात्मा निरंतर तैयार है। हमारी निकृष्टतम जरूरत को भी पूरा करने को तैयार है, तो हमारी श्रेष्ठतम का तो सवाल ही नहीं है। यानी हम बुरे से बुरे भी होने को तैयार हों तो परमात्मा कभी सहायता नहीं छोड़ता। बुरे से बुरे होने की हमारी तैयारी हो तो उसकी सहायता मौजूद है, वे रास्ते खुले हुए हैं सब।
एक और रास्ता यह है, मैंने कुरेली का "सारोज ऑफ सैटर्न' पढ़ा। इतना सुंदर कि सैटर्न बेचारे की ऐसी डयूटी रखी हुई है कि आदमी को नीचे गिराए। और कोई व्यक्ति उस सैटर्न के असर को नजरअंदाज करके अगर ऊपर पहुंचेगा तो बेचारा सैटर्न कहीं एक स्टेप ऊपर चढ़ पाएगा। आह! कितना अच्छा। सैटर्न की डयूटी है गिराना, मगर वास्तव में वह ऊपर उठना चाहता है। अगर उसके असर से हट कर आप ऊपर आए तो उस गरीब की कहीं प्रोग्रेस होगी।
तो ऐसे ही संस्कार कहिए, पिछले जन्म का असर कहिए या एक्सिडेंट कहिए। मैं यह भी समझता हूं कि भगवान ने जो हमें इस दुनिया में से निकाल कर एक छोटी सी फिल्म इंडस्ट्री के घेरे में रखा है। गुरुदेव, आप विश्वास कीजिए कि इतनी छोटी दुनिया में छोटे से समय में बहुत कुछ देखने को मिला है जो कि बड़ी दुनिया में नहीं मिल सकता है। बीस साल में चढ़े हुओं को गिरते देखा, गिर कर फिर चढ़ते हुए देखा है। और वे जो वैल्यूज हैं--पोज वैल्यूज कहिए--उनकी प्रशंसा होती देखी है और जो टैलेंट है उसकी बेकदरी होती देखी है, परवाह ही नहीं कोई। और फिर भी मैं भगवान का शुक्र करता हूं कि प्रभु शायद आपने इसीलिए इस लाइन में भेजा है। एक होता है, चलता है चक्कर।
समझा।
मगर आपका पहला ही लेक्चर जो मैंने सुना था, छह महीने पहले पोद्दार कालेज में, आपके उस लेक्चर ने मेरे इस फैटेलिज्म को तोड़ा था, वह मुझे नहीं भूलता। जब आपने भारत की वह स्थिति बताई थी कि एक जवान हैं, एक बूढ़े हैं। एक जो पीछे हैं, एक जो आगे हैं यानी उस रोज मैं कहूं भगवान ने आज कहां से भेजा इन्हें, मेरी इस फैटेलिज्म को तोड़ने के लिए! चुपचाप बैठा मैं सुन रहा हूं। और एक-एक जो आपने उपमा दी; वह जापान के उन वृक्षों की जिनकी जड़ें काटी जाती हैं, वे बढ़ नहीं पाते। मगर जड़ों को गुरुदेव, अगर हम नीचे समझें, जितना ऊपर है उतना ही नीचे होना चाहिए, तो मैं समझता हूं कि गिरे हुए आदमी के चांसेज ऊपर उठने--उतने ही ऊपर उठने--के ज्यादा हैं, जिस तरह कि बाल्मीकि।
बिलकुल ही, हमेशा! मीडियाकर आदमी के ऊपर उठने के कोई मौके नहीं हैं; जितना बीच का आदमी है, उसके कोई मौके नहीं हैं, क्योंकि उसमें नीचे जाने की क्षमता नहीं है। और क्षमता के लिए दिशा का सवाल नहीं है, क्षमता सिर्फ जाने की क्षमता होती है। आप पूरब जाते हैं कि पश्चिम जाते हैं, यह सवाल नहीं है। जाने की क्षमता होती है। वह आदमी नीचे की तरफ जाता है तो ताकत उसके पास नीचे की तरफ जाने की है। वह जिस दिन तय करता है ऊपर की तरफ जाने की, तो ऊपर की तरफ जाने की उसके पास ताकत है। और वह जो आदमी बीच में खड़ा है, जो न कभी नीचे गया, न कभी ऊपर गया, उसके पास कोई ताकत नहीं है। नहीं तो वह कहीं न कहीं गया होता; ताकत रुकती नहीं, जाती है। इसलिए मैं कहता हूं, बीच के आदमी से नीचे का आदमी हमेशा बेहतर है। क्योंकि नीचे के आदमी के पास कुछ ताकत है इसका सबूत है। वह कहीं गया है।
बुद्ध के जीवन में एक डाकू का उल्लेख आता है, अंगुलीमाल का।
हां, हमने उस पिक्चर में काम किया है। मैं अंगुलीमाल का बाप बना हूं।
वह अंगुलीमाल जो है, वह एक क्षण में बदल जाता है। उतनी ताकत का आदमी है।
ताकत जो है उसकी कोई दिशा नहीं है, दिशा हम देते हैं। एक अर्थ में बुरे होने की क्षमता सौभाग्य है, क्योंकि क्षमता तो है। बुरे हुए, यह गलती की है; और क्षमता है। और मजे की बात यह है कि बुरा होना हमेशा भले होने से कठिन है। यह आमतौर से ऐसा नहीं दिखाई पड़ता; लेकिन बुरा होना अच्छे होने से बहुत कठिन है, अत्यंत कठिन है।
अगर कांशसली बुरा हो तो।
कांशसली तो बहुत कठिन है और बहुत शक्ति मांगता है। क्योंकि प्राणों की पूरी आकांक्षा तो सदा ऊपर जाने की है और आप उसे नीचे ले जाते हैं, बड़ी ताकत लगती है। और जद्दोजहद दुनिया से तो है ही, अपने से भी है। बुरा आदमी दोहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी इकहरी लड़ाई लड़ता है। अच्छा आदमी सिर्फ आस-पास की दुनिया से लड़ता है। बुरा आदमी आस-पास की दुनिया से तो लड़ता ही है, अपने से भी लड़ता है और अपने से लड़ता है। नीचे जाने के लिए; और भीतर तो कोई निरंतर ऊपर उठना चाह रहा है। वह जो ऊपर उठने की चाह है, वह कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती। अब रह गई बात ताकत की।
इसलिए जो मीडियाकर हैं, जो बीच के हैं, वे हमेशा अभागे हैं और उनमें कोई बल नहीं है। वे अगर चोरी नहीं करते हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि वे चोरी नहीं करना चाहते हैं, उसका सौ में निन्यानबे मौके पर कारण यह है कि वे इतना बल नहीं जुटा पाते कि चोरी करें। और इसको वे समझते हैं कि कोई गुण है। यह कोई गुण नहीं हुआ। और चूंकि वे चोरी करने का ही बल नहीं जुटा पाते इसलिए कभी साधु होने का बल तो वे जुटा पाने वाले नहीं हैं।
और आप हैरान होंगे, साधु इसलिए हार रहे हैं दुनिया में कि सब मीडियाकर साधु बन गए हैं और सब ताकतवर लोग बुरे लोग हैं, इसलिए बुरे लोगों से साधु जीत नहीं पा रहे हैं। क्योंकि ताकतवर बुरा आदमी है और साधु बिलकुल बोगस है, वह मीडियाकर है। वह चोरी नहीं कर सकता था, वह दुकान में बेईमानी नहीं कर सकता था, इसलिए वह मंदिर में बैठ गया। मंदिर में बैठ जाना कोई पाजिटिव एक्ट नहीं है उसका, सिर्फ बचाव है, वह बच गया। और इसलिए ही साधु हार जाता है बुरे आदमी से। बुरा आदमी बहुत शक्तिशाली है। इसलिए हिटलर जीत जाते हैं, नेपोलियन जीत जाते हैं। उनकी दुनिया जीतती चली जाती है। और अच्छा आदमी बिलकुल इंपोटेंट साबित होता है। वह कहता रहता है, कहता रहता है, कोई सुनता नहीं। जब हिटलर और नेपोलियन जैसे ताकत के लोग अच्छे आदमी बनते हैं, तब दुनिया बदलती है, नहीं तो नहीं बदलती, उतनी ताकत चाहिए।
मगर वह बदलने के लिए भी कोई उनके जीवन में कहीं कुछ ऐसी हैपनिंग्स हो जाती हैं। वह आता है, मौके पर ही आता है।
हां, जरूर हैपनिंग्स हैं, बिलकुल ही हैपनिंग्स हैं। असल में आप अगर बुरे ही होते चले जाएं तो भी वह मौका आ जाएगा जहां से आप लौट पड़ेंगे। आप जाएं तो कहीं, हर चीज जाकर लौटती है, हर चीज की सीमा है। लेकिन जो सीमा तक नहीं जाते, वे कभी नहीं लौटते। इसलिए मैं कहता हूं कि अगर एक आदमी शराब पीता हो, तो मैं कहता हूं कि थोड़ा-बहुत मत पीते रहो, क्योंकि तुम कभी नहीं लौट सकोगे! शराब ही पीनी है तो फिर पी ही डालो और उस सीमा तक जो कि आखिरी तुम्हें मालूम पड़े। और निश्चित तुम वापस लौट आओगे। लौटने के लिए वर्तुल पूरा तो होना चाहिए। हां, हम कहीं से जाकर, किसी सीमा से जाकर लौट सकते हैं।
लौटने का एक वह भी तरीका है।
बीच से कभी कोई नहीं लौटता। और बीच से लौटा हुआ फिर वापस लौट सकता है। क्योंकि बीच से लौटा हमेशा अधूरे से लौटा, आधा अनुभव उसका बाकी रह गया है बुरे होने का अनुभव भी अगर पूरा हो जाए तो आदमी को अच्छे होने के सिवाय बचता क्या है! आप यह जान कर हैरान होंगे कि हम वही होने को कभी राजी नहीं हैं जो हम हैं, हम कुछ और होना चाहते हैं, निरंतर कुछ और होना चाहते हैं। और अच्छे का मतलब ही एक है--मेरी जो परिभाषा है अच्छे और बुरे की। मैं बुरे की परिभाषा उसे कहता हूं, वह स्थिति जिससे आप कभी राजी न हो सकें। आपको जिस स्थिति से निरंतर हटना ही पड़े, चाहे और बुरे में जाना पड़े; लेकिन जिससे आप राजी न हो सकें; जो सतत आपको भगाती रहे--कहीं और, कहीं और, कहीं और। और अच्छे को कहता हूं वह स्थिति जहां आप राजी हो सकें, जो भगाए न, और जो कहे--यहीं, यहीं, यहीं।
तो बुरे के साथ एक डायनामिज्म है, इसलिए बुरा कोई चिंतनीय नहीं है। बुरा चिंतनीय तब है--सिर्फ एक स्थिति में बुरा चिंतनीय है--कि उसके ऊपर लिबास अच्छे का हो और सेल्फ डिसेप्शन शुरू हो जाए। यानी वह खुद यह समझे कि मैं अच्छा हूं, और वह बुरा हो, तब खतरा शुरू होता है। नहीं तो कोई खतरा नहीं है। एक बुरे, सीधे निपट बुरे आदमी से कोई हर्जा नहीं है। और यह आदमी वापस लौट आएगा। यह खालिस आदमी है। यह बुरे से राजी नहीं हो सकेगा, वापस आना पड़ेगा, कनवर्शन होगा।
लेकिन अगर यह ऐसा आदमी है, जो है बुरा और अपने को अच्छा समझता है, तो कनवर्शन में बहुत वक्त लग जाएगा, जन्म भी लग सकते हैं। क्योंकि इसने एक ऐसा धोखा खड़ा कर लिया जिसमें असली स्थिति मुश्किल में पड़ गई है। यह है बुरा, जिसे बदलना चाहिए था; और यह मानता है अच्छा, और अच्छा बदलना चाहता नहीं। अब यह एक जिच में पड़ गया; जैसा है वह बदलना चाहिए और जैसा मानता है वह बिना बदले रहना चाहे।
इसलिए कई बार जो ऊपर से दिखाई पड़ता है कि यह फलां आदमी है बुरी स्थिति में और फलां आदमी है अच्छी स्थिति में। अक्सर उलटा होता है। आत्मवंचना की स्थिति में जो लोग हैं वे सबसे बुरी स्थिति में हैं। जो जानते हैं कि हम बुरे हैं, पहचानते हैं कि हम बुरे हैं, और किसी तरह के धोखे में नहीं हैं, उनकी स्थिति बड़ी अदभुत है, इनका लौटना आने के करीब हैं, ये लौट आएंगे। और ये उतनी ही गति से लौटेंगे जितनी गति से गए हैं, इनकी जड़ें जितनी नीची गई हैं उतना ही ऊपर इनका शिखर पहुंच जाने वाला है।
और यह भी मजे की बात है कि जो लोग नीचे कभी भी नहीं गए हैं, एक अर्थ में उनका जीवन अधूरा होगा, उसमें जिसको रिचनेस कहें, वह नहीं होगी।
गुरुदेव, ऐसा भी हुआ है कि जो बच्चे गुरुकुल में भेजे गए, गुरुकुल से पास होने के बाद ऐसा उलटा फेरा मारा उन्होंने कि जितनी वे शक्तियों में बड़े हुए हैं, उसके बिलकुल ही विपरीत वे जाते हैं।
हां, हां, अक्सर ही।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
एक समृद्धि है अनुभव की, वह सस्ते ढंग से अच्छे बन गए आदमी में नहीं होती; हो ही नहीं सकती। जो बुरे के बहुत गहरे अनुभव से गुजरा है, उसी के अनुभव में रिचनेस होती है। और वही आदमी जो बहुत बुरे से गुजरा है, भले के रस को और स्वाद को भी उपलब्ध होता है।
इसलिए जीवन की व्यवस्था इस दृष्टि से बड़ी अर्थपूर्ण है। यहां अंधेरे से भी गुजरना इसीलिए है कि प्रकाश दिखाई पड़ सके; और यहां बुरे से भी गुजरना इसीलिए है कि किसी दिन भले का स्वाद आ सके; और यहां पदार्थ की यह लंबी यात्रा भी इसीलिए है कि परमात्मा का अनुभव हो सके।
ये दिखाई पड़ने वाली उलटी चीजें, उलटी बिलकुल नहीं हैं, किसी एक तीसरी इकाई को दोनों तरफ से समृद्ध करती हैं। जैसे काले तख्ते पर कोई सफेद लकीर से लिखता है। अब सफेद तख्ते पर सफेद लकीर से भी लिखे तो हर्ज नहीं है। लिख तो जाएगा, पढ़ा नहीं जा सकेगा। और जो लिखा हुआ पढ़ा न जा सके, उसके लिखे होने का मतलब क्या है? लिखते हैं हम काले पर, और लिखते हैं सफेद से। वह काले पर उभर कर दिखता है।
तो इसीलिए बुरे का भी जीवन की व्यवस्था में उतना ही अर्थ और प्रयोजन है जितना भले का; अशुभ का भी उतना ही महत्वपूर्ण अर्थ और प्रयोजन है जितना शुभ का। रावण व्यर्थ नहीं है, निष्प्रयोजन भी नहीं है। और रावण के बिना राम का कोई अर्थ भी नहीं है। और इसीलिए जो जानते हैं वे राम का गुणगान न करेंगे और रावण की निंदा न करेंगे। वे कहेंगे, राम और रावण एक ही कथा के दो हिस्से हैं, जिनके दोनों के बिना कथा होती नहीं, बनती नहीं। और मजा यह है कि राम को जो भी निखार मिल रहा है वह रावण के वजह से।
जैनों की कथाओं में रावण को भविष्य का तीर्थंकर कहा है। यह कथा बड़ी अर्थपूर्ण है, कि होने वाले भविष्य का तीर्थंकर। क्यों? क्योंकि वह बुरे की अंतिम सीमा तक पहुंच गया, अब भले का वर्तन शुरू होगा। फ्यूचर तीर्थंकर है वह! क्योंकि बुरे को जहां तक छुआ जा सकता है, छू लिया गया। अब लौटना शुरू होगा। काला तख्ता तैयार हो गया, अब सफेद से लिखा जाएगा।
इसलिए अगर कोई बहुत गौर से देखे तो कोई राम पहले है, कोई रावण थोड़ी देर बाद फिर राम है। समय का अंतराल है, स्थिति का अंतराल नहीं है। और इस अनंत समय में समय के अंतराल का मतलब क्या है कि दो दिन पहले कि दो दिन बाद! इस अनंत समय में अर्थ क्या है कि आप दो दिन पहले पहुंचते हैं, मैं दो दिन बाद पहुंचता हूं! यह नासमझी है।
बुद्ध अपने पिछले जन्म में, जब बुद्ध नहीं थे, एक बुद्ध पुरुष के पास गए। दीपंकर नाम का एक बुद्ध पुरुष था, उसका दर्शन करने गए। तो उसके पैर छुए। दीपंकर खूब हंसने लगा। और पास भिक्षु इकट्ठे थे, वे पूछने लगे, क्यों हंसते हैं? तभी वह दीपंकर झुका और बुद्ध के चरण छुए।
तो बुद्ध तो बहुत घबरा गए! उन्होंने कहा, आप यह क्या करते हैं? मैं छुऊं आपके पैर, सो ठीक है। आप मेरे छुएंगे, यह क्या करते हैं?
तो दीपंकर ने कहा कि तुझे समय का पता नहीं। आज मैं बुद्ध हूं, कल तू हो जाएगा। और जो पूरे समय की धारा को जानते हैं वहां आगे और पीछे का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि धारा अनंत है। धारा अगर सीमित हो तो आगे और पीछे होता है कोई। अगर न धारा का यहां कोई छोर है, न वहां कोई छोर है, तो कौन है आगे, कौन है पीछे? आज तू अज्ञानी है, कल तू ज्ञानी हो जाएगा, होना ही पड़ेगा; कोई अज्ञानी कभी भी ज्ञानी बने बिना कैसे रुक सकता है? वह जो अज्ञान की जो यात्रा चल रही है, वह ज्ञान की ही यात्रा का प्राथमिक चरण है।
बुरे की जो यात्रा चल रही है, वह भले का ही प्राथमिक चरण है। और इसलिए खतरा जो है वह बुरे की यात्रा पर जाने वाले के लिए नहीं है। खतरा जो है वह उन मीडियाकर्स के लिए है जो जाते बुरे की यात्रा पर हैं--जा भी नहीं पाते, क्योंकि हिम्मत नहीं जुटा पाते--जाते बुरे की यात्रा पर हैं, आकांक्षा भले की किए जाते हैं। तब जिच पैदा हो जाती है। जाते बुरे की यात्रा पर हैं, होते बुरे हैं, और मान बैठते हैं भला। तब मुश्किल खड़ी हो जाती है, तब दोहरा रोल हो जाता है।
इकहरा रोल बना रहे। रावण जाने कि रावण होना है। अब ठीक है, रावण हूं। और जरा भी फिकर न करे राम-वाम की! क्या जरूरत है राम की फिकर होने की! अगर राम निकलने हैं तो रावण होने से ही निकलेंगे। और नहीं निकलने हैं तो बेमानी बात है, कोई होगा राम तो होगा, उससे मुझे क्या लेना-देना है! मैं जो हो सकता हूं वह मुझे होना है। और अगर इतना बल और हिम्मत हम हर व्यक्ति को दे सकें कि जो उसे होना है वही उसे होना है, कोई की नकल नहीं, कोई की कापी नहीं, किसी का अनुकरण नहीं। बुरा होना है, तो बुरा होना है वह भी आथेंटिक है। बुरे होने में भी एक आथेंटिसिटी है न! भला ही तो आथेंटिक नहीं होता, बुरा भी आथेंटिक होता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, यह अलग ही बात है, बुरे होने की आथेंटिसिटी, कि अगर मैं झूठ बोलता हूं तो फिर मैं सच बोलूंगा ही नहीं। आथेंटिक झूठ बोलने वाले का मतलब यह होता है कि यह कस्त रहा कि अब सच मुझसे नहीं होगा। और सच बोलूंगा तो इसको बेईमानी समझूंगा, मतलब मैं झूठ बोलने वाला हूं।
एक फकीर हुआ मुल्ला नसरुद्दीन। जिस गांव में वह था, उस गांव के सम्राट को यह खयाल पैदा हुआ कि राज्य में झूठ बोलना बंद करवा दूं! तो मुल्ला को बुलाया, क्योंकि वह ज्ञानी था। गांव के लोगों ने कहा, मुल्ला से पहले पूछो! क्योंकि ऐसा कभी सुना नहीं कि झूठ बंद हो गया हो। और कानून से कभी झूठ बंद हुआ हो, ऐसा कभी सुना नहीं। और ऐसा कभी जाना नहीं जगत में कि ऐसा कोई वक्त आया हो एक क्षण को भी कि झूठ न रहा हो। फिर भी मुल्ला से पूछो!
वह मुल्ला आया। और सम्राट ने कहा, मैंने तो तय किया है कि झूठ को उखाड़ फेंकूंगा! और साधारण तय नहीं किया है, झूठ बोला कोई आदमी कि पकड़ा और मैंने उसको फांसी पर लटकाया--उसी वक्त। कुछ निर्दोष भी मरेंगे, मुझे फिकर नहीं है। लेकिन रोज झूठ बोलने वाले दरवाजे पर लटके हुए मिलेंगे। और कल सुबह से तारीख शुरू होती है नये वर्ष की, कल सुबह ही दरवाजे पर खोजबीन की जाएगी कि कोई झूठ बोलता फंस जाए तो वहीं उसे लटका देना है। तुम क्या कहते हो मुल्ला? इसको रोक दें झूठ बोलने को? मुल्ला ने कहा, कल दरवाजे पर मिलेंगे। राजा ने कहा, हम यह पूछते हैं तुमसे! उसने कहा, कल दरवाजे पर मिलेंगे मैं पहला आदमी रहूंगा। दरवाजे पर, आप पहले ही मौजूद हो जाएं। दरवाजा खुलेगा और मैं भीतर प्रविष्ट हो जाऊंगा। पर सम्राट ने कहा, तुम्हारा मतलब क्या है? उसने कहा, वह दरवाजे पर ही बात करेंगे।
सुबह दरवाजे पर सम्राट खड़ा है। दरवाजा खुला, मुल्ला अंदर घुसा, अपने गधे पर सवार है। सम्राट ने पूछा, मुल्ला, कहां से चले आ रहे हो, कहां जा रहे हो? मुल्ला ने कहा, फांसी पर जा रहा हूं। सम्राट ने कहा, क्या मतलब? मुल्ला ने कहा, फांसी पर लटकने को जा रहा हूं। सम्राट ने कहा, सरासर झूठ बोल रहे हो, फांसी पर लटकवा देंगे! मुल्ला ने कहा, तो लटकवा दो, वही हम कह रहे हैं कि हम फांसी पर लटकने जा रहे हैं। और अगर तुमने लटकाया, तो हम जो बोलते थे वह सच हो जाएगा; अगर तुमने नहीं लटकाया, तो झूठ बच कर निकला जा रहा है। क्या करते हो? झूठ जाता है अब। राजा ने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल में डाल दिया। तो मुल्ला ने कहा, छोड़ो तुम यह बकवास। यह तय करना ही मुश्किल है कि क्या सच है और क्या झूठ है। तो कौन फैसला करे? दूसरा तो तय कर ही नहीं सकता, उस मुल्ला ने कहा, खुद ही आदमी तय कर ले तो काफी है।
और आदमी अगर तय कर ले और आथेंटिक हो--झूठ पर हो जाए तो कोई फिकर नहीं--और मैं मानता हूं कि उसकी आत्मा पैदा हो जाएगी, अगर झूठ पर भी आथेंटिक हो जाए। आथेंटिसिटी, प्रामाणिकता लाती है बल। गति लाती है। और एक आदमी एक दिशा में चला जाए पूरी तरह, तो यह मेरा कहना है कि बुरे का मतलब यह है कि जिस पर आप ठहर नहीं सकते, ठहर ही नहीं सकते। वह ऐसा जैसे जलते तवे पर कोई खड़ा हो जाए। वह ठहर ही नहीं सकता बुरे पर, उसे बुरे को तो छोड़ना ही पड़ेगा, छोड़ना ही पड़ेगा। वह और बुरे को पकड़ता जाए और छोड़ता चला जाए, अंततः उसे बुरे को छोड़ना पड़ेगा। और इस बुरे की यात्रा से गुजर कर जिस दिन वह भले की तरफ आना शुरू होगा उस दिन जो उसकी समृद्धि होगी अनुभव की, वह जो बुरे की रेखा खिंच गई है उस पर जो सफेद की लिखावट आएगी, वह चमक और है।
और इसलिए वह बोथले साधुओं में कभी नहीं होती, जिन्होंने बुरे को नहीं जाना और जो किताब पढ़ कर भले हो गए हैं उनमें कभी कोई चमक नहीं होती, चमक हो ही नहीं सकती। वह चमक बुरे के अनुभव से आती है। वह भले की लिखावट से आती है, लेकिन आती बुरे के अनुभव से है। और यही कठिनाई है कि बेईमान दुनिया, में बुरा आदमी दुनिया में ज्यादा चमकदार है। और साधु बिलकुल बोथले, बोगस। क्योंकि साधु मीडियाकर है। जो बुरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया वह साधु दिखाई पड़ रहा है। और जो बुरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया उससे भला तो कभी हो सकता नहीं, बस वह खड़ा रह सकता है कि बुरा नहीं करता। तो उसकी निगेटिव एक स्थिति है कि वह बुरा नहीं करता, वह चोरी नहीं करता, झूठ नहीं बोलता।
एक फकीर था गुरजिएफ। तो लोग उसके पास आते, साधु आते, फकीर आते, और वह पूछता कि तुम करते क्या हो? तो एक बहुत बड़ा साधु उससे मिलने आया है और वह उससे पूछता है, तुम करते क्या हो? वह कहता है, मैं झूठ नहीं बोलता। उसने कहा, मैं समझा कि तुम झूठ नहीं बोलते, लेकिन यह न करना हुआ। यह न करना हुआ! मैं पूछता हूं, तुम करते क्या हो? वह कहता है, मैं मांसाहार नहीं करता, मैं हिंसा नहीं करता। यह तो न करना हुआ, मैं पूछता हूं तुम करते क्या हो? उसने कहा, मैं चोरी नहीं करता, किसी को दुख नहीं पहुंचाता। तो गुरजिएफ कहता है, इस आदमी को बाहर कर दो यहां से! यह आदमी कहता है कि हम यह नहीं करते, यह नहीं करते। सवाल यह है ही नहीं कि तुम क्या नहीं करते हो। क्योंकि न करने से कहीं कोई आत्मा पैदा हुई है। तुम करते क्या हो? इससे तो बेहतर है कि तुम चोरी करो, क्योंकि वह करना तो होगा। गुरजिएफ उससे कहता है, तू चोरी कर! करना तो होगा, एक्शन तो होगा, उससे बीइंग तो पैदा होगी।
मैं तो ऐसा सोचता हूं।
मगर क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्या इंसान खुद ही जज करेगा?
इसके सिवाय कोई और मार्ग नहीं है। और जज करने की कोई बहुत कठिनाई नहीं है। एक तो यह बात कि जिस पर आप ठहर न सकें। क्योंकि बच्चे से ज्यादा बच्चे हो तुम। शरीर की एक उम्र होती है और आत्मा की उम्र उनकी बिलकुल भी नहीं होती। और तब वे बच्चों जैसे काम करते रहते हैं। अब एक बूढ़ा आदमी रुपये इकट्ठे कर रहा है। इसको बच्चा समझिए, क्योंकि यह काम बच्चे जैसा कर रहा है। यह काम बिलकुल बच्चों जैसा कर रहा है।
यह कर क्या रहा है? इधर मौत सामने खड़ी है और वह आदमी तिजोरी पर ताले लगा रहा है। अब यह बिलकुल बच्चा है, इसकी कोई स्प्रिचुअल एज नहीं है किसी तरह की। यह गुड्डा-गुड्डियों से खेलने वाला है। वह दूसरे तरह के गुड्डा-गुड्डियों से खेल रहा है। अब छोटे बच्चे हैं वे गुड्डा-गुड्डियों से खेल रहे हैं। और एक आदमी बड़ा है और रामचंद्र जी की बारात लिए चला जा रहा है! सब गुड्डा-गुड्डी रखे हुए है और जुलूस निकाल रहा है और शोरगुल मचा रहा है। अब यह बच्चा है। इसकी बुद्धि गुड्डा-गुड्डियों से ज्यादा आगे नहीं गई। इसने गुड्डा-गुड्डी दूसरे बनाए, अच्छे नाम रखे हैं, बड़े नाम रखे हैं। लेकिन इसकी अकल बहुत नहीं है, इसकी मेंटल एज नहीं है कोई।
और तब कई दफा...इसलिए कई तरह की उम्रें हमारे भीतर हैं, कई तरह की उम्रें हमारे भीतर हैं। और मेरी तो तलाश और मेरी तो अपील उस उम्र से है, वह जो भीतरी है। और यह जो आप पूछते थे कि बुरे को पहचानें कैसे? तो दो बातें हैं। एक तो जिस पर आप रुक न सकें, जिस जगह पर कभी भी खड़े न हो सकें, उस जगह को बुरी मानें। यानी मेरा कहना यह है, जो भला है, जो आनंदपूर्ण है, वहां रुकने का मन होता है; वहां मन होता है कि यहां ठहरें, यहीं ठहर जाएं; वहां मालूम होता है कि विराम, विश्राम; वहां मालूम होता है कि आ गई जगह। बुरी जगह का मतलब यह है कि आप वहां पहुंच तो जाते हैं, लेकिन पहुंचते से ही मन कहता है कि चलो, आगे चलो। एक आदमी दस लाख रुपये इकट्ठे करता है और मन कहता है कि और करो, और करो, और करो। वह करता चला जाता है और मन कहता है, और करो।
एक सूफी फकीर था इजिप्त में जुन्नून। और जो सम्राट था इजिप्त का वह उसके पास कभी-कभी आता था। बहुत दिन से फकीर नहीं आया था राजधानी में, तो सम्राट खुद ही बिना खबर किए उसके झोपड़े पर गया। उसकी औरत बैठी है, बगिया में काम कर रही है, फकीर कहीं पीछे काम करने गया है खेत पर। उसने सम्राट को आया देख कर उससे कहा कि आप बैठें, मैं उसे बुला लाती हूं। वहीं जहां मेड़ पर, जहां वृक्ष पर वह काम कर रही थी, उसने कहा, आप बैठ जाएं। तो सम्राट कहने लगा, मैं यहां टहलता हूं, तू बुला ला। उसकी औरत ने कहा कि कब तक आप टहलते रहेंगे, देर लगेगी, दूर वह है, चलें आप अंदर झोपड़े में बैठ जाएं। उसने सोचा: शायद मेड़ पर बैठना सम्राट को ठीक नहीं पड़ेगा। उसे भीतर ले गई। उसने चटाई डाल दी और कहा, आप इस पर बैठ जाएं। सम्राट फिर वहीं टहलने लगा दहलान में। उसने कहा, तू बुला ला, मैं यहीं टहलता हूं।
औरत को गुस्सा आया। उसने अपने पति को लौटते वक्त रास्ते में कहा कि कैसा आदमी है यह सम्राट! उससे मैंने दो-चार बार कहा, बैठ जाओ! दरख्त के नीचे कहा, वहां नहीं बैठा। अंदर लाई, दरी बिछा दी, वहां नहीं बैठता। कैसा आदमी है!
फकीर कहने लगा, तू नहीं जानती, सम्राट है वह, सिंहासन से नीचे नहीं बैठेगा। सिंहासन पर बिठाएगी, फौरन बैठ जाएगा। तो जहां बैठने को तूने जो जगह बताईं, वहां नहीं बैठेगा। और उस औरत से वह कहने लगा, तू यह भी ध्यान रखना, आदमी का मन भी ऐसा ही है। सम्राट है, जब तक सिंहासन न मिल जाए नहीं बैठेगा। तुम बताओ--इस पर बैठ जाओ! वह जाएगा और कहेगा कि नहीं बैठते, और कुछ चाहिए, और कुछ चाहिए, और कुछ चाहिए।
बुरा मैं उसे कहता हूं, जहां मन कहे कि और आगे। भला मैं उसे कहता हूं, जहां मन कहे कि बस यहीं। यानी माइंड की जो, जो-जो हम कर रहे हैं, जिस चीज पर मन कहता है कि बस यहां मिल गई मंजिल, यहां! मन कहे रुको यहां। ऐसे क्षण हैं जिनमें आप मर जाना चाहें, कहें कि बस। ऐसे क्षण हैं जिनमें आप मर जाना चाहें, कि कहें बस! अब और क्या? जाना, और इतना ऊंचा जाना कि बस यहीं! और ऐसे क्षण हैं जिनमें आप अनंतकाल तक भागते रहें और ठहरना न चाहें। तो एक तो मैं पहचान कहता हूं कि जहां मन ठहरना न चाहे, जहां मन कहे कि चलो, और पहुंचते ही से कहे कि फिर चलो।
दूसरी बात यह है कि आमतौर से कहा जाता है, बुरा वह है जो दूसरे को दुख दे। मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हूं, दूसरे के दुख का तो आपको पता ही नहीं चल सकता। बुरा वह है जो आपको दुख दे। और ऐसा नहीं कि अगले जन्म में दे। इसको मैं बेईमानी का हिसाब कहता हूं। क्योंकि अगले जन्म में कैसे हो सकता है? अभी आग में हाथ डालूंगा तो अभी जल जाऊंगा; अगले जन्म में थोड़े ही जलूंगा। बुरा वह है जो अभी इसी वक्त दुख दे। और बुरा बहुत दुख देता है। और भला वह है जो इसी वक्त सुख दे, नगद, आगे नहीं। और भला बहुत सुख देता है। इतना छोटा सा भला कि कोई बच्चा रास्ते में गिर पड़ा और आपने उठा कर उसे किनारे खड़ा कर दिया, और अपने रास्ते पर चले गए हैं आप--और किस ऊंचाई पर पहुंच गए हैं, कैसी छलांग लग गई है! और एक बीमार है और आपने एक फूल तोड़ कर उसके हाथ में दे दिया, और आप लौट पड़े--आप दूसरे आदमी हैं! जो फूल देने गया था वह नहीं है अब, वह दूसरा ही सम्राट लौट रहा है।
और एक छोटा सा एक्ट जिसमें कोई मतलब नहीं है। कई बार आप सिर्फ मुस्कुरा दिए हैं एक आदमी को देख कर, और आप कुछ और हो गए हैं। और आप जरा जोर से किसी पर आंख करके देखें, और एक गाली देकर देखें, और एक चोट करके देखें, और आप पाएंगे कि आप नीचे ऐसे गिर गए हैं जैसे कोई पहाड़ से गिरा दिए गए हों। दूसरे का सवाल ही नहीं है। यह भी हो सकता है, आप ऐसा बुरा करें जिससे दूसरे को फायदा हो जाए। लेकिन ऐसा बुरा आप नहीं कर सकते, जिससे आपको फायदा हो जाए। क्योंकि दूसरा बहुत दूर है आपसे, बहुत फासले पर है।
तो दो बातें मैं मानता हूं बुरे की डेफिनीशन में: एक तो जहां आप ठहर न सकें, मन कहे, चलो, बस चलो; और दूसरा, जहां मन दुख पाए। अगर इन दो बातों की थोड़ी जांच चलती रहे तो बहुत कठिनाई नहीं है कि हम पहचान लें कि कहां बुरा है। और इससे ठीक उलटा भला है, जहां मन रुकने का होने लगे कि यहां ठहर जाओ, अब कहां और खोजना है!
कभी-कभी मन धोखा देता है, कहता है कि यहां ठहर जाओ। गलत चीज पर भी ठहरना चाहता है और ठहर जाता है। कहता है कि यह सुख है।
हां-हां, मन कहेगा, मन बिलकुल कहेगा। मन बिलकुल कहेगा, लेकिन जब तक नहीं मिला तभी तक। वही मैं दुख की परिभाषा कर रहा हूं, वही बुरे की परिभाषा कर रहा हूं। मन कहेगा कि यहां सुख है, जहां नहीं मिला है। जैसे ही मिला और मन कहेगा, मामला खत्म हुआ, आगे चलो। मन कहेगा, यह औरत मिल जाए तो बहुत सुख होगा। लेकिन मिली नहीं है औरत। यह मिल जाए, और मिलते ही से मन कहेगा, वह जो पड़ोस में दूसरी औरत है, वह मिल जाए।
बायरन की शादी हुई। बायरन ने कोई साठ औरतों से प्रेम किया और शादी नहीं की। और आखिरी एक औरत ने उसको मजबूर कर दिया शादी के लिए, तो उसे शादी करनी पड़ी। पर आदमी बहुत, जिसको मैं आथेंटिक बुरा आदमी कहता हूं, उन लोगों में से था, जिसके बुरे होने में भी एक गौरव है, एक शान है। अच्छे आदमी होते हैं कई ऐसे बोगस और लीच, कि गोबर-गणेश, उनमें कुछ अच्छा नहीं होता। और कभी बुरा आदमी इतना शानदार होता है कि उसकी चमक खुशी भर देती है।
बायरन उन बढ़िया बुरे लोगों में से था। वह उस औरत का हाथ पकड़ कर चर्च से नीचे उतर रहा है। घंटियां बज रही हैं अभी चर्च की, शादी हुई है, और वह सीढ़ियां उतर रहा है, मेहमान विदा हो रहे हैं। और सड़क पर एक औरत एक आदमी का हाथ पकड़े जा रही है। और बायरन अपनी औरत से बोला, बस। उसकी औरत ने कहा, क्या हुआ? उसने कहा, सब खत्म! उसने कहा, मतलब तुम्हारा? गाड़ी में आकर औरत को बिठाया और उसने कहा, मैं तुमसे कहता हूं, एक क्षण को तुम नहीं थीं, वह औरत सब हो गई। और कल तक मैं सोच रहा था कि तुम मिल जाओगी तो क्या होगा, कितनी खुशी होगी! और अभी चर्च से विदा हो रहा हूं शादी करके, सीढ़ियां नहीं उतरा हूं, अभी घर नहीं पहुंचा हूं, लेकिन तुम मेरी मुट्ठी में हो और बेकार हो गईं! हाथ तुम्हारा मेरे हाथ में है और बेकार हो गया! अब तुम मेरी हो और बात बेकार हो गई!
मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न?
पा लिया!
पा लिया, मामला खत्म हो गया।
तो मन तब तक कहेगा जरूर जब तक नहीं पा लिया है कि यह पा लो तो बहुत सुख है। और पाते से ही मन कहेगा कि वहां है सुख! और मन हमेशा कहेगा, जहां आप नहीं हो वहां है सुख। यही तो मैं कह रहा हूं, यही तो उसकी दौड़ है। और जहां आप पहुंचे वहीं वह कहेगा, यहां क्या रखा हुआ है? बेकार आ गए, मेहनत हो गई, और आगे बढ़ो, यहां कुछ भी नहीं था। भूल हो गई, चूक हो गई।
लेकिन मन धोखा कभी नहीं देता। यह धोखा नहीं है, यह तो सीधा-साफ मामला है। यह इसमें धोखा क्या है? इसमें धोखा कुछ नहीं है। मन यह कहता है कि यहां सुख नहीं है। वहां हो सकता है, क्योंकि वहां हम नहीं हैं। वहां चलो तो पता चलेगा।
अपना अनुभव चाहिए।
हां! और अनुभव का मतलब यह है कि जब आप हजार जगह से गुजर चुके और आपने हर जगह पाया कि जहां पहुंचे, पहुंचने के पहले लगा कि सुख है, पहुंचते ही से लगा कि सुख नहीं है, लगा कि दुख है। और जैसे ही पहुंचे कि मन ने कहा, आगे बढ़ो; कुछ भी नहीं है यहां।
मजबूरियां हैं कि आप नहीं बढ़ पाते तो बहुत दुख होता है। मजबूरियां हैं सिर्फ जिनसे आप नहीं बढ़ पाते। नहीं तो मन तो रोज बढ़ाए।
अभी आप कहते हैं कि आठ तलाक करो। आठ तलाक से काम नहीं चलेगा। एक जिंदगी में; एक जिंदगी तो बहुत बड़ी है, आठ तलाक से काम नहीं चलेगा; अगर तलाक को बिलकुल ही नियमित कर दो--मन के अनुसार--तो रोज भी एक हो सकता है। और वह भी कम पड़ सकता है। कम पड़ सकता है, क्योंकि सवाल यह नहीं है, सवाल यह नहीं है कि कितना! मजबूरियां हैं बहुत तरह की जिनकी वजह से आप रुकते हैं और दुख झेलते हैं।
मैं यह कहता हूं, मन जहां से कहता है, भागो-भागो, और आगे, और आगे, और जहां-जहां पहुंचते हैं वहीं-वहीं दुख देता है, वहां बुरा है। और जहां मन कहता है, यहां, वहां नहीं। वह देर तो ठीक है, यहां! यहां आनंद है, जहां मैं हूं! तब क्या धोखे की बात है? वहां धोखा हो सकता है, क्योंकि वहां मैं नहीं हूं, जब पहुंचूंगा तब पता चलेगा। यहां! इस वक्त!
अगर यह हमें साफ होने लगे डिस्टिंक्शन तो इतना...बारीक है, लेकिन अगर थोड़ा हम प्रयोग करते रहें और दिन के चौबीस घंटे में जांच-पड़ताल थोड़ी सी भीतर जारी रखें कि यह जो मैंने एक्ट किया, यह मुझे सुख दिया या दुख दिया। मैं यह जो पहुंचा जिस जगह मन की, यहां मैं रुकना चाहता था कि हट जाना चाहता था। ऐसी एक छोटी परख चलती रहे, तो आपको दो-चार महीने में इतना साफ दिखाई पड़ेगा, इतना साफ कि घटना घटेगी और आप जानते हैं कि बुरी घट रही है कि भली घट रही है। यह अवेयरनेस आ जाए तो जिंदगी बदल जाती है।
मैं यह नहीं कहता कि बुरे को छोड़ो, मैं यह कहता ही नहीं। मैं यह कहता नहीं कि अच्छे को करो, यह मैं कहता ही नहीं। मैं यह कहता हूं कि तुम सिर्फ पहचानो कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। और बुरा छूटने लगेगा और अच्छा होने लगेगा। तो वह छोड़ने-वोड़ने का सवाल नहीं है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
रूप को तो बचाना बहुत आसान है। उसकी आत्मा को चलाना बहुत मुश्किल है। रूप को तो बचाना बिलकुल आसान है कि ब्रह्मचारी चोटियां बढ़ाए हुए बैठ जाएं, चद्दर-वद्दर लपेट लें, उसी ढंग से रहें, यह सब हो सकता है। लेकिन आत्मा को बचाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि असल में कालात्मा बदल गई, टाइम स्पीड बदल गई, टाइम स्पीड बदल गई। और ध्यान रखिए चमन भाई, अगर उस पुरानी आत्मा को बचाना हो, तो रूप को बिलकुल नहीं बचाया जा सकता, तो ही आप उस आत्मा को बचा सकते हैं। अगर उस आत्मा को बचाना है तो बिलकुल ही नये रूप में बच सकती है वह। और मुश्किल यही हो गई है कि परंपरावादी जो चित्त है वह पुराने रूप पर उसका आग्रह भारी है, भारी आग्रह है उसका। वह मेकअप है पूरा का पूरा, उसका कोई मूल्य नहीं है।
तो उसको तोड़ने की वैज्ञानिक प्रक्रिया क्या हो सकती है?
हां, हमारा तो धंधा ही यही है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
कई बार ऐसा होता है कि पुराने रूप को पहचानना तो बिलकुल सरल है, क्योंकि अंधा भी पहचान सकता है, और इसलिए हम रूप को बचा लेते हैं। और रूप को बचाने में ही आत्मा मर जाती है।
डिसेप्शन हो जाता है।
हां, डिसेप्शन पूरा हो जाता है। क्योंकि रूप बिलकुल जड़ चीज है, उसे बचा लेने में कोई कठिनाई नहीं है। बिलकुल जड़ है, उसमें कोई कठिनाई नहीं है। मगर जो आत्मा थी वह बहुत लिक्विड है, बहुत तरल है। उसको आप जैसे ही ठोंक-पीट कर बांधे कि वह गई। उसको हर युग में अपना नया रूप लेना पड़ता है, हर युग में नया रूप लेना पड़ता है।
नये रूप की तो कोशिश हुई, मगर...हां, गांधी ने एक ओर मेहनत की थोड़ी सी, मगर वही पुराना ढंग पकड़ कर। पैंतीस साल में यह हालत फिर आ गई।
नहीं, कुछ नहीं किया, कुछ किया ही नहीं, कुछ नहीं किया।
अब आप कीजिए।
हां, मैं कर रहा हूं न!
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मजा यह है कि मनुष्य का स्वभाव जैसी कोई चीज ही नहीं है। आप जैसा बनाते हैं वैसा बन जाता है। मनुष्य-स्वभाव जैसी चीज ही नहीं है, एब्सोल्यूटली नहीं है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
न, न, न, सब कुछ आता है। लेकिन मनुष्य-स्वभाव जैसा कुछ भी नहीं है। यही तो फ्रीडम है मनुष्य की; वह जैसा बनाना चाहे वैसा बना सकता है। और जो हमको दिखता है मनुष्य-स्वभाव, वह मनुष्य-स्वभाव नहीं है; वह लंबे संस्कारों का परिणाम है केवल। इसीलिए तो आप दुनिया में पच्चीस तरह के मनुष्य देखते हैं।
मनुष्य-स्वभाव जैसी कोई चीज नहीं है। आप मेरा मतलब समझे न? मेरा मतलब यह है--जैसे कुत्ते का एक स्वभाव है, बिल्ली का एक स्वभाव है, इस अर्थ में मनुष्य का कोई स्वभाव नहीं है। और यही फर्क पड़ गया है एवोल्यूशन में कि पहली दफा एक ऐसा प्राणी पैदा हुआ है जिसका कोई ठोस स्वभाव नहीं है और वह जैसा होना चाहे वैसा हो सकता है।
जैसे हम, एक उदाहरण के लिए, किसी कुत्ते को हम यह नहीं कह सकते कि तुम आधे कुत्ते हो। लेकिन एक आदमी को हम कह सकते हैं कि तुम बिलकुल अधूरे आदमी हो। आप कुत्ते को क्यों नहीं कह सकते कि आधे कुत्ते हो? सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। हर कुत्ता पूरा कुत्ता है। कुत्ते होने में कोई रंच भर आप फर्क नहीं कर सकते कि यह कुत्ता कुछ कम कुत्ता है, वह कुत्ता कुछ ज्यादा कुत्ता है। क्यों? कुत्ते का स्वभाव है फिक्स, उसे कुछ बनाना-वनाना नहीं है, वह बना हुआ पैदा होता है। और आप जो हैं, आप बिलकुल अनबने पैदा होते हैं और सब आपको बनाना है। यही फ्रीडम है और यही घबराने वाली है। और इसलिए आप कुछ भी बन सकते हैं, कोई भी रूप ले सकते हैं। और यह रूप भी कभी ऐसा नहीं है कि आप इसको एक क्षण में न तोड़ दें। एक क्षण में तोड़ भी सकते हैं।
इसे अगर गौर से देखें तो यह जो ह्यूमन फ्रीडम है, यही अदभुत बात है। आप ज्योतिष पर काम करते हैं, यह बड़े मजे की बात है, सौ में निन्यानबे मौकों पर ज्योतिष काम करेगा; एक मौके पर भर काम नहीं करेगा। और जिस मौके पर काम नहीं करता, वहीं आप हो; बाकी मामलों में आप मशीन हो, बाकी मामलों में आप मशीन हो। जहां-जहां ज्योतिष काम करता है, वहां आप हो ही नहीं! आदमी नहीं हो आप वहां! इसका मतलब हुआ कि प्रेडिक्टेबल हो। प्रेडिक्टेबल का मतलब यह है कि आप बंधे हुए हो, कहा जा सकता है कि कल आप यह करोगे।
बुद्ध के जीवन में एक बहुत बढ़िया घटना आती है कि बुद्ध के पैरों में वे चिह्न हैं, जिनको ज्योतिषी कहेंगे कि उनको चक्रवर्ती सम्राट होना चाहिए। और वे हो गए भिखारी! सब गड़बड़ हो गया ज्योतिष! और वे निकले हैं एक नदी के किनारे से, रेत पर उनके पैर का चिह्न है।...बारह साल बेकार हो गए। मगर इस आदमी को खोज तो लें, यह आदमी कहां है?
तो वह उन पैरों को खोजता हुआ उस झाड़ के पास पहुंचा जहां बुद्ध बैठे हुए थे। देख कर मुश्किल में पड़ गया! आदमी तो भिखारी है, लेकिन आदमी चक्रवर्ती है। आदमी का चेहरा तो लगता है कि वह कोई सम्राट ही है, और आदमी तो भिखारी है! फटे कपड़े पहने हुए है, हाथ में भिक्षा-पात्र रखे हुए है। जाकर बुद्ध के पास वह बैठ गया और कहा कि मुझे बिगूचन में डाल दिया है। बारह साल मेहनत करके लौटा हूं। ये सब शास्त्र नदी में फेंक दूं? पैरों में चिह्न हैं आपके चक्रवर्ती होने के और आप भिखारी हैं, भिक्षा-पात्र लिए बैठे हैं!
बुद्ध ने कहा कि तुम्हारा ज्योतिष ठीक कहता है, लेकिन मैं ज्योतिष के बाहर हो गया हूं, मैं आदमी हो गया हूं। ज्योतिष तुम्हारा अब काम नहीं करेगा। अगर मैं कुछ न करता तो मैं चक्रवर्ती हो ही जाता; वह एक धारा थी अंधी, जिसमें जो हो रहा था वह होता। मैंने कुछ गड़बड़ कर दी। अब तुम्हारा ज्योतिष मुझ पर काम नहीं करेगा। अब तुम्हारा कोई नक्षत्र मेरे संबंध में कुछ भी नहीं कहेगा। अब मैं बाहर हो गया, अब मैं आदमी हो गया हूं।
मतलब समझ रहे हैं न? जब फ्रीडम--अब बुद्ध अनप्रेडिक्टेबल हो गए, अब आप प्रेडिक्ट नहीं कर सकते कि यह आदमी क्या कहेगा, क्या करेगा। यह कल क्या होगा, यह अभी घड़ी भर बाद क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता।
गणना के बाहर हो गया।
हां, यह गणना के बाहर हो गया, यह गणना के बाहर हो गया।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
तो यह जो हमारी चेष्टा यही होनी चाहिए अंततः कि हम निःस्वभाव में लीन हो जाएं। वहां जहां कि कोई स्वभाव नहीं है--परिपूर्ण स्वतंत्रता है। स्वभाव परतंत्रता है। यानी वह कल हम जैसे थे, वैसे ही फिर कल होने की मजबूरी है। इसका मतलब तो यह होता है न कि मेरा स्वभाव है क्रोध करना। अगर मैं यह कहूं तो इसका मतलब यह है कि मैं मजबूर हूं। आज आपने गाली दी थी, मैंने क्रोध किया; कल भी आप गाली दोगे, मैं वैसे ही क्रोध करूंगा--जैसे बटन दबाने से आज पंखा चला था, कल भी चलेगा। तो मैं आदमी कहां रहा!
इस बात की पासिबिलिटी है कि आज आपने गाली दी और मैं क्रोधित हुआ और कल आप गाली देने आएं और मैं गले लगा लूं। यह जो मामला है न, इसकी संभावना है। और इसकी जो संभावना है, वह इस बात की सूचना है कि मनुष्य के पास कोई यंत्रवत स्वभाव नहीं है। यही उसकी स्वतंत्रता है। और ऐसी स्थिति बनती चली जाए कि हम प्रतिपल ऐसे जीएं कि पिछले पल से हमारा आने वाला पल बंधा हुआ न हो, यह मुक्त होने का अर्थ है, जीवन-मुक्ति का जो अर्थ होगा। जीवन-मुक्ति का जो अर्थ होगा वह यह कि कल जो बीत गया उससे मेरा यह क्षण बंधा हुआ नहीं है। मैं जो कह रहा हूं, वह एक डिसकंटिन्युअस मामला है, वह कंटिन्युटी के बाहर है। वह कंटिन्युटी जो कल तक थी, वह मैं नहीं हूं। और कल मैं जो होऊंगा, वह कुछ और होगा, वह जो आज नहीं है। ऐसी जो चित्त-दशा है वहां परम आनंद है, क्योंकि वहां परम स्वतंत्रता है। और नहीं तो परतंत्रता है।
एक आदमी कहता है कि मैं सिगरेट पीने को मजबूर हूं, क्योंकि मेरी आदत है। आदत का मतलब कि तुम आदमी नहीं हो; आदत का मतलब तुम एक मशीन हो। तुम वक्त पर पुकारते हो कि बस बारह बज गए, अब सिगरेट चाहिए! तो तुमको सिगरेट डालनी पड़ती है। यह डालना और निकालना और बारह बजे यह रोज होना, यह बिलकुल मैकेनिकल एक्ट है।
भोजन पर भी यही बात लागू होती है क्या?
हां, अगर बहुत गौर से देखें, बहुत गौर से देखें, तो हम जितने भी लोग भोजन करते हैं, शायद ही कभी हममें से कोई उस वक्त भोजन करता हो जब भूख लगती है। हम सब भोजन करते हैं आदतवश, भूखवश नहीं। और यह बिलकुल दूसरा मामला है, भूख बिलकुल दूसरा मामला है और आदत बिलकुल दूसरा मामला है। ग्यारह बज गए, और रोज ग्यारह बजे भोजन करते हैं आप, तो ठीक ग्यारह बजे पेट कहता है कि वक्त हो गया, खाना खाओ! और यह भी हो सकता है, घड़ी किसी ने एक घंटा आगे-पीछे कर दी हो और आपको पता न हो, अभी दस ही बजे हैं, लेकिन आपने देखा कि ग्यारह बज गए और आपको भूख लग गई, वक्त हो गया, चल कर खाना खा आए। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न? यह बिलकुल मेंटल एसोसिएशन है ग्यारह बजे का; भूख-वूख नहीं लगी है।
और अगर हम ठीक भूख पर खाएं, यानी जब भूख लगे तब की हम प्रतीक्षा करें, तो खाने में जो स्वाद होगा उसका हमें पता ही नहीं है। क्योंकि ग्यारह बजे खा लेना सिर्फ भोजन डालना है। क्योंकि शरीर की जिसको जरूरत कहें वह तो अभी पैदा नहीं हुई, शरीर ने मांगा ही नहीं था। अब यह मजबूरी में लार भी छोड़ेगा शरीर, मजबूरी में पेट में जगह भी देगा, आप डाल रहे हैं, आप डिब्बे की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न?
और इसीलिए दुनिया में भोजन तो बहुत बढ़ गया है, लेकिन भोजन का अर्थ बिलकुल खो गया है। मुश्किल से कोई आदमी भोजन कर रहा है। मुश्किल से कोई आदमी भोजन कर रहा है, उसे अनुभव कर रहा है। और तब परिणाम यह होता है कि फिर हमें इतर व्यवस्था करनी पड़ती है, क्योंकि खुद भोजन में तो कोई रस नहीं रहा है इसलिए इतर व्यवस्था करनी पड़ती है। ऐसा भोजन बनाओ जो स्वादिष्ट मालूम पड़े, ऐसा हो, वैसा हो। यह सारा इंतजाम करना पड़ता है। यह सारा इंतजाम सिर्फ उस समाज में बढ़ता है, जिस समाज में भोजन आदत बन गया है। नहीं तो इसकी कोई जरूरत नहीं है।
पर सब ऐसा ही हो गया है। आप वक्त पर सो जाते हैं रोज, क्योंकि बारह बजे सोना है या दस बजे सोना है। और मैकेनिकल रूटीन है, आप दस बजे सो जाते हैं, चाहे नींद आती हो या न आती हो। और आप वक्त पर उठ जाते हैं--चाहे नींद टूटती हो, चाहे न टूटती हो। सभी ऐसा हो गया है, हम आदतें फिक्स कर रहे हैं, ऊपर से बिठा रहे हैं। और तब बड़ी परेशानी होती है। एक जवान है, वह आठ घंटे सोता था; अब वह बूढ़ा हो गया, अब उसको चार घंटे नींद आती है, लेकिन वह आठ घंटे सोना चाहता है। फिर वह कहता है कि बड़ी मुसीबत हो रही है, सब नींद गड़बड़ हो गई है, नींद नहीं आ रही है।
जरूरी नहीं है।
हां, अब जरूरी नहीं है। मगर वह उसको आदत तो आठ घंटे सोने की पड़ी है। और अब आठ घंटे सोने की कोशिश में वह चार घंटे सोने का मजा भी खो रहा है। तो आठ घंटे पर फैला रहा है चार घंटे की इंटेंसिटी को। वह मुश्किल में पड़ गया है, अब वह परेशानी में रहा आएगा। और यह रोज होता रहेगा, यह रोज होता रहेगा।...
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
अक्सर यह कठिनाई होती है कि अगर आपके पास बंधा हुआ उत्तर है, तो चैलेंज नहीं रह जाता न! जब भी सवाल उठता है, आपके पास जवाब तैयार है, आप जवाब दे देते हैं। तो वह जो माइंड की जो स्ट्रगल होनी चाहिए किसी प्राब्लम से वह नहीं हो पाती है। नहीं हो पाती तो सूझ निखरती नहीं है। नहीं निखरती तो धीरे-धीरे जाम हो जाती है। और हम जिस चीज का उपयोग करते हैं वही जगती है और जिसका उपयोग नहीं करते वह जाम हो जाती है। और हमें कोई जरूरत नहीं है, सब बातें हमें मालूम हैं।
यह बड़ी मुश्किल की बात है--जितना ज्ञान बढ़ा है उतनी सूझ कम हुई है और जितनी सूझ कम हो जाती है। उतना बड़ा खतरनाक हो जाता है। क्योंकि ज्ञान आंख नहीं है। अंधा भी लकड़ी से टटोल लेता है और बाहर निकल जाता है। सूझ आंख है। आप टटोलते नहीं, तब आप देखते हैं। सोचते भी नहीं हैं कि दरवाजा कहां है। दिखता है और आप निकल जाते हैं।
यह जो अगर हम सोच कर पहले से तैयार न हों, तो ही सूझ पैदा होगी। और देखना चाहिए, बहुत आनंदपूर्ण है यह बात।
अभी अमेरिका में एक छोटा सा "हैपनिंग', पेंटर्स का एक छोटा मूवमेंट चल रहा है। पेंटर्स ने सारी अपनी पेंटिंग्स लटका दी हैं, एग्जिबिशन है, लोग देखने आए हैं। कुछ खाली कैनवस भी लटकाए हुए हैं। उनके पास रंग, ब्रश और यह सब रखा हुआ है। फिर कोई देखने वाला आया है, और उसको धुन आ गई है, और उसने उठा लिया ब्रश और वह पेंट करने लगा। न उसने कभी पेंटिंग सीखी है, न वह कुछ पकड़ना जानता है। बाकी इतनी पेंटिंग्स को देख कर उसको भी हैपनिंग हो गई! तो उसके लिए मौका है, और वह पेंट कर जाए।
और ऐसा अनुभव हुआ है कि ऐसे बिलकुल सिक्खड़ लोगों ने जो पेंट किया है, उसका मुकाबला नहीं है। उसका बड़े से बड़ा पेंटर भी मुकाबला नहीं कर सकता है। उसे वे हैपनिंग कहते हैं। वे कहते हैं, वह कोई बात घट गई, कोई बात हो गई।
क्वेकर्स जो मीटिंग रखते हैं, उनकी मीटिंग तो सायलेंट होती है। और उनका जो टेंपल होता है, उसमें वे वक्त पर इकट्ठे हो जाएंगे, सब चुपचाप बैठ जाएंगे। कोई प्रीचर नहीं होता है। क्योंकि प्रीचर हमेशा तैयार होकर आएगा। सब मित्र बैठ गए हैं, अंधेरा हो गया है। फिर हैपनिंग--किसी को लगता है कि कहना है कुछ, तो कह देता है। कई बार ऐसा होता है कि महीनों बीत जाते हैं, कोई कुछ नहीं कहता। लोग बैठते हैं और विदा हो जाते हैं कि आज कुछ कहने को नहीं था तो नहीं कहा गया। फिर किसी को लगता है कि कुछ कहने को, तो वह खड़ा हो जाता है। न कोई इंट्रोडक्शन है, न कोई पहचान है, न कुछ बात है। वह खड़ा हो गया और उसे लगा कि मुझे यह लगता है, यह मैं कहना चाहता हूं। एक ही शर्त है कि कोई कभी तैयार होकर न आए।
तो क्वेकर्स ने तीन सौ वर्षों में जो इस तरह की सायलेंट मीटिंग्स में जो कुछ लोगों ने कहा है, उसका जो संकलन किया है वह देखने जैसा है। जैसे बात सीधी ईश्वर से आ रही हो, बिलकुल साधारण आदमी से कभी वैसी बात आती है।
लेकिन हमारी जितनी शिक्षा और जितना कल्टीवेटेड माइंड हम तैयार करते चले जाते हैं, उतनी ही सूझ-बूझ कम होती चली जाती है। और बंधा हुआ सब तैयार हो जाता है, वह सब तैयार है। तो मैं तो सख्त दुश्मन हूं इस बात का। मैं तो यह कहता हूं कि आपके सामने बैठा हूं, आपने कुछ कहा, बात चल पड़ी तो मैंने कुछ कहा। नहीं चली और नहीं चली है तो खत्म हो गई, कोई कहना जरूरी भी नहीं है कि कहना ही चाहिए। और जहां ले गई बात वहां चले गए। और नहीं ले गई और बीच में रुक गई तो किसी से कोई ठेका लिया हुआ है! नमस्कार कर लिया, एक बात खत्म हो गई, अब नहीं आज कुछ कहना को था।
लेकिन पहले से तैयार करके सोच कर जब आप जाते हैं, तो आप तो मर गए, मरे हुए आदमी हैं आप। फिर तो टेप-रिकार्डर अच्छा था, वह भर देते और वह अपना कह देता। और तब फिर बोझ नहीं है, तब एक फ्लावरिंग है। तब फिर बोझ नहीं है। और नहीं तो बहुत बोझ है। वह जो हम अकेले आदमी से बात करते में हम कभी नहीं बोझ अनुभव करते और हजार आदमी के सामने करने में अनुभव करते हैं। क्यों? बोलना हमें बहुत आता है, हम दिन-रात बोलते हैं। लेकिन हजार लोगों के सामने क्या मुश्किल हो गई? हजार लोगों के सामने हम तैयार होकर बोलना चाहते हैं, और बोझ शुरू हो गया। हजार लोगों के सामने भी हम वैसे ही बोल दें जैसे अकेले में एक आदमी के सामने बोलते हैं, फिर बोझ नहीं है।
और मेरा मानना है कि अगर आप उतनी ही सरलता से बोलें जैसा एक आदमी से बोलते थे, हजार से, तो जो कम्युनिकेशन होगा वह ज्यादा आंतरिक और हार्दिक होगा। क्योंकि हम सब बोलते हैं, हम सब रोज बात कर रहे हैं। लेकिन फर्क इतना ही पड़ता है कि आपसे मैं बात कर रहा हूं घर में बैठ कर, आप अपनी पत्नी से बात कर रहे हैं, अपने मित्र से बात कर रहे हैं, अपने बेटे से बात कर रहे हैं--आप तैयार नहीं हैं, इसलिए कोई बोझ नहीं है।
बोलना है।
हां, जहां आपको बोलना एक काम हो गया और तैयारी करनी पड़ी, वहां से कठिनाई शुरू हो गई। और आदमी को हम इसी तरह दबाए दे रहे हैं, सब तरफ से--चाहे बोलना है, चाहे गाना है, चाहे गीत बनाना है--वह सब काम है, वह स्पांटेनियस कहीं भी नहीं है, सहज कहीं भी नहीं है। और तब वह जो आथेंटिसिटी चाहिए उसमें वह नहीं रह जाती, वह बनती नहीं है। और तब तक वह बहुत गहरे प्राणों में जा भी नहीं सकती, वह जाती नहीं है। और हिंदुस्तान में तो बहुत उपद्रव हो गया। हिंदुस्तान तो पूरा उपदेशक है, सारा मुल्क ही उपदेशक है।
मैं एक मजाक कहा करता हूं। एक लड़की थी यहां बंबई की, वह अमेरिका चली गई। उसने मुझे एक मैगजीन भेजी वहां से। उसमें किसी ने एक मजाक का लेख लिखा हुआ है कि अगर अंग्रेज शराब पी ले, तो वह वैसे ही चुप रहता है, वह और बिलकुल चुप हो जाता है, फिर वह बोलता ही नहीं है। अगर फ्रेंच शराब पी ले, तो वह वैसे ही शोरगुल मचाता है, बातचीत करता है, नाचता है, फिर वह बहुत उछल-कूद करने लगता है। अगर डच शराब पी ले, तो वह एकदम खाने की मेज की तरफ जाता है, एकदम खाने पर टूट पड़ता है।
उसने लिखा है कि अगर शराब पीती हालत में जो नेशनल कैरेक्टरस्टिक है, वह पता चल जाती है। तो उस लड़की ने मुझे लिखा कि लेकिन हिंदुस्तानी के बाबत उसमें कुछ नहीं लिखा।
मैंने कहा, वह तो जाहिर है कि वह अगर पी ले तो वह उपदेश देगा! फौरन उपदेश देगा! उसने पी कि उसने उपदेश शुरू किया। वह तो हमारा बिलकुल...और वह सब तैयार है, बिलकुल तैयार है।
हमारे संगीत के बारे में कुछ कहें कि हम कुछ अच्छा काम कर सकें। हालांकि इस दिशा में प्रयास कुछ कम है...।
प्रयास बहुत कम है और असल में सभी चीजों के पास, सभी कलाओं के पास, पीछे कोई मैसेज था। अब कोई मैसेज नहीं है। अब सब माध्यम से, आदमी का कैसे शोषण हो सकता है, उसकी चिंता है। यानी पहली दफा हर चीज बाजार में खड़ी हो गई है, पहली दफा। कुछ चीजें थीं जो बाजार के हमेशा बाहर थीं। और हजारों साल तक हजारों लोगों ने कोशिश की थी कि कुछ चीजें बाजार के बाहर ही रहें। इस जिंदगी में कुछ तो होना चाहिए जो बाजार के बाहर हो। अगर सभी कुछ बाजार में हो जाए तो बहुत दयनीय हालत हो जाएगी। हजारों साल तक बड़ी मेहनत करके कुछ चीजों को बिलकुल बाजार के बाहर रखने की कोशिश की थी। इधर इन सौ वर्षों में सब चीजें बाजार में लाकर खड़ी कर दी हैं--सब! और तब स्वभावतः, सब चीजें आप बाजार में ले आएंगे, तो वे सारी ऊंचाइयां खो जाएंगी जो बाजार के बाहर हो सकती हैं। और पहली दफा...अब तक कला इसकी फिक्र नहीं करती थी कि आपकी समझ में आता है कि नहीं आता है, कि आपको पसंद पड़ता है कि नहीं पड़ता है। कला यह कहती थी कि अगर आपको पसंद नहीं पड़ता आप तो आदमी गलत हो, आप इस योग्य बनो कि आपको पसंद पड़े!
कला तो अपनी जगह खड़ी थी।
कला अपनी जगह खड़ी थी। आदमी को यात्रा करनी पड़ती थी कि तुम आओ। मंदिर अपनी जगह बना था। वह बाजार में नहीं आता था। तुम्हें आना है, तुम बाजार छोड़ो और मंदिर आओ।
उलटा हो गया। बाजार के लोगों ने मंदिर जाना बंद कर दिया। पुजारी ने कहा, हम मंदिर को बाजार ले आते हैं। तुम नहीं आ सकते हो, हम मंदिर को वहीं ले आते हैं। हम वहीं मंदिर बना देंगे, तुम्हारी दुकान के बगल में। तुम वहीं से निकलना, नमस्कार कर लेना। या तुम कहो तो तुम्हारी दुकान के सामने ही बना देंगे। या कहो तो तुम्हारी दुकान में ही बना देंगे। तुम्हारी तबियत हो कभी, देख लेना। नहीं तो चल जाएगा।
और जब श्रेष्ठ जनता की तरफ देखने लगता है तो नष्ट होना शुरू हो जाता है। कुछ लोगों को, कुछ दिशाओं में, हमेशा यह हिम्मत रखनी चाहिए कि उन्हें कोई नहीं समझ सकेगा, कोई नहीं पहचान सकेगा, कोई नहीं मान सकेगा। लेकिन वे ही थोड़े से लोग और वे ही थोड़ी सी दिशाएं लोगों को पुकारती हैं--आज नहीं कल पुकारती हैं, आज नहीं कल पुकारती हैं।
गुरजिएफ था एक फकीर, अभी मरा कुछ दिन पहले। उसके व्याख्यान कभी भी ऐसे नहीं होते थे कि वह आठ दिन पहले से खबर हो गई, न। आठ दिन पहले से खबर हो गई कि जो लोग गुरजिएफ के व्याख्यान में उत्सुक हैं वे अपने नाम भेज दें। और व्याख्यान के घंटे भर पहले उनको खबर कर दी जाएगी कि यहां व्याख्यान हो रहा है, आप पहुंच जाइए।
कहीं व्याख्यान बीस मील दूर है, कहीं पच्चीस मील दूर है। घंटे भर पहले खबर आई कि कल्याण जी, यहां व्याख्यान है, छह बजे पहुंच जाइए। तो अब आपको हजार काम हैं, हजार परेशानियां हैं, पहले से इंतजाम कर लिया होता। अब यह घंटे भर में भाग कर जाना है।
गुरजिएफ के मित्रों ने बहुत कहा कि यह बड़ा गड़बड़ है, यह आप क्या करते हैं? तो गुरजिएफ ने कहा, जिसको आना है उसे श्रम लेकर आना चाहिए, तो ही मेरी बात का कोई मतलब है; तो ही मैं उसे ऊपर उठा पाऊंगा; नहीं तो मैं उसे ऊपर नहीं उठा पाऊंगा।
और एक बार ऐसा हुआ कि उसने पेरिस में जाहिर किया कि वह बोलेगा। वह पहले दिन बोलने आया। कोई तीन सौ लोग इकट्ठे थे। उसने आकर देखा और उसने कहा कि आज मैं नहीं बोलूंगा, कल बोलूंगा। कल डेढ़ सौ लोग आए हुए थे। वह फिर खड़ा हुआ और उसने कहा कि आज भी मैं नहीं बोलूंगा, मैं कल बोलूंगा। पंद्रह-बीस लोग ही रह गए थे तीसरे दिन। उसने कहा, कि अब मैं बोलूंगा। क्योंकि वे लोग चले गए जो ऐसे ही आ गए थे, अब वे लोग रुक गए हैं जिनसे बात की जा सके।
यह जो माइंड था न पीछे! तो चाहे संगीत हो, चाहे काव्य हो, चाहे साहित्य हो, चाहे धर्म हो, चाहे दर्शन, चाहे कुछ भी हो, इस वक्त जो सबसे बड़ी जरूरत पड़ गई है वह यह है कि कुछ लोग यह हिम्मत जुटाएं कि वे कहें कि तुम्हें वहां आना पड़ेगा, तुम्हें यात्रा करनी पड़ेगी।
और मजा यह है कि ऐसा नहीं है कि लोग दूर की यात्रा पर जाने को तैयार नहीं हैं। लोग बड़े आतुर हैं! और चूंकि आपने कोई दूर की यात्राएं नहीं छोड़ी हैं तो वे फिजूल की यात्राएं कर रहे हैं। गर्मी होती है तो वे हिमालय जाते हैं। आप हैरान होंगे कि यह माइंड की वही बेचैनी है, जो दूर की यात्रा पर निकलने का है। गर्मी होती है तो एक आदमी अमेरिका जाता है, एक आदमी रूस जाता है देखने। अब चांद पर जाएगा आदमी। वह जापान में कोई टिकिट बेच रही है कोई कंपनी उन्नीस सौ पचहत्तर के लिए। और अभी से लोग बुकिंग करवाएंगे कि हम...।
काहे के लिए चांद पर जा रहे हैं? मेरी अपनी समझ यह है कि यह जो इतने जोर से टूरिज्म है। इतने जोर से लोग भाग रहे हैं यहां से वहां, वहां से यहां। इसका बुनियादी कारण है। इसका बुनियादी कारण है कि दूर की यात्रा का जो भीतर भाव रह गया है तब का, और कोई यात्रा आपने छोड़ी नहीं--न संगीत कोई यात्रा है, न धर्म कोई यात्रा है, न कोई यात्रा है। अब एक ही यात्रा है, फिजिकल, ट्रेन में बैठो, कार में बैठो, और भागो।
आप हैरान होंगे कि पुरानी दुनिया में कभी इतनी यात्राएं नहीं थीं। सब्स्टीटयूट दूसरा था। पुराने दिनों में एक आदमी, कभी-कभी ऐसा भी होता था, एक ही गांव में जीता था और मर जाता था।
लाओत्से ने लिखा है ढाई हजार साल पहले कि मैंने अपने बुजुर्गों से सुना है कि एक वक्त ऐसा था कि बीच में नदी बहती थी, इस तरफ के गांव के लोग थे और उस तरफ के गांव के लोग थे। रात में कुत्तों की आवाज सुनाई पड़ती थी कि वहां कोई गांव है। लेकिन कभी कोई उस पार नहीं गया। क्योंकि आवाज सुनाई पड़ती थी, कभी कोई उस पार नहीं गया। वह बहुत हैरान हुआ! उसने कहा, कैसे लोग थे कि पता लगाने ही नहीं गए कि उस पार कौन है! जिस बूढ़े से उसने पूछा, उसने कहा, क्या जरूरत थी! हम और बड़ी यात्राओं पर गए हुए थे। इतनी छोटी-छोटी चीजों को देखने कौन जाता है! जिसको हीरे-जवाहरात मिल गए हों, वह कंकड़-पत्थर नहीं बीनता फिरता। लेकिन अगर हीरे-जवाहरात न मिले हों, तो वह जो बीनने की कमी रह जाती है वह कंकड़-पत्थर भी बीन लेती है।
और मेरी अपनी नजर में एक डायमेंशनल फर्क पड़ गया है। एक तो यात्रा होती है जिसको हम कहें वर्टिकल, ऊपर की तरफ जाती है। और एक यात्रा है हॉरिजेंटल, जो मुझसे आपकी तरफ जाती है, आपसे आपकी तरफ जाती है, मगर तल वही रहता है। चाहे न्यूयार्क में मैं रहूं और चाहे बंबई में मैं रहूं और चाहे हिमालय पर मैं रहूं, मैं वही रहूंगा। और उसी तल पर रहूंगा, हॉरिजेंटल यात्रा चलती रहेगी।
हाइट नहीं होगी।
हां! और हाइट लाने वाली जो--जैसे संगीत है, या साहित्य है, या धर्म है, या योग है वह बिलकुल वर्टिकल यात्रा है। आपको नहीं कहता कि आप यहां-वहां जाओ; आप जहां हो वहीं से एक ऊपर की तरफ जाने का रास्ता जाता है।
हेलिकाप्टर की तरह।
हां, हेलिकाप्टर की तरह। तो वह जो, वह बंद हो गया न सारा, क्योंकि आप कहते हैं कि हम वहीं ले आएंगे। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न?
तो हमें कुछ न कुछ करना पड़ेगा, चाहे वह किसी भी दिशाओं में काम करने वाले मित्र हों। कुछ न कुछ यह करना पड़ेगा कि एक बार जो बाजार का बहुत तीव्र आकर्षण है इस वक्त, उसे कुछ लोगों को कहीं न कहीं से तोड़ने की फिकर करनी चाहिए। और कहना चाहिए कि नहीं, तुम्हें आना होगा। मैं आने वाला नहीं हूं। हम वहां नहीं लाएंगे चीजों को जहां तुम हो, तुम्हीं को वहां आना पड़ेगा जहां चीजें हैं। और इसमें ही तुम्हारा हित भी है, इसमें ही तुम्हारा हित भी है। क्योंकि अगर यह नहीं होता है, अगर यह ट्रांसेनडेंस का खयाल नहीं चलता है, तो आदमी जहां के तहां ठहर जाता है। क्योंकि आप सब उसे वहीं उपलब्ध करा देते हैं।
एक सूफी फकीर हुआ है--बहाउद्दीन नक्सबंद। एक सूफी आर्डर है फकीरों का--नक्सबंदी। बहाउद्दीन के पास एक आदमी आया और उससे कहने लगा कि मेरे पास सब है, धन है, सब है, लेकिन कोई आनंद नहीं है। कोई ऐसा आदमी बताओ इस दुनिया में जो सबसे ज्यादा आनंदित हो। नक्सबंद ने कहा, ऐसे एक आदमी को मैं जानता हूं, लेकिन बड़ी लंबी यात्रा करनी पड़ेगी। उस आदमी ने कहा, मैं कोई भी यात्रा करने को तैयार हूं, मैं कितनी ही दूर जा सकता हूं। नक्सबंद ने कहा, दूर का उतना सवाल नहीं है, ऊंचा जाना पड़ेगा। दूर तो तुम जा सकते हो, दूर का सवाल नहीं है; ऊंचा जाना पड़ेगा। उस आदमी ने कहा कि दूर जाने के साधन मेरे पास हैं, ऊंचे जाने के साधन कहां हैं? ऊंचे जाने का क्या मतलब है? बैलगाड़ी में बैठ सकता हूं, ऊंट पर बैठ सकता हूं, घोड़े पर बैठ सकता हूं--सब मेरे पास हैं--लेकिन ये दूर जाने के साधन हैं। ऊंचे जाने का क्या मतलब है? उस फकीर ने कहा, वह साधन मैं तुमसे कहूंगा। लेकिन ध्यान रहे, दूर जाने वाले हर साधन में तुम सवार हो जाते हो; ऊंचे जाने वाले साधन में तुम्हें अपने को काटना पड़ेगा! क्योंकि तुम्हारा ही बहुत सा हिस्सा है जो तुम्हें ऊंचा नहीं जाने देता; वह तुम्हें काट-काट कर नीचे गिरा देना पड़ेगा। और दूर जाने वाली यात्रा पर तुम साबित रहते हो, यहां तुम साबित नहीं रह जाओगे। क्योंकि तुम ही बाधा हो।
अगर बहुत गौर से हम देखें तो ऊंचे जाने में कोई और बाधा थोड़े ही होता है, मैं बाधा होता हूं। और मेरे ही होने से बाधा होती है। मैंने ही जो पत्थर और सब बांध रखे हैं चारों तरफ, वह बाधा होती है, वे एक-एक करके काटने पड़ते हैं।
उसने कहा कि तुम ही बाधा हो! तुम्हें काट-काट कर टुकड़े-टुकड़े कई हिस्से खो देने होंगे, तब तुम जा सकोगे। उसने कहा, लेकिन मैं जाना चाहता हूं यात्रा पर, मैं अपने को तोड़ने को राजी नहीं हूं। उस फकीर ने कहा, फिर यह यात्रा नहीं हो सकती। क्योंकि एक यात्रा है जिसमें तुम साबित वापस लौट आओगे; लेकिन तुम तुम ही रहोगे, यात्रा बेकार हो जाएगी। एक यात्रा है जिसमें तुम कटोगे, मरोगे, सड़ोगे, गलोगे, बिलकुल बदल जाओगे। लेकिन तुम पहुंच जाओगे उस दिन, जिस आदमी की बात कहते हो कि सबसे सुखी आदमी कहां है, वह मैं तुम्हें बता सकता हूं।
उस आदमी की कुछ समझ में नहीं आया, वह वापस चला गया। वह नक्सबंद हंसने लगा। उसके और फकीर बैठे थे, उन्होंने कहा कि आपका मतलब क्या था?
आप जो पूछते हैं न, संगीत या धर्म, ये सारी बातें, ये असल में बहुत-बहुत दिशाओं से आदमी के कुछ हिस्सों को तोड़ने और काटने की चेष्टाएं हैं।
अब अगर मेरी बात समझें, तो आदमी के भीतर चौबीस घंटे एक डिसहार्मनी है। आदमी के भीतर हजारों स्वर हैं, हजारों विचार हैं, हजारों तनाव हैं, सब तरफ से आदमी एक अनार्की है। और संगीत का मेरी दृष्टि में एक ही मतलब है कि बाहर आप कुछ ऐसा उपाय करें कि उस बाहर की लय, हार्मनी को सुन कर वह जो भीतर की लयहीनता है वह शांत हो जाए। बाहर आप ऐसी सिचुएशन क्रिएट करें कि वह जो भीतर आदमी है, ठहर जाए, रुक जाए, एक क्षण को सही। यानी एक क्षण को बाहर की लयबद्धता भीतर की लयहीनता को तोड़ दे, संगीत का काम पूरा हुआ।
मेरा मतलब समझे न आप? यानी सवाल आपकी लयबद्धता का नहीं है। असली सवाल वह जो सामने वाला है, उसके भीतर लयहीनता है। वह संगीत की कमी से बहुत बुरी तरह परेशान है। कोई आदमी रोटी की कमी से इस बुरी तरह परेशान नहीं है। लेकिन संगीत भी एक भोजन है और अदभुत है, शरीर का नहीं है, आत्मा का है। और वहां एक बड़ी कमी हो गई है। समझ में नहीं आ रहा है उसे, वह लयबद्धता खोज रहा है। वह चाहता है कि कहीं से कोई समस्वर आ जाए, कहीं से कोई ऐसी हवा आ जाए कि भीतर के सब उपद्रव शांत हो जाएं, कोई स्वर कोई आवाज न रह जाए, भीतर सब मौन हो जाए।
मेरी दृष्टि में, अब यह बहुत उलटा दिखाई पड़ेगा, लेकिन संगीत का मेरी दृष्टि में यही अर्थ है। संगीत तो ऐसे स्वरों का सारा समायोजन है, लेकिन संगीत की सारी चेष्टा स्वर-शून्यता के लिए है। संगीत तो साउंड है, लेकिन जिस प्रयोजन से है वह सायलेंस है। अगर संगीत सायलेंस पैदा करता है किसी में तो सार्थक हो गया।
साउंडलेसनेस।
हां, साउंड जो है टुवर्ड्स साउंडलेसनेस। इट मस्ट एंड इन साउंडलेसनेस। वह वहीं ले जानी चाहिए। वह सारी साउंड की योजना यह है कि साउंड ऐसी हो कि उसको साउंडलेस कर दे। तो वह थोड़ी देर को वहां पहुंच जाए जहां कोई ध्वनि नहीं है, कोई स्वर नहीं है।
चीन में एक बहुत बड़ा धनुर्धर हुआ। उसकी बड़ी ख्याति हो गई और सारा देश समझने लगा कि उससे बड़ा धनुष चलाने वाला कोई भी नहीं है। तो उसने अपने सम्राट को कहा कि अब घोषणा कर दें कि मैं प्रथम धनुर्धर हूं। और अगर कोई प्रतियोगिता करना चाहे तो वह प्रतियोगिता कर ले, ताकि यह निर्णय हो जाए कि मैं श्रेष्ठतम हूं।
उस सम्राट ने कहा कि तुम कहते हो वह ठीक है, लेकिन मैंने जंगलों में एक आदमी को देखा है जो तुमसे बड़ा धनुर्धर है। तुम एक बार उसके दर्शन कर लो, फिर यह घोषणा करेंगे। हालांकि तुम घोषणा भी करोगे तो भी वह आएगा नहीं प्रतियोगिता करने; लेकिन मैं जानता हूं कि तुमसे एक श्रेष्ठ है, इसलिए मैं घोषणा करने में जरा हिचकिचाता हूं। वह आएगा नहीं। क्योंकि जो श्रेष्ठ है वह प्रतियोगिता करने नहीं आता है।
और सिर्फ निकृष्ट के मन में प्रतियोगिता उठती है, सिर्फ हीन के मन में यह खयाल आता है। वह जो इनफिरिआरिटी है, वह कहती है, काम्पीट करो, सिद्ध करो। जो सिद्ध है, वह कहता है, ठीक है। असिद्ध हमेशा चेष्टा में है, हीन हमेशा चेष्टा में है कि मैं सिद्ध करके बता दूंगा कि मैं प्रथम हूं।
तो उस सम्राट ने कहा कि तुम श्रेष्ठ तो नहीं हो, क्योंकि तुम प्रतियोगिता के खयाल में हो। फिर मैं एक आदमी को जानता हूं, तो मैं घोषणा पूरे मन से न कर सकूंगा। हालांकि वह प्रतियोगिता करने नहीं आएगा। अच्छा हो कि तुम जाओ उसके पास, सीख आओ कुछ दिन।
वह गया, जंगल में खोजा, एक बूढ़ा आदमी मिल गया। पता चला, उससे पूछा कि आप ही धनुर्धर हैं? उसने कहा, धनुर्धर हूं या नहीं, यह तो दूसरे लोग जानते होंगे, लेकिन धनुष चला लेता हूं।
उसके पास रहा तो दंग रह गया! यह तो कुछ भी न था उसके सामने। तीन साल उससे सीखा, तब जाकर ऐसा लगा कि हां उसके करीब खड़ा हुआ हूं। जिस दिन यह लगा कि अब मैंने सब सीख लिया जो वह जानता था, सोचा अब लौट जाऊं और घोषणा कर दूं। लेकिन यह आदमी जिंदा है! और भला कोई भी न कहे, लेकिन मैं तो जानूंगा कि किसी से मैंने सीखा है और गुरु के बराबर मैं नहीं हो सकूंगा। आज से यह आदमी मर जाए। उसने सोचा--इसको मार कर जाओ।
तो वह गुरु लकड़ी काट कर लौट रहा है और उसने तीर मारा है। वह निहत्था है, तो उसने एक लकड़ी के बंडल से लकड़ी खींच कर तीर को मारी, वह तीर वापस लौट पड़ा और जाकर उसकी छाती में छिद गया। भागा हुआ गुरु आया, उसने छाती से तीर निकाला। और उसने कहा, यह एक और दांव रह गया था जो मैंने तुझे नहीं बताया था; क्योंकि प्रतियोगी शिष्य हमेशा खतरनाक है, आखिर में वह गुरु की भी हत्या करना चाहता है। वह अनिवार्य है। प्रतियोगी कभी शिष्य नहीं हो सकता है! तुझसे मैं डरा था और जानता था कि आज नहीं कल तू मुझे मार ही डालेगा। लेकिन आज वह भी बता दिया। और अब तू मुझे मरा समझ; अब मारने की कोई जरूरत नहीं, मैं हूं ही नहीं। मैं तेरी कोई प्रतियोगिता में नहीं हूं। लेकिन ध्यान रखना, मेरा गुरु अभी जिंदा है! और उसके सामने मैं कुछ भी नहीं हूं। बहुत सीखा, थक गया, फिर वापस लौट आया। क्योंकि वहां तो सीखने को सदा शेष है। सोच कर गया था कि कभी पूरा सीख लूंगा; फिर जितना-जितना सीखने लगा उतना-उतना पता चला कि अनसीखा ज्यादा है। तब थक गया--यह कब तक करता रहूंगा? फिर मैं वापस लौट आया। मैं थक कर लौट आया हूं। दूसरा किनारा मैंने नहीं पाया था। वह आदमी अभी जिंदा है। अच्छा हो तू उसके दर्शन कर ले।
तो कहां है वह आदमी?
उसने कहा, उसे खोजना पड़ेगा और ऊपर पहाड़ों पर। पता नहीं वह अब बचा भी है कि नहीं बचा, क्योंकि वह अकेला रहता है।
क्योंकि ऊंचाइयां हैं कुछ जहां आदमी अकेला ही रह सकता है; सिर्फ नीचाइयों पर हम साथ रह सकते हैं। इसलिए जितनी नीचाई पर रहेंगे, उतने ज्यादा लोग साथ होंगे। जितनी ऊंचाई पर होंगे, उतने अकेले होने लगेंगे। और एक ऊंचाई है जहां बिलकुल टोटल लोनलीनेस है, जहां बिलकुल अकेले हो जाएंगे।
तो अकेला है वह। पर खोजो, शायद मिल जाए। वह गया उसे देखने। बहुत मुश्किल से खोज कर, एक ऊंचे पहाड़ पर, जहां हजारों फिट लंबी एक सीधी चट्टान है, एक बूढ़ा आदमी खड़ा है जिसकी कमर झुकी है। वही एक आदमी मिला। और उससे पूछा कि आप ही तो वे धनुर्धर नहीं हैं जिनकी चर्चा सुन कर मैं आया हूं? उसने आंखें ऊपर उठाईं और उसने कहा, तुम कौन हो? और यहां कैसे आए? क्योंकि इन ऊंचाइयों पर कोई आता ही नहीं। उसने कहा, मैं भी एक धनुर्धर हूं। धनुष-बाण टांगे हुए था तो वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, अगर धनुर्धर हो तो धनुष-बाण की क्या जरूरत है? यह तो जब सीखते हैं तब काम के होते हैं।
बूढ़े ने कहा कि जब संगीतज्ञ कुशल हो जाता है तो वीणा तोड़ देता है। क्योंकि वीणा तो सिर्फ स्वर की साधना है। अंतिम संगीत तो स्वर-शून्य है, वहां वीणा की कोई जरूरत नहीं रह जाती। अंततः यह तो साधन था, जो एक जगह बाधा बन जाएगा। उस बूढ़े ने कहा कि वीणा, जो कि संगीत में पहले साधक है, अंततः बाधक हो जाएगी। क्योंकि वह भी डिस्टरबेंस पैदा करती है। वह भी तो स्वर का आघात पैदा करती है। वह भी तो संगीत को तोड़ती है। वीणा जो शुरू में संगीत की सहयोगी है, अंततः संगीत में बाधा बन जाएगी। क्योंकि अंतिम संगीत तो बिलकुल स्वर-शून्य है।
तो जब धनुर्धर पूरा धनुर्धर हो जाता है तो धनुष-बाण फेंक देता है, उसकी कोई जरूरत नहीं रह जाती। धनुष तुम रखे हो, तुम अभी बच्चे हो, सीखते होंगे, धनुर्धर कहते हो अपने को!
उसने कहा, यह तो बड़ी मुश्किल है। आप कहते हैं तो ठीक मालूम होता है। लेकिन बिना धनुष-बाण के फिर धनुर्धर करेगा भी क्या?
उस बूढ़े ने कहा कि तुम, मैं जहां खड़ा हूं, जरा मेरे पास सरक आओ। वहां हजार फिट लंबी गङ्ढ है और उसके किनारे वह कमर झुका बूढ़ा खड़ा है, और वह आगे सरक गया है और उसके पंजे का आगे का हिस्सा गङ्ढ में निकल गया है। उसकी कमर झुकी है, वह उस गङ्ढे पर खड़ा है, जहां जरा सी भी सांस छूटी...। वह इससे कहता है, आओ, और पास आ जाओ। यह चार फिट दूर से कहता है, और पास मैं नहीं आ सकता, मेरा शरीर कंपता है। उस बूढ़े ने कहा, जिसका मन और शरीर अभी कंपता है, उसका निशाना पूरा कैसे हो सकता है! क्योंकि निशाना चूकता क्यों है? इधर हम कंप जाते हैं, उधर वह चूक जाता है। और जब तक निशाना चूकता है, तब तक धनुष-बाण की जरूरत है। और जब इतना अकंप चित्त हो जाता है...तो उस बूढ़े ने ऐसा हाथ उठाया और सामने उड़ते हुए पक्षियों की एक कतार नीचे गिर गई। अकंप चित्त अगर चाहे तो हो जाता है। उस बूढ़े ने कहा, अकंप चित्त चाहे कि गिर जाओ, तो कौन है इनकार करने को! हम ही कंप जाते हैं इसलिए कट जाता है। नहीं तो कोई कारण नहीं है।
वह उस बूढ़े के पास से वापस लौटा। सम्राट को जाकर उसने कहा कि सम्हालो यह धनुष-बाण। न हमें कोई प्रतियोगिता करनी है और न हम धनुर्धर हैं। हम देख कर आए हैं धनुर्धरों को, जिनके पास धनुष भी नहीं हैं, बाण भी नहीं हैं। लेकिन उनके पास ही जाकर पता चला है कि धनुर्विद्या क्या है।
सारी विद्याएं, ठीक अल्टीमेट अर्थों में, अपने से उलटे की आकांक्षा हैं। संगीत अंततः स्वर-शून्यता की आकांक्षा है। यह समझौता है हमारा बीच में कि हम स्वर-शून्यता पैदा नहीं कर सकते, इसलिए स्वर-संबद्धता पैदा करते हैं।
एक जर्मन संगीतज्ञ था, वेजनर। उससे किसी ने पूछा कि क्या कहते हो संगीत को? तो उसने कहा, लीस्ट अग्ली नॉइज। सबसे कम, सबसे कम कुरूप आवाज। वैसे है तो कुरूप, है तो आवाज, बाकी सबसे कम कुरूप है, कम से कम कुरूप है। आखिरी जगह पर, जहां हमको आवाज करनी ही है, तो फिर संगीत करना है। आवाज ही छोड़ देनी है, फिर संगीत नहीं।
और प्रयोजन इतना ही है कि हम बाहर ऐसी आवाज कर सकें कि भीतर वह जो गैर-आवाज है वह प्रतिध्वनित हो जाए। और जब भी कभी, कभी भी जब आप आनंदित हो जाते हैं, एक गीत सुन कर, वीणा सुन कर, तो आप बहुत हैरान होंगे कि आपके आनंद का सारा राज इतना है कुल--आनंद वीणा से नहीं आता है, वीणा का स्वर-संघात आपको शून्य कर देता है, आनंद भीतर से शून्य में उमड़ आता है।
आनंद सदा भीतर से आता है। सिर्फ वैक्यूम बीच में वीणा पैदा कर देती है। और किसी भी ढंग से वैक्यूम पैदा हो जाए माइंड में, भीतर से चीजें भरने को तैयार हैं, वे दौड़ कर भर जाती हैं।
उस दिशा में कि कैसे संगीत ध्यान बन सके अधिकतम लोगों के जीवन में, उस दिशा में बहुत सोचने जैसा है।
कभी अगली बार बैठ कर बात करेंगे। अभी तो चलना पड़ेगा। अच्छी बात है।
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